Friday, February 26, 2010

खान को क्यों कहना पड़ता है, मैं आतंकवादी नहीं हूं

पुणे ब्लास्ट ने एक बार फिर मुस्लिमों को लेकर आतंक का सवाल उभार दिया। चूंकि ब्लास्ट की जांच में कोई ठोस सबूत हाथ लगे नहीं हैं तो पुणे को मालेगांव से भी जोड़ा जा रहा है। यानी निशाने पर कहीं ना कही कट्टर हिन्दुत्व भी है। एक तरफ चरमपंथी मुस्लिम तो दूसरी तरफ उग्रपंथी हिन्दुत्व । लेकिन पुणे ब्लास्ट से पहले आई फिल्म माई नेम इज खान के सामने चरमपंथी मुस्लिम सोच ने भी घुटने टेके और कट्टर हिन्दुत्व की राजनीति भी धराशायी हुई। फिल्म के आगे बालठाकरे की राजनीति अगर झटके में फुस्स हो गयी तो समूचे मुस्लिम वर्ल्ड में फिल्म को लेकर दो सवाल इस तेजी से घुमड़े कि लगा पहली बार मुस्लिमो को जुबान मिल गयी।


सवाल सिर्फ
माइ नेम इज खान और मैं टेररिस्ट नहीं हूं के कहने भर का नहीं है। फिल्म के भीतर भी कट्टर इस्लाम की धज्जियां बेहद सांकेतिक तौर पर टोपी पहन मुस्लिम को बेहद बारीकी से शैतान की संज्ञा देते हुये आतंक से जिस तरह जोडा गया है, वह काबिले तारिफ है। असल में माई नेम इज खान कह कर दुनिया फतेह करने का मंसूबा शहरुख खान ने इसी बदौलत सच कर दिखाया। तीन दिन में 90 करोड के धंधे में अमेरिका, कनाडा, अस्ट्रेलिया,न्यूजीलैंड से लेकर मीडिल ईस्ट तक में तक में खान का धंधा लाखों डॉलर का है। कमाई में जितना हिस्सा भारत का है, उतना ही विदेश में। पहले तीन दिन में भारत में कमाई अगर 47.4 करोड़ रही तो 43 करोड़ विदेश में रही, जिसमें अमेरिका-कनाडा में 19 लाख डॉलर, मीडिल इस्ट में 12 लाख डॉलर और आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैड में 5 लाख डॉलर।

बॉलीवुड की किसी फिल्म की यह अपने तरीके की पहली कमाई है जो पहली नजर में यह एहसास भी कराती है कि शाहरुख वर्ल्ड ब्रांड बन चुके हैं। लेकिन फिल्म देखने पर यह एहसास कमजोर हो जाता है। क्योकि कमाई के पीछे असल में यह असर फिल्म से ज्यादा उस भावना का है, जिसे मुस्लिम समाज अमेरिका में भोग रहा है। और खुद अपनी परिस्थितियों को लेकर भी ढोह रहा है।
9-11 के बाद मुस्लिमों को आतंकवादी ठहराना अमेरिकापरस्त होने का शगूफा चल पड़ा था। चूंकि उसी दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने दुनिया भर में सीधे संकेत दिये थे कि जो भी आतंकवाद के खिलाफ है वह अमेरिका के साथ है और जो अमेरिका के साध नहीं है, वह आतंकवाद के साथ है। और आतंकवाद का मतलब मुस्लिम वर्ल्ड से जोडा गया। जार्ज बुश के इस जज्बे में दुनिया की निगाहे मुस्लिमों को लेकर झुकी रहीं। इराक से लेकर अफगानिस्तान तक को अमेरिका ने रौंदा। दुनिया के तमाम देश तो दूर की बात हैं, भारत जिसके सामाजिक-सास्कृतिक और एतिहासिक संबंध इराक और अफगानिस्तान के साथ रहे हैं, वह भी खामोश हो गया क्योंकि सामने आर्थिक सुधार का वह सपना था, जिसमें अमेरिका का साथ खडे होने का मतलब विकसित भारत के सपने को सच करने का सपना था। इसके घाव इराक-अफगानिस्तान ने किस तरह भोगा, यह इसी बात से समझा जा सकता है कि ओबामा के आने से पहले तक यानी जार्ज बुश के दौर में इराक में चार लाख सत्तर हजार नागरिक मारे गये तो अफगानिस्तान में चौवन हजार अफगानी मारे गये। और अमेरिकी बाजार थ्योरी जब दुनिया के सामने सीमाओ को खोल रही थी उसी दौर में अफगानिस्तान और इराक के नागरिक अपने ही देश में बंद हो गये। जिन्हें दुनिया ने अमेरिकी खौफ से आतंकवादी और तालिबानी माना। मुस्लिमों को लेकर अमेरिका के इस नयी परिभाषा के घेरे में भारत भी आया और समूचे एनडीए सरकार के दौर में यह बात खुले तौर पर गूंजती रही कि हर मुसलमान चाहे आतंकवादी ना हो लेकिन हर आतंकवादी जरुर मुस्लिम है।

राजनीतिक तौर पर यह आवाज थमी आज भी नहीं है। ऐसे में भारत ही नहीं दुनिया भर में खान होने का मतलब दर्द और त्रासदी होगा, यह कभी किसी ने सोचा नहीं होगा। और खान अगर यह कहेगा कि माय नेम इज खान और मै आतंकवादी नहीं हूं तो मुस्लिम समाज इस वाक्य को सर आंखों पर बैठाकर अपनी जीत या अपनी खामोश भावनाओ में आवाज पायेगा। और उसकी भावनाओं का ज्वार ही फिल्म को पहले हफ्ते में तीन सौ करोड़ की कमाई करा देगा
, यह किसने सोचा होगा। लेकिन अरब वर्ल्ड के अलावा दुनिया भर में मुस्लिम समाज, जहां जहा मौजूद है, अगर वहां वहां माय नेम इज खान के छप्पर फाड कमाई की है, तो इसका एक ही सच है कि उसे पहली बार अमेरिकी समाज के अंतर्विरोध और जार्ज बुश को दौर के विरोधाभासों के बीच मुस्लिमों को खान शब्द में गरिमा लौटती दिखी। यानी हंटन की थ्योरी तले क्लैश आफ सिविलाईजेशन तले इस्लाम और ईसाई के संधर्ष तले मुस्लिम दबा जा रहा था, तब उसे सरकारों से नहीं बल्कि सिल्वर स्क्रीन के जरीये जुबान मिली है।

असल में मुस्लिमों को लेकर भारतीय समाज में इस दौर में क्या क्या बदल गया और खान शब्द कैसे संघर्ष और इमान से आतंक और दु्श्मन में बदलने लगा यह बालीवुड के नजरिये से भी समझा जा सकता है क्योंकि भारतीय समाज के लिये अगर इसी सिल्वर स्क्रीन से खान को समझना चाहे तो यह भारत का दर्द होगा कि आधुनिक होते वक्त के साथ खान धंधे में तो इजाफा करता है, लेकिन दिलो में सिमटता जा रहा है। और भारत की विदेश नीति भी इस खान के खिलाफ अमेरिका परस्त होकर मुनाफे और आर्थिक सुधार में अमेरिका परस्त होती चली गयी। और इसे समझाने के लिये भी फिल्मी धंधे की जरुरत आ पड़ी। याद कीजिये
1961 की फिल्म काबुलीवाला। बलराज साहनी ने इसमें खान का भूमिका निभायी थी, जो काबुल से आया है। मेवे बेचते काबुलीवाला के खान का नाम फिल्म में अब्दुल रहमान खान था जो हिन्दुस्तान में बेखौफ मेवे बेचता और सपने काबुल में अपनी बेटी के सुंदर भविष्य के देखता है। बेटी की याद में एक हिन्दुस्तानी परिवार की बेटी से उसका मन जुड़ जाता है। उसी लडकी में बेटी का अक्स देख देखकर उसकी जिन्दगी कटती है। यह वह दौर था जब काबुल से दिल्ली की आवाजाही बेहद मुश्किल थी लेकिन दिलो के तार सीधे जुड़े थे। दर्द का एहसास साझा था। इसलिये काबुल की दूरी सिर्फ कठिन रास्तों की थी। दिलो की नहीं। वहीं पचास साल बाद जब शाहरुख माय नेम इज खान बनाते हैं तो काबुल का मतलब तालिबान का आतंक और बारुद के घमाकों से होता है। आज के दौर में काबुल के अब्दुल रहमान खान में ही नहीं, अफगानिस्तान के हर खान में हर अफगानी तालिबानी आतंक नजर आता है। दिलों से दर्द गायब हो चुका है और साझा एहसास काफूर है। डर और भय को भारतीय मन में इस तरह घुसा दिया गया है कि काबुल शब्द ही आतंक का पर्याय सा लगने लगा है।

ऐसे वक्त में काबुलीवाला में गाते अब्दुल रहमान खान के गीत...ऐ मेरे प्यारे वतन
, ऐ मेरे बिछुडे चमन , तुझ पर दिल कुर्बान.....मे भी जेहाद की महक सूंघने के लिए सरकारी नीति जबरदस्ती कर सकती है । और अमेरिका से खिंची लकीर में यह गीत बारुद की गंध में भी बदल सकती है। यह अल-कायदा का राष्ट्रीय गीत भी लग सकता है। लेकिन सच यह है कि माय नेम इज खान की सीडी काबुल में भी देखी जा रही है और खासी पंसद की जा रही है। हम-आप महसूस कर सकते हैं कि खान शब्द जिन्दगी में जख्म है तो सिल्वर स्क्रीन पर मलहम बन रहा है। कमाल है चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकारों की जगह बालीवुड की एक फिल्म हालीवुड के फॉक्स इंटरनेटमेंट के साथ जुड कर साझा धंधा कर रही है और वही मलहम बन कर अमेरिकी कंपनी फॉक्स की झोली भी भर रहा है और शाहरुख खान कट्टर हिन्दुत्व को राजनीतिक चुनौती देते हुये भी दिख रहे हैं।

काबुलीवाला ही क्यो बालीवुड ने एक और खान को सिल्वर स्क्रीन पर शिद्दत से भोगा है। वह
1973 की फिल्म जंजीर का शेऱ खान है। प्राण ने शेर खान की भूमिका को जिया और फिल्म के जरीये इस एहासास को दर्शको के दिलो में जगाया कि खान का मतलब वादे का पक्का, इमानदार और बुलंद हौसले वाला शख्स होता है जो पीठ में कभी छुरा नहीं भोंक सकता और यार के लिये जान तक दे सकता है। लेकिन यह एहसास इतनी जल्दी काफूर हो जायेगा इसका एहसास भारतीय मन को कभी नहीं था। कह सकते है देश को पहला झटका बाबरी मस्जिद को ढहाने से लगा, जिसके बाद पहली बार मुस्लिम मन मानने लगा कि उसका दिल और मन गुलाम हो रहा है। लेकिन इस राजनीतिक हालात को भी समाज ने सहेजा और गूंथे हुये भारतीय मन में मुस्लिमो के जीने के एहसास को साथ ही जिलाये भी रखा और सांसे भी साथ ही गर्म की।

