Monday, December 31, 2012

जिन्हें नाज है हिन्द पर वह कठघरे में है


जिनके खिलाफ आवाज उठी वे ही अंतिम संस्कार में क्यों थे

हमने शीला दीक्षित को जंतर-मंतर आने से रोका। शीला दीक्षित अंतिम संस्कार में चेहरा दिखा आयीं। हमने मनमोहन सिंह की चकाचौंध व्यवस्था में खोते मानवीय मूल्यों के खिलाफ आवाज उठायी। मनमोहन सिंह खुद सिंगापुर से आये कौफिन में बंद लडकी को रिसीव करने पहुंच गये। हमने सोनिया गांधी को अंधी होती व्यवस्था के खिलाफ जगाने की कोशिश की तो हमें 10 जनपथ के बाहर का रास्ता दिखा कर लड़की के शव पर चंद आंसू बहाने सोनिया गांधी ही हवाई अड्डे पहुंच गयीं। हम नेताओं के तौर तरीके, मंत्रियों के सलीके और पुलिस की ताकत के खिलाफ एकजुट हुये तो नेता, मंत्री और पुलिस ही रात के अंधेरे में मानवीयता का गला घोंट कर सरोकार को दरकिनार कर अपनी मौजूदगी में लड़की का अंतिम संस्कार कर शांति बनाये रखने की अपील कर खुश हो गये। हम क्यों शरीक नहीं हो पाये अंतिम संस्कार में। हम क्या करें। हमें लगा इस व्यवस्था में जो जो दोषी हैं, उन्हें आम लोग एकजुट होकर कठघरे में खड़ा कर सकते हैं। लेकिन जिस तरह कठघरे में खड़ी व्यवस्था चलाने वाले ही जब पीड़ित लड़की को सफदरजंग से सिंगापुर भेजने का निर्णय लेते हैं और सिंगापुर से ताबूत में बंद लडकी के दिल्ली लौटने पर उसे श्रद्यांजलि देकर अपने होने का एहसास हमे ही कराते हैं, जैसे वह ना हो तो देश रुक जायेगा यह कब तक चलेगा।

यह जंतर-मंतर पर बैटरी से चलने वाले माइक से खामोशी में गूंजती ऐसी आवाज है जिन्हें सुनने के बाद करीब पांच से सात सौ लोगों के सामने यह सवाल खुद ब खुद खड़ा हो जाता है कि उनके विरोध का अब तक का तरीका सरकार-व्यवस्था के सामने कितना अपाहिज सा है। जो देश भर में बन रहे इंडियागेट या मुनीरका या जंतरमंतर से आवाज उठती है, वह मीडिया के जरीये समूचा देश देख तो लेता है लेकिन वह सिवाय भीडतंत्र से आगे क्यों निकल नहीं पाती। बड़े-बुजुर्ग ही नहीं बल्कि स्कूल कॉलेजों में पढ़ने वाले लड़के लड़कियां भी जिस शिद्दत से अपने गुस्से का इजहार कागजों पर स्लोगन लिखते हुये और बीच बीच में नारे लगाकर करते हैं, वह किसके खिलाफ है। जो पुलिस नाकाबिल निकलती है, वही पुलिस लड़की के शव की सुरक्षा में लगती है। जो पुलिस सड़क पर अपराधियों को पकड़ नहीं सकती, वही पुलिस इंडिया गेट और लुटियन्स की दिल्ली की सुरक्षा में लग जाती है। जो पुलिस आम आदमी के खिलाफ अन्याय को एफआईआर नहीं मानती वही पुलिस अपनी एफआईआर में इंडियागेट से लेकर जंतरमंतर तक खड़े अपने विरोध के स्वर को अन्याय मान लेती है। जो सरकार चकाचौंध दिल्ली में लुटती अस्मत को संयोग मान कर आंकड़ों तले दिल्ली को सुरक्षित और विकासमय होना करार देती है, वही सरकार अपने विरोध को दबाने के लिये विकास के पायदान पर खड़ी मेट्रो को बंद कर देती है। सत्ता की तरफ जाती हर सड़क पर आवाजाही रोकने के लिये रविवार के दिन भी खाकी का आतंक खुले तौर पर तैनात करने से नही कतराती। यह सारे सवाल जंतर मंतर की सड़कों पर सौ-सौ मीटर तक पड़े उन सफेद कैनवास में दर्ज हैं, जिसे अपने आक्रोश से हर बच्चे ने रंग रखा है। सफेद कागज रंगते रंगते हाथ थकते हैं तो खड़ा होकर कुछ ऐसे ही सवालों को हवा में उछालता है और गुस्से में किसी बुजुर्ग से पूछता है कि क्या आजादी इसी का नाम है। क्या इसी भारत पर नाज है। और सवालो के बीच उसी गुस्से में कोई पिता की उम्र का व्यक्ति जवाब भी देता है, करें क्या जो कुछ नहीं कर सकते वही नेता बन कर सरकार चला रहे हैं। नेता को पढ़ाई-लिखाई कर नौकरी के लिये संघर्ष तो करना नही है। जिन्हे जिन्दगी जीने के लिये संघर्ष करना पडता है उनके लिये सरकार का मतलब सिर्फ वोट डालना है। आवाज तो वोट के खिलाफ भी उठानी होगी। नहीं तो हमारा वोट और हमारी सरकार। हमारी सरकार और हमारी पुलिस। हमारी पुलिस और हमारा कानून।

तो फिर अपराधी भी तो हमीं हैं। यह सब बदलेगा कैसे। सवाल सुधार का नहीं है। हर तरीके को बदलने का है। नौवीं कक्षा की छात्रा हो या मिरांडा हाउस में पीजी की छात्रा। वह यह समझने को तैयार नहीं हैं कि जो उनके सवाल है वह सवाल सरकार के मन में क्यों नहीं रेंगते। क्या देश इतना बदल गया है कि दिल्ली में रहते हुये भी मंत्री और जनता की समझ एक नहीं रही। सरकार सड़कों पर खाकी वर्दी का खौफ दिखाकर हमें कानून सिखाना चाहती है। लेकिन कानून देश और समाज की सोच को खत्म कर कैसे चल सकता है। सरकार किस पर राज करना चाहती है। राजनीतिकशास्त्र या समाजशास्त्र नहीं बल्कि कैमिस्ट्री की पढाई कर रही दिल्ली विश्वविघालय की छात्रा के सवाल समाज की जरुरत को लेकर है। माइक हाथ में थामकर वह सीधे सरकारी तंत्र पर अंगुली उठाती है। फांसी से समाधान नहीं होगा। जो बलात्कारी हैं, उन्हें थाने से लेकर अदालत और अदालत से लेकर जेल ले जाने के दौरान चेहरे ढके क्यों गये। क्यों नहीं उनके चेहरे पूरे देश को दिखाये गये। बलात्कारी की बहन, मां, बेटी के सामने यह सवाल आना चाहिये और बलात्कारी के सामने भी यह सवाल आना चाहिये कि बलात्कार करने के बाद उसके अपनो का समाज में जीना मुश्किल होगा। सामाजिक बहिष्कार की स्थिति हर बलात्कारी के सामने होनी चाहिये। फांसी तो अपराध की सजा है । लेकिन जिस दिमाग और माहौल की यह उपज है, उसें समाज की एकजुटता ही रोक सकती है। लेकिन सरकार या नेताओ का नजरिया समाज को महत्व देना ही नहीं चाहता। वह हर अपराध के लिये कानून को देखता है। ऐसे में यह सवाल बार बार आयेगा कि कानून लागू करने वाला और लागू करवाने वाला अगर अपराधी निकलेगा तो फिर समाधान का रास्ता निकलेगा कैसे। तो फिर संसद के विशेष सत्र का भी मजलब क्या है, जिसकी मांग विपक्ष कर रहा है। सही कह रहे हैं। संसद की महत्ता के आगे समाजिक दबाव बेमानी रहे यह हर नेता चाहता है।
कानून तोड़ने पर पुलिस और अदालत काम करती है। लेकिन कानून बरकरार रहे इसके लिये सामाजिक माहौल होना चाहिये। और फिलहाल समाज से कोई सरोकार सरकार का तो नहीं है। सही है सिर्फ सरकार ही नहीं उस राजनीति का भी नहीं है जो सत्ता के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। किसी हद तक ना कहिये, संसद के भीतर तो अब अपराध करने वालों की पूरी फेहरिस्त है। 162 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले किसी ना किसी थाने में दर्ज हैं। लेकिन राजनीति में सभी माफ है। क्योंकि राजनीतिक आरोपों की छांव हर अपराधी को बचा देती है। यह सवाल जवाब चकाचौंध तो नहीं लेकिन पेट भरे आधुनिक स्कूल कॉलेजों में पढ़ रहे लड़के लड़कियो के सवाल हैं, जो आपस में संवाद बना रहे हैं । जंतर-मंतर की सड़क के दोनों किनारे पुलिस के जमावडे के बीच गोल घेरा बना कर बैटरी के माइक या बिना माइक ही चिल्ला चिल्ला कर अपने होने का एहसास करा रहे हैं। इन्हें डर लग रहा है कल से लोगों की तादाद भी कम होती जाये। लोग फिर ना भुल जाये। वह मीडिया से गुहार लगाते हैं, आप तो बोलिये जिससे लोग आते रहे। विरोध करते रहें। नहीं तो सरकार फिर कहेगी यह पिकनिक मनाने आये थे और हमें अपने लोकतंत्र पर नाज है।

Tuesday, December 25, 2012

देश को पिता नहीं पीएम चाहिये


जिस 72 घंटे इंडिया गेट पर युवाओं के आक्रोश को थामने के लिये पुलिस धारा 144 की दुहाई देकर लाठी भांजती रही, आंसू गैस के गोले दागती रही और पानी की धारा छोड़ती रही, उसी 72 घंटों के दौरान देश में करीब डेढ़ सौ बलात्कार की घटनाएं हुईं। जिस 12 घंटे जंतर मंतर पर युवा जुट कर बिखरता रहा। व्यवस्था से निराश होकर सरकार के तौर तरीके पर अंगुली उठाकर न्याय के हक का सवाल उठाता रहा, उसी 12 घंटो के दौरान भी देश में दो दर्जन से ज्यादा लड़कियो के साथ बलात्कार हुये। यह सरकार के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर घंटे दो बलात्कार होते ही हैं। तो फिर सवाल सिर्फ एक बलात्कार के दोषियों को सजा दे दिलाने का है या फेल होते सिस्टम में सरकारी व्यवस्था की हुकूमत दिखाकर पांच बरस की सत्ता को ही लोकतंत्र बताकर राज करने का है। ऐसे मोड़ पर अगर देश के प्रधानमंत्री यह कहे कि वह भी तीन बेटियों के पिता हैं तो यह देश भर के उन पिताओ का मखौल उड़ाने से हटकर और क्या हो सकता है जो बेटियों की असुरक्षा को लेकर गुस्से में हैं। देश को तो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री चाहिये। लेकिन प्रधानमंत्री ही नही गृहमंत्री भी जब तीन राष्ट्रीय न्यूज चैनलो पर बीस बीस मिनट के इंटरव्यूह में कई बार खुद को बेटियों का बाप बताते हुये युवाओं के आक्रोश के मर्म को अपनी निज भावनाओ के साथ जोड़कर समाधान करने लगे तो इससे ज्यादा बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है।

त्रासदी इसलिये क्योंकि रास्ता अंधेरे में ही गुम होने की दिशा में जा रहा है। सत्ता का सुकून व्यवस्था बनाने या चलाने के बदले खुद को सत्ता की मार तले पिता और परिवार की भावनाओ में तब्दील करने पर आमादा है। सत्ता के तौर तरीके सत्ता चलाने वालो से बड़े हो चुके हैं। इसलिये सत्ता पाने की होड़ में सत्ताधारियों की कतार आम आदमी के मन से ना जुड़ पा रही है और ना ही युवा के उस आक्रोश को समझ पा रही है जो बलात्कार
की एक घटना के जरीये बिखरते देश की अनकही कहानी इंडिया गेट से लेकर जंतरमंतर और विश्वविद्यालयों के सेमिनार हाल से लेकर नुक्कड तक पर लगातार कह रहा है। प्रधानमंत्री को चकाचौंध भारत चाहिये। गृहमंत्री को चकाचौंध भारत के रास्ते की हर रुकावट गैरकानूनी हरकत लगती है। और दिल्ली की सीएम के लिये दिल्ली का मतलब रपटीली सड़क। दौड़ती भागती जिन्दगी। और मदहोश रंगीनी में खोया समाज है। यानी किसी भी स्तर पर उस युवा मन की कोई जगह नहीं जो भविष्य के भारत में अपनी जगह अपने हुनर से देखे। अपने हुनर को देश के लिये संवारते हुये सुरक्षा और मान्यता की गुहार लगाने के रास्ते में भी जब आवारा सत्ता की चकाचौंध ही है, तो फिर वह इंडियागेट या जंतर-मंतर छोड कर लौटे कहा। यह सवाल जेएनयू और आईआईटी के छात्रों के ही नहीं बल्कि हर उस युवा के है जो पत्थर फेंक कर, प्लेकार्ड लहरा कर, नारों से माहौल गर्मा कर न्याय और हक के सवाल को अपनी जिन्दगी से जोड़ रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित तक के लिये गद्दी के बरकरार रखने की जमीन अगर समाज की असमानता, मुनाफे के धंधे की नीतियों और उपभोक्ता की चकाचौंध में सबकुछ झोंकने से बनेगी तो इसे बदलने की हिम्मत दिखायेगा कौन। और गद्दी का मतलब ही अगर ऐसे समाज को बनाये रखना हो जाये तो फिर सत्ता की दौड़ में शरीक राजनेताओ की फौज में अलग रंग दिखायी किसका देगा।

शायद सबसे बडी मुश्किल यही है जो राजनीतिक शून्यता के जरीये पहली बार हर उस युवा को भी अंदर से खोखला बना रही है कि उसके आक्रोश का जवाब किसी सत्ता के पास है क्यों नहीं। 2009 में सत्ता में मनमोहन सिंह के लौटने के पीछे साढ़े चार लाख करोड के भारत निर्माण की योजना थी। और 2014 के लिये मनमोहन सिंह के पास तीन लाख बीस हजार करोड़ के नकद ट्रांसफर की योजना है। यही लकीर दिल्ली की सत्ता के लिये रपटीली रास्तों को भी तैयार कर रही है। क्योंकि शीला दीक्षित के लिये भी 2013 के चुनाव में सत्ता बरकरार रखने का मतलब पांच हजार करोड़ की वह सड़क और चकाचौंध योजना है, जिसके बाद दिल्ली चमकेगी और चौथी बार शीला सरकार की दीवानी दिल्ली की जनता होगी। इस रास्ते देश का निर्माण किसके लिये कैसे होगा यह कोई दूर की गोटी नहीं है। दस बरस पहले भी दिल्ली में बलात्कार की तादाद देश में सबसे ज्यादा थी और दस बरस बाद भी यानी 2012 में भी दिल्ली महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार के मामले में टॉप पर है। 2003-04 में बलात्कार के 362 मामले दिल्ली में दर्ज किये गये और 2011-12 में 312 बलात्कार के मामले दिल्ली में दर्ज हुये। दिल्ली में प्रति लाख व्यक्तियो पर अपराध का ग्राफ अगर 385.8 है तो देश में यह महज 172.3 के औसत से है। दिल्ली में अगर 2001 में 143795 मामले महिलाओं के खिलाफ अपराध के तौर पर दर्ज हुये तो 2011-12 तक आते आते इसमे 12 फीसदी की बढोतरी ही हुई है। लेकिन इन रास्तों को नापने या थामने के जरुरत सत्ताधारियो के लिये अगर सत्ता में बने रहने के लिये ही हो जाये तो कोई क्या कहेगा। यह सवाल इसलिये क्योंकि जिन रास्तो को देश और समाज की जरुरत सत्ता मानती है उसमें अपराध विकास की जायज जरुरत बना दी गई है। जरा इसकी बारीकी को समझे । दिल्ली में दस बरस पहले जितने मामले पुलिस थानों में पहुंचते थे उसको निपटाने के लिये औसतन 18 फीसदी मामलों में सत्ताधारी या पावरफुल लोगों की
पैरवी आती थी। लेकिन 2012 में जितने मामले थानो में पहुंचते हैं, उसे निपटाने के लिये औसतन 65 फीसदी मामलों में किसी मंत्री, किसी नेता या किसी हुकूक वाले शख्स की पैरवी हर थाने में पहुंचती है। यानी सिर्फ 35 फीसदी मामले ही पुलिस अपने मुताबिक सुलझाती है। या यह कहें कि दिल्ली में अगर कोई अपराध किसी नेता, मंत्री या पैसे वाले के करीबी से हो जाता है तो न्याय पावरफुल पैरवी के आधार पर काम करता है। वहां कानून या ईमानदार पुलिस मायने नहीं रखती। यानी पुलिस अगर चाहे तो भी ईमानदारी से काम कर नहीं सकती क्योंकि पुलिस की सूंड और पूंछ दोनो सत्ता के गलियारे में गुलामी करती है। और इसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि जो दिल्ली पुलिस देश के गृह मंत्रालय के अधीन है और इंडिया गेट पर जिस पुलिसिया कार्रवाई को लेकर पुलिस आयुक्त के तबादले के कयास लगने लगे हैं। उस दिल्ली पुलिस में 29 फीसदी तबादले नेताओं या मंत्रियो की पैरवी के पक्ष या विरोध को लेकर होते हैं।

दिल्ली पुलिस पर गृह मंत्रालय के नौकरशाहों की फाइलें कहीं ज्यादा भारी है जो नेताओ के इशारे पर चिड़िया बैठाने का काम करती हैं। इस कतार में कास्टेबल से लेकर आईपीएस सभी नेताओ के इशारे पर कदमताल कैसे करते हैं यह पावरफुल पुलिसकर्मियों के मोबाइल काल्स की डिटेल भर से पता लग सकता है कि किसके पीछे कौन है। लेकिन युवाओं के आक्रोश की वजह सिर्फ लंगडी होती व्यवस्था भर नहीं है। बल्कि व्यवस्था के नाम पर विकास और चकाचौंध की आवारा इमारत को खड़ा करने की वह मानसिकता है, जिसमें जेब हर दिमाग पर भारी हो चला है। पास में पैसा है तो पढ़ाई से क्या होगा। साथ में पावरफुल लोगो की जमात है तो डिग्रियों से क्या होगा। और अगर सत्ता की हुकूक ही साथ खड़ी है तो फिर अपराध करने के बाद सजा कौन दिलायेगा। क्योंकि पिछले बरस ही दिल्ली के थानो में दर्ज महिलाओं से छेड़छाड़ से लेकर अपराध के 167 एफआईआर पर कार्रवाई के तरीके बताते हैं कि आरोपी इसलिये छूटे या मामला इसलिये रफा-दफा हो गया क्योंकि पैरवी वीवीआईपी की तरफ से हुई। और यह वीवीआईपी उसी कतार के लोग हैं, जिनकी सुरक्षा में दिल्ली पुलिस जी जान से लगी रहती है। और आम नागरिक सड़क पर लुटता रहता है। इस लूट की समझ का दायरा दि्ल्ली में कैसे लगातार व्यापक हो रहा है, यह इससे भी समझा जा सकता है दस बरस में जिन्दगी की न्यूनतम जरुरतो की परिभाषा तक बदल दी गई है। जो पानी, बिजली, सफर और पार्किंग कमाई के हिस्से में सबसे न्यूनतम हुआ करते थे। अब वह सबसे ज्यादा हो चले हैं। यानी दिल्ली में जीने का मतलब न्यूनतम जरुरतों के जुगाड़ की ऐसी भागमदौड़ है, जहां रुक कर सांस भी ली और इंडियागेट या जंतर मंतर पर नारे लगाने के लिये भी रुके थमे तो घाटा हो जायेगा। और मनमोहन सिंह से लेकर शीला दीक्षित तक की व्यवस्था मुनाफा बनाने की है। घाटा उठाने की नहीं है । तो सरकार पहली बार इसलिये भौचक्की है कि उसने तो ना ठहरने वाली ऐसी व्यवस्था बनायी है, जिसमें कोई दर्द का जिक्र ना करे। और अब युवा ठहर कर सड़क से सरकार को आवाज लगा रहा है तो देश के प्रधानमंत्री को कहना पड़ रहा है कि वह भी तीन बच्चियों के पिता हैं।

Monday, December 24, 2012

बेमकसद देश के सामने मकसद खोजता राजपथ पर युवा


कड़क ठंड, पानी की धार, आंसू गैस ,बरसती लाठियां और लहुलूहान युवा। यह नजारा राजपथ का है। वही राजपथ जिस पर 26 जनवरी को गणतंत्र देश की गाथा दिखाने की तैयारी शुरु हो चुकी थी। तिरंगा लहराने के लिये राजपथ की लाल बजरी के दोनों किनारे लकड़ी गाढ़ी जा चुकी थी। राजपथ के दोनो तरफ गणतंत्र दिवस पर गर्व के साथ देश के गुणगाण करने वाली झांकियों को देखने के लिये लोहे और लकड़ियों की सीटों को लाया जा चुका था। लेकिन युवाओं के हाथो में लहराते प्लेकार्ड और जुबान से निकलते नारो ने जैसे जैसे हक और न्याय के सवालों को खड़ा करना शुरु किया वैसे वैसे सत्ता ने लोकतंत्र की परिभाषा बदलनी शुरु की। जैसे जैसे मकसद खोजता युवा बेमकसद व्यवस्था को कठघरे में खड़ाकर हमलावर होने लगा वैसे वैसे पुलिस-प्रशासन और राजनेता खुद को अपाहिज महसूस करने लगे। पानी की धार ने युवाओ को भिगोया तो तिरंगा लहराने वाली लकड़ियों को आग के हवाले कर युवाओ ने खुद में गर्मी पैदा की। आंसू गैस और लाठियों ने युवाओं को घायल किया तो नारों और गीतों के आसरे अपने जख्मों को मकसद मान कर और कहीं ज्यादा तल्खी और तेजी से खुद को आगे के संघर्ष के लिये तैयार करने में हर युवा लगा।

हर नये चेहरे हर चेहरे को अपने लगने लगे। गाजियाबाद के लोनी की 21 साल की मीना से लेकर गुड़गांव के हुड्डा चौक का 22 वर्षीय राजीव और फरीदाबाद की सलोनी से लेकर दिल्ली के डिफेन्स कॉलोनी के राघव पहली बार मिले लेकिन सभी के सुर एक। हक के सवाल एक। और न्याय की गुहार एक। सभी के मकसद भी एक। तो फिर रास्ता राजपथ का हो या जनपथ का। एक तरफ इंडिया गेट हो या 180 डिग्री में दूसरी तरफ राष्ट्रपति भवन। आमने सामने देश को चलाने वाले नार्थ-साउथ ब्लाक की कतार हो या संसद पर लहराता तिरंगा। हर युवा को यह सभी देश के होकर भी अपने नहीं लग रहे। कम्यूटर साइंस की छात्रा मोहिनी इन लाल इमारतो में अगर दफन होते अपने भविष्य को देख रही है तो जेएनयू के राकेश को लग रहा है कि सभी इमारतें उसे चिढ़ा रही हैं। हर युवा मन में ढेरों सवाल हैं। कोई युवा मीडिया के कैमरों के सामने नपी-तुली भाषा में अपने सवालों को रखने के लिये प्रशिक्षित नहीं है तो उसके आक्रोश की भाषा भी अलग है। कहीं नारो में तो कहीं गुस्से में हक की मांग, न्याय की गुहार यह समझ नहीं पा रही है कि ऐसा उन्होंने क्या मांग लिया जो सरकार की बात की जगह बेबात का पुलिसिया रंग उन्हें अपने रंग में रंगने की बार बार तैयारी करता है। बीते 48 घंटो में 18 बार लाठियां चली। सौ से ज्यादा आंसू गैस के गोले छूटे। तीन सौ पुलिसकर्मियों ने हजारों युवाओ को बसों में उठा-उठा कर भरा। छह गाडियों ने कड़क ठंड में 21 बार पानी की धार मारी। लेकिन हर बार कुछ नये चेहरे हक के सवालों को नये अंदाज में लेकर राजपथ पर कदम-ताल करने के लिये जुड़ते चले गये। मकसद पाने की तालाश में घायल होने के लिये को तैयार दिखे। राजपथ के दोनो किनारे डीयू, जामिया और जेएनयू ही नहीं बल्कि यूपी और हरियाणा के अलग अलग कॉलेजों में पढ़ रहे छात्रों के जमगठ लगातार नारे और हंगामे के बीच जिन सवालों का जवाब पाने के लिये बैचेन दिखे, वह देश के बेमकसद भविष्य को आइना
दिखाने के लिये काफी हैं। दिल्ली की टी-3 हवाई अड्डे के कुल खर्चे के महज दस फीसदी से समूची दिल्ली कैमरे के जरीये सुरक्षा घेरे में लायी जा सकती है फिर यह संभव क्यों नहीं है। चाणक्यपुरी और लुटियन्स की दिल्ली की सुरक्षा के बराबर बाकि समूची दिल्ली जो वीवीआईपी दिल्ली से एक हजार गुना बड़ी है, उसकी सुरक्षा एक बराबर कैसे हो सकती है।

दिल्ली में हर दिन 20 हजार गाड़ियों का रजिस्ट्रेशन होता है और इस खर्चे के आधे में दिल्ली पुलिस हर तरह से सुरक्षा दायरा मजबूत कर सकती है। फिर यह क्यों नहीं हो पाता। जो बारह हजार पुलिस कर्मी वीवीआईपी सुरक्षा में लगे हैं, उनकी तादाद से महज 15 फीसदी ज्यादा सुरक्षाकर्मी समूची दिल्ली की सुरक्षा कैसे कर सकती है। जबकि वीवीआईपी सिर्फ 575 के करीब हैं और आम लोग सवा करोड़। दिल्ली पुलिस
के सामानांतर निजी सुरक्षा का खर्च सिर्फ दिल्ली में तीन सौ गुना ज्यादा है। जबकि निजी सुरक्षा के घरे में दिल्ली के सिर्फ 2 लाख लोग ही आते हैं । यह ऐसे सवाल हैं, जो बलात्कार के सवाल को कहीं ज्यादा तल्खी के साथ मौजूदा व्यवस्था के बेमकसद होने से जोड़ते है और इन सवालों के आसरे युवाओं की टोली अपने अपने घेरे में यह सवाल करने से नहीं चूकती कि आईएएस और आईपीएस होने के बाद क्या राजपथ पर मौजूद पुलिसकर्मियों और नार्थ-साउथ ब्लॉक में बैठे नौकरशाहों की तरह काम करना पड़ेगा। तो क्या हक और न्याय के सवाल राजनेताओं के गुलाम है। या सत्ता की सहुलियत ही लोकतंत्र है। बेचैन करने वाले यह सवाल उन्हीं युवाओं के हैं, जिनके हाथो में हक मांगते प्ले कार्ड हैं। नारो की गूंज के बीच खुद को घायल करने की तैयारी है। और भविष्य में किसी प्रोफेशनल की तर्ज पर काम करने की लगन के साथ साथ यूपीएससी की परीक्षा पास करने का जुनून भी है। लेकिन आईपीएस या आईएएस होने के बाद भी अगर राजपथ खड़े होकर सत्ता के गाल बजाना है तो फिर लाल इमारतों में बंद व्यवस्था को बदलने की दिशा में कदम क्यों ना बढ़ाये जायें। नवीन जेएनयू के एसआईएस का छात्र है। पांव घायल है। आंसू गैस का गोला पांव के पास फटा। लंगडाकर चल रहा है । लेकिन लौटने को तैयार नहीं है। लौट कर कहां जाये। यूपीएससी की पिछली परीक्षा में कैंपस के 32 लड़के पास हुये। 16 छात्र आईएएस तो 11 छात्र आईपीएस होंगे। वह नौकरी शुरु करेंगे तो उन्हें भी देश के किसी ना किसी हिस्से में ऐसी ही किसी राजपथ पर खड़े होकर सत्ताधारियों की व्यवस्था को चलाना होगा। मैं भी कल आईएएस हो गया तो मुझे भी यही करना होगा। तो क्यो ना इस बार सरकार की नीयत को परख लिया
जाये। शकील को तो सरकार की नीयत में ही खोट नजर आता है। युवाओं की उर्जा को खपाने का इससे बेहतर तरीका सरकार के पास है भी नहीं। जिन्दगी गुजारने या बिताने के लिये युवा के पास है ही क्या। तो ऐसे ही आंदोलनों के जरीये सरकार अपने होने और युवाओं के होने को आजमाती है। नहीं तो देश में कौन होगा जो बलात्कारी को तुरंत सजा दिलाने में देरी करे। कहीं ज्यादा गुस्से में डीयू की सुष्मिता है। सवाल सुरक्षा का नहीं,सवाल सुरक्षा को भी सत्ता के हंटर की गुलामी करके चलनी पड़ रही है। साथ में सत्ता ना हो तो कोई सुनता ही नहीं। कहीं मंत्री तो कहीं पैसा। यह ना हो तो कोई सुनता ही नहीं। अगर यही सत्ता है और सुरक्षा या कानून सिर्फ सत्ता के लिये है तो हम राजपथ का नाम बदल कर ही लौटेंगे। लेकिन राजपथ पर महीने भर बाद ही देश का गणतंत्र होने के सपने को जीना है तो पुलिस फिर उसी लाठी,आंसू गैस और पानी की धार के तले सफाई में लगी है। उसे राजपथ साफ चाहिये।

Sunday, December 23, 2012

इस चुनावी जीत को क्या नाम दें


भ्रष्टाचार, महंगाई, घोटाले, कालाधन से लेकर कारपोरेट, नौकरशाही और सत्ताधारियों के नैक्सस और इन सब के बीच कभी कोलगेट तो कभी राबर्ट वाड्रा, कभी अंबानी। यानी जिस कांग्रेस को लेकर यह माना गया कि वह देश को बेच रही है, गवर्नेंस फेल हो रही है, खनिज संसधानों के राजस्व तक की लूट हो रही है और यह सब कांग्रेस सरकार की नीतियों के तहत हो रहा है और इसे खुले तौर पर संसद से लेकर सड़क तक पर भाजपा चिल्ला चिल्ला कर रखती है। इतना ही नहीं देश के सामने यह आवाज लगाती है कि कांग्रेस ने सत्ता में रहने का हक खो दिया है। वही कांग्रेस हिमाचल प्रदेश चुनाव में ना सिर्फ जीतती है बल्कि सत्ताधारी भाजपा को बडे अंतर से हराती है। जनता का यह फैसला किसके लिये है। जबकि भाजपा के सबसे माहिर चुनावी खिलाडी अरुण जेटली हिमाचल प्रदेश के प्रभारी थे। लगातार वह राबर्ट वाड्रा से लेकर वीरभद्र सिंह के घोटालो की तह में जाकर ना सिर्फ दस्तावेजी सच को हिमाचल प्रदेश में ही मीडिया के जरीये रख रहे थे बल्कि केