Thursday, February 26, 2009

राजनीति की नयी लीक राहुल गांधी से लेकर नक्सली गणपति तक

("सत्ता सिर्फ बंदूक की नली से नहीं निकलती" पर कई प्रतिक्रियाएं आयीं,जिन्होंने कई सवाल खड़े किये । लेकिन हर में महक विकल्प के खोज की ही नजर आयी। कुमार आलोक, गोंदियाल, विपिन देव त्यागी, कपिल, निरंजन हों या स्वपनिला....आपकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे एक नया कंटेट दिया कि मुख्यधारा की राजनीति में ही देश को देखना होगा। मैंने कांग्रेस के राजकुमार और नक्सली नेता गणपति को मिलाकर देखने की कोशिश की है। मुझे लग रहा है समाधान यह दोनों नहीं है लेकिन पहली बार मुख्यधारा की राजनीति सत्ता की खातिर राहुल को गणपति से ज्यादा खतरनाक मानने लगी है। आप पढ़ें पिर चर्चा करेंगे।............)

" आप युवा हैं और आपके कंधों के सहारे नेता पहले टिकट पाते हैं और फिर गद्दी। नेता सत्ता की मलाई जमकर खाते है और आप यूं ही अंधेरे में गुम हो जाते हैं। इसलिये युवाओं को अब पहल करनी होगी, जिससे उम्र ढलने से पहले वह देश की कमान अपने हाथों में ले सकें। नहीं तो युवा अंधेरे में ही खो जायेगा।"

"आप मजदूर हैं और आपकी मेहनत के सहारे ही देश आगे बढ़ता है। आपके खून-पसीने को मलाई में बदलकर मालिक-सरकार जमकर मौज उड़ाते हैं और आप अंधेरे में रहते हैं। इसलिये एक वर्ग की सरकार में बगैर हिस्सेदारी के भी रणनीति के तौर पर कैसे लाभ उठाया जाये, इसे समझना होगा । नहीं तो हम सभी मारे जाएंगे।"

पहला वक्तव्य राहुल गांधी का है, जो उन्होंने दिल्ली में एनयूएसआई और यूथ कांग्रेस की सभा में 8 फरवरी 2009 को दिया। वहीं दूसरा वक्तव्य नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव गणपति का है, जो उन्होंने दिसंबर 2008 में दिया था। अपने अपने घेरे में कमोवेश दोनो बयान फार्मूले से हटकर हैं। राहुल का वक्तव्य संसदीय राजनीति की उस परिभाषा से हटकर है, जिसे पिछले साठ साल से तमाम नेता देश को पढ़ा रहे हैं। और गणपति का बयान अल्ट्रा लेफ्ट की उस राजनीति से हटकर है जिसका पाठ माओवादी पिछले चालीस साल से पढ़ रहे हैं। तो क्या देश का मिजाज हर स्तर पर बदल चुका है और जो शून्यता नजर आ रही है वह बदलते परिवेश को बदलने या ना बदले जाने के टकराव को लेकर ही है।

कमोवेश संसदीय राजनीति के भीतर राहुल गांधी की मौजूदगी और नक्सली संगठनों के अंदर संघर्ष के बदलते तौर-तरीको ने पहली बार एक नया सवाल खड़ा किया है कि दोनो अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं और अब बदलाव जरुरी है। मसला यह नहीं है कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो सपना न्यू इकनॉमी के जरिये खड़ा किया गया, उसके ढहने के बाद संसदीय राजनीति का खोखलापन खुलकर सामने आ गया। जहां उसके पास जनवादी सोच के जरिये लोकतांत्रिक पहल करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है बल्कि संवैधानिक तौर पर देश की मजबूती के लिये जो जो खम्भे अलग-अलग संस्थानों के जरिये खड़े किये गये, वह सभी संसदीय राजनीति के दायरे में ढहाये गये । उन्हें इतना निकम्मा बनाया गया कि देश की सुरक्षा को बेचकर मुनाफा कमाने और बनाने की प्रवृति पैदा होती चली गयी।

