Friday, October 27, 2017

गैर बराबरी की रोटी पर बराबरी का वोट ही है लोकतंत्र ?

जो 60 साल में नहीं हुआ वह 60 महीने में होगा। कुछ इसी उम्मीद के आसरे मई 2014 की शुरुआत हुई थी। और 40 महीने बीतने के बाद अक्टूबर 2017 में राहुल गांधी गुजरात को जब चुनावी तौर पर नाप रहे हैं तो अंदाज वही है जो  2013-14 में मोदी का था। तो क्या इसी उम्मीद के आसरे गुजरात में दिसंबर 2017 की शुरुआत होगी, जैसे 2014 मई में मोदी सरकार की शुरुआत हुई थी। तो फिर भारत कितना बदल चुका है। बदल रहा है या अब न्यू इंडिया के नारे  तले युवा भारत स्वर्णिम भविष्य देख रहा है। यानी हर चुनावी दौर में सत्ता के खिलाफ विपक्ष का नारा चाहे अनचाहे फैज की नज्म याद करा ही देता है ..सब ताज उछाले जाएंगे...सब तख्त गिराए जाएंगे..हम देखेंगे। तो क्या  विरोध और विद्रोह की ये अवाज चुनाव के वक्त अच्छी लगती है। क्योंकि सत्ता से उम्मीद खत्म होती है तो विपक्ष जनता बनकर सत्ता पर काबिज होने की मश्क्कत करती है। और चुनाव प्रक्रिया लोकतंत्र का राग बाखूबी जी लेती है। तो क्या चुनाव सत्ता-सियासत -राजनीति से खत्म होती जनता की उम्मीदों को बरकरार रखने का एक तरीका मात्र है। संसद से भरोसा ना डिगे। लोकतंत्र काराग बरकरार रहे। ये सारे सवाल इसलिये क्योकि श्रम व रोजगार मंत्रालय की  2016 की रिपोर्ट कहती है देश में 4,85,00,000 युवा बेरोजगार हैं। बेरोजगारी दर 12.90 फिसदी हो चुकी है। देश में सिर्फ 2,96,50,000 लोगों के पास रोजगार है। 9,26,76,000 किसान परिवारों की आय देश की औसत आय से  आधी से भी कम है। 11,90,98.000 मजदूर परिवारों की आय किसानो की औसत आय के आधे से कम है। यानी कौन सा भारत किस चुनावी उम्मीद और आस के साथ बनाया  जा रहा है। ये सवाल हर चुनाव को जीने के बाद देश के सामने कहीं ज्यादा बड़ा क्यों हो जाता है। जबकि चुनावी लोकतंत्र का अनूठा सच तो यही है कि हर  पांच बरस में देश और गरीब होता है। नेता रईस होते हैं। चुनावी खर्च बढ़ते चले जाता है। राजनीतिक पार्टियों का खजाना भरता चला जाता है।

यानी दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोगों के देश में चुनाव पर सबसे ज्यादा रईसी के साथ खर्च कैसे किया जाता है और देश ही राजनीतिक सत्ता की हथेलियों पर नाचता हुआ दिखायी क्यों देता है जरा इसे चुनाव आयोग के अपने आंकडों से ही समझ लें। देश के पहले आम चुनाव 1951-52 में 10 करोड 45 लाख रुपये खर्च हुये। आर्थिक सुधार से एन पहले 1991 के आम चुनाव में 3 अरब 59 करोड 10 लाख रुपये खर्च हुये। 2004 के चुनाव में 13 अरब 20 करोड 55 लाख रुपयेखर्च हुये। और पिछले चुनाव यानी 2014 के चुनाव में 34 अरब 26 करोड 10 लाख रुपये खर्च हुये। यानी ये कल्पना के परे है कि देश की इक्नामी  में जितना उछाल आया। लोगों की आय में जितनी बढोतरी हुई। मजदूर-किसान को दो जून की रोटी के लिये जितना मिला, उससे हजार से कई लाख गुना ज्यादा की बढोतरी देश में चुनावी लोकतंत्र को जीने में खर्च हो गई। और इस तंत्र को  जीने के लिये अब हिमाचल और गुजरात तैयार हैं। जहां चुनाव कराने में जो भी खर्चा होगा उससे विकास की कितनी झडी लग जाती इस दिशा में ना भी सोचे तो भी 19 करोड भूखे नागरिको का पेट तो भरा ही जा सकता है । क्योंकि सिर्फ गुजरात में ही चुनाव कराने में ढाई अरब रुपये से ज्यादा देश के खर्च होगें । और चुनाव प्रचार में जब हर उम्मीदवार को 28 लाख रुपये खर्च करने इजाजत है तो दो अरब से ज्यादा सिर्फ उम्मीदवार अपने प्रचार में खपा देगें । क्योकि गुजरात की प्रति सीट पर अगर चार उम्मीदवारो के 28-28 लाख खर्च को जोडकर अगर चार उम्मीदवारो को ही माने तो एक करोड 12 लाख रुपये हो जाते है । और 182 सीट का मतलब है 2 अरब तीन करोड से ज्यादा ।

तो क्या वाकई चुनावी तंत्र इतना मजबूत हो चुका है कि वह लोकतंत्र पर हावी है या फिर लोकतंत्र के असल मिजाज को खारिज कर चुनाव को ही जानबूझ कर लोकतंत्र करार दिया गया है। क्योंकि सत्ता परिवर्तन की ताकत को ही लोकतंत्र मान लिया गया है। और बराबरी के वोट को ही गैर बराबरी की रोटी से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण मान लिया गया है ।

विकास की परिभाषा बदलने के लिये खड़ा हुआ है गुजरात का युवा

महंगी शिक्षा-बेरोजगारी के सवाल ने जातियों को एकजुट कर गुजरात चुनाव में बिछा दी है नई बिसात

गुजरात चुनाव में सड़कों पर अगर युवा नजर आने लगे हैं। तो उसके पीछे महज पाटीदार, दलित या ओबीसी आंदोलन नही है। और ना ही हार्दिक पटेल,अल्पेश या जिग्नेश के चेहरे भर है । दरअसल गुजरात का युवा जिस संकट से गुजर रहा है उसका सच महंगी शिक्षा और बेरोजगारी है। और छात्र-युवा के बीच के संकट को समझने के लिये पहले कालेजो की उस फेहरिस्त को समझें,जिसने गुजरात की समूची शिक्षा को ही निजी हाथों में सौंप दिया है। जिले दर जिले कालेज हो या यूनिवर्सिटी। टेक्निकल इस्टीट्यूट हो या फिर मेडिकल कालेज। कालेजों की समूची फेहरिस्त ही शिक्षा को इतना महंगा बना चुकी है कि गुजरात में हर परिवार के सामने दोहरा संकट है कि महंगी शिक्षा के साथ बच्चे पढ़ें। और पढ़ने के बाद नौकरी ही नहीं मिले। और गुजरात का सच ये है कि 91 डिप्लोमा कॉलेज प्राइवेट हैं। 21 में से 15 मेडिकल कालेज प्राइवेट है। दो दर्जन से ज्यादा यूनिवर्सिटी प्राइवेट है। और प्राइवेट कॉलेजो में शिक्षा महंगी कितनी ज्यादा है ये इससे भी समझा जा सकता है कि सरकारी कालेज में एक हजार रुपये सेमेस्टर तो निजी डिप्लोमा कालेज में 41 हजार रुपये प्रति सेमेस्टर फीस है। इसी तरह निजी मेडिकल कालेजों में पढ़ा कर अगर कोई गुजराती अपने बच्चे को डाक्टर बनाना चाहता है तो उसे करोड़पति तो होना ही होगा। क्योंकि अंतर खासा है । मसलन सरकारी मेडिकल  कालेज में 6 हजार रुपये सेमेस्टर फीस है । तो निजी मेडिकल कालेज में 3 से 6 लाख 38 हजार रुपये सेमेस्टर फीस है । और गुजरात के सरकारी मेडिकल कालेजो में 1080 छात्र तो निजी मेडिकल कालेज में 2300 छात्र पढाई कर रहे है । यानी  मुस्किल सिर्फ इतनी नहीं है कि पढाई मंहगी हो चली है । फिर भी मां बाप बच्चो को पढा रहे है । मुश्किल तो ये भी है मंहगी पढाई के बाद रोजगार ही नहीं है । हालात कितने बदतर है ये इससे भी समझा जा सकता है कि  प्राईवेट इंजीनियरिंग कालेजों में 25 से 30 हजार सीट खाली हैं । खाली इसलिये हैं क्योंकि डिग्री के बाद भी रोजगार नहीं है । सरकार का ही आंकडा कहता है कि 2014-15 में 20 लाख युवा रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं ।

