भारत बंद के दिन लालकृष्ण आडवाणी घर से नहीं निकले। लेकिन अगले दिन बंद को सफल बताने के लिये घर पर कार्यकर्ताओं को बुलाकर बंद को सफल बनाने के लिये भाषण देकर उनकी पीठ जरुर ठोंकी। आडवाणी के करीबियों ने न्यूज चैनलों में अपने खासम-खास को यह कहकर कवर करने का न्यौता दिया कि यह आपके लिये एक्सक्लूसिव है। भारत बंद के एक दिन पहले दिल्ली से लेकर पटना तक एनडीए का हर नेता न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों से पूछ रहा था आप कब कहाँ पहुँचकर बंद को कवर करेंगे। वक्त बताइये तो हम भी वहाँ उसी वक्त पहुँच जायें। कुछ नेताओं ने अपना वक्त और जगह पहले ही रिपोर्टरों को बताया, जिससे उनके आंदोलन की छवि न्यूज चैनलों के जरिये घर-घर पहुँचे। यानी मंहगाई को लेकर न्यूज चैनलों और नेताओं के बीच सहमति की एक महीन लकीर खींची जा चुकी थी कि बंद का प्रोपगेंडा कैसे नेताओं और भीड़ के जरिये होगा।
इसके बावजूद शरद यादव बंद के बाद मीडिया पर यह कहते हुये बिफरे की उस बहस का क्या मतलब है कि बंद से मंहगाई कम नहीं होगी, तो फिर आम लोगों को तकलीफ देकर बंद की जरुरत क्या थी। शरद यादव का दर्द जायज है, क्योंकि बंद तो राजनीतिक व्यायाम सरीखा होता है और यह पाठ उन्होंने लोहिया से लेकर जेपी तक से जाना है। जेपी तो संसदीय राजनीति को मजबूत बनाने के लिये बंद और प्रदर्शन को एक महत्वपूर्ण हथियार मानते थे। वही लोहिया तो जनता को उकसाते थे कि सरकार काम ना करे या सांसद-मंत्री बेकार हो जायें तो पाँच साल इंतजार ना कीजिये। ऐसी राजनीतिक ट्रेनिंग के बाद अगर न्यूज चैनल बंद पर ही बहस खड़ी कर मनोरंजन परोसने लगे, तो शरद यादव को गुस्सा तो आयेगा ही। लेकिन यहाँ सवाल मीडिया का है जिसे खबरों को कवर करने की भी एक ट्रेनिंग मिली है। अगर वही ट्रेनिंग न्यूज चैनलों के जरिये इसी भारत बंद को कवर करने निकल पड़े तो फिर क्या होगा। चूँकि मुद्दा मंहगाई का है तो बात आम लोगों के दर्द और बंद कराने निकले नेताओं की रईसी से शुरु होगी। बीते छह साल में जबसे यूपीए की सरकार है देश में मंहगाई औसतन तीस से पचास फीसदी तक बढ़ी है और इसी दौर में बाबुओं की आय में औसतन इजाफा 12 फीसदी का हुआ है। मजदूर और कामगार स्तर पर मजदूरी में आठ फीसदी का इजाफा हुआ है। मनेरेगा के आने से कामगारो की किल्लत हर राज्य में हुई है जिसकी एवज में देश के नौ फिसदी कामगारो का आय सौ फीसदी तक बढी है और जिसका भार मध्यम तबके पर पचास फीसद तक पड़ा है। वहीं इसी दौर में कॉरपोरेट सेक्टर के मुनाफे या टर्नओवर में औसतन सवा सौ फिसद तक की बढ़ोतरी हुई है।
लेकिन मंहगाई को मुद्दा बनाकर राजनीति साधने निकले राजनेताओं की आय में सौ से दो सौ फीसदी तक का इजाफा हुआ है। खासकर सांसदो की संपत्ति और सरकारी खजाने से मिलने वाली सुविधायें दुगुनी हुई हैं। जितने भी चेहरे बंद के दौरान सड़क पर नजर आये, उन सभी की संपत्ति करोड़ों में है। चाहे वह बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी हों या फिर संसद के दोनों सदनों के विपक्ष के नेता। खुद शरद यादव की भी संपत्ति भी करीब डेढ़ करोड़ की है। जबकि शरद यादव जानते होंगे कि लोहिया की जब मौत हुई तो उनके घर का पता भी कोई नहीं था और जानकारी के लिये बैंक एकाउंट के जरिये पता खोजने की बात हुई तो यह जानकारी मिली की लोहिया का कोई एंकाउंट भी नहीं है। मीडिया को यकीनन यह कवर करना चाहिये था कि आम जनता से कैसे और क्यो नेताओ के सरोकार खत्म हो