अयोध्या कांड ने असल में उस तंग समाज का चेहरा ठीक उसी तर्ज पर सामने ला दिया जो हालात विभाजन के बाद मुस्लिमो के मन में थे। याद कीजिये विभाजन के बाद
50-60 के दशक में हुनर और अदाकारी से लबरेज मुस्लिम कलाकारो की भरमार थी। उस दौर में कोई मु्सलिम कलाकार अपना नाम मुस्लिम नही रखता। यहां तक की युसुफ खान ने भी अपना नाम बदल कर दिलीप कुमार कर लिया था। और संयोग देखिये दिलिप कुमार यानी युसुफ खान का परिवार पेशावर से ही हिन्दुस्तान पहुंचा था। और शाहरुख खान के परिवार का अतित तो अफगानिस्तान होते हुये पेशावर से ही जुड़ा हुआ है। लेकिन नये हालातो में शाहरुख खान को अपना नाम बदलने की जरुरत नहीं पड़ी। बल्कि खान बंधुओ की तूती समूचे बॉलीवुड में बोलती है। लेकिन उसी बॉलीवुड में खान शब्द के साथ किसी सामान्य नागरिक की तर्ज पर रिहायश बेहद मुश्किल भी है। और तो और देश का एक तिहाइ हिस्सा ऐसा जरुर है, जहां खान शब्द आते ही पुलिस-प्रशासन की आंखों में शक घूमने लगता है। यह परिस्थितियां बार बार उन्हीं आर्थिक सुधार की तरफ अंगुली उठाती हैं, जहां पूंजी और मुनाफा चंद हाथों में सिमट रहा है। बाजार की प्रतिद्वन्दिता के नाम पर एक खास तबके के लिये ही सारी नीतियां बनायी जा रही हैं। यह शक इसलिये ज्यादा गहराता है क्योकि एक पूरी कौम पर सवालिया निशान लगाकर एक तरफ अमेरिका अपने धंधे को आतंक के निशाने पर बताकर मुस्लिम देशों पर कब्जा करता है तो दूसरी तरफ आर्थिक सुधार के दौर में भारत जैसे देश में मुस्लिमो को तंग गली में सिमटा दिया जाता है।

जंजीर का शेर खान माई नेम इज खान के दौर में आजमगढ का लगने लगता है। और काबुल का अब्दुल रहमान खान में तालीबान दिखायी देने लगता है। सवाल है क्या भविष्य में ऐसी किसी फिल्म की जरुरत पड़ जायेगी, जिसमें कोई नया खान सिल्वर स्क्रीन पर आकर कहेगा-
माई नेम इज खान और मैं आप ही जैसा हूं..।

Sunday, February 21, 2010

माय नेम इज....और मैं पत्रकार नहीं हूं

लोकतंत्र के चार खम्भों में सिनेमा की कोई जगह है नहीं, लेकिन सिल्वर स्क्रीन की चकाचौंध सब पर भारी पड़ेगी यह किसने सोचा होगा। "माई नेम इज खान" के जरिये सिनेमायी धंधे के मुनाफे में राजनीति को अगर शाहरुख खान ने औजार बना लिया या राजनीति प्रचार तंत्र का सशक्त माध्यम बन गयी, तो यह एक दिन में नहीं हुआ है। एक-एक कर लोकतंत्र के ढ़हते खम्भों ने सिनेमा का ही आसरा लिया और खुद को सिनेमा बना डाला। 1998-99 में पहली बार बॉलीवुड के 27 कलाकारों ने रजनीति में सीधी शिरकत की। नौ बड़े कलाकारों से राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने संपर्क साधा और उन्‍हें संसद में पहुंचाया। जबकि 62 कलाकारों ने चुनावी प्रचार में हिस्सा लिया। और, 2009 तक बॉलीवुड से जुड़े दो सौ से ज्यादा कलाकार ऐसे हो गये, जिनकी पहुंच पकड़ अपने-अपने चहेते राजनीतिक दलों के सबसे बड़े नेताओं के साथ भी सीधी हो गयी। गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, मध्यप्रदेश के विधानसभा से लेकर आम चुनाव के दौरान सिल्वर स्क्रीन के करीब छोटे-बडे तीन सौ से ज्यादा कलाकारो ने प्रचार भी किया और अपने हुनर से नेताओ की सभा को बांधा भी रखा ।

कलाकारों के वक्त के लिहाज से नेताओ को अपना वक्त निकालना पड़ता लेकिन आम जनता के लिये नेताओ के पास वक्त ही नहीं रहता। मुश्किल तो यह हुई कि इस दौर की राजनीति को इसमें कोई खामी भी दिख रही। 26-11 के बाद ताज होटल का निरिक्षण करने निकले तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख का फिल्मकार रामगोपाल वर्मा को अपने साथ ले जाना इसका एक उम्दा उदाहरण है। जब देशमुख पर आरोप लगे तो उन्होने मासूमियत से कहा-इसमें गलती क्या है। सत्ताधारी राजनीतिक दलों से जुड़े होने का लाभ नौकरशाही ने भी कलाकारों को खूब दिया। सुविधा,टैक्स माफ और राष्ट्रीय पुरस्कार दिखायी देने वाला सच है। और ना दिखायी देने वाली हकीकत यही रही कि राजनीति भी सिनेमायी तर्ज पर खुद को देखने-समझने लगी।


दरअसल, यह पूरा दौर आर्थिक सुधार का है
, जिसमें सबसे ताकतवर बाजार हुआ और हर हालत में मुनाफे की सोच ने सामूहिकता के बोध खत्म कर दिया। इस दौर में कल्याणकारी राज्य यानी जनता के प्रति जवाबदेही होने की समझ भी राजनीतिक सत्ता से काफूर हो गयी। सबकुछ प्रतिस्पर्धा बताकर मुनाफे पर टिकाने का अद्भुत खेल शुरु हुआ। इस राजनीतिक शून्यता ने समाज में एक संदेश तो साफ दिया कि संसदीय राजनीति का लोकतंत्र भी अब मुनाफे की बोली ही समझता है। इन परिस्थितियों को समझते हुये समझाने की जरुरत चौथे खम्भे यानी पत्रकारिता की थी । लेकिन पत्रकारिता ने भी आर्थिक सुधार के इस दौर में बाजार और मुनाफे का पाठ ही पढ़ना शुरु किया। जिस राजनीतिक सत्ता पर उसे निगरानी रखनी थी, उसी सत्ता की चाटुकारिता उसके मुनाफे का सबब बनी। और पत्रकारिता झटके में मीडिया में तब्दील होकर धंधे और मुनाफे का सच टटोलने लगी। धंधा बगैर सत्ता की सुविधा के हो नहीं सकता और राजनीति बगैर मीडिया के चल नहीं सकती। इस जरुरत ने बाजारवादी धंधे में मीडिया और राजनीति को साझीदार भी बनाया और करीब भी पहुंचाया।

पत्रकार भी इटंरप्नयूर बनने लगा। जो पत्रकारिता शिखर पर पहुंचकर राजनीति का दमन थामती थी और पत्रकार संसद में नजर आते उसमें नयी समझ कारपोरेट मालिक बनने की हुई। क्योंकि राजनीति बाजार के आगे नतमस्तक तो बाजार में मीडियाकर्मी की पैठ उसे राजनीति से करीबी से कहीं ज्यादा बड़ा कद देती। किसी मीडिया संस्थान में बतौर पत्रकार काम करने से बेहतर खुद का संस्थान बनाने और धंधे में सीधे शिरकत करने वाले को ही सफल मीडियाकर्मी माना जाने लगा। लेकिन चौथे खम्भे का संकट इसके बाद से शुरु हुआ जब वोट बैंक की राजनीति में सिनेमायी समझ घुसी और विकास का खांचा भी सिनेमायी तर्ज पर बनना शुरु हुआ। मीडिया सत्ता के उसी विकास को असल भारत मानने लगी जिसका खंचा राजनीति ने सिनेमा की चकाचौंध में बनाया। मीडिया ने भी इसका दोहरा दोहन किया। धंधे और मुनाफे के लिये राजनीतिक सत्ता की विकास की लकीर को ही असल इंडिया और किसी ने नहीं मीडिया ने ही बताया।

जाहिर है नौ फीसदी खेती योग्य जमीन इसी दौर में औधोगिक विकास के नाम पर स्वाहा की गयी । देशभर में छह फीसद जंगल खत्म किये गये। शहरों में 22 फीसदी तक की हरियाली खत्म हुई और कंक्रीट का जंगल 19 फीसद जमीन पर तेजी के साथ पनपा। उसी दौर में तीस हजार से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की और करीब छह लाख से ज्यादा लोगों का वैसा रोजगार खत्म हुआ जो उत्पादन से जुड़ा था। पैसा लगाने और पैसा बनाने के इस सट्टा बाजार अर्थव्यवस्था के खेल ही राजनीतिक सत्ता की नीति बन गयी। मीडिया के लिये यह कोई मुद्दा नहीं बना और राजनीति ने कभी उस भारत को देश के विकास से जोड़ने की नहीं सोची जो इस चकाचौंघ की वजह से कहीं ज्यादा अंधेरे में समाता जा रहा था। राजनेताओ की सभा में राजू श्रीवास्तव सरीखे चुटकुले होने लगे और न्यूज चैनलों ने भी राजू की हंसी ठिठोली में अपने धंधे को आगे बढ़ते देखा। लोकतंत्र के चौथा खम्भा होने का भ्रम टीआरपी से निकले विज्ञापन ने कुछ यूं तोडा कि खबरों की परिभाषा भी बदली गयी और राजनीतिक सत्ता ने नयी परिभाषा को यह कह कर मान्यता दी कि मीडिया चलाने के लिये पूंजी तो चाहिये ही। यानी मीडिया की विश्वसनीयता का नया आधार पूंजी और उससे बनने वाले मुनाफे के दायरे में घुस गया। सरकार ने बाजार आगे घुटने टेक कर अनकही नीतियों के आसरे मीडिया को अपनी सिनेमायी सोच में ढाला भी और निर्भर भी बना दिया। विश्वसनीय न्यूज चैनलों में सिल्वर स्क्रीन के कलाकारों के प्रोग्राम तो छोटी बात हुई। कलाकारो से एंकरिंग करा कर पत्रकारिता के नये मापदंड बनाये गये।

ऐसा भी नहीं है कि यह सब नयी पीढी ने किया जिसने पत्रकारिता के संघर्ष को ना देखा-समझा हो। बल्कि प्रिंट पत्रकारिता से न्यूज चैनलों में आये वह पत्रकार ही इंटरप्यूनर की तर्ज पर उबरे और अपने सामने ध्वस्त होती राजनीति या कहें सिनेमायी राजनीति का उदाहरण रख नतमस्तक हो गये। जिस तरह सिनेमायी धंधे के लिये देश भर में महंगे सिनेमाघर बने और इन सिनेमाघरो में टिकट कटा कर सिनेमा देखने वालो की मानसिकता की तर्ज पर ही फिल्म निर्माण हो रहा है तो राजनीतिक सत्ता ने भी वैसी ही नीतियों को अपनाया, जिससे पैसे की उगाही बाजार से की जा सके। यानी मलटीप्लैक्स ने सिनेमा के धंधे का नया कारपोरेट-करण किया तो विकास नीति ने पूंजी उगाही और कमीशन को ही अर्थव्यवस्था का मापदंड बना दिया। और मीडिया ने सिल्वक स्क्रीन की आंखो से ही देश की हालत का बखान शुरु किया। खुदकुशी करते किसानो की रिपोर्टिंग फिल्म दो बीघा जमीन से लेकर मदर इंडिया के सीन में सिमटी। 2020 के इंडिया को दुबई की सबसे ऊंची इमारत दिखाकर सपने बेचे गये। नीतियों पर निगरानी की जगह मीडिया की भागेदारी ने सरकार को यही सिखाया कि लोग यही चाहते हैं
, यह ठीक उसी प्रकार है जैसे टीआरपी के लिये न्यूज चैनल सिनेमायी फूहडता दिखाकर कहते है कि दर्शक तो यही देखना चाहते हैं।

