Friday, June 7, 2019

द ग्रेट मोदी


हर चालिस मिनट मे एक किसान खुदकुशी करता रहा । लेकिन किसानो ने  वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । खेतो से जुडे मजदूरो की खुदकुशी हर घंटे होती रही । लकिन उसने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । बेरोजगारी के आंकडे हर दिन बढते रहे लेकिन बेरोजगार युवाओ ने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । दिल्ली, मुबंई, बेगलुरु सरीखे एजुकेशन हब में उच्च शिक्षा और  रिसर्च स्कालर के सामने इन्फ्रस्ट्रक्चर का संकट गहराता चला गया लेकिन वोट नरेन्द्र मोदी के ही नाम पर पडे । बस्तर, पलामू,बुदेलखंड सरीखे इलाको से दो जून की रोटी के लिये गांव वालो का  पलायन बढता चला गया , लेकिन इन इलाको में रहने वाले अपने तमाम मुश्किल हालात को भूल कर वोट नरेन्द्र मोदी को ही दे आये । दलितो का उत्पीडन बढा । सडक से लेकर यूनिवर्सिटी तक में दलित निशाने पर आया लेकिन उसने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । मुस्लिम समाज झटके में संसदीय चुनावी राजनीति में महत्वहीन हो या लेकिन उसने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । नोटबंदी हुई तो 45 करोड लोगो को समेटे असंगठित क्षेत्र में अव्यवस्था रेगने लगी और रोजगार से लेकर सरोकार की इक्नामी भी डांवाडोल हो गई । लेकिन चुनाव के वक्त अपनी मुश्किलो से पल्ला झाड कर वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । जीएसटी से छोटे व्यापारियो की कमर टूट गई । बडे व्यापारी किसी तरह अपनी जमा-पूंजी से व्यापार संभाले रहे । लेकिन चुनाव आया तो सभी ने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । बैकिंग सेक्टर से जुडे देशभर के बैककर्मी परेशान रहे लेकिन चुनाव के वक्त सभी ने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । बरस दर बरस बैकिंग फ्राड की तादाद और करोडो के वारे न्यारे होते रहे लेकिन बैको में अपने धन को जमा करने वाली जनता पर इसका असर पडा नहीं और उसने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिये । 2014 से 2018 तक महीने दर महीने योजनाओ के आसरे बदलते भारत की तस्वीर दिखाने बताने की पहल जमीन पर बेहद कमजोर रही लेकिन योजनाओ के एलान में गुम देश ने वोट नरेन्द्र मोदी के ही नाम किया ।   और कैसे 2014 की तुलना में 2019 में नरेन्द्र मोदी एक ऐसे स्टेट्समैन के तौर पर उभरे की तमाम मुश्किल हालात जो उन्ही के पांच बरस के पहले कार्यकाल [ 2014-18 ] में उभरी वह सब चुनाव के वक्त बेमानी हो गये और नरेन्द्र मोदी कभी ना हारने वाले नेता के तौर पर देश-दुनिया के सामने उभर कर आ गये । जिसके बाद भारत को रश्क हो चला है कि ऐसा नेता देश को पहले मिला होता तो भारत की वह गत ना होती जो 2014 से पहले देश की थी । ये सारे तथ्य इसलिये महत्वपर्ण हो चले है क्योकि जनता पार्टी की सरकार से लेकर मनमोहन की सरकार तक के दौर में यानी बीते 40 बरस के चुनावी दौर में हर वह प्रधानमंत्री हारा जिसकी योजनाओ ने देश से ज्यादा सत्ताधारियो का ही कल्याण किया । और पांच बरस पहले की कहानी याद करेगें तो 2014 में काग्रेस की घपले-धोटालो की सत्ता , क्रोनी कैपटलिज्म के मिजाज से तंग जनता ने काग्रेस को जमीन से ही उघाड दिया । नरेन्द्र मोदी पारंपरिक काग्रेसी सत्ता के खिलाफ जनता के आक्रोष को अपने भीतर समेट कर उम्मीद और भरोसे की पहचान लेकर उभरे । और जीत का सेहरा बांध कर नरेन्द्र मोदी ने हर उस लकीर के सामानातंर एक ऐसी बडा लकीर खिंचनी शुरु की जो समाज के भीतर के अंतर्विरोधो को उभार दे या फिर उस सच को सामने ला दें जिसे अभी तक पर्दे के पीछे से खेला जाता था । ये एक ऐसी लकीर रही जिसने समाज के भीतर अलग अलग जाति-धर्म-समुदायो के समाजिक-आर्थिक अंतर्विरोधो के जरीये सियासी बिसात पर हर किसी को ये कहकर प्यादा बनाया कि उन्हे पारंपरिक सोच त्याग कर या तो सत्ता के साथ खडा होना होगा या फिर सत्ता जिस नये भारत को गढेगी उसमें उन्हे खुद ही अपनी जिन्दगी जीने की जरुरते दिखायी देने लगेगी । यानी मुद्दो के आसरे सियासत की सोच या फिर सत्ता के पांच बरस के कार्यकाल तले सफलता-असफलता की राजनीति नये दौर में किस्सो-कहानियों में तब्दिल हो गई और पारंपरिक राजनीति को संभाले सियासी पार्टियो या नेता समझ ही नहीं पाये कि भारत तो अपने अंतर्विरोध तले ही दब चुका है । और सत्ता की सोच नागरिको के घरो में घुस कर खुले तौर पर ये एलान करने लगी कि आपके जीने के तरीके । जायके का लुत्फ । समाज को देखने समझने का नजरिया । या तक ही भारत को  चकाचौंध में समाने से पहले अपनी जडो को देखना समझना होगा । और ये नजरिया चाहे कारपोरेट की पीठ पर सवार हो कर किसान-मजदूर-गरीब गुरबो का मुखौटा हो लेकिन सही उसे ही मानना होगा । क्योकि अंतर्विरोध में तो गरीबी हटाओ का इंदिरा का नारा भी फरेब था और 1991 में आर्थिक सुधार के जरीये भारत को बाजार में तब्दिल करने की समझ भी धोखा थी । यानी 70 बरस के दौर में तमाम हालातो को जीते हुये जब आपको हमको या फिर देश के बहुसंख्यक तबके को राहत मिली ही नहीं तो फिर कोई शख्स अगर अपनी सत्ता तले सबकुछ बदलने पर आमादा हो जाये तो आपको अच्छा लगेगा ही । क्योकि परिवर्तन हो रहा है ये सोच कर ही जिन्जगी तो बदलने लगती है । और वजह भी यही है कि वोटो के गणित का सवाल जो भारतीय संसदीय राजनीति को हमेशा से हांकता रहा उसे ही 2019 के एक ऐसे जनादेश ने बदल दिया जिसे कोई देख नहीं पा रहा था । 2014-18 के दौर में जिन मुद्दो ने देश को परेशान किया वही मुद्दे चुनावी दौर में परेसानी करने वाले मोदी सत्ता को इनाम देने की स्थिति में आ गये । बहस होती रही कि गार्मिण भारत के हालात नाजुक है । किसान परेशान है । लेकिन जब 2019 का जनादेश आया तो पता चला कि 2014 में तो ग्रमिण भारत ने 30.3 फिसदी वोट बीजेपी को दिया था । जिसके नेता नरेन्द्र मोदी थी । पर 2019 में बोजेपी को अपने भीतर समा चुके नरेन्द्र मोदी की महाअगुवाई वाली बीजेपी को 37.6 फिसदी वोट ग्रामिण भारत से ही मिल गये । यानी पांच बरस बाद 7.3 फिसदी के वोट का इजाफा मोदी की लोकप्रियता तले हो गया । ये लोकप्रियता ना तो नोटबंदी से कम हुई ना ही जीएसटी से । क्योकि शहरो में भी 1.9 फिसदी वोट का इजाफा मोदी के लिये हो गया । 2014 में जहा 39.2 फिसदी वोट बीजेपी को मिले थे वहीं 2019 में ये बढकर 41,1 फिसदी हो गया । और जो ग्रामिण-शहरी मिजाज के बीज अर्द्द शहरी इलाके है वहा 2014 की तुलना में 2.3 फिसदी की बढोतरी 2019 में हो गई । 2014 में सेमी अर्बन इलाको में बीजेपी को 29.6 फिसदी वोट मिले थे तो 2019 में ये बढकर 32.9 फिसदी हो गये । और ध्याद दें तो बेहद बारिकी से जो नैरेटिव मोदी ने देश के सामने रखा उसमें जाति धर्म का पारंपरिक राजनीति सिरे से गायब थी । और जो परोसा गया उसके दो ही मायने रहे ,  स्थितियां या तो गरीब-अमीर की होती है या फिर उस इक्नामिक माडल की जिसमें मुनाफा ही हर किसी को चाहिये । यानी मुनाफा संवैधानिक संस्धानो को भी ढहा सकता है । लोकतंत्र को जीने के तरीके में भी बदलाव ला सकता है । क्योकि बीते पांच बरस के दौर में मीडिया की भूमिका अगर खुले तौर पर सत्ता से मिलने वाले मुनाफे पर जा टिकी तो हर्ज ही क्या है । आखिर मीडिया हाउस का जन्म तो पूंजी लगाकर पूंजी बनाना ही है । और अभी तक मुनाफे के रास्ते पत्रकारिता के मानदंडो पर टिके थे या फिर साख पर । तो सत्ता ने साख की परिभाषा और पत्रकारिय मानदंडो को ही बदल दिया और मुनाफा भी भरपूर दे दिया तो हर्ज क्या है । फिर देश के तमाम संवैधानिक-स्वयत्त संस्थानो को लेकर पारंपरिक बहस तो हमेशा से यही रही कि नौकरशाह भ्रष्ट्र होते है और सत्ता किसी की भी रहे भ्रष्ट्र कमाई के लिये सत्तानुकुल होकर काम करते है । यानी संवैधानिक संस्थानो के अंतर्विरोधो को जनता ने लगातार देखा समझा तो फिर संवैधानिक संस्थानो के स्वयत्त होने की परिभाषा ही अगर मोदी सत्ता ने बदल दी तो उसमें हर्ज ही क्या है । कल तक नौकरशाही के पास सत्ता से सौदेबाजी के पैतरे थे अब नौकरशाही को सत्ता के इशारे पर चलना है अन्यथा हाशिये पर चले जाना है । और इस कतार में सीबीआई, ईडी, सीवीसी ही नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग भी आ गये तो क्या फर्क पडता है । यू भी सुप्रीम कोर्ट के सरोकार आम जनता से कहा जुडे है और न्यायपालिका से न्याय लेना कितना मंहगा हो गया है ये जिले स्तर की कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट तक के हालात से समझा जा सकता है । और हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के बाहर लंबी लंबी गाडियो की कतार साफ बतलाती है कि रईसी कैसे न्यायपालिका में समा गई है । और चुनाव आयोग में एक वक्त मुख्यआयुक्त चावला भी तो काग्रेस को चुनावी तारिखो की जानकारी देने के आरोपो से घिर चुके है तो फिर अब सुनील अरोडा पर अगर सत्ता के लिये ही काम करने के आरोप लग रहे है तो इसमें गलत क्या है । और इस कतार में सबसे बडा सच तो जातियो के दूटने का है । गरीबो को इस एहसास में जीने का है कि आखिर सारा संघर्ष तो दो जून की रोटी का ही है । और 2014-18 के दौर में ये कमाल हुआ तो 2019 के  जनादेश का मिजाज ही पहली बार बदल गया । 2014 में जिस गरीब के 24 फिसदी वोट बीजेपी को मिले थे । वह 2019 में मोदी के लिये बढकर 36 फिसदी हो गये । जो निम्न यानी लोअर तबका हो उसके वोट में भी 5 फिसदी की बढोतरी हो गई । 2014 में 31 तो 2019 में मोदी के नाम पर ये बढकर 36 फिसदी हो गये । फिर मद्यम वर्ग जिसकी उम्मीदे हर सत्ता से बहुत कुछ चाहती भी है और वोट के लिये सत्ता के तमाम नये सामाजिक-आर्थिक प्रयोग से सबसे ज्यादा वह प्रभावित भी होती है उसके वोटो में भी 6 फिसदी की बढतरी बीजेपी के लिये हो गई । 2014 में मध्यम वर्ग ने 32 फिसदी वोट बीजेपी को दिये थे तो 2019 में 38 फिसदी मोदी के नाम पर दिये । और जो अपर मिडिल क्लास यानी संघर्ष करते हुये सुविधाओ को भोगने वाले तबके का रुझान भी मोदी के खासा बढ गया । 2014 में उसने बीजेपी को 38 फिसदी वोट किये थे तो 2019 में मोदी के नाम पर 44 फिसदी ने वोट किये । यानी पहली बार गजब का बदलाब संसदीय राजनीति में ही नहीं बल्कि चुनावी मिजाज में भी आ गया और पहली बार सवाल ये भी उठा कि क्या बीजे 70 बरस के दौर को राजनीतिक सत्ता के जरीय भगते भोगते जनता उब चुकी थी और अब उसे राजनीति से नेताओ से घृणा हो चुकी थी तो उसने अपने ही कटघरे को तोड दिया और तमाम राजनतिक दलो को सीख दे दी कि अब और नहीं । क्योकि 2019 के जनादेश की नब्ज को पकडियेगा तो चौकाने वाले सामाजिक समीकरण नजर आयेगें । क्योकि किसानो ने 2014 में आय दुगुनी होने के वादे तले बीजेपी को 33 फिसदी वोट किये । लेकिन आय दुगुनी होना असंभव सा है ज ये किसानो को लगने लगा तब 2019 में किसानो ने 38 फिसदी वोट मोदी को किये । यानी किसानो ने 6 फिसदी ज्यादा वोट 2014 की तुलना में मोदी को दे दिये । दलितो के भीतर मायावती से लेकर तमाम दलित राजनीति करने वालो को लेकर कुछ सवाल हमेशा से थे तो 2014 में मोदी के दलित उत्पीडन बंद करने को लेकर जो आवाज आई उसमें दलतो ने 24 फिसदी वोट बीजेपी को किये । लेकिन उसके बाद दलितो पर उत्पीडन जिस तरह बढे और राजनीतिक सवाल मुद्दो की शक्ल मे जन्म लेने लगे तो 2019 में दलितो ने ही 33 फिसदी वोट मोदी के पक्ष में कर दिये । यानी 2014 की तुलना में2019 में दलितो के  9 फिसदी ज्यादा वोट बीजेपी को मिले ।   आदिवासी इलाको में संघ के आधिवासी कल्याण संघ का कामकाज आसर लाया तो 2014 की तुलना में 2019 में 6 फिसदी वोट ज्यादा बीजेपी को मिले । फिर ओबीसी या अन्य पिछडे वर्ग के भीतर जो सवाल 2014-18 के बीच हर योजना और नोटबंदी-जीएसटी को लेकर थे वह सब 2019 के जनादेश में काफूर हो गये । आलम ये हो गया कि निचले स्तर पर ओबीसी यानी लोअर ओबीसी वर्ग ने 2014 में बीजेपी को 42 फिसदी वोट दिये थे । तो उसके बाद बीजेपी अध्यक्ष ने जिस तरह देश को बताया कि प्रधानमंत्री मोदी ओबीसी है तो 2019 में लोअर ओबीसी के 48 फिसदी वोट मोदी को मिल गये । यानी 6 फिसदी वोट का इजाफा हो गया । लेकिन उससे भी बडी छलांग ओबीसी के उपरी तबके में लगी । जहा 2014 में सिर्फ 30 फिसदी वोट बीजेपी के हिस्से में आया था वहा 11 फिसदी की छलांग लगी और 2019 में 41 फिसदी अपर ओबीसी का वोट मोदी के हक में चला गया । और संभवत अखिलेश यादव को सबसे बडी झटका इसीलिये लगा कि जनादेश के बाद जो नैरेटिव उभरा उसमें यादव भी बंट गये । ना तो बिहार में आरजेडी और ना ही यूपी में सपा को एकमुश्त यादव वोट मिला । हालाकि ये सवाल अनसुळझा सा रहा कि जनादेश से पहले जाति-धर्म और गठबंधन को लेकर जो जिक्र सीएएसडीएस से लेकर समाम एक्जिट पोल वाले ये फिर मीडिया के धुरधंर पत्रकार कर रहे थे उनकी फिसाल्फी या उनका आंकलन जनादेश के बाद बदल कैसे गया । या फिर ये मान लया जाये कि अब समाजिक-आर्थिक-राजनीतिक आकंलन के भरोसे जनादेश नहीं आता बल्कि जनादेश के अनुकुल आंकलन करना होगा । ये सवाल सबसे महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक यानी मुस्लिम समुदाय को लेकर भी है । 2014 में काग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण निशाने पर थी । और मोदी उम्मीद का हिमालय संजोय सत्ता के लिये संघर्ष कर रहे थे तो 2014 में मुस्लिम के 9 फिसदी वोट बीजेपी के हक में गये जो खासी बडी बात थी । लेकिन 2014 से 2018 के बीच तीन तलाक के सवाल को एक तरफ मोदी ने अपनी सफलता की कुंजी माना तो दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय को जिस तरह बीजेपी संघ से बार बार संदेश सीधा गया कि वह खुद को मुसलिम ना मान कर देश के नागरिक या गरीबी से निजात पाने के सवाल तले रखे और फिर जिस तरह कड्डर हिन्दुवादियो के निशाने पर मु्सलिम आये उसमें विपक्ष ने माना कि अब तो मु्सिलम खामोश हो गया है और जनादेश के दौर में वह मोदी को हराने क लिये ही एकमुश्त उभरेगा . लेकिन जनादेश के आंकडे बताते है कि 2019 में भी 8 फिसदी मु्सिलमो ने मोदी को वोट दिया । यानी 2014 से 2019 की तुलना करते हुये सिर्फ मु्सिलम ही वह तबका है जिसने बीजेपी को दिये अपने वोट में महज एक फिसदी की कमी की । लेकिन वोट दिया । तो क्या सबका साथ सबका विकास का जादू काम कर रहा था । या फिर राजनीतिक पंडितो को ये समझ बी नहीं आ रहा था की देश इतना बदल चुका है कि उसे अब जाति धर्म में बांटा नहीं जा सकता है । हालाकि इस कडी में सबसे ज्यादा वोट मोद के पक्ष में उंची जतियो के पडे । जिसमें 7 फिसदी की बढोतरी हो गई ।  2014 में जहा उंची जातियो के 54 फिसदी वोट बीजेपी  को मिले थे वहीं 2019 में उंची जातियो के 61 फिसदी वोट मोदी के पक्ष में पडे । तो जनादेश की नब्ज जब ये बता रही है कि जातियों के खुद के बंधन को तोड दिया है । धर्म मायने नहीं रखता । मुद्दे बेमानी है । जिन्दगी जीने के दौरान संघर्ष या फिर उच्च शिक्षा के बाद भी समाज अब बराबरी की दिशा में जा रहा है , जहा बहुत पढा लिखा होना मायने नहीं रहता । बहुत पूंजी समेट रईसी या फिर रईसी और दंबगई के सहारे नेतागिरी करने की सोच भी अब गले में भगवा गमछा लपेटे गरीब गुरबो को ज्यादा अधिकार राहत देन पर उतारु है । कानून व्यवस्था का राज भी सत्ता के अनुकुल कार्य करने पर उतारु है क्योकि देश को मजबूत नेता पहले चाहिये संविधान या लोकतंत्र बाद में । और अब हमारे पास सबसे मजबूत नेता है । लोकतंत्र की ताकत समेटे सबसे शानदार मंत्रिमंडल है । और इस आभामंडल को बताते हुये देश को सही रास्ते पर लाने के लिये मीडिया संस्थानो में होड है  । हर कोई कह रहा है , ' द ग्रेट मोदी ' ।  तो फिर आईये मिल कर गाये...वन्दे मातरम् । क्योक स्वतंत्रता का मंत्र, वंदे मातरम् ही था जो राष्ट्रगीत बना ...जो जल्द ही राष्ट्रगान बन सकता है... वन्दे मातरम्! / सुजलाम, सुफलाम् मलयज-शीतलाम् / शस्यश्यामलाम् मातरम् / वन्दे मातरम् / शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम् / फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् / सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम् / सुखदाम्, वरदाम्, मातरम्! / वन्दे मातरम् / वन्दे मातरम्  .....

Saturday, June 1, 2019

रायसीना हिल्स पर बिछी रेड कारपेट पर सियासी जायका....


राष्ट्रपति भवन की चकाचौंध । भव्यता से सराबोर शपथग्रहण । 48 घंटे में बनी रायसीना दाल का जायका लेता ।  अमित शाह का गृहमंत्री बनना । निर्माला सीतारमण का वित्त मंत्री बनना । बरोजगारी दर शहरो में सात फिसदी पार कर जाना । देश में बोरजगारी दल का संकट आजादी के बाद से सबसे ज्यादा गहरा जाना । विकास दर छह फिसदी से भी नीचे आ जाना । बजट से पहले पहली ही कैबनेट में 60 हजार करोड रुपया किसान-मजदूरो को देने का एलान कर देना । उत्पादन है नहीं । रुपया कहा इन्वेस्ट करें कुछ पता नहीं । तो सत्ता जीती है , विचारधारानहीं । तो सत्ता दूबाराज्यादा मजबूती से पाई है , इक्नामी कहीं ज्यादा कमजोर हुई है । राजनीतिक दलो से गठबंधन मजबूत हुआ है लेकिन समाज के भीतर दरारें साफ दिखायी देने लगी है । लेकिन अब कुछ भी चौकाता नहीं है क्योकि जनादेश तले ही अब देश की व्याख्या की जा रही है । जनादेश कह रहा है मुस्लिम-दलित-ओबीसी को भी मोदी सरीखा नेता मिल गया है तो फिर मंडल टूट चुका है । जाति गंठबंधन टूट चुका है । धर्म की लकीरे मिट चुकी है और देश में सिर्फ अब अमीर-गरीब नामक दो प्रजातिया ही बची है । जिनकी दूरियां पाटने के लिये देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी जान लगा चुके है । वाकई अब कोई भी तथ्य नहीं चौकाता । समझना वाकई मुश्किल हो चुका है कि जनादेश की व्याख्या करने वाले जनादेश से 48 घंटे पहले तक भारत में जातियों-समुदायो क राजनीति तले जनादेश क्यो देख रहे थे । और जनादेश आने के 100  घंटे बाद मंत्रिमंडल की जो तस्वीर उभरी उसमें जातिय-सामाजिक समीकरण क्यो देख गये । यूपी में ब्राहमण की जरुरत तले महेन्द्र नाथ पांडेय । तो हरियाणा में गैर जाट सासंद कृष्णपाल गुर्जर का मंत्री बनना । तो झारखंड में गैर आदिवासी सीएम है तो आधिवासी सांसद अर्जुन मुंडा को मंत्री बना देना । उमा भारती चुनाव मैदान से बाहर हो गई तो उनी एवज में प्रहालद पटेल को मंत्री बनाकर लोध समाज से तालमेल बैठाये रखना । उत्तराखंड में राजपूत सीएम है तो पोरियाल को लाकर ब्राहणण को साधना । राज्थान में शेखावत के जरीये जातिय समीकरण साधना । तो फिर जनादेश के पैमाने या उसी की व्याख्या तले मंत्रीमंडल भी क्यों नहीं बनाया गया । अब कुछ भी नहीं चौकाता है क्योकि एक तरफ मेनका गांधी , जंयत सिन्हा और अनंत हेगडे के जरीये मुस्लिम पर निशाना साधने वालो को या फिर लिचिग करने वालो को माला पहना कर स्वागत करने वाले को  या संविधान पर अंगुली उठाने की बात कहने वाले को मंत्रिमंडल में ना लेकर अपनी सहिष्णुता और सादगी नरेन्द्र मोदी दिखाते है लेकिन गिरिराज सिंह , संजीव बालियान और ज्योति निरंजन साध्वी को मंत्रीमंडल मेंलेकर क्या संदेश देते है ये भी अब चौकाता नहीं है । अब तो ये भी नहीं चौकाता है कि बीते पांच बरस में कांल ड्राप के संकट से निजात ना दिला पाने वाले दुबारा उसी मंत्रालय को संभाल रहे है । ट्रेन की रफ्तार द्यादा तो नहीं लेकिन ट्रेन वक्त पर चला सके इसमेंअसफल रहने वाले वहीं विभाग संभालने जा रहे है । पांच बरस में देश को नई शिक्षा नीति तब नहीं मिल पायी जो 100 दिन में लाने के वादे क साथ 2014 में सत्ता में आयी थी । तो फिर शिक्षा मंत्रालय से निकले मंत्रियो को दूसरा विभाग सौप कर कौन सा तीर मारा गया । वाकई अब कुछ भी चौकाता । हां, य जरुर चौका गया कि किसानो की आय दुगुना करने का वादा करने वाले पीएम ने इस बार किसानो से कोई वायदा नहीं किया लेकिन पुराने कृर्षि मंत्री राधामोहन सिंह की जगह नरेन्द्र सिंह तोमर को कृर्षि मंत्री बना दिया । खेल मंत्रालय भी एक ओलपिंयन खिलाडी से लेकर पूर्वी भारत के रिजूजू के युवा होने को महत्वपूर्ण बना दिया । ये समझने की बात है कि मंत्रियो की फौज कितनी भी बडी हो चंद दिनो में ही आप भूल जायेगं कि कौन सा मंत्री किस विभाग को संभाले हुये है । ठीक वैसे ही जैसे आपको याद नहीं होगा कि 2014-19 के बीच देश का प्रयावरण मंत्री कौन था । और इस बार पार्यावरण मंत्री कौन है । ना तो हर्षवर्धन को तब काम था ना ही अब बाबुल सुप्रीयो को कोई काम होगा । जो कि नये पर्यावरण , जंगल ,क्लाइमेट चेंज वाले मंत्रालय को संभाल रह है । वैसे ये सवाल अमित शाह, निर्माला सीतारमण ,राजनाथ को लेकर भी हो सकता है कि आखिर इनकी मौजूदगी का मतलब होगा क्या । तो साफ है अमित शाह की दबंग छवि अब सिटिजन कानून से लेकर धारा 370 और 35 ए पर चोट करेगी तो कोई सवाल उठा तो अमित शाह के माथे पर । पर सफल हुये तो मोदी का प्रयोग लाजवाब है । निर्माला सीतारमण भी कैसे वित्त मंत्रालय संभालेगी । जबकि ये हर कोई जानता है कि वह फाइनेंस उतना ही समझती है जितनी समझ  बाबूल सुप्रियो  को पर्यावरण को लेकर है । तो डूबती इक्नामी को ना संभाल पाने का दाग निर्माला को खामोशी को ये जानते समझते हुये लेना होगा कि जैसे ही जनादेश आया था उसके तुरंत बाद रिजर्व बैक के गवर्नर ने तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली को इकनामी ही नही बैकिंग सर्विस का हाल भी बता दिया था । जिसके बाद जेटली को भी लगा अब बीमार इकानामी तले खुद को ज्यादा बीमार करने का कोई मतलब है नहीं । फिर जेटली के करीबी आर्थिक सलाहकार सुब्रहमण्यम भी जिस नोट पर सरकार का साथ छेड कर निकल गये थे , वह भी किसी से छुपा नहीं है । और राजनाथ सिंह के रक्षा मंत्रालय में आने का मतलब सिर्फ रफायल का सौदा भर नहीं है बल्कि आने वाले वक्त में तमाम डिफेन्स डील को लेकर जो बात राजनाथ कह पायेगें वह कोई दूसरा मंत्री कह नहीं पाता । यानी पीएम मोदी के लिये ये तीनो ढाल भी है । हथियार भी है । और कुछ भी नहीं के बाराबर भी है । क्योकि पीएमओ से तीनो मंत्रालय चलेगें ये किसी से छुपा नहीं है और तीनो खामोशी से पीएमओ के नौकरशाहो को देखेगे जिन्हें अब मंत्री स्तर की मान्यता सुविधा सबकुछ दिया जा चुका है । तो फिर चौकाता तो कुछ भी नहीं है । हां पहली बार रायसीना दाल ने जरुर चौकाया । 48 घंटे में धीमी आंच पर बनने वाली रायसीना दाल जब रायसीना हिल्स पर बने राष्ट्रपति भवन में शपथ समारोह के बाद परोसी गई तो जायका वाकई अद्भूत रहा होगा । कयोकि जिस तरह हिन्दुत्व की पोटली उठाकर देशभक्ति और राष्ट्रवाद के राग तले पीएम मोदी ने देश के हर जरुरी मुद्दे को ही चुनाव के वक्त दफ्त करा दिया और हर वोटर बोल पडा पहले देश बाद में गरीबी-मुफलिसी-बेरोजगारी-खुदकुशी-लिचिंग-अपराध संवैधानिक संस्था-सुप्रीम कोर्ट-सीबीआई-चुनाव आयोग तो लगा ऐसा कि देश वाकई बदल चुका है । और रौशनी से जगमग राष्ट्रपति भवन की लाल बदरी पर बीछे लाल कारपेट पर खडे -बैठे संघ के स्वयसेवको की कतार के सामानातार कारपोरेट के कतार । बालीवुड के चमकते चेहरो के बीच भगवा ओढे संतो का चमकदार मुख । मोदी-मोदी नारे और बीच बीच में सीटी बजाते राक्यत्ताओ की कतार के बीच आईएएस-आईपीएस का तमगा लिये नौकरशाहो के चेहरे की मुस्कान । पीएम के सामने झुके झके से राष्ट्रपति और सासंदो की करिष्माई मोदी से मिलने की होड । देश के आमंत्रित 8 हजार लोगो के इस समूह में शायद ही कोई ऐसा रहा होगा जो खुद में मोदी या मोदी के सबसे करीब होने का गुमान पाल कर वहा से ना निकला हो । इस दृश्य ने चाहे अनचाहे नागार्जुन की कविता की याद दिला दी जो इंदिरा पर लिखी गई थी । तब  रानी थी आज कोई राजा है । तब प्रजातंत्र पर सवाल थे अब लोकतंत्र पर सवाल है । पर कवि नागाजुर्न की प्किताया अद्बूत है चाह तो रायसीना हिन्स पर अब भी फिट बैठ सकती है....आओ रानी , हम ढोयेगें पालकी/ यही हुई है राय जवाहर लाल की / रफू करेगें फटे पुराने जाल की / भऊखी भारत-माता के सूखे हाथो को चूम लो / प्रेसिडेन्ट की लंच हिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो / पद्म-भूषणों, भारत-रत्नो से उनके उद्दार लो / पालियामेंट के प्रतिनिधियो से आदर लों, सत्कार लो / मिनिस्टरो से शेकहैण्ड लो, जनता से जयकार लों / जांये-बांये खडे हजारी आफिसरो से प्यार लो / धनकुबेर उत्सुक दिखेंगे , उनको जरा दुलार लो / होठों को कंपित कर लो, रह रह कर कनखी मार लो / बिजली की यह दीपमलिका फिर-फिर इसे निहार लो / ये तो नयी -नयी दिल्ली है , दिल से इसे उतार लो / आओ रानी , हम ढोयेगे पालकी .......