तो गुजरात की चुनावी राजनीति में ऊपर से हार्दिक पटेल , जिगनेश या अल्पेश के जरीये जातियों में बंटी राजनीति नजर आ सकती है लेकिन गुजरात के राजनीतिक इतिहास में ये भी पहली बार है कि जातियों में राजनीति बंट नहीं रही है बल्कि जातियों में बंटा समाज विकास के नाम पर  ही एकजुट हो रहा है । यानी विकास का जो सवाल गुजरात जाकर मोदी उठा रहे हैं । विकास के इसी सवाल को गुजराती भी उठा रहा है । यानी सवाल कांग्रेस की राजनीति का नहीं बल्कि गुजरात के विकास मॉडल का है, जहां हर परिवार के सामने संकट बीतते वक्त के साथ गहरा रहा है । तो विकास के नाम पर गुजरात के चुनाव में विकास का बुलबुला इसलीलिये फूट रहा है क्योंकि एक तरफ गुजरात के रजिस्ट्रड बेरोजगारो की तादाद  बीते 15 बरस में  20 लाख बढ़ गई । और दूसरी तरफ मनरेगा के तहत जाब कार्ड ना मिल पाने वालों की तादाद 31 लाख 65 हजार की है । और यही वह सवाल है जो विकास को लेकर मंच से जमीन तक पर गूंज रहा है । यानी राहुल गांधी कहते हैं कि विकास पगल हो गया है तो मोदी जवाब देते है कि मैं ही विकास हूं। यकीनन लड़ाई विकास को लेकर ही है । क्योंकि विकास के दायरे में अगर रोजगार नहीं है तो फिर छात्र-युवा और मनरेगा के बेरोजगारो के सामने संकट तो है । दरअसल 2016-17 का ही गुजरात का मनरेगा का आंकडा कहता है 3,47,000 लोगों ने मनरेगा जाब कार्ड के लिये अप्लाई किया और उसमें से सिर्फ 1,35, 000 लोगों को जाब कार्ड मिला । और जिन 39 फीसदी लोगों को मनरेगा के तहत काम भी मिला तो वह भी सिर्फ 19 दिनों का ही मिला ।

यानी काम 100 दिनों का देने की स्थिति में भी सरकार नहीं है । और मनरेगा के तहत ही बीते दस बरस में  38,45,000 में से 6,80,000 लोगों को ही काम मिला ।यानी रोजगार का संकट सिर्फ शहरों तक सीमित है ऐसा भी नहीं । मुश्किल ग्रामीण इलाको में कही ज्यादा है। और अगर विकास का कोई मंत्र रोजगार ही दिला पाने में सत्रम हो नहीं पाया है तो समझना गुजरात के उस समाज को भी होगा जहा कमोवेश हर तबका पढाई करता है । दलितों में भी 70 फिसदी साक्षरता है । पर शिक्षा कैसे महंगी होती चली गई और कैसे काम किसी के पास बच नहीं रहा है ये इससे भी समझा जा सकता है 60 फिसदी से ज्यादा बच्चे 12 वी से पहले ही पढाई छोड देते है । मसलन , 2006 में 15,83,000 बच्चो ने पहली में दाखिला लिया । 2017 में 11,80,000 छात्र दसवी की परिक्षा में बैठे । यानी करीब 4 लाख बच्चे दसवीं की पढाई तक पढ नहीं सके । और --मार्च 2017 में 12वी की परिक्षा  5,30,000 बच्चों ने दी । यानी हायर एजडूकेशन तक भी साढे छह लाख बच्चों ने पढाई छोड़ दी । तो गुजरात चुनाव का ये रास्ता ऐसे मोड़ पर जा खडा हुआ है जहां पहली बार जातियों में टकराव नहीं है । विकास की मोदी परिभाषा के सामानांतर हर गुजराती विकास की परिभाषा को अपनी मुश्किलो को खत्म करने से जोडना चाह रहा है । और ये हालात गुजरात में अगर राजनीतिक तौर पर कोई नया परिमाम देते है तो मान कर चलिये 2019 का रास्ता भी उस इकनामी से टकरायेगा जहां जाति - धर्म में बांटने वाली राजनीति नहीं चलेगी और जन समस्या एकजुट होकर नया रास्ता निकालेगी । 

Thursday, October 26, 2017

1974 में गुजरात के छात्र थे, 2017 में गुजरात का युवा है

जुलाई 2015 में पाटीदारों की रैली को याद कीजिये। पहले सूरत फिर अहमदाबाद । लाखों लाख लोग। आरक्षण को लेकर सड़क पर उतरे लाखों पाटीदारों को देखकर किसी ने तब सोचा नहीं था कि 2017 के चुनाव की बिसात तले इन्हीं रौलियों से निकले युवा राजनीति का नया ककहरा गढेंगे। और जिस तरह सत्ता की बरसती लाठियों से भी युवा पाटीदार झुका नहीं और अब चुनाव में गांव गांव घूमकर रैली पर बरसाये गये डंडे और गोलियों को दिखा रहा है। तो कह सकते हैं आग उसके सीने में आज भी जल रही है और उसे बुझना देना वह चाहता नहीं है। दरअसल पाटीदारो के इस आंदोलन ने ही दलितों को आवाज दी और बेरोजगारी से लेकर शराब के अवैध धंधो को चलाने के खिलाफ उठती आवाज को जमीन मिली। तो कल्पेश या जिगनेश भी यूं ही नहीं निकले। कहीं ना कहीं हर तबके के युवा के बीच की उनकी अपनी जरुत जो पैसो पर आ टिकी। मुश्किल हालात में युवा के पास ना रोजगार है। ना ही सस्ती शिक्षा। ना ही व्यापार के हालात और ना ही कोई उन्हें सुनने को तैयार है तो राजनीतिक खांचे में बंटे ओबीसी , दलित, मुस्लिम हर तबके के युवाओ में हिम्मत आ गई है। तो आंदोलन की तर्ज पर चुनाव में कूदने की जो तैयारी गुजरात में युवा तबका कर रहा है। वह शायद इतिहास बना रहा है या इतिहास बदल रहा है। या पिर इतिहास दोहरा रहा । क्योंकि गुजात में छात्र आंदोलन को लेकर पन्नों को पलटिये तो आपके जहन में दिसंबर 1973 गूंजेगा। तब गुजरात के छात्रों ने ही जेपी की अगुवाई में आंदोलन की ऐसी शुरुआत की दिल्ली भी थर थर कांप उठी थी। तब करप्शन का जिक्र था। महंगाई की बात थी। भाई भतीजावाद की गूज थी। और तब अहमदाबाद के एलडी इंजीनियरिंग कालेज के छात्र सडक पर निकले थे। वह इसलिये निकले थे क्योंकि इंदिरा गांधी ने चुनाव के लिये गुजरात के सीएम चिमनभाई से 10 लाख रुपये मांगे थे। चिमनबाई ने मूंगफली तेल के व्यापारियों से 10 लाख रुपये वसूले थे। तेल व्यापारियो ने तेल की कीमत बढ़ा दी थी। छात्रों में गुस्सा तब पनपा जब अहमदाबाद के एलडी इंजिनियरिंग कालेज के छात्रोंवासों में कीमतें बढ़ा दी गई। तो क्या 1974 के बाद 2017 में छात्र सत्ता को ही चुनौती देने निकले है। और हालात कुछ ऐसे उलट चुके है कि तब कांग्रेस के चिमनबाई पटेल की सरकार के खिलाफ छात्रों में गुस्सा था। अब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ हार्दिक, अल्पेश, जिग्नेश खड़े दिखायी दे रहे है। उस दौर में गुजरात के छात्र कालेजों से निकल कर नारे लगा रहे थे " हर बार विद्यार्थी जीता है, इस बार विद्यार्थी जीतेगा"। लेन मौजूदा वक्त में छात्रों के सामने शिक्षा के प्राइवेटाइजेशन की एसी हवा बहा दी जा चुकी है कि छात्र टूटे हुये है। तो क्या छात्रो के भीतर का असंतोष ही गुजरात में हर आंदोलन को हवा दे रहा है। और कांग्रेस को इसका लाभ मिल रहा है। इसीलिये राहुल गांधी 70 से 90 युवाओं को टिकट देने को तैयार है। हार्दिक, जिग्नेश और कल्पेश के साथी आंदोलनकारियों को 50 से ज्यादा टिकट देने को तैयार हैं। यानी चार दशक बाद गुजरात का युवा फिर संघर्ष की राह पर है। अंतर सिर्फ इतना है कि 1974 में निशाने पर कांग्रेस थी। 2017 में निशाने पर बीजेपी है। लेकिन छात्र तो सत्ता के खिलाफ हैं। पर गुजरात की इस राजनीति की धारा क्या वाकई 2019 की दिशा में बहेगी और क्या जेएनयू से लेकर हैदराबाद या पुणे से लेकर जाधवपुर यूनिवर्सिटी के भीतर उठते सवाल राजनीति गढने के लिये बाहर निकल पड़ेंगे। क्योंकि 1974 में भी चिमनभाई की सरकार हारी तो बिहार में नारे लगने लगे, गुजरात की जीत हमारी है, अब बिहार की बारी है। पर सियासत तो इस दौर में ऐसी पलट चुकी है कि बिहार जीत कर भी विपक्ष हार गया और बीजेपी हार कर भी सत्ता में आ गई । लेकिन गुजरात माडल के आईने में अगर देश की सियासत को ही समझे तो मोदी ऐसा चेहरा जिनके सामने बाजेपी का कद छोटा है । संघ लापता सा हो चला है । ऐसे में तीन चेहरे । हार्दिक पटेल । जिगनेश भिवानी । अल्पेश ठकौर । तीनो की बिसात । और 2017 को लेकर बिछाई है ऐसी चौसर जिसमें 2002 । 2007 । 2012 । के चुनाव में करीब 45 से 50 फिसदी तक वोट पाने वाली बीजेपी के पसीने निकल रहे है । यानी जिस मोदी के दौर में हार्दिक जवान हुये । जिगनेश और अल्पेश ने राजनीति का ककहरा पढा । वही तीनो 2017 में ऐसी राजनीति इबारत लिख रहे है । जहा पहली बार खरीद फरोख्त के आरोप बीजेपी पर लग रहे है । तो हवा इतनी बदल रही है कि राहुल गांधी भी अल्पेश ठकौर को काग्रेस में शामिल कर मंच पर बगल में बैठाने पर मजबूर है । गुपचुप तरीके से हार्दिक पटेल से मिलने को मजबूर है । चुनाव की तारिीखो के एलान के बाद जिग्नेश से भी हर समझौते के लिये तैयार है । यानी बीजेपी-काग्रेस दोनो इस तिकडी के सामने नतमस्तक है । ओबीसी-दलित-पाटिदार नये चुनावी समीकरण के साथ हर समीकरण बदलने को तैयार है । 18 से 35 बरस के डेढ करोड युवा अपनी शर्तो पर राजनीति को चलाना चाहते है ।तो क्या गुजरात बदल रहा है या नया इतिहास लिखने जा रहा है । क्योकि पटिदार समाज बीजेपी का पारपरिक वोट बैक रहा है । अल्पेश ठकोर के पिता खोडाजी ठाकोर काग्रेस में आने से पहले संघ से जुडे रहे है ।दलित समाज खुद को ठगा हुआ महसूस करता रहा । यानी चेहरे के आसरे अगर राजनीति होती है तो फिर समझना होगा 2002 से 2012 तक मोदी अपने बूते चुनाव जीतते रहे । दिल्ली से बीजेपी नेता के प्रचार की जरुरत कभी मोदी को गुजरात में नहीं पडी । तो मोदी के बाद बीजेपी का कोई ऐसा चेहरा भी नहीं बना जिसके आसरे बीजेपी चल सके । और अब मोदी दिल्ली में है और चेहरा खोजती गुजरात की राजनीति में कोई चेहरा काग्रेस के पास बी नहीं है । ऐसे में इन तीन चेहरे यानी हार्दिक पटेल । जिगनेश भिवानी। अल्पेश ठाकौर। ये सिर्फ चेहरे भर नहीं है बल्कि उनके साथ जुड़ा वही वोट बैंक है, जिस पर कभी बीजेपी काबिज रही। खासकर 54 फिसदी ओबीसी।18 फिसदी पाटीदार। पहली बार 7 फिसदी दलित भी उभर कर सामने है। तो क्या गुजरात चुनाव वोट बैंक के मिथ को भी तोड़ रहा है और युवाओं को आंदोलन की तर्ज पर राजनीति करने को भी ढकेल रहा है। यानी गुजरात के परिमाम सिर्फ 2019 को प्रबावित ही नहीं करेंगे बल्कि मान कर चलिये 2019 की चुनावी राजनीति सड़क से शुरु होगी। और जनता कोई ना कोई नेता खोज भी लेगी।

Friday, October 20, 2017

राजधर्म के रास्ते पर भटक तो नहीं गये मोदी-योगी ?

धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म । यूं तो ये कथन लोहिया का है । पर मौजूदा सियासत जिस राजधर्म पर चल पड़ी है, उसमें कह सकते है कि बीते 25 बरस की राजनीति में राम मंदिर का निर्माण ना होना धर्म की दीर्घकालीन राजनीति है । या फिर मंदिर मंदिर सीएम पीएम ही नहीं अब तो राहुल गांधी भी मस्तक पर लाल टिका लगाकर चुनाव प्रचार कर रहे हैं तो राजनीति अल्पकालीन धर्म है । या फिर पहली बार भारतीय राजनीति हिन्दुत्व के चोगे तले सत्ता पाने या बनाये रखने के ऐसे दौर में पहुंच चुकी है, जहां सिर्फ मंदिर है । यानी धर्म को बांटने की नहीं धर्म को सहेजकर साथ खड़ा होकर खुद को धार्मिक बताने की जरुरत ही हिन्दुत्व है । क्योंकि पहली बार राजधर्म गिरजाधर हो या गुरुद्वारा या फिर मस्जिद पर नहीं टिका है । यानी हिन्दु मुस्लिम के बीच लकीर खिंचने की जरुरत अब नहीं है । बल्कि हिन्दू संस्कृति से कौन कितने करीब से जुड़ा है राजनीति का अल्पकालीन धर्म इसे ही परिभाषित करने पर जा टिका है । इसलिये जिस गुजरात में अटल बिहारी वाजपेयी मोदी की सत्ता को राजधर्म का पाठ पढ़ा रहे थे । उसी गुजरात में राहुल गांधी को अब मंदिर मंदिर जाना पड़ रहा है । तो क्या हिन्दुत्व की गुजरात प्रयोगशाला राजनीतिक मिजाज इतना बदल चुका है कि मंदिर ही धर्म है । मंदिर ही सियासत ।

यानी नई राजनीतिक चुनावी लड़ाई हिन्दू वोट बैंक में साफ्ट-हार्ड हिन्दुत्व के आसरे सेंध लगाने की है । या फिर जाति-संप्रदाय की राजनीति पर लगाम लगती धर्म की राजनीति को नये सिरे से परिभाषित करने की कोशिश । क्योकि यूपी ने 1992 में राममंदिर के नाम पर जिस उबाल को देखा । और हिन्दु-मुस्लिम बंट गये । और 25 बरस बाद अयोध्या में ही जब बिना राम मंदिर निर्माण दीपावली मनी तो खटास कहीं थी । बल्कि समूचे पूर्वाचल में हर्षोउल्लास था । तो क्या हिन्दुत्व की राजनीतिक प्रयोगशाला में सियासत का ये नया घोल है जहा हिन्दु मुस्लिम के बीच लकीर खिंचने से आगे हिन्दुत्व की बडी लकीर खिंच कर सियासत को मंदिर की उस चौखट पर ले आया गया है जहा सुप्रीम कोर्ट का हिन्दुत्व को लेकर 1995 की थ्योरी फिट बैठती है पर 2017 की थ्योरी फिट नहीं बैठती। क्योंकि याद कीजिये सुप्रीम कोर्ट में जब हिन्दु धर्म और राजनीति में धर्म के प्रयोग को लेकर मामला पहुंचा तो दिसबर 1995 में जस्टिस वर्मा ने कहा , ' हिंदुत्व शब्द भारत यों की जीवन शैली की ओर इंगित करता है। इसे सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं किया जा सकता। " और याद किजिये 22 बरस बाद जब एक बार पिर सुप्रीम कोर्ट में चुनाव प्रचार में धर्म के प्रयोग को लेकर मामला पहुंचा तो सात सदस्यीय संविधान पीठ ने 1995 की परिभाषा से इतर कहा , "धर्म इंसान और भगवान के बीच का निजी रिश्ता है और न सिर्फ सरकार को बल्कि सरकार बनाने की समूची प्रक्रिया को भी इससे अलग रखा जाना चाहिए। " तो सुप्रीम कोर्ट ने राजसत्ता के मद्देनजर धर्म की जो व्याख्या 1995 में की कमोवेश उससे इतर 22 बरस बाद 2017 में परिभाषित किया । पर 1995 के फैसले का असर अयोध्या में बीजेपी दिखा नहीं सकी । और जनवरी 2017 के पैसले के खिलाफ पहले यूपी में तो अब गुजरात के चुनावी प्रचार में हर नजारा उभर रहा है ।

और संयोग ऐसा है कि गुरात हो या अयोध्या । दोनो जगहो पर राजधर्म का मिजाज बीते डेढ से ढाई दशक के
दौर में बदल गया । ये सवाल वाकई बडा है कि 2002 के गुजरात दंगों के बाद सोनिया गांधी ने द्वारका या सोमनाथ में उसी तरह पूजा अर्चना क्यों नहीं की जैसी अब राहुल गांधी कर रहे है । 2002 के बाद पहली बार है कि काग्रेस नेता मंदिर मंदिर जा रहे हैं। और 1992 के बाद से अयोध्या में बीजेपी के किसी नेता ने दीपावली मनाने की क्यो नहीं सोची जैसे अब यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने दीपावली मनायी जबकि बीजेपी के कल्याण सिंह , रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह सीएम रहे । और कल्याण सिंह ने तो 1992 में बतौर सीएम धर्म की राजनीति की नींव रखी । तो तब कल्याण सिंह के मिजाज और अब योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक मिजाज । अंतर खासा आ गया है । लेकिन मुश्किल ये नहीं कि राजनीति बदल रही है । मुश्किल ये है कि -कल्याण सिंह हार्ड हिन्दुत्व के प्रतीक रहे । योगी आदित्यनाथ हिन्दुत्व का टोकनइज्म यानी प्रतिकात्मक हिन्दुत्व कर रहे है । और समझना ये भी होगा कि पीएम बनने के साढे तीन बरस बाद भी पीएम मोदी अयोध्या नहीं गये । पर सीएम बनने के छह महीने पुरे होते होते योगी अयोध्या में दीपावली मना आये । यानी एक तरफ राहुल गांधी भी मंदिर मंदिर घूम कर साफ्ट हिन्दुत्व को दिखा रहे हैं। और दूसरी तरफ केदारनाथ जाकर पीएम मोदी तो अयोध्या में योगी हिन्दुत्व का टोकनइज्म कर रहे है । तो कौन सी राजनीति किसके लिये फायदेमंद या घाटे का सौदा समझना ये भी जरुरी है । क्योकि जनता सत्ता से परिणाम चाहती है। और गुजरात से लेकर 2019 तक के आम चुनाव के दौर में अगर कांग्रेस या कहे राहुल गांधी भी टोकनइज्म के हिन्दुत्व को पकड चुके है । तो मुश्किल बीजेपी के सामने कितनी गहरी होगी ये इससे भी समझा जा सकता है कि योगी का हिन्दुत्व और मोदी का विकास ही आपस में टकरायेगा । क्योंकि संयोग से दोनों का रास्ता टोकनइज्म का है । और गुजरात में बीजेपी के सामने उलझन यही है कि गुजरात माडल का टोकनइज्म टूट रहा है । औोर हिन्दुत्व के टोकनइज्म की सत्ता अभी बरकरार है ।

