हिसार "राईट टू रिजेक्ट" का नया चेहरा है। ऐसा चेहरा जिसमें मुद्दा महत्वपूर्ण था लेकिन उसे ढोने वाला कोई उम्मीदवार नहीं था। पहली बार उम्मीदवार को नहीं मुद्दों को जीतना या हारना था। यानी मुद्दे को वोट का पावर चाहिये था और कांग्रेस की जमानत जब्त होने के साथ ही वोट पावर के तौर पर भी उभरा। तो क्या हिसार के चुनावी संकेत अब जातीय या सांप्रदायिक चेहरे के आगे के अक्स देश को दिखा रहा है। या फिर हिसार के चुनाव परिणाम महज अण्णा का तुक्का है। क्योंकि जाट और जाट के बीच चौटाला जयप्रकाश पर भारी थे, यह हर कोई जानता था और जाट-गैर जाट के बीच चौटाला पर भजनलाल के बेटे विश्नोई भारी थे, यह भी हर कोई जानता था।
लेकिन जयप्रकाश समर्थक जाट झटके में चौटाला के साथ खड़ा हो जायेगा और विश्नोई को चौटाला बराबरी की टक्कर दे देंगे, यह कोई नहीं जानता था। लेकिन हिसार का मतलब जीत हार नहीं बल्कि जमानत जब्त मामला है। क्योंकि कांग्रेस के जयप्रकाश ने 2004 में तब यह सीट जीती थी, जब कांग्रेस भी माने बैठी थी कि उसकी सत्ता तो दूर कांग्रेसी वोट बैंक भी एनडीए की चकाचौंध में लगातार गुम हो रहा है। लेकिन हरियाणा की चाल बिलकुल केन्द्र के चुनाव के तर्ज पर चली। कांग्रेस केन्द्र में आयी तो हरियाणा में भी कांग्रेस आई। मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स तले देश ने 2009 में कांग्रेस के हाथ को सत्ता दिला दी तो हरियाणा के हुड्डा भी दुबारा जीत कर कांग्रेस की सत्ता बरकरार रख गये। लेकिन जिस दौर में मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स को लेकर ही सवाल उठ रहे हैं और भ्रष्टाचार तले विकास की कॉरपोरेट लूट का सवाल खड़ा हो रहा है, संयोग से उसी दौर में हरियाणा में हुड्डा की विकास थ्योरी को लेकर भी सवाल उठे हैं। हुड्डा ने भूमि अधिग्रहण को लेकर ज्यादा से ज्यादा मुआवजे की जो थ्योरी हरियाणा में परोसी है, उस थ्योरी को केन्द्र सरकार ही नहीं बल्कि कांग्रेस ने भी हाथों हाथ लिया है। और राहुल गांधी ने मुसीबत में फंसे हर किसान को हरियाणा मॉडल पर राज करने की जो नसीहत दी उससे नया सवाल अब यह निकल रहा है कि मनमोहन सिंह की खींची रेखा पर ही हुड्डा भी चले और कांग्रेस ने भी उसे ही अपने हाथ का जगन्नाथ माना।
लेकिन उदारवादी अर्थव्यवस्था की लकीर खींचते खींचते केन्द्र सरकार या उसी मॉडल को अपनाये राज्य सरकारे जब आम आदमी को पीछे छोड आगे निकलने लगी तो लोगो का आक्रोश ही अण्णा आंदोलन की सफलता भी बना और हिसार का बिना उम्मीदवार राजनीतिक प्रयोग कांग्रेस की जमानत जब्त भी करा गया। यह परिणाम बीजेपी को खुश कर सकता है। लेकिन बिना उम्मीदवार मुद्दे की जीत काग्रेस के लिये परेशानी का सबब है। क्योंकि कांग्रेस की सरकार केन्द्र में है और कांग्रेस का मतलब मनमोहन सिंह या काग्रेस संगठन नहीं बल्कि गांधी परिवार है। गांधी परिवार का मतलब एक ऐसा सियासी 'औरा' है जिसमें किसी भी राजनीतिक दल के किसी भी राजनेता की चमक गायब हो जाती है। ऐसे मौके पर गांधी परिवार अगर 2012 में यूपी होते हुये 2014 के केन्द्र की तैयारी कर रहा है और इसी मोड पर अण्णा का सवाल अगर उस राजनीतिक चकाचौंध को ही घूमिल कर देता है, जिसकी चकाचौंध में सत्ता की मलाई दिखाकर हर राजनीतिक दल बिना मुद्दे अपने अपने वोट बैंक को सहेजते हैं, तो फिर आने वाले दौर में गांधी परिवार को लेकर काग्रेस में क्या हडकंप हो सकती है, यह समझना जरुरी है। क्योंकि कोई मुद्दा