Tuesday, November 28, 2017

बिगड़ी तबियत....चाय की चुस्की ....तो चाय की प्याली का तूफान थमे कैसे ?

हैलो....जी कहिये...सर तबियत बिगड़ी हुई है तो आज दफ्तर जाना हुआ नहीं...तो आ जाइये..साथ चाय पीयेंगे....सर मुश्किल है। गाड़ी चलाना संभव नही है। आपने सुना होगा...अभी से पांव के छाले न देखो/ अभी यारो सफर की इब्दिता है। वाह । अब ये ना पूछियेगा किसने लिखा। मैं मिजाज की बातकर रहा हूं। आपका गला बैठा हुआ है। मैं गाडी भेजता हूं आप आ जाइये। केसर के  साथ गरम मसालो से निर्मित चाय पीजियेगा..ठीक हो जायेंगे। ......और शीशे की केतली में गरम पानी ...उसमें चाय की पत्ती मिलाने के बाद हवा में यूं ही गरम मसाले की खूशबू फैल गई ।...और एक डिब्बी से केसर के चंद दाने..इसे कुछ देर घूलने दीजिये....क्या हो गया आपकी तबियत को। सर्दी-खासी..हल्का  सिर दर्द। शायद कुछ बुखार। आपको बिमारी नहीं बोरियत है। खबरो में कुछ बच नहीं रहा। एक ही तरीके की खबर। एक ही नायक। एक ही खलनायक। हा हा... नायक भी वहीं खलनायक भी वहीं। अब ये आप लोगों को सोचना है। आपका मीडिया तो बंट चुका है। वस्तु एक ही है..कोई इधर खड़ा है कोई उधर खड़ा है । कोई इधर से देख रहा है कोई उधर से। सही कह रहे हैं.. पहली बार मैंने देखा खबर के उपर खबर। मतलब ..जी कारंवा ने जस्टिस लोया पर जो रिपोर्ट  छापी। उसी रिपोर्ट को खारिज करते हुये इंडियन एक्सप्रेस ने रिपोर्ट छाप दी। ये तो आप लोगो को समझना चाहिये.....अरे चाय तो कप में डालिये । वाह क्या शानदार रंग है । पी कर देखिये ..तबियत कुछ ठीक होगी..हा अच्छा लग  रहा है । आप क्या कह रहे है क्यों समझना चाहिये । यही कि पत्रकारिता करनी है या साथ या विरोध करते हुये दिखना है। ये क्या तर्क हुआ। न न हालात को समझे....कानून मंत्री कहते हैं चीफ जस्टिस को समझना चाहिये कि पीएम को  जनता ने चुना है। और पीएम के निर्णय के विरोध का मतलब पीएम पर भरोसा नहीं करना है।

अब आप ही सोचिये। तब तो कल संपादक या कोई मीडिया हाउस पीएम के खिलाफ कुछ लिख देगा तो कहा जायेगा पीएम पर फला मीडिया को भरोसा ही नहीं है। याद कीजिये कांग्रेस क्या कहती थी। जब घोटाले हो रहे थे।  तो सवाल करने पर जवाब मिलता था हमें पांच साल के लिये जनता ने चुना है। यानी पांच साल तक तानाशाही चलेगी ...अब शब्द बदल गये हैं। अब कहा जा रहा है कि पीएम पर भरोसा नहीं है । तब तो लोकतंत्र ही गायब हो जायेगा । यानी  चैक एंड बैलेस डगमगा रहा है । सवाल डगमगाने का नहीं । सवाल लोकतंत्र की परिभाषा ही बदलने का है । ऐसे में तो कल चीफ जस्टिस हो या आपके मीडिया का  संपादक उसके लिये भी देश में चुनाव करा लें। और जब जनता उसे चुन लें तो उसे मान्यता दें। मै भी यही सवाल लगातार उठाता हूं कि देश में इंस्टिट्यूशन खत्म किये जा रहे है । सिर्फ खत्म ही नहीं किये जा रहे हैं  बल्कि राजनीतिक सत्ता को संविधान से ज्यादा ताकतवर बनाने की कोशिश हो रही है। पर ये हमारे देश में संभव है नहीं ...बडा मजबूत लोकतंत्र है। जनता देख समझ लेती है । हां, इंदिरा का भ्रम भी तो जनता ने ही तोड़ा। आपने फ्रंटलाइन की गुजरात रिपोर्ट देखी। नहीं। सर उसमें गुजरात को वाटर-लू लिखा गया है। क्या वाकई ये संभव है । देखिये ...संभव तो सबकुछ है ।

पर दो तीन बातों को समझें। गुजरात अब 2002 वाला गोधरा नहीं है। ये 2017 है जब गोधरा नहीं गोधरा से निकले व्यक्ति पर जनमत होना है। गोधरा से निकले व्यक्ति यानी। यानी क्या वाजपेयी जी ने यू ही राजधर्म का जिक्र नहीं किया था। और गोधरा की क्रिया की प्रतिक्रिया का जिक्र भी यूं ही नहीं हुआ  था। आप याद किजिये क्या कभी किसी भी राज्य में ऐसा हुआ । तो अतीत के हर सवाल तो हर जहन में होंगे ही। फिर आप ही तो लगातार प्रवीण तोगडिया को दिखा रहे हैं, जो राम मंदिर या हिन्दुत्व के बोल भूलकर किसानों के संकट और नौजवानों के रोजगार के सवाल उठा रहा है। यानी दिल्ली से याहे अयोध्या नजदीक हो पर समझना तो होगा ही कि आखिर जिस राम मंदिर के लिये विहिप को बनाया गया आज उसी का नायक मंदिर के बदले गुजरात के बिगड़े हालात को क्यों उठा रहा है। पता नहीं आप जानते भी है या नहीं तोगडिया तो उस झोपडपट्टी से निकला है जहां रहते हुये आज कोई सोच भी नहीं सकता कि वह डाक्टर बनेगा। तो छात्र तोगडिया के वक्त का गुजरात और विहिप के अध्यक्ष पद पर रहने वाले  तोगडिया के गुजरात में इतना अंतर आ गया है कि अब झोप़डपट्टी से कोई डाक्टर बन ही नहीं सकता। क्योंकि शिक्षा महंगी हो गई । माफिया के हाथ में आ गई।  तो तोगडिया कौन सी लड़ाई लड़ें। 90 के दशक में गुजरात के किसान और युवा स्वयंसेवक बनकर कारसेवा करने अयोध्या पहुंचे थे। लेकिन गर आप आज कहें तो  गुजरात से कोई कारसेवक बन नहीं निकलेगा। किसानों का भी तो यही हाल है। कीमत मिलती नहीं। मैंने कई रिपोर्ट दिखायीं। पर आपने इस अंतर को नहीं पकडा कि गुजरात का किसान देश के किसानो से अलग क्यों था और अब गुजरात का  किसान देश के किसानो की तरह ही क्यों हो चला है। यही तो लूट है । किसानी खत्म करेंगे । खेती की जमीन पर कब्जा करेंगे । बाजार महंगा होते चले
जायेगा। तो फिर योजना में लूट होगी। सरकारी नीतियों को बनाने और एलान कर प्रचार करने में ही सरकारे लगी रहेंगी। यही तो हो रहा है ।

