नरेन्द्र मोदी को 722 घंटे तो राहुल गांधी को 252 घंटे ही न्यूज चैनलो ने दिखया । जिस दिन वोटिंग होती थी उस दिन एक खास चैनल नरेन्द्र मोदी का ही इंटरव्यू दिखाता था । बालीवुड नायक अक्षय कुमार के साथ गैर राजनीतक गुफतगु या फिर मोदी की धर्म यात्रा को ही बार बार न्यूज चैनलो ने दिखाया ।मीडिया के मोदीनुकुल होने या फिर गोदी मीडिया में तब्दिल होने के यही किस्से कहे जा रहे है या कहे तर्क गढे जा रह है । लेकिन मीडियाको लेकर मोदीकाल का सच दरअसल ये नहीं है । सच तो ये है कि पांच बरस के मोदीकाल में धीरे धीरे भारत के राष्ट्रीय अखबारो और न्यूज चैनलो से रिपोर्टिग गायब हुई । जनता से जुडे मुद्दे न्यूजचैनलो में चलने बंद हुये । जो आम जन को एहसास कराते कि उनकी बात को सरकार तक पहुंचाने के लिये मीडिया काम कर रहा है । और धीर धीरे संवाद एकतरफा हो गया । जो मोदी सरकार ने कहा उसे ही बताने का या कहे तो उसके प्रचार में ही मीडिया लग गया । मीडिया ने अपनी भूमिका कैसे बदली या कहे मीडिया को बदलने के लिये किस तरह सत्ता ने खासतौर से मीडिया पर किस तरह का ध्यान देना शुरु किया । या फिर सत्तानुकुल होते संपादक-मालिको की भूमिका ने धीरे धीरे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को ही खत्म कर दिया । कमोवेश यही हाल लोकतंत्र के बाकि तीन स्तम्भ का भी रहा लेकिन बाकि की स्वतंत्रता पर तो सत्ता की निगाह हमेशा से रही है और हर सत्ता ने अपने अनुकुल करने के कई कदम अलग अलग तरीको से उठाये भी है । लेकिन मीडिया की भूमिका हर दौर में बीच का रास्ता अपनाये रही । इस पार या उस पार खडे होने के हालात कभी मीडिया में आये नहीं । यहा तक की इमरजेन्सी में भी कुछ विरोध कर रहे थे पर अधिकतर रेंग रहे थे । लेकिन पहली बार उस पार खडे [ सत्तानुकुल ना होने ] मीडिया को जीने का हक नहीं ये मोदी का में खुल कर उभरा । और जब लोकतंत्र ही मैनेज हो सकता है तो फिर लोकतंत्र के महापर्व को मैनेज करना कितना मुश्किल होगा ।
ध्यान दिजिये 2014 में मोदी की बंपर जीत के बाद भी मीडिया मोदी से सवाल कर रहा था । तब निशाने पर हारी हुई मनमोहन सरकार थी । काग्रेस का भ्रष्ट्राचार था । घोटालो को फेरहिस्त थी । पर मोदी को लेकर जागी उम्मीद और लोगो का भरोसा कभी गुजरात दंगो की तरफ तो कभी बाईब्रेट गुजरात की दिशा में ले ही जाती था । और राज्य दर राज्य की राजनीति ने मोदी सत्ता ही नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी से भी सवाल पूछने बंद नहीं किये थे । केन्द्र में मनमोहन सत्ता के ढहने का असर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड की काग्रेस सत्ता पर भी पडा । 2014 में तीनो राज्य काग्रेस गंवा दियें या कहे मोदी सत्ता का असर फैला तो बीजेपी तीनो जगहो पर जीती । लेकिन 2015 में दिल्ली और बिहार दो ऐस राज्य उभरे जहा मोदी सत्ता ने पूरी ताकत झोक दी लेकिन उसे जीत नहीं मिली । और अगर उस दौर को याद किजियगा तो बिहार में जीत को लेकर आशवस्त अमित शाह से जब चुनाव खत्म होने के दिन 5 नवंबर को पूछा गया तो वह बोले मै 8 नवंबर को बोलूगा । जब परिणाम आयेगें । और 8 नवंबर 2015 को जब बिहार चुनाव परिणाम आये तो उसके बाद अमित शाह ने खामोशी ओढ ली । और तब भी मीडिया ना सिर्फ गुजराज दंगो को लेकर सवाल कर रहा था बल्कि संघ परिवार की बिहार में सक्रियता को लेकर सवाल कर रहा था । क्योकि तब यही सवाल नीतिश - लालू दोनो अपने अपने तरीके से उछाल रहे थे । वैसे उस वक्त बिहार और गुजारत के जीडीपी से लेकर कृर्षि विकास दर तक को लेकर मीडिया सक्रिय रहा । रिपोर्टिंग -आर्डिकल लिखे गये । मनरेगा के काम और न्यूनतम आय को लेकर रिपोर्टिंग हुई । इसी तरह दिल्ली चुनाव के वक्त यानी 2015 फरवरी में भी दिल्ली में शिक्षा, हेल्थ , प्रदूषण , गाडियो की भरमार सरीखे मुद्दे बार बार उठे । और शायद 2015 ही वह बरस रहा जिसने मोदी सत्ता को भारतीय लोकतंत्र का वह ककहरा पढा दिया जिसके अक्स में गुजरात कहीं नहीं है ये समझा दिया । यानी 6 करोड गुजराती को तो एक धागे में पिरोयो जा सकता है लेकिन 125 करोड भारतीय की गवर्नेंस एक सरीखी हो नहीं सकती । और उसी के बाद यानी 2016 में मोदी सत्ता का टर्निग पाइंट शुरु होता है जब वह ऐसे मुद्दो पर बड निर्णय लेती है जो समूचे देश को प्रभावित करें । भूमि अधिग्रहण , नोटबंदी और जीएसटी । ध्यान दिजिये तीनो मुद्दो से हर राज्य प्रभावित होता है लेकिन राज्यो की सियासत या क्षत्रपो से कही ज्यादा बडी भूमिका में काग्रेस आ जाती है । बहस का केनद्र संसद से सडक तक होता है । और यही से मीडिया के सामने जीने के विकल्प खत्म करने की शुरुआत होती है । हर मुद्दे का केन्द्र दिल्ली बनता है और ह मुद्दे पर बहस करती हुई कमजोर काग्रेस उभरती है । जिसकी राजनीतिक जमीन पोपली थी और मजबूत क्षत्रपो के विरोध की मौजूदगी सिवाय विरोध की अगुवाई करती दिखती काग्रेस के पीछे खडे होने के अलावे कुछ रही ही नहीं । यानी 2016 से राज्यो की रिपोर्टिग अखबारो के पन्नो से लेकर न्यूज चैनलो के स्क्रिन से गायब हो गई । अपने इतिहास में सबसे कमजोर काग्रेस संसद के दोनो सदनों बेअसर थी ।इसी दौर में भीडतंत्र का न्याय सडक पर उभरा । राजनीतिक मान्यता कानून की मूक सहमति के साथ बीजेपी शासित राज्य में उभरी । देश भर में 64 हत्यायें हो गई । लेकिन सजा किसी हत्यारो को नहीं हुई । क्योकि हत्या पर कोई कानूनी रिपोर्ट थी ही । इस कडी में नोटबंदी क दौर में लाइन में खडे होकर नोट बदलवाने से लेकर नोट गंवाने के दर्द तले 106 लोगो की जान चली गई । लेकिन सत्ता ने उफ तक नहीं किया तो फिर संसद के भीतर हंगामे और सडक पर शोर भी बेअसर हो गया । क्योकि खबरो का मिजाज किसी मुद्दे से पडने वाले असर को छोड उसके विरोध या पक्ष को ही बताने जताने लगा । तो पहली बार जनता ने भी महसूस किया कि जब उसकी जमीन भूमि अधिग्रहण में जा रही है और मुआवजा मिल नहीं रहा है । नोटबंदी में घर से नोट बदवाने निकले परिवार के मुखिया का शव घर लौट रहा है । और अखबरो के पन्नो से लेकर न्यूज चैनलो के स्क्रिन पर आम जन का दर्द कही है ही नहीं । बहस सिर्फ इसी बात को लेकर चल रही है कि जो फैसले मोदी सत्ता ने लिये वह सही है या नहीं । या फिर अखबारो के पन्नो को ये लिख कर रंगा जा रहा है कि लिये गये फैसले से इक्नामी र क्या असर पड रहा है या फिर इससे पहले की सरकारो के फैसले की तुलना में ये फैसले क्या असर करेगें । ये लकीर बेहद महीन है कि मोदी सत्ता के जिन निर्णयो ने आम जन पर सबसे ज्यादा असर डाला उन आम जन पर पडे असर की रिपर्टिग ही गायब हो गई ।