Tuesday, October 17, 2017

ना मोदी राहुल के विकल्प है ना राहुल मोदी के...दोनों को लड़ना खुद से है

दो चेहरे। एक नरेन्द्र मोदी तो दूसरे राहुल गांधी। एक का कद बीजेपी से बड़ा। तो दूसरे का मतलब ही कांग्रेस। एक को अपनी छवि को तोड़ना है। तो दूसरे को अपनी बनती हुई छवि को बदलना है। 2019 के आम चुनाव से पहले गुजरात से लेकर हिमाचल। और कर्नाटक से लेकर राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तक के चुनावी रास्ते में टकरायेंगे मोदी और राहुल ही। पर दोनों के संकट अपने अपने दायरे में अलग अलग होते हुये भी एक सरीखे हैं। और 2019 से पहले नई छवि दोनों को गढ़नी है। क्योंकि मोदी के सामने अब मनमोहन सरकार  नहीं अपने किये वादों की चुनौती है। जिसे उन्होंने 2014 मे गढ़ा। मोदी को हिन्दुत्व का चोगा पहनकर विकास का मंत्र फूंकते हुये संघ से लेकर वोट बैंक तक के लिए उम्मीद को बरकरार रखना है। मोदी को गरीबों की आस को भी बरकरार रखना है और युवा भारते के सपनो को भी जगाये रखना है। यानी जिस  उल्लास-उत्साह के साथ 2014 में कांग्रेस को निशाने पर लेकर मोदी मनमोहन सरकार या गांधी परिवार की हवा निकाल रहे थे, उसने मोदी की छवि को ही इतना फूला दिया कि 2019 में खुद को कैसे मोदी पेश करेंगे ये चुनौती मोदी के सामने है। और गुजरात में इस चुनौती के सामने घुटने टेकते मोदी जीएसटी को लेकर नजर आये। जब वह ये कहने से नहीं चूके कि जीएसटी सिर्फ उनका  किया-धरा नहीं है। इसमें पंजाब-कर्नाटक की कांग्रेस सरकार का भी योगदान है। तो एक देश एक कानून की हवा क्या जीएसटी के साथ वैट व दूसरे टैक्स के लिये जाने की वजह से निकल रही है। हो जो भी मोदी को खुद से ही इसलिये  टकराना है क्योंकि सामने कोई ऐसा नेता नहीं जो मोदी का विकल्प हो। सामने राहुल गांधी हैं, जिन्हें खुद अपनी छवि गढ़नी है। राहुल कांग्रेस के अध्यक्ष बन सकते है पर पार्टी कैसे बदलेंगे। राहुल की सामूहिकता का बोध मुस्लिम-दलित-आदिवासी के बिखरे वोट को कैसे एकजुट करेंगे। राहुल की  राजनीतिक समझ क्या बार बार विरासत से नहीं टकरायेगी।

क्योंकि चाहे अनचाहे नेहरु-गांधी परिवार की राजनीतिक समझ के दायरे में राहुल गांधी की आधुनिक कांग्रेस टकरायेगी ही। यानी राहुल की चुनौती मोदी से टकराने की नहीं बल्कि खुद की छवि गढने की है। यानी मोदी और राहुल चाहकर भी ना तो  एक दूसरे का विकल्प हो सकते हैं और ना ही खुद को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर चुनाव जीत सकते है। दोनों को ही खुद को गढना है। क्योंकि पहली बार जनता 2014 में पार्टी से बडे मोदी के कद को देखने की आदी हो चली है तो वह  जीतायेगी भी किसी चेहरे को और हरायेगी भी किसी चेहरे को ही। चाहे वह चेहरा मोदी हो या राहुल गांधी। राहुल गांधी पहली बार कांग्रेस को लेकर तब  मथ रहे है जब वह अपने इतिहास में सबसे कमजोर है। और मोदी ऐसे वक्त जीत के घोड़े पर सवार हैं, जब आरएसएस भी अपने विस्तार को मोदी की सत्ता तले देख  रही है। दोनों ही हालात जन-मन को भी कैसे प्रभावित कर रहे होंगे ये इससे
भी समझा जा सकता है कि 1991 के आर्थिक सुधार के घोडे पर सवार भारत 2017 में आते आते उन सवालों से जूझने लगा है, जो सवाल इससे पहले या तो इक्नामी के दायरे में आते रहे या फिर करप्शन या वोट बैंक को प्रबावित करते रहे। यानी नेता कौन होगा और भारत का अक्स कैसे शून्यता तले दुनिया के मानचित्र  पर उभर रहा है इस सवाल से हर भारतीय चाहे अनचाहे जूझने लगा है। यानी तकनीकी विस्तार ने सत्ता को हर नागरिक तक पहुंचा भी दिया और हर नागरिक सीधे सत्ता पर टिका टिप्पणी करने से चूक भी नहीं रहा है। तो हिन्दुस्तान  का सच अब छुपता भी नहीं। हालात सार्वजनिक होने लगे हैं कि एक तरफ देश में 36 करोड] लोग गरीबी की रेखा से नीचे है। तो दूसरी तरफ देश के 12 करोड़ कंज्यूमर हैं, जिन पर बाजार की रौनक टिकी है। लेकिन भारत का सच इसी पर टिक जाये तो भी ठिक सच तो ये है कि एक तरफ संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृर्षि
संगठन की 2015 की रिपोर्ट कहती है कि भारत में 19 करोड से ज्यादा लोग भूखे सोते हैं। तो 2017 की विश्व भुखमरी सूचकांक में भारत सौवे नंबर पर नजर आता है। यानी मोदी या राहुल खुद को मथे कैसे। कैसे वह सरोकार की राजनीति करते हुये नजर आये । ये चुनौती भी दोनो के सामने है क्योंकि सत्ता  की निगाहबानी में दूसरी तरफ एक ऐसा भारत है जो हर तकलीफ से इतना दूर है कि हर दिन साढे सोलह टन अनाज बर्बाद कर दिया जाता है। 2015 से 2017 के  दौर में 11,889 टन अनाज बर्बाद हो गया।

इन हालातों के बीच झारखंड के सिमडेगा से जब ये खबर आती है कि एक बच्ची की मौत इसलिये हो गई क्योंकि राशन दुकान से अनाज नहीं मिला। अनाज इसलिये नहीं मिला क्योकि आधार कार्ड नहीं था तो राशन कार्ड भी नहीं था। तो क्या मौत दो जून की रोटी की तडप  तले जा छुपी है। और अगर भूख से हुई मौत को छुपाने में सियासत लग रही है,देश के इस सच को भी समझना जरुरी है कि एक तरफ भूख खत्म करने के लिये। गरीबी हटाओ के नारे तले. इंदिरा गांधी से लेकर मौजूदा मोदी सरकार भी गरीबो की मसीहा अलग अलग योजनाओ तले खुद को मान रही है। यानी राहुल सिर्फ मोदी पर चोट कर बच नहीं सकते और मोदी 70 बरस के गड्डो का जिक्र कर पीएम  बने भी नहीं रह सकते है । और यही से स्टेटसमैन की खोज भी शुरु होती है और सर्वसम्मति वाले नेता की चाहत भी लोगो में बढती है । क्योकि मोदी हो या राहुल दोनो ही इस सच को जानते समझते है कि गरीब सबसे बडा वोट बैक भी है  और गरीबी सबसे बडी त्रासदी भी । पर सरकारो की नीतियो ने कैसे देश को खोखला किया इससे दोनो ही क्या ज्यादा दिनो तक आंखे मूंद सकते है । क्योकि कहे कोई कुछ भी सच तो यही है कि 254 करोड रुपये का अनाज हर दिन बर्बाद हो  जाता है । 58 हजार करोड का बना हुआ भोजन हर बरस बर्बाद हो जाता है । और इस अंधेरे से दूर दिल्ली के रायसीमा हिल्स पर मौजूद साउथ-नार्थ ब्लाक की  इस जगमगाहट को देखकर कौन कह सकता है कि गरीबो के लिये यहा वाकई कोई नीतियां बनती होगी । क्योकि इनइमारतो से तो सबसे करीब संसद भवन ही है । जहा का सच ये है कि -बीते 10 बरस में 7 राष्ट्रीय दलों की कुल संपत्ति 431 करोड़ रुपए से बढकर 2719 करोड़ रुपए हो गई । जिसमें बीजेपी की संपत्ति 122 करोड़ रुपए से बढ़कर 893 करोड़ तो कांग्रेस की संपत्ति 167 करोड़ से 758 करोड़ पार कर गई । तो सत्ता की दिवाली तो हर दिन मनती ही होगी । पर नीतिया हर दौर में ऐसी रही है कि बीते 10 बरस में 2,06,390  मीट्रिक टन अनाज गोदामों में रखे रखे सड़ गया। इन्हीं10 बरस में 6400 लाख टन खाना बर्बाद हो गया लेकिन भूख से तरसते लोगों तक नहीं पहुंच सका । और इन्ही दस बरसो में जनता के नुमाइन्दो की संपत्ति सबसे तेजी से सबसे  ज्यादा बढी । तो मोदी हो या राहुल । मथना खुद को दोनों को ही है। क्योंकि दिल्ली की चकाचौंध देश का सच है नहीं और देश का सच दिल्ली से दूर होता चला जा रहा है।