हो तो यही रहा है...और शायद दिल्ली इस सच को समझ नहीं रही । खूब समझ रही है । अभी पिछले दिनो दिल्ली में किसान जुटे । उसमें शामिल होने अहमदाबाद से संघ  परिवार के लालजी पटेल आये। उनके साथ दो और लोग थे । लालजी पटेल वह शख्स है जिन्होंने गुजरात में किसान संघ को बनाया। खड़ा किया। आज वही सरकार  की नीतियों के विरोध में गुजरात के जिले-जिले घूम रहे हैं। उनके साथ जो शख्स दिल्ली आये थे । उनके पिताजी गुरु जी के वक्त यानी गोलवरकर के दौर  में सबसे महत्वपूर्ण स्वयंसेवक हुआ करते थे । तो क्या से माने कि संघ परिवार का भी भ्रम टूट गया है । सवाल भ्रम का नहीं विकल्प का है । और मौजूदा वक्त में विकल्प की जगह विरोध ले रहा है जो ठीक नही है । क्यों ?  क्योकि सभी तो अपने ही है । अब भारतीय मजदूर संघ में गुस्सा है । उसके सदस्य गुजरात भर में फैले हैं। वह क्या कर रहे है ये आप पता कीजिये।  देखिये हमारी मुश्किल यह नहीं है कि चुनाव जीतेंगे या हारेंगे। ये आपके लिये बडा खबर होगी। 18 दिसंबर को। आप तमाम विश्लेषण करेंगे। पर जरा सोचिये वाजपेयी जी चाहते तो क्या तेरह दिन की सरकार बच नहीं जाती। दरअसल वाजपेयी और कांग्रेस के बीच इतनी मोटी लकीर थी कि कांग्रेसियों को भी वाजपेयी का मुरीद होना पड़ा। वह आज भी है। पर मोटी लकीर तो आज भी कांग्रेस और मोदी के बीच में है। सही कह रहे है पर कांग्रेसी वाजपेयी के  लिये कांग्रेस छोड़ सकते थे। कांग्रेसी मोदी के लिये कांग्रेस नहीं छोड़ सकते । क्यों नारायण राणे ने छोड़ी। उत्ताराखंड में कांग्रेसियों ने बीजेपी के साथ  गये। अब आप हल्की बात कर रहे हैं। मेरा कहना है सत्ता के लिये कोई पार्टी छोड़े तो फिर वह कांग्रेसी या बीजेपी का नहीं होता। स्वयंसेवक यूं  ही स्वयंसेवक नहीं होता। ..एक कप गर्म पानी मंगा लें। चाय खत्म हो गई है । हा हां क्यों नहीं इसी पत्ती में गर्म पानी डालने से चाय बन जायेगी ।
आप एक काम किजिये थोडी सी चाय ले जाइये ... रात में पीजियेगा ..गले को राहत मिलेगी । तो केतली में गर्म पानी डलते ही घुआं उठने लगा और पानी का रंग भी चाय के रंग में रंगने लगा । ..आप क्या यही चाय पीते है । हमेशा नहीं । आप आ गये तो फिर ग्रीन टी या यही गांव की चाय । जब दूध के साथ चाय  वाले आते है तो उनके साथ उन्ही के मिजाज के अनुसार ।

सर आप स्वयंसेवकों का सवाल उठा रहे थे। हां .स्वयसेवक से मेरा मतलब है उसे फर्क नहीं पडता कि  कौन सत्ता में है और कौन सत्ता के लिये मचल रहा है । क्योंकि हम तो कांग्रेसी कल्चर से हटकर राजनीति देखने वाले लोग हैं। पर अब तो स्वयंसेवक की सत्ता कांग्रेस की भी बाप है। हा हा क्या बात है । ना ना आप समझे जरा  । वाजपेयी अगर पांच बरस और रह जाते तो लोग काग्रेस को भूल जाते । पर यही तो साढे तीन बरस में ही कांग्रेस की याद सताने लगी है। अरे भाई नारा देने से कांग्रेस मुक्त भारत नहीं होगा। काम से होगा। और गुजरात में ही देख लीजिये। कौन कौन काग्रेस के साथ खडा है। जो कांग्रेस का कभी था ही नहीं । पाटीदार तो चिमनभाई पटेल के बाद ही कांग्रेस का साथ छोड़ चुका था । और अब फिर से वह काग्रेस की गोद में जा रहा है। ठीक कह रहे है ...मैंने पढ़ा कि चिमनभाई देश के पहले सीएम थे जिन्होने गौ हत्या पर प्रतिबंध लगवाया।  हिन्दु-जैन के त्यौहारो में मीट पर प्रतिंबध लगाया। तो इससे क्या समझे आप। यही कि बीजेपी जिस हिन्दुत्व को उग्र अंदाज में रखती है उसे ही खामोशी से चिमनबाई ने अपनाया । नहीं , दरअसल , संघ का प्रभाव समाज में इतना था कि काग्रेस भी संघ की बातो पर गौर करती । और अब मुश्किल ये है कि संघ की बातो को आप भी एंजेडा कहते है और बीजेपी की तरह काग्रेस भी संघ को किसी राजनीतिक दल की तरह निशाने पर लेने से नहीं चुकती ।

तो क्या मान लें कि संघ का विस्तार थम गया । सवाल संघ परिवार का इसलिये नहीं है क्योकि प्रतिबद्द स्वयसेवक तो प्रतिबद्द ही रहेगा । मुश्किल ये है कि संघ के कामकाज का असर सत्ता के असर के सामने फीका हो चुका है । और एक तरह ही काम ना करने वाले हालात से स्वयसेवक भी गुजर रहा है क्योकि सत्ता ने खुद को राजनीतिक शुद्दीकरण से लेकर सामाजिक विस्तार तक मान लिया है । तो अच्छा ही है स्वयंसेवक पीएम, पीएम होकर भी स्वयंसेवक है। हा हा ठीक कहा आपने । ये बात कभी बुजुर्ग स्वयंसेवको से पूछिये...उनके साथ चाय पीजिये.....जरुर । और गाड़ी ने हमे घर छोड दिया ..अब यही समझिये कि चाय की प्याली के इस तूफान का इंतजार कौन कैसे कर रहा है।