खासतौर से न्यूज चैनलो ने गायब होती खबरो को उस बहस या स्टूडियो में चर्चा तले शोर से ढक दिया जो जब तक स्क्रिन पर चलती तभी तक उसकी उम्र होती । यानी ऐसी बहसो से कुछ निकल नहीं रहा था । चर्चा खत्म होती फिर अगली चर्चा शुरु हो जाती और फिर किसी और मुद्दे पर चर्चा । हां , सिवाय तमाम राजनीतिक दल के ये महसूस करने के कि उनहे भी न्यूज चैनलो में अपनी बात कहने की जगह मिल रही है । लेकिन इस एहसास से सभी दूर होते चले गय कि हर राजनीतिक दल के जन सरोकार खत्म हो चले है । और उसमें सबसे बडी भूमिका चाहे अनचाहे मीडिया की ही हो गई । क्योकि जब मीडिया में रिपोर्टिंग बंद हुई । जन-सरोकार बचे नहीं तो फिर किसी भी मीडिया हाउस को लेकर जनता के भीतर भी सवाल उठने लगे । राष्ट्रीय न्यू चैनलो में काम करने वाले जिले और छोटे शहरो के रिपोर्टरो के सामने ये संकट आ गया कि वह ऐसी कौन सी रिपोर्ट भेजे जो अखबारो मेंछप जाये या न्यूज चैनलो में चल जाये । क्योकि धारा उल्टी बह रही थी । जनता की खबर से सत्ता पर असर पडने की बजाय सत्ता के निर्णय से जनता पर पडने वाले असर पर बहस होने लगी । और धीर धीरे स्ट्रिगर हो या रिपोर्टर या पत्रकार उसकी भूमिका भी राजनीतिक दलो के छुटमैसे नेताओ को सूचना या जानकारी देने से लेकर उनकी राजनीतिक जमीन मजबूत कराने में ही पत्रकारिता खत्म होने लगी । 2016 से 2019 तक हिन्दी पट्टी [ यूपी, बिहार , झारखंड, छत्तिसगढ, मध्यप्रेदश , राजस्थान , पंजाब , उत्तराखंड ] के करीब पांच हजार से ज्यादा पत्रकार अलग अलग पार्टियो के नेताओ के लिये काम करने लगे । सोशल मीडिया और अपने अपने क्षेत्र में खुद के प्रोफाइल को कैसे बनाया जाता है या कैसे पार्टी हाइकमान को दिखाया जाता है इस काम से पत्रकार जुड गये । इसी दौर में दो सौ से ज्यादा छोटी बडी सोशल मीडिया से जुडी कंपनिया खुल गई जो नेताओ को तकनीक क जरीये सियासी विस्तार देती ष उनकी गुणवत्ता को बढाती । और राज्यो की सत्ताधारी पार्टियो से काम भी मिलने लगा उसकी एवज में पैसा भी मिलने लगा । बकायदा राज्य सरकार से लेकर निजी तौर पर राज्यस्तीय नेता भी अपना बजट अपने प्रचार के लिये रखने लगा । और इस काम को वहीं पत्रकार करते जो कल तक किसी न्यूज चैनल को खबर भेज कर अपनी भूख [ पेट- ज्ञान ] मिलाते । हालात बदले तो नेताओ से करीबी होने का लाभ स्ट्रिगर-रिपोर्टरो को राष्ट्रीय चैनलो की सत्तानुकुल रिपोर्टिंग करने से भी मिलने लगा । और ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ नीचले स्तर पर हो । दिल्ली जैसे महानगर में भी दो सौ से ज्यादा बडे पत्रकारो [ कुल दो हजार से ज्यादा पत्रकार ] ने इसी दौर में राजनीतिक दलो का दामन थामा । कुछ स्वतंत्र रुप से तो कुछ बकायदा नेता या पार्टी के लिये काम करने लगे । दिल्ली में काम करते कुछ पत्रकार दिलली में बडे नेताओ के सहारे राज्यो के सत्ताधारियो के लिय काम करने के लिय दिल्ली छोड रराजधानियो में लौटे । आलम ये है कि 18 राज्यो के मुख्यमंत्रियो के सलाहकारो की टीम में पत्रकारिता छोड सीएम सलाहकार की भूमिका को जीने वाले लोग है । और इनका कार्य उसी मुख्यधारा के मीडिया हाउस को अपनी सत्तानुकुल करना है जिस मुख्यधारा की पत्रकारितो को छोड कर ये सलाहकार की भूमिका में आ चुके है । और मीडिया की ये चेहरा चूकि राजनीति के बदलते सरोकार [ 2013-14 के चुनाव प्रचार केतौर तरीके ] और मीडिया के बदलते स्वरुप [ इक्नामिक मुनाफे का माडल ] से उभरा है तो फिर 2016 से 2018 तक के सफर में सरकार का मीडिया को लेकर बजट पिछली किसी भी सरकार के आकडे को पार कर गया और मीडिया भी अपनी स्वतंत्र भूमिका छोड सत्तानुकुल होने से कतराया नहीं । मोदी सत्ता ने 2016-17 में न्यूज चैनलो के लिये 6,13,78,00,000 रुपये का बजट रखा तो 2017-18 में 6,73,80,00,000 रुपये का बजट रख । प्रिट मीडिया के कुछ कम लेकिन दूसरी सरकारो की तुलना में कही ज्यादा बजट रखा गया । 2016-18 के दौर में 9,96,05,00,000 रुपये का बजट प्रिट मीडिया में प्रचार के लिये रखा गया । यानी मीडिया को जो विज्ञापन अलग अलग प्रोडक्ट के प्रचार प्रासर के लिये मिलता उसके कुल सालाना बजट से ज्यादा का बजट जब सरकार ने अपने प्रचार के लिये रख दिया तो फिर सरकार खुद एक प्रोडक्ट हो गई और प्रोडक्ट को बेचने वाला मीडिया हो गया । हो सकता है इसका एहसास मीडिया हाउस में काम करते पत्रकारो को ना हो और उन्हे लगता हो कि वह सरकार के कितने करीब है या फिर सरकार चलाने में उनी की भूमिका पहली बार इतनी बडी हो चली है कि प्रधानमंत्री भी कभी ट्विट में उनके नाम का जिक्र कर या फिर कभी इंटरव्यू देकर उनके पत्रकारिय कद को बढा रह है । और इसी रास्ते धीरे धीरे मीडिया भी पार्टी बन गया और पार्टी का बजट ही मीडिया को मुनाफा देने लगा । यानी एक ऐसा काकटेल जिसमें कोई गुंजाइश ही नहीं बचे कि देश में हो क्या रहा है उसकी जानकारी देश के लोगो को मिल पाये । या फिर संविधान में दर्ज अधिकारो तक को अगर सत्ता खत्म करने पर आमादा हो तो भी मीडिया के स्वर सत्तानुकुल ही होगें । इसीलिये ना तो जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट से निकली आवाज ' लोकतंत्र पर खतरा है ' को मीडिया में जगह मिल पायी । बहस हो पायी । ना ही अक्टूबर 2018 में सीबीआई में डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर का झगडा और आधी रात सरकार का आरपेशन सीबीआई कोई मुद्दा बन पाया । और ना ही मई 2019 में चुनाव आयोग के भीतर की उथल पुथल को मीडिया ने महत्वपूर्ण माना । ध्यान तो तीनो ही संवैधानिक और स्वयत्त संस्था है और तीनो के मुद्दे सीधे सत्ता से जुडे थे । और मीडिया इसपर बहस चर्चा या फिर खबर के तौर पर परतो को उघाडने के लिये तैयार नहीं था । तो मीडिया निगरानी की जगह सत्तानुकुल हो चला और लोकतंत्र की नई परिभाषा सत्ता में ही लोकतंत्र खोजने या मानने का हो जाय पर्सेप्सन इसी का बनाया गया । हालाकिं इस पूरे दौर में विपक्ष ने ना तो बदलते हालात को समझा ना ही अपनी पारंपरिक राजनीति की लीक को छोडा । यानी लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका निभाने वाले राजनीतिक दल बेहद कमजोर साबित हुये । जिनके पास ना तो अपने राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक नैरेटिव थे ना ही हिन्दुत्व में लिपटे राष्ट्रवाद की थ्योरी का कोई विकल्प । तो मीडिया ने खुद को छोडा और सत्ता को थामा ।
