2014 का जनादेश ही क्यो ? उसके बाद कमोवेश 18 राज्यो के चुनाव पर भी गौर करें और फिर सोचना शुरु करें बीजेपी के पास क्या वाकई कभी कोई ऐसा तुरुप का पत्ता रहा है जो चुनाव प्रचार के मैदान में उतरता है तो सारे समीकरण बदल जाते है । वाजपेयी जी भाषण अच्छा देते थे । लोग सुनते थे । लेकिन भाषण के सुखद क्षण वोट में तब्दि हो नहीं पाते थे । लेकिन नरेन्द्र मोदी के शब्द वोट में तब्दिल हो जाते है । स्वयसेवक की ये बात प्रोफेसर साहेब को खटक गई तो बरबस बोल पडे इसका मतलब है संगठन कोई काम नहीं कर रहा है । बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह जिस तरह बूथ दर बूथ बिसात बिछाते है क्या उसे अनदेखा किया जा सकता है । या फिर आप इसे चुनावी जीत की ना हारने वाली जोडी कहेगें । हम कुछ कहेगें नहीं । सिर्फ ये समझने की बात है कि आखिर कैसे उसी बीजेपी में अमित शाह जीत दिलाने वाले तिकडमी मान लिये गये । उसी बीजेपी में आखिर कैसे मोदी सबसे प्रभावी संघ के संवयसेवक होते हुये भी विकास का मंत्र परोसने में ना सिर्फ कामयाब हो गये बल्कि जीत का आधार भी वहीं रहा ।
बात तो महोदय आप ठीक कह रहे है । मुझे इस बहस के बीच कूदना पडा । मोदी साढे चार बरस में अयोध्या नहीं गये । वह भी सत्ता के पांचवे बरस भी नहीं जा रहे है जब सरसंघचालक मोहन भागवत भी नागपुर से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का दबाव अपने शब्दो के जरीये बना रहे है ।
पंडित जी अभी दोनो तथ्यो को ना मिलाइये । पहले चुनावी प्रचार की रणनीति-तिकडम और मोदी-शाह की जोडी को समझे । क्यो संघ समझ गया है । मै ये तो नहीं कह सकता कि संघ कितना समझा है लेकिन प्रचार जिस रणनीति के आसरे चल रहा है वह बीजेपी के कार्यकत्ता को सक्रिय करने की जगह कुंद कर रहा है , इंकार इससे किया नहीं जा सकता ।
कैसे
इसे दो हिस्सो में समझना होगा । पहला , जब अमित शाह की बिसात है और नरेन्द्र मोदी सरीखा चेहरा है तो फिर बाकि किसी को करने की जरुरत ही क्या है । दूसरा , जिन जगहो पर बीजेपी कमजोर है वहा भी अगर जीत मिल रही है तो फिर मोदी-शाह की जोडी ही केन्द्र से लेकर राज्यो में काम करेगी । तो बाकियो की जरुरत ही या क्यों है ।
बाकि का मतलब ?
बाकि यानी केन्द्र में बैठे मजबूत चेहरे । जिनके बगैर कल तक बीजेपी कुछ नहीं लगती थी ।
मसलन
मसलन , राजनाथ सिंह , सुषमा स्वराज , मुरली मनोहर जोशी सरीखे कोई भी नाम ले लिजिये .....किसी की भी जरुरत क्या किसी भी विधानसभा चुनाव तक में पडी । या आपने सुना कि कोई नेता गया और उसने चुनावी धारा बदल दी । सबकुछ केन्द्रित है नरेन्द्र मोदी के ही इर्द गिर्द ।
प्रोफेसर साहेब जो बार बार बीच में कुछ बोलना चाह रहे थे । झटके में स्वयसेवक महोदय के तमाम तथ्यो को दरकिनार करते हुये बोले .... मै सिर्फ आपकी इस बात से सहमत हूं कि बाकि कोई नेता फिलहाल मायने नहीं रख रहा है लेकिन आप अब भी उस नब्ज को पकड नही पा रहे है जहा रणनीति और तिकडम मिल रही है । अब स्वयसेवक को बोलना पडा प्रोफेसर साहेब आप ही बताइये कैसे ।