Sunday, November 26, 2017

चाय के प्याले से कहीं ज्यादा तूफान है चाय के साथ बात में

चाय की केतली से निकलता धुआं...और अचानक जवाब हमारी तो हालत ठीक नहीं है । क्यों इसमें आपकी हालत कहां से आ गई । अरे भाई पार्टी तो हमारी ही है। और जब उसकी हालत ठीक नहीं तो हमारी भी ठीक नहीं । यही तो कहेंगे । ठीक नहीं से मतलब । मतलब आप खुद समझ लीजिये । क्यों गली गली..बूथ बूथ ... घूम रहे हैं । हां जब कोई दरवाजे दरवाजे घूमने लगे तो समझ लीजिये। ये हालत यूपी में तो नहीं थी। नहीं पर गुजरात की गलियां तो उन्होंने ही देखी हैं । बाकी तो पहली बार गलियां देख रहे हैं। सही कहा आपने गुजरात की गलियां सिर्फ उन्होंने ने देखी हैं। बाकियों को कभी देखने दी ही नहीं गई। अब जब हालात बदल रहे हैं तो गली गली घूम रहे हैं । वर्ना ये घूमते ...फिर भी कितनी सीट मिलेंगी। सर्वे में तो 80 पार करना मुश्किल लग रहा है । सर्वे ना देखें मैनेज हो जायेगा । मैनेज हो जाये तो ठीक। क्यों ईवीएम ??? न न आप ईवीएम की गडबडी की बात मत करीये । ईवीएम में कोई गडबडी नहीं है ।

हमने तो 1972 का दौर भी देखा है जब इंदिरा गांधी जीत गई तो बलराज मघोक और सुब्रमण्यम स्वामी थे। उन्होंने कहा गडबडी बैलेट पेपर में थी। मास्को से बैलेट पेपर बन कर आये हैं। जिसमें ठप्पा कही भी लगाईये पर आखिर में दो बैलो की जोडी पर ही ठप्पा दिखायी देता है। ये सब बकवास तब भी था। अब भी है। तो अगर मैनेज हो ना पाया । तब क्या होगा । तब...संविधान कुछ और  तोड़-मरोड़ दिया जायेगा । आप देख नहीं रहे है संसद का शीत कालीन सत्र टालना । और टालते हुये एहसास कराना कि " हम कुछ भी कर सकते है " । ये खतरनाक है । लेकिन हमें लगता है गुजरात हार गये तो डर जायेंगे । कुछ लोकतांत्रिक मूल्यो की बात होगी। अरे..तो डर में ही तो सबकुछ होता है । डर ना होता तो गुजरात देश से बड़ा ना होता । लेकिन कोई है भी नहीं जो कहें कि गलत हो रहा है । ठीक कह रहे है ...मूछें एंठते रहिये ..हम कैबिनेट मंत्री है । सारी ठकुराई निकल गई । पर गुजरात के बाद हो सकता है कोई निकले ...अरे तब  निकलने से क्या होगा । याद कीजिये निकले तो जगजीवन राम भी थे । पर कब...और हुआ क्या । बहुगुणा को ही याद कर लीजिये । निकलने के लिये नैतिक
बल चाहिये । गाना सुना है ना आपने... "  सब कुछ लुटाकर होश में आये तो क्या मिला  " । तो पार्टी तो आपकी है ....फिर आप क्यों नहीं । देखिये अभी अपने अपने स्वार्थ के आसरे एकजूटता है । तो स्वार्थ हित कहता है विरोध मत करो । तो फिर हर कोई वैसे ही टिका है । और ये पार्टी दफ्तर नहीं रोजगार दफ्तर है । जो कार्यकत्ता बन गया उसे कुछ चाहिये । और कुछ चाहिये तो कुछ  का गुणगाण करने भी आना चाहिये । तो चल रहा है । पर ये कब तक चलेगा । जबतक जनता को लगेगा । और जनता को कब तक लगेगा । जब तक उसे भूख नहीं लगेगी। भूख नहीं लगेगी का क्या मतलब हुआ। देखिये आज आपका पेट भी आजाद नहीं है ।  दिमाग तो दूर की बात है । आप खुद को ही परख लिजिये ...और बताइये..मीडिया का क्या हाल है..सभी के अपने इंटरेस्ट हैं। तो झटके में संपादक कहां चला गया । इंदिरा के दौर में तो संपादक थे।  इमरेजेन्सी लगी तो
विरोध हुआ ।

अब देखिये वसुंधरा राज की नीतियों का विरोध करते हुये एक अखबार संपादकीय खाली छोड देता है तो आपके मन में ये सवाल नहीं आता जिस देश में सरकार ने आपकी जिन्दगी को कैशलैस कर अपनी मुठ्ठी में सबकुछ समेटने की कोशिश की है उसके खिलाफ क्यों नहीं कोई अखबार संपादकीय खाली  क्यो नहीं छोडता है। देखिये लोकतंत्र का स्वांग आप भी कर रहे हैं। और लोकतंत्र के इस स्वांग को जनता भी देख रही है । अगर लोकतंत्र के चारो पाये ही बताने लगे कि लोकतंत्र का मतलब वंदे मातरम् कहने में है तो जनता  क्या करेगी । उसकी लड़ाई तो भूख से है । रोजगार से है। हर कोई स्वांग कैसे कर रहा है आप खुद ही देख लिजिये...एक ने कहा गंगा में हाइट्रो पावर पोजेक्ट बनायेगे। दूसरा बोला गंगा में बडी बस चलायेगें । तीसरा बोला शुद्द करेंगे ....अविरल कौन करेगा कौई नहीं जानता । और हालात इतने बुरे हो चले है कि दुनिया के रिसर्च स्कालर गंगा पर शोध कर समूचा खाका रख दे रहे है । अरे उन्हें ही पढ लो । आप भी पढिए ..आक्सफोर्ड पब्लिकेशन से एक किताब आई है ..गंगा फॉर लाइफ ..गंगा फॉर डेथ । सबकुछ तो उसने लिख दिया । और जि गंगा पर देश की 41 फिसदी आबादी निर्भर है । उस गंगा को लेकर भी आप मजाक ही कर रहे है । अरे...चाय तो पिजिये । ग्रीन टी है । इसमें केसर मिलाकर पिया किजिये इस मौसम में तबियत बिगडेगी नहीं । जी..अच्छी है  चाय...हा हा इसमें शहद भी मिलाया कीजिये । गला साफ रहेगा...हां मेरी तो तबियत बिगडी हुई है । गला भी जाम है । पाल्यूशन दिल्ली में खासा बढा हुआ है । अब आप भी पल्यूशन के चक्कर मे ना रहिये ...दिल्ली कोई आज से पोल्यूटेड है ..याद कीजिये 70-80 के दशक से ही दिल्ली में राजस्थान से
रेगिस्तानी हवा उड़ कर आती थी । पूरा रिज का इलाका ...वहा भी सिर्फ धूल ही धूल.हम काली आंधी कहते थे ...घर के दरवाजे...खिड़की बंद करनी पडती थी । और ये गर्मी के वक्ततीन महीने मई से जुलाई के दौर में रहता था । तब पोल्यूशन नहीं रहता थाा क्या .....प्रदूषण पूरे देश में है । पर प्रदूषण से बचने के उपाय का बाजार दिल्ली में है । तो डर के इस बाजार को हर जगह पैदा किया  जा रहा है । देखिये जब कोई काम नहीं होता है तो ऐसा ही होता है ....दिल्ली-मुबई के जरीये बताया गया...इज आफ बिजनेस....अरे भाई मौका मिले तो एक बार विदेश मंत्रालय की आफिसियल साइट को ही देख लिजिये..अगर देश में  धंधा करना इतना शानदार है तो फिर बीते दो-तीन बरस में सबसे ज्यादा बारतीय देश छोडकर चले क्यो गये....लगातार जा रहे है ।