यानी एक तरफ मोदी काल के पहले पांच साल में 164 योजनाओ के एलान की जमीनी हकीकत है क्या , इसपर मेनस्ट्रीम मीडिया ने कभी गौर करना जरुरी नहीं समझा । उसके उलट अपनी ही योजनाओ की सफलता के जो भी आकडे सत्ता ने बताये उसे सफल मानकर विपक्ष से सवाल मीडिया ने किया जैसे विपक्ष ही मीडिया की भूमिका में हो और मीडिया सत्ताधारी की भूमिका में । और दूसरी तरफ संविधान के जरीये बनाये गये अलग-अलग संस्थानो के चैक एंड बैलेस को ही सत्ता की कार्यप्रणाली ने डिगाया तो भी मीडिया के सवाल सत्ता के हक में ही उठे । और राष्ट्रीय मीडिया में हिन्दी हो या अग्रेजी में होने वाली पत्रकारिता के नये मिजाज को समझे तो सत्ताधारियो का इंटरव्यू । उनसे संवाद बनाना । उनकी योजनाओ को उन्ही के जरीये उभारना । सत्ता के मुद्दो पर कई पार्टियो के नताओ को बैठाकर चर्चा करने से आगे अब हालात ठहर गये है । और चाहे अनचाहे न्यू मीडिया के केन्द्र में सत्ता की खासियत है । यानी 2014-19 मोदी काल के पहले सियासी सफर ने चुनावी जीत को अपने अनुकुल बनाने का हुनर पा लिया । लोकतंत्र मैनेज इस अंदाज में हुआ जिसमें जमीनी सच और जनादेश के अंतर पर कोई सवाल ना कर सके । तो कल्पना किजिये 2019-24 में आप हम या भारत किस सफर पर निकल रहा है । क्योकि अब ये दुविधा भी नहीं है कि मीडिया कोई सवाल करेगा । ये उलझन भी नहीं है कि स्वयत्त संस्धानो में कोई टकराव होगा । शिक्षा संस्थान या कहे प्रीमियर एजुकेशन सेंटर [ जेएनयू, बीएचयू ,जामिया या अलीगढ समेत तमाम राष्ट्रीय यूनिवर्सिटी ] से भी कोई आवाज उठेगी नहीं । मुस्लिम या दलित के सवालो को उके अपने समुदाय से आवाज उठाकर राजनीति करने वालो की हैसियत खत्म की जा चुकी है । मायावती कमजोर हो चुकी है । काग्रेस में बैठे सलमान खुर्शिद या गुलाम नबी आजाद सरीखे नेताओ के पास ना तो पालेटिकल नैरेटिव है ना ही राजनीतिक जमीन । बीजेपी के सहयोगी दलो को प्रधनमंत्री ने एनडीए की बैठक में ही एहसास करा दिया कि जो उनके साथ है वह बचेगा बाकि खत्म हो जायेगें । जैसे राहुल अमेठी में हार गये । सिधिया गुना में हर गये जंयत बागपत में हार गये । डिंपल कन्नोज में हार गई । दिग्विजय भोपाल में हार गये । दीपेन्द्र हुडा रोहतक में हार गये । लालू के परिवार का पूरी तरह सफाया हो गया । तो फिर आगे सवाल करेगा कौन और जवाब देगा कौन । ये सवाल अब मोदी सत्ता के दूसरे काल किसी के मन में घुमड सकता है । क्योकि अब तो बीजेपी में कोई क्षत्रप बचा नहीं और दूसरे दलो के मजबूत क्षत्रप कमजोर हो चुके है । पर जो अब होगा उसमें अगर मीडिया तंत्र भी ना होगा तो यकीन जानिये जो मीडिया आज सत्ता से चिपट मुस्कुरा रहा है गर्द उसकी भी कटेगी और मोहरे बदले भी जायेगें । क्योकि अब नये भारत की असल नींव पडगी और उसमें वह मोहरे कतई काम नहीं करेगं जिन्होने 2014 से 2019 तक के दौर में ना तो पकौडे पर सवाल किया ना ही कारपोरेट पर अंगुली उठायी । या फिर जो इंटरव्यू लेते लेते आत्ममुग्ध होकर मोदीमय हो गये । और धीरे धीरे युवा पत्रकारो के सामने भी ये सवाल तो उभरा ही क्या पत्रकारिता यही है । क्योकि संपादक ही जब सवाल पूछने से कतराये या फिर इंटरव्यू का अंदाज ही जब सामने वाले के कसीदे पढने में जा छुपा हो तब भविष्य में पत्रकारो की कौन सी टीम जवा होगी । और मोदी दौर में मीडिया सस्थानो से जुडे युवा पत्रकार क्या वाकई अपने संपादको को आदर्श मानेगें या फिर मोदी सत्ता को मीडिया को रेगते हुये बनाते के तौर पर देख पायेगें और भविष्य में उसकी व्याख्या करेंगे । जाहिर है ये सवाल किसी भी देश को मजबूत शासक से नहीं जोडते । क्योकि ये मोदी भी समझते है जिस भारत को वह गढना चाहते है उसमें ईंट और गारद बनने वाले मीडिया की उपयोगिता इमारत बनते ही खत्म हो जाती है । और 2019 का जनादेश बताता है कि मोदी इमारत बना चुके है अब उसमें जिन विचारो की जान फूंकनी है और खुद को अमर करना है उसके लिये नये हुनरमंद कारिगर चाहिये जो 2014-19 के दौर में मर चुके सवालो को 2019-24 के बीच जीवित कर सके । जिससे संघ के सौ बरस का जश्न सिर्फ स्वयसंवको की टोली या नागपुर हेडक्वाटर भर में ना समाये बल्कि भारत को नेहरु -गांधी की मिट्टी से आजाद कर सावरकर- हेडगेवार- गोलवरकर के सपनो में ढाल दें ।
सवालो मे उलझता भारत अब सवालो को ही जबाब मान चला है,,सत्ता ही लोकतंत्र है ये ख्याल पाल चुका हैं
ReplyDeleteSir apki ueh baat bhaut achi aur sachi h pr yeh sab k samjh mai anne wala nhi jisko h acha h jisko nhi samjh aya usko jb ayega tab samjhne jaisa kuch bachega he nhi
ReplyDeleteमीडिया की बर्बादी की कारन मुख्य तोर पर विपक्ष ओर कांग्रेस पार्टी है.. जब विपक्ष कोई विरोध नहीं करेगा आंदोलन नहीं करेगा जमीन पर नहीं आएगा तो यही हालात होंगे अभी भी नहीं जमीन पर आया विपक्ष ओर मुद्दे पर नहीं लड़ेगा लोगो तक अपनी आवाज़ नहीं पहुचएगा तो अस्तित्व खत्म हो जाएगा घर मे बेठ कर राजनीति का समय नहीं है 5 साल जमीन पर उतर कर लगातार काम करना होगा.. मीडिया to वो ही दिखाएगा जो लोग देखना चाहते है.. मेदान मे आओ अब खड़े हो लोगो के साथ नहीं तो मोदी मोदी करो..
ReplyDeleteविपक्ष ओर मीडिया ये दोनों लोकतंत्र के दो अभिन्न अंग हैं, लेकिन जब मीडिया ही विपक्ष को छोड़कर सत्ता पक्ष की गोदी में जा बैठे तो लोकतंत्र की आत्मा कमजोर हो जाती है।
Deletegul gul per her koi nakli chere ye payde etra rehen hen per inko kuch pata nahi unka bassi hone ka entjer kiya ja raha fir jammin me he dafen kar diy jayga choopa baut rehne ye aazadi meetne ke liye per har koi gandhi nahi har koi bhagat bhi nahi har koi subashi nahi har koi nehru nahi har koi patel bhi nahi
ReplyDelete1. आंकड़े करोड़ में ही दिखाया करिए। शून्यों की संख्या से कोई खास फायदा नहीं होता।
ReplyDelete२. आपसे कहा था कि समाधान पत्रकारिता कीजिए, प्लीज। आप अब भी सिर्फ समस्या तक ही रुक जाते हैं।
शायद ज्यादा मेहनत लगती है।
आज का मीडिया पत्रकारित्व छोड़ दलाली करने लगा हे। आपकी सारी बातों का सार एक ही हे की आज का मीडिया मोदी की दलाली करता हे। और हिंदुस्तान की जनता अभी नहीं समझी तो आने वाले दिन इससे भी बत्तर होंगे।
ReplyDeleteHum desh me nye sire se kranti ko lekr tyar h
ReplyDeleteGreat article sir
ReplyDeleteJo kuch hua , wo to ho gaya,an sawal hai Kiya Jaye,,sir ji