चले हैं, इसलिये बंद का मतलब सिर्फ राजनीतिक कवायद पर आ टिका है। करोड़पति नेताओं के सामने आम आदमी की औकात क्या है यह सरकार के ही प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों से समझा जा सकता है। क्योंकि बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बंगाल समेत उत्तर-पूर्व के सभी सातों राज्यों में आज भी प्रति दिन की औसत कमाई 50 रुपये से 80 रुपये के बीच है। लेकिन सासंदो की लॉण्ड्री का औसत प्रतिदिन का खर्चा सौ रुपये से ज्यादा का है। और जो आम आदमी के टैक्स से दिये रुपये से खर्च होता है।
देश के आज जो हालात हैं उसमें न्यूज चैनलों को नेताओं के चमकते-दमकते कपड़ों पर कितने खर्च हुये - यह सवाल भी करना चाहिये। पूछना यह भी चाहिये कि सड़क पर आने से पहले आपने नाश्ता क्या किया और दूध या जूस किस फल का पिया? लेकिन मुश्किल है कि रिपोर्टर यह सवाल पूछने से इसलिये नहीं घबराता है कि नेता गुस्से में आ जायेगा, बल्कि उसका अपना पेट उसी तरह भरा हुआ है। लेकिन जनता से नेता यूँ ही नहीं कटा है। संसद ही आमजन से कैसे दूर है यह इनकी संपत्ती देखकर समझा जा सकता है। राज्यसभा के दो सौ सांसदो की संपत्ति को अगर सभी में बराबर-बराबर बांटा जाये, तो हर के हिस्से में बीस से पच्चीस करोड़ आयेगा और लोकसभा के 545 सांसदो की संपति अगर बराबर बांटी जाये तो हर के हिस्से में पांच से छः करोड़ आयेगा। यहाँ नेता सवाल खड़ा कर सकते हैं कि करोड़पति नेता को आंदोलन करने की इजाजत नहीं है क्या? यकीनन है। और सासंदो की तनख्वाह अस्सी हजार महिनावार हो जाये इस पर सभी सांसद एकजूट भी हैं। फिर भारत बंद को 74 के आंदोलन से जोड़ने की जो जल्दबाजी नेताओं ने दिखायी, वह भी कम हसीन नहीं है। जबकि सड़क पर उतरे सभी नेताओं के जहन में 74 की तस्वीर जरुर होगी। उस वक्त नेताओं की फेरहिस्त में जेबी कृपलानी, मधुलिमये, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर , चरण सिंह , जार्ज फर्नांडिस सरीखे नेता थे। जो खास तौर से संपत्ति और सुविधाओं को लेकर सचेत रहते थे। जिससे आम आदमी को यह महसूस ना हो कि नेता उससे कटा हुआ है। और यह संवाद अक्सर संसद के भीतर नेहरु से लेकर इंदिरा की रईसी पर उंगली उठाकर किया जाता था।
लेकिन आम आदमी के बीच सड़क से राजनीति करते हुये सत्ता की अब की राजनीति ही जब मंहगाई जैसे मुद्दे पर ममता बनर्जी, लालू यादव , मायावती और राज ठाकरे को घर में कैद कर देती है, तो यह सवाल उठना जायज है कि भारत बंद राजनीतिक व्यायाम है और मंहगाई एक तफरी का मुद्दा। क्योकि चंद दिनो बाद संसद का मानसून सत्र शुरु होगा और यकीन जानिये सत्र की शुरुआत होते ही मंहगाई के मुद्दे पर संसद ठप कर दी जायेगी। और संसद की कैंटीन में कौड़ियों की कीमत में बिरयानी-चिकनकरी खाकर या एक रुपये में ग्रीन लीफ की शानदार चाय पीकर न्यूज चैनलों के कैमरों के सामने मंहगाई पर आंदोलन के गीत गाये जायेंगे और न्यूज चैनल के संपादक भी इसे ही खबर मानकर दिखायेंगे और न्यूज चैनल होने का धर्म निभायेंगे। इन हालात में तो शरद यादव को खुश होना चाहिये कि अगर राजनीति पटरी से उतरी है तो मीडिया भी पटरी से उतरा है और बीते छह साल में संपादक भी करोड़ों बनाकर मॉडल की मौत की गुत्थी सुलझाने से लेकर धौनी की शादी में खो जाते हैं। क्योंकि मीडिया पटरी पर लौटी तो मुश्किल राजनेताओं को होगी। आईये हम-आप दोनों प्रर्थना करें काश ऐसा हो जाये।
wonderful.. good analysis...
