Monday, July 12, 2010

जहां हर आक्रोश एफआईआर है या राजनीतिक बयान

“अपने साथी की मौत पर भी हमें गुस्सा नहीं आना चाहिये। हम तो अपने गुस्से को शांतिपूर्ण प्रदर्शन के साथ बताना चाहते हैं लेकिन आप इसकी इजाजत भी नहीं देते। हम हाथों को हवा में लहरा कर बैनर पोस्टर से ही अपनी बात कहकर घर लौटना चाहते हैं। लेकिन आप इसकी इजाजत भी नहीं देते। आप तो हमें कोई नारा लगाने भी नहीं देते। तो हम क्या करें। यहा बंदूक तो कोई भी उठा सकता है, हमने तो पत्थर उठाये हैं, लेकिन आप हमारे पत्थरों को भी पालिटिकल स्टेटमेंट मान लेते हो। बंदूक उठायेंगे तो आतंकवादी करार दिये जायेंगे और पत्थर उठायेंगे तो अलगाववादी। आप हमें जीवित नागरिक क्यों नहीं मानते। आप हमें मशीनी कश्मीरी क्यों बनाकर रखना चाहते हो, जो हमेशा मुस्कुराता रहे। आखिर आपकी सोच के अनुसार हर कश्मीरी इस बात पर फख्र क्यों करता रहे कि वह हसीन वादियों में पला बढ़ा है। कश्मीर को लेकर आपकी तस्वीरों में भी कभी हम तो होते नहीं। खूबसूरत वादियो में सिमटा कश्मीर ही आपने अभी भी आंखो में बसा रखा है तो इसमें हमारी क्या गलती है। हम सिर्फ इन वादियों में अपनी जगह चाहते हैं। आप इसके लिये भी तैयार नहीं है।”

सोपोर के थाने में दर्ज यह एक कश्मीरी की शिकायत की एफआईआर कॉपी है। जिसे सोपोर के इंजमाम ने केन्द्र सरकार के खिलाफ दर्ज कराया है। पालिटिकल साइंस में ऑनर्स की पढ़ाई कर रहे इंजमाम ने सरकार पर आरोप लगाया है कि 27 जून को अपने मित्र बिलाल की मौत से आहत होकर वह सिर्फ शांति प्रदर्शन करना चाहता था । क्योंकि अर्धसैनिक बलों की गोली उसके मित्र को सड़क पर लगी। और अपने घर में वह बताकर उस प्रदर्शन में शरीक होने पहुंचा जो उसके मित्र के परिवार वाले सोपोर की गलियो में निकाल रहे थे। लेकिन पुलिस और सेना ने उनके नंगे हाथों को भी हवा में लहराने की इजाजत नहीं दी। और एकमात्र बैनर को लोगो की आंखों के सामने बूटों तले कुचल दिया, जिस पर सिर्फ इतना लिखा था, वी वांट जस्टिस। लेकिन 48 घंटे तक जब सेना की गश्त ने उनका घर से निकलना बंद कर दिया तो सोपोर बाजार के थाने में जाकर रपट लिखाने के अलावे और कोई रास्ता नही बचा। थाने ने भी इंजमाम के इस दर्द को दस्तावेजो में समेट लिया । और एफआईआर की शक्ल में एक कॉपी पर सरकारी ठप्पा लगाकर इंजमाम को सौंप भी दिया ।

लेकिन इंजमाम की यह मासूमियत कश्मिरियों के दर्द की सिर्फ एक बानगी भर है। बारह साल पहले सोपोर के थाने में हुर्रियत नेता अब्दुल गनी बट ने पुलिस वालों से यह सवाल किया था कि क्या वह आसमान में पंछी को उड़ते देखकर दोनो हाथों को हवा में उठाकर जोर से चिल्ला कर कह सकते हैं कि काश मैं भी इस तरह आजाद होता। तो पुलिसवाले का जबाब था घाटी में आप आजादी शब्द का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। यह सरकार के खिलाफ माना जायेगा। तब अब्दुल गनी बट ने थाने में रपट लिखायी कि उनकी शिक्षा बेजा जा रही है और कश्मीर वह छोड़ नहीं सकते। तो सरकार बताये कि वह अगर आजाद पंछी से खुद की तुलना करते हुये कोई कविता लिखे तो उसे पालिटिकल स्टेटमेंट क्यों माना जाता है। और बारह साल पहले भी सोपोर थाने में सरकार के खिलाफ इस शिकायत पर सरकारी ठप्पा लगाते हुये एक कापी अब्दुल गनी बट को सौप दी गयी।