आपको आंकडे मिल जायेंगे.कैसे कब दो करोड से चार करोड भारतीय विदेश में बसने की स्थिति में आ गये....द इक्नामिक इंपोर्टेस आफ हंटिंग पढ़ें...आप बार बार किताबों का रेफरन्स देते है । तो क्या मौजूदा वक्त में कोई पढता नहीं ..पढ़ता होगा..पर आप जरा सोचिये जर्मनी की काउंसलर से लेकर हर कोई भारतीय प्रमुखों के सामने बैठे है...और अचनक एक नौकरशाह बताने लगे कैसे खास है हमारे वाले....बहुत बोलते नहीं ...पर बडे बडे काम खामोशी से करते है ....यानी राग दरबारी दुनिया के बाजार में भी...तो प्रभावित हर किसी को होना ही चाहिये...हो भी रहे है ...पहली बार हर कोई देख रहा है ...इस लहजे में भी  बात होती है । आप जरा रुस के राष्ठ्रपति पुतिन को ही देख लें । कैसे आज की तारिख में वह कितने ताकतवर है । और कैसे हो गये । रुस तो खुलापन खोजते खोजते ढह गया..औ पुतिन के ही सारे सगे संबंधी हर बडी कंपनी के सर्वोसर्वा है ...अब गैस की पाइपलाइन को थोडा सा ही ऐंठ दिया तो जर्मानी तक पर संकट आ जायेगा....हर हम तो इनर्जी से लेकर रोजगार तक को लेकर ड्राफ्ट तैयार किया । देश की आठ प्राथमिकता क्या होनी चाहिये इसे बताया। 2014 कै मैनीपेस्टो को ही पलट कर आप देख लिजिये...देखिये बौद्दिकता एक जगह....सत्ता हांकना एक जगह । दिल्ली से सटा इलाका है मनेसर । वहा पर  दिमाग का रिसर्च सेंटर है । पर जरा किसी से पूछिये दिमाग और माईंड में अंतर क्या है ..कौन बतायेगा । दरअसल ब्रेन इज द साउंड बाक्स आफ माइंड । या आप कहे ब्रेन कंप्यूटर है । पर माइंड साफ्टवेयर है । पर यहा तो बात हार्ड वर्क की हो रही है...कौन ज्यादा से ज्यादा दौडता नजर आ रहा है

......बाते चलती रही .चाय की और प्याली भी आ गई...पर ये बात किससे हो रही है,,कहा हो रही है । हमारे ख्याल से ये बताने की जरुरत नहीं होनी चाहिये..सिर्फ समझ लेना चाहिये हवा का रुख है कैसा..तो आप सोचिये कौन है ये शख्स ।

Wednesday, November 22, 2017

बदलती सियासी बिसात में संघ परिवार की भी मुश्किलें बढ़ी हैं

प्रधानमंत्री मोदी के सामने जिस दौर में राजनीतिक चुनौती लेकर राहुल गांधी आ रहे हैं, उस दौर का सच अनूठा है क्योंकि संघ के प्रचारक से पीएम बने मोदी के ही दौर में संघ परिवार का एंजेडा बिखरा हुआ है। संघ से जुड़े पहचान वाले स्वयंसेवक अलग थलग है। वहीं इंदिरा गांधी की तर्ज पर मोदी चल कर सफल हो रहे हैं। पर राहुल गांधी का कॉपी पेस्ट सफल हो नहीं पा रहा है। तो नेहरु गांधी की विरासत ढोती कांग्रेस को ही अब चुनावी लाभ नेहरु गांधी के नाम पर उतना मिल नहीं पा रहा है। तो कांग्रेस सिमट रही है। और मोदी के दौर में बीजेपी ने जिस विस्तार को पाया है, उसमें संघ के जरीये  चुनावी लाभ बीजेपी को कबतक मिलेगा ये सवाल सबसे बडी चुनौती के दौर पर 2019 में नजर भी आयेगा। क्योंकि तब संघ की मजबूरी नीतियों पर नहीं सियासी तिकड़मों पर चलने की होगी। क्योंकि संघ से जुडे लोगों की कतार जरा देखिये आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, गोविन्दाचार्य, प्रवीण तोगडिया, संजय जोशी  ऐसे नेता रहे हैं, जिनकी अपनी पहचान है पर मौजूदा वक्त ने इन्हें हाशिये पर ढकेल दिया है। इनकी खामोशी कांग्रेस का संघीकरण कर रही है। यानी मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों को मोदी सरकार ने अपनाया।

और कांग्रेस मोदी सरकार की नीतियो में मीन-मेख पुराने स्वयंसेवकों की खामोशी से निकाल रही है। जबकि इसी दौर में कांग्रेस से कही ज्यादा तीखे तरीके से संघ के ही संगठन या पहचान पाये स्वयंसेवक उठा रहे हैं। मसलन भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के विरोध का दिन वही चुना जब मोदी सरकार को सबसे बडी राहत मूडीज ने दी थी। विहिप ना सिर्फ उसी दिन  खामोश रही जिस दिन श्री श्री राम मंदिर का रास्ता तलाशने अयोध्या पहुंचे । बल्कि सुब्रमण्यम स्वामी से लेकर यूपी के मुखिया योगी की राममंदिर पर हर पहल के बावजूद राम मंदिर आंदोलन से निकले प्रवीण तोगडिया ने बेरोजगारी और  किसान का मुद्दा उठाकर आर्थिक नीतियों पर ही चोट की। और इसी के समानांतर गुजरात में किसान संघ की नींव जालने वाले लालजी पटेल भी आर्थिक नीतियों को ही लेकर बीजेपी के खिलाफ चुनाव में मुखर हो गये। और इस कतार में ये भी पहला मौका है कि यशंवत सिन्हा गुजरात में ही बीजेपी के पूर्व सीएम सुरेश मेहता के बुलावे पर घूम घूम कर मोदी सरकार की बिगड़ी आर्थिक नीतियों का हाल बता रहे हैं। और संघ -बीजेपी की यही वह सारी कतार है, जिससे कांग्रेस में आक्सीजन आ रहा है। तो सवाल दो है। पहला, क्या संघ परिवार का बीजेपीकरण  हो रहा है और बीजेपी का कांग्रेसीकरण। दूसरा, क्या राहुल गांधी के दौर में स्वतंत्रता संग्राम से निकली कांग्रेस की उम्र खत्म हो चुकी है। यानी पारंपरिक चुनावी चुनौतियों का दौर खत्म हुआ और अब राहुल ही नहीं बल्कि  संघ परिवार और बीजेपी के सामने भी नयी चुनौतियां हैं। इसीलिये इस दौर ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों को ही शार्टकट का रास्ता सिखला दिया है।