राहुल गांधी का भाषण या उनके राजनीतिक तौर-तरीके साठ साल की संसदीय राजनीति के सामने बचकाने हो सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि देश के किसी भी रंग को राहुल ने देखा समझा नहीं है इसलिये दलित के घर रात गुजारना और अगली सुबह पैरा-ग्लाइडिंग करना उनके राजनीतिक नौसिखियेपन को ही उभारता है। जिसमें राहुल ना राजनेता लगते हैं ना बिगडे युवा नेता। लेकिन जो मौजूदा राजनीति चालू है, उसमें किस नेता या किस राजनीति का दामन देश थामना चाहता है , यही सवाल राहुल की दिशा में युवा होने का नया पाठ पढ़ाता है।

दूसरी तरफ नक्सली गणपति माओवाद की उस थ्योरी से अलग रणनीति की बात कर रहे हैं जो सत्ता बधूक की नली से निकलती है का पाठ पढती रही। संसदीय राजनीति में घुसे बगैर उसके अंतर्विरोध का लाभ लोगों के आक्रोष को गोलबंद कर ही उठाया जा सकता है। इसलिये मुंबई हमलों में मारे गये शहीद पुलिसकर्मियो को लाल सलाम देने के साथ साथ राजनेताओं को निशाना बनाने के बदले उनके निर्देश पर तैनात पुलिसकर्मियों को ही निशाना बनाने की थ्योरी ने माओवादियो के बीच भी एक नयी बहस शुरु की है। बहस इसलिये क्योंकि जिस संसदीय राजनीति को लेकर आम जनता में आक्रोष है अगर उस राजनीति से सत्ता साधने वाले नेताओं को माओवादी अपने निशाने पर नहीं ले सकते तो बदलाव या विकल्प को कैसे सामने लाया जा सकता है। माओवादियों की सेन्ट्रल कमिटी में पोलित ब्यूरो का एक सदस्य सवाल उठाता है कि पीपुल्स वार ग्रुप के पूर्व महासचिव सितारमैय्या 1987 में आंध्र प्रदेश के सात विधायको का अपहरण करने के बाद यह कहने से नही घबराते की राजनीतिक जरुरत के लिये राजीव गांधी का भी अपहरण किया जा सकता है। लेकिन इस सभा में चर्चा यही आकर खत्म होती है कि नेताओं को लेकर आम जनता के बीच आक्रोष जब संसदीय राजनीति और राज्य सत्ता पर सवालिया निशान खुद-ब-खुद लगा रहा है तो ऐसे में नेताओं को निशाने बनाने का मतलब होगा उनके प्रति जनता की संवेदनाओं को जोड़ना । या फिर माओवादी विचारधारा के खिलाफ लोगों की भावनाओं को जगाने का मौका देना। इससे अच्छा है हर ढहते संस्थान के समानांतर अपने संसथान को खड़ा करना। न्याय देने के लिये गांव गांव में अपनी पंचायत लगाकर तुरंत सुनावई और फैसला देना । यानी सजा भी तुरंत । जिसमें हाथ-पांव तोड़ने से लेकर मौत की सजा और भारी जुर्माने का भी प्रावधान। जंगल नष्ट करने वाले उघोगों और खनिज संपदा समेटकर देश के बाहर लेजाकर मुनाफा कमाने वालो के खिलाफ स्थानीय लोगो को गोलबंद कर आंदोलन की शुरुआत करना । जो बंगाल-उड़ीसा-झारखंड-छत्तीसगढ़ में जारी है। जिले और गांव के विकास के लिये आने वाले सरकारी धन की लूट कर स्थानीय जरुरत के मुताबिक विकास की लकीर खींचना। ट्रेड यूनियन से लेकर सरकारी कामगारों को साथ जोड़ना, जिससे मौका पड़ने पर आंदोलन खड़ा किया जा सके और सरकारी लूट को रोका जा सके। इसलिये सत्ता के तौर तरीको में सुधार की बात कर अतिवाम आंदोलन का घेरा पहले व्यापक करना होगा इसलिये इसे रणनीति के तौर पर उभारने की जरुरत है नही तो हम सभी मारे जायेगे । यह समझ गणपति के जरीय माओवादियो में निकली है।

एक तरफ राहुल गांधी की राजनीति समझ में युवा शक्ति के जरीये पांरपरिक संसदीय राजनीति को ढेंगा दिखाना और दूसरी तरफ गणपति की अतिवाम राजनीति में संसदीय राजनीति के सामानांतर सुधारवादी वाम राजनीति का खाका रखने की थ्योरी ने इसके संकेत दे दिये है कि बदलाव का पहला तरीका अपने अपने घेरे में टकराव से ही होना है। पहले बात राजनीति की। पिछले एक दशक में हर राजनीतिक दल ने सत्ता का स्वाद गठबंधन के जरीये चखा। इसलिये 2009 के चुनाव में हर राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिये गठबंधन की सौदेबाजी का ही आंकलन ज्यादा कर रहा है कि उसे लाभ कहां-कैसे होगा । सत्ता के सामने विचारधारा की मौत हो चुकी है यह बात गठबंधन से लेकर सत्ता चलाने के दौरान नीतियों के जरीये खूब उभरी है।

इन परिस्थितियो में राहुल गांधी का मतलब क्या है। राहुल गांधी के आने का मतलब उस लीक का टूटना है, जिसे अपने अनुकूल जनता पार्टी के प्रयोग से निकले नेता अभी तक चला रहे हैं । यानी 1977 के बाद से देश के सामाजिक-आर्थिक चेहरे में बदलाव आया लेकिन राजनीतिक सत्ता जस की तस चलती रही और उसी अनुरुप समाज को मानना और बनाने की थ्योरी संसदीय राजनीति रखती है। जाहिर है, ऐसे में राहुल की राजनीति का मतलब उन नेताओ का रिटायरमेंट है, जो भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ध्रुवतारे की तरह चमक रहे हैं। प्रधानमंत्री से लेकर देश के मुख्य ओहदों के लिये नेताओं की फेरहिस्त तैयार है। कांग्रेस के प्रणव मुखर्जी, चिदबंरम, एंटोनी, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, शिवराज पाटिल, एसएम कृष्णा सहित कोई भी नाम किसी भी ओहदे पर बैठकर देश चलाने का सपना संजोये हुये है। वहीं, शरद पवार, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, करुणानिधी, पासवान से लेकर कोई भी क्षेत्रीय झंडबरदार देश की बागडोर संभालने के लिये बेकरार है। इन हालात में राहुल गांधी के मैदान में आने के तरीके ने कई सवाल एकसाथ खड़े किये हैं। क्योकि राहुल गांधी अगर सत्ता में आ जाते हैं तो उनका काम करने का तरीका जाहिर तौर पर उस प्रक्रिया सरीखा नहीं होगा, जहां दिल्ली से चला एक रुपया गांव तक पहुंचते पहुंचते छह पैसे में बचा रहे। देश की सुरक्षा के लिये हथियार खरीदी से लेकर आत्महत्या करते किसानों की जान बचाने के लिये पैकेज देने का जो तरीका अभी तक अपनाया जाता रहा है जाहिर है, वह बदल जायेगा । यानी कमेटियों और संस्थाओं के निरीक्षण-परिक्षण में ही कई साल गुजरते है और उसके बाद जो राशि निर्धारित होती है उसी की कीमत निर्धारित से कई गुना ज्यादा हो चुकी होती है। जाहिर है, राहुल के सत्ता में आने का मतलब महज युवाओं को सत्ता से जोड़कर देश चलाने का सपना जिलाना नहीं है। पहली बार परंपराओं से इतर राजनीतिक प्रक्रिया को चलाना होगा जो परिणाम दे। यह अच्छा-बुरा दोनो हो सकता है। लेकिन राहुल के तरीके नये और चौकाने वाले होगे क्योकि जो अपराध और भष्ट्राचार संसदीय राजनीति में घुस चुका है और पीढियों के लिये पूंजी बनाने से लेकर राजनीतिक जगह बनाने तक के लिये जद्दोजहद कर रही है, उसे युवा तबका तत्काल खारिज करेगा।

इसीलिये 2009 के चुनाव संसदीय राजनीति के लिये मील का पत्थर सरीखा है। क्योंकि गठबंधन के तौर तरीके उन नेताओं को एक साथ लेकर आयेगे जो राहुल के सत्ता में आने के साथ ही रिटायर होने की स्थिति में आयेंगे । राहुल गांधी को रोकना उस संसदीय राजनीति की जरुरत है जो विशेषाधिकार की सत्ता बनाती है और जिसके घेरे में आने के लिये हर तरह के अपराधी बैचेन रहते है। 14 वीं लोकसभा इस सोच का ही प्रतीक है । इसमें सौ से ज्यादा सांसद ऐसे थे, जिनपर अपराध का कोई ना कोई मामला चल रहे हो।

लेकिन संसदीय राजनीति का विकलप राहुल दे नहीं पाएंगे । बल्कि युवा पीढी के जरीये सत्ता विरासत की राजनीति को हवा देगी, यह भी सच है । क्योंकि युवा की तादाद देश के चालीस करोड वोटर के तौर पर है लेकिन नेता के तौर पर राहुल के साथ राजेश पायलट के बेटे से लेकर सिंधिया और मुरली देवडा के बच्चे हैं। यही हाल पवार की बेटी से लेकर मुलायम के बेटे का है। जिसकी लकीर कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला और पंजाब में प्रकाश शिंह बादल ने अपने अपने बेटों के जरीये खिंच कर दिखा दी है। राजनीतिक तौर पर विचारधारा की मौत संयोग से उसी दौर में हुई है जिस वक्त मुनाफे के लिये सबकुछ बाजार व्यवस्था पर टिका और फिर वह खुद ढह गया।

सत्ता ने संसदीय राजनीति में लेफ्ट - राइट की बहस को ही बेमानी करार दिया । ऐसे में संसदीय राजनीति से इतर कहीं एक आस तो माओवादियों ने उन इलाको में दिखायी जो संसद की राजनीति और विकास की लकीर में हाशिये पर रहे। लेकिन पहली बार विचारधारा के सन्नाटे में कहीं ज्यादा घुप अंधेरा अतिवाम की राजनीतिक पहल में भी उभरा। जिस राजनीति के अंतर्विरोध को रणनीति के तौर पर साधने की पहल माओवादी गणपति ने कहीं उस दौर में नक्सल को लेकर सरकार का रवैया सामाजिक-आर्थिक समस्या से इतर कानूनी तौर पर आंतकवाद के सामानांतर मान लिया गया। सरकार ने जब नक्सलियों को आतंकवादी माना, उसी दौर में नक्सलियों के बीच सरकार के वैचारिक शून्यता को भरने की बहस गूंज रही है।

पहली बार केन्द्र सरकार ने कानून बनाकर नक्सलियो को भी उस घेरे में लाने की पहल की, वहीं नक्सलियो के बीच यह सवाल उठा कि नक्सली आंदोलन कमजोर पड़ने की वजह सिर्फ बंदूक की भाषा को समझना है। गणपति ने माओवादियों के बीच यह सवाल उठाय़ा। पिछले डेढ़ दशक में नक्सलियों को सिर्फ सत्ता की बंदूक से बचाने के लिये ही समूची रणनीति बनानी पड रही है । इसलिये उनका आंदोलन सिमटा है लेकिन अब विस्तार के लिये जरुरी है सत्ता बंदूक की नली से निकलती है कि थ्योरी को उलट कर सत्ता की कमजोर नली को ही हथियार बनाया जाये।

सवाल यही है कि क्या राजनीति इतनी पोपली हो चुकी है, जहां राहुल गांधी के तेवर उन नेताओं को खारिज करने से नही चुक रहे, जिन्हे लगता है देश अब भी वही चला सकते है और माओवादी नेता गणपति उन्हीं नेताओ को बरकरार रख नक्सली जमीन मजबूत करना चाहते है, जिनके खिलाफ आम लोगो में आक्रोष है और जिन्हें राहुल खारिज कर रहे है। कहीं यह क्रातिकारी बदलाव के संकेत तो नहीं हैं?