Thursday, October 5, 2017

एडहॉक सिस्टम पर चल रही है देश की हायर एजुकेशन

दिल्ली यूनिवर्सिटी के 45 कालेजों में 1734 पद खाली पड़े हैं। इसके लिये बकायदा 10 जून से लेकर 15 जुलाई 2017 के बीच विज्ञप्ति निकालकर बताया भी किया कि रिक्त पद भरे जायेंगे। कमोवेश हर विषय या कहें फैकल्टी के साथ रिक्त पदों का जिक्र किया गया  । यानी देश की टॉप  यूनिवर्सिटी में शुमार दिल्ली यूनिवर्सिटी का जब ये आलम है तो देश की बाकी सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी में क्या हो सकता है ये सोचकर आपकी रुह कांप जायेगी। क्योंकि हायर एजुकेशन को लेकर  बकायदा हर राज्य में सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी बनायी गई । और अव्वल नंबर पर जेएनयू का जिक्र बार बार बार होता है। और देश के आईआईटी, आईबीएम और एनआईटी को बेहतरीन .यूनिवर्सिटी माना जाता है । पर हालात कितने बदतर हैं जरा ये भी देख लिजिये । पहले देश के टॉप दस सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी, जहा 70 फीसदी से ज्यादा पद रिक्त हैं। तो सिलसिलेवार समझें। सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ हरियाणा में 87.1 फिसदी पद रिक्त पड़े हैं तो सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी आफ तमिलनाडु में 87.1 फिसदी। और इसी तरह सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी आफ ओडिशा में 85 फिसदी । सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी आफ बिहार में 84.4 फिसदी । सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी आफ पंजाब में 80.7 फिसदी । सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी आफ केरल में 78.6 फिसदी । सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी आफ कश्मीर में 75.6 फिसदी । इंदिरा गांधी नेशनल  ट्राइबल यूनिवर्सिटी [ मध्यप्रेदश } में 75.4 फिसदी ।सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी आफ हिमाचल में 73.4 फिसदी । सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी आफ सिक्किम में 72.1 पिसदी पद रिक्त है । यूं यूनिवर्सिटी की फेहरिस्त में जेएनयू और बीएचयू में छात्रो का हंगामा तो हर किसी को याद है । सियासत भी खूब हुई ।

मसलन आप भूले नहीं होंगे जेएनयू में आजादी के नारे । पर इन नारों से इतर किसी ने नहीं पूछा कि जेएनयू में कितने पद रिक्त पडे हैं।  सरकार की रिपोर्ट कहती है 323 पद खाली पड़े हैं । भरे क्यों नहीं गये । तो कोई बोलने को तैयार नहीं । और जो बीएचयू फिल्हाल बिना वीसी के है और छात्राओं पर पुलिस ने डंडे क्यो बरसाये, ये सवाल अब भी बार बार गूंज रहा है और छात्राओं के सवाल अब भी कानो में गूंज रहे होंगे कि बीएचयू कैसे बिगड़ गया । उसे बचाना होगा तो  मदनमोहन मालवीय जी के बीएचयू का हाल ये है कि बीएचयू में 896 रिक्त पद है । यानी  सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी के कुल 15862 पदों में से 5958 पद रिक्त पडे हैं । इसीलिये दुनियाभर में टाप यूनिवर्सिटी में अक्सर चर्चा होती है कि नौ छात्रो पर एक शिक्षक होना चाहिये । पर भारत में 23 छात्रों पर एक शिक्षक है । और देश में जिस आईआईटी, आईबीएम और  एनआईटी को बेहतरीन यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया जाता है । वहां का हाल ये है कि  6000 से ज्याद पद रिक्त पडे है । और इसके अलावे सिर्फ देशभर के इंजीनियरिंग कालेजों को परख लें तो सरकारी आंकडे ही कहते हैं कि इंजीनिंयरिंग कालेजो के 4 लाख 2 हजार पदो में से एक लाख 22 हजार पद रिक्त पडे है । यानी मुश्किल इतनी भर नहीं है कि सरकार रिक्त पदो पर भर्ती क्यो नहीं करती मुस्किल तो ये भी है कि जिस यूजीसी के मातहत सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी आती है । उस यूजीसी के पास कोई परमानेंट चेयरमैन तक नहीं है । एडहाक चैयरमैन है ।  वाइस चैयरमैन का पद भी खाली पडा है । फाइनेनसियल एडवाइजर ही सचिव का काम देख रहा है ।

तो हायर एजूकेशन के लिये यूजीसी से लेकर सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी  जब एडहॉक चैयरमैन से लेकर एडहॉक प्रोफेसर पर  निर्भर होगी तो होगा क्या । हो ये रहा है कि बडी तादाद में हायर एजुकेशन के लिये देश के बच्चे दूसरे देशों में जा रहे हैं। और कल्पना कीजिये हायर एजुकेशन को लेकर देश का बजट 33323 करोड रुपये है । जबकि हर बरस दूसरे देसो में पढने जा रहे बच्चो के मां-बाप एक लाख 20 हजार करोड से ज्यादा की रकम खर्च कर रहे है । एसोचैम की रिपोर्ट कहती है 2012 में ही 6 लाख बच्चे हर बरस देओश छोड कर बाहर पढाई के लिये चले जाते थे । तो बीते पांच बरस में इसमें कितना इजाफा हो गया होगा और उनके लिये देश में हायर एजूकेशन की कोई व्यवस्था क्यों नहीं है । ये अपने आप में सवाल है ।

