Sunday, December 27, 2009

“थ्री ईडियट्स” में आमिर खान है कहाँ?

जीनियस जीनियस होता है... उसके जरिये या उसमें अदाकारी का पुट खोजना बेवकूफी होती है। शायद इसीलिये थ्री ईडियट्स आमिर खान के होते हुये भी आमिर खान की फिल्म नहीं है। थ्री ईडियट्स पूरी तरह राजू हिराणी की फिल्म है। वही राजू जिन्होने मुन्नाभाई एमबीबीएम के जरीये पारंपरिक मेडिकल शिक्षा के अमानवीयपन पर बेहद सरलता से अंगुली उठायी। यही सरलता वह थ्री ईडियट्स में इंजीनियरिंग की शिक्षा के मशीनीकरण को लेकर बताते हुये प्रयोग-दर-प्रयोग समझाते जाते हैं। राजू हिराणी नागपुर के हैं और नागपुर शहर में नागपुर के दर्शको के बीच बैठ कर फिल्म देखते वक्त इसका एहसास भी होता है कि थ्री ईडियट्स में चाहे रेंचो की भूमिका में आमिर खान जिनियस हैं, लेकिन सिल्वर स्क्रिन के पर्दे के पीछे किसी कैनवस पर अपने ब्रश से पेंटिंग की तरह हर चरित्र को उकेरते राजू हिराणी ही असल जिनियस हैं। यह नजरिया दिल्ली या मुबंई में नहीं आ सकता। नागपुर के वर्डी क्षेत्र में सिनेमा हाल सिनेमैक्स में फिल्म रिलिज के दूसरे दिन रात के आखरी शो में पहली कतार में बैठकर थ्री इडियट्स देखने के दौरान पहली बार महसूस किया कि आमिर खान का जादू या उनका प्रचार चाहे दर्शकों को थ्री इडियट्स देखने के लिये सिनेमाघरो में ले आया और पहले ही दिन फिल्म ने 29 करोड़ का बिजनेस कर लिया, लेकिन पर्दे के पीछे जिस जादूगरी को राजू हिराणी अंजाम दे रहे थे उसे कहीं ज्यादा शिद्दत से नागपुर के दर्शक महसूस कर रहे थे।

जुमलों में शिक्षा के बाजारीकरण और रैगिंग के दौरान कोमल मन की क्रिएटिविटी ही कैसे समूची शिक्षा पर भारी पड़ जाती है, इसका एहसास कलाकार से नहीं फिल्मकार से जोड़ना चाहिये और यह सिनेमैक्स के अंधेरे में गूंजते हंगामे में समझ में जाता है, जब एक दर्शक आमिर खान की रैगिंग के दौरान किये गये प्रयोग पर चिल्ला कर कहता है... वाह भाऊ राजू! हिसलप कालेज का फंडा चुरा लिया। तो किसी प्रयोग पर हाल में आवाज गूंजती है... भाउ... यह तो अपना राजू ही कर सकता है। कमाल है फिल्म परत-दर-परत आगे बढ़ती है तो राजू हिरानी की तराशी पेंटिंग के रंगो में दर्शक भी अपना रंग खोजता चलता है और इंटरवल के दौरान लू में एक दर्शक मुझे इसका एहसास करा देता है कि राजू के सभी प्रयोग मशीनी नहीं होंगे, वह मानवीय पक्षों को भी टटोलेंगे। बात कुछ यूँ निकली... लू करते वक्त...

“आपको कैसी लग रही है फिल्म?”
“अच्छी है... मजा आ रहा है।”
“भाउ राजू की फिल्म में मजा तो होना ही है। राजू कौन? अपना राजू हिराणी।”
“अरे! लेकिन मुझे तो आमिर खान की फिल्म लग रही है।”
“का बोलता... आमिर खान। भाऊ, आमिर खान तो एक्टिंग कर रहा है।”
“तो क्या हुआ... एक्टिंग ना करें तो फिल्म कैसे चलेगी?”
“भाऊ, एक बात बताओ... रेंचो जीनियस है न?”
“हाँ है... तो?”
“तो क्या, जीनियस तो जीनियस है... वह कुछ भी करेगा तो वह हटकर ही होगा ना।”
“अरे, लेकिन इसके लिये एक्टिंग तो करनी ही पड़ेगी।”
“लेकिन भाऊ... इंटरवल तक आपको एक बार भी लगा कि एक्टिंग से रैंचो यानी आमिर खान जीनियस है? फिल्म में हर प्रयोग को टेक्नालाजी से प्रूफ किया जा रहा है ना... तो फिर आमिर रहे या शाहरुख... क्या अंतर पड़ता है!”
“लेकिन गुरू, राजू हिरानी का हर प्रयोग भी टेक्नोलॉजी से जुड़ा है और टेक्नोलॉजी की पढ़ाई के तरीके को लेकर ही वह सवाल भी खड़ा कर रहा है।”
“सही कहा भाऊ आपने... लेकिन इंतजार करो, राजू कुछ तो ऐसा करेगा जिससे जिन्दगी जुड़ जाये। जैसे मुन्नाभाई में 12 साल से बीमार लाइलाज मरीज के शरीर में भी हरकत आ जाती है, तो सारी मेडिकल पढ़ाई धरी-की-धरी रह जाती है... कुछ ऐसा तो राजू भाई करेंगे।”

हम लू के बाहर आ चुके थे और बात-बात में उसने बताया कि राजू हिरानी के ताल्लुक नागपुर के हिसलप कॉलेज से भी रहे हैं। कैसे कब... यह पूछने से पहले ही इंटरवल के बाद फिल्म शुरु होने की आवाज सुनायी दी। हम हाल के अंदर दौड़े। लेकिन मेरे दिमाग में वह आवाज फिर कौंधी... वाह राजू भाई! यह तो हिसलप का फंडा चुरा लिया। खैर, फिल्म के आखिर में जिस तरह गर्भ से बच्चे को निकालने को लेकर देसी तकनीक का सहारा लिया गया, उसे देखते वक्त मैंने भी महसूस किया कि आमिर खान अचानक महत्वहीन हो गया है और देसी प्रयोग हावी होते जा रहे हैं, जिनके आसरे दुनिया की सबसे खूबसूरत इनामत - बच्चे का जन्म - जुड़ गयी। यानी आमिर सिर्फ एक चेहरा भर है। फिल्म खत्म हुई तो कालेज का जीनियस रैंचो साइन्टिस्ट बन चुका था। लेकिन यह साइंटिस्ट रैंचो को देखते वक्त एक बार भी महसूस नहीं हुआ कि इसमें आमिर की अदाकारी का कोई अंश है, बल्कि बार-बार यही लगा कि इस भूमिका को निभाते हुये कोई भी कलाकार जीनियस से साइंटिस्ट बन सकता है। और दिमाग में आमिर खान की जगह रैंचो का करेक्टर ही घुमड़ रहा था। यह वाकई राजू हिरानी की फिल्म है, लेकिन अदाकारी को लेकर कोई कलाकार इसमें पहचान बनाता है तो वह वही बोमेन ईरानी हैं जिसने मुन्नाभाई में मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल की तानाशाही को जिया और थ्री ईटियट्स में इंजिनियरिंग कालेज के डायरेक्टर रहते हुये खुद को किसी मशीन में तब्दील कर लिया। लेकिन दोनों ही चरित्र जब मानवीय पक्ष से टकराते हैं, तो राजू हिरानी द्वारा रचा गया बोमन का चरित्र कुछ इस तरह चकनाचूर होता है जिससे झटके में उबरना भी मुश्किल होता है और डूबना भी बर्दाश्त नहीं हो पाता। यानी बोमन ईरानी की अदाकारी से दर्शकों को प्रेम हो ही जाता है और उसी की खुमारी में फिल्म खत्म होती है।

ऐसे में दिमाग में सवाल उठता ही है कि आखिर आमिर खान इस फिल्म में हैं कहाँ? अगर फिल्म में होते तो वह अपने प्रचार के दौरान देश भ्रमण में शिक्षा संस्थाओं से जुड़े मुद्दे उठाते। क्योंकि चंदेरी या बनारस की गलियों में आज भी प्राथमिक स्कूल तक नहीं हैं और जिनकी लागत मारुति 800 से ज्यादा की नहीं है। और देश में आर्थिक सुधार के बाद से मारुति 800 जितनी बिकी है उसका दस फीसदी भी प्राथमिक स्कूल नहीं खुल पाये हैं। लेकिन आमिर खान फिल्म के धंधे से जुड़े हैं, इसलिये वह सरल भाषा में समझते हैं कि मुनाफा ना हो तो फिल्म फिल्म नहीं होती। इसलिये आमिर खान फिल्म में काम करने के पैसे नहीं लेते, बल्कि रेवेन्यू शेयरिंग में उनकी हिस्सेदारी होती है और उनका टारगेट थ्री ईडियट्स को लेकर सौ करोड़ रुपये बनाना है। यह मिस्टर परफैक्शनिस्ट है। मुझे लगा यही जादू मनमोहन सिंह का है... तभी तो वह राजनीति के मिस्टर परफैक्शनिस्ट हो चले हैं। नागपुर में थ्री ईडियट्स देखते वक्त सोचा... काश राजू हिरानी... मिस्टर परफैक्शनिस्ट पर फिल्म बनाये और सरलता से धंधे के गणित को सरोकार से समझा दे। फिर देखेंगे प्रचार के तरीके क्या होंगे और कितने शहरों के सिनेमैक्स में कोई दर्शक अंधेरे में चिल्ला कर कैसे कहता है... भाउ, यह तो अपने दिल्ली-मुबंई के फंडे हैं।

Monday, December 21, 2009

आखिर किसे इडियट बना रहे हैं आमिर खान !

हैलो, जी आमिर खान आपको इन्वाइट कर रहे हैं। इंटरव्यू देने के लिये । आप तो जानते है कि अमिर खान देश भ्रमण कर रहे हैं। जी...थ्री इंडियट्स को लेकर । हां, रविवार को वह चेन्नई में होंगे...तो आपको चेन्नई आना होगा। आप बीस दिसंबर यानी रविवार को चेन्नई पहुंच जाइये। वहीं आमिर खान से इंटरव्यू भी हो जायेगा। आमिर रविवार को तीन बजे तक चेन्नई पहुचेंगे तो आपका इंटरव्यू चार बजे होगा। आप उससे पहले पहुंच जाएं। और हां... आमिर खान चाहते है कि इंटरव्यू के बाद आप तुरंत दिल्ली ना लौटे बल्कि रात में साथ डिनर लें और अगले दिन सुबह लौटें। तो आप कब पहुंचेंगे। अरे अभी आपने जानकारी दी...हम आपको कल बताते हैं, क्या हो सकता है। नहीं-नहीं आपको आना जरुर है, हम सिर्फ पांच जनर्लिस्ट को ही इन्वाइट कर रहे हैं और आमिर खासतौर से चाहते है कि आप चेन्नई जरुर आएं। ठीक है कल बात करेंगे......तभी बतायेंगे।