11 comments:

  1. आपका आकलन और विश्लेषण सटीक है।
    राहुल गांधी के अपना कोई न राजनीतिक आधार है न विचार। उन्हें वैसी ही राजनीति करनी है जैसा अब तक होती आई है।

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  2. न ही राहुल गाँधी और न ही गणपति राजनीति की नयी लीक या विचारधारा बना सकते हैं । इसलिए जो बात आपने प्रारम्भ में कही कि समाधान दोनों ही नही हैं, वह सही व सटीक है । दरअसल बदलते भारत में जहाँ आज लगभग ६० % युवा हैं, के बीच में अपनी स्वीकार्यता बढ़ने कि दोनों ही अपने अपने परिवेश में कोशिश कर रहे हैं । जहाँ नक्सली दुनिया में पूंजीवाद के गुब्बारे के फूटने का जश्न मनाते हुए देश में बढ़ते आर्थिक संकट के कारण बढती युवा बेरोजगारों की फौज को अपने शिकार के रूप में देख रहे हैं, वहीँ राहुल गाँधी उन्हें सुनहरे भविष्य के 'मुंगेरीलाल' के हसीन सपने' दिखा कर उनके कन्धों पर चढ़ कर सत्ता सुंदरी का वरण करना चाहते हैं । शायद यहाँ आपका यह विश्लेषण सही मालूम होता है की पहली बार मुख्य धारा की राजनीति राहुल को गणपति से ज़्यादा खतरनाक मान रही है ।

    भारत की आज की मुख्य धारा की राजनीति में जिस तरह से ८० वर्ष के बूढे भी ख़म ठोक कर यह बताना और जताना चाहते हैं, कि वे चिर युवा हैं इसलिए सत्ता सुंदरी उनकी ही है, उनको राहुल का ८ फ़रवरी २००९ का ये वयान इस पुरातन देश में वुजुर्गों का ऐसा अपमान लग रहा है, जिसे वे अपने तौर पर एक नयी राजनैतिक क्रांति मान रहे हैं, और ये वे नेता हैं, जिन्होंने राहुल के पिता राजीव को युवावस्था में अचानक उस जगह को हासिल करते देखा है जिसे पाने की हसरत लेकर वे अपनी जवानी में नेहरू और इंदिरा के साथ आए थे और अब कब्र में पैर लटकाए बैठे हें ।

    लेकिन, मेरा ऐसा मानना है कि आज जब पूरी दुनिया में बराक ओबामा एक नयी किस्म की राजनीति का आगाज़ करने जा रहे हें, ऐसे में अमेरिका को अपने सपनो का देश मानने वाले भारत के युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करने का माद्दा राहुल में तो कम से कम नहीं है ।

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  3. राहुल गांधी के अपना कोई न राजनीतिक आधार है न विचार.....

    पहली बार मुख्य धारा की राजनीति राहुल को गणपति से ज़्यादा खतरनाक मान रही है ....

