जुलाई 2015 में पाटीदारों की रैली को याद कीजिये। पहले सूरत फिर अहमदाबाद । लाखों लाख लोग। आरक्षण को लेकर सड़क पर उतरे लाखों पाटीदारों को देखकर किसी ने तब सोचा नहीं था कि 2017 के चुनाव की बिसात तले इन्हीं रौलियों से निकले युवा राजनीति का नया ककहरा गढेंगे। और जिस तरह सत्ता की बरसती लाठियों से भी युवा पाटीदार झुका नहीं और अब चुनाव में गांव गांव घूमकर रैली पर बरसाये गये डंडे और गोलियों को दिखा रहा है। तो कह सकते हैं आग उसके सीने में आज भी जल रही है और उसे बुझना देना वह चाहता नहीं है।
दरअसल पाटीदारो के इस आंदोलन ने ही दलितों को आवाज दी और बेरोजगारी से लेकर शराब के अवैध धंधो को चलाने के खिलाफ उठती आवाज को जमीन मिली। तो कल्पेश या जिगनेश भी यूं ही नहीं निकले। कहीं ना कहीं हर तबके के युवा के बीच की उनकी अपनी जरुत जो पैसो पर आ टिकी। मुश्किल हालात में युवा के पास ना रोजगार है। ना ही सस्ती शिक्षा। ना ही व्यापार के हालात और ना ही कोई उन्हें सुनने को तैयार है तो राजनीतिक खांचे में बंटे ओबीसी , दलित, मुस्लिम हर तबके के युवाओ में हिम्मत आ गई है। तो आंदोलन की तर्ज पर चुनाव में कूदने की जो तैयारी गुजरात में युवा तबका कर रहा है। वह शायद इतिहास बना रहा है या इतिहास बदल रहा है। या पिर इतिहास दोहरा रहा । क्योंकि गुजात में छात्र आंदोलन को लेकर पन्नों को पलटिये तो आपके जहन में दिसंबर 1973 गूंजेगा। तब गुजरात के छात्रों ने ही जेपी की अगुवाई में आंदोलन की ऐसी शुरुआत की दिल्ली भी थर थर कांप उठी थी। तब करप्शन का जिक्र था। महंगाई की बात थी। भाई भतीजावाद की गूज थी। और तब अहमदाबाद के एलडी इंजीनियरिंग कालेज के छात्र सडक पर निकले थे। वह इसलिये निकले थे क्योंकि इंदिरा गांधी ने चुनाव के लिये गुजरात के सीएम चिमनभाई से 10 लाख रुपये मांगे थे। चिमनबाई ने मूंगफली तेल के व्यापारियों से 10 लाख रुपये वसूले थे। तेल व्यापारियो ने तेल की कीमत बढ़ा दी थी। छात्रों में गुस्सा तब पनपा जब अहमदाबाद के एलडी इंजिनियरिंग कालेज के छात्रोंवासों में कीमतें बढ़ा दी गई। तो क्या 1974 के बाद 2017 में छात्र सत्ता को ही चुनौती देने निकले है। और हालात कुछ ऐसे उलट चुके है कि तब कांग्रेस के चिमनबाई पटेल की सरकार के खिलाफ छात्रों में गुस्सा था। अब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ हार्दिक, अल्पेश, जिग्नेश खड़े दिखायी दे रहे है। उस दौर में गुजरात के छात्र कालेजों से निकल कर नारे लगा रहे थे " हर बार विद्यार्थी जीता है, इस बार विद्यार्थी जीतेगा"। लेन मौजूदा वक्त में छात्रों के सामने शिक्षा के प्राइवेटाइजेशन की एसी हवा बहा दी जा चुकी है कि छात्र टूटे हुये है। तो क्या छात्रो के भीतर का असंतोष ही गुजरात में हर आंदोलन को हवा दे रहा है। और कांग्रेस को इसका लाभ मिल रहा है। इसीलिये राहुल गांधी 70 से 90 युवाओं को टिकट देने को तैयार है। हार्दिक, जिग्नेश और कल्पेश के साथी आंदोलनकारियों को 50 से ज्यादा टिकट देने को तैयार हैं। यानी चार दशक बाद गुजरात का युवा फिर संघर्ष की राह पर है। अंतर सिर्फ इतना है कि 1974 में निशाने पर कांग्रेस थी। 2017 में निशाने पर बीजेपी है। लेकिन छात्र तो सत्ता के खिलाफ हैं।