अगर चुनाव मैदान में खड़े उम्मीदवार ही नहीं राजनीतिक दलो पर भी भारी पडने लगे तो फिर सियासत का रुख क्या हो सकता है, यह अब के हालात से भी समझा जा सकता है जब हर किसी के निशाने पर अण्णा की वही टीम है जिसके पास ना तो कोई संगठन है ना कोई राजनीतिक मंच है। ना ही राजनीतिक दलों जितना पैसा है। ना ही संसदीय राजनीति का कोई अनुभव है। एनजीओ से लेकर वकील और आईपीएस एधिकारी या नौकरशाही का अनुभव समेटे चंद ऐसे लोग हैं, जो झटके में मुद्दे के आसेर एक ऐसे राष्ट्रीय मंच की धुरी बन गये हैं जिसके चारो तरफ वह तमाम संगठन और राजनीतिक दल है, जिन्हें सत्ता चाहिये। और संयोग से सत्ता भोग रहे नेता हो या सत्ता की दौड में लगे नेताओ का जमघट, अधिकतर जब जनलोकपाल के कटघरे में खड़े हैं तो फिर आने वाले चुनाव में अण्णा मुद्दा गायब हो जायेगा ऐसा भी नहीं है। होगा क्या । कांग्रेस का सबकुछ दांव पर है। विपक्ष का कुछ भी दांव पर नहीं है। यूपी में भी हिसार के चौटाला और विश्नोई की ही तर्ज पर मुलायम सिंह और मायावती कटघरे में है। यानी जो जयप्रकाश हारने के बाद यह सवाल खड़ा करते हैं कि अण्णा के भ्रष्ट्राचार के खिलाफ की मुहिम में तो जीतने की दौड में भ्रष्ट ही आ गये। उसी तर्ज पर यूपी में तो समूची कांग्रेस ही कह सकती है कि जब आय से ज्यादा संपत्ति जैसे भ्रष्टाचार के मामले में मुलायम और मायावती दोनो फंसे हैं तो फिर काग्रेस के खिलाफ वोट डालने की मुहिम का मतलब कितना खतरनाक होगा यह अण्णा टीम को समझना चाहिये।
लेकिन बड़ा सवाल यही से निकलता है कि जिस रास्ते उदारवादी अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री ले जा चुके है, उसमें जब देश के आम लोगों का आस्तित्व नही बच रहा और सभी उपभोक्ता में तब्दिल हो चुके तो फिर संसदीय राजनीति पर लोगो का आक्रोश तो भारी पड़ेगा ही। और यही आक्रोश मुद्दा बन किसी को भी तब तक हरायेगा जब तक सत्ता के सरोकार लोगो से नहीं जुड़ेगे। और महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार खत्म करने के लिये राजनीतिक दल तकनीकी राजनीतिक भाषा की बिसात बिछाना छोडेंगे नहीं। यानी जबतक आमलोगो का भरोसा राजनीतिक सत्ता को लेकर डिगा रहेगा आक्रोश हिसार सरीखा ही परिणाम देगा, जिसका कोई राजनीतिक मकसद नही होगा। और चुनाव आयोग की पहल के बगैर ही राईट टू रिजेक्ट अपनी परिभाषा गढ़ लेगा।
sir ,
ReplyDeleteमाफ़ कीजिएगा लेकिन हिसार मे ज़मीनी मुद्दे कुछ और थे में नही समझता की वहाँ अन्ना फॅक्टर का कोई विशेष योगदान रहा है लेकिन उत्तर प्रदेश मे अन्ना हज़ारे का असर दिख सकता है पर जैसे के अपने लिखा भी है
अगर अन्ना कॉंग्रेस को वोट डालने के लिए माना करते है तो क्या मायावती या मुलायम को वोट दिया जा सकता है जबकि उनपर खुद भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे हैं
इस बार आपसे सहमत होना कठिन है प्रसून जी| हिसार मे पहले से पता था की कांग्रेस नहीं जीतेगी| आप बिना वजह बिशनोई की जीत का श्रेय अन्ना को दे रहे हैं| अन्ना के सहयोगियों ने बमुश्किल चार दिन प्रचार किया वह भी कुहहेक जगहों पर| उन्हें पहले ही मालूम था की नतीजा क्या होना है
ReplyDeleteअगर प्रवचनों से चुनाव जीता जाता, तो लोग 60 साल तक ऐसे लोगों को चुनते ही नहीं…अन्ना का असर चुनाव पर कुछ हो सकता है, लेकिन इतना नहीं कि लोग किसी और को सिर्फ़ अन्ना की वजह से चुन लेंगे…
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