जाति को ना मानने वाली बीजेपी के सोशल इंजीनियरिंग से लेकर किसी भी पार्टी के दागी तक को जीत के लिये साथ लेने में बीजेपी को हिचकिचाहाट नहीं है तो कांग्रेस गठबंठन बगैर सत्ता मिल नहीं सकती ये मान चुकी है । और गुजरात में ही जिस तरह हार्दिक-जिग्नेश,राठौर के इशारे पर चल निकली है। उसमें नेहरु गांधी की विरासत का लाभ पाने की सोच खत्म हुई ये मान चुकी है। क्योंकि गुजरात में कांग्रेस के लिये दो सवाल सबसे बड़े हो चुके हैं। पहला, गुजरात  में धर्म की लकीर पर जाति की लकीर हावी होगी या नहीं। दूसरा , एससी,ओबीसी, पाटीदार गुटों के आसरे कांग्रेस जीत पायेगी या नहीं। यानी गुजरात में बीजेपी की धर्म से मोटी लकीर जाति के आधार पर खींचने के लिये कांग्रेस तैयार है। तो क्या अंतर सिर्फ लकीरो का है। और यही वह हालात  है जो बतलाते है कि राहुल के साथ बीजेपी की कमजोरी साधने वाली कोई टीम नहीं है। फिर हार्दिक-जिग्नेश-राठौर के अंतर्विरोध की आग से जुझने की क्षमता भी राहुल में है। यानी कांग्रेस की कमजोर विकेट पर बैटिंग करते करते क्या बीजेपी का कांग्रेसीकरण वाकई हो चुका है। क्योंकि कांग्रेस ने नेहरु गांधी का नाम हमेशा लिया। और बीजेपी हेडगेवार-गोलवलकर को ज्यादा  मुखर होकर बहुमत के साथ सत्ता में रहते हुये भी उठा रही है। ऐसे में पहली बार परीक्षा और चुनौती संघ परिवार के सामने भी है क्योंकि पहली बार संघ परिवार की छाया में सत्ता नहीं है बल्कि मोदी सरकार की छाया में संघ  परिवार है। फिर संघ ने अपने एंजेडे को सत्तानुकूल मुलायम बनाया है। मोदी चुनावी राजनीति को साधने में प्रैक्टिकल ज्यादा हो गये तो योगी प्रतीकात्मक ज्यादा है।

यानी चाहे अनचाहे पहली बार 2019 के लिये बिछती गुजरात की चुनावी बिसात उन आर्थिक हालातों को हवा दे रही है, जिसे हर बार हर पार्टी ने हाशिये पर ढकेला है। यानी संघ परिवार का सामाजिक शुद्दीकरण बेमानी हो रहा है। कांग्रेस का नेहरु-गांधी विरासत को ढोना मायने नहीं रख रहा है। बीजेपी का संघ परिवार के संगठनात्मक विस्तार से अपनी जीत की उम्मीद पालने के दिन लद रहे है। यानी चाहे अनचाहे ये सवाल धीरे धीरे संघ परिवार के लिये बडा होता जा रहा है कि जो स्वयंसेवक स्वयंसेवक रह गया वह तो संघ के एजेंडे पर खामोश रहेगा नहीं। और जो स्वयंसेवक संघ का एजेंडा छोड़ सत्ता के लिये खामोश है, वह स्वयंसेवक सियासी रंग में रंगा जा चुका है। तो मोदी की हर जीत हार तले बार बार संघ की जीत हार भी देखी जायेगी। जो शायद जीत तक तो ठीक है पर हार के बाद के हालात में बीजेपी से कही ज्यादा संघ को सामाजिक तौर पर खडा करने की मुश्किल ना आ जाये। सवाल तो ये उन्हीं कद्दावर नेताओं तले उठेगा तो फिलहाल हाशिये पर हैं।

Wednesday, November 15, 2017

बच्चों के लिये कौन सा भारत गढ़ रहे हैं हम ?

दूसरी में पढ़ने वाले प्रघुम्न की हत्या 11वीं के छात्र ने कर दी। और हत्या भी स्कूल में ही हुई। प्रद्युम्न पढ़ने में तेज था। हत्या का आरोपी 11वीं का छात्र पढ़ने में कमजोर था। परीक्षा से डरता था। यानी हत्या की वजह भी वजह भी स्कूल में परीक्षा का दवाब ही बन गया। तो कौन सी शिक्षा स्कूल दे रहे हैं। और कौन सा वातावरण हम बच्चों को दे पा रहे हैं। ये दोनों सवाल डराने वाले हैं। पर सरकारी गीत है स्कूल चले हम..इस गीत के आसरे 99 फीसदी बच्चों का इनरॉलमेंट स्कूल में हो तो गया। क्योंकि सर्वशिक्षा अभियान देश में चला। 27 हजार करोड़ का बजट बनाया गया। पर सरकारी सच यही है कि दसवीं तक पढ़ते पढ़ते देश के 47.4 फीसदी बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं।  इनमें 19.8 फीसदी पांचवीं तक में तो 36.8 फीसदी आठवीं तक पढाई पूरी नहीं कर पाते और बच्चों के लिये पढाई के इस वातावरण का अनूठा सच यही है कि एक तरफ बिना इन्फ्रास्ट्रक्चर सरकारी स्कूलो में 11 करोड़ बच्चे जाते हैं। तो मोटी फीस देकर 7 करोड बच्चे निजी स्कूल जाते हैं।

सरकार का शिक्षा बजट 46,356 करोड़ है। निजी स्कूलो का बजट 8 लाख करोड़ का है। यानी जिस समाज को शिक्षा के आसरे अपने पैरो पर खड़े होना है उसके भीतर का सच यही है कि बच्चे देश का भविष्य नहीं होते बल्कि बच्चे वर्तमान में कमाई का जरिया  होते हैं। और मुनाफे के लिये भागते दौटते देश में बच्चे कैसे या तो पीछे छूट जाते हैं या फिर बच्चो को पढाने के लिये मां बाप बच्चों से देश ही छुड़वा देते हैं। जरा ये भी समझ लें। क्योंकि अनूठा सच है ये कि देश के 5 लाख 53 हजार बच्चे इस बरस देश छोड कर विदेशों में पढने चले गये। और उनके मां बाप इन बच्चो की पढाई के लिये 1 लाख 20 हजार करोड सिर्फ फीस देते हैं। जबकि देश में उच्च शिक्षा के नाम पर मौजूदा वक्त में 3 करोड 42 लाख 11 हजार बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। और उनके लिये सरकार का कुल बजट है 33 हजार 329 करोड है। यानी सरकार उच्च सिक्षा के लिये एक बच्चे पर 974 रुपये सालाना खर्च करती है। पर विदेश जाकर पढने वाले एक बच्चे पर औसतन 2,16,958 रुपये सालाना खर्च मां बाप का जेब से होता है। तो देश का भविष्य  कैसे गढ़ा जा रहा है। या फिर किस तरीके से देश के भविष्य की पौध को हम कैसे तैयार कर रहे हैं, उसके भीतर झांककर क्या कोई देखना चाहता है या फिर  सत्ता को भी विदेश लुभाने लगा है। क्योंकि फिलिपिन्स में प्रधानमंत्री मोदी वहां रह रहे नागरिकों से रुबरु हुये तो देश के मुनाफे का ही जिक्र किया। मसलन "  यूपीए में जिक्र होता था कितना गया। अब जिक्र होता है  कितना आया।"