कविता से पत्थर तक को राजनीतिक बयान मानने के सरकारी मिजाज में कश्मीरी किस तरह फंसा हुआ है इसका अंदाजा कश्मीरी पुलिस और सेना के बीच की दूरी से भी समझा जा सकता है और थानों में दर्ज कश्मिरियों की शिकायत से भी पता चल सकता है। घाटी के थानो में औसतन हर दिन पांच सौ से ज्यादा मामले दर्ज होते हैं। और इसमें 70 से 80 फीसदी मामले सेना और सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ होते हैं। और हर शिकायत पर मरहम और कोई नहीं कश्मीरी पुलिस ही लगाती है। यह एक अजीबोगरीब त्रासदी है कि स्थानीय पुलिस या कहें राज्य पुलिस कश्मीरियों के मर्म को समझती है और अर्ध सैनिक बलो के खिलाफ हर कश्मीरी के दर्द को थाने में ही सही एक कोना जरुर देती है, जिससे जीने की समूची आस नहीं टूटे।

6 जुलाई को जब मारे गये लड़को के शवों को प्रदर्शन के शक्ल में कश्मीरी ले जा रहे थे तो भी सेना से झड़प हुई और शवों को सडक पर छोड कर उनके परिजनो को इस डर से भागना पडा कि कहीं वह भी शव में तब्दील न हो जायें। लेकिन उसी भीड में जे एंड के पुलिस ने भागते कश्मीरियों को रास्ता दिया। लाठी और बंदूक के कुंदे की मार से घायल कश्मिरियों को उठाया। उन्हें शांत रहने की सलाह दी । कश्मीरियो के दर्द के साथ खड़ी स्थानीय पुलिस में सिर्फ इंस्पेक्टर स्तर पर ही ऐसी पहल नही है बल्कि कश्मीरियों के दर्द के दक्षिणी श्रीनगर के एसपी समेत कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियो ने समझा और उनके दर्द पर मलहम लगाने का प्रयास यह कहकर किया कि पुलिस आपके साथ हैं। लेकिन साथ खडे अर्द्दसेनिक बल भी इसे बर्दाश्त नही कर पाये और एसपी स्तर के अधिकारी से सड़क पर ही भिड़ गये। घाटी में तैनात साठ हजार से ज्यादा अर्धसैनिक बल में सत्तर फीसदी जवान दक्षिण भारत के हैं। यानी भाषा और संसकृति के लिहाज से भी कोई मेल कश्मीर के साथ इनका होता नहीं है। समूचे घाटी में रिहायशी इलाकों के बीच अर्धसैनिक बलो के तीन सौ से ज्यादा कैंप टैंट में कंटीली तारो से घेरकर बने हुये हैं जिसमें करीब बारह हजार जवान रहते हैं। वहीं पुरानी इमारतो या स्कूल में करीब सवा सौ से ज्यादा कैंप सीआरपीएफ के हैं। जिसमें छह से सात हजार जवान रहते हैं। यानी कश्मीरियो की दिनचर्या के बीच करीब बीस हजार जवानों की मौजदूगी हमेशा रहती है। लेकिन इस मौजूदगी का मतलब सिवाय कैंप के भीतर का जीवन और हर दिन नौ से बारह घंटे तक सडक पर पैदल पैट्रोलिंग से आगे कुछ भी नही है। लेकिन कश्मीरियों के लिये हर मोड और हर कैप से सामने से सहमते हुये निकलना जीवन का हिस्सा है। जवानों के हर कैंप के सामने बालू की बोरिया और टीन की छत के बीच ड्रम के बीच से झाकती बंदूक की नली कश्मीरियों को देखती रहती हैं। यानी एक आम कश्मीरी और जवानों के बीच संवाद का एकमात्र माध्यम जवानों की गरजती आवाज के बीच सहम कर ठहरे कश्मीरी के कपड़ों की जांच या फिर उसका पहचान पत्र देखना है।