धंधे पर टिके सिनेमा की तर्ज पर मीडिया और उसी तर्ज पर राजनीतिक सत्ता के ढलने से तीस फिसद इंडिया में ही समूचा भारत देखने की समझ नीतिगत तौर पर उभरी। स्पेशल इकनामी जोन से लेकर टाइगर प्रोजेक्ट के घेरे में ग्रामीण समाज और आदिवासी हाशिये पर चला गया लेकिन ग्लोबल बाजार की पूंजी इन परियोजनाओ से जुड़ती चली गयी और सरकार को फायदा ही हुआ। वहीं मीडिया में विकास का आधार भी सत्ता के अनुकूल हो गया। यानी उपभोक्ता बनाकर बाजार पर निर्भर करने की मानसिकता से जुड़े तमाम खबरें हो या प्रचार विज्ञापन सबकुछ मीडिया ने आंख बंद कर छापा भी और न्यूज चैनलों में दिखाया भी। इतना ही नहीं सरकार की जिन नीतियों ने स्कूलों से खेल मैदान छिने
, मोहल्लो से पार्क छिने। रंगमंच खत्म किया । खेल स्टेडियम को फीस और खेल विशेष से जोड़ दिया उसमें समाज के सामने मनोरंजन करना भी जब चुनौती बनने लगा तो सिनेमा और सिनेमायी तर्ज पर न्यूज चैनलों को उसी राजनीतिक सत्ता ने प्रोत्साहित किया, जिसका काम इन तमाम पहलो को रोकना था। पूंजी पर मीडिया को टिकाकर सत्ता की सिनेमायी सोच ने पत्रकारिता के आयामों को ही बदल दिया। पत्रकारिता खुद ब खुद उस लघु पत्रिका का हिससा बन गयी जो नब्बे के दशक तक मुख्यधारा की पत्रकारिता को भी चुनौती देती थी। लेकिन उस दौर में मुख्यधारा की पत्रकारिता का मतलब कहीं ना कहीं सत्ता को चुनौती देते हुये बहुसंख्य लोगों से जुडे सवालों को उठाना होता था । और लघु पत्रकारिता विकल्प की सोच लिये विचारों का मंच बनाती थी। लेकिन नयी परिस्थितियों ने मुख्यधारा का मतलब सत्ता से करीबी और कारपोरेट पूंजी के तौर तरीकों से मीडिया को व्यवसायिक बनाकर आगे बढ़ाना है। इसमें खबर का मतलब सरकार की नीतिय का प्रचार और कारपोरेट धंधे के नये गठजोड़ होते हैं। और मनोरंजन से जुडी खबरे जो सिनेमायी धंधे को समाज का असल आईना बताती है। न्यूज चैनल का एंकर किसी नायक-नायिका की तर्ज पर खुद को रखता है और संपादक फिल्म प्रोडूसर की तर्ज पर नजर आता है। राजनेता का मापदंड भी उसके औरे से तय होता है। नेता का ग्लैमर , उसका लोगो से कटकर न्यूज चैनल के पर्दे पर लगातार बोलना ही उसकी महत्ता है। यानी एक तबके बर के लिये सिनेमा, उसी के लिये राजनीतिक सत्ता की नीतियां और उसी के मानसिक मनोरंजन के लिये मीडिया, लोकतंत्र का नया सच कुछ इसी परिभाषा में सिमट गया है। और लोकतंत्र बार बार पारंपरिक खम्भों की दुहाई दे कर एहसास करता है कि देश में सबका हक बराबर का है। हर कोई बराबर का नागरिक है। जिसका मापदंड चुनाव है जिसमें हर कोई वोट डाल सकता है और सभी का मत बराबर का होता है। यह अलग बात है कि वोट बैंक डिगाने के लिये नेता पूरी तरह सिनेमायी नायक-नायिका पर जा टिका है और मीडिया सिलवर स्क्रीन का आईना बन गया है।

कह सकते है पहले समाज का आईना फिल्म होती थी अब फिल्म का आईना समाज माना जाने लगा है । इसलिये सवाल माई नेम इज खान का नहीं है
, सवाल यह भी नहीं है कि है मनमोहन सिंह भी कहें, " माई नेम इज मनमोहन और मै पीएम नहीं हूं।" क्योंकि मै सीइओ हूं। लेकिन मीडिया से कौन निकल कर कहेगा कि माई नेम इज गणेश शंकर विद्यार्थी और मै पत्रकार नहीं हूं।

Friday, February 19, 2010

मुंबई कहां से चली और कहां आ पहुंची

जिस मुंबई पर महाराष्ट्रीय गर्व करता है और अधिकार जमाना चाहता है, असल में उसके निर्माण में उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के उन स्वप्नदृष्टा पारसियों की निर्णायक भूमिका रही, जो अंग्रेजो के प्रोत्साहन पर सूरत से मुंबई पहुंचे। लावजी नसेरवानजी वाडिया जैसे जहाज निर्माताओं ने मुंबई में गोदियों के निर्माण की शुरुआत करायी। डाबर ने 1851 में मुंबई में पहली सूत मिल खोली। जेएन टाटा ने पश्चिमी घाट पर मानसून को नियंत्रित करके मुंबई के लिये पनबिजली पैदा करने की बुनियाद डाली, जिसे बाद में दोराबजी टाटा ने पूरा किया। उघोग और व्यापार की इस बढती हुई दुनिया में मुंबई वालो का योगदान ना के बराबर था।


मुंबई की औद्योगिक गतिविधियों की जरूरत जिन लोगों ने पूरी की वे वहां 18वीं शताब्दी से ही बसे हुये व्यापारी, स्वर्णकार, लुहार और इमारती मजदूर थे। मराठियो का मुंबई आना बीसवीं सदी में शुरू हुआ। और मुंबई में पहली बार 1930 में ऐसा मौका आया जब मराठियों की तादाद 50 फीसदी तक पहुंची। लेकिन, इस दौर में दक्षिण भारतीय.गुजराती और उत्तर भारतीयों का पलायन भी मुंबई में हुआ और 1950-60 के बीच मुंबई में मराठी 46 फीसदी तक पहुंच गये। इसी दौर में मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल कराने और अलग ऱखने के संघर्ष की शुरुआत हुई। उस समय मुंबई के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई थे, जो गुजराती मूल के थे। उन्होंने आंदोलन के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया। जमकर फायरिंग, लाठी चार्ज और गिरफ्तारी हुई।

असल में मुंबई को लेकर कांग्रेस भी बंटी हुई थी। महाराष्ट्र कांग्रेस अगर इसके विलय के पक्ष में थी, तो गुजराती पूंजी के प्रभाव में मुंबई प्रदेश कांग्रेस उसे अलग रखने की तरफदार थी। ऐसे में मोरारजी के सख्त रवैये ने गैर-महाराष्‍ट्रीयों के खिलाफ मुंबई के मूल निवासियों में एक सांस्‍कृ‍तिक उत्पीड़न की भावना पैदा हो गयी, जिसका लाभ उस दौर में बालासाहेब ठाकरे के मराठी मानुस की राजनीति को मिला। लेकिन, आंदोलन तेज और उग्र होने का बड़ा आधार आर्थिक भी था। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे। दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगों का कब्जा था। टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियो का प्रभुत्व था। लिखाई-पढाई के पेशों में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी। भोजनालयों में उड्डपी और ईरानियो का रुतबा था। भवन निर्माण में सिधिंयों का बोलबाला था। और इमारती काम में लगे हुये ज्यादातर लोग आंध्र के कम्मा थे। मुंबई का मूल निवासी दावा तो करता था कि आमची मुंबई आहे’, पर यह सिर्फ कहने की बात थी। मुंबई के महलनुमा भवन, गगनचुंबी इमारतें, कारों की कभी ना खत्म होने वाली कतारें और विशाल कारखाने, दरअसल मराठियों के नहीं थे। उन सभी पर किसी ना किसी गैर-महाराष्‍ट्रीय का कब्जा था। यह अलग मसला है कि संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन में सैकड़ों जाने गयीं और उसके बाद मुंबई महाराष्ट्र को मिली। लेकिन, मुंबई पर मराठियो का यह प्रतीकात्मक कब्जा ही रहा, क्योंकि मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल किये जाने की खुशी और समारोह अभी मंद भी नहीं पडे थे कि मराठी भाषियों को उस शानदार महानगर में अपनी औकात का एहसास हो गया।

मुंबई के व्यापारिक, औद्योगिक और पश्चिमीकृत शहर में मराठी संस्‍कृति और भाषा के लिये कोई स्थान नहीं था। मराठी लोग क्‍लर्क, मजदूरों, अध्यापकों और घरेलू नौकरों से ज्यादा की हैसियत की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। यह मामूली हैसियत भी मुश्किल से ही उपलब्ध थी। और फिर मुंबई के बाहर से आने वाले दक्षिण-उत्तर भारतीयों और गुजरातियों के लिये मराठी सीखना भी जरूरी नहीं था। हिन्दी और अंग्रेजी से काम चल सकता था। बाहरी लोगों के लिये मुंबई के धरती पुत्रों के सामाजिक-सांस्‍कृतिक जगत से कोई रिश्ता जोड़ना भी जरूरी नहीं था।

दरअसल, मुंबई कॉस्‍मो‍पोलिटन मराठी भाषियों से एकदम कटा-कटा हुआ था। असल में संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और बाद में शिवसेना ने जिस मराठी मिथक का निर्माण किया, वह मुंबई के इस चरित्र को कुछ इस तरह पेश करता था कि मानो यह सब किसी साजिश के तहत किया गया हो। लेकिन, असलियत ऐसी थी नहीं। अपनी असफलता के दैत्य से आक्रांत मराठी मानस के सामने उस समय सबसे बडा मनोवैज्ञानिक प्रश्‍न यह था कि वह अपनी नाकामी की जिम्मेदारी किस पर डाले। एक तरफ 17-18वीं सदी के शानदार मराठा साम्राज्य की चमकदार कहानियां थीं जो महाराष्‍ट्रीयों को एक पराक्रामी जाति का गौरव प्रदान करती थी और दूसरी तरफ 1960 के दशक का बेरोजगारी से त्रस्त दमनकारी याथार्थ था। आंदोलन ने मुंबई तो महाराष्ट्र को दे दिया, लेकिन गरीब और मध्यवर्गीय मुंबईवासी महाराष्ट्रीय अपना पराभव देखकर स्तब्ध था।

दरअसल, मराठियों के सामने सबसे बडा संकट यही था कि उनके भाग्य को नियंत्रित करने वाली आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां इतनी विराट थीं कि उनसे लड़ना उनके लिये कल्पनातीत ही था। उसकी मनोचिकित्‍सा केवल एक ही तरीके से हो सकती थी कि उसके दिल में संतोष के लिये उसे एक दुश्‍मन दिखाया-बताया जाये। यानी ऐसा दुश्मन जिससे मराठी मानुस लड़ सके। बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना ने मुंबई के महाराष्‍ट्रीयों की यह कमी पूरी की और यहीं से उस राजनीति को साधा जिससे मराठी मानुस को तब-तब संतोष मिले जब-जब शिवसेना उनके जख्मों को छेड़े। ठाकरे ने अखबार मार्मिक को हथियार बनाया और 1965 में रोजगार के जरिये मराठियों को उकसाना शुरू किया। कॉलम का शीर्षक था- वाचा आनी ठण्ड बसा यानी पढ़ो और चुप रहो। इस कॉलम के जरिये बकायदा अलग-अलग सरकारी दफ्तरों से लेकर फैक्ट्रियों में काम करने वाले गैर- महाराष्‍ट्रीयों की सूची छापी गई। इसने मुंबईकर में बेचैनी पैदा कर दी। और ठाकरे ने जब महसूस किया कि मराठी मानुस रोजगार को लेकर एकजुट हो रहा है, तो उन्होंने कॉलम का शीर्षक बदल कर लिखा- वाचा आनी उठा यानी पढ़ो और उठ खडे हो। इसने मुंबईकर में एक्शन का काम किया। संयोग से शिवसेना और बाल ठाकरे आज जिस मुकाम पर हैं, उसमें उनके सामने राजनीतिक अस्तित्‍व का सवाल है, लेकिन शिवसेना के लिये सकारात्मक स्थिति यह भी है कि आर्थिक सुधारों ने रोजगार के अवसर खत्म किये हैं। पूंजी चंद हाथों में सिमटी है। और सामाजिक असमानता को लेकर आक्रोश मराठियों की रगों में दौड़ रहा है।