फोन पर बात खत्म हई और मेरे दिमाग में
थ्री इडियट्स को लेकर आमिर खान के देश भ्रमण से जुड़े न्यूज चैनलो पर रेंगने वाली तस्वीरे घुमड़ने लगी । आमिर, जिसकी अपनी एक इमेज है। ऐसी इमेज जो बॉलीवुड में दूसरे नामी कलाकारों से उन्हें अलग करती है....जो सामाजिक सरोकार से भी जुड़ी है। मेधा पाटकर के आंदोलन को नैतिक साहस देने वाले आमिर खान बिना कोई मुखौटा लगाये पहुंचे थे। अच्छा लगा था। लेकिन जेहन में बड़ा सवाल यही था कि बनारस की गलियों में अपनी मां के घर को ढूंढते आमिर खान को चेहरा बदलने की जरुरत क्यों पड़ी। मुंह में पान। गंदे दांत। शर्ट और हाफ स्वेटर.....कांख में बाबू टाइप बैग को दबाये आमिर खुछ इस तरह आम लोगों के बीच घूम रहे थे, जैसे वह बनारसी हो गये या फिर बनारस की पहचान यही है। जबकि मध्य प्रदेश में चंदेरी के बुनकरों की बदहाली में उन्होंने करीना कपूर का तमगा जड़ बुनकरों की हालत में सुधार लाने के लिये लोकप्रिय डिजाइनर सव्यसाची मुखर्जी से भी संपर्क किया। कहा गया कि आमिर बुनकरों के संकटों को समझ रहे हैं। वहीं कोलकत्ता में सौरभ गांगुली के घर के दरवाजे के बाहर किसी फितरती....अफलातून...की तरह नजर आये आमिर। पंजाब में एक विवाह समारोह में दुल्हे के मां-बाप के साथ एक ही थाली में टुकड़ों को बांटते हुये हर्षोउल्लास के साथ खुशी बांटते नजर आये। बनारस के रिक्शे वाले की समझ हो या चंदेरी के बुनकर या फिर पंजाब के बरातियो की समझ.....सब यह मान रहे थे कि आमिर उनके बीच उनके हो गये। फिर आमिर को चेहरा बदलने की जरुरत क्यों पड़ी । क्या आमिर का नजरिया वर्ग-प्रांत के मुताबिक लोगो के बीच बदल जाता है। या फिर आमिर पहले मुखौटे से इस बात को अवगत कराते है कि मै आपके बीच का सामान्य व्यक्ति हूं जो आप ही के प्रांत का है। लेकिन उसके बाद अपनी असल इमेज दिखाकर वह अचानक विशिष्ट हो जाते हैं। जैसे झटके में उनके रंग में रंगा व्यक्ति आमिर खान निकला। अगर आखिर में बताना ही है कि मै आमिर खान हूं तो फिर मुखौटा ओढ़ने की जरुरत क्यों।

कह सकते है यह थ्री इडिट्स के प्रचार का हिस्सा है और इसे इतने गंभीर रुप से नहीं देखना चाहिये । लेकिन यहीं से एक दूसरा सवाल भी पैदा होता है कि जो दबे-कुचले लोग हैं। जो व्यवस्था की नीतियों तले अपने हुनर को भी को खो रहे हैं। जिनके सामने दो जून की रोटी का संकट पैदा हो चुका है। जिनके लिये सरकार के पास कोई नीति नहीं है और राजनीति में वोट बैक के प्यादे बनकर यही लोकतंत्र के नारे को जिलाये हुये हैं तो क्या वाकई आमिर खान की पहल उनकी स्थिति बदल सकती है। या फिर आमिर की इमेज में इससे सामाजिक सरोकार के दो-चार तमगे और जुड़ जायेंगे। यह सारे सवाल जेहन में रेंग ही रहे थे कि मुबंई का नंबर फिर मोबाइल पर चमका। और आमिर खान के इंटरव्यू का निमंत्रण दोहराते हुये इस बार कई सुविधाओ भरे जबाब जो सवाल का पुट ज्यादा लिये हुये थे...दूसरी तरफ से गूंजे। आपके रहने की व्यवस्था चेन्नई से डेढ-दो घंटे की रनिंग बाद फिशरमैन्स क्लोव में की गयी है। यह बेहद खूबसूरत जगह पर है। चेन्नई से महाबलीपुरम की तरफ । आपके कैमरापर्सन की भी ठहरने की व्यवस्था हम कर देंगे। आप उनका नाम हमें बता दें। जिससे उनकी भी व्यवस्था हो जाये। मैं सोचने लगा जब
आजतक शुरु हुआ था तो एसपी सिंह अक्सर कहा करते थे कि कही किसी भी कार्यक्रम को कवर करने जाना है तो कंपनी के पैसे से जाना है। किसी की सुविधा नहीं लेनी है । और नेताओ का मेहमान तो बिलकुल नहीं बनना है। इतना ही नहीं जब आजतक न्यूज चैनल के रुप में सामने आया तो भी मैंने उस दौर में इंडिया दुडे के मैनेजिंग एडिटर और आजतक के मालिक अरुण पुरी को भी मीटिंग में अक्सर कहते सुना कि किसी दूसरे का मेहमान बनकर उससे प्रभावित होते हुये न्यूज कवर करने का कोई मतलब नहीं है। इससे विश्वसनीयता खत्म होती है। और बाद में न्यूज हेड उदय शंकर बने तो उन्होंने भी इस लकीर को ही पकड़ा कि न्यूज कवर करना है तो अपने बूते। कही डिगना नहीं है। कहीं झुकना नहीं है। और विश्वसनीयता बरकरार रखनी है।

लेकिन फोन पर मुझे आमिर खान के साथ डिनर का न्यौता देकर लुभाया भी जा रहा था। लेकिन आप हमें क्यों बुला रहे हैं ....हम कैसे थ्री इडियट्स का प्रचार कर सकते हैं। आपको प्रचार करने को कहां कह रहे हैं। आप जो चाहे सो आमिर खान से पूछ सकते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि आमिर जिस तर्ज बनारस से चेन्नई तक को नांप रहे हैं, उससे वहां के दर्द को भी थ्री इडियट्स में लपेट रहे हैं। सबकुछ प्रचार का हिस्सा है तो हम कैसे इसमें शरीक हो सकते है। यह आप कैसे कह सकते है....आमिर खान चंदेरी नहीं जाते तो कौन जानता वहां के बुनकरो की बदहाली। मेरा दिमाग ठनका......यानी आमिर चंदेरी गये तो ही देश जान रहा है कि चंदेरी के बुनकरो की बदहाली। क्यों आप जानते है कि देश के पैंतीस लाख से ज्यादा बुनकर आर्थिक सुधार तले मजदूर बन गये। जो देश के अलग अलग शहरो में अब निर्माण मजदूरी कर रहे हैं। सही कह रहे है आप चंदेरी का मामला सामने आया तो बाकी संकट भी आमिर उभारेंगे।

मुझे भी लगा फिल्मों का नायक यूं ही नहीं होता.....सिल्वर स्क्रीन की आंखों से अगर देश को देखा जाये और प्रधानमंत्री किसी नायक सरीखा हो जाये या फिर नायक ही सर्वेसर्वा हो जाये तो शायद देश में कोई संकट ही ना रहे। मुझे याद आया जब बलराज साहनी
, दो बीघा जमीन फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तो उनसे पूछा गया कि किसानों की त्रासदी की तरफ क्या सरकार इस फिल्म के बाद ध्यान देगी। तो बलराज साहनी जबाब था कि फिल्म उसी व्यवस्था के लिये गुदगुदी का काम करती है जो इस तरह की त्रासदी को पैदा करती है। इसलिये फिल्मों को समाधान ना माने। यह महज मनोरंजन है । और मुझे चरित्र के दर्द को उभारने पर सुकून मिलता है। क्योकि हम जिन सुविधाओं में रहते हैं उसके तले किसी दर्द से कराहते चरित्र को उसी दर्द के साथ जी लेना अदाकारी के साथ मानवीयता भी है।

सोचा तब यह बात कलाकार भी समझते थे और अब मीडियाकर्मी भी नहीं समझ पाते। फिर सोचा कि मीडिया का यह चेहरा ही असल में भूत-प्रेत और नाचा-गाना को खबर के तौर पर पेश करने से ज्यादा त्रासदी वाला हो चला है। दरअसल, आमिर के प्रचार की जिस रणनीति को अंग्रेजी के बिजनेस अखबार बेहतरीन मार्केटिंग करार दे रहे हैं,वो सीधे सीधे लोगों की भावनाओं के साथ खेलना है। फिल्म के प्रचार के लिए लोगों की भावनाओं की संवेदनीशीलता को धंधे में बदलकर मुनाफा कमाते हुए अलग राह पकड़ लेना नया शगल हो गया है। लेकिन,यहीं एक सवाल फिर जेहन में आता है कि यहां एक लकीर से ऊपर पहुचते ही सब एक समान कैसे हो जाते हैं। चाहे वह फिल्म का नायक हो या किसी अखबार या न्यूज चैनल का संपादक या फिर प्रचार में आमिर के साथ खड़े सचिन तेंदुलकर। सोचा आमिर खान चेन्नई में क्या इंटरव्यू देते हैं और थ्री इडियट्स का कैसे प्रचार करते हैं, यह दूसरे न्यूज चैनलों को देखकर समझ ही लेंगे। मैंने फोन पर बिना देर किये कहा
, मुझे क्षमा करें मैं चेन्नई नहीं आ पाऊंगा।

Thursday, December 17, 2009

आडवाणी युग के बाद की भाजपा

नागपुर में पहली बार सीमेंट की सड़क 1995 में बनी तो रिक्शे वालों ने आंदोलन छेड़ दिया । रिक्शे वालों का कहना था कि नागपुर में जितनी गर्मी पड़ती है उससे सीमेंट की सड़क में टायर चलते नहीं हैं। लेकिन कार वाले खुश हो गये कि अब गड्ढ़े में हिचकोले नहीं खाने होंगे। बरसात में अंदाज रहेगा कि सड़क अपनी है, परायी हुई नहीं है। आखिरकार रिक्शे वाले आंदोलन कर थक गये तो फिर पुराने नागपुर में संघ मुख्यालय के बाहर सीमेंट की सड़क बनाने की तैयारी शुरु हो गयी, जहां ज्यादा रिक्शे ही चलते हैं। इस बार आंदोलन हुआ नहीं। और फिर सीमेंट की सड़क बनाने का सिलसिला समूचे महाराष्ट्र में शुरु हुआ। सीमेंट की यह सड़क और कोई नहीं बल्कि भाजपा के अध्यक्ष पद को संभालने जा रहे नीतिन गडकरी ही बनवा रहे थे, जो उस वक्त महाराष्ट्र के पीडब्ल्‍यूडी मंत्री थे। कुछ इसी तरह की सड़क भाजपा के भीतर संघ बनवाना चाहता है और उसका विरोध दिल्ली की आडवाणी चौकड़ी करेगी, लेकिन भविष्य में कहा जायेगा कि नागपुर के गडकरी तब भाजपा अध्यक्ष थे। और उनके पीछे नागपुर के ही सरसंघचालक भागवत का हाथ था। असल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गडकरी के जरिये जो राजनीतिक प्रयोग भाजपा में करना चाह रहा है, उसे गडकरी पूरा कर सकते हैं, इसका भरोसा आडवाणी को चाहे ना हो लेकिन सरसंघचालक मोहनराव भागवत को पूरा है।


नागपुर में दीपावली के दिन संघ मुख्यालय में भागवत, भैयाजी जोशी और गडकरी की मुलाकात में ना सिर्फ गडकरी के नाम पर संघ ने मुहर लगायी बल्कि गडकरी के कान में जो मंत्र फूंका, उसमें सत्ता केन्द्रित राजनीति की जगह संघ केन्द्रित भाजपा जो अनुशासन के दायरे में रहे, इसी की फुसफुसाहट थी। नीतिन गडकरी संघ में जिनसे सबसे ज्यादा प्रभावित रहे हैं, वह हैं भाउराव देवरस, जिन्होंने आम आदमी का सवाल संघ के भीतर ना सिर्फ खड़ा किया बल्कि 1974 में जेपी के साथ राजनीतिक प्रयोग करने का सुझाव बालासाहेब देवरस को दिया। जाहिर है दिल्ली में पद संभालते ही गडकरी के तीन मंत्र होंगे- विकास के नये प्रयोग, आम आदमी की बात और संघ के अनुशासन का डंडा। तीनों मंत्र भाजपा की आडवाणी युग से टकरायेंगे और कटुता पार्टी में बढ सकती है इसका अंदाजा गडकरी को भी है और भागवत को भी। इसलिये गडकरी के जरिये भागवत कथा की जो तैयारी संघ कर रहा है, वह संघ को दुबारा 1951 की स्थिति में ले जाकर संवारने वाली है।


