बंदूक का जवाब कलम से देंगे। ये कोई नारा नहीं, पाकिस्तान में मीडिया का सच है। पाकिस्तान में जियो न्यूज चैनल के पत्रकार मूसा खानखेल के शरीऱ में पैतीस गोलियां दागी गयीं। फिर सर कलम कर दिया गया।
28 साल के पत्रकार मूसाखानखेल उस रैली को कवर करने स्वात गये थे, जो मुल्लाओं की जीत का जश्न था। या कहें पाकिस्तान सरकार के घुटने टेकने का जश्न था। जिस सरकार ने घुटने टेक दिये वहां का पत्रकार छाती तानकर खड़ा हो सकता है ....वह भी पाकिस्तान में, यह किसी भी भारतीय के लिये अचरच की बात है। क्योंकि भारत के चश्मे से पाकिस्तान को देखने का मतलब कट्टमुल्लाओं की फौज नज़र आती है। फिर मुंबई हमलों के बाद से तो पाकिस्तानी मीडिया को पाकिस्तान के ही रंग में रंगा माना जा रहा है।
लेकिन पत्रकार मूसा खानखेल की हत्या के बाद स्वात इलाके में जा कर पाकिस्तान के पत्रकारों ने जिस हिम्मत से भविष्य के संघर्ष के संकेत दिये, उससे भारतीय मीडिया या भारत के पत्रकारों का दिल जरुर हिचकोले खा रहा होगा। खासकर जब बात पाकिस्तान और भारत के मीडिया की होती है तो सभी के दिमाग में पाकिस्तान की बंदिशें मीडिया को भी मुल्लाओं के रंग में रंग देती है। लेकिन जब मुल्लाओं के खिलाफ ही जम्हुरियत का सवाल पाकिस्तान का मीडिया उठा रहा है तो भारत में पत्रकारो को अपने भीतर झांकना होगा।
मुंबई हमलों के बाद से किसी पत्रकार की इतनी हिम्मत नहीं रही कि वह कह सके कि पाकिस्तान से आये आंतकवादियो को कहीं ना कही स्थानीय मदद मिली होगी। यहां तक की आईबी की उस रिपोर्ट को भी तत्काल दफ़न किया गया जो बताती है कि किस तरह कोस्टल गार्ड से लेकर नौ सेना की खुफिया एजेंसी न सिर्फ फेल हुई बल्कि जो खुफिया रिपोर्ट इन्हे फैक्स की गयी ...कार्यवाही उस पर भी नहीं हुई । मीडिया में देशभक्ति का जज्बा कुछ इस तरह जागा और सरकार ने लगाम लगाने की तर्ज पर मीडिया को देशभक्ति का पाठ कुछ इस तरह पढ़ाया कि सरकार और मीडिया के सुर एक सरीखे हो गए।
वो तो भला हो चुनाव का वक्त है तो पीएम बनने का इंतजार करते आडवाणी ने संसद में ही दलील दे दी कि बिना स्थानीय मदद के मुंबई में आतंकवादी हमला कर ही नहीं सकते थे। लेकिन बात मीडिया की है। संयोग से भारत की खुशकिस्मत है कि मीडिया हाउसों के मालिक पत्रकार भी रहे हैं। खासकर न्यूज चैनलो के मालिकों की फेरहिस्त देखे तो सारे अग्रणी न्यूज चैनलो के मालिक पेशे से पत्रकार रहे हैं। इसलिये भारत में लोकतंत्र के चौथे पाये को लेकर आजादी का राग कुछ ज्यादा ही गाया जाता है। इमरजेन्सी में मीडिया की भूमिका ने इसे सही भी साबित किया । लेकिन छाती पर लगा यह तमगा बीते 34 साल में न सिर्फ जंग खा चुका है बल्कि इसपर पूंजी का लेप भी कुछ ऐसा चढ़ा है कि देशभक्ति का मतलब मुनाफे और सरकार की चाकरी पर आ टिका है।
यहीं से पाकिस्तान के मीडिया का संघर्ष और भारतीय मीडिया की त्रासदी का अंतर समझा जा सकता है । पाकिस्तान में जनरल यानी मुशर्रफ ने ही न्यूज चैनलों को पहली हरी झंडी दिखायी थी। जियो न्यूज चैनल का जन्म उसी के बाद हुआ । जब 2001 में वाजपेयी से मिलने मुशर्रफ आगरा पहुंचे थे, तब उन्हे मीडिया की ताकत का असल एहसास हुआ था । मुझे याद है किस तरह सुबह के नाश्ते के लिये मुशर्रफ ने भारतीय पत्रकारों को आमंत्रित किया था और एनडीटीवी को उसके लाइव प्रसारण की इजाजत देकर भारतीय कूटनीति की हवा निकाल दी थी। जो बात वाजपेयी खुले तौर पर कह नही रहे थे और पाकिस्तान जो बात खुले तौर पर कहना चाहता था, उसे मुशर्रफ ने भारतीय मीडिया के जरीये ही कह दिया। उस दिन देश में वाजपेयी की बात कम और मुशर्रफ के जरीये एनडीटीवी की बात ज्यादा हो रही थी।
आगरा से इस्लामाबाद लौटने के बाद ही प्राइवेट न्यूज चैनलों को इजाजत पाकिस्तान में मुशर्रफ ने दी । जियो न्यूज चैनल को चलाने की पूरी ट्रेनिग उन्ही विदेशियों ने दी, जो “आजतक” न्यूज चैनल को लांच करने से पहले उसमें काम करने वाले पत्रकारो को ट्रेनिग दे रहे थे। चूंकि आजतक लांच करने के दौरान की दो महिने चली ट्रेनिग में मै खुद एक सदस्य था और उन्हीं विदेशी गुरुओं ने मुझसे एंकरिंग करवायी तो उनसे संवाद का सिलसिला न सिर्फ लंबा रहा बल्कि आजतक लांच होने के बाद वही टीम जब पाकिस्तान में जियो न्यूज चैनल लांच करने की ट्रेनिग दे रही थी तो आजतक के रिपोर्टिग-एंकरिग के टेप ले जाकर उन्हें दिखाती भी थी। किस तरह आजतक भारत में छाया है और ट्रेनिग के बाद कैसे आजतक के पत्रकार काम करते है। मुझे याद है मुशर्रफ की आगरा यात्रा से ठीक पहले मै पाकिस्तान गया था तो हामिद मीर से मिला था। उस वक्त वह एक आखबार निकाला करते थे । वो उसके संपादक भी थे । उस दौर की पहचान ने (आगरा ने) मुझे पाकिस्तान खेमे से खबरे निकालने में मदद की और हामीद मीर को आजतक पर इंटरव्यू के लिये तीन दिनों तक बार बार लाया । उस वक्त हामिद मीर ने कहा था कि भारतीय मीडिया की पावर अगर पाकिस्तान में भी आ जाये तो हुकुमते मनमाफिक तो नहीं कर पायेंगी।
स्वात घाटी में पत्रकारों के बीच जब पत्रकार मूसा खानखेल की हत्या के बाद हामिद मीर कलम से बंदूक का सफाया करने का ऐलान कर रहे थे तो मुझे 2001 का वह दौर भी याद गया, जब मै पहली बार आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैय्यबा के मुखिया मोहम्मद हाफिज सईद का इंटरव्यू ले कर लौटा था। उस वक्त आजतक के मालिक अरुण पुरी ने मेरी पीठ ठोंकी थी। खुद इंटरव्यू देखा था। और उस दौर में वाजपेयी सरकार के भीतर से यह संकेत दिये जा रहे थे कि इस इंटरव्यू को न दिखाया जाए । इससे कश्मीर के आतंकवाद को और हवा मिलेगी। लेकिन अरुण पुरी ने न सिर्फ इंटरव्यू दिखाने का निर्णय लिया बल्कि अखबारो में विज्ञापन निकाला –“आजतक कैचेज लश्कर चीफ” ।
लेकिन वक्त बदल चुका है। सरकार अपनी कमजोरी छुपाकर मीडिया को सीख दे रही है कि उसे क्या करना चाहिये.......और मीडिया भी पत्रकारिता का ककहरा सरकार से सीखने को बेताब है। दरअसल, यह बेताबी सत्ता से मिलने वाले मुनाफे में हिस्सेदारी की चाह में पत्रकारिता न करने की एवज का ही नतीजा है। पत्रकारिता ताक पर रखकर अगर मुनाफे में हिस्सेदारी हो सकती है तो पत्रकारिता की जरुरत ही क्या है। जियो न्यूज उस कसाब को पाकिस्तानी साबित कर देता है जिसे पाकिस्तान की सरकार पाकिस्तानी मानने से इंकार कर देती है । जियो कराची के उस घर को दिखा देता है, जहां मुंबई हमले की साजिश रची गयी...जबकि पाकिस्तानी सरकार साजिश में पाकिस्तान को महज एक हिस्सा भर बताती है।
दूसरी तरफ भारत में किसी न्यूज चैनल की हिम्मत नहीं होती कि वह मंत्री या नौकरशाहों की राष्ट्रभक्ति भरी चेतावनी को खारिज कर आतंकी हमले के पीछे के आतंक और उसके सच को सामने रख सके । मुंबई की लोकल में हुये सीरियल ब्लास्ट से लेकर दिल्ली में हुये सीरियल ब्लास्ट और उसके बाद बटला हाउस इन्काउटर को लेकर जिनकी गिरफ्तार हुई और पुलिस के पकडे गये आरोपियों को लेकर जो जो कहानियां गढ़ी गईं, अगर उसकी तह में तो जाना दूर उसे ऊपर से ही परख ले तो सुरक्षा के नाम पर पुलिस की कार्रवाई देश को कैसे असुरक्षित कर रही है...खुद -ब-खुद सामने आ जायेगा। लेकिन किसी भी न्यूज चैनल के भीतर पाकिस्तान की तरह अपने ही बाजुओं को खोखला बताने की हिम्मत है कहां ?
भारत में न्यूज चैनलों की हालत किस स्थिति तक जा पहुंची है, इसका खूबसूरत नजारा फिल्म “दिल्ली-6” में देखा जा सकता है । जहां फिल्म की स्क्रिप्ट ही न्यूज चैनलों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करती है । और फिल्म में बकायदा एक न्यूज चैनल न सिर्फ अपने चैनल चिन्ह बल्कि रिपोर्टर - एंकर के जरिये भी छाती ठोंक कर उस फिल्मी कहानी को आगे बढ़ाता है, जो फिल्म खत्म होने का बाद उस सोच को समाज का कलंक करार देती है। फिल्म के आखिर में डायरेक्टर ने बेहद हेशियारी से पर्दे पर उस आईने को टांग दिया है जो फिल्म सभी चरित्रों को दिखाते हुये कहता है कि इसमें अपनी तस्वीर देख कर इसका एहसास करो की असल चोर तुम्हारे ही अंदर है। अंत में हर चरित्र इस आईने में खुद देखता है लेकिन चैनल का पत्रकार यहां भी आइने में अपनी तस्वीर देखने नहीं आता। संयोग से असल में यह चैनल भी पत्रकार का ही है और इसमें काम करने वाले भी पत्रकार ही है।
लेकिन भारतीय परिवेश में यह पत्रकार भी छाती ठोंक कर चल सकते हैं और पाकिस्तान के मीडिया को ताजी हवा का झोंका मान सकते है । लेकिन दोनों देशों के मीडिया का वर्तमान सच यही है कि पाकिस्तान में उसे बंदूक से दो दो हाथ करने है..जहां मूसा खानखेल सरीखे पत्रकार की जान जायेगी और भारत में पूंजी बनाने के लिये पहले सरकार से यारी फिर खबरों को दरकिनार कर फिल्मी कहानी का हिस्सा बनकर पत्रकारिता को प्रोफेशनल बनाने का राग गुनगुनाना है। दिलचस्प है कि मंदी के दौर में जहां लाखों लोगों की नौकरियां जा रही है,वहां मीडिया की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है,लेकिन सिनेमाई दर्शन में खुद से अभिभूत और पूंजी से संचालित मीडिया का ध्यान सिर्फ लाखों रुपए पीटने में लगा है।
प्रसूनजी कलम और बंदूक दोनों का इल्म रखता हूँ.
ReplyDeleteहुकूमत से टकराने में जोखिम तो हैं ही सर कलम तो मामूली बात है साहब गुजरात शिक्षा जगत के मास्टर माइन्ड आतंकवादियों ने राज्य के सरकारी अध्यापकों को सोच को ही कत्ल कर दिया.
पर हम जैसों के तेवर अभी भी बरकरार हैं.
हाथ काटे हैं जबां काटी है.
सर हमारा तो अभी बाकी है.
चाहे जितने तू ज़ुल्म कर ज़ालिम,
ग़म उठाने का दिल तो आदी है.
हिंदुस्तान की मीडिया की विश्वसनीयता हमेशा संदेहास्पद लगाती है | मीडिया किसी खास विचार, राजनितिक पार्टी और मीडिया में पैसा लगाये समूहों के जाल में फ़सी नजर आती है | यही मीडिया फील गुड का धज्जियाँ उदा रही थी | आज वही मीडिया भारत विकास के मलाई में नहा रही है | ऐसा लगता है जैसे सरकार का माउथ पीस होकर विपक्ष की बखिया उतारने को तैयार बैठी हो | पत्रकारों को जैसे बोल रखि हो की कर्णाटक, गुजरात, मध्यप्रदेश , छत्तीसगढ़ की चढी बनियान तक की खबर लावो | अगर वही ख़बर हरियाणा, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र से आ जाती है तो सोच में पड़ जाते हैं की क्या करें दिखाएँ या ना दिखाएँ | सब जो स्टूडियो में भोर से तीस्ता और बाकी लोग बैठे थे वो निराश होकर चले गए की इन जगहों पर तो कुछ हुआ नहीं और जहाँ हुआ उसके बारे में तो बोलेंगे नहीं | पुरी देश की जनता मान चुकी है की मुखर्जी बाबू लाल लाल मुह कर के पाकिस्तान पाकिस्तान चुनाव के कारण कर रहे हैं | बाकी के आतंकी हमलो के समय पाकिस्तान नाम लेने से भी कतराते थे | उसी पाकिस्तान पाकिस्तान के माला जपने में अन्दर के संदिग्धों को बचाए जा रहे हैं | अगर दावूद से इतना ही प्रेम है तो उसके देश के अन्दर के सम्पतियों और नेटवर्क क्यों नहीं तोड़ते? वो भी काम पाकिस्तान से करवाएंगे क्या? कुछ दिन के बाद पाकिस्तान को बुलाएँगे की यार देश के अन्दर के संदिग्धों को पकड़ने में मदद करो | मीडिया सच मुच चापलूस हो गयी है |
ReplyDeletesach aapne aayna dikha diya ............
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ReplyDeleteprasoon ji..baat sahi hai..magar aap bhi media se judey hai waha bhi note chhapaney ka dhnadha hee hai..
ReplyDeleteaap chup kyu hai?? kya ye note ki taakat hai ya majboori??
आदरणीय प्रसून जी ,
ReplyDeleteहमारे देश में मीडिया को जितनी छूट मिली है इतनी किसी और देश में नहीं मिली होगी .अब ये बात दीगरहै की यहाँ के पत्रकार ,मीडिया कर्मी इस स्वतंत्रता का फायदा किस स्तर पर और किस रूप में लेते हैं .आज कितने पत्रकार ,
मीडियाकर्मी ,ऐसे हैं जो लंबे पॅकेज ,
ग्रेड वन फेसिलिटीज,से ऊपर हो कर देश,समाज ब्राष्ट्र के बारे में सोचते हैं ?या अपनी कलम को सिर्फ़ सामाजिक सरोकारों ,परिवर्तन के हथियार के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं . ये तो आपने एक अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है .पाकिस्तान और भारत के पत्रकारों को लेकर .अच्छी पोस्ट के लिए शुभकामनायें.
हेमंत कुमार
An exhaustive and honest analysis. Keep penning your thoughts.
ReplyDeleteJournalists like you are a rare breed now.
यथार्थ कथन है आपका मेरे ब्लॉग पर पधार कर "सुख" की पड़ताल को देखें पढ़ें आपका स्वागत है
ReplyDeletehttp://manoria.blogspot.com
Prasun ji .....ye sahi hai.ki media bandook se lad sakta hai per daulat se nahi.........aaj poonjivadi yug me sab kuch poonjivaad hi nirdharit kar raha hai.......media house bhi isse achute nahi hai..........
ReplyDeleteप्रसून जी ,
ReplyDeleteजहा तक अपने देश में मीडिया के हालात की बात है , तो मै यकीनन कह सकता हु की हमें काफी आज़ादी है ..लेकिन जब तक मीडिया पर कारपोरेट हाउस का कब्ज़ा रहेगा आप की अभिब्यक्ति पर लगाम लगी रहेगी .
जहा तक पाकिस्तान का सवाल है , वहा मीडिया पर काफी पाबन्दी है. जिस तरह हम अपने देश मे बेबाकी से अपनी बात कहते है ..यदि उस तरह पाकिस्तान मे कहे तो हर रोज़ एक मूसा खान का कत्ल होगा .
लतिकेश
मुंबई
बरवाद ए गुलिस्ता करने को, बस एक ही उल्लू काफ़ी था. हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम ए गुलिस्ता क्या होगा. किसी शायर की यह पंक्तिया हमारे तथाकथित ज़िम्मेदार मीडीया प्रोफ़्फेसिओनल्स पर सही प्रतीत होती है जो अपना कर्तव्य भूल कर किसी पूंजीपति की गोद मे बैठ के राजनेताओ से प्यार की पींगे बड़ा रहे है .सही को सही कहने से कतरा रहे है "जो तुम को हो पसंद वो ही बात कहेंगे , तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे" को चरितार्थ कर रहे है. डेमॉक्रेसी का यह चोथा स्तंभ लगता है पूंजीबाद की नीब पर रखा है जिस पर राजनीति का सेमेंट लगा हुआ है. तो फिर हम कैसे विश्वास करे की मीडीया अब तक बिका नही. लेकिन इन सब मे भी एक राहत देने बाली बात यह है की अब भी भगवान की कृपा से कुछ अच्छे लोग मोजूद है जो अभी भी हमारा विश्वास इस चोथे स्तंभ मे बरकरार रखने को बाध्य करते है. कुछ चेनल तो आजकल सिर्फ़ भूत प्रेतो, दूसरी दुनिया के लोगो, तावाही आदि की ख़बरे ही दिखाते है. आजकल आपदेखो फिल्म के प्रमोशन मे मीडीया कितनी शिद्दत से लगाहुआ है जैसे बाकी ख़बरे कोई काम की नही सिर्फ़ फिल्म का प्रमोशन ही मुख्य काम है. मालूम है सबसे बड़ी समस्या क्या है? मीडीया मे ज़िम्मेदार लोगो की कमी होना. जो खबर को पहचाने, उसका मह्त्ब जाने देश और समाज के प्रति मीडीया की भूमिका को जाने. लेकिन आजकल मीडीया मे खास कर एलेक्ट्रॉनिक मीडीया मे ऐसे लोग घुस चुके है जिनका इन सब से कोई सरोकार नही है. वो तो ग्लेमार देख कर आए है . जैसे आयातित नेता वैसे ही आयातित जेर्नलिस्ट जिनका वास्तविक भारत से कोई नाता नही उनके लिए तो वास्तविक भारत स्लम डॉग है.
ReplyDeleteभारत की मीडिया न कलम से न बन्दूक से ...... बल्कि पैसे से चलती है. मीडिया के एक बड़े वर्ग को ये बदगुमानी है कि वो किसी को भी 'अर्श से फर्श' पर और 'फर्श से अर्श' पर ले जा सकते है. कुछ हद तक ये सही भी है. और इनकी यही काबिलियत उन्हें दिग्भ्रमित कर उस राह पर ले जाती है जहाँ उन्हें पैसा के साथ साथ शोहरत और राजनीतिक/ प्रशासनिक संरक्षण आसानी से हासिल हो जाता है. भले ही उन्हें अपना ज़मीर ही क्यों न बेचना पड़े . वरना मूसा खानखेल और सौम्या विश्वनाथन जैसा अंत कौन पत्रकार चाहेगा ?