देखिये मैने जो बीजेपी के चुनाव प्रचार का अध्ययन किया है उसके मुताबिक बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह चुनाव प्रचार की रणनीति बनाते वक्त तीन स्तर पर काम करते है लेकिन केन्र्दित एक ही स्तर पर होते है ।
कैसे , थोडा साफ करें ।
जी , अमित शाह किसी भी राज्य में चुनाव प्रचार के दौरान सबसे पहले पता लगाते है कि वह किस सीट को जीत नहीं सकते । उन सीटो को अपने दायरे से अलग कर राज्यो के कद्दावरो को कहते है आप इन सीटो पर जीत के लिये उम्मीदवार बताइये । जीत के तरीके बताइये । तो राज्य स्तर की पूरी टीम जो कल तक खुद को बीजेपी का सर्वोसर्वा मानती रही वह हार की सीटो को जीत में बदलने के दौरान अपने ही अध्यक्ष के सामने नतमस्तक हो जाती है । दूसरे स्तर पर जिन सीटो पर बीजेपी जीतती आई है उन सीटो पर अपने करीबी या कहे अपने भक्तो को टिकट देकर सुनिश्तिच कर लेते है कि राज्य में सरकार बनने पर उनके अनुसार ही सारी पहलकदमी होगी । और सारा ध्यान उन सीटोपर होता है जहा कम मार्जिन में जीत-हार होती है । या फिर कोई मुद्दा बीजेपी के लिये परेशानी का सबब हो और किसी इलाके में एकमुश्त हार की संभावना हो ।
जैसे ?
जैसे , गुजरात में सूरत या राजकोट के हालात बीजेपी के लिये ठीक नहीं थे । पटेल तो इन दोनो जगहो पर अमित शाह की रैली तक नहीं होने दे रहे थे । लेकिन चुनाव परिणाम इन्ही दोनो जगहो पर बीजेपी के लिये सबसे शानदार रहे ।
हां इसे ही तो स्वयसेवक महोदय रणनीतिक बिसात की सफलता और मोदी के प्रचार के जादू से जोड रहे है ।
प्रसून जी ये तर्क ना दिजिये .... जरा समझने की कोशिश किजिये । यू ही ईवीएम का खेल नहीं होता और दुनिया भर में ईवीएम को लेकर यू ही सवाल नहीं उठ रहे है । आप ईवीएम से समूचे देश को प्रबावित नहीं कर सकते है लेकिन जब आपने बीस से तीस फिसदी सीटो को लेकर रणनीति बनानी शुरु की तो ईवीएम का खेल भी वहीं होगा और बीजेपी का चेहरा भी प्रचार के आखरी दौर में वहीं चुनावी प्रचार करेगा । जिसके बाद जीत मिलेगी तो माना यही जायेगा कि ये बीजेपी के तुरुप के पत्ते का जादू है । यानी विकास की थ्योरी जिसे एक तरफ नरेन्द्र मोदी देश के सामने परोस रहे है और दूसरी तरफ संघ का एंजेडा मंदिर मंदिर कर रहा है तो जीत विकास की थ्योरी को मिलेगी । क्योकि तब आप उन क्षेत्रो में जाति या धर्म के आधार पर वोटो को बांच नहीं सकते । यानी खेल ईवीएम का होगा लेकिन मैसेज मोदी के प्रचार से समहति बनाते वोटरो का होगा ।
अब स्वयसेवक महोदय ने ही सवाल किया .... प्रोफेसर साहेब अगर मौजूदा हालात को आप सिर्फ ईवीएम के माथे मढ देगें तो फिर रास्ता निकलेगा नहीं । क्योकि याद किजिये गोरखपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में क्या हुआ था । कलेक्टर ने आखरी राउंड की गिनती के बाद काउंडिग रोक दी थी । और तब विपक्ष से लेकर मीडिया ने हंगामा किया तो क्लेक्टर को झुकना पडा । फटाफट नतीजो का एलान करना पडा ।
तो इससे क्या मतलब निकाले...
यही कि ईवीएम या चुनावी गडबडी का विरोध हो रहा है तो 2019 के लोकसभा चुनाव में ज्यादा होगा ।
न न मेरा कहना कम या ज्यादा से नहीं है । मेरा कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी के जादू को जिस तरह विकास की थ्योरी के तौर पर लारजर दैन लाइफ बना कर बीजेपी या संघ परिवार भी पेश करने में लगा है उसके पीछे तकनालाजी की ट्रेनिग है ।
मुझे लगा अभी के हालात पर बात तो आनी चाहिये .....तो बह के बीच में कूदना पडा ....स्वयसेवक महोदय आपको अगर याद हो तो 2009 में बीजेपी जब चुनाव हाी तो ईवीएम का मुद्दा उसने भी उठाया था । और 2010 में तो बकायदा जीवीएल नरसिम्भा राव जो कि तब सैफोलोजिस्ट हुआ करते थे बकायदा ईवीएम के जरीसे कैसे लोकतंत्र पर खतरा मंडरा है इसपर एक किताब " डेमोक्रेसी इन रिस्क " लिख डाली । और अगर उस किताब को पढा जाये तो मान कर चलिये ईवीएम के जरीये वाकई लोकतंत्र को राजनीतिक सत्ता हडप ले रही है ये खुले तौर पर सामने आता है । लेकिन अगला सवाल है कि फिर काग्रेस ये खेल 2014 में क्यो नहीं कर पायी ।
अब स्वयसेवक ही पहले बोल पडे । आप दोनो सही हो सकते है । लेकिन 2014 का चुनाव आपको इस दृश्टि से देखना ही होगा कि काग्रेस की दस बरस की सत्ता से लोग उभ चुके थे या कहे गुस्से में थे । और उस वक्त चुनाव प्रचार से लेकर कारपोरेट फंडिग और वोटिंग ट्रेंड भी तो देखिये । फिर कैसे बीजेपी जो चुनाव 2014 में जीतती है उसे बेहद शानदार तरीके से मोदी की जीत और अमित शाह को मैन आफ द मैच में परिवर्तित किया गया । क्योकि आने वाले वक्त में सत्ता का विस्तार नहीं करना था बल्कि सत्ता को चंद हाथो में सिमटाना था । और ये फिसाल्फी 2019 में क्या गुल खिला सकती है अब मोदी सत्ता के सामने यही चुनौती है ।
और क्या संघ परिवार इसे समझ रहा है ।
समझ रहा है या नहीं सवाल ये नहीं है ..... सवाल तो ये है कि संघ के भीतर संघर्ष करते हुये विस्तार या फिर सत्ता की सहुलियत तले आंकडो का विस्तार महत्वपूर्ण है । उलझन इस को लेकर है । तभी तो मोदी जी अयोध्या नहीं जाते और योगी जी अयोध्यावासी ही हो जाते है । मोदी जी बनारस जा कर गंगा या मंदिर को याद नहीं करते बल्कि गंगा में चलती नाव को देखकर खुश होते है ।
तो क्या हुआ मोदी जी और योगी जी के रास्ते दो तरीके से बीजेपी को लाभ पहुंचा सकते है तो अच्छा ही है ।
जी नहीं ...ऐसा होता नहीं है । जो चेहरा है वहीं सबसे बडा मोहरा है । और बीजेपी कही बोझ तो नहीं जरा इसका एक असर तमिलनाडु में देख कर समझे । रजनीकांत भी बीजेपी के खिलाफ नोटबंदी को लेकर बोल रहे है और एआईडीएमके भी फिल्म सरकार का समर्थन करने पर रजीनाकांत को निशाने पर ले रही है ।
तो...
तो क्या कुछ दिनो पहले तक एआईडीएमके , रजनी कांत और बीजेपी एक ही बिसात पर खडे थे । लेकिन अब कोई भी दूसरे का बोझ लेकर चलने को तैयार नहीं है ।
तो क्या बीजेपी भी बोझ बन रही है ।
क्यो नहीं । बिहार यूपी में छोटे दल जो सोशल इंजिनियरिंग के नाम पर जातिगत वोट लेकर बीजेपी से 2014 में जुडे वह अब क्या कर रहे है ।
जारी...........
Nice,I agree with you Modu-Shah game plan is EVM in heavy Anti incumbency & prestigious election,Same thing done in Surat Area
ReplyDeleteRight
ReplyDeleteये सही है कि पार्टी में अमित जी और मोदी जी सबसे कद्दावर चेहरा है जो पूरी तरह हावी है लेकिन ईवीएम में कोई खेल है ये समझ से परे है।
ReplyDeletepart 5 jald digiye saheb kitna intjar kare ..... lagta hai desh ko chhor sangh ka bistar karne mai aap bhi lage hai......ek manuwadi soch ke chalte sangh desh ko barwad hone ke liye chhor diya
ReplyDeleteChinta ki baat hai.
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