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  4. राहुल गांधी पिछले पांच सालों से सक्रिय राजनीति में है उन्होने देखा कि किस तरह कांग्रेस के मठाधीश गांधी परिवार का नाम लेकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहे है । देश के तमाम हल्कों का दौरा करने के बाद कांग्रेस के परंपरागत वोटरों से या यूं कहे कि युवा शक्ति से रुबरु होवने के बाद राहुल गांधी का ऐसा बयान क्रांतिकारी हो सकता है लेकिन सत्तात्मक राजनीति की जब रहनुमाइ उनके हाथों मे होगी तब देखना होगा कि उनके विचारों और कार्यशैली में कितनी समानता है । रहीं बात नक्सल नेता के बयान की उनका भी कहना लीक से हटकर जरुर है लेकिन ये कहना कि राजनीतिक व्यवस्था से दूर होकर भी किस तरह सर्वहारा समाज को फायदा पहुंचाया जाय अपनी पुरानी लीक पर ही चलने की ओर इशारा करता है। क्या नक्सली अपने प्रभाव वाले हल्के में लेवी के नही वसूलते ? क्या उनके यहां भी अपराध ने संस्थागत रुप नही ले रखा है । कम्युनिष्ट पार्टियां या नक्सल आदोलन जनसंघर्षों में पिछड गया है । बंगाल केरल और त्रिपुरा तक सिमटी माकपा ने हाल के राजस्थान विधानसभा चुनाव में तीन सीटों पर फतह हासिल की । वहां पार्टी ने आम लोगों के लिये लंबी लडाइ लडी ..काश्मिर में तारागामी की बिजय कोइ तीर तुक्का नही है । कभी कम्युनिष्टों का लेनिनग्राड कहा जाने वाला बिहार का एक बडा हिस्सा या तो लालू या रामविलास या नीतिश के साथ है। जाहिर है कम्युनिष्ट पार्टियां जनसंघर्षों के बजाय सुविधाभोगी राजनीति की शिकार हो गइ । वह लालू के साथ संसद और विधानसभा में महज चंद सीटों के लिये समर्पण करने लगी । ९० के विधानसभा चुनावों में लालू जी के साथ सीपीआइ और सीपीएम के नेता उडनखटोले पर सवार होकर जनसंघर्षों के लिये जमीन तैयार करने लगी । ९५ के विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद लालू जी ने कहा सीपीएम साफ और सीपीआइ हाफ । फिर भी धर्मनिरपेक्शता के नाम पर राजद सरकार का समर्थन ये लोग करते रहे । पहले आम समस्याओं को लेकर जनता को गोलबंद किजीये और भारतीय संसदीय परंपराओं के अंदर रहते हुए तमाम वामपंथी ताकतें इकक्ठा होकर जनआंदोलन करें तो वह दिन दूर नही जब जनता उनके पिछे खडी नजर आएगी ।

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  5. प्रसून जी आपकी विश्लेषण इतना सतही है कि इसके बारे में केवल एक ही मुहावरा फिट होता है वह है कहीं का ईंट का कहीं का रोड़ा भानुमती का कुनबा जोड़ा। आपने राहुल गांधी के कंधे पर बंदूक रखकर माओवादियों की ओर निशाना साधा है। आपको उनकी राजनीति से ज्यादा उनकी हिंसा दिखाई दे रही है। क्या आप जैसे वरिष्ट पत्रकार को बताना पड़ेगा कि राज्य की सीधी हिंसा से हर रोज देश के कितने लाख लोग तड़पा-तड़पा कर मार दिए जाते हैं। और क्या यह भी बताना पड़ेगा कि देश की जो दो तिहाई आबादी भूखों मर रही है वह भारतीय संविधान के तहत ही मर रही है। ६० हजार रुपिया महीना पगार निचोड़ने वाले देसी गोरे बाबुओं को यह दिखाई नहीं देगा प्रसून बाबू। सही बात कहने के लिए कलेजे के अलावा प्रतिबद्धता और सरोकार वाली समझदारी भी होनी चाहिए।

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  6. KRANTIKARI BADLAW? YE SAWAL UTHA HI KYO? VISWAS HI SAFLTA KA SROT HAI ARTHAT YKIN HI KAMYAB HOTA HAI PAR IS YAKIN KE PICHE KOI TO TARK HONA CHAHIYE. PAHLE TO YAHI KI RAHUL KE JARIYE ITANE BARE VISAY PAR CHARCHA KARNA KAHA TAK UCHIT HAI? SABHI JANTE HAI KI RAJNITI ME ANA AUR RAJNITI KARNA DONO ALAG ALAG CHIJE HAI AUR JAISA KI SAMBANDHIT LEKH ME HI SPAST HO JATA HAI KI RAHUL ABHI SIRF PAUDHE HI HAI. AUR PHIR RAHUL KI HI BAT KYO KARE, PURI CONGRESS PARTY KI HI BAAT KYO N KI JAY? BADLAW KA MAHTWA TABHI HAI JAB USKA CHETR BARA HO. AUR AAJ KE HALAT KA MUWAYNA KARE TO DES KI DO BARI PARTIA LOKSABHA KE AIK CHUTHAI SEAT PAR HI KABJA KARATI HAI. AISI ISTHTI ME RAHUL KI SOCH YADI UNKI PARTY ME BHI CHAL PARE TO ASAR HOGA KAHA? BILKUL NAHI. WANS PARMPARA KO NIBHANE WALO KO ABHI TO RAJNITI KI A B C D SIKHNI HAI, BADLAW TO DUR KI KAUDI HAI. YADI RAHUL KO JAMIN MILNA ITANA MUSKIL HAI TO GARPATI KE LIYE TO NAMUMKIN HI HAI. NAKSALI AANDOALAN KO SAHI MAYNO ME YADI SAMARTHN MILA HOTA TO ISTHITI KADACHIT ALAG HOTI. AAJ BHI 10.3 MILLION HECTARE JANGALI CHETR NAKSALI SANGTHNO KE KABJE ME HAI AUR INHE SAMRTHAN BHI HAI PAR US SAMARTHAN ME BHI UHAPOH KI ISTHTI HAI. AISE ME GARPATI KE SHABDO KI KYA SARTHKTA HAI? NAI RANNITI TALASANE KA ARTH KYA HAI? AADHA-ADHURA HI SABKUCH RAHA, N RANNITI RAHI , N MAKSAD RAHA AUR N JANSAMARTHAN RAHA. AISA SAMBHAW HI NAHI KI PURN JANSAMARTHAN HO AUR SAFLATA SATH N HO. BADLAW TO SAMAY KA TAKAJA HI HAI PAR KYA IS NAKSAL AANDOLAN ME WO CHAMTA HAI KI WO BHARTIY SATTA KI KAMJOR NALI KO HATHIYAR BANA SAKE? KADAPI NAHI.KEWAL NAKSAL PRABHAWIT 12 RAJYA HI MAHAJ BHARAT NAHI HAI AUR NA HI CONGRESS KA DAYRA PURE BHARAT KO GHERTA HAI. KUCH CHETRO KI BAAT MHAJ NETA KARTE HAI.KABHI BHARAT KE UN HISSO PAR BHI GAUR PHARMAYE JO MEDIA , NETA AUR AAM BHARTIWO KE JARIYE BHI HASIYE PAR HAI. KAAGAJO ME BHARAT KO DHUDHANA BAND KARNA HOGA. SARTHKATA TO TABHI HAI JAB WO VICHARO SE HOKAR KAGAJO PAR UTARE. PURWOTTAR BHARAT AAPKA INTAZAR KARTA HAI.

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  7. सत्ता की राजनीति बंदूक की नली से निकलती है...माक्सॆवादीयों के इस विचार को लेकर बामपंथी आगे आते रहे और उसके बाद बात आयी राहुल गांधी तक । जो शायद देश के राजनीतिक परिदृश्य को बदल देना चाहते है ....देश में युवाओं को आगे आने के लिए जोर दे रहे है । भले ही युवाओ की तादाद पाटी में उतनी नही है जितने का राग राहुल गांधी अलाप रहे है । नरेन्द मोदी के नागपुर भाषण से इस बात का आकलन लगाया जा सकता है । लिकिन सबसे बड़ी बात तो युवा नेतृत्व की है इससे पहले भाजपा भी युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाने की बकालत कर रही थी जिसमें अटल और आडवाणी दोनो को हाशिये पर खड़ा कर दिया गया जिसके लिए पाटी में भारी बबाल हुआ या कहें कि कोई इसे छोड़ने को तैयार नही था । केवल अटल जी स्वास्थय के कारण हाशिये पर चले गये लेकिन आडवाणी जी जिन्ना का चोला पहनते हुए भी पाटी में बने है और किसी लिहाज से किसी से कमजोर नही है औऱ न ही युवा नेतृत्व के खिलाड़ी है तो भाजपा की बात तो यही समाप्त हो जाती है ।
    इसी के जरिये राहुल गांधी को भी देखा जा रहा है । अब सवाल उ‌ठता है कि राहुल इस बार के लोकसभा चुनाव में क्या कर दिखाते है यह काफी मायने रखेगा । क्योकि इसके पहले यूपी के चुनाव में राहुल गांधी के चुनाव प्रचार का कोई असर नही दिखा । तब तो यही कहा जा सकता है कि राहुल गांधी अपने कायॆ के आधार पर युवाओ को सत्ता में लाने की बात करेगे या अपने विरासत को लेकर यह तो देखने की बात होगी ।