महाराष्ट्र देश का ऐसा राज्य है
, जहां सबसे ज्यादा शहरी गरीब हैं और मुबंई देश का ऐसा महानगर है, जहां सामाजिक असमानता सबसे ज्यादा- लाख गुना तक है। मुंबई में सबसे ज्यादा अरबपति भी हैं और सबसे ज्‍यादा गरीबों की तादाद भी यहीं है। फिर, इस दौर में रोजगार का सवाल सबसे बड़ा हो चला है, क्योंकि आर्थिक सुधार के बीते एक दशक में तीस लाख से ज्यादा नौकरियां खत्म हो गयी हैं। मिलों से लेकर फैक्ट्रियां और छोटे उद्योग धंधे पूरी तरह खत्म हो गये। जिसका सीधा असर महाराष्ट्रीय लोगों पर पड़ा है। और संयोग से गैर-महाराष्ट्रीय इलाकों में भी कमोवेश आर्थिक परिस्थिति कुछ ऐसी ही बनी हुयी है। पलायन कर महानगरों को पनाह बनाना समूचे देश में मजदूर से लेकर बाबू तक की पहली प्राथमिकता है। और इसमें मुबंई अब भी सबसे अनुकूल है, क्योंकि भाषा और रोजगार के लिहाज से यह शहर हर तबके को अपने घेरे में जगह दे सकता है। इन परिस्थितियों के बीच मराठी मानुस का मुद्दा अगर राजनीतिक तौर पर उछलता है, तो शिवसेना और ठाकरे दोनों ही इसे सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से जोड़, फायदा लेने से चूकेंगे नहीं। लेकिन, यहीं से संकट उस राजनीति का दौर शुरू होगा जो आर्थिक नीतियों तले देश के विकास का सपना अभी तक बेचती रही हैं। 1960 के बाद पहली बार ठाकरे इस मुद्दे पर आंदोलन चाहेंगे। और महाराष्ट्र की परिस्थितियां यह भी बताती हैं कि मराठी मानुस की जरूरत भी आंदोलन ही है, लेकिन उसे एक्शन में लाने के लिये अभी खासी राजनीति होनी बाकी है। इसीलिये पहली बार ठाकरे खान से लेकर गांधी तक के आगे लाचार हैं।

Wednesday, February 17, 2010

क्या फिर भी पाकिस्तान से बात की जाये

"कश्मीर की आजादी ही हमारा संघर्ष है। भारत की फौज ने कश्मीरियों को बंदूक और बूटों तले रौंद रखा है। वहां लोग गुलाम हैं। हम अपना संघर्ष कश्मीर की आजादी के लिये जारी रखेंगे।" यह ऐलान जेहादी काउंसिल का है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की राजधानी मुज्फ्फराबाद में 4-5 फरवरी को जेहादी काउंसिल की इस बैठक में हिजबुल मुजाहिदीन के चैयरमैन सैयद सलाउद्दीन ने अध्यक्षता की। और लश्कर-ए-तोएबा के मुखिया मोहम्मद हाफिज सईद ने मुख्य भाषण दिया, जिसमें कश्मीर को लेकर स्वतंत्रता संग्राम जारी रखने का ऐलान किया गया।


ऐसा नहीं है कि भारत की तरफ से इस पर आपत्ति नहीं की गयी और पाकिस्तान ने इस पर खामोशी बरती। भारत ने
26/11 यानी मुंबई हमले के मुख्य आरोपी लश्कर के मुखिया हाफिज सईद के इस तरह खुली तकरीर पर आपत्ति भी की। लेकिन पाकिस्तान की तरफ से जो जबाब आया, वह कहीं ज्यादा चौंकाने वाला है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री कुरैशी ने साफ कहा कि, " कश्मीर को लेकर पाकिस्तान की नीति में कोई अंतर नहीं आया है। भारत के साथ बातचीत से कश्मीर के लोगों को राहत मिलेगी क्योंकि हम उनके हक की बात कहते हैं।" बातचीत को लेकर पाकिस्तान का रुख इस बात से भी समझा जा सकता है कि वह मुंबई हमलों के बाद पहली बार खुले तौर पर इस बात को भी कहने से नहीं कतरा रहा है कि बातचीत की गाड़ी उसने नहीं भारत ने रोकी थी और अब भारत ही बातचीत के लिये जोर डाल रहा है।

सवाल है भारत के सामने कौन सी मुश्किल है
, जिसके तहत वह पाकिस्तान से इस शर्त पर बात कर रहा है कि चर्चा सिर्फ आतंकवाद पर होगी। दूसरे किसी द्वपक्षीय समझौतो को लेकर बातचीत नहीं होगी। क्या इसके पिछे सिर्फ आतंकवादी हमलों को लेकर पाकिस्तान की साफगोई है, जिसके अंतर्गत वह कहता है कि आतंकवाद तो उसके काबू में ही नहीं है फिर वह कैसे गांरटी ले लें कि भारत पर कोई दूसरा हमला नहीं होगा। या फिर अमेरिका की रुचि है कि कश्मीर को लेकर भारत पाकिस्तान अगर साथ बैठे तो दोनो देश अफगानिस्तान को लेकर अमेरिकी नीति को अंजाम देने में सहायक होंगे ।

यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योकि जैसे ही भारत विदेश सचिवो की वार्ता पर जोर डालता है वैसे ही न्यूयार्क में अफगानिस्तान-पाकिस्तान मामलों को देखने वाले होलब्रुक यह कहने से नही कतराते हैं कि अफगानिस्तान की सीमा से सटे देश चाहे वह पाकिस्तान हो या चीन और इन दोनो देशों से सटे देश चाहे वह भारत ही क्यों ना हो
, उन्हें समझना होगा कि अफगानिस्तान की चिंगारी इन्हें अपने घेरे में ले सकती है। इसलिये भारत-पाकिस्तान अगर अपने उलझे मुद्दों पर बातचीत करते हैं तो तनाव की जगह इस पूरे क्षेत्र में स्थायित्व आयेगा। जो अफगानिस्तान के समाधान के लिये जरुरी है। होलब्रुक का यह कथन अचानक नहीं आया। लेकिन पहली बार बातचीत की मेज पर लाने के लिये अमेरिका ने अंग्रेजी का पसंदीदा अक्षर "के" का जिक्र नही किया। "के" यानी कश्मीर जिसका जिक्र अमेरिका अगर अंतरराष्टीय मंच पर बीते एक दशक में सात बार प्रयोग कर चुका है तो पाकिस्तान ने अठारह बार किया है। सबसे ज्यादा जनरल मुशर्रफ ने कश्मीर को लेकर कूटनीति भी की और जेहादी काउंसिल को हवा भी दी।

लेकिन कश्मीर का सीधे नाम लेने से बचते हुये पहली बार अमेरिका और पाकिस्तान दोनों कश्मीर के जरीये आतंकवाद पर बातचीत करने का रास्ता निकाल चुके हैं। पाकिस्तान को इस बात का एहसास है कि भारत में मुंबई हमले को लेकर तल्खी बरकरार है
, लेकिन पाकिस्तान इस हकीकत को भी समझ रहा है कि न्यूक्लियर डील से लेकर आर्थिक सुधार की मनमोहन पालिटिक्स जिस तरह ओबामा के बिना अधूरी है. उसका दूसरा सच यह भी है कि ओबामा की अफगान नीति पाकिस्तान के सहयोग के बिना अधूरी है। इसीलिये तालिबान को लेकर भी अमेरिका पाकिस्तान की तर्ज पर अच्छे और बुरे तालिबान की बात करने लगा है। और पाकिस्तान की सीमा से सटे उस समूचे अफगानिस्तान पर खामोशी बरते हुये है जो आतंक के गढ़ है और पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन या सीधे कहे तो जेहादी काउंसिल से जुड़े हैं।

खुद पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी की रिपोर्ट बताती है कि अफगानिस्तान के बाजौर
, मोहमंड, खैबर, खुर्रम, पूर्वी और दक्षिणी वजीरिस्तान के हिस्से में सक्रिय तालिबान के छह से ज्यादा संगठनों के साथ पैसे और हथियार का जुडाव जेहादी काउंसिल के साथ है । जिसमें तहरीक-ए-तालिबान के साथ हरकत मुजाहिदीन के फजरुरहमान खलीली, जैश-ए-मैहम्मद के मौलाना मसूद अजहर, तहरीक इरपान के मौलाना अब्दुल्ला शाह मजहर, सिपाहे सहाबा पाकिस्तान के मौलाना आजम तारिक , लश्कर-ए-जहानगबी के मौलाना हक नवाज और लश्कर के हाफिज सईद तो कई मौको पर साझा सभी भी कर चुके हैं। यानी एक तरफ तालिबान को लेकर अमेरिका पाकिस्तान को अलग भी मान रहा है और कश्मीर को लेकर भारत को पाकिस्तान से बातचीत करने के लिये उकसा भी रहा है। वहीं पाकिस्तान खुद समझ रहा है कि वह तालिबान से जिस तरह गुथा है, उसमें अमेरिकी हित साधने के लिये वह अपने स्वार्थ के घेरे में कश्मीर और आंतकवाद को अलग कर सौदा कर सकता है। तब सवाल है इसमें भारत है कहां। खासकर तब जब मुंबई हमलों के बाद पाकिस्तान का रुख भारत पर निशाना साधने वाला रहा। भारत के डोजियर मे बताये गये तथ्यों को खारिज करते हुये से पाकिस्तान ने श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर हमले से लेकर बलूचिस्तान में अस्थिरता फैलाने और कश्मीर को बातचीत के दायरे में लाने की खुली वकालत की। सवाल यह भी है कि बातचीत जिस दौर में होगी अगर उस वक्त बारत की खुफिया एजेंसी रॉ की पाकिस्तान को लेकर तैयार रिपोर्ट पर ही गौर करें तो सरकार खुद सवालों के घेरे में आती है। रॉ की रिपोर्ट के मुताबिक , "जेहाद पाकिस्तान की राज्य नीति का हिस्सा है । और आतंकवाद उसका आधुनिक चेहरा। जिसके जरिये भारत की सैन्य शक्ति के साथ चैक-एंड बैलेंस का खेल पाकिस्तान खेलता है। असल में पाकिस्तान की जमीन से दुनिया में इस्लाम के उस रसूख को लौटाने के नाम पर जेहाद का खेल आधुनिक तरीके से खेला जा रहा है, जिससे पाकिस्तान की सरकार को आर्थिक मदद मिले और आतंकवाद मदद के लिये सौदेबाजी का हथियार बन सके। इसलिये धर्म और विचार का घालमेल कर इस्लाम को कवच बनाकर जो खेल शुरु किया गया है, उसके पांच चेहरे हैं। सैयद कुतुह, ओसामा बिन लादेन, अब्दुल्ला आजम, इब्न तैयंमिंया और हाफिज सईद। "