ReplyDeletePrasun Ji,
ReplyDeleteNamaskar
Shuru karunga ek personal note se.
Patna ke ek kiraye ke ghar mein upar niche humne kabhi saath wakt bitaya hai. main tab koi 3-4 saal se jyaada ka na hounga.
Aaj ek lawyer hoon dilli mein hi. Aapka fan hoon. Aapki reporting aur anchoring dono kamaal ki hai. Hans tatha anya hindi patrikaon mein kabhi kabhaar chapne wale aapke lekho ko bhi parha hai.
Aapki achcha likhte hain. Aapke vicharo se jyadatar sahmati hoti hai.
Keep up the good work.
वैसे एक बात कहना चाहता हूँ यहाँ अपने हिन्दोस्तान में आप मीडिया वालों को इतनी छुट मिली है कि पूछिये मत | मेरा मानना है कि अगर १०० मीडिया कर्मी इस मैदान में है तो उनमें से केवल १० ही इबास्ती होते हैं बाकी तो जैसा कि हम सब जानते हैं कि सरकारी मशीनरी , नेताओं, या पुलिस के पिछलग्गू बन जाते है | जहाँ तक सरकारी मशीनरी का सवाल है वो हमेशा से ही मीडिया कर्मी या पत्रकारों कि उपेच्छा करता आया है, वह मीडिया कर्मी या पत्रकारों से यही अपेक्षा करता है कि चारड-भाटी कि तरह हर एक मीडिया कर्मी या पत्रकार दरबारी पत्रकारिता करे, इबास्ती नहीं बन पायें ताकि उनकी प्यास भी पूरी होंती रहे और प्रशाश्निक नाकामयाबी पर पर्दा भी पड़ा रहे | इसीलिए बड़े पैमाने पर मीडिया कर्मी या पत्रकारों में गुटबाजी करा कर ब्रितानिया 'डिवाइड एंड रुल' को अमली जमा पहनाया जाता रहा है|
ReplyDeletehame pakistan ko bachana hoga...ye hamare liye jruri hai.....bat patrakar ki bhi nahi balki smuhik jimmewari ki hai..
ReplyDeleteKya baat hai Bajpai ji ? Jis channel aur uske patrakaar maalik ki aap is lekh me dhajjiayan uda rahe hain, wo bhi aajkal apne blog par theek aisa hi lekh likha hua hai.
ReplyDeleteMain Rajdeep Sardesai ki hi baat kar raha huun, jinke hindi channel IBN7 ke Chief Editor Ashutosh aur aap kabhi Aaj Tak par saath-saath hua karte the.
Dil se kahuun, to mein aapka bahut badaa prashansak huun aur aajkal ki Hindi patrakarita me aapko Late Shri S.P.Singh ke naye avtaar ke roop me dekhta huun. Aap se hum Hindi bhashi logon ko badi ummeeden hain aur aasha hai ki aap kam se kam aaj ke is poonjowadi daur me bhi apne patrakarita ke muulyon se samjhota nahin karenge.
Mein swayam State Govt me Officer huun aur media ke bahut saare logon ko bahut kareeb se jaanta huun aur maanta huun ki jo aapne likha hai solah aane sahi hai. Aur isiliye aap jaise logon ke liye man me aur aadar umad aata hai. Aapko lagatar Aaj Tak se Sahara, aur ab Zee par dekhta aur sunta chala aa raha huun. BADI KHABAR ko mein miss nahin karta.
सर,आपके लेखों से नए विचार तो मिलते ही हैं..साथ ही विचारों को नए तेवर भी मिलते हैं ...लेकिन यहां एक और बात कहना चाहूंगा कि क्या स्वात में शरीयत लागू करना कही दुनिया के नजरें कहीं से हटाना तो नहीं है। भारत पर हुए हालिए आतंकवादी हमले के बाद से काफी दबाव झेल रहे पाकिस्तान के पक्ष में कुछ कुछ आपने भी लिख दिया है। तो क्या मान लिया जाए कि हमारी मीडिया भी भारत से ज्यादा खराब हालत पाकिस्तान की समझती है और ऐसे में होटल ताज हमलें में पाकिस्तान का कम वहां के हालात ज्यादा जिम्मेदार हैं?
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