ReplyDeleteकुछ करना हो तो कैसे करें? ये गुजराती दिमाग हमेशा पैसे को ही तवज्जु में रखकर चलती हैं। सत्ता से पहले इन्होंने पैसे इकट्ठे किये और सत्ता पर काबिज होने के बाद इस दौरान सिर्फ पैसे ही अपनी झूली में भरते रहे। इसी पैसे से इन्होंने हर नामुमकिन रास्ते को मुमकिन बना दिया। इसलिए कुछ करना हो तो इसी रास्ते को इख्तियार कीजिए।
ReplyDeleteBilkul sahi baat hai bhai
DeleteSab logo ko kharid liya hai bjp walo ne paise dekar
Lekin himmat nhi harna hai desh ko ek ho kar inn sab logo ka mukabla Karna hoga
May god bless you all
MERA BHARAT MAHAAN
Good article sir
ReplyDeleteI'm your fan
🙏🙏🙏
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ReplyDeleteGreate analysis. But what is solutions
ReplyDeleteसर आज नहीं तो कल आप की इस आवाज की जरूरत सभी मिडिया में होगी
ReplyDeleteविपछ को मीडिया का बहिष्कार करने की जरूरत है गांधीजी ने कहा है जब दुश्मन ताकतवर हो उसे परास्त करने का एकमात्र हथियार बहिष्कार है ।
ReplyDeleteजब मुख्यधारा का मीडिया सत्ता की दलाली और चुनावी माहौल तैयार करने लगे तब जनता को विपछ की भूमिका निभाना चाहिए
ReplyDelete😢
ReplyDeleteGreat article sir I'm your fan
ReplyDeleteआपके लेख को पढने के बाद अब यकिन हो गया कि सचमुच हमारा संविधान खतरे मे है।
ReplyDeleteAbsolutely right sirji
ReplyDeleteAbsolutely right sir
ReplyDeleteAllah apko salamat rakhe
what about the ranking of indian media since 2002 to 2019
ReplyDeleteand also what is your prediction how long can indian media survive corporate journalism?
You r right sir
ReplyDeleteसर सादर चरण स्पर्श सर मैं आपको एक बहुत अच्छी किताब गिफ्ट के रूप में भेजना चाहता हूं कृपया अपने ऑफिस का पता हमारी ईमेल एड्रेस पर भेज देंगे आपकी बड़ी मेहरबानी होगी बहुत-बहुत धन्यवाद
ReplyDeletePLEASE SIR , START YOUR OWN NEWS CHANNEL, WITH TITLE "24 HOUR MASTER STROKE"
ReplyDeleteSANJEEV RAJ
हेलो नमस्कार सर मेरा नाम राजेश है और मैंने इस सत्र मे बीटेक कंपलीट की है मैं देश मे पर्यावरण व चिकित्सा व्यवस्था को सुधारने के लिए एक मेघा पोजेकट बना रहा हूँ मुझे आपकी काफी सहायता की जरुरत हैं। काफी उम्मीदें है आपसे please mob. 8949212013
ReplyDeleteबाजपेयी जी, आप जैसी पत्रकारिता कुछ ही हमारे पत्रकार भाई करने लगें तो देश की दिशा व दशा में परिवर्तन परिलक्षित होने लगे।
ReplyDeleteन्यूज़ तन्त्र रईसो के हाथों में चला गया है, परंतु सची पत्रकारीता फिर से आयेगी बस आप अपना काम ज़ारी रखें जी । आप के जैसे कुछ पत्रकार अभी जिन्दा हैं ।
ReplyDeleteप्रसून सर के जैसा कोई है ही नहीं आज के दौर में देखा जाए तो एक एक रवीश कुमार जी हैं जो इमानदारी से अब तक बोल रहे हैं और लड़ रहे हैं लेकिन एक अकेला कब तक लड़ेंगे हमें सबको मिलकर अन्याय के खिलाफ न्याय के लिए लड़ना होगा सड़क पर उतरना होगा शराब की बातों से पूरी तरह से सहमत हूं
ReplyDeleteक्या गोदी मीडिया की जमीर मर चुकी है
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