राजनीतिक तौर पर कभी जनसंघ और फिर भाजपा का कद अगर बढा तो उसके पीछे लोहिया और जेपी का हाथ रहा है इसे मोहनराव भागवत समझते नहीं होंगे ऐसा है नहीं। लेकिन भागवत संघ को हेडगेवार की सोच के अनुरुप मथना चाहते हैं, इसलिये लोहिया या जेपी के साथ मिलकर किये गये प्रयोग को संघ के भीतर बिखराव की वजह भी मानते है। यानी इसी प्रयोग से संघ के भीतर टूटन पैदा हुई जो संघ को कमजोर करती गयी। जनता पार्टी की सरकार में आरएसएस के स्वयंसेवक मंत्री जरुर बन गये लेकिन यहीं से भाजपा का जन्म भी हुआ और राजनीतिक तौर पर भाजपा ने अलग राग भी पकडा और रिमोट से चलने वाले संघ के तमाम संगठन अपनी मनमर्जी करने लगे। संघ के भीतर माना जाता है कि देवरस ने इसीलिये अयोध्या आंदोलन को हवा दी जिससे राम मंदिर को लेकर आरएसएस के तमाम संगठन एक छतरी तले आ जायें। देवरस को इसमें सफलता भी मिली। लेकिन भागवत के सामने कहीं बड़ा संकट है कि उनके दौर में सत्ता तो दूर, सांगठनिक तौर पर भाजपा या विहिप या स्वदेशी जागरण मंच ही नहीं खुद आरएसएस भी अपने घेरे में सिमटती दिख रही है। और सरसंघचालक की मौजूदगी ही एक नयी लीक किसी भी संगठन के लिये बना देती थी। उसी सरसंघचालक की मौजूदगी को ही हाशिये पर ढकेलने की कोशिश भाजपा के नंबरदार करने से नहीं चूक रहे।


जनता पार्टी की सरकार बनने के दौरान चन्द्रशेखर के कहने पर देवरस ने 'हिन्दू' शब्द दबा दिया और एनडीए की सरकार बनने पर वाजपेयी के कहने पर सुदर्शन ने हिन्दुत्व को हवा नहीं दी। लेकिन इससे आरएसएस का बंटाधार हो गया और अब हिन्दुत्व को लेकर संघ समझौता नहीं करेगा। भागवत यह मान कर चल रहे हैं कि सत्ता के लिये जोड़तोड़ की राजनीति का कोई लाभ नहीं है, इसलिये नीतिन गडकरी को भी इसकी चिंता नहीं करनी है कि जोड़तोड़ से भाजपा की राजनीतिक दखल कितनी बरकरार रहती है। इतना ही नहीं दिल्ली से लेकर राज्यो में सत्ता बरकरार रहे या ना रहे लेकिन संघ की सोच के अनुरुप हर संगठन को चलना होगा और हर क्षेत्र में जबतक यह दिखायी ना देने लगे कि संघ का स्वयंसेवक सफल हो रहा है तबतक काम अधूरा है। यानी गुरु गोलवलकर ने जिस संघ को विस्तार दिया और एकजुटता बनायी, फिर उसे रिमोट से चलाया, भागवत इसे ही सहेजना चाहते हैं। यानी गुरु गोलवलकर के दौर को हेडगेवार के तौर तरीकों के जरिये आरएसएस को जीवित करना चाहते हैं। विकास, आम आदमी और अनुशासन को गडकरी चलायें और हिन्दुत्व कहने या बोलने की जरुरत गडकरी को ना पड़े, इसकी व्यवस्था भागवत हिन्दुत्व में संघ के सभी संगठनो को मथकर करना चाहते हैं।


इस लीक को बनाने में भागवत के तौर तरीके बिलकुल हेडगेवार की तरह हैं। काशी की भरी सभा में हेडगेवार ने कभी कहा था, " मैं डा. केशव बलिराम हेडगेवार कहता हूं, यह सदा सर्वदा से हिन्दू राष्ट्र था, आज भी है और जन्म जन्मान्तर तक हिन्दू राष्ट्र रहेगा। " इसपर एक वक्ता ने व्यंग्यपूर्वक पूछा-"कौन मूर्ख कहता है कि यह हिन्दू राष्ट्र है?" तो सीना ठोंक कर उच्च स्वर में उत्तर आया--डा हेडगेवार ने। असल में भागवत को यह वाकया ना सिर्फ पूरी तरह याद है बल्कि हेडगेवार की वह तमाम परिस्थितयां भी याद हैं, जिसमें विपरीत परिस्थितयों के बीच आरएसएस को हेडगेवार खड़ा कर रहे थे। हेडगेवार सार्वजनिक राजनीति में दखल देते हुये संघ की नींव सामाजिक तौर पर डालना चाहते थे और डाल भी रहे थे। भागवत का अंदाज भी कमोबेश इसी तर्ज पर है। दिल्ली में बैठे भाजपा नेता हों या राजनीति की जोडतोड में गठबंधन के जरिये सत्ता पाने की होड़ में जुटे भाजपा नेता या फिर खुद लालकृष्ण आडवाणी, असल में हिन्दुत्व और संघ के अनुशासन की बात उनके गले 21 वीं सदी में उतर नहीं रही है और राजनीति के लिये संघ का भाजपा में दखल उन्हें हो सकता है बार-बार दकियानूसी लगे, लेकिन भागवत का मानना है कि हेडगेवार की नींव और गोलवलकर के विस्तार से आगे राजनीति गयी नहीं है। इसलिये भागवत ना सिर्फ संघ की, बल्कि हर सार्वजनिक सभा में यह उद्धघोष करने से नहीं चूकते कि भारत हिन्दू राष्ट्र है। और अगर कोई व्यंग्य करता है तो हेडगेवार की तर्ज पर सीधे हांकते हैं, ...यह संघ का मानना है, और हम अपने हर कर्म का आधार भी इसे ही मानते हैं।


संभव है भागवत का यह बयान भाजपा की राजनीति की गले की हड्डी बन जाए और उसे लगने लगे कि ऐसे में एनडीए का खात्मा हो जायेगा। बिहार में नीतिश कुमार बिदक जायेंगे। लेकिन भागवत जिस कथा को कहना चाह रहे हैं, उसमें नीतिश कुमार से गांठ बांधे रखने के लिये भाजपा को वह संघ से इतर जाने देने के पक्ष में नहीं हैं। भागवत किस तरह का कायाकल्प संघ में देख रहे है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि संघ की बौद्धिक सभाओ में विभाजन के बाद लुटे-पिटे पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू बंधुओं की सुरक्षा और पुनर्वास का कार्य किस तरह जानपर खेलकर स्वयंसेवकों ने किया, उसे याद किया जाने लगा है। चीन के साथ युद्ध हो या 1965 और 1971 में पाकिस्तान से युद्ध, स्वयंसेवक किस तरह मोर्चे पर घायलों की मदद और रक्त तक की व्यवस्था किया करता था, इसे संघ की सभाओ में यह कह कर जिक्र होता है कि भाजपा ने सबकुछ सेमिनारों में सिमटा दिया है और महंगाई जैसे मुद्दे पर भी जनता से खुद कटी हुई है। ऐसे में भाजपा की जोड़तोड़ की राजनीति का क्या अर्थ।


असल में गडकरी के जरिये भागवत एकसाथ कई संकेत देना चाहते हैं। पहली बार संघ के सरसंघचालक भागवत, सरकार्यवाह भैयाजी जोशी और भाजपा अध्यक्ष नीतिन गडकरी तीनों नागपुर के हैं और ब्राम्‍हण हैं यानी कोई आधुनिक सोशल इंजीनियरिंग नहीं चलेगी। और यह सब नीतिन गडकरी कैसे करेंगे इसका उदाहरण भी गडकरी के पीडब्ल्‍यूडी मंत्री रहते हुये नागपुर में किये गये प्रयोग से समझा जा सकता है। क्योंकि मंत्री बनते ही गडकरी ने फ्लाईओवर बनाने का सिलसिला शुरु किया। नागपुर के वर्धा रोड पर फ्लाईओवर बनाने में सबसे बड़ी दिक्कत सड़क के बीच लगी झांसी और गांधी की प्रतिमायें थीं। लेकिन नीतिन गडकरी ने पुल भी बनवाना शुरु किया और झांसी-गांधी के बुत को जड़ से उखड़वाकर सड़क के किनारे हुबहू वैसे ही लगवा भी दिया। यह अपनी तरह का पहला प्रयोग था। सवाल यही है भाजपा अध्यक्ष पद संभालने के बाद संघ का फ्लाईओवर बनाने में गडकरी कितनों को जड़ से उखाड़ेंगे या सभी इस फ्लाईओवर को बनाने में जुट जायेंगे।

Monday, December 14, 2009

दिल्ली का गोल्फ लिंक, मधुशाला....कैनवास औऱ बच्चन परिवार

दिल्ली का सबसे खामोश लेकिन सबसे हसीन इलाका गोल्फ लिंक। 14, गोल्फ लिंक के ठीक बाहर जैसे ही मैने गाड़ी रोकी, गेट पर लिखा देखा गांधी। यह कैसे हो सकता है...मै तो गैलरी में पेंटिग्स देखने आया था । लेकिन गांधी.....। सामने खड़े वाचमैन ने टोका....कहां जाना है। कोई गैलरी है...पेन्टिंग। हां-हां, आप अंदर जाइये। लकडी का बुलंद दरवाजा और बायीं तरफ उसी दरवाजे से अकेले लोगों के जाने का रास्ता। जी...ऊपर चले जाये..सीढियों से। पहली मंजिल पर......नहीं दूसरी पर....और सीढियां दिखाकर यही कह वाचमैन लौट गया। ना कोई आवाज...ना कोई शख्स। कमाल की खामोशी। खामोश...सुंदर सलोनी सीढियों पर चढ रहा था और दिमाग में बच्चन साहेब की आत्मकथा का वह हिस्सा रेंग रहा था...बिहार के मुजफ्फरपुर से निमंत्रण मिला.....मधुशाला का पाठ है...आपकी उपस्थिति मान्य है। और जब मै मुजफ्फरपुर स्टेशन पर उतरा तो कोई लेने वाला नहीं था। पूछते-पूछते जब मधुशाला के पाठ के कार्यक्रम स्थल पर पहुंचा तो दूर से ही मंच दिखाई दे गया....और मधुशाला सुनाई दे गया। जो देखा तो आंखो से भरोसा ना हुआ...मंच से लेकर नीचे तक हर कोई पी रहा था और मधुशाला गा भी रहा था।

अजब माहौल था। किसी ने मुझे पहचाना तो आयोजकों को बताया। फिर मंच पर मैं क्या पहुंचूं। और क्या कहूं ........मधुशाला की पंक्तियो को याद कर गुनगुनाते हुये आखिर दूसरी मंजिल पर जैसे ही पहुंचा...नजर ठीक सीढियो के सामने दीवार पर टंगी पेंन्टिंग पर पड़ी। अंगूर की बेल...एक औरत की लट और अंधियारी रात के बीच सुर्ख गुलाबी रंग और उसके बगल में मधुशाला की एक रुबाई जो अंग्रेजी में लिखी थी। लेकिन उसका हिन्दी तर्जुमा मेरे जहन में खुद-ब-खुद रेंगने लगा......रुपसि, तूने सबके ऊपर /कुछ अजीब जादू डाला / नहीं खुमारी मिटती कहते /दो बस प्याले पर प्याला / कहां पडे है, किधर जा रहे / है इसकी परवाह नहीं / यही मनाते है, इनकी / आबाद रहे यह मधुशाला।......मधुशाला की इन पंक्तियो को मै भी एकटक पेन्टिंग में खोजने लगा।