जाहिर है बातचीत से पहले भारत को समझना होगा कि हाफिज सईद
26-11 का गुनहगार भी है और पाकिस्तान में सबसे शक्तिशाली भी । फिर बातचीत क्यों । जहा तक पुणे घमाके को लेकर बातचीत ना करने के बीजेपी का उठाया सवाल है तो वह कोई मायने नहीं रखता। क्योंकि धमाके अगर आतंकवादी करते है तो वह वाकई नहीं चाहेगे कि बातचीत हो और अगर धमाकों के पीछे कुछ दूसरे तत्व है तो बातचीत रुकनी नहीं चाहिये। यूं भी संसद पर हमले के बाद खुद वाजपेयी सरकार ने मुशर्रफ से बात की थी। इसलिये सवाल बीजेपी का नहीं सरकार का है। अगर क्रिकेट और सिनेमा से उसका मन भर चुका हो तो वह आतंकवाद के मद्देनजर पाकिस्तान के इरादों और अमेरिका की मंशा को समझे ....फिर पूछेगे बातचीत क्यों।

Sunday, February 14, 2010

टैरर इज बैक : पुणे में उठे सवाल, निशाना कहीं कॉमनवेल्थ तो नहीं

यह धमाका कहीं भी किया जा सकता था। और कहीं भी का मतलब है...सौ से ज्यादा मौत। क्योंकि पुणे के लिये सेटरडे नाइट का मतलब होता है हंगामा। और धमाका जिस अमोनियम नाइट्रेट के जरिए कराया गया, इसका असर पुणे के किसी भी बार-रेस्तरा में कितना जबरदस्त हो सकता था, यह जर्मन बेकरी की हालत को देखकर समझा जा सकता है। जितने बड़े घेरे में जर्मन-बेकरी बर्बाद हुई, उतने बड़े घेरे में पुणे के किसी भी हंगामा स्थल पर दो सौ से ज्यादा लोग मौजूद रहते हैं। यानी पहली एफआईआर तो यही कहती है कि टेरर इज बैक। क्योंकि बेहद सोची समझी रणनीति के तहत ही निशाना उस जगह को बनाया गया जो पुणे का सबसे ज्यादा महंगा इलाका है। आम आदमी यहां रहना तो दूर...देख भी नहीं पाता। लेकिन इस इलाके में ही सबसे ज्यादा विदेशी हैं तो धमाके के पीछे मकसद विदेशियों को निशाना बनाना भी हो सकता है। आप सही कह रहे हैं। लेकिन पुणे को अगर जानते हैं तो विदेशी सैलानियों की भरमार आपको कई जगहों पर मिल सकती है। कृष्ण मंदिर से लेकर ओपन रेस्तरा तक में। लेकिन इस धमाके का मतलब टैरर का पहला प्रयोग है, जिसमें आंतक फैलाने वाले अपने प्रयोग के असर को भी देखना चाहते होंगे और उस पर किस तरह की प्रतिक्रिया सरकार और आम लोगो की होगी..यह भी समझना रहा होगा।


पुणे के लोगो से धमाके पर बातचीत ने मेरे सामने यह सवाल भी खड़ा किया कि जिस तरीके से धमाके को अंजाम दिया गया
, वह 26-11 से पहले की उन परिस्थितियों को दुबारा पैदा कर सकता है जिसमें शहर दर शहर धमाके के साये में लगातार आ रहे थे। हैदराबाद, जयपुर,लखनऊ, मुंबई, बेगलुरु, दिल्ली...यानी याद कीजिये तो शहर दर शहर आतंकवादी हिंसा की गिरफ्त में थे। इस शंका की वजह जर्मन बेकरी से तीन किलोमीटर दूर रहने वाले कारपोरेट कंपनी के एक्जीक्यूटिव के सवाल थे। जिस तरह से कैमिकल कंबिनेशन ने धमाको को अंजाम दिया है, उसका मतलब यह भी है कि धमाके का फार्मूला किसी ग्रुप को मिला है। जिसने पहला प्रयोग ऐसी जगह पर किया जो सुरक्षा बंदोबस्त के लिहाज से तो वीआईपी घेरे में आये लेकिन पुणे के भीड़ भाड़ से अलग हो। यानी असर को लेकर कोई शंका जरुर रही होगी। लेकिन असर मारक है तो इसका मतलब है प्रयोग फिर होगा और कई जगहों पर होगा।

पुणेवासियों से चर्चा के दौर में यह सवाल भी उठा कि इस धमाके के पीछे लश्कर-ए-तोएबा सरीखा आंतकवादी संगठन हो सकता है, जो नहीं चाहता हो कि भारत में शांति हो और पाकिस्तान के साथ कोई बातचीत का सिलसिला शुरु हो। बिलकुल नहीं...बैंक में काम करने वाले एक पुणेवासी का तर्क भी अकाट्य था। लश्कर सरीखे संगठन घोषित तौर पर अपना काम करते हैं। यानी मानव बम बनकर हमला करना उनकी फितरत है क्योंकि एक हमले के बाद उन्हे कई मानव बम धर्म या जेहाद के नाम पर मिल जाते हैं। लेकिन धमाका जिस तरह छुप छुपा कर किया गया है
, यह तरीका बताता है कि कोई ना कोई भारत के भीतर का ही हो सकता है। जिसकी ट्रेनिंग सीमापार हुई हो।

लेकिन इसका मकसद धमाको से दहशत पैदा करना है और लश्कर सरीखे संगठनों के लिये आतंक का रास्ता बनाना है। यह नजरिया मुझे भी बेहद महत्वपूर्ण लगा क्योंकि इंडियन मुजाहिदिन ने तीन साल पहले जिस तरह से आतंक-दर आतंक धमाको के जरिए फैलाना शुरु किया था, उस वक्त भी खुफिया एजेंसियों के सामने यही सवाल उठता था कि गुरिल्ला तरीके से आतंक फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई कैसे हो सकती है। यानी उनकी धरपकड कैसे होगी। उस दौर में सवाल यह भी उठा था कि जिस तेजी से शहर-दर-शहर धमाके किये जा रहे थे, उसमें इंडियन मुजाहिदिन ने अपना बेस जिस शहर में बना रखा था, वहां उसने सबसे आखिर में ही घमाका किया। आखिरी घमाका दिल्ली में किया गया। तो क्या इस बार भी आंतकवादियों का बेस पुणे में नहीं किसी दूसरे शहर में है और धमाको की यह शुरुआत है।

इस सवाल ने एक नया सवाल यह भी पैदा किया कि अगर जानबूझकर विदेशी बहुसंख्य इलाके को धमाके के लिये चुना गया और इसी तरह अगर धमाके कुछ और विदेशी नागरिको को निशाना बनाने वाले हो जाये तो भारत पर इसका असर आज के दौर में सबसे बुरा भी पड़ सकता है। यह भारत की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाला धमाका है
, क्योंकि विदेशियों की आवाजाही अगर असुरक्षित भारत के नाम पर दुनिया में फैलती है तो धंधों पर असर पडेगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। यह जवाब अगर पुणे के विश्वविद्यालय के प्रोफेसर का था । तो मेरे सामने सवाल यह भी था कि धमाको के निशाने पर कॉमनवेल्थ गेम्स भी तो हो सकता है। क्योकि अगर विदेशियों पर इसी तरह निशाना साधा गया तो असर कॉमनवेल्थ गेम्स पर पड़ेगा और अचानक की देश कहेंगे कि सुरक्षा के लिहाज से वह अपने खिलाड़ियों को भारत नहीं भेजेंगे।

जाहिर हैं इसमें पहला देश इंग्लैड ही होगा। और उसके इंकार से कॉमनवेल्थ गेम्स ही ठप हो जायेगा। और अगर इसकी नौबत आयी तो यह भारत के लिये सबसे काला अध्याय होगा। हालांकि पुणे के एक टेनिस खिलाडी ने संकेतिक तौर पर कामनवेल्थ गेम्स की दिशा में बढ़ते कदमों पर सहमति जताते हुये यही तर्क दिया कि चूंकि कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों को देख रहे सुरेश कलमाडी पुणे शहर के ही हैं, इसलिये पुणे को निशाना बनाया गया है। जाहिर है यह तर्क सही हो भी सकता है लेकिन इसके लिये अगले तीन महीने इंतजार करना पड़ेगा क्योकि अगला धमाका अगर वाकई फिर विदेशियों को निशाना बनाने वाला हुआ तो आतंक का यह निशाना कोई भी समझ सकता है । अगर ऐसा हुआ तो पहली बार गृहमंत्री पी चिदंबरम के लिये सबसे बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि उन्हें खुफिया एजेंसियों की जानकारी और सुरक्षा बलो की मदद से इस नये गुट को अगले तीन महिने से पहले गिरफ्त में लेना होगा। नहीं तो कहना पड़ेगा
-टैरर इज बैक।

Tuesday, February 9, 2010

कोई कैसे बताए कि मीडिया बिका हुआ है

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चार साल के शासन के दौरान अपने सुशासन के प्रचार-प्रसार में सौ करोड़ रुपये फूंक दिये। हरियाणा के सीएम ने पिछले साल चुनाव के ऐलान से ऐन पहले के ढाई महीने में अपनी सफलता के गीत गाने में अस्सी करोड़ रुपये फूंके थे। महाराष्ट्र सरकार ने चुनावी साल यानी 2009 में करीब दो सौ करोड़ रुपये प्रचार प्रसार में फूंक कर बताया कि उसने कितने कमाल का काम महाराष्ट्र के लिये किया है। केन्द्र सरकार के डीएवीपी ने पिछले साल जुलाई-अगस्त में यानी सिर्फ दो महीने में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के महिमागान में दो करोड़ 97 लाख 70 हजार 498 रुपये फूंक दिए। बीते साल मायावती ने सवा सौ करोड़ तो नरेन्द्र मोदी ने डेढ़ सौ करोड़ रुपये प्रचार प्रसार में खर्च कर यह बताया कि उनके कामकाज से राज्य कितना खुशहाल हुआ है और आगे भी कैसी तरक्की करेगा।

औसतन हर राज्य में 75-80 करोड़ रुपए सालाना प्रचार-प्रसार में फूंके ही जाते हैं। यह काला धन नहीं होता। सफेद और जनता का पैसा होता है। यानी तीस हजार करोड़ से ज्यादा की पूंजी हर साल खुल्लम-खुल्ला मीडिया के जरीये प्रचार प्रसार में फूंकी ही जाती है। जी, यह पूंजी मीडिया में जाती है। उसी मीडिया में, जिसे लेकर नया सवाल पेड न्यूज का खड़ा हुआ है, यानी खबरों को भी छापने और दिखाने के लिये खबर से जुड़ी पार्टी से पैसे लिये जाये। खासकर चुनाव के वक्त चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों से नोटों की गड्डियां लेकर खबर को प्रचार प्रसार में तब्दील कर दिया जाये। पेड न्यूज का यह धंधा काला होता है क्योंकि सफेद धन इस तरह दिखाया नहीं जा सकता। लेकिन नोट छापने वाली कोई मशीन तो काले-सफेद का भेद करती नहीं इसलिये नेताओ का यह पैसा उसी आम जनता को किसी न किसी तरह चूना लगाकर ही बनाया जाता है, जिसके लिये चुनाव लोकतंत्र का प्रतीक और मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है, जिसका काम निगरानी का है।

अब सवाल है कि सत्ता में आ कर अपनी कमजोरियों को छुपाकर उसे उपलब्धियों में बदलकर करोड़ों रुपये निगरानी करने वालों को बांट कर जब लोकतंत्र को बचाने का प्रचार प्रसार हो रहा हो तो कौन सही है और कौन गलत इसका पता कैसे चलेगा? नयी मुश्किल यहीं से शुरु होती है। मीडिया पर सरकार नकेल कसे और बताये खबरों की कीमत लगाने का खेल वह बंद करे या फिर मीडिया सरकार पर नकेल कसे और बताये कि आप आम जनता के धन को अपने प्रचार-प्रसार में उड़ाएं नहीं, उससे लोकहितकारी नीतियों को अमल में लायें। और काला धन बांटने वाले नेताओं के बारे में जानकारी देने लगे कि फलां नेता ने कहां से कितनी काली पूंजी बनायी है। क्या यह संभव है ? लेकिन सवाल उठे हैं और उसकी जांच को लेकर भी सरकार और मीडिया दोनों सक्रिय हैं। लेकिन कोतवाली करने वही सस्थान सक्रिय हैं, जिनके कर्ता-धर्ता ही करोड़ों के वारे-न्यारे में हमेशा सक्रिय रहे। आहत पत्रकारों ने चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटकाया तो आयोग ने भी प्रेस काउंसिल से पूछा कि वह ‘पेड न्यूज’ को परिभाषित करे। प्रेस काउंसिल ने एडिटर्स गिल्ड का दरवाजा खटखटाया। आम धारणा यही बनी कि एडिटर्स गिल्ड निर्णय ले तो पेड न्यूज का धंधा बंद हो सकता है और मीडिया पत्रकारिता पर लौट सकती है। लेकिन समझ यह भी आया कि अब एडिटर नामक जीव पत्रकारिता नहीं मीडिया चलाता है तो उसकी जरुरत उस पूंजी पर जा टिकी है, जिसके आसरे उसकी मौजूदगी एडिटर के रुप में भी रहे और उसका संस्थान मुनाफे के आसरे भी चलता रहे। वहीं सरकार ने भी अपनी नीतियों के आसरे ऐसी व्यवस्था कर दी है कि जिससे बिना पूंजी कोई मीडिया के बाजार में टिक ना सके और पूंजी के लिये सरकार के सामने घुटने टेककर खड़ा भी रहे। मसलन अखबारी कागज की कीमत इसी आर्थिक सुधार के दौर में कई सौ फीसदी तक बढ़ गई। आज बीस पेज के अखबार की लागत पन्द्रह रुपये होगी ही। लेकिन, अखबार की कीमत तीन रुपये से ज्यादा हो नहीं सकती। जिसमें हॉकर और आवाजाही में डेढ़ रुपये तक जायेंगे। 15 रुपये का अखबार डेढ़ रुपये में बेचकर कोई कैसे लागत भी निकालेगा। अगर जनता के पैसे पर सरकारी प्रचार प्रसार को जायज ठहरा दिया जाये तो भी औसतन अखबारों को प्रति अखबार चार से पांच रुपये से ज्यादा मिल नहीं सकता, वह भी उन्हें जिनकी प्रसार संख्या लाख से ज्यादा हो। बाकी की पूंजी कहां से आयेगी। जो विज्ञापन निजी कंपनियों के हैं, वह भी प्रति अखबार दो-तीन रुपये से ज्यादा होते नहीं। तो बाकी बचे प्रति अखबार पांच रुपये के लिये कौन सहारा होगा। यह स्थिति टॉप के तीन अखबारो से इतर है क्योंकि उनका बजट निजी-सरकारी विज्ञापनों से चल सकता है।

लेकिन मुनाफे की होड़ में कौन किसका किस रुप में सहारा बनेगा यह सवाल अलसुलझा नहीं है। जिले स्तर पर विधायक-सांसद तो राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री या मंत्रालय संभालने वाले मंत्री और राष्ट्रीय स्तर पर सरकार सबसे बडी पार्टी होती है। यानी निजी राजनीति को साधने से लेकर पार्टी लाइन और विचारधारा को साधना भी पूंजी कमाने का धंधा मीडिया के लिये हो सकता है। लेकिन इसे कोई पेड न्यूज के घेरे में नहीं रखता। कमोवेश यही स्थिति न्यूज चैनलों की है। लेकिन,यहां विज्ञापनो का अंतर उस टीआरपी से होता है, जिसके घेरे में पहले नंबर पर रहने वाला चैनल तो ढाई सौ करोड़ रुपये सालाना तक कमा सकता है और दसवे नंबर के न्यूज चैनल को साल भर में पच्चीस लाख जुटाने में पसीने छूट जाते हैं। पर खर्च में एक-दो करोड़ से अधिक अंतर नहीं होता। यहीं लगता है कि सरकार की निगरानी होनी चाहिये । लेकिन सरकार निगरानी की जगह सौदेबाजी की पार्टी बन जाती है। यह सरकार की ही कमजोर नीति है कि डीटीएच यानी डायरेक्ट टू होम विज्ञापन का कोई आधार नहीं है और केबल सिस्टम जिस पर टीआरपी टिकी है, उस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। इसलिये न्यूज चैनल अपने प्रचार प्रसार के लिये केबल संचालित करने वालों को सालाना 30 से 40 करोड़ रुपये देते है ताकि वह राष्ट्रीय स्तर पर दिखायी दे सकें। यह 30 से 40 करोड़ कोई सफेद धन नही होता। फिर केबल ही जब टीआरपी का आधार हो तो न्यूज चैनल की जान खबरों से ज्यादा केबल और उसके बाद टीआरपी में रहती है। इसलिये हर राज्य में केबल पर उसी राजनीति का कब्जा है, जिसकी सरकार है। तो केबल पर दिखने के लिये कोई न्यूज चैनल कैसे उस राज्य की सत्ता से खिलवाड़ कर सकता है, चाहे वहां का नेता सरकार चलाये या जनता के धन को प्रचार प्रसार में उड़ाये। भागेदारी जब मीडिया-सरकार की एक सरीखी है, तो जनता के बीच सवाल सिर्फ विश्वसनीयता का ही बचेगा। शायद इसलिये न मीडिया की विश्वसनीयता बच रही है और न ही राजनीति और नेताओं की। क्योंकि इस देश में जिनकी विश्वसनीयता है, उनके प्रचार-प्रसार की जरुरत नहीं पड़ती। जय जवान-जय किसान का नारा लगाने वाले लाल बहादुर शास्त्री के प्रचार में बीस साल का खर्च सिर्फ सवा करोड़ है और सरदार पटेल पर बीस साल में सिर्फ डेढ़ करोड़ रुपए खर्च किये गये। लेकिन 1991 यानी आर्थिक सुधार के बाद से केन्द्र सरकार ने सिर्फ प्रचार प्रसार में नब्बे लाख करोड़ से ज्यादा फूंक डाले। मीडिया भी उसी से फला-बढ़ा। ये भी एक सच है।

Saturday, February 6, 2010

राष्ट्रपति के मायके का हाल, पार्ट-2

चालीस करोड़ की ज़मीन पर लाख रुपये का टेंडर और किसान को मुआवजे में दिये सवा चौदह लाख

सरकार से कौन लड़ सकता है ? पहले भी कुछ नहीं कर पाये और अब भी कुछ नहीं कर सकते। आमदार-खासदार तो दूर सरपंच भी धोखा दे गया तो किसे भला-बुरा कहे। अब सरकार ही दलाल हो जाये तो किसान की क्या बिसात। एक शास्त्री जी थे, जिन्होने जय जवान- जय किसान का नारा दिया था। उस वक्त देश पर संकट आया था तो पेट काट कर हमने भी सरकार को दान दिया था। मेरी बीबी ने उस समय अपने गहने भी दान कर दिये थे। लेकिन अब सरकार ही हमें लूट रही है। किसानी से भिखारी बन गये हैं। बेटा-बहू उसी जमीन पर दिहाड़ी करते हैं, जिस पर मेरा मालिकाना हक था। जिस जमीन पर मैने साठ पचास साल तक खेती की। परिवार को खुशहाल रखा। कभी कोई मुसीबत ना आने दी। सभी जानते थे कि जमीन है तो मेहनते से फसल उगा कर सर उठा कर जी सकते हैं। लेकिन सरकार ने तो अपनी गर्दन ही काट दी.....एक सांस में सेवकराम झांडे ने अपने समूची त्रासदी को कह दिया और फकफका कर रोने लगे।

बेटे, बहू, नाती पोतो के लिये यह ऐसा दर्द था कि किसी को कुछ समझ नहीं आया कि इस दर्द का वह इलाज कैसे करें । 72 साल के सेवकराम झांडे की जिन्दगी जिस जमीन पर अपने पिता और दादा के साथ खडे होकर बीती और जिस जमीन के आसरे सेवकराम खुद पिता और दादा-नाना बन गये उसी जमीन का टेंडर सरकार निकाल कर बेच रही है। असल में नागपुर में मिहान-सेज परियोजना के घेरे में 6397 हेक्टेयर जमीन आयी है और इस घेरे में करीब दो लाख किसानों के जीने के लाले पड़ गये हैं। क्योंकि महज डेढ़ लाख रुपये एकड़ मुआवजा दे कर सरकार ने सभी से जमीन ले ली है। लेकिन पहली बार एमएडीसी यानी महाराष्ट्र एयरपोर्ट डेवलपमेंट कों लिमेटेड की तरफ से अखबारो में विज्ञापन निकला कि 8 एकड जमीन 99 साल की लीज पर दी जा रही है। और विज्ञापन में जमीन का जो नक्शा छपा वह मिहान-सेज परियोजना के अंदर का है और उसमें जिस जमीन के लिये टेंडर निकाला गया असल में बीते सौ वर्षो से उस जमीन पर मालिकाना हक सेवकराम झाडे के परिवार का रहा है। एमएडीसी,वर्ल्ड ट्रेड सेंटर बिल्डिग, कफ परेड, मुबंई की तरफ से निकाले गये राष्ट्रीय अखबारों में अंग्रेजी में निकाले गये इस विज्ञापन को जब हमने सेवकराम को दिखाया और जानकारी हासिल करनी चाही कि आखिर उनकी जमीन अखबार के पन्नो पर टेंडर का नोटिस लिये कैसे छपी है, तो हमारे पैरों तले भी जमीन खिसक गयी कि सरकार और नेताओ का रुख इतना खतरनाक कैसे हो सकता है।

विज्ञापन देखकर छलछलाये आंसुओं और भर्राये गले से सेवकराम ने बताया कि 2003 में पहली बार खापरी गांव के सरपंच केशव सोनटक्के ने गांववालो को बताया कि उनकी जमीन हवाई-अड्डे वाले ले रहे हैं। क्योंकि यही पर अंतर्राष्ट्रीयकारगो हब बनना है । साथ ही वायुसेना को भी इसमें जगह चाहिये होगी इसलिये जमीन तो सभी की जायेगी। उसके कुछ महिनों बाद गांव में बीजेपी के आमदार चन्द्रशेखर बावनपुडे आये । उन्होने नागपुर के हवाई-अडड् की परियोजना की जानकारी देते हुये कहा कि गांववाले चिन्ता ना करें, उन्हें वह मोटा मुआवजा दिलवायेंगे। फिर 2004 में बीजेपी आमदार के साथ नागपुर के ही बीजेपी के प्रदेशअध्यक्ष नीतिन गडकरी आये। उन्होंने कहा कि जो मुआवजा मिल रहा है, वह ले लें, बाद में और मिल जायेगा । 2004 में ही चुनाव के वक्त कांग्रेस के खासदार विलास मुत्तेमवार भी गांव में आये और उन्होने भरोसा दिलाया कि कि मुआवजा अच्छा मिलेगा और सरकार ही जब देश के लिये योजना बना रही है और वायुसेना भी इससे जुड़ी है तो कोई कुछ नहीं कर सकता। क्योकि सरकार देशहीत में तो किसी की भी जमीन ले सकती है। और 2005 में खापरी गांव के तीन हजार से ज्यादा लोग जो जमीन पर टिके थे उनकी जमीन सरकार ने परियोजना के लिये ले ली।