यानी चाहे अनचाहे समूचा समाज ही मुनाफा पाने और कमाने की होड़ में है तो फिर जो बच्चे देश छोडकर विदेश जा रहे है वह भारत लौटेंगे क्यों। और एनआरआई होकर भारत की तरफ देखने का मतलब होगा क्या । क्योंकि आज की तारीख में 1,78,35,419 भारतीय दुनिया के अलग अलग हिस्सो में हैं। 1,30,08,407 एनआरआई हैं। यानी कुल 3 करोड से ज्यादा भारतीय देश छोड चुके हैं। तो फिर कौन सा देश हम तैयार कर रहे हैं। और बीते 5 बरस का अनूठा सच  ये भी है कि 90 फीसदी अप्रवासी भारतीय वापस लौटते नहीं हैं। तो क्या पढ़े लिखों के लिये या पैसे वालो के लिये देशप्रेम का पाठ देश छोडकर विदेश चले  जाना है । तो क्या देश वाकई बच्चों के लायक बच नहीं रहा । ये सवाल जहन में आना तो चाहिये । क्योंकि शिक्षा भी तो तभी होगी जब जिन्दा रहेगें । कह  सकते है सवा सौ करोड़ के देश में अगर लाखों बच्चों की मौत हो भी जाती है तो क्या हुआ। लाखों बच्चे फिर पैदा हो जायेंगे। यकीन जानिये यही हो रहा है । क्योंकि हर बरस देश में जन्मते ही 7लाख 30 हजार बच्चों की मौत हो जाती है । 10 लाख 50 हजार बच्चे एक बरस भी जी नहीं पाते और सिर्फ प्रदूषण से हर बरस औसतन 2 लाख 91 हजार 288 बच्चों की मौत हो जाती है । तो दोष कहा कहा किस किस को दिया जाये। मसलन दिल्ली में प्रदूषण कम नही हुआ बल्कि दिल्ली वाले अभ्यस्त हो गये। सरकार हांफने लगी। अदालतें बेजुबा हो गई एनजीटी की कोई सुनता नहीं। प्रदूषण और दो जून की रोटी आपस में ऐसी टकरायी कि  जहरीली धुंध का असर कम नहीं हुआ अलबत्ता पढ़ाई का बोझ जान की कीमत पर भारी पड गया । और अब बच्चे स्कूल जा रहे हैं, और मां-बाप उन्हें स्कूल  भेज रहे हैं।यानी बच्चों को भले सांस लेने में परेशानी हो रही है-आँखों से पानी आ रहा है लेकिन स्कूल खोल दिए गए हैं तो बच्चों के लिए जाना जरुरी है। तो  आज बाल दिवस पर कोई तो ये सवाल पूछ ही सकता है  । संविधान  में दिए जीने के अधिकार का सवाल क्या बच्चों पर लागू नहीं होता । क्योंकि दिल्ली की हवा  में 50 सिगरेट का धुआ है ।

यानी दिल्ली के बच्चे हर दिन 50 सिगरेट पी रहे है । सिगरेट के पैकेट पर लिखा है जानलेवा है . बर दिल्ली की हवा जानलेवा है ये कोई खुल कर क्यो नहीं कहता । वैसे,सवाल सिर्फ दिल्ली-एनसीआर का नहीं है। पूरे देश का है। आलम ये कि पर्यावरण इंडेक्स में भारत 178 देशों में 155वां स्थान पर हैं। तो फिक्र किसे है बच्चों की । या कहे जिन्दगी की । क्योकि आजादी के वक्त चाहे सुनहरे भविष्य  के सपने संजोये गये । पर आजादी के 70 बरस बाद का अनूठा सच यही है । देश के सभी बच्चो को स्कूल-स्वास्थय और पीने का साफ पानी देने में भी हम सक्षम हो नहीं पाये है । और असर इसी का है कि 14 बरस की उम्र तक पहुंचते पहुंचते  4,31,560 बच्चो की मौत हर बरस होती है । देश की राजधानी में एक तरफ प्रदूषण के बीच बच्चो को स्कूल भेजने के लिये मां बाप मजबूर है तो दूसरी तरफ दिल्ली में 13 लाख बच्चे स्कूल जाते ही नहीं है ।17 लाख बच्चे बिना इजाजत चल रहे स्कूलों में जाते हैं। यानी जब दिल्ली में ही 75 लाख बच्चो में से 30 लाख बच्चे क्या पढ़ रहे हैं। या क्यों पढ नहीं रहे हैं जब इससे ही ससंद सरकार बेफिक्र है तो फिर कौन सी दिल्ली कौन से देश को रच रही है ये भी सवाल ही है।

Friday, November 10, 2017

किसे फिक्र है दिल्ली की हवा में घुले जहर की

2675 करोड 42 लाख रुपये । तो ये देश का पर्यावरण बजट है । जी पर्यावरण मंत्रालय का बजट।  यानी जिस देश में प्रदूषण की वजह से हर मिनट 5 यानी हर बरस 25 लाख से ज्यादा लोग मर जाते है उस देश में पर्यावरण को ठीक रखने के लिये बजट सिर्फ 2675.42 हजार करोड हैं । यानी 2014 के लोकसभा चुनाव में खर्च हो गये 3870 करोड़। औसतन हर बरस बैंक से उधारी लेकर ना चुकाने वाले रईस 2 लाख करोड़ डकार रहे है । हिमाचल-गुजरात के चुनाव प्रचार में ही 3000 करोड़ से ज्यादा फूंके जा रहे हैं। पर देश के पर्यावरण के लिये सरकार का बजट है 2675.42 करोड़ । और उस पर भी मुश्किल ये है कि पर्यावरण मंत्रालय का बजट सिर्फ पर्यावरण संभालने भर के लिये नहीं है । बल्कि दफ्तरों को संभालने में 439.56 करोड खर्च होते हैं। राज्यों को देने में 962.01 करोड खर्च होते हैं।  तमाम प्रोजेक्ट के लिये 915.21 करोड़ का बजट है। तो नियामक संस्थाओं के लिये 358.64 करोड का बजट है। यानी इस पूरे बजट में से अगर सिर्फ पर्यावरण संभालने के बजट पर आप गौर
रकेंगे तो जानकार हैरत होगी कि  सिर्फ 489.53 करोड ही सीधे प्रदूषण से जुडा है जिस्स दिल्ली समेत समूचा उत्तर भारत परेशान है । और प्रदूषण को लेकर जब हर कोई सेन्ट्रल पौल्यूशन कन्ट्रोल बोर्ड से सवाल करता है तो सीपीसी का कुल बजट ही 74 करोड 30 लाख का है । तो पर्यावरण को लेकर जब देश के पर्यावरण मंत्रालय के कुल बजट का हाल ये है कि देश में  प्रति व्यक्ति 21 रुपये सरकार खर्च करती है । और इसके बाद इस सच को समझिये कि एक तरफ देश में पर्यावरण मंत्रालय का बजट 2675.42 करोड है । दूसरी तरफ पर्यावरण से बचने का उपाय करने वाली इंडस्ट्री का मुनाफा 3 हजार करोड से ज्यादा का है । तो पर्यावरण को लेकर इन हालातों के बीच ये सवाल कितना मायने रखता है कि देश के पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन उस वक्त जर्मनी में थे जब दिल्ली गैस चैबर हो चली । और लौट कर भी दिल्ली नहीं पहुंचे बल्कि वह अपनी बात गोवा से कर रहे है । तो जाहिर है पर्यावरण मंत्री भी इस सच को समझते है कि उनके मंत्रालय के बजट में सिर्फ प्रदूषण से मुक्ति के लिये ही जब 275 करोड रुपये है और प्रोजेक्ट टाइगर के लिये 345 करोड है ।