Wednesday, October 4, 2017

60 बरस पहले कांग्रेस थी..60 बरस बाद बीजेपी है

केरल में बीजेपी की जनरक्षा यात्रा का  नजारा राजनीति जमीन बनाने के लिये है । या फिर राज्य में राजनीतिक हिंसा को रोकने के लिये । ये सवाल अनसुलझा सा है । क्योंकि वामपंथी कैडर और संघ के स्वयंसेवकों का टकराव कितनी हत्या एक दूसरे की कर चुका है, इसे ना तो वामपंथियों के सत्ता पाने के बाद की हिंसा से समझा जा सकता है ना ही सत्ता ना मिल पाने की जद्दोजहद में संघ परिवार के सामाजिक विस्तार से जाना जा सकता है । मसलन एक तरफ बीजेपी और संघ के स्वयंसेवकों के नाम हैं तो दूसरी तरफ सीपीएम के कैडर के लोगो के नाम। सबसे खूनी जिले कुन्नुर में एक तरफ सीपीएम कैडर के तीस लोग हैं, दूसरी तरफ संघ के स्वयंसेवकों के 31 नाम है । सभी मारे जा चुके हैं। राजनीतिक हिंसा तले मारे गये। ये सब बीते 16 बरस की राजनीतिक हिंसा का
सच है। और कुन्नूर की इस हिंसा के परे समूचे केरल का सच यही है । 2001 से 2016 तक कुल 172 राजनीतिक हत्यायें हो चुकी है । जिसमें बीजेपी-संघ के स्वयसेवको की संख्या 65 है तो सीपीएम के कैडर के  85 लोग मारे गये हैं। इसके अलावे कांग्रेस के 11 और आईयूएमएल के भी 11 कार्यकत्ता मारे गये है ।  तो राजनीतिक हिंसा किस राज्य में कितनी है इसके आंकडों के लिये सरकारी एंजेसी एनसीआरबी के आंकडो को भी देखा जा सकता है। जहां देश में पहले नंबर पर यूपी है तो केरल टाप 10 में भी नहीं आता।

लेकिन लड़ाई राजनीतिक है तो राजनीति के अक्स में ही केरल का सच समझना भी जरुरी है । क्योंकि आाजादी के बाद पहली बार लोकतंत्र की घज्जियां उड़ाते हये किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया तो वह केरल ही था और तब दिल्ली में नेहरु थे। और केरल में नंबूदरीपाद यानी  60 बरस के पहले कांग्रेस ने राजनीति दांव केरल को लेकर चला था । 60 बरस बाद केरल में वामपंथी विजयन की सत्ता है तो दिल्ली में मोदी है । तो दिल्ली की सत्ता तो काग्रेस से खिसक कर बीजेपी के पास आ गई । पर 60 बरस के दौर में बीजेपी केरल की जमीन पर राजनीतिक पैर जमा नहीं पायी । बावजूद इसके की संघ परिवार की सबसे ज्यादा शाखा आजकी तारिख में केरल में ही है । 5000 से ज्यादा शाखा। तो  बीजेपी अब वाम सत्ता को लेकर आंतक-जेहाद और हिंसक सोच से जोड़ रही है । तो अब चाहे खूनी राजनीति को लेकर सियासत हो । लेकिन 60 बरस पहले चर्च के अधिन चलने वाले स्कूल कालेजो  पर नकेल कसने का सवाल था । तब नंबूदरीपाद चाहते थे निजी स्कूलो में वेतन बेहतर हो । काम काज का वातावरण अच्छा हो ।

और इसी पर 1957 में शिक्षा विधेयक लाया गया । कैथोलिक चर्च ने विरोध कर दिया । क्योकि उसके स्कूल-कालेजो की तादाद खासी ज्यादा थी । नायर समुदाय के चैरिटेबल स्कूल-कालेज थे । तो उसने भी विरोध कर दिया । तो उस वक्त काग्रेस नायर समुदाय के लीडर मनन्त पद्ननाभा पिल्लई के पीछे खडी हो गई । और आंदोलन को उसने राजनीतिक हवा दी । हडताल, प्रदर्शन, दंगे से होते हुये  आंदोलन इतना हिसंक हो गया कि  पुलिस ने 248 जगहो पहर लाठीचार्ज किया और तीन जगहो पर गोली चला दी ।डेढ लाख प्रदर्शन कारियो को जेल में ढूसा गया । और जुलाई 1959 में जब एक गर्भवती मधुआरिन पुलिस की गोली से मारी गई तो  उसने आंदोलन की आग में धी का काम किया । और नंबूदरीपाद के मुरीद नेहरु भी तब काग्रेसी सियासत के दवाब में आ गये । वित्त मंत्री मोरारजी देसाई के विरोध और राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के अनिच्छा भरी सहमति के वाबजूद आजाद भारत में पहली बार  चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने का एलान 31 जुलाई 1959 को कर दिया गया । उसके बाद काग्रेस अपने बूते तो नहीं लेकिन यूडीएफ गठबंधन के आसरे सत्ता में जरुर आई । पर सीपीएम को पूरी तरह डिगा नहीं पायी । पर संघ अपने विस्तार को अब राजनीतिक जुबान देना चाहता है तो पहली बार जनरक्षा यात्रा के दौरान मोदी सरकार के हर  मंत्री को केरल की सडक पर कदमताल करना है । जिससे मैसेज यही जाये कि सवाल सिर्फ केरल का नहीं बल्कि देश का है । तो केरल की वामपंथी सरकार अपना
किला कैसे बचायेगी या फिर किला नहीं ढहा तो जो प्रयोग नेहरु ने राष्ट्रपति शासन लगाकर किया था क्या उसी रास्ते मोदी चल निकलेगें । ये सवाल तो है ।

Tuesday, October 3, 2017

जन-जिम्मेदारी से पल्ला झाड़कर जन-भागीदारी की मांग करती राजनीति सत्ता

खुली अर्थव्यवस्था की जो लकीर पीवी नरसिंह राव ने जो लकीर 1991 में खींची,  उसी लकीर पर वाजपेयी चले, मनमोहन सिंह चले और अब मोदी भी चल रहे हैं । और खुली इक्नामी की इस लकीर का मतलब यही था कि रोजगार हो या शिक्षा । इलाज हो या घर । या फिर सुरक्षा । जब सब कुछ प्राइवेट सेक्टर के हाथों में इस तरह सौंपा गया कि सरकार या तो हर जिम्मेदारी से मुक्त हो गई। या फिर सरकार खुद ही कमीशन लेकर काम देने की स्थिति में आ गई । क्योंकि प्राईवेट सेक्टर को काम करना है और मुनाफा कमाना है । या कहें मुनाफा कमाना है तो कोई भी काम करना है । इन दोनो हालातों के बीच ही जनता के चुने हुए नुमाइन्दों की राजनीतिक सत्ता कैसे चलती है, अब इस सवाल को समझने की भी जरुरत है। क्योंकि सिलसिलेवार तरीके से जब हालात को परखें तो फिर जनभागेदारी कैसे सरकार के साथ होगी । जिसकी मांग स्वच्छता को लेकर 2 अक्टूबर को प्रधानमंत्री ने की ये भी सवाल होगा । मसलन सरकारी नौकरी की तुलना में कई गुना ज्यादा प्राइवेट सेक्टर में नौकरी है। मसलन 1 करोड़ 72 लाख 71 हजार नौकरी सरकारी क्षेत्र में है । तो प्राइवेट सेक्टर में 1,14,22,000 है तो असंगठित क्षेत्र में 43 करोड 70  लाख नौकरियां हैं। तो फिर जनता रोजगार के लिये सरकार की तरफ क्यों देखेगी । और पांच साल के लिये चुनी हुई किसी भी सत्ता के पांच बरस के दौर में 8 हजार से ज्यादा सरकारी नौकरियों का आवेदन नहीं निकलता। तो सरकारी नौकरी है नहीं।