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  8. samay ki sacchai yahi hai ki kisi bhi party ko poora jan-adhaar nahi mil rha hai..jaha paritya kewal ek vyakti ki mansikta par banti aur tootati hai ,yaha par kisi bhi vichaardhara ko samaaj me jagah bananey me jitna samay banta hai utney me kayi aur vichaardharaye saamney aa jati hai.sacchai to gathbandhan hee hai jaha kisi bhi vyakti vishesh ko jan samarthan nahi milta dikh rha hai..to aisey me kya akeley yuva neta rahul gandhi desh ka bhaar apney kandho par dhoyengey..?? un aala darjey ke netaao ka kya hoga jinhoney apni zindagi taaumra kursi sewa mee he laga de..chahey wo modi ho, adavni, ya fir laal salaam ke roodhiwadi netaa. aam adami ko bewakoof manna he sabsey badi sacchai hai..maowadi netao(aatankiyo) ne apna rutbaa chahey wo bandook ki nali par hee kayam kar rkkha hai..aur desh ke yuwao ko apni aur isiliye aakarshit kiya hai kyunki unkey pass karney ko kuchh nahi hai..aur jiska theekra seedha seedha netao ya fir sarkaro par footataa hai. ham dishaheen hai..vichardhaara heen...

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  9. श्री युत पुण्य प्रसून बाजपेयी प्रणाम, मैंने चैन्लो में काम तो किया पर सब चॅनल व्यावसायिक तोर पे काम कर रहे है जिन्हें विज्ञपन के लिए पढ़ा लिखा बेरोजगर चाहिए होता है पत्रकार नहीं
    मै रवि कान्त रायपुर से हू और खास परिचय तो मेरे पास नहीं है , न ही कोई बड़ा बेनर और नाम , पर आपके सवेदन शील समाचारों से बहुत प्रभावित हु इसलिए आपका फ़ैन हु आपसे मिल के मुझे खुशी हुई

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  10. जिन कम्युनिस्टों की बात आप कर रहे हैं उनमें से ज्यादातर ड्राइंग पालिटिक्स करने लग गए हैं। जन की बात जनता से दुर रहकर करना एक शगल था है और रहेगा। पुण्य जी, आपको याद होगा कि सत्तर के दशक में ऐसे ही नौजवानों में कम्युनिस्ट होने का पैशन चला था। हमारे छोटे से शहर में भी कई लोग कम्युनिस्ट बन गए। आजकल उनमें से कई सूदखोरी के बिजनेस में लगे हैं। कइयों ने शीशे के कारखाने खोल रखे हैँ। एक महोदय तो अपनी पत्नीके नाम पर पत्रिकाओं में लेख लिखथे हैं। डेढ़ सौ साल पुराने शहर मधुपुर का इताहसा लिखकर रैकेटिंग में लग ग एहैं । कहने का गर्ज ये है कि विचारधारा तो अपनी जगह है ही, उसे किस रैपर में कोन बेच रहा है ये भी अहम हो जाता है। विचार धारा कभी गलत हुई है उसे लागू करने वाले लोग सही-गलत होते हैं। दूसरी बात, चुनाव जीतने से अहम है आप भी जानते हैं और दूसरे बी कि चुनाव कैसे मैनेजमेंट के ज़रिए जीते जातै हैं।

    अगर भारतीय कम्युनिस्टों की ही बात की जाए तो उनका इंटरनैशनलिज्म और वर्ण संघर्ष पगडंडी छोड़ चुका है।
    सत्ता हथियाने के लिए कॉंग्रेस जैसी पार्टी से तालमेल या मिलकर सरकार बनाना विचार धारा से समझौता ही है। सत्ता सिर्फ बंदूक की नली से नहीं निकलती वह चुनावी नारों और घोषणापत्रों से भी निकलती है। वह देश की बांदरबांट से भी और अवसरवादी गठबंधनों से भी निकलती है।

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  11. aapko t v par dekhti thi aaj aapka lekh aur uspar di gai tipaaniyan bhi padhi.
    raajneeti mujhe katai pasand nahi aur naa hi koi jaankari hai lekin bharitya hone ki vajah se apne bete ke bhavishya ko sochti hoon to dar lagta hai, kya aap mera aashay samjh paaye?

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