Monday, October 1, 2018

तो वर्धा पहुंच कर क्या याद करेंगे और क्या भूलेंगे राहुल गांधी ?

संभवत ये अपनी तरह का पहला मौका होगा जब गांधी जयंती के दिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी वर्धा में होंगे। और कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक वर्धा में होगी। यूं तो ये प्रतीकात्मक है पर मौजूदा वक्त में जिस राजनीतिक शून्यता को देश महसूस कर रहा है उसका सच ये भी है कि अतीत के प्रतीकों को प्रतीकात्मक तौर पर अपना कर सत्ता-विपक्ष दोनों ही अपने होने का एहसास देश  से ज्यादा खुद को करा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी खुद को सरदार पटेल के करीब खड़ा कर रहे है तो नेहरु खारिज किये जा रहे हैं। तो नेहरु गांधी  परिवार महात्मा गांधी के साये तले सत्ता को चुनौती देने से ये कहकर नहीं कतरा रहा है कि संघ तो महात्मा गांधी का हत्यारा है। संघ भी अपने  संस्थापक हेडगेवार को कांग्रेसी करार देकर डायनेस्टी माइनस कांग्रेस को अपनाने में अपना भविष्य देख रहा है। तो ऐसे मोड़ पर महात्मा गांधी को कैसे याद करें। क्योंकि याद कीजिये 15 अगस्त 1947 को आधी रात का सच। नेहरु संसद में भाषण देते है , " कई सालों पहले, हमने नियति के साथ एक वादा किया था, और अब समय आ गया है कि हम अपना वादा निभायें, पूरी तरह न सही पर बहुत हद तक तो निभायें."  और इस भाषण के वक्त महात्मा गांधी  दिल्ली से डेढ हजार किलोमीटर दूर कलकत्ता के बेलियाघाट के घर में अंधेरे में बैठे रहे। दिल्ली में आजादी के जश्न से दूर बेलियाघाट में अपने घर से  राजगोपालाचारी को ये कहकर लौटा दिया कि घर में रोशनी ना करना। आजादी का मतलब सिर्फ सत्ता हस्तांतरण नहीं होता। ध्यान दें तो सत्ता हस्तांतरण से  इतर देश में बीते 71 बरस के दौर में और हुआ क्या। इन 71 बरस में किसान-मजदूरों की मौत ने खेती को श्मशान में बदल दिया है। औद्योगिक  मजदूरों की लड़ाई न्यूनतम को लेकर आज भी है। गरीबी की रेखा के नीचे 1947 के भारत से दोगुनी तादाद पहुंच चुकी है। पीने के साफ पानी से लेकर भूख की  लडाई अब भी लड़ी जा रही है।

तो क्या याद करें क्या भूल जायें। याद कीजिये 15 अगस्त 1947 की आधी रात पीएम नेहरु ने कहा, "भारत की सेवा मतलब लाखों पीड़ित लोगों की सेवा करना है. इसका मतलब गरीबी, अज्ञानता, बीमारी और अवसर की असमानता को समाप्त करना है. हमारी पीढ़ी के सबसे महानतम व्यक्ति [ महात्मा गांधी ] की महत्वाकांक्षा हर आंख से एक-एक आंसू पोंछने की है।  हो सकता है ये कार्य हमारे लिए संभव न हो लेकिन जब तक पीड़ितों के आँसू ख़त्म नहीं हो जाते, तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा।"  तो क्या महात्मा गांधी जिन आंसूओं का जिक्र कर रहे थे उसे भूल जायें। या फिर मौजूदा वक्त में जो हंसी-ठठाका सत्ता लगाती है और भारत के स्वर्णिम काल को 2022 तक लाने का जिक्र कर देती है उसे सुनते हुये आंखे बंद कर ली  जायें। या फिर महात्मा गांधी की बातो को ही दोहरा कर खुश हो जाये कि बापू
को हम भूले नहीं हैं।

