1947 : डेढ आने का बेसन । एक आने का आलू-प्याज । एक आने का तेल । तीन पैसे का गोयठा । कहे तो गोबर के उबले । चंद सूखी लकड़ियां । और सड़क के किसी मुहाने पर बैठ कर पकौडा तलते हुये एक दिन में चार आने की कमाई। 2018 : 25 रुपये का बेसन । दस रुपये का आलू प्याज । 60 रुपये का सरसों तेल । सौ रुपये का गैस । या 80 रुपये का कैरोसिन तेल । और सड़क के किसी मुहाने पर ठेला लगाकर पकौड़ा तलते हुये दिन भर में 200 से तीन सौ रुपये की कमाई । करीब चार आने खर्च कर चार आने की कमाई जब होती थी तब हिन्दुस्तान आजादी की खुशबू से सराबोर था। करीब 31 करोड़ की जनसंख्या में 21 करोड़ खेती पर टिके थे। और पकौड़े या परचून के आसरे जीने वालो की तादाद 50 से 80 लाख परिवारों की थी । और अब ठेले के अलावे दो सौ रुपये लगाकार दो सौ रुपये की कमाई करने वाला मौजूदा हिन्दुस्तान विकास के अनूठे नारों से सराबोर है । सवा सौ करोड़ की जनसंख्यामें 50 करोड़ खेती पर टिके है। और पकौड़े या परचून के आसरे जीने वालों की तादाद 10 से 12 करोड़ परिवारों की है । तो आजादी के 71 वें बरस में बदला क्या या आजादी के 75 वें बरस यानी 2022 में बदलेगा क्या। नेहरु के आधी रात को सपना देखा।
मौजूदा वक्त में दिन के उजाले में सपने पाले जा रहे हैं। क्योंकि संगठित क्षेत्र में सिर्फ 2 करोड़ 80 लाख रोजगार देकर देश विकसित होना चाहता है । जबकि 45 करोड़ से ज्यादा लोग असंगठित क्षेत्र में रोजगार से जुड़े है । जो भविष्य नहीं वर्तमान पर टिका है। इसमें भी 31 करोड़ दिहाड़ी पर जीते है । यानी भविष्य छोड़ दीजिये । कल ही का पता नहीं है क्या कमाई होगी । तो कमाई और रोजगार से जुझते हिन्दुस्तान में पकौड़ा संस्कृति को तोडने के लिये मनरेगा लाया जाता है तो करोडों खेत-मजदूर से लेकर दिहाडी करने वालो में आस जगती है कि दो सौ रुपये लगाकर हर दिन दो सौ कमाने की पकौडा संसक्कृति से तो छूटकारा मिलेगा । पर मनरेगा में 100 दिन का रोजगार देना भी मुश्किल हो जाता है । और लाखो लोग दुबारा पकौडा संस्कृति पर लौटते है । ये है कि 25 करोड 16 लाख मनरेगा मजदूरो की तादाद में सिर्फ 39,91,169 लोगो को ही सौ दिन मनरेगा काम मिल पाता है । और सरकार के ही आंकडे कहते है 2017-18 में 40 दिन ही औसत काम मनरेगा मजदूर को मिल पाया । यानी 40 दिन के काम की कमाई में 365 दिन कोई परिवार कैसे जियेगा । जबकि 40 दिन की कमाई 168 रुपये प्रतिदिन के लिहाज से हुये 6720 रुपये । यानी जिस मनरेगा का आसरे रोजगार को खुछ हदतक पक्का बनाने की सोच इसलिये विकसित हुई कि पकौडे रोजगार से इतर देश निर्माण में भी कुछ योगदान देश के मजदूर दे सके । औऱ उसमें भी देश के 25 करोड से ज्यादा मनरेगा मजदूरों में काम मिला सिर्फ 7 करोड़ को। और सालाना कमाई हुई 6720 रपये । यानी 18 रुपये 41 पैसे की रोजाना कमाई पर टिका मनरेगा ठीक है । या फिर दो
सौ रुपये लगाकर दौ सौ रुपये की कमाई वाला पकौडा रोजगार ।
जाहिर है पकौड़ा रोजगार में सरकार हर जिम्मेदारी से मुक्त है । लेकिन पकौडा रोजगार का अनूठा सच ये है कि शहरी गरीब लोगों के बीच पकौड़े बेच कर ज्यादा कमाई होती है । और जो नजारा देश के कमोवेश हर राज्य में बेरोजगारी का नजर आ रहा है उसके मुताबिक रोजगार दफ्तरो में रजिस्टर्ड बेरोजगार की तादाद सवा करोड पार कर गई है । और शहर दर शहर भटकते इन बेरोजगार युवाओं की जेब में इतने ही पैसे होते है । कि वह सडक किनारे पकौड़े और चाय के आसरे दिन काट दें । मसलन देश के सबसे ज्यादा शहरी मिजाज वाले महाराष्ट्र के आधुनिकतम पुणे, नागपुर , औरगाबाद समेत बारह शहरो में एक लाख से ज्यादा बेरोजगार छात्र
सडक पर निकल आये क्योकि हर हाथ में डिग्री है पर काम कुछ भी नहीं । उस पर राज्य राज्य पब्लिक सर्विस कमीशन ने सिर्फ 69 वैकेसी निकाली तो आवेदन करने वाले दो लाख से ज्यादा छात्रो में आक्रोश फैल गया । छात्रो में गुस्सा है क्योकि पिछले बरस 377 वैकसी की तुलना में इस बार सिर्फ 69 वैकसी निकाली गई । जबकि अलग अलग विभागों में 6 हजार से ज्यादा पद रिक्त है । यूं राज्य में करीब 20 लाख रजिस्ट्रड बेरोजगार है । और डिग्रीधारी बेरोजगार छात्रों के अलावे राज्य में 27 लाख 44 छात्र बेरोजगार ऐसे है जो तकनीकी तौर पर काम करने में सक्षम है पर इनके पास काम नहीं है । तो चाय-पकौडे पर कमोवेश हर हर बेरोजगार की सुबह-शाम कट जाती है । तो देश किस हालात को सच माने । 2 करोड 80 लाख संगठित क्षेत्र के रोजगार को देखकर या फिर 45 नकरोड से ज्यादा अंसगठित क्षेत्र में रोजगार करते लोगो को देखकर । क्योंकि अब तो दो सौ रुपये पकौडे की कमाई से इतर पहली बार सरकार ने 1650 करोड रुपये स्कालरो को फेलोशिप देने के लिये मुहर लगा दी है । यानी फेलोशीप के तहत जो स्कालर चुने जायेगें उन्हे हर महीने 70 से 80 हजार रुपये दिये जायेगें । तो क्या अब सरकार जागी है जो उसे लग रहा है कि पढे लिखे छात्रो को स्कॉलरशीप देकर देश में रोका जा सकता है । क्योंकि देश का अनूठा सच तो यही है कि हर बरस 5 लाख छात्र उच्च शिक्षा के लिये विदेश चले जाते है । और देश का दूसरा अनूठा सच यही है कि सरकार का उच्च शिक्षा का बजट है 35 हजार करोड । जिसके तहत देश में साढे तीन करोड छात्र पढाई करते है । और जो पांच लाख बच्चे दूसरे देशो में पढने चले जाते है वह फीस के तौर पर 1 लाख 20 हजार करोड देते है । यानी दुनिया में पढाई के लिये जितना छात्रो से वसूला जाता है उस तुलना में सरकार देश में ही शिक्षा पर बेहद कम खर्च करती है । वजह भी यही है भारतीय शिक्षा संस्धानो का स्तर लगातार नीचे जा रहा है । इसी साल आईआईटी बॉम्बे,आईआईटी मद्रास और इंडीयन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की रैकिंग तक गिर गई । यानी विदेश का अपना मोह है। और इस मोह को फेलोशिप के बरक्स नहीं तोला जा सकता। क्योंकि सवाल सिर्फ छात्रों का नहीं है । बीते बरस भारत के 7000 अति अमीरों ने दूसरे देश की नागरिकता ले ली। 2016 में यह आकंड़ा 6000 का था । और बीते 5 बरस का अनूठा सच ये भी है कि 90 फीसदी अप्रवासी भारतीय वापस लौटते नहीं हैं । तो क्या माना जाये पकौडा रोजगार वैसा ही मजाक है जैसे शिक्षा देने की व्यवस्था।
EXCELLENT TRUE PICTURE OF INDIA.
ReplyDeleteCAN YOU BELIEVE THAT REHRI LAGANA ASAAN HAI. USKI HISAB KON DEGA.
Please keep it up written this blog
ReplyDeleteSimply Great! I have never read such type of thoughts for awakening people.Our country needs generalist like you.
ReplyDelete