सन्नाटे में मधुशाला को इस तरह निहारना मेरे लिये गजब की अनुभूति भी थी और दर्द भी। क्योकि मेरे लिये मधुशाला उस दौर की ऊपज थी जब आजादी के आंदोलन के दौर में समाज बंटा जा रहा था...तब मधुशाला सामूहिकता का बोध करा रही थी। उस युवा मन के अंदर बैचैनी पैदा कर रही थी, जो खुद को कई खेमों में बंटा हुआ समाज-धर्म-वर्ग-आंदोलन में अपने अस्तित्व को खोज रहा था। मैने कहीं पढा था, हरिवंश राय बच्चन ने पहली बार दिसंबर 1933 में काशी हिन्दू विश्वविधालय के शिवाजी हाल में ही मधुशाला का पाठ किया और वह दिन बच्चन का ही हो गया। हर कोई झूम रहा था और हर किसी की जुबान पर मधुशाला रेंग रही थी। लेकिन वक्त और मिजाज कैसे बदलता है...इसका अंदाजा 14. गोल्फ लिंक की दीवारों पर टंगी पेन्टिंग्स को देखकर लग रहा था।

यह पेंटिंग हरिवंश राय बच्चन की पोती ने बनाये थे। अमिताभ के भाई अजिताभ बच्चन की बेटी नम्रता ने। कैनवास पर रंगो को उकेरने वाले पतले से ब्रश सी काया लिये नम्रता तमाम पेन्टिंग्स के बीच एक कुर्सी पर सिमटी बैठी थी। गोल्फ लिंग के इस घर के दूसरे माले पर दो बड़े हाल में मधुशाला की 32 रुबाईयों को पेन्टिंग्‍स के जरिये उबारने की कमाल की कोशिश नम्रता ने की। हर पेन्टिंग के साथ मधुशाला की एक रुबाई अंग्रेजी में लिखी थी, जिसे पढकर बार-बार मुझे भी लगने लगा कि अगर बच्चन ने मधुशाला अंग्रेजी में लिखी होती तो शायद यह आजादी से पहले ही गुम हो गयी होती। या किताब में छपे अंग्रेजी साहित्य का हिस्सा भर होती और अमिताभ बच्चन भी इसे गुनगुनाकर बाबूजी यानी बच्चन जी को गाहे-बगाहे श्रदाजंलि नहीं दे पाते।

ना चाहते हुये भी मैने मधुशाला को कैनवास पर उकेरने वाली नम्रता से यह सवाल कर ही दिया.......आपने मधुशाला पहली बार किस भाषा में पढी। अंग्रेजी में। कभी हिन्दी में भी पढी....हां, पेन्टिंग बनाने के दौरान अक्सर। जेहन में कैसे आया कि मधुशाला को कैनवास पर उकेर दिया जाये। बस, यूं ही ....दादाजी को याद करते हुये अक्सर लगा कुछ उनकी यादो से खुद को जोड़ना चाहिये। यह उनके प्रति एक पोती की चाहत है। आपने हर पेन्टिंग में सुर्ख गुलाबी को बेस बनाया है, इसकी वजह। वाइन का प्रतीक है पिंक। लेकिन मुझे लगता है सुर्ख लाल रंग होना चाहिये...यह क्रांति का रंग भी होता है। कितना वक्त लगा इसे बनाने में। करीब एक साल। तो आपने सिर्फ शब्दों को पकड़ा या उस दौर को भी मधुशाला से जोड़ने के लिये कुछ पढा। हां, शुरु से ही अमेरिका में रही...तो जब यहां लौटी तो इच्छावश मधुशाला को रंगो के जरिये कागज पर उतारने की कोशिश की। उस समय की कुछ किताबो को जरुर पढा। लेकिन दिमाग में दादाजी और मधुशाला ही रही। लेकिन मधुशाला जितनी लोकप्रिय है, उसमें पेन्टिंग्स कहां टिकेगी। आप सही कह रहे है, लेकिन मेरे लिये यह दादाजी की याद है। लेकिन आपको नहीं लगता कि मधुशाला में जितनी जीवंतता है, पेन्टिंग्स उतनी ही डेड हैं। यह आपको लगता है। हां, मुझे लगता है मधुशाला सामूहिकता का प्रतीक है....यह कहते हुये मैंने नम्रता को मुजफ्फरपुर का वह किस्सा भी सुना दिया कि कैसे मधुशाला का पाठ करते हुये हर कोई सुरापान भी कर रहा था। किस्सा सुनते ही नम्रता एकदम छोटी बच्ची सरीखी हो गयी और ठहाके लगाते हुई बोली....ग्रेट। मुझे भी झटके में एक महीने पहले अमिताभ बच्चन से हुई मुलाकात के दौरान की हुई बाचतीच का वह हिस्सा याद आ गया जब इंटरव्यू खत्म हुआ तो मधुशाला पर बात हुई। और बात बात में मैंने जब उन्हें बताया कि किंगफिशर बनाने वाले विजय माल्या ने किंगफिशर की बुक में मधुशाला की रुबाईयों को लिख डाला है। तो अमिताभ बच्चन ने कहा, उन्हें पता है और उन्होंने इसका विरोध भी किया था। एक - दो नहीं, बल्कि दस पत्र विजय माल्या को भेजे...लेकिन कोई जबाब नहीं दिया गया। बाबूजी की मधुशाला पीने-पिलाने वालों के खिलाफ थी, इसे महात्मा गांधी जी ने भी माना था। क्योंकि उसे बच्चन जी के विरोधियों ने उठा दिया था कि मधुशाला उनके मद्यनिषेद के खिलाफ लिखी गयी रचना है। मैंने कहा इसकी शुरुआत मुजफ्फरपुर में मधुशाला के पाठ के वाकये के बाद ही हुई थी।

और उस दौर में बच्चन जी को याद करते हुये अमिताभ भी भावुक हो उठे। उन्होंने उसी वक्त बताया कि बाबूजी की पुण्यतिथि के वक्त इस बार वह हिन्दी संस्करण के साथ अंग्रेजी में भी मधुशाला चाहने वालो को भेंट करेंगे। उस वक्त भी मुझे लगा कि मधुशाला के रंग को ना पकड़ पाने की वजह से ही मधुशाला में लगातार रंग भरने की कोशिश बच्चन परिवार करता है और हर बार मधुशाला एक नये रंग के साथ बच्चन परिवार को ही चौकाती है। 14, गोल्फ लिंक में पेन्टिंग के बीच एक छोटा सा कमरा भी था जो अंधेरे में समाया हुआ था। वहां दीवार पर एक पतली सी रोशनी पड़ रही थी, जहां हिन्दी में मधुशाला की एक रुबाई लिखी थी........प्रियतम, तू मेरी हाला है / मै तेरा प्यासा प्याला / अपने को मुझमें भरकर तू / बनता है पीनेवाला ; /मै तुझको छक छलका करता / मस्त मुझे पी तू होता / एक दूसरे को हम दोनों / आज परस्पर मधुशाला ।......इस अंधेरे कमरे में जाते ही मुझे लगा बच्चन परिवार अभी भी हरिवंश राय बच्चन से जुड़ा है। दिल्ली के सबसे हसीन और खामोश 14, गोल्फ लिंक का यही कमरा मधुशाला के सबसे करीब जो था....

Saturday, December 12, 2009

कोपेनहेगेन, मीडिया और कविता

कोपेनहेगेन से कुछ निकलेगा इसकी संभावना नहीं के बराबर है । सवाल है जो पर्यावरण अमेरिका के लिये अर्थशास्त्र है, वही पर्यावरण हमारे लिये संस्कृति है । और कोपेनहेगेन में इसी संस्कृति को कानूनी जामा पहनाकर टेक्नालाजी बेचने-खरीदने का धंधा शुरु हुआ है । संस्कृति बेचकर विकासशील देशो के उन्हीं उघोगों और कारपोरेट सेक्टरो को कमाने के लिये कोपेनहेगेन में 200 बिलियन डालर है जिनके धंधे तले भारत में किसानी खतरे में पड चुकी है और पीने का पानी दुर्लभ हो रहा है । मनमोहन सिंह भी इसी समझ पर ठप्पा लगाने 18 दिसंबर को कोपेनहेगेन जायेंगे। मनमोहन के अर्थशास्त्र ने जो नयी सस्कृति देश में परोसी है, उसमें धंधे और मुनाफे में सबकुछ सिमट गया है । लोकतंत्र का हर पहरुआ पहेल मुनाफा बनाता है फिर सवाल खड़ा करता है । अछूता चौथा खम्भा यानी मीडिया भी नहीं है। जाहिर है धंधा मीडिया की जरुरत बन चुकी है तो कोपेनहेगेन को लेकर उसकी रिपोर्टिग भी उसी दिशा में बहेगी जिस दिशा में मुनाफा पानी तक सोख ले रहा है । पृथ्वी गर्म हो रही है। जीवन को खतरा है । 2012 तक सबकुछ खत्म हो जायेगा.....कुछ इसी तरह अखबार और न्यूज चैनल लगातार खबरे दिखा भी रहे है । इसी मीडिया के लिये कोई मायने नहीं रखता कि आधुनिकता और औघोगिकरण के साये में कैसे मानसून को ही छिन लिया गया । बीते बीस सालों के मनमोहनइक्नामिक्स के दौर में 45 हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली और नौ फीसदी खेती योग्य जमीन को बंजर बनाया गया । चार फिसदी खेती की जमीन को उघोगों ने हड़प लिया । यह सवाल मीडिया के लिये मौजू नहीं है । याद कीजिये कैसे दो दशक पहले तक एक बहस होती थी कि पत्रकारिता और साहित्य एक दूसरे से जुडे हुये है, तब सरोकार का सवाल सबसे बड़ा माना जाता है । लेकिन नये दौर में पत्रकारिता बिकने को तैयार है तो साहित्य कमरे में बौद्धिकता से दो दो हाथ कर रहा है । कहते है तीसरा विश्वयुद्द पानी को लेकर ही होगा । ऐसे में बात कोपेनहेगेन की क्या करें.......माना जाता है कवितायें हमें अपने समय और चीजों के भीतर मौजूद उन बारीक और सघन संवेदनाओ और आहटों के संसार में ले जाती है, जो बाजार के शोर में हमसे अनदेखा या अनसुना रहता है । ऐसे मौके पर आज एक कविता पढाइये...आलोक धन्वा की यह कविता उसी बाजार से जिरह करती है जो जिन्दगी का सबकुछ सोखकर जिलाना चाहती है । करीब 12 साल पहले आलोक धन्वा ने यह कविता लिखी थी ।

पानी

आदमी तो आदमी

मै तो पानी के बारे में भी सोचता था

कि पानी को भारत में बसना सिखाउगां

सोचता था

पानी होगा आसान

पूरब जैसा

पुआल के टोप जैसा

मोम की रोशनी जैसा

गोधूलि के उस पार तक

मुश्किल से दिखाई देगा

और एक ऐसे देश में भटकायेगा

जिसे अभी नक्शे पर आना है

उचाई पर जाकर फूल रही लतर

जैसे उठती रही हवा में नामालूम गुंबद तक

यह मिट्टी के घडे में भरा रहेगा

जब भी मुझे प्यास लगेगी

शरद हो जायेगा और भी पतला

साफ और धीमा

किनारे पर उगे पेड की छाया में

सोचता था

यह सिर्फ शरीर के काम ही नहीं आयेगा

जो रात हमने नाव पर जगकर गुजारी

क्या उस रात पानी

सिर्फ शरीर तक आकर लौटता रहा ?

क्या क्या बसाया हम ने

जब से लिखना शुरु किया ?

उजडते हुए बार-बार

उजडने के बारे में लिखते हुये

पता नहीं वाणी का

कितना नुकसान किया

पानी सिर्फ वही नहीं करता

जैसा उस से करने के लिये कहा जाता है

महज एक पौधे को सींचते हुये पानी

उसकी जरा-सी जमीन के भीतर भी

किस तरह जाता है

क्या स्त्रियों की आवाजो से बच रही है

पानी की आवाजें

और दूसरी सब आवाजे कैसी है?

दुखी और टूटे हुये ह्रदय में

सिर्फ पानी की रात है

वहीं है आशा और वहीं है

दुनिया में फिर से लौट आने की अकेली राह .

Thursday, December 10, 2009

84 का दर्द, गुजरात की त्रासदी और बेजुबान आदिवासी

जिस पत्रकार ने गृह मंत्री पी चिदबंरम पर जूता उछाल कर 84 के दंगों के घाव को उभारा, उसी पत्रकार जनरैल सिंह ने किताब लिखी है...आई एक्यूज । खुद की आपबीती...परिवार का दर्द और सिख समुदाय की हर त्रासदी 165 पन्नों की हर लकीर में दर्ज है। दिल्ली की सड़कों पर कैसे सिखों का कत्लेआम 31 अक्तूबर से लेकर 6 नवंबर 1984 तक होता रहा और समूचा पुलिस-प्रशासन या कहें राज्य व्यवस्था गायब हो गई, इसे जनरैल की आपबीती के अक्स में पढ़ना किसी भयावह सपने की तरह है।

इसी सच को 3 नवंबर 2009 को लोकसभा में अकाली दल की सांसद और प्रकाश सिंह बादल की बहू हरसिमरत कौर ने आपबीती के तौर पर रखा । समूचा सदन स्तब्ध हो गया। आक्रोश और दर्द में सांसद तालिया बजाने लगे। कुछ इसी तरह का दर्द 2001 में गुजरात दंगों को लेकर भी लोकसभा में भी उठा और किताबों के जरीये आपबीती भी देश ने देखी सुनी। लेकिन जब इन दोनों का राजनीतिकरण हुआ तो 84 के दंगे, जिसे सिख नरसंहार मानते है, भाजपा के लिये एक वैसा ही राजनीतिक हथियार बन गया जैसा गुजरात के 2001 के दंगे। जिसे मुस्लिम नरसंहार मानते है और जो कांग्रेस के लिये कभी न चुकने वाला राजनीतिक हथियार है।

असल में यह दोनों घटनाये ऐसी हैं, जिसे शब्द दिये जायेंगे तो मानवता को शर्म आयेगी ही। चाहे वह गले में टायर डालकर जिन्दा जलाना हो या फिर किसी महिला का सड़क पर गर्भ चीरकर हत्या करना । रोंगटे खड़े होंगे ही। "मै अपने एक साल के बेटे लाडी को नहला रही थी..कि सामने से आते झुंड ने आवाज लगायी कोई बचना नहीं चाहिये...उस भीड ने दुकान से कैरोसिन लिया और घर में आग लगा दी। हम घर से बाहर भागे। सरदार जी पर भीड ने हमला कर दिया। लोहे की राड के हमले से उनका सर खून से लथपथ हो गया। मेरे हाथों में उनका दम टूटा। मेरे हाथ कांप रहे थे, और आज भी अपने हाथ देखती हूं तो हाथ कांपने लगते है।"

यह 84 का सच है, जिसे जनरैल ने शब्द दिये हैं। और सासंद हरसिमरत कौर के मुताबिक 31 अक्तूबर 1984 को वह जहा अपने दो भाइयों के साथ फंसी, वहां वह तेज सांस भी नहीं ले पा रही थी क्योंकि मारने वाले जीवित सांस को महसूस कर लते तो सांस ही बंद कर देते। लेकिन सवाल यही से खड़ा होता है क्या 84 या 2001 का जिक्र करते वक्त संसद को इसका एहसास है कि देश में बहुत सारे ऐसे सच हैं, जिन्हे आजतक शब्द नहीं दिये गये। और अपनी आपबीतीकरने बताने वाला देश का एक बड़ा तबका आज भी सांस दबाये जी रहा है लेकिन उसकी आवाज तो दूर उसका रुदन भी कोई नहीं सुन रहा।

"रात का तीसरा पहर था । अचानक कुछ खट-पट हुई । कुछ व्यक्ति मेरे पति को बुलाने आये । मैं रसोई में सो रही थी । थकान होने की वजह से उठी नहीं । सुबह देखा तो पति घर में नहीं था । गांव में पूछा लेकिन कुछ पता नहीं चला । इसकी जानकारी सरपंच को दी, कोतवाल के बताया । साथ ही पांच किलोमीटर दूर स्वास्थ्य केन्द्र चला रहे डां. प्रकाश आमटे को बताया। बाद में पता चला पति हवालात में बंद हैं। सभी ने आश्वसन दिया दो-चार दिन में छूट जायेगे । मैने भी मान लिया क्योंकि पुलिस अक्सर लोगो को पकड़ कर ले जाती और कुछ दिनो बाद छोड़ देती । लेकिन मेरा पति घर नहीं लौटा। दस दिनों बाद तहसीलदार गांव पर आया और अहेरी थाना में पड़े शवों को पहचान करने के लिए कहा। थाने में मेरे पति की लाश पड़ी थी । साथ ही तीन अन्य लाशें भी थीं। मैंने कहा , यह तो मेरा पति किश्टा पोजलवार हैं। इसे किसने मारा । पुलिस ने कहा यह नक्सली था, मुडभेड़ में मारा गया ।" 55 साल की शांताबाई कसम खाती रही कि उसके पति का नक्सलियों से कोई संबंध नहीं है लेकिन पुलिस नहीं मानी । एक कागज पर शांताबाई के अगूठे के निशान लिये। फिर 60 साल के किश्टा सहित चार नक्सलियों को मारने का एलान कर दिया गया। जिलाधिकारी ने प्रेस नोट जारी करवाया। अगले दिन अखबारों में चार नक्सलियों के मुठभेड़ में मरने की खबर छपी। शांताबाई का घर उजड़ा। बच्चों के सर से बाप का साया। घर दाने दाने को मोहताज हुआ लेकिन किसी पुलिस-प्रशानिक अधिकारी ने सुध नहीं ली। यह वाकया 1991 का है । और यह अहेरी का वहीं इलाका है जहां डेढ महीने पहले ही 27 पुलिस कर्मियों को माओवादियो ने बारुदी सुरंग से उड़ा दिया। जिसके बाद मुबंई से लेकर दिल्ली तक में हंगामा मचा और गृहमंत्री ने नक्सल प्रभावित इलाकों में एक ग्रीनहंट ऑपरेशन चलाने की बात कही।

लेकिन इसी अहेरी में 1991 में क्या हुआ कोश्टा पोजलवार के अलावे गांववालों ने अन्य तीन की भी पहचान की। अन्य तीन जोगी लताड,डीलू जोगई और जग्गा कुन्जाम थे। जिन्हें कृष्णार,आरेवाडा और हुल्लुभीत्त गांव से 8 दिसबंर 1991 में पुलिस ने उठाया। और 19 दिसंबर 1991 को कीर नाले के करीब मार दिया । जिन्हें बाद में नक्सली करार दिया । बाब आमटे के बेटे प्रकाश आमटे के स्वास्थय केन्द्र से दो किलोमीटर दूर इनभट्टी गांव के आदिवासी चुक्कू चैतू मज्जी के मुताबिक 8 दिसबंर 1991 को उसके भाई लच्छू को छिदेवाडा गांव के पास नाले के करीब पुलिस ने गोली मार दी । गांव वालों ने देखा भी । लेकिन किसी गांववाले में इतनी हिम्मत नहीं थी कि लच्छू के शव को भी देखने जाये । आठ दिनो तक शव वहीं पड़ा रहा। लच्छू कबड्डी का अच्छा खिलाड़ी था और पुलिस ट्रेनिंग में शामिल भी हुआ था लेकिन नक्सलियों के घमकाने पर पुलिस की ट्रेनिंग छोड़ी और गुस्से में आई पुलिस ने उसकी जान ले लेी। महाराष्ट्र सरकार की पुलिस फाइल के मुताबिक 1990 से 1992 का दौर ऐसा था, जिसमें ढाई सौ से ज्यादा आदिवासियों को पुलिस ने मार गिराया और चार सौ से ज्यादा आदिवासियों को हवालात में इस आरोप के साथ बंद कर दिया कि वह नक्सलियों के हिमायती हैं। जो अलग अलग हिंसक घटनाओं को अंजाम देने में सहयोगी रहे। इनमें से करीब सवा दो सौ पर उस दौर में आतंकवादी कानून टाडा लगाया गया।

सरकार की इस रिपोर्ट से उलट आदिवासियों का अनकहा सच है। जिन सैकड़ों नक्सलियों को मारा गया उनके नाम आज भी विदर्भ के तीन जिलो गढचिरोली,चन्द्रपुर और भंडारा में हर आदिवासी को याद हैं। क्योकि उनके घर के बच्चे अब बड़े हो चुके है और उनपर पुलिसिया निगरानी आज भी रखी जाती है। जिससे हर घर की पहचान आज भी दो दशक पहले से जुड़ी हुई है । जिन पर टाडा लगाया गया। अब वह धीरे धीरे छूट रहे है । जो खुशकिस्मत निकला वह 1995 में टाडा कानून खत्म होते ही एक दो साल बाद छूट गया । जिसकी किस्मत ने साथ नही दिया वह 14 साल तक जेल में रहा । और जिनकी किस्मत ने साथ नहीं दिया वैसे साढे सात सौ से ज्यादा आदिवासी हैं, जो बिना जुर्म 10 से 14 साल जेल में रहे। इनमें से अभी भी सैकड़ों आदिवासी ऐसे हैं, जो जेल से तो छूट गये हैं लेकिन टाडा कानून के दायरे में अपने मामलो के लेकर आदालतो के चक्कर अभी भी लगाते हैं। दुर्गू तलावी, मनकु कल्लो, बुधू दूर्ग, मानु पुगाही समेत तीन दर्जन से ज्यादा आदिवासी ऐसे हैं, जिन्होंने 14 साल जेल में गुजारे। कमोवेश हर के खिलाफ टाडा की धारा 3,4 और 3/25 आर्म एक्ट समेत आईपीसी की धारा 302,307,147,148 लगायी गयी। लेकिन जब टाडा के तहत सुनवायी हुई तो किसी भी आदिवासी पर कोई भी धारा नहीं बची। यानी बिना किसी जुर्म में आरोपों के 14 साल यानी उम्र कैद की सजा इन आदिवासियो ने भोग ली । कई आदिवासी तो जेल में मर गये। जंगल से निकलकर जेल का जीवन आदिवासियो की समझ से बाहर रहा। गढचिरोली के सावरगंव में रहने वाले रेणु केजीराम उईके की मौत नागपुर जेल में 1 सितबंर 1994 को हो गयी। हो सकता था कि रेणु केजीराम 23 मई 1995 तक जिन्दा रह जाते तो टाडा कानून निरस्त होते ही छूट जाते लेकिन 1 सितबंर 94 में मरे रेणु केजीराम के खिलाफ अपराध संख्या 37/ 92 , 31/92 के तहत टाडा की धारा 3,4,5 और आर्म एक्ट की धारा 3/25, के अलावे आईपीसी की धारा 307,334,353,435 लगायी गयी ।

यह अलग बात है कि टाडा कानून खत्म होने के बाद अदालत ने जब पुलिस फाइल को टटोला तो उसे भी कोई सबूत रेणु केजीराम उईके के खिलाफ नहीं मिले । 21 अगस्त 1995 को इसी तरह आदिवासी युवक बालाजी जेल में मर गया और अहेरी ताल्लुका के कोयलपल्ली गांव का भंगेरी भीमराव सोयाम जेल में पागल हो गया । आत्म हत्या की की बार कोशिस की । जेल आधिकारियों ने माना भी जंग की आबो-हवा इन्हे जेल में कैसे मिलेगी । ऐसे में यह पागल नहीं होगे तो क्या होंगे । लेकिन सभी पर इतनी कडी धारायें लगी है कि जेल से छोड़ा भी नहीं जा सकता है । लेकिन यह त्रासदी यहीं नहीं रुकती। आदिवासी महिलाये भी शिकंजे में आयी । 1991-92 में ताराबाई, रुखमाबाई,लीला ,वत्सला , तेंचु की उम्र 18 से 22 साल के बीच थी। जाहिर है यह सभी अब बूढ़ी लगने लगी हैं। लेकिन जब इनकी उम्र सपनों को हकीकत का जामा पहना कर जिन्दगी की उड़ान भरने की थी तब चीचगढ थाने में इनके खिलाफ अपराध संख्या 366-92, 72-91 के तहत मामला दर्ज किया गया । 14 दिसबंर 1991 को सभी को जेल में डाला गया। टाडा की धाराये भी लगायी गयी। छह से दस साल तक यह सभी जेल में रही। लेकिन यह सच भी यही नहीं थमा। सौ से ज्यादा यहां की महिलाओं ने चार से 12 साल तक जेल में काटे। दर्जनों बच्चों का जन्म जेल में हुआ । 8 मार्च यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस। लेकिन 8 मार्च 1991 को गढचिरोली के एटापल्ली तहसील के मुडदापल्ली गांव में यह कहर की तरह टूटा। राज्य रक्षा पुलिस के जवानों ने 25 साल की मैनी सनुहिचामी, 19 साल की जुनी गुरियागोटा, 22 साल की बिदी सोन सुहलेडी और 17 साल की भेसू मडावी को अपनी हवस का शिकार बनाया। उसके बाद पंचायत को ही सुरक्षाकर्मियो ने बंदूक की नोंक पर यह कहते हुये लिया कि मामला उठा तो समूचे गांव पर टाडा लगा दिया जायेगा। गांव के बुजुर्ग आदिवासियों ने जब यह मामला उठाया तो पुलिस ने शफनराव धर्ममडावी, दामल घर्ममडावी और दसरथ कृष्ण को पकड़ लिया और नक्सलियों का हिमायती करार देकर टाडा और आर्म्स एक्ट लगा दिया। दशरथ को जेल में छह साल काटने पडे वही शफनराव और दामल दो साल बाद छूट गये । जो खुद को खुशकिस्तम मानते हैं।

दरअसल, इस तरह खुशकिस्मत मानने वालो की तादाद में कम नहीं हैं। आदिवासियों के मामलों के लेकर अदालत में जिरह करने वाले एकनाथ सालवे की उम्र 75 साल पार कर चुकी है। एकनाथ साल्वे ने बीते पच्चीस साल उसी लडाई में लगा दिये कि आदिवासियों के हक का सवाल भी राज्य व्यवस्था में सवाल बन सके। लेकिन समूची व्यवस्था किस तरह काम करती है, यह आज भी आदिवासियों के बीच खड़े होकर इस बात से समझा जा सकता है कि जो आदिवासी बिना जुर्म भी दो से तीन साल के भीतर जेल से छूट आये वह सरकार और अदालत को इसके लिये पूजते हैं। उनका मानना है कि सरकार और अदालत ना होती तो उनकी मौत जेल में ही हो जाती । लेकिन जेल जाना ही क्यों पड़ा जब कोई अपराध नहीं किया तो आदिवासी भलेमानस की तरह कहते है यह तो.. पुलिस और सरकार का हक है। अगर केन्द्र सरकार के आदिवासी कल्य़ाण विभाग और राज्यों के आदिवासी कल्य़ाण मंत्रालय के आंकड़ों को मिला दिया जाये तो बीते दो दशकों में औसतन हर साल एक हजार से ज्यादा आदिवासी उसी व्यवस्था के शिकार होकर मारे जाते हैं, जिस व्यवस्था का काम है, इनकी हिफाजत करना। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की मानें तो आदिवासियों की जुबान पुलिस-प्रशासन या सीधे कहे तो सरकारे आज भी नहीं समझ पाती इसलिए बेमौत सैकड़ों आदिवासी हर महीने मारे जा रहे हैं।

जाहिर है यह फरहिस्त इतनी लंबी और दर्दनाक है कि किसी को भी अंदर से हिला दे। लेकिन यह ना तो 84 के सिख दंगो या 2001 के गुजरात दंगो की तरह राजनीतिक मुद्दा है ना ही इनकी त्रासदी जानने के लिये शब्द रचे गये। सिख दंगो पर जनरैल सिंह की किताब पर जाने माने पत्रकार खुशवंत सिंह की टिप्पणी है कि ...."आई एक्यूज...घावों को हरे कर देता है जो अभी भरे नहीं है । यह उन सभी को जरुर पढ़ना चाहिये जो यह चाहते है कि दोबारा इस तरह का वीभत्स अपराध ना हो।" सवाल है, कोई आदिवासियों के घाव क्यों नहीं देखता, जो त्रासदी भोगने के बाद भी कहते है, इस अपराध का हक तो सत्ता को है।

Monday, December 7, 2009

प्रोजेरिया के बहाने राजनीति और मीडिया पर अमिताभ का आक्रोश है फिल्म "पा "

"पा" को सिर्फ प्रोजेरिया के अक्स में देखना भूल होगी। प्रोजेरिया का मतलब सिर्फ 15 साल की उम्र में अस्सी साल का शरीर लेकर मौत के मुंह में समाना भर नहीं है। असल में प्रोजेरिया का दर्द मां-बाप का दर्द है। जब जिन्दगी के हर घेरे में पन्द्रह साल के बच्चे को लेकर हर मां-बाप के सपने उड़ान भरना शुरु करते हैं, तब प्रोजेरिया से प्रभावित बच्चे के मां-बाप क्या सोचते होंगे....यह "पा" में नहीं है । किसी भी मां-बाप के लिये यह जानते हुये जीना कि उसके अपने बच्चे की उम्र सिर्फ 15 साल है लेकिन अपने बच्चे में उसे अपने भविष्य की छवि दिखायी दे जाये...यह भी " पा" में नहीं है।


असल में "पा " में मां-बाप नहीं सिर्फ औरो है। जिसके एहसास मां-बाप पर हावी है। और असल में यहीं से लगता है कि फिल्म में अमिताभ बच्चन हैं, जो नायक है। जिसके भीतर का आक्रोश पर्दे पर आने के लिये कसमसा रहा है। और "पा " का नायक "औरो " प्रोजेरिया से नहीं बल्कि व्यवस्था की विसगंति को अक्स दिखाकर मरता है। खासकर राजनीति और मीडिया को लेकर जो जहर अमिताभ के भीतर अस्सी के दशक से भरा हुआ है...उसका अंश बार बार इस फिल्म में नजर आता है।

फिल्म में "औरो" यानी अमिताभ अपने पिता अभिषेक बच्चन
, जो कि युवा सांसद बने हैं, उनके सपनों के भारत पर कटाक्ष कर उस राजनीति को आईना दिखाने की कोशिश करते हैं, जिसे संकेत की भाषा में समझे तो राहुल गांधी की छवि से टकराती है। और अगर अमिताभ बच्चन के ही अक्स में देखें तो 1984 में राजीव गांधी के कहने पर राजनीति में सबकुछ छोडकर एक बेहतर समाज और देश का सपना पाले अमिताभ का राजनीतिक चक्रव्यू में फंसने की त्रासदी सरीखा लगता है। अमिताभ 1988-89 में राजनीति के चक्रव्यूह को तोड़कर फिल्मी नायक की तरह राजनीति छोड़ना चाहते थे। लेकिन उस दौर में मीडिया ने भी उनका साथ नहीं दिया। और शायद पहली बार अमिताभ उसी वक्त समझे कि मीडिया के ताल्लुक राजनीति से कितने करीबी के होते हैं। और सही-गलत का आकलन मीडिया नहीं करता। इसलिये "पा" में भी युवा सांसद की भूमिका निभाते अभिषेक पारंपरिक राजनीति को अपनाने की सीख देने वाले अपने पिता परेश रावल के सुझाव को नहीं मानते बल्कि मीडिया से उसी की भाषा में दो -दो हाथ करने से नहीं कतराते, जो वह बोफोर्स कांड के दौर में करना चाहते थे।

इतना ही नहीं इलाहबाद के सांसद के तौर पर इलाहबाद को लेकर विकास की जो सोच अमिताभ ने
1985-88 में पाली, उस पर वीपी सिंह ने जिस तरह रन्दा चला दिया। और इलाहबाद में बनाये जाने वाले पुल और झोडपपट्टी को लेकर विकास योजना में जिस तरह वीपी सिंह ने अंडगा लगाया, उस नैक्सेस को नये अंदाज में दिखाते हुये उसे तोड़ने की कोशिश अभिषेक के जरिए फिल्म में की गयी है । मीडिया और राजनीति को लेकर अमिताभ अपने आक्रोश को दिखाने की खासी जल्दबाजी में इस फिल्म में नजर आते हैं।

राष्ट्रपति भवन जाने के लिये औरो की बैचैनी की वजह तो फिल्म नहीं बताती लेकिन राष्ट्रपति भवन पहुंचकर भी राष्ट्रपति भवन देखने से ज्यादा बाथरुम जाने की जरुरत यानी शिट के प्रेशर के आगे राष्ट्रपति भवन ना देखने का अद्भुत तरीका अमिताभ ने निकाला, जो झटके में अमिताभ के उस निजपन को उभारता है जो राजनीतिक व्यवस्था से घृणा करता है। सत्ता जिस तर्ज पर सुरक्षा घेरे में रहती है, उस पर भी सीधा हमला करने से औरो यानी अमिताभ कोई मौका नहीं चूकते। सुरक्षाकर्मियों को नेता किस तरह रोबोट बना देते हैं और अमिताभ उसके मानवीय पक्ष में जिन्दगी की न्यूनतम जरुरतों को जिस तरह टटोलते हैं
, उसे देख बरबस 1984 में राजनेता बने अमिताभ बच्चन याद आ जाते हैं जो नार्थ-साउथ ब्लाक से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय और घर के सुरक्षा घेरे से उस दौर में हैरान परेशान रहते थे। अक्सर राजीव गांधी से मिलने जाते वक्त अमिताभ को इसी बात की खासी कोफ्त होती थी कि सुरक्षा घेरे का मतलब है क्या । खासकर तब जब इंदिरा गांधी की हत्या सुरक्षा घेरे में सुरक्षाकर्मियों ने ही कर दी। इसलिये फिल्म का नायक ओरो यानी अमिताभ बार बार सांसद बने अभिषेक बच्चन के सुरक्षार्मियों की जरुरत या उनकी मौजूदगी पर ही सवालिया निशान लगाने से नहीं चूकता।

वैसे, यह कहा जा सकता है कि जब समूची फिल्म में ना तो अमिताभ बच्चन का चेहरा नजर आता है और ना ही उनकी भारी आवाज सुनायी देती है तो अमिताभ की जगह एक उम्दा कलाकार का अक्स इसे क्यों ना माना जाये। यह तर्क उन्हे समझाने के लिये सही लग सकती है, जिन्होंने फिल्म देखी ना हो । असल में समूची फिल्म में प्रोजेरिया से ग्रसित औरो को अमिताभमयी छवि में इतना भिगो दिया गया है कि ना सिर्फ मां-बाप की छवि फिल्म से गायब हो जाती है बल्कि फिल्म के अंत में "औरो " की मौत भी अपने मां-बाप को मिलाकर कर कुछ इस तरह होती है जैसे "औरो" का नायकत्व व्यवस्था के खांचे को नकार कर अपने ही मां-बाप को प्रेम और सहयोग का एक ऐसा पाठ पढाता है, जिसका मूलमंत्र यही है कि जो गलती करता है उसे ही ज्यादा आत्मग्लानी होती है। इसलिये गलती करने वाले को माफ कर देना चाहिये।

प्रोजेरिया से ग्रसित औरो के बहाने यह अमिताभ की ही फिल्म है जिसमें उनका चेहरा और आवाज तो नहीं है लेकिन हर डायलॉग में छवि उसी अमिताभ की है, जिसके भीतर व्यवस्था से आक्रोश है और सभी को पाठ पढाने का जज्बा है । जाहिर है फिल्म खत्म होने के बाद अमिताभ की हर फिल्म की तरह "पा" में भी सिर्फ अमिताभ ही दिमाग में रेंगते है।

Thursday, December 3, 2009

"20 साल पहले राजीव गांधी का अपहरण करना चाहते थे नक्सली और 20 साल बाद मनमोहन सिंह के अपहरण की जरुरत नहीं समझते माओवादी"

ठीक बीस साल पहले 1989 नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव सीतारमैय्या से जब यह सवाल किया गया था कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का भी आपहरण कर लेंगे । जवाब मिला था कि जरुरत पड़ी और परिस्थितियां अनुकूल हुईं तो जरुर करना चाहेंगे। यह सवाल 1987 में आंध्रप्रदेश के सात विधायकों के अपहरण के बाद पूछा गया था । और बीस साल बाद जब बंगाल के एक पुलिसकर्मी का अपहरण कर उसपर पीओडब्ल्यू यानी प्रिजनर ऑफ वार लिखकर रिहा किया गया...तो अपहरण करने वाले सीपीआई माओवादी के पोलित ब्यूरो सदस्य किशनजी उर्फ कोटेश्वर राव से मैंने यही सवाल पूछा कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अपहरण कर लेंगे। जवाब मिला बिलकुल नहीं। इसकी जरुरत है नहीं और परिस्थितियां ऐसी हैं कि प्रधानमंत्री की नीतियों से ही हमारा सीधा टकराव देखा जाने लगा है तो जनता खुद तय करेगी, हमें पहल करने की जरुरत नही है।

बीस साल के दौर में राजनीतिक तौर पर नक्सलियों में कितना बड़ा परिवर्तन आया है, यह जवाब उसका बिंब भर है। लेकिन इन बीस वर्षो में राजनीतिक तौर पर नक्सली कितना बदले है और उनकी राजनीति किस तरह अब सीधे संसदीय राजनीति को चेता रही है, यह गौरतलब है। बीस साल पहले मार्क्सवाद और माओवाद की धारा बंटी हुई थी। उस दौर में मजदूर-किसान के बीच भागेदारी को बढाने का सवाल ही सबसे बड़ा था। इसलिये इन दोनो धाराओं से जुड़ा अतिवाम आंध्रप्रदेश से लेकर बिहार तक में जो पहल कर रहा था, उसमें ग्रामीण क्षेत्रों से इतर का सवाल खासा गौण था। और जो सवाल नक्सली संगठन उठा रहे तो उससे राज्य सत्ता को कोई परेशानी नहीं थी। इसलिये बीस साल पहले नक्सल प्रभावित क्षेत्रो में विकास ना होना ही नक्सलियों के लिये भी मुद्दा था तो राज्य भी नक्सलियों पर विकास न करने देने का आरोप लगा कर समूचे इलाके को देश से अलग थलग दिखाने में कामयाब रहते। लेकिन बदलाव का दौर आर्थिक सुधार के साथ ही हुआ और राजनीतिक तौर पर एक नये तरीके से माओवादी और सरकार एक ही मुद्दे पर अपने अपने नजरिए से आमने सामने खड़े होते चले गये। इसलिये पहली बार सवाल सरकार की उन नीतियों को लेकर उठा, जिसपर बीस साल पहले राजनीतिक दल चुनाव लड़ सकते थे लेकिन अब वही सवाल संसदीय घेरे से होते हुये माओवादियों के दायरे में जा कर समाधान की बात कहने लगे और चुनावी राजनीति के भी आड़े अचानक माओवादी थ्योरी आ गयी।

असल में 1991 से लेकर 2001 के दौर में नक्सली माओवादी और मार्क्सवादियो ने शहरों की तरफ ठीक उसी तरह कदम बढाना शुरु किया जिस तरह आर्थिक सुधार के नजरिये ने गांवों को शहरों में बदलना शुरु किया। इस दौर में राज्य ने बाजारवाद ने मुनाफे के आगे जब घुटने टेकने शुरु किये तो नक्सलियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही आयी कि शहरों में वह अपनी स्थिति दर्ज कैसे करायें। खासकर वो शहर, जो पूरी तरह राज्य की नीतियों या धनवानों से जुड़े रोजगार पर ही टिके थे । यानी गांव में खेती से जो स्वालंबन पैदा होता और ग्रामीण अपनी जमीन पर खड़े होकर नक्सली संघर्ष में साथ खड़ा होता, उस तरह के स्वाबलंबन का स्थिति शहरों में थी नहीं। इसलिये अखिल भारतीय कामगार संगठन बनाकर औधोगिक मजदूरो को जोड़ने का काम नक्सलियों ने महाराष्ट्र से शुरु किया जो कई ट्रेड-यूनियन सरीखे संगठनो के मार्फत उन सवालों को उठाना शुरु किया जो बाजारवाद के सामानांतर समाजवाद की थ्योरी को रखते। इस दायरे में न्यूनतम मजदूरी के मुद्दे को क्षेत्र की जरुरत के हिसाब से नक्सलियों ने उठाना शुरु किया। यानी अपने संघर्ष को राजनीतिक दलों से हटकर बताने और दिखाने की राजनीति शहरो में कदम रखने के साथ ही की जिससे यह भ्रम ना रहे कि नक्सली संगठनों की जरुरत क्या है या फिर आज नहीं तो कल यह संगठन भी सत्ता के लिये चुनाव लड़ने लगेंगे। अपने इस प्रयोग में नक्सलियो का प्रभाव बहुत ज्यादा या पिर ज्यादा भी रहा ऐसा सोचना बचपना होगा। क्योंकि नक्सलियो की शहरों में पहले से कोई राजनीतिक चुनौती पैदा होती ऐसी स्थिति उस पूरे रेड कारीडोर में नहीं उभरी जो आज सरकार के लिये चुनौती बन रही है । लेकिन उस दौर में बाजारवाद ने जिस तरह पंख फैलाये और डंक मारना शुरु किया उसका असर यह जरुर हुआ कि विकल्प का सवाल कामगारों की जरुरत बनने लगा। यानी शहरो में कामगारो से जुड़े मुद्दों को लेकर नक्सलियो का नजरिया अचानक कामगारों को प्रभावित करने लगा। खासकर खनन और पावर प्रोजेक्ट के इलाको में टेक्नालाजी और विदेशी कंपनियो ने पैर रखे तो अचानक मजदूरों का रोजगार हायर-फायर वाली स्थिति में आया। तब सवाल न्यूनतम मजदूरी से भी आगे निकलने लगा । क्योंकि कामगारो के समुद्र के आगे राज्य द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी मिलने का सवाल ही नहीं था। ऐसे में अलग अलग क्षेत्रों में नक्सली संगठनो ने परिस्तितियो को समझते हुये मजदूरी का सवाल उठाया। मसलन महाराष्ट्र में 85 रुपये न्यूनतम मजदूरी हो लेकिन मजदूरों को 20-22 से ज्यादा मिलती नहीं थी। तो अपनी मौजूदगी जताने ले लिये नक्सलियों ने इस मजदूरी को 25 रुपये कराने का निर्णय लिया। लंबी लड़ाई के बाद सफलता मिली तो अगली लडाई 28 रुपये को लेकर सफल हुई। और आज की तारिख में यह लड़ाई 50 रुपये को लेकर हो रही है। वही बंगाल में अभी भी यह लड़ाई 22 से 25 रुपये कराने को लेकर हो रही है और बीते तीन सालो में माओवादी बुद्ददेव सरकार से 25 रुपये मजदूरी नहीं करा पाये है जबकि राज्य द्रारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी 85 रुपये है। इसी तरह तैंदू पत्ता के सवाल पर पहली लडाई 25 पैसे को लेकर लड़ी गयी । जो अब पचास पैसे बढाने को लेकर हो रही है। एक हजार तेदूपत्ता पर फिलहाल एक रुपये 75 पैसे मिलते है, जिसे सवा दो रुपये कराने की लडाई तेदूपत्ता ठेकेदारे से की जा रही है। बीस साल पहले एक हजार तेदूपत्ता पर 35 पैसे मिलते थे ।

जाहिर है यहां दो सवाल खड़े होते हैं कि एक तरफ बीस साल में लड़ाई एक रुपये को लेकर ही हुई और दूसरा सवाल की देश में विकास का ऐसा कौन सा अर्थशास्त्र अपनाया गया, जिससे शहरों में जो सिक्के मिलने बंद हो गये.....गांवों में उसी सिक्के की लड़ाई में पीढ़ी-दर-पीढ़ी गांव अब भी जी रहे हैं और संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन यहीं से नक्सलियों की उस राजनीति को भी समझना होगा जो तेंदूपत्ता की कीमत बढ़वाने के लिये ठेकेदारों की हत्या कर सकती है। या उन्हे चेता कर झटके में एक हजार तैंदूपत्ता की नयी कीमत पांच रुपये तय करवा सकता है। लेकिन राजनीति का मतलब लोगों की गोलबंदी और हक के साथ साथ संघर्ष करते हुये आगे बढाने की पूरी प्रक्रिया कैसे होती है असल में इसी का नायाब प्रयोग लगातार नक्सली राजनीति कर रही हैं। क्योंकि 2001 के बाद नक्सलियों के सामने बड़ी चुनौती उस राजनीति शून्यता के वक्त अपनी मौजूदगी का एहसास कराना था, जिसे माओवादी और मार्क्सवादी लगातार उठा रहे थे।

2001 में अतिवामपंथियो के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में यह सवाल खुल कर उठा था बाजारवाद को जिस तरह संसदीय राजनीति हवा दे रही है, उससे समाज के भीतर विकल्प का सवाल राजनीतिक तौर पर जरुर उठेगा । साथ ही संसदीय राजनीति को लेकर निराशा भी आयेगी। इन्हीं परिस्थितियों के बीच माओवादियों और मार्क्सवादियों यानी एमसीसी और पीपुल्स वार ग्रुप के बीच गठबंधन की प्रक्रिया शुरु हुई और 2004 में यानी तीन साल की लंबी प्रक्रिया के बाद दोनो एकसाथ आये और सीपीआई माओवादी का गठन हुआ। राजनीतिक तौर पर माओवादियो ने अगर पहला प्रयोग बंगाल में 2005 में यह सोच कर शुरु किया कि वामपंथी सरकार से जनता का मोहभंग एक धक्के के साथ हो जायेगा तो यह गलत नहीं होगा। क्योंकि पीपुल्स वार ने इससे पहले कभी बंगाल का रुख नहीं किया था लेकिन बंगाल में माओवादियों की कमान को पीपुल्स वार ग्रुप के कोटेश्वर राव यानी किशनजी ने संभाला । 2004 में एनडीए के शाइनिग इंडिया के नारे तले एनडीए की हार और यूपीए की जीत के बाद वामपंथियो के समर्थन ने माओवादियो की सेन्ट्रल कमेटी में यह सवाल उठा था कि वामपंथी सरकार पर लगाम लगा पायेगे या जनता से उनकी लगाम भी ढीली पड़ जायेगी। इसीलिये सिंगूर और नंदीग्राम से लालगढ़ का रास्ता वामपंथी सरकार के लिये अगर भारी पड़ रहा है तो इसका संसदीय घेरे में लाभ चाहे ममता बनर्जी को मिले लेकिन जिस पूरे इलाके में जो गोलबंदी ग्रामीण-आदिवासियों को लेकर की गयी, उसे माओवादी कितनी बडी सफलता मान रहे है उसका अंदाज इसी से लग सकता है कि झारखंड,उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में इसी तरह से एसईजेड और खनन समेत एक दर्जन से ज्यादा लगने वाली कंपनियो को दी जाने वाली जमीन पर जिन्दगी चलाने वाले गांव के गांव में उन्हीं मुद्दों पर बहस की शुरुआत की गयी है, जो अगले तीन-चार साल में नंदीग्राम-लालगढ में तब्दील होंगे। हो सकता है इन क्षेत्रो में भी कोई ना कोई क्षेत्रीय राजनितिक शक्ति कांग्रेस या भाजपा को इसी दौर में चुनावी चैलेंज देने लगे और उन मुद्दों की वकालत करने लगे, जिसे माओवादी आज उठा रहे हैं।

लेकिन पहली बार यही माओवादी राजनीतिक तौर पर एक नया सवाल खड़ा कर रहे है, कि संसदीय राजनीति सत्ता के लिये आर्थिक सुधार की हिमायती नहीं है बल्कि आर्थिक सुधार को बरकरार रखने के लिये संसदीय राजनीति चलनी चाहिये। और इसके अंतर्विरोध को माओवादी प्रक्रिया में संसदीय दल ही चुनावी संघर्ष में सामने उसी तरह लाये जैसे ममता उभार रही हैं। जो कांग्रेस को केन्द्र में समर्थन देते हुये मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में अहम पोर्टफोलियो भी ले ले और माओवादियो को देश का सबसे बड़ा खतरा बताने वाले मनमोहन सिंह की नीतियो का विरोध माओवादियों के हक की लड़ाई से जोडेते हुये अपनी राजनीति भी साधे। जाहिर है बीस साल पहले और अब के दौर में इतना फर्क वाकई आ गया है कि प्रधानमंत्री के अपहऱण की जरुरत माओवादियों को नहीं लगती ।

Tuesday, December 1, 2009

26/11 यानी हर आंख में आंसू...और दिल में दर्द के प्रायोजक हैं न्यूज़ चैनल

......मोहन आगाशे तो कह सकता है प्रसून....लेकिन अपन किससे कहें। क्यों आपके पास पूरा न्यूज चैनल का मंच है..जो कहना है कहिये..यही काम तो बीते तीन सालों से हो रहा है। यही तो मुश्किल है.....जो हो रहा है वह दिखायी दे रहा है..लेकिन जो करवा रहा है, वही गायब है । असल में शनिवार यानी 28 नवंबर को देर शाम मुबंई में मीडिया से जुडे उन लोगो से मुलाकात हुई जो न्यूज चैनलों में कार्यक्रमों को विज्ञापनों से जोड़ने की रणनीति बनाते हैं। और 26/11 को लेकर कवायद तीन महीने पहले से चलने लगी।

लेकिन किस स्तर पर किस तरह से किस सोच के तहत कार्यक्रम और विज्ञापन जुड़ते हैं, यह मुंबई का अनुभव मेरे लिये 26/11 की घटना से भी अधिक भयावह था। और उसके बाद जो संवाद मुंबई के चंद पत्रकारों के साथ हुआ, जो मराठी और हिन्दी-अग्रेजी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों से जुड़े थे, वह मेरे लिये आतंकवादी कसाब से ज्यादा खतरनाक थे।

जो बातचीत में निकला वह न्यूज चैनलों के मुनाफा बनाने की गलाकाट प्रतियोगिता में किस भावना से काम होता अगर इसे सच माना जाये तो कैसे.....जरा बानगी देखिये। एक न्यूज चैनल में मार्केटिंग का दबाव था कि अगर सालस्कर...कामटे और करकरे की विधवा एक साथ न्यूज चैनल पर आ जायें और उनके जरिये तीनो के पति की मौत की खबर मिलने पर उस पहली प्रतिक्रिया का रिक्रियेशन करें और फिर इन तीनो को सूत्रधार बनाकर कार्यक्रम बनाया जाये तो इसके खासे प्रयोजक मिल सकते हैं । अगर एक घंटे का प्रोग्राम बनेगा तो
20-25 मिनट का विज्ञापन तो मार्केटिग वाले जुगाड लेंगे। यानी 10 से 15 लाख रुपये तो तय मानिये।

वहीं एक प्रोग्राम शहीद संदीप उन्नीकृष्णन के पिता के उन्नीकृष्णन के ऊपर बनाया जा सकता है । मार्केटिंग वाले प्रोग्रामिंग विभाग से और प्रोग्रामिग विभाग संपादकीय विभाग से इस बात की गांरटी चाहता था कि प्रोग्राम का मजा तभी है, जब शहीद बेटे के पिता के. उन्नीकृष्णन उसी तर्ज पर आक्रोष से छलछला जायें, जैसे बेटे की मौत पर वामपंथी मुख्यमंत्री के आंसू बहाने के लिये अपने घर आने पर उन्होंने झडक दिया था। यानी बाप के जवान बेटे को खोने का दर्द और राजनीति साधने का नेताओ के प्रयास पर यह प्रोग्राम हो।

विज्ञापन जुगाड़ने वालो का दावा था कि अगर इस प्रोग्राम के इसी स्वरुप पर संपादक ठप्पा लगा दे तो एक घंटे के प्रोग्राम के लिये ब्रांडेड कंपनियो का विज्ञापन मिल सकता है ।
8 से 10 लाख की कमायी आसानी से हो सकती है। वहीं विज्ञापन जुगाड़ने वाले विभाग का मानना था कि अगर लियोपोल्ड कैफे के भीतर से कोई प्रोग्राम ठीक रात दस बजे लाइव हो जाये तो बात ही क्या है। खासकर लियोपोल्ड के पब और डांस फ्लोर दोनों जगहों पर रिपोर्टर रहें। जो एहसास कराये कि बीयर की चुस्की और डांस की मस्ती के बीच किस तरह आतंकवादी वहां गोलियों की बौछार करते हुये घुस गये। .....कैसे तेज धुन में थिरकते लोगों को इसका एहसास ही नहीं हुआ कि नीचे पब में गोलियों से लोग मारे जा रहे हैं.....यानी सबकुछ लाइव की सिचुएशन पैदा कर दी जाये तो यह प्रोग्राम अप-मार्केट हो सकता है, जिसमें विज्ञापन के जरीये दस-पन्द्रह लाख आसानी से बनाये जा सकते हैं।

और अगर लाइव करने में खर्चेा ज्यादा होगा तो हम लियोपोल्ड कैफे को समूचे प्राईम टाइम से जोड़ देंगे। जिसमें कई तरह के विज्ञापन मिल सकते हैं। यानी बीच बीच में लियोपोल्ड दिखाते रहेंगे और एक्सक्लूसिवली दस बजे। इससे खासी कमाई चैनल को हो सकती है । लेकिन मजा तभी है जब बीयर की चुस्की और डांस फ्लोर की थिरकन साथ साथ रहे। एक न्यूज चैनल लीक से हटकर कार्यक्रम बनाना चाहता था। जिसमें बच्चों की कहानी कही जाये। यानी जिनके मां-बाप
26/11 हादसे में मारे गये......उन बच्चों की रोती बिलकती आंखों में भी उसे चैनल के लिये गाढ़ी कमाई नजर आ रही थी। सुझाव यह भी था कि इस कार्यक्रम की सूत्रधार अगर देविका रोतावन हो जाये तो बात ही क्या है। देविका दस साल की वही लड़की है, जिसने कसाब को पहचाना और अदालत में जा कर गवाही भी दी।

एक चैनल चाहता था एनएसजी यानी राष्ट्रीय सुरक्षा जवानो के उन परिवारो के साथ जो
26/11 आपरेशन में शामिल हुये । खासकर जो हेलीकाप्टर से नरीमन हाऱस पर उतरे। उसमें चैनल का आईडिया यही था कि परिजनो के साथ बैठकर उस दौरान की फुटेज दिखाते हुये बच्चों या पत्नियो से पूछें कि उनके दिल पर क्या बीत रही थी जब वे हेलीकाप्टर से अपनी पतियों को उतरते हुये देख रही थीं। उन्हें लग रहा था कि वह बच जायेंगे। या फिर कुछ और.......जाहिर है इस प्रोग्राम के लिये भी लाखों की कमाई चैनल वालो ने सोच रखी थी।

26/11 किस तरह किसी उत्सव की तरह चैनलों के लिय़े था, इसका अंदाज बात से लग सकता है कि दीपावली से लेकर न्यू इयर और बीत में आने वाले क्रिसमस डे के प्रोग्राम से ज्यादा की कमाई का आंकलन 26/11 को लेकर हर चैनल में था। और मुनाफा बनाने की होड़ ने हर उस दिमाग को क्रियटिव और अंसवेदवशील बना दिया था जो कभी मीडिया को लोगों की जरुरत और सरकार पर लगाम के लिये काम करता था।

जाहिर है न्यूज चैनलों ने
26/11 को जिस तरह राष्ट्रभक्ति और आतंक के खिलाफ मुहिम से जोड़ा, उससे दिनभर कमोवेश हर चैनल को देखकर यही लगा कि अगर टीवी ना होता तो बेडरुम और ड्राइंग रुम तक 26/11 का आक्रोष और दर्द दोनों नहीं पहुंच पाते । लेकिन 26/11 की पहली बरसी के 48 घंटे बाद ही मुबंई ने यह एहसास भी करा दिया कि आर्थिक विकास का मतलब क्या है और मुंबई क्यों देश की आर्थिक राजधानी है। और कमाई के लिये कैसे न्यूज चैनल ब्रांड में तब्दील कर देते है 26/11 को। याद किजिये मुबंई हमलों के दो दिन बाद प्रधानमंत्री 28/11/2008 को देश के नाम अपने संबोधन में किस तरह डरे-सहमे से जवानों के गुण गा रहे थे। वही प्रधानमंत्री मुंबई हमलों की पहली बरसी पर देश में नहीं थे बल्कि अमेरिका में थे और घटना के एक साल बाद 25/11/2009 को अमेरिकी जमीन से ही पाकिस्तान को चुनौती दे रहे थे कि गुनाहगारो को बख्शा नहीं जायेगा। तो यही है 26/11 की हकीकत, जिसमें टैक्सी ड्राइवर मोहन आगाशे का अपना दर्द है.......न्यूज चैनलो की अपनी पूंजी भक्ति और प्रधानमंत्री की जज्बे को जिलाने की अपनी राष्ट्र भक्ति। आपको जो ठीक लगे उसे अपना लीजिये ।