छह अक्टूबर, 1921, को महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में लिखा , "हिंदू धर्म के नाम पर ऐसे बहुत से काम किए जाते हैं, जो मुझे मंजूर नहीं है....और गौरक्षा का तरीका है उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति  देना. गाय की रक्षा के लिए मनुष्य की हत्या करना हिंदू धर्म और अहिंसा धर्म से विमुख होना है। हिंदुओं के लिए तपस्या द्वारा, आत्मशुद्धि द्वारा  और आत्माहुति द्वारा गौरक्षा का विधान है. लेकिन आजकल की गौरक्षा का स्वरूप बिगड़ गया है।" तो करीब 97 बरस पहले महात्मा गांधी ने गो रक्षा  को लेकर जो बात कही थी-उसी को टूटे फूटे अंदाज में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गौ रक्षा पर अपनी बात कह कर खुश हो जाते हैं। तो क्या आजादी से 26  बरस पहले और आजादी के 71 बरस बाद भी सत्ता को गो रक्षा के नाम पर मानव  हत्या के हालात से रुबरु होना ही पड़ता है। तो भारत बदला कितना। संविधान अपना है। कानून अपना है। कानून की रक्षा के लिये संस्थाएं काम कर रही हैं। बावजूद इसके सिस्टम फेल कहां हैं,जो देशभर में भीडतंत्र नजर आ जाता  है। जो न्याय तंत्र को खारिज कर देता है। इस एहसास को मिटा देता है कि कानून का राज भी देश में है। याद कीजिये बीते बरस सोशल मीडिया से शुरु हुए नॉट इन माई  नेम कैंपेन के तहत लोगो ने बोलना शुरु इसलिये कर दिया क्योंकि सत्ता खामोश रही। और सिस्टम कही फेल दिखायी देने लगा । फेल इसलिये क्योकि गौरक्षा के  नाम पर पहलू खान से लेकर जुनैद तक। और 12  शहरों में 36 लोगो की हत्या गौ रक्षा के नाम पर की जा चुकी है। यानी शहर  दर शहर भीड ने गो रक्षा ने नाम  पर जिस तरह न्याय की हत्या सड़क पर खुलेआम की। और न्याय की रक्षा के लिये तैनात संस्थान ही फेल नजर आये, उसमें महात्मा गांधी को याद कर भारत की आजादी की दुहाई देने का मतलब क्या है।  महात्मा गांधी ने 19 जनवरी, 1921 को गुजरात के खेड़ा जिले में स्वामीनारायण संप्रदाय के तीर्थस्थान पर एक विशाल सभा को संबोधित करते  हुए कहा , " आप अंग्रेज अथवा मुसलमान की हत्या करके गाय की सेवा नहीं कर सकते, बल्कि अपनी ही प्यारी जान देकर उसे बचा पाएंगे. ...मैं ईश्वर नहीं  हूं कि गाय  बचाने के लिए मुझे दूसरों का खून करने का अधिकार हो. ...कितने हिंदुओं ने बिना शर्त मुसलमानों के लिए अपने जीवन को उत्सर्ग कर दिया है. वणिकवृत्ति से गाय की रक्षा नहीं हो सकती’  तो अतीत की इन आवाजों का मतलब है क्या। और काग्रेस अध्यक्ष राहुल सेवाग्राम पहुंच कर क्या सिर्फ महात्मा गांधी को प्रतीकात्मक तौर पर याद करेंगे। या फिर उनके जहन में ये सवाल उठेगा कि पहले कांग्रेस देश का रास्ता बनाती थी, जिस पर लोग चलते थे। अब देश का रास्ता बाजार बनाते है जिस पर कांग्रेस चलती है। और लोग खुद को सियासी राजनीति में हाशिये पर खड़े पा रहे हैं। या फिर कांग्रेस कल वर्धा में गांधी आश्रम पहुंच कर  सीडब्लुसी को याद आयेगा कि महात्मा गांधी ने तो नील किसानों की मुक्ति के लिये चंपारण सत्याग्रह भी किया। और किसानों के हक को लेकर कहा भी , " मैं आपसे यकीनन कहता हूं कि खेतों में  हमारे किसान आज भी निर्भय होकर सोते हैं, जबकि अंग्रेज और आप वहां सोने के लिए आनाकानी करेंगे...... किसान तलवार चलाना नहीं जानते, लेकिन किसी की तलवार से वे डरते नहीं हैं.......किसानों का, फिर वे भूमिहीन मजदूर हों या मेहनत करने वाले जमीन मालिक हों, उनका स्थान पहला है। उनके परिश्रम से ही पृथ्‍वी फलप्रसू और समृद्ध हुई हैं और इसलिए  सच कहा जाए तो जमीन उनकी ही है या होनी चाहिए, जमीन से दूर रहने वाले जमींदारों की नहीं।" तो गांधी ने किसानों से ऊपर किसी को माना ही नहीं।  लेकिन गांधी का नाम लेकर राजनीति करने वालों के इस देश में किसानों का  हाल कभी सुधरा नहीं-ये सच है। आलम ये कि मंदसौर में किसान आंदोलन के दौरान गोली चलने से 7 किसानो की मौत पर तो हर विपक्षी दल ने आंसू बहाए और  विरोध जताया-लेकिन उसी मध्य प्रदेश में 6 जून 2017 से सितंबर 2018 के बाद से अब तक 442 किसान खुदकुशी कर चुके हैं,लेकिन चिंता में डूबी आवाज़े गायब हैं। हद तो ये कि 29 किसानों ने उसी सीहोर में खुदकुशी की-जो शिवराज सिंह चौहान का गृहनगर है। और मध्य प्रदेश में ऐसा कोई दिन नहीं जा रहा-जब किसान खुदकुशी नहीं कर रहा। और उससे सटे धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ में बीते एक बर के दौर में 410 किसानों ने खुदकुशी कर ली । और देश का हाल इतना बेहाल की 18800 किसानो ने इस दौर में खुदकुशी कर ली ।

तो आज की तारीख में कोई सत्ताधारी या राजनीतिज्ञ खुद को किसान नहीं लिखता । बल्कि जाति या धर्म में खुद को बांट कर राजनीतिक सहुलियत चाहता है । पर महात्मा गांधी ने हमेशा पेशे के कालम के आगे किसान ही लिखा । तो क्या वर्धा पहुंचकर राहुल गांधी को ये एहसास होगा कि देश के हर रंग को साथ जोड़कर ही कांग्रेस बनी थी और आज कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को कांग्रेस को गढ़ने के लिये देश के हर रंग के पास जाना पड़ रहा है। यानी सवाल जन सरोकार का है और जवाब नब्ज पकडने की है । महात्मा गांधी ने देश की नब्ज को आंदोलन - संघर्ष और सादगी के जरीये काग्रेस से जोडा । और काग्रेस ने धीरे धीरे संघर्ष सादगी ही तिरोहित कर दिया । तो सत्ता में रहते हुये गांधी पारिवार बदलते हिन्दुस्तन की उस नब्ज को पकड़ नहीं पाया जहा जनता की नुमाइन्दगी करते हुये जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी कांग्रेसी नेता-मंत्रियों की होनी चाहिये। तो आखरी सवाल यही है कि वर्धा में गांधी आश्रम पहुंचना काग्रेस के लिये टोकनिज्म है या फिर आत्ममंथन । देखें महात्मा गांधी को याद करते हुये राहुल गांधी क्या क्या आत्मसात करते हैं।

9 comments:

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    मोहनदास करमचन्द गाँधी का करम ये है कि मोतीलाल नेहरु के वँश मेँ चारीत्रिक पतन के कारण जब अन्तरजातीय सम्बधो की विडम्बना हुई और तब नश्लोँ मेँ मिलावट को जायज ठहराने के लिए गाँधी जैसा उपनाम दिया था तभी नेहरु के बाद की सारी नश्लोँ मे गाँधी शब्द की मिक्सिगँ हो गयी तो ये वँश गाँधी का कृपापात्र/दयाकापात्र हो गया था जो समूचा देश भलीभाति जानता/ मानता/ समझताहै।-जयहिन्द!

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  2. Sir aap har roj ek blog likhiye

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  3. सटीक एंव उत्कृष्ट लेख!

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  4. पुण्य प्रसून जी बहुत सुंदर और सार्थक लिखा है

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  5. बेहतरीन ब्लॉग

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  6. सर्
    मैं आपका बोहोत बढा फैन हु कृपया करके जल्दी TV पर वापस आईये

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