और सरकारी नीतियों से अगर प्राईवेट सेक्टर की नौकरी कम होगी तो फिर नौकरी का संकट तो गहरायेगा ही जैसे अभी गहरा रहा है । इसी तरह शिक्षा, हेल्थ , घर और सुरक्षा को लेकर भी जनता सरकार की तरफ क्यों देखे । जब शिक्षा को लेकर सरकार का बजट 46,356  करोड हो और निजी क्षेत्र का बजट 7,80,000 करोड का है । जब हेल्थ सर्विस का सरकारी बजट 48,878 करोड का है और प्राईवेट क्षेत्र के हेल्थ सर्विस का बजट साढे छह लाख करोड़ का हो चुका हो । जो 2020 तक 18 लाख करोड का हो जायेगा । तो फिर सरकारी स्वास्थ्य सिस्टम का मतलब बची क्या । इसी तरह घरों को लेकर भी हालात को समझे तो पिछले ढाई बरस में एक लाख तीन हजार सरकारी घर बने तो 4 लाख 71 हजार प्राइवेट घर बनकर  खाली पडे है । प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 2022 तक 4 करोड 30 लाख घर बनाने का लक्ष्य है । चुनाव 2019 में होने है । पहले ढाई बरस में लक्ष्य का सिर्फ 7 पिसदी घर बना है तो सरकार की तरफ किस नजर से जनता देखेगी । और इस कडी में जब पुलिस का जिक्र होगा तो समझना ये भी होगा निजी सुरक्षाकर्मियों की तादाद पुलिसकर्मियों से ज्यादा हो गई है । हालत ये है कि देश में पुलिस की संख्या 14 लाख है । जबकि निजी सुरक्षाकर्मियों की संख्या 70 लाख है। पूरे देश की पुलिस को लेकर बजट करीब 54 हजार करोड़ का है । पर दूसरी तरफ निजी सुरक्षाकर्मियों को लेकर प्राइवेट सेक्टर का बजट 60 हजार करोड़ पार कर चुका है । जो अगले दो बरस में 80 हजार करोड़ हो जायेगा। लेकिन पुलिस सुधार और सुधार के लिये बजट की रफ्तार बताती है कि अगले दो बरस में पुलिस बजट में 5 हजार करोड़ से ज्यादा की बढोतरी हो नहीं सकती है ।  तो फिर चुनी हुई सरकारो का मतलब सिवाय प्राइवेट सेक्टर अनुशासन में काम करें उसके अलावे ।

प्राइवेट सेक्टर में किसे कितना लाभ मिले ये नये सिस्टम बिल्ट-आपरेट-ट्रासफंर  सिस्टम यानी बीओटी से भी समझा जा सकता है । जिसमें सरकार निजी सेक्टर को लाइसेंस देती है । जिस क्षेत्र का काम  दिया जाता है उससे मुनाफा कमाकर वापस उसे सरकार को सौपा जाता है । मसलन सडक और  पुल कोई प्राईवेट सेक्टर बनाता है  उससे मुनाफा कमाता है । पिर सरकार को दे देता है । तो क्या सरकारे इसीलिये पेल हो रही है या फिर जनता का भरोसा धीरे धीरे सरकार से ही उठने लगा है । ये सवाल हर उस परिस्थिति से जोडा जा सकता है जिन परिस्थितियो में जनभागीदारी का सवाल सरकार उठाती  है । याद किजिये 2006 में मनमोहन सरकार ने पीपीपी मॉडल शुरु किया । जनता ने जमीन दी । सरकार ने मुआवजा दिया । पर देश में रोजगार या कमाई के लिये कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर है ही नहीं तो मुआवजा लेकर भी जमता फक्कड हो गई। और  अब जब मोदी स्वच्छता के लिये जनभागीदारी का जिक्र कर गये तो उसके पीछे के इस सच को भी हर किसी ने देखा कि 60 हजार करोड स्वच्छता के प्रचार प्रसार में कैसे खर्च हो गये । धन जनता का । या कहे देश का । स्वच्छता देश की । पर प्रचार प्रसार राजनीतिक लाभ के लिये और काम की सफलता का सरकारी आंकडा ही तीस फिसदी का ।तो जो गलती पीपीपी मॉडल को लेकर मनमोहन कर रहे थे । क्या वही गलती जनभागीदारी के नाम पर मोदी कर रहे हैं । क्योकि राजनीतिक लाभ के लिये राजनीतिक सत्ता का कामकाज पांच बरस चलता है यह आखिरी सच हो चला है। इसलिये सरकारी योजनाये वक्त से पहले दम तोड रही है । आलम ये कि बीते साल 6000 नए स्टार्टअप शुरु हुए थे, जिनकी संख्या इस साल सितंबर के महीने तक घटकर 800 पर आ गई है। और आईबीएम इंस्टीट्यूट फॉर बिजनेस वैल्यू एंड ऑक्सफोर्ड इक्नोमिक्स की रिपोर्ट कहती है कि देश के 90 फीसदी स्टार्टअप शुरु होने के पांच साल में बंद हो जाएंगे क्योंकि उनमें कोई नवीनता और खास बिजनेस मॉडल ही नहीं है । और तो और पांच बरस की सफलता दिखाने का ही तरीका नोटबंदी-जीएसटी तो नहीं । क्योकि कपड़ा मंत्रालय के आंकड़े कह रहे हैं कि तीन साल में 67 टैक्सटाइल यूनिट बंद हो गई, जिनसे 17600 लोगों की नौकरी चली गई । ज्यादातर नौकरी तीसरे साल गई । तो ये आकंड़ा संगठित क्षेत्र का है, और असंगठित क्षेत्र की लघु कपड़ा इकाइयां  कितनी बंद हो गई-इसका किसी को अता पता नहीं है अलबत्ता सीएमआईई का सर्वे कहता है कि नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र में 15 लाख लोगों की नौकरी गई । और हालात धीरे धीरे कैसे बिगड़ रहे हैं-इसका अंदाज इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कपड़ा, धातु, चमड़े, रत्न एवं आभूषण, आईटी एवं बीपीओ, ट्रांसपोर्ट, ऑटोमोबाइल्स और हतकरघा जैसे संगठित क्षेत्रों में रोज़गार निर्माण में तेज गिरावट आई है । उधर, कॉरपोरेट सेक्टर का हाल भी बिगड़ा हुआ है। एलएंडटी जैसी कंपनी ने 2017 की पहली दो तिमाही में 14000 लोगों की छंटनी की । एचडीएफसी बैंक ने 3230 लोगों को निकाल दिया । इस वित्तीय साल की पहली तिमाही में ही पांच में तीन बड़ी आईटी कंपनियों ने करीब 5000  लोगों को निकाल दिया । तो सरकार अगर जिम्मेदारी से पल्ला झाड कर प्राईवेट सेक्टर पर टिक जाये । और वोट की नीतियो से अगर निजी क्षेत्र में भी नौकरी खत्म होने लगे तो फिर 'एमबिट कैपिटल’ की नयी रिसर्च रिपोर्ट को समझना चाहिये जो कहती है कि , " देश में बढ़ती बेरोजगारी से न केवल असमानता बढ़ेगी बल्कि अपराधों में तेजी और सामाजिक तनाव मे भी बढ़ोतरी हो सकती है"