ReplyDeleteaadarneey baajpeyi ji aapne itnaa achchhaa likhaa hai ki ,uskaa varnan karnaa mushkil hai ,achchhee khari khari sunaai hai ,par in netaaon ko sharm nahi aati ,inkaa kaam to gaanaa or bagaahnaa hai ,
ReplyDeletewaastviktaa ye hai ki innetaaon ko mahangaai se kuchh lenaa denaa nahin hai ye to vartmaan sarkaar ko or jantaa ko apni taakat kaa pradarshan kar rahe hain ,
mahangaai ke naam par ye sabhi saansad apni salary 16000 se badaakar 80001 karaanaa bhi to chaahte hain ,inke liye mahangaai 5 guni or aam jantaa ke liye kewal kuchh %.
आप तो हमारे माननीयों के पीछे ही पड़ गये हैं। जब हमारे नेता मजबूत और खाए-अघाए रहेंगे तभी तो दूसरों के बारे में सोच पाने की फुरसत रहेगी। जो खुद ही दरिद्र रहेगा वह अपनी रोजी-रोटी के बारे में ही सोचता रहेगा। देश के लिए बड़े फैसले लेने वालों को इतना सुभीता तो होना ही चाहिए कि माल-पानी की चिन्ता उन्हें न करनी पड़े। :)
ReplyDeleteकाश भIईसाहब ऐसा हो जाये...!!
ReplyDeleteचाहे मीडिया की नौटंकी हो, चाहे विपक्षी नेताओं की असफलता और चाहे सत्तापक्ष की घूसखोरी, मुनाफाखोरी, चोरी और दलाली की सरकार, रोना तो आम आदमी को पड रहा है। सबसे बडा सत्य यह है कि निकम्मी व्यवस्था से ज्यादा निकम्मी और भ्रष्ट हमारी मीडिया है जो (सत्ता के गलियारों में) सत्तापक्ष और विपक्ष से मिलने वाली बिरयानी चाट चाट कर खा रही है और पत्तल जनता के ऊपर उडा रही है। विभिन्न चैनलों पर बंद की सफलता और असफलता के ऊपर अपनी अपनी बिरयानी चाटने की क्षमता के आधार पर मूल्यांकन किए गए और इस बात पर सबसे ज्यादा टसुए बहाए गए कि धोनी की शादी में घोडी वाले ने क्या क्या देखा।
ReplyDeleteबंद का असर किस पर पड़ा। गरीबों पर या फिर रहीसों पर। जो इस महंगाई में पिस रहा है उस पर या फिर.......। बाजार बंद रहे। सड़कों पर सन्नाटा पसरा रहा। जिन लोगों ने दुकानें खोलीं भी उन्हें बंद करा दिया गया। क्यों? अरे भारत बंद है भई, तुम दुकान कैसे खोल सकते हो। अगर दुकान खोल ली तो बंद असफल नहीं हो जाएगा, विपक्ष का मखौल नहीं उड़ेगा। एक अदने से दुकानदार की वजह से पूरे विपक्ष के किए धरे पर पानी फिर जाए, ये कैसे हो सकता है।
ReplyDeleteइस भारत बंद से क्या मिला। पेट्रोल, डीजल, कैरोसिन और पता नहीं किस किस के दाम कम हो गए क्या ? चलो नहीं भी हुए तो क्या आश्वासन ही मिला है कि सरकार दाम कम करने की कोशिश कर रही है, जल्द ही कीमतें काबू में आ जाएंगी। ऐसा कुछ नहीं हुआ। सरकार ने तो बंद के एक दिन पहले ही कह दिया था कि कीमतें किसी भी कीमत पर कम नहीं होंगी।
फिर बंद का फायदा क्या? जिनके घर महीने भर का राशन एक ही दिन आ जाता है उन्हें तो कुछ फर्क नहीं पड़ा। फर्क उन्हें पड़ा जो रोज कमाई कर आटा, सब्जी और सरसों का तेल लेकर घर जाते हैं। आज न तो वे कमाई कर पाए और न ही घर जाते समय खाने का सामान ही ले जा पाए। असर उन ठेली वालों पर पड़ा जिनकी ठेली पर आज कोई नहीं आया। आए भी तो वही भारत के सबसे जिम्मेदार नागरिक। यह कहने की ठेली हटा लो, आज भारत बंद है। मना किया तो डरया धमकाया और सामना इधर उधर फेंक दिया।
hm aapkii prarthana men shamil hain.
ReplyDeleteachhii,gyanvardhak post ke liye aabhar.
sir aap yeh damki kyo dette hai..."क्योंकि मीडिया पटरी पर लौटी तो मुश्किल राजनेताओं को होगी।"...sudar jayiye...people dont have problem...
ReplyDeleteसर शुरुआत कौन करेगा बड़ा सवाल है
ReplyDeleteजो शुरुआत करेगा उसके आगे टी आर पी का सवाल खड़ा है।
इंडिया टीवी जो मनमाने कार्यक्रम बनाकर परोसता है, उसकी टीआर पी दूसरे पायदान पर रहती है।
बचपन में कन्हैया लाल नन्दन जी की एक कहानी पढी थी, जो कुछ इस तरह थीः
ReplyDeleteशहर में एक सड़क के किनारे एक मज़दूर महिला पत्थर तोड रही थी. अचानक वहां कुछ लोगों की भीड़ इकट्टी हो गयी और ज़ोर ज़ोर से से बोलने लगी “ देखो औरत पत्थर तोड़ रही है!... देखो औरत पत्थर तोड़ रही है! ”
वह औरत एकदम सकपका गयी और उठ कर चल दी. भीड़ उसके पीछे पीछे चलने लगी और अब बोल रही थी कि देखो! औरत जा रही है... देखो! औरत जा रही है...औरत भागने लगी और एक गली में बने अपने घर में घुस गयी....भीड़ गली में आ गयी और उस औरत के घर के सामने खड़े होकर वस्तुत: चीखने लगी, देखो! औरत घर में घुस गयी... देखो औरत घर में घुस गयी... औरत कमजोर दिल की थी.... उसने पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली....अगले दिन दरवाज़ा तोड़ा गया तो यह हादसा सबके सामने था.
भीड़ अब खुसर पुसर कर रही थी...देखो औरत ने आत्महत्या कर ली.. ...देखो औरत ने आत्महत्या कर ली....
इसके बाद भीड़ अगले शिकार पर निकल गयी..
यह कहानी क्या आपको जानी पहचानी नहीं लगती? भीड़ को आज के इलेक्ट्रोनिक मीडिया से बदल दीजिये और देखिये यह गन्दा खेल आज भी जोर शोर से चालू है....
(आगे पढ़ने के लिये आमंत्रित हैं http://samvedanakeswar.blogspot.com/ पर)
v.good sir
ReplyDeletesushil shukla
goa
netaone patri chodi, medianebhi patri chodi yehi to es desh ka durbhagya hai.
ReplyDeleteBAHUT MUSKIL HAI..
ReplyDeleteमीडिया को अपना धर्म निभाना चाहिए । मिडिया को सत्ता या पैसे का नशा कैसे छुड़ाया जाए ... यह अहम समस्या है ?
ReplyDeletegood analysis
ReplyDeleteपॉल बाबा का रहस्य आप भी जानें
http://sudhirraghav.blogspot.com/2010/07/blog-post_10.html