पर गुजरात की इस राजनीति की धारा क्या वाकई 2019 की दिशा में बहेगी और क्या जेएनयू से लेकर हैदराबाद या पुणे से लेकर जाधवपुर यूनिवर्सिटी के भीतर उठते सवाल राजनीति गढने के लिये बाहर निकल पड़ेंगे। क्योंकि 1974 में भी चिमनभाई की सरकार हारी तो बिहार में नारे लगने लगे, गुजरात की जीत हमारी है, अब बिहार की बारी है। पर सियासत तो इस दौर में ऐसी पलट चुकी है कि बिहार जीत कर भी विपक्ष हार गया और बीजेपी हार कर भी सत्ता में आ गई । लेकिन गुजरात माडल के आईने में अगर देश की सियासत को ही समझे तो मोदी ऐसा चेहरा जिनके सामने बाजेपी का कद छोटा है । संघ लापता सा हो चला है । ऐसे में तीन चेहरे । हार्दिक पटेल । जिगनेश भिवानी । अल्पेश ठकौर । तीनो की बिसात । और 2017 को लेकर बिछाई है ऐसी चौसर जिसमें 2002 । 2007 । 2012 । के चुनाव में करीब 45 से 50 फिसदी तक वोट पाने वाली बीजेपी के पसीने निकल रहे है । यानी जिस मोदी के दौर में हार्दिक जवान हुये । जिगनेश और अल्पेश ने राजनीति का ककहरा पढा । वही तीनो 2017 में ऐसी राजनीति इबारत लिख रहे है । जहा पहली बार खरीद फरोख्त के आरोप बीजेपी पर लग रहे है ।
तो हवा इतनी बदल रही है कि राहुल गांधी भी अल्पेश ठकौर को काग्रेस में शामिल कर मंच पर बगल में बैठाने पर मजबूर है । गुपचुप तरीके से हार्दिक पटेल से मिलने को मजबूर है । चुनाव की तारिीखो के एलान के बाद जिग्नेश से भी हर समझौते के लिये तैयार है । यानी बीजेपी-काग्रेस दोनो इस तिकडी के सामने नतमस्तक है । ओबीसी-दलित-पाटिदार नये चुनावी समीकरण के साथ हर समीकरण बदलने को तैयार है । 18 से 35 बरस के डेढ करोड युवा अपनी शर्तो पर राजनीति को चलाना चाहते है ।तो क्या गुजरात बदल रहा है या नया इतिहास लिखने जा रहा है । क्योकि पटिदार समाज बीजेपी का पारपरिक वोट बैक रहा है । अल्पेश ठकोर के पिता खोडाजी ठाकोर काग्रेस में आने से पहले संघ से जुडे रहे है ।दलित समाज खुद को ठगा हुआ महसूस करता रहा । यानी चेहरे के आसरे अगर राजनीति होती है तो फिर समझना होगा 2002 से 2012 तक मोदी अपने बूते चुनाव जीतते रहे । दिल्ली से बीजेपी नेता के प्रचार की जरुरत कभी मोदी को गुजरात में नहीं पडी । तो मोदी के बाद बीजेपी का कोई ऐसा चेहरा भी नहीं बना जिसके आसरे बीजेपी चल सके । और अब मोदी दिल्ली में है और चेहरा खोजती गुजरात की राजनीति में कोई चेहरा काग्रेस के पास बी नहीं है । ऐसे में इन तीन चेहरे यानी हार्दिक पटेल । जिगनेश भिवानी। अल्पेश ठाकौर। ये सिर्फ चेहरे भर नहीं है बल्कि उनके साथ जुड़ा वही वोट बैंक है, जिस पर कभी बीजेपी काबिज रही। खासकर 54 फिसदी ओबीसी।18 फिसदी पाटीदार। पहली बार 7 फिसदी दलित भी उभर कर सामने है। तो क्या गुजरात चुनाव वोट बैंक के मिथ को भी तोड़ रहा है और युवाओं को आंदोलन की तर्ज पर राजनीति करने को भी ढकेल रहा है। यानी गुजरात के परिमाम सिर्फ 2019 को प्रबावित ही नहीं करेंगे बल्कि मान कर चलिये 2019 की चुनावी राजनीति सड़क से शुरु होगी। और जनता कोई ना कोई नेता खोज भी लेगी।
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