तो फिर पर्यावरण मंत्री का काम दुनियाभर में पर्यावरण को लेकर चिता के बीच अलग अलग कान्फ्रेस में शामिल होने के अलावे और क्या काम हो सकता है । और जर्मनी भी पर्यावरण मंत्री सयुक्त राष्ट्र के मौसम बदलाव के कान्प्रेस में शामिल होने ही गये थे । ऐसे में एक सवाल जीने के अधिकार का भी है क्योकि संविधान की धारा 21 में साफ साफ लिखा है जीने का अधिकार । और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वस्थ वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को पहली बार उस समय मान्यता दी गई थी, जब रूरल लिटिगेसन एंड एंटाइटलमेंट केंद्र बनाम राज्य, AIR 1988 SC 2187 (देहरादून खदान केस के रूप में प्रसिद्ध) केस सामने आया था।   यह भारत में अपनी तरह का पहला मामला था, जिसमें सर्वोच्च  न्यायालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत पर्यावरण व पर्यावरण संतुलन संबंधी मुद्दों को ध्यान में रखते हुए इस मामले में गैरकानूनी खनन रोकने के निर्देश दिए थे।

वहीं एमसी मेहता बनाम भारतीय संघ, AIR 1987 SC 1086 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण रहित वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को भारतीय संविधान के अनु्छेद 21 के अंतर्गत जीवन जीने के मौलिक अधिकार के अंग के रूप में माना था। तो फिर दिल्ली के वातावरण में जब जहर धुल रहा है । देश में हर मिनट 5 लोगो की मौत पप्रदूषण से हो रही है । तो क्या सरकार इस चिंता से वाकई दूर है । खासकर तब जब देश में पीएम से लेकर सीएम और हर मंत्री ही नही हर संसद सदस्य तक संविधान की शपथ लेकर ही पद संबालता है । तो फिर जीने के अधिकार की खुली धज्जियां उड़ रही है तो संसद का विसेष सत्र क्यो नही बुलाया जा रहा है । सुप्रीम कोर्ट अपनी ही  व्याख्या के तहत केन्द्र को नोटिस देकर ये सवाल क्यो नहीं पूछ रहा है । क्योकि एम्स के डायरेक्टर तक कह रहे है कि दिल्ली में लंदन के 1952 के द ग्रेट स्मॉग जैसे हालात बन रहे हैं । और पर्यावरण को लेकर संसद तो दूर तमाम राज्यों के सीएम भी आपस में बैठने को तैयार नहीं है । केजरीवाल पंजाब
और हरियाणा के सीएम से मुलाकात का वक्त मांग रहे है । हर राज्य की मुस्किल तो ये भी है कि किसी के पास पर्यावरम से पैदा होते प्रदूषण को रोकने के लिये  अलग से बजट नहीं है । तो गैस चैंबर में तब्दील हो चुकी दिल्ली में लोगों की सांस कब सीने से उखड़ जाए-कहा नहीं जा सकता। देश की राजधानी में लोग स्मॉग में घुटकर नहीं मरेंगे-इसकी गारंटी लेने वाला कोई नहीं। क्योंकि सच यही है कि आम आदमी की जान की फ्रिक किसी को है नहीं। आलम ये सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और एनजीटी ने तीन साल में केंद्र और दिल्ली सरकार को प्रदूषण रोकने में नाकाम रहने के लिए कई बार फटकार लगाई और तीनों अदालतों ने तीन साल में 44 से ज्यादा बार अलग अलग ऑर्डर दिए-जिनकी धज्जियां उड़ा दी गईं। मसलन , सुप्रीम कोर्ट ने तीन साल में 18 आदेश दिए । हाईकोर्ट ने तीन साल में 18 आदेश दिए । एनजीटी ने तीन साल में 8 आदेश दिए । और इन आदेशों पर अमल हुआ होता तो दिल्ली का आज यह हाल न होता। क्योंकि पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण से लेकर डीजल गाड़ियों पर रोक तक कई आदेश दिए गए लेकिन अमली जामा किसी पर पहनाया नहीं जा सका।


और आज जब दिल्ली गैस चैंबर में तब्दील हो चुकी है-तब का हाल यह है कि धुंध की वजह से बीते 24 घंटे में 17 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है । दिल्ली-पंजाब और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों ने आपस में बात तक नही की है । कृत्रिम बारिश पर कोई फैसला हो नहीं सका। एक एजेंसी कहती है कि यह जरुरी है तो केंद्र सरकार खारिज करती है। सरकार के ही अलग अलग मंत्री अलग बात करते हैं । तो आखरी सच यही है कि  धुंध में पसरे जहर को सांसों में उतारना उस गरीब आदमी की मजबूरी है-जिसे रात को पेट भरने के लिए सुबह को काम पर निकलना जरुरी है। वो घर की चारदीवारी में नहीं बैठ सकता। वो एयर प्यूरीफायर नहीं खरीद सकता। वो अपनी कार में काम पर नहीं जाता। उसे काम पर निकलना ही होगा। उसे सांसों के जरिए जहर छाती में लेना ही होगा।

तो सवाल यही है कि क्या जहरीली धुंध पर सरकार कुछ करेगी या एक तमाशा जो जारी है-वो कुदरत के आसरे खुद की खत्म हो जाएगा। क्योंकि प्रृकति देर सबरे खुद धुंध छांटेगी ही और जनता-सरकार-अदालत सब फिर अपने काम में लग जाएंगे। जहरीले धुंध से बेपरवाह।

Tuesday, November 7, 2017

नोटबंदी के दिन कालेधन पर सत्ता-नेता दिल बहलायेंगे !