खापरी गांव की कुल 426 हेक्टेयर जमीन परियोजना के लिये ली गयी । जिसमें सेवकराम झांडे और उनके भाई देवरावजी झांडे की 11 एकड जमीन भी सरकार ने ले ली। मुआवजे में सरकार ने एक लाख 40 हजार प्रति एकड़ के हिसाब से सेवकराम के परिवार को 14 लाख 35 हजार रुपये ही दिये। क्योंकि सरकारी नाप में 11 एकड़ जमीन सवा दस एकड़ हो गयी। लेकिन जमीन जाने के बाद सेवकराम के परिवार पर दुखों का पहाड़ दूटा । भाई देवराजजी झांडे की मौत हो गयी । सेवकराम की बेटी शोभा विधवा हो गयी। दामाद की मौत इसलिये हुई क्योकि खेती की जमीन देखकर उसने सेवकराम के घर शादी की। जमीन छिनी तो समझ नही आया कि किसानी के अलावे क्या किया जाये। भरे-भूरे परिवार को कैसे संभाले उसी चिन्ता में मौत हो गयी। सेवकराम के तीनो बेटों के सामने भी रोजी रोटी के लाले पड़ गये। छोटे बेटे विष्णु ने किराना की दुकान शुरु की। बीच वाले बेटे विजय ने दिहाड़ी मजदूरी करके परिवार का पेट पालना शुरु किया तो बडे बेटे वासुदेव को उसी मिहान योजना में काम मिल गया जिस योजना में उसकी अपनी जमीन चली गयी। घर की बहु और बडे बेटे की पत्नी सिंधुबाई ने भी मिहान में नौकरी पकड़ ली । तीनो बेटे और विधवा बेटी से सेवक राम को 12 नाती-पोटे हैं। सभी कमाने निकलते है तो घर में खाना बन पाता है , जबकि पहले सेवकराम किसानी से ना सिर्फ अपने परिवार का पेटे पालते बल्कि शान से दूसरो की मदद भी करते। लेकिन जमीन जाने के बाद सेवकराम ने अपने परिवार का पेट पालने के लिये पशुधन भी बेचना पड़ा। बीस भैंस और नौ गाय बीते दो साल में बिक गयीं। एक दर्जन के करीब बकरियां भी बेचनी पड़ी। आज की तीरीख में सेवकराम के घर में संपत्ति के नाम पर तीन साइकिल और एक गैस सिलिंडर है, जो 14 लाख 35 हजार मिले थे वह खर्च होते-होते 80 हजार बचे हैं। जबकि सेवकराम के भाई देवराजजी झांडे के परिवार की माली हालत और त्रासदीदायक है। गांधी भक्त देवराजजी की मौत के बाद घर कैसे चले इस संकट में बडा बेटा शंकर दारु भट्टी में काम करने लगा है तो छोटा बेटा राजू नीम-हकीम हो गया । इसके अलावे तीन बेटियों की किसी तरह शादी हुई और फिलहाल परिवार में 15 नाती-पोतो समेत 23 लोग हैं, जिनकी रोटी रोटी के लिये हर समूचे परिवार को मर-मर कर जीना पड़ता है। आर्थिक हालत इतनी बदतर हो चुकी है कि घर का कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता।

वहीं सेवकराम झाडे की जमीन पर निकले टेंडर फार्म की कीमत ही लाख रुपये है। यानी जो भी टेंडर भरेगा उसे लाख रुपये वापस नहीं मिलेंगे। चूंकि सेवकराम के 11 एकड़ में से 8 एकड़ जमीन रिहायशी इलाके में तब्दील करने की नायाब योजना एमएडीसी वालो ने बनायी है और इस तरह खेती की जमीन लेकर रियल स्टेट सरीखी ब्रिक्री की जा रही है, जो सरकार के ही नियम-कायदे के खिलाफ है जो सरकार को ही दलाल में तब्दील कर रही है। चूंकि यह जमीन हवाई-अड्डे से एकदम सटी हुई है। नागपुर में बीसीसीआई के क्रिकेट मैदान से सिर्फ दो किलमीटर दूर है और जमीन के चारों तरफ देश के टाप उघोग और कैरपोरट जगत से जुडे संस्थानों को खड़ा किया जा रहा है तो जमीन की कीमत सरकार को कितनी मिल सकती है इसका अंदाजा इस बात से लग सकता है कि 2005 में जब सेवकराम को प्रति एकड एक लाख 40 हजार रुपये मुआवजा मिला तब इस जमीन का बाजार भाव ढाई करोड़ रुपए प्रति एकड़ हो चुका था, जो अब चार करोड़ तक पहुंच चुका है। लेकिन इस करोड़ों के खेल में हर उस शख्स को लाभ दिया गया, जिसने किसानों से जमीन छीनने में मदद की। मसलन खापरी गांव के सरपंच केशव सोनटक्के, जिनके कहने पर सेवकराम ने पहली हामी भरी थी, उसे हिंगना औघोगिक त्क्षेत्र में 30 एकड़ माइनिंग का पट्टा फ्री में दे दिया गया। इसी तरह कुलकुही और तलहरा के 9625 परिवारों से 844 हेक्टेयर जमीन सरकार को दिलाने वाले सरपंच प्रमोद डेहनकर को भी 30 एकड़ माईनिंग का पट्टा फ्री में दिया गया। जबकि बीजेपी के नागपुर ग्रामीण क्षेत्र की नुमाइन्दगी करने वाले कामठी के आमदार चन्द्शेखर बावनपुडे के काले-पीले चिठ्ठे को संभालने वाले सुनील बोरकर को भी 30 एकड़ माइनिंग का पट्टा देने के अलावे सड़क और पुल के ठेके मिल गये। नागपुर से कांग्रेस के सासद के भी पौ बारह कई योजनाओं में करीबियो को ठेके दिलाकर हुये। यानी बीते सौ सालों से जो पटवारी हल्का नं-42 में खापरी गांव में सेवकराम की जमीन थी वह 2005 में अभी तक किसी की नहीं है लेकिन लाख रुपये के टेंडर के 15 फरवरी को बंद होने के बाद 99 साल के लिये करीब 35 से 40 करोड देने के बाद ऐसे किसी भी धंधेबाज की हो जायेगी, जो 40 करोड़ से 400 करोड़ बनाना जानता हो। और मिहान-सेज को लेकर जो धंधा जमीनों की लूट का चल निकला है उसमें माना यही जा रहा है कि किसानों को 50 करोड बांटकर सरकार और नेताओं ने 5 लाख करोड़ का धंधा किया है, जो परियोजना के आने से पहले का है।

और मनमोहन इक्नामिक्स यही कहती है कि जिस धंधे में मुनाफा हो वही बाजार नीति और देश की नयी आर्थिति नीति है फिर अपराध कैसा ।

Thursday, February 4, 2010

हिन्दुत्व की बिसात पर पहली चाल है भागवत का मराठी मानुस

भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। यही वह पहला वाक्य है, जिसे मोहन राव भागवत ने संघ की कमान संभालते ही कहा था। जाहिर है बीजेपी के राष्ट्रीय नेता तब इसे पचा नहीं पा रहे थे कि 21वीं सदी में इस तर्ज पर अगर आरएसएस सोचने लगी तो उनकी राजनीति का तो बंटाधार ही हो जायेगा। लेकिन भागवत यहीं नहीं रुके। खुद नागपुर के होते हुये पहली बार बीजेपी के अध्यक्ष पद पर नागपुर के ही नीतिन गडकरी को बैठाकर उन्होंने बीजेपी के सामने जमे कोहरे को कुछ और साफ किया। फिर मराठी मानुस की राजनीति में अपने हाथ डालकर आरएसएस ने भविष्य के उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पहली आहुति दी, जिसे बीते एक दशक में बीजेपी ने सत्ता की राजनीति तले धो डाला था।

बीते एक दशक में बीजेपी के हर राजनीतिक बयान ने संघ को उसके पीछे चलने के लिये मजबूर किया। और एनडीए को बनाये रखने की बीजेपी की राजनीति मजबूरी के सामने दंडवत होकर संघ ने अपने आस्ततिव पर भी सवालिया निशान लगवाया। संघ के भीतर इसका असर यह भी हुआ कि स्वयंसेवक संघ के मुखिया से सवाल पूछने लगे कि वह बीजेपी के प्रचारतंत्र के तौर पर काम कर रहे हैं या फिर हिन्दुत्व का भोंपू बजाकर अपने ही राजनीतिक संगठन बीजेपी से नूरा-कुश्ती कर रहे हैं। संघ पर इसका असर यह भी पड़ा कि आरएसएस के साथ खड़ा होने के लिये नयी पीढ़ी के कदम रुक गये और पुरानी पीढी ने अपने आपको कदमताल में सिमटा लिया। मराठी मानुस की राजनीतिक आग में भागवत का कूदना कोई अचानक नहीं है। वह भी यह जानते समझते हुये कि संघ की पहली पहचान महाराष्ट्र ही है और शिवसेना भी महाराष्ट्र के बाहर राजनीति करने की हैसियत नहीं रखती। लेकिन शिवसेना हो या आरएसएस दोनो देश पर उस भगवे को लहराता हुआ देखना चाहते है, जिससे हिन्दुत्व राष्ट्र की परिकल्पना हकिकत में बदल जाये।

भागवत इस हकीकत को बखूबी जानते हैं कि शिवसेना की ट्रेनिंग आरएसएस के हिन्दुत्व की नहीं सावरकर के उग्र हिन्दुत्व की है। और इसीलिये बाबरी मस्जिद ढहाने के आरोप से जब आरएसएस बचना चाह रही थी और नागपुर में देवरस खामोश थे, उस वक्त बालासाहेब ठाकरे ने खुले तौर पर इसकी जिम्मेदारी ली थी। और झटके में शिवसेना को नागपुर समेत उस विदर्भ में एक नयी राजनीतिक जमीन मिल गयी थी जो कभी मराठी मानुस की रही ही नही। भागवत अतीत की उन परिस्थितियों को भी जानते समझते हैं, जब संघ के मुखिया हेडगेवार सामाजिक शुद्दिकरण के जरीये हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना दिल में सहेजे थे और वीर सावरकर खुले तौर पर कहते थे कि इस ब्राह्मण्ड में हिन्दु राष्ट्र तो होना ही चाहिये और यह शुद्दिकरण नहीं शुद्द राजनीति है।

उस दौर में मोहनराव भागवत के पिता मधुकर राव भागवत गुजरात में प्रचारक थे और जोर शोर से हेडगेवार की हिन्दुत्व थ्योरी को अमल में लाने के लिये लोगों को संघ से जोड रहे थे । लेकिन सावरकर की पहल लोगों को हिन्दु महासभा से जोड़ रही थी। भागवत के सामने तमाम परिस्थितियां शीशे की तरह साफ हैं। इसलिये भागवत का मंथन बीजेपी को लेकर नहीं है। वह समझ रहे हैं कि संघ की सांस्कृतिक पहल भी राजनीति के मैदान में उग्र पहल होगी और खुद ब खुद बीजेपी को उनके पीछे चलने के लिये मजबूर करेगी। जिससे गडकरी की राजनीतिक मुश्किलें आसान होंगी। भागवत के सामने चुनौती शिवसेना की नहीं है। भागवत राजनीति को सूंड से पकड़ना चाह रहे हैं। इसलिये राजनीतिक तौर पर चाहे संघ की पहल महाराष्ट्र में ठाकरे को चुनौती देती दिखे या फिर बिहार में नीतिश कुमार की अतिपिछड़ों की राजनीति को वह बिहार की जमीन पर खड़े होकर ही आईना दिखाये। या बीजेपी के ही दिल्ली केन्द्रित राष्ट्रीय नेताओं को दरवाजा दिखायें, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वह कोई राजनीतिक चाल चल रहे हैं।