वहीं समूचे घाटी में तकरीबन पांच सौ थाने, चौकी और पुलिस मदद केन्द्र हैं। कमोवेश घाटी के हर अस्पताल में एक पुलिस चौकी है, जिससे कोई कश्मीरी गोली खाकर इलाज के लिये पहुंचे तो उसे पुलिस कार्रवाई का इंतजार न करना पडे । यानी गोली से तो जम्मू-कश्मीर पुलिस किसी को नहीं रोक सकती लेकिन इलाज में कोई रुकावट न आये इसके लिये पुलिस का सहयोग है। फिर घाटी के रिहाइशी इलाको में थानो और चौकी पर तैनात पुलिसकर्मियों का घर भी कश्मीर के उन्हीं रिहायय़ी इलाकों में है, जिसमें कोई आम कश्मीरी रहता है। मसलन घाटी में बीस साल पहले जब आतंक की हवा ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया के अपहरण से जोर पकड़ा, उस वक्त सोपोर के बाजार थाने का इंस्पेक्टर हुर्रियत नेता के घर किरायेदार था। और अलगाववादियों के आंदोलन ने जबतक राजनीतिक उड़ान नहीं भरी, तब तक हुर्रियत के तमाम नेताओं की आवाजाही कश्मीरियों के बीच ठीक वैसी ही थी, जैसी किसी आम शख्स की होती है। मसलन बेकरी के धंधे में एक साथ कामगार का काम अलगाववादियों से जुडे सैकड़ों कार्यकर्ता भी नजर आते थे ।

लेकिन आंदोलन या संघर्ष को जो राजनीतिक जगह दिल्ली और इस्लामाबाद से मिली, उसमें झटके में अलगाववादी कश्मीरियों से कटते गये। क्योंकि जिन्दगी जीने के लिये रोजगार बदल गये। अचानक राजनीति ही रोजगार का रुप ले बैठी। कह सकते हैं रिहाइशी उलाको में आम कश्मीरियो के बीच रहते हुये भी अलगाववादियों का जीवन अलग हो गया। लेकिन इस दौर में पुलिस की जरुरत जब सबसे ज्यादा सरकार को प्रशासन चलाने में पड़ी तो जम्मू-कश्मीर पुलिस आम लोगो से जुडती चली गयी। लेकिन पुलिस के सामने इसी दौर में अगर बाहर से पहुंची सेना के पीछे चलने और रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी आयी तो दूसरी तरफ राज्य सरकार का नजरिया भी सेना को कश्मीरियों का दोस्त बनाने और कश्मीरियों की हिंसा को थामने में ही लगा। यानी कश्मीर पुलिस झटके में राज्य सरकार की पहली जरुरत नही बनी। टूटते संवादो के बीच संस्थानो का महत्व भी सत्ता पाने और उसकी ताकत के आसरे ही चल पड़ा ।

उमर अब्दुल्ला चाहे विरासत का बोझ उठाये संसद में कश्मीरियो के दर्द का इजहार कर कश्मीरियों के दिल में जगह बनाने में सफल हुये। लेकिन सत्ता के तौर तरीकों में उन्हे सत्ता की मुखालफत कैसे करनी होगी, यह तमीज भी संसदीय राजनीति ने उन्हें सिखा दी। यानी सीआरपीएफ हो या अलगाववादी, राज्य सरकार हो या केन्द्र सरकार , सरकारी महकमो की नीतियां हो या केन्द्र की राहत नीति सबकुछ कश्मीरियों के सामने किसी सत्ता की ठसक की तरह ही आ रही हैं। जिसमें कश्मीरियों के सामने पहली बार कश्मिरी पंडितों सरीखा संकट आया है, जब सारे संस्थान उसके लिये होकर भी उसके नहीं बच रहे क्योकि सत्ता की जरुरत और उसकी भावनाओं के बीच कोई संवाद का जरीया नही बच रहा है। जिसमें पहली बार कश्मिरियों को यह भी समझ में आ रहा है कि टूटते संवादों के बीच वह निरा अकेला होता जा रहा है। क्योकि रोजी रोटी के जुगाड से लेकर शवों को दफनाने तक के बीच उसकी भावनाओ के लिये कोई जगह बच नही है। इसलिये सवाल सिर्फ पत्थर उठाने का नहीं है बल्कि 11 जून को राजौरी कडाल क्षेत्र मारे गये 19 साल के तुफैल से लेकर 6 जुलायी मैहसूना में मारे गये 18 साल अबरार खान के बीच बाकी नौ लडकों की मौत से आहत कुल ग्यारह गांव अलग-थलग हैं। और सभी अलग थलग है। और इस बीच इन ग्यारह जगहो पर तैनात जवान एक गांव से दूसरे गांव पहुंचे है, लेकिन सरकार कहीं नहीं पहुंच पायी। उमर अब्दुल्ला श्रीनगर में ही कैद रहे। ऐसे में सेना और कश्मीरी के बीच सिर्फ जम्मू-कश्मीर पुलिस खड़ी है। और कश्मीरियों के आक्रोश की एफआईआर दर्ज करने के लिये अब भी तैयार है, जिसमें कोई भी थाने में जाकर लिखवा सकता है कि उसे खुली हवा में सांस लेने की इजाजत तो मिलनी चाहिये। या फिर यह भी पालिटिकल स्टेटमेंट है। यकीन जानिये पुलिस इसे भी दर्ज करेगी और यही राहत घाटी में बची है, जो सभी को जिलाये हुये है।