2008 से 2017 तक। यानी लिंचेस्टाइन बैंक के पेपर से लेकर पैराडाइज पेपर तक।इस दौर में पिछले बरस पनामा पेपर और बहमास लीक्स। 2015 में स्विस लीक्स। 2014 में लक्जमबर्ग लीक्स। 2013 में आफसोर लीक्स। 2011 में एचएसबीसी पेपर। 2010 में विकिलीक्स। और 2008 में लिंचिस्टाइन पेपर। यानी क्या मनमोहन का दौर या क्या मौजूदा दौर। किसी का नाम आजतक सामने आया नहीं कि कौन सा रईस टैक्स चोरी कर दुनिया में कहां कहां कितना पैसा छुपाये हुये है। या फिर ये भी पता नही चला कि जिनके नाम 2008 से लेकर 2017 तक लीक्स में निकल कर आये उनपर कार्रवाई क्या हुई। क्योंकि मंगलवार को भी वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यही कहा कि पनामा पेपर की जांच हो रही  है। इनकम टैक्स नोटिस भेज रहा है। कार्रवाई या कहें जांच जारी है। तो अरुण जेटली गलत नहीं कह रहे हैं। बकायदा 450 लोगो को नोटिस दिया गया। और
जांच सीबीडीटी कर रही है यानी इनक्म टैक्स विभाग ही तय कर रहा है लीक्स में आये नामो के खिलाफ कौन सी जांच हो।

यानी दुनियाभर में जब अदालतों के जरीये जांच हो रही हैं और अदालती जांच के बाद ही पाकिस्तान में नवाज शरीफ की कुर्सी चली गई, तब हमारे सरकारी विभाग अगर जांच कर रहे हैं तो समझना होगा द बोस्टन कंसल्टिंग के मुताबिक दुनिया में आफ शोर के करीब 10 हजार  अरब डालर मौजूद हैं। और दुनिया के जिन लोगो का ये पैसा आफ शोर में है, वह उनकी हैसियत सत्ता चलाने वाले की है। मसलन राजनेता। सेलिब्रिटी। कारपोरेट ज्इट्स। कारोबारी। और तमाम जमा संपत्ति की 80 फिसदी जिनके पास है वह सिर्फ 0 .1 फीसदी है। और इस 0 .1 फिसदी के भी एक फीसदी अमीरों के पास इस 80 फिसदी का 50 फिसदी धन है। तो ऐसा भी नहीं है कि भारत में जिन लोगों के नाम लिंचेस्टाइन से लेकर पैराडाइज पेपर तक में आये होंगे, वह सिर्फ रईस होंगे। बल्कि उनकी रईसी दुनिया के उन्हीं सत्ताधारियों की तरह होगी जो हमेशा राज करते है चाहे सत्ता किसी की भी रहे। ऐसे में कालधन पर नकेल  कसने का सच यही है। देश की पांच सुप्रीम जांच एजेंसी सीबीडीटी, सेबी, ईडी, आरबीआई और एफईयू यानी फाइनेंशियल इंटेलिजेन्स यूनिट पैराडाइज पेपर्स लीक में आये 714 भारतीयों के खाते संपत्ति की जांच करेगी। और उससे पहले पनामा पेपर्स में आये तकरीबन 500 भारतीय के नामो की जांच इनकम टैक्स कर रहा है। जबकि 2011 में एचएसबीसी पेपर लीक में आये 1100 भारतीयों की जांच पूरी हो हो चुकी है। जिसकी जानकारी वित्त मंत्री ने इसी बरस 21 मार्च  में दी । तो जांच पूरी हुई पर निकला क्या ये कोई नहीं जानता। यानी दोषी कौन। नाम किस किस के। किसका कितना धन । यकीनन कोई नहीं जानता क्योंकि सारा कच्चा चिट्टा तो सरकार के ही पास है। ठीक उसी तरह जैसे कभी मनमोहन रकार के पास होता था और 2014 में कालेधन को लेकर ही बीजेपी इस अंदाज में यूपीए पर हमला करती थी कि सत्ता में आते ही वह सारे नाम सार्वजनिक कर देगी।

तो क्या चार बरस पहले का कालेधन को लेकर हंगामा सिर्फ चुनावी शोर था। या हर सरकार की तरह मौजूदा वक्त भी है। क्योंकि सच यह है कि कालेधन पर सरकार बनते ही एसआईटी बनाने के अलावा सरकार की हर उपलब्धि पर विरोधी निशाना साधते हैं क्योंकि नतीजा कुछ नहीं है। नोटबंदी से कितना कालाधन वापस आया-कोई नहीं बता पाया। उल्टा कहीं कालाधन धारकों ने कालाधन सफेद तो नहीं कर लिया-इसकी आशंका बरकरार है। कालाधन घोषित करने की दो सरकारी योजनाओं से सरकार को महज 69,357 करोड़ की रकम मिली-जो उम्मीद से खासी कम है। तो ऐसे में क्या याद करें कि बीजेपी ने 2014 चुनाव के वक्त 100 दिन के भीतर कालाधन वापस लाने का दावा किया था-लेकिन ऐसा हुआ नहीं। और फिर कालाधन के खिलाफ लड़ाई को विदेश के बजाय देश में सीमित कर दिया गया-जिसकी परिणिति नोटबंदी के रुप में दिखी। जबकि सच ये भी है कि 2014 से पहले कालाधन के खिलाफ लडाई का मतलब विदेशों में जमा कालाधन ही था। क्योंकि हर शख्स का आकलन विदेशों में जमाकालाधन ही था-जिसके आसरे देश की अर्थव्यवस्था को सुधारा जा सकता था। याद कीजिये सुब्रहणयम स्वामी कहते थे 120 लाख करोड। बाबा रामदेव कहते थे 400 लाख करोड। सीताराम येचुरी कहते थे 10 लाख करोड़। अर्थशास्त्री अरुण कुमार कहते थे 100 लाख करोड कालाधनहै। फिर अब इस कालेधन का जिक्र क्यों नहीं होता। यूं जिक्र तो सरकारी संस्थान भी किया करते थे। सीबीआई ने 29.5 लाख करोड बताया। तो एसोचैम ने ट्रिलियम डॉलर बताया। मनमोहन सिंह ही 23374 करोड़ का जिक्र करते थे। और स्व्जिजरलैंड का केन्द्रीय बैक 14,000 करोड के कालाधन के होने का जिक्र करता रहा । पर वक्त के साथ हर आकलन धरा का धरा रह गया । तो सवाल दो है । पहला, क्या कालाधन पर सारी कवायदें बेमानी हैं? दूसरा, क्या कालाधन पर लगाम लगाना संभव ही नहीं, और यह मुद्दा महज राजनीतिक मुद्दा भर है? तो ऐसे में अब नोटबंदी के दिन को ही सरकार कालाधन विरोधी दिवस या विपक्ष काला दिवस मनाती है तो इसका कोई मतलब नहीं है। और पैराडाइज पेपर्स ही  नहीं बल्कि किसी भी पेपर लीक्स में किसाका नाम है । किसको सजा हई ये देश
के नागरिक जान पायेगें इसकी उम्मीद भी बेमानी है।