असल में भागवत चाल चलने से पहले हिन्दुत्व की राजनीतिक बिसात बिछाना चाहते हैं। और संघ के भीतर उठ रहे सवालो का जवाब वह उन राजनीतिक परिस्थितियों पर निशाना साध कर देना चाहते हैं जो वोट बेंक में सिमटती जी रही है। संघ के मुद्दे बीजेपी के दौर में हवा-हवाई हुये इसे भी बागवत नहीं भूले हैं। राम मंदिर सपना बन गया। स्वदेशी ने एफडीआई के आगे घुटने टेक दिये। गो-रक्षा का सवाल आर्थिक विकास में पुरातनपंथी हो गया। धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर बेमानी भरा शब्द हो गया । बांग्लादेशी घुसपैठ ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। इन मुद्दो को सीधे अगर भागवत उठाते हैं तो संघ पर फिर आरोप लगेगा कि वह हिन्दुत्व की पुरानी थ्योरी को राजनीति पर लादना चाह रहा है। इसलिये भागवत ने पहली बार सावरकर का फार्मूला अपनाया है । जिसमें राजनीतिक मुद्दों को राष्ट्रवाद से जोडते हुये सामाजिक शुद्दिकरण की बहस को संघ के भीतर पैदा करना और बीजेपी को राजनीतिक तौर पर उसी लीक पर चलने के लिये मजबूर करना। भागवत इस सच को समझ रहे है कि संघ अपनी जमीन नहीं छोड़ सकता इसलिये सावरकर ने अपने दौर में कोकणस्थ ब्राह्मणो को तरजीह दी थी तो भागवत ने भी संघ की जो नयी टीम बनायी उसमें मराठियों को ही सबसे ज्यादा तरजीह भी दी और हर निर्णायक पद पर मराठी स्वयंसेवक को ही बैठाया। इसलिये मराठी मानुस पर संघ का राष्ट्रवाद शिवसेना को नहीं घेरता बल्कि हिन्दुत्व के उस धागे में ही मुद्दे को पिरोतो है, जिसके तहत आज भी संघ में शामिल होने के लिये किसी भी व्यक्ति को यह प्रतिज्ञा लेनी पडती है कि " अपने पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू समाज की अभिवृद्दि कर भारतवर्ष की सर्वागीण उन्नति करने के लिये मैं राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ का घटक बना हूं। " और बतौर स्वयंसेवक आरएसएस के संविधान में लिखे उद्देश्य और मन्तव्य को जीवन पर यह कहते हुये उतारना पड़ता है कि , " हिन्दू समाज को संगठित कर एकात्म बनाना और हिन्दू समाज को उसके धर्म और संस्कृति के आधार पर शक्तिशाली तथा चैतन्यपूर्ण करना है, जिससे भारतवर्ष का सर्वागीण उन्नति हो सके। " और मराठी मानुस पर भागवत के संकेत यही है कि दिशा वही पकड़नी है जिसका जिक्र सरसंघचालक बनने के बाद उन्होंने कहा था "यह देश हिन्दुओं का है। हिन्दुस्तान छोड़कर दुनिया में हिन्दुओं की अपनी कहीं जाने वाली भूमि नहीं है। वह इस घर का मालिक है। लेकिन उसकी असंगठित अवस्था और उसकी दुर्बलता के कारण वह अपने ही घर में पिट रहा है। इसलिये हिन्दुओं को संगठित होना होगा। क्योंकि भारत हिन्दू राष्ट्र है।"

Wednesday, February 3, 2010

रामू का प्रण और अमिताभ का 'रण'

26/11 के बाद सीएम विलासराव देशमुख की कुर्सी खिसकने ने ही शायद मीडिया की ताकत का एहसास रामगोपाल वर्मा को कराया होगा, क्योकि घायल ताज होटल में आंतक के चिन्ह को देखना सीएम की जरुरत होती है, लेकिन कलाकार बेटे रितेश देशमुख और रामगोपाल वर्मा के लिये यह किसी फिल्मी सेट सरीखा रहा होगा। हो सकता है किसी पर्यटक की तरह रामगोपाल वर्मा तब आंतक के चिन्हों में अपनी अगली फिल्म के आंतक का ताना-बाना बुन रहे होगें। लेकिन इस चहल कदमी के 72 घंटे बाद ही जिस तरह देशमुख को कुर्सी छोडनी पड़ी तब पहली बार रामगोपाल वर्मा ने ताज पर हुये हमले के आंतक से बडे आंतक के तौर पर मीडिया को माना और निशाना भी साधा। हो सकता है तभी रामगोपाल वर्मा ने प्रण किया हो वह रण बनायेगे और मीडिया के गोरखधंधे को उसकी प्लाटेंड खबरो को बेनकाब करेंगे।

लेकिन सीएम के बदले पीएम की कुर्सी और आंतकवादी घमाके के पीछे राजनीतिक चालें। पहली नजर में कहा जा सकता है कि रण का प्लाट रामगोपाल वर्मा के दिमाग में ताज हमला आंतक के खिलाफ देशमुख की पहल लेकिन फिर भी सीएम की कुर्सी का जाना और उसमें मीडिया का तड़का। कुछ भी अलग नहीं है रण का प्लाट। सिर्फ किरदार और घटनाओं को बड़े कैनवास में उकेरने की कोशिश की गयी है। लेकिन अपनी बात को कहने की जितनी जल्दबाजी रामगोपाल वर्मा को रही, उसी का अक्स फिल्म-निर्णाण में भी नजर आया। मीडिया के जरिए ये ही इस बात को प्रचारित किया गया कि अब खबरें बनती नहीं बनायी जाती है और कैसे इसके लिये रण देखें। लेकिन रण एक फिल्म है और फिल्में बनती नहीं बनायी जाती है, इसी सच को रामगोपाल भूल गए। सिल्वर स्क्रीन पर अमिताभ की मौजूदगी विश्वसनीयता पैदा करती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन उसके साथ स्क्रिप्ट-डॉयलाग से लेकर एक सकारात्मक समझ जो प्रोडक्शन के साथ साथ विषय-वस्तु को लेकर उसके अनुकूल वातावरण तैयार करें यह भी जरुरी होता है।

लेकिन रण कुछ इस तरह बनायी गयी है जैसे आज के न्यूज चैनल में संपादक को लगने लगता है कि वह कमरे में बैठ जो सोच रहा है वही आखिरी सच और लोकप्रिय हकीकत है। इसे दिखाने के लिये रामगोपाल वर्मा भी मान लेते हैं कि जब उनका निर्देशन है और स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन है, तो कुछ भी चलेगा। इस समझ में उनकी अपनी आग में वह पहले भी हाथ जला चुके हैं और फिर उसी आग सरीखे रण को सच मानने लगे। मीडिया सामूहिकता का बोध कराती है और सरोकार से चलती है। संयोग से यह दोनो तत्व आज के न्यूज चैनल से गायब होने लगे हैं। रण इस स्थिति को पकड़ने के लिये खुद ही सामूहिकता और सरोकार से दूर होती जाती है। रण के रिलीज होने से पहले इस बात को प्रचारित किया गया कि फिल्म में जिस न्यूज चैनल की विश्वनीयता मानी गयी वह हकीकत में एनडीटीवी 24/7 है और अमिताभ बच्चन ने प्रणव राय के चरित्र को ही जिया है।

चूंकि फिल्म रण के चैनल का नाम इंडिया 24/7 है तो भ्रम पैदा होता ही है। फिर टीआरपी की दड़ में जो चैनल नंबर वन है उसे चलाने वाला और कोई नहीं कभी इंडिया 24/7 में काम कर चुका एक पत्रकार ही है। इस लिहाज से प्रणव राय के साथ काम करने वाले दो शख्स मैदान में मौजूद है। लेकिन फिल्म में इस पत्रकार को टीआरपी की दौड में सैक्स-स्कैंडल और सतही खबरों को दिखाने वाला बताया गया। वही पहला मौका है कि रामगोपाल वर्मा की फिल्म में महिला चरित्रों की मौजूदगी बेवजह है। यानी किसी भी महिला चरित्र के पास कोई ऐसा काम तो दूर, डायलाग तक नहीं है जिससे दर्शक उसका इंतजार करे। जबकि प्रणव राय की खासियत है कि वह महिला रिपोर्टर से लेकर साथ काम करने वाली हर महिला को य़ह एहसास नहीं होने देते कि वह पुरुष प्रधान दायरे में काम कर रही है। लेकिन रामू के दिमाग में विलासराव देशमुख की कुर्सी का जाना कुछ इस तरह छाया हुआ है कि वह तुरत-फुरत में प्रधानमंत्री तक को मीडिया की वजह से तख्लिया कहलाने की होड़ में रहते है। और चूकि ताज का दौरा रामगोपाल वर्मा ने देशमुख के बेटे रितेश के साथ किया था तो मीडिया की असल समझ भी सिल्वर स्क्रीन पर रितेश के जरिए ही रण में दिखाई-बतायी जाती है। चैनल का मालिक यानी अमिताभ का बेटा जब तर्क देता है कि कोई देखेगा नहीं तो असर का मतलब क्या है, तो रितेश का जवाब आता है अगर असर ना होगा तो कोई देखेगा क्या? यह टीआरपी और खबरों को लेकर रामू की समझ रण में उभरती है। लेकिन रण यही नहीं रुकती चूकि 26/11 को लोकर देशमुख की कुर्सी जाना रामू को पल-पल याद है तो वह रितेश से ही खबर के पीछे की असल खबर निकलवाते हैं। यह सब कुछ इतनी तेजी से या कहें निजी समझ के साथ फिल्म में होता है कि एक क्षण यह भी लगता है कि जो देश में जो न्यूज चैनल चल रहे हैं और भटक रहे है उसके भीतर संवादहीनता या सच को ना समझ पाने की होड़ है। जबकि मीडिया के भीतर सच को नये सिरे से परिभाषित करने की होड़ जरूर है जिसमें राजनाति या कहे सत्ता की भागेदारी बराबरी से भी ज्यादा की है। इसलिये रण जब खबरो की कमान पर चढ़ती है तो इस तरह बिकती चली जाती है कि मीडिया सिर्फ धंधा नजर आती है। लेकिन जब रण में धंधे की कमान ढीली पड़ती है तो नैतिकता के बोल इतने उंचे हो जाते है कि वह भी भारी लगने लगते हैं। असल में रामगोपाल वर्मा ताज होटल में टहलते वक्त भी समझ नहीं पाए थे कि आंतक के बीच बालीवुड की मासूमियत भरी मौजूदगी भी धंधे का खेल ही दिखलाती है और रण बनाते वक्त भी रामगोपाल वर्मा समझ नहीं पाये कि देश मीडिया नहीं आखिरकार जनता के आसरे चलता है। और मीडिया की विश्नीयता खत्म हुई है तो इसका यह मतलब नहीं है कि आम आदमी का मनोबल भी टूट चुका है । अगर ऐसा होता तो 26/11 के बाद 3-4 दिसबंर 2008 को गेटवे आफ इंडिया के बाहर पांच लाख लोग जमा होकर राजनीति को ठेंगा नहीं दिखाते। यूं जिस तादाद में लोगों का आक्रोश उस दिन गेटवे के बाहर उमड़ा उससे ही दिल्ली की सत्ता भी चौकी थी और उसी रात 10, जनपथ पर यह फैसला हुआ था कि विलासराव देशमुख को कुर्सी छोड़नी ही होगी, लेकिन रण बिना जनता की फिल्म है। जबकि मीडिया और राजनीति का सच यही है कि वह बिना सरोकार के आगे बढ नहीं सकते।

संयोग से रण में यह सरोकार न तो चैनलों के धंधे में दिखायी देता है और न ही नैतिकता का पाठ पढ़ाते वक्त। रामू यही भूल कर गये क्योकि उन्होने रण में मान लिया कि मीडिया अपने आप में एक सत्ता है, इसीलिये फिल्म के आखिर में यह सत्ता रितेश यानी समझदार रिपोर्टर को सौंपकर देशमुख की कुर्सी जाने का कर्ज चुकाया। जबकि सच उलट है मीडिया सत्ता नहीं, सत्ता को बचाने का नया धंधा है ।