15 comments:

  1. हम तो अपने गुस्से को शांतिपूर्ण प्रदर्शन के साथ बताना चाहते हैं लेकिन आप इसकी इजाजत भी नहीं देते। हम हाथों को हवा में लहरा कर बैनर पोस्टर से ही अपनी बात कहकर घर लौटना चाहते हैं। लेकिन आप इसकी इजाजत भी नहीं देते। आप तो हमें कोई नारा लगाने भी नहीं देते। तो हम क्या करें। यहा बंदूक तो कोई भी उठा सकता है, हमने तो पत्थर उठाये हैं, लेकिन आप हमारे पत्थरों को भी पालिटिकल स्टेटमेंट मान लेते हो। बंदूक उठायेंगे तो आतंकवादी करार दिये जायेंगे और पत्थर उठायेंगे तो अलगाववादी। आप हमें जीवित नागरिक क्यों नहीं मानते।
    प्रसून जी जनसत्ता में भी आज ही पढ़ा...जिस तरह बेख़ौफ़ होकर आपने लिखा है..यह सवाल सिर्फ कश्मीर का ही नहीं ओखला से लेकर बस्तर और मगध का भी है.
    ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ थीं जिसके बिना पर हिंदी अकादमी ने मेरे संग्रह पर ग्रांट नहीं दी ..

    आपके इस लेख को मैं अपने एक ब्लॉग हमज़बान पर पोस्ट करने वाला था..लेकिन जब आपने कर ही दिया तो उसे मुल्तवी करता हूँ....

    समय हो तो इस कविता नुमा अंश को पढ़ें ..
    बाज़ार, रिश्ते और हम http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2010/07/blog-post_10.html

    शहरोज़

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  2. इंसानियत के मर जाने और व्यवस्था के सड़ जाने की गंध को महसूस कराती इस पोस्ट के लिए आपका धन्यवाद | यह हाल सिर्फ कश्मीर का नहीं बल्कि पूरे देश का है | पूरे देश में सरेआम अन्याय का बोलबाला है और सत्य,न्याय,देशभक्ति व ईमानदारी को पूरी व्यवस्था व भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों द्वारा अनुचित ढंग से हर जगह दवाया जा रहा है | न्यायपालिका का भी भ्रष्टाचार ने बुरा हाल कर रखा है | अभी-अभी बिहार के एक दूरदराज के जिले सीतामढ़ी का जमीनी स्तर पर सामाजिक जाँच कर लौटा हूँ जिस आधार पर मैं यह कह सकता हूँ की कश्मीर से भी बुरा हाल है देश के और राज्यों का | अब तो हम सब को एकजुट होकर उन लोगों की सहायता और सुरक्षा का प्रबंध हर हाल में करना होगा जो लोग देश के गांवों में भी व्यवस्था के बुराइयों के खिलाप लड़ाई लड़ रहे हैं क्योकि सही मायने में ऐसे लोग हमारे देश के आज के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से भी बेहतर हैं और इनकी सुरक्षा ही देश और समाज की सुरक्षा है |

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  3. राजनीति खालिस व्यव्साय है ठीक वैसे ही जैसे पत्रकारिता खालिस व्यव्साय है.

    जब लाभ कमाना ही अंतिम सत्य है इस बाज़ारु व्यवस्था का तो “जिस की लाठी उसकी भैंस” ही मारक मंत्र है.

    मेरे हिसाब से बात अब हाथ से निकल चुकी है, प्रसून भाई!, इस असवेंनदनशील व्यव्स्था को इससे भी अधिक असवेंनदनशील व्यव्स्था ही बदल सकती है.

    खैर! फिलहाल हम सब अपना अपना विधवा विलाप चालू रख सकते हैं! "जो चला गया" वो तो वापस नहीं आयेगा पर दिल कुछ हल्का तो हो ही जायेगा.

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  4. क्या हमारी अपनी सरकार अंग्रेजी हूकुमत से भी गई-बीती नहीं हो गई है ? क्या देश के आम नागरिक को सुकून और चैन से रहने की आज़ादी है ?

    क्या हमारी सरकारें समस्याओं का वस्तुत: समाधान चाहती हैं या उन्हें वोट की राजनीति के लिए हमेशा जिंदा रखना चाहती हैं ?

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  5. आप जैसे पत्रकारों की पत्रकारिता मुसलमानों ने खरीद रखी है। हिन्दुत्व के संस्कार तो आपने उसी दिन ताक पे रख दिये थे जब अण्डा करी खाने के लिए आप नवरात्रों में सहारा की कैण्टीन में छिछनाते घूम रहे थे और कैण्टीन वाले ने मना कर दिया था।

    यह हाल आपका ही नहीं सारे मुसलमानों, सेक्युलरवादियों और मार्क्सवादियों का है। अपने पिता की सिफारिश पर पत्रकार बनकर आप क्या सोचते हैं कि आप बहुत बड़े विद्वान हैं।

    कम ही पाठक जानते होंगे कि सहारा में आपने अपनेशो का नाम मास्टरसट्रोक इसलिए रखा था क्योंकि मास्टरस्ट्रोक डीलक्स विस्की से आपकी पत्ती बँधी थी।

    और तो और शीन काफ़ की तमीज़ हैं नही और प्रिंट के पत्रकार बनते हैं?

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  6. MY NEW BLOG ON
    PRAKHARHINDUTVA.BLOGSPOT.COM

    असल में लड़ाई झगड़ा दंगा फसाद मुसलमान की फितरत में है। क्या करें मुहम्मद लड़ाका था और इसीलिए उसने जो प्यार के संदेश दिए, जो अमन की इबारतें कुरआन में लिखीं और जो सपने उसने देखे उनको साकार करने के लिए उसके अनुयायी दुनियाँ भर में उत्पात मचाते घूम रहे हैं। पहले कश्मीर में हिन्दू मुसलमानो में झगड़ा हुआ तो हिन्दू शराफ़त से पलायन कर गए। फिर धीरे धीरे घाटी में बचे सिर्फ मुसलमान। अब कर्बला रे वीरों के पास कुछ नहीं बचा। उनके पाकिस्तानी भाई भी बोर होने लगे। फिर इन्होंने आपस में ही दंगे शुरू कर दिए। पुलिस ने रोका तो उसे भी मारा। फिर सेना की मदद ली गई तो रोने लगे।

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  7. just check it......

    http://kashmiris-in-exile.blogspot.com/2010/07/this-is-transcript-my-name-is-shabir.html

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  8. prakharhindutva,agar aapko likhna aata hai to kya aap sabkuch likhege? aapne jiske baare me ye sab kaha hai,usne kabhi kuchh chupaya nahi,isliye aapka ye comment bhi yaha chaspa hai.khud unki aur apni imandari ko samjhiye kyoki abhi tak aapne apni pahchan tak ko chupaye huye rakha hai.ashamat hona chahiye par ashamati ki bhasa aisi to bilkul bhi nahi honi chahiye. jara se majhab se uptar uthkar, bhartiy bankar aur insan hokar is visay par soche

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  9. सच को छुपाए,और झूठ का बखान करे,
    काँच बिना पानी वाला, होता नहीं आईना

    ओहो मुसलमान इंसान भी होने लगे।

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  10. पुण्य प्रसून जी आपने कुछ कश्मीरी लोगों की संवेदनाओं की और ध्यान बखूबी आकर्षित किया है. पर आपका आलेख थोड़ा एकतरफा है. सिक्के के दुसरे पहलु पे भी गौर फरमाते तो अच्छा रहता. देखिये कश्मीर में सेना आरम्भ से नहीं थी, आतंकवादियों के चगुल से कश्मीर को छुडाने के लिए ही वहां सेना गई है.. सेना अपने-आप नहीं आई है. बिना आम लोगों के सहयोग से आतंकवादी कश्मीर में इतनी पकड़ नहीं बना सकते, जाहिर है ढेर सारे कश्मीरियों का साथ आतंकवादियों को मिलता रहा है. किसी प्रदर्शन में आम कश्मीरी ही भारत का ध्वज सरे-आम जलता है और पाकिस्तान का झंडा बड़े सान से अपने घरों चौंक-चुराहों पे फहराने की कोशिश करता है. ये कश्मीरी ही हैं जो अनंतनाग को इश्लामाबाद के नाम से बुलाते हैं, क्यूँ इन्हें अनंतनाग नाम से नफरत क्यूँ है? जब हिन्दुओं, सिक्खों को चुन-चुन कर मौत के घाट उतारा जा रहा था, कश्मीर छोड़ने पे हिन्दुओं को बाध्य किया जा रहा था उसमें भी आतंकवादियों को कश्मीरियों से जबरदस्त समर्थन-सहायता मिल रही थी. उस समय कश्मीरियों ने कितने हिन्दुओं का बचाया या घाटी से बहार नहीं जाने दिया? आतंकवादी कश्मीरी युवाओं को पैसे देकर पत्थरबाजी करवा रहे हैं, पैसे लेकर पत्थर फेकने वाले युवा बिलकुल निर्दोष कैसे करार दिए जा सकते हैं?

    (http://bhadesbharat.blogspot.com/2010/07/blog-post.html)
    एक सवाल और है- गुजरात के दंगों की रिपोर्टिंग करने के लिए लगभग सभी चैनलों और अखबारों ने दिल्ली से अपने रिपोर्टर भेजे थे। कश्मीर की रिपोर्टिंग के लिए हमेशा कश्मीरियों को ही क्यों सबसे उपयुक्त माना जाता है? गुजरात के ज़्यादातर स्थानीय अखबारों और चैनलों ने गुजरात दंगों के दौरान मोदी सरकार की भूमिका की सराहना की, लेकिन उन्हें मोदी समर्थक और साम्प्रदायिक मानकर ख़ारिज कर दिया गया। कश्मीर की स्थानीय मीडिया की अलगाववादियों से सहानुभूति रखते हुए की जाने वाली रिपोर्टिंग पर सवाल क्यों नहीं उठाए जाते?

    मेरे मन में ये सवाल इसलिए आ रहे हैं, क्योंकि मैंने पिछले 4 दिनों में दसियों अखबारों और चैनलों की कश्मीर रिपोर्टिंग देखी है। मुझे एक भी रिपोर्टर ग़ैर कश्मीरी नहीं दिखा। तमामचैनलों के रिपोर्टरों की रिपोर्टिंग सुनी मैंने। सब पहले से आखिरी लाइन तक केवल यही बता रहे हैं कि सुरक्षा बलों की गोलियों से मारे गए बच्चों की उम्र 10 साल, 13 साल, 17 साल और ब्ला-ब्ला... थी। न एंकर ने यह पूछने की जहमत उठाई कि मारे गए इन बच्चों को क्या घर से उठा कर लाया गया था, न रिपोर्टर ने यह बताना उचित समझा कि ये बच्चे उन दंगाइयों में शामिल थे, जो सुरक्षा बलों पर पथराव कर रहे थे।

    फ़र्ज कीजिए, आपके शहर में धारा 144 लागू है। आपके घर के बाहर पुलिस की गोलियों की आवाज़ सुनाई दे रही है और लोग पुलिस वालों पर हमले कर रहे हैं। आप 9 साल के अपने छोटे भाई के साथ बाहर निकलते हैं और अपने भाई को एक पत्थर थमाते हुए कहते हैं कि सीधे पुलिस वाले के सर पर मारना। छोटा बच्चा है, आपने ख़ुद तो दीवार की ओट ले ली और बच्चा बेचारा सड़क के बीच मे आकर पत्थर चलाने लगा। पुलिस की रबर की गोली उसकी छाती में लगी और आपके नन्हे से भाई ने वहीं दम तोड़ दिया। आपके भाई का हत्यारा कौन है?

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  11. पुण्य प्रसून जी मैं जानता हूँ आप बड़े लोग हैं आप आम पाठकों के सवालों का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं है, फिर भी मेरा मानना है की ब्लॉग एकतरफा संवाद नहीं है, यहाँ पाठक अपनी टिप्पणी यही सोच कर देता है की ब्लॉग लेखक इसे पढेगा और जवाब भी देगा. मुझे पता नहीं आप अपने ही ब्लॉग पे पाठकों की टिप्पणी को पढ़ते हैं या नहीं, पर आशा तो यही करता हूँ की आप मेरी टिप्पणी पे अपना विचार जरुर रखेंगे.

    धन्यवाद !

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  12. पुण्‍य प्रसून जी,
    अभी अभी मैंने आपका यह एक पक्षीय लेख पढा। मैं महसूस कर रहा हूं कि इस देश के पत्रकारों को एकपक्षीय लेख लिखने की आदत पढ गई है। संभवत: चर्चित होने का या कम उम्र में ज्‍यादा पारितोषिक या पुरस्‍कार पाने का इस सेक्‍यूलर इंडिया में इससे इससे आसान तरीका और कोई नहीं हैं। प्रखर इंडिया ने आपके बारे में जो टिप्‍पणी की उससे यह तो समझा ही जा सकता है कि बिरयानी खींचने में हमारे चर्चित पत्रकार किस सीमा तक जा सकते हैं पर फिर भी मैं इस व्‍यक्तिगत टिप्‍पणी से अपने को अलग करता हूं। अब आते हैं आपके उठाए मुददे पर। आप किन लोगों को जस्‍टीफाई करने की कोशिश कर रहे हैं ? उन लोगों को जो सरेआम सडकों पर पत्‍थरबाजी कर रहे हैं और मौका मिलते ही हत्‍याएं करते हैं। अर्द्वसैनिक बल के किसी सिपाही के बारे में आपने लिखा है? उनके दर्द को कभी महसूस किया है? एक अनजानी धरती पर उन्‍हें सालों से अत्‍यन्‍त विकट परिस्थितियों में जूझना पड रहा है। क्‍या ऐसी स्थिति के लिए अर्द्वसैनिक बल के सिपाही दोषी हैं? यदि हैं तो जोर से चीख कर हां कहिए और यदि नहीं तो उनके दर्द को भी महसूस करिए। जब 16 16 घंटों की डयूटी के बाद भी खाने के लिए पत्‍थर मिलेगें तो आप जैसे लोग तो गोलियां नहीं एटम बम चलाने लगेंगें । आपसे यही गुजारशि है कि कम से कम उस काम से तो न्‍याय करिए जो आपका प्रोफेशन है।

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  13. Pasun ji Namaskar. apka article padhkar Gyan to badhta hi hi,saath hi kasmir ki Hakikat ghar baithe samajh paya hun tatha wahan ke logon ka dard bhi gahrai se samajh paya hun.akhir wo bhi to hamare hi desh ke wasinde hai...............

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  14. priy,
    puny prsoon baajpaiyee ji ,
    kashmir ghaati ke bare me ek kshaatr injmaam ki karun kathaa aapne bahut achchhee tarah paish ki hai jisko sunkar prtyek bhartvasi ka hrday paseejtaa hai ,parantu aisaa prteet hota hai ki ye ektarfaa hai ,kabhi aapne ,kashmiri panditon ,yaa wahan rahne waale hinduon or hamari bhartiy sena ke un maa bapo ke bare me socha jinke bete isi kasmir ghati ke updravyon ke hathon ka shikar hue hai or unke bachche anathon ki jindgi jee rahe hai ,aaj kashmir me updrav khatm kyon nahin ho raha iska mukhy karan hi musalmano ki adhik aabadi hona or unka rujhan bhi ap or ham sabhi jaante hai ki wahaan ke algaaw waadi netaa kyaa chaahte hai ,yadi ye sundar prdesh jise bhaarat kaa swarg kahaa jaataa hai yahaan pae hindu aabaadi adhik hoti to ye waastasv me ek swarg hi hotaa ,par ab to wo mrtyu lok se bhi badkar hai jahaan prtidin senkdon ki sankhyaa me log aatankwaadiyon ke dwaaraa maare jaa rahe hai or in aatankwaadiyon ko chori chhupe yaa dar se athwaa bhawnaatmak tour par yaa biraadri bhaiyon ke naate sah koun detaa hai ye aap bhi bhali bhaanti jaante hai ,wahaan ke baasindo ko sarkaa 2 rupye kilo me chaawal or 5 rupye kilo me cheenee di jaa rahi hai joki wastaw me desh ki any jantaa ke bhi khilaaf hai or iske baawjood bhi hamaare desh ki sarkaar ki haalat kyaa hai ,to aap se praarthnaa hai ki aap dono pahlooon ko dekhkar hi likhe to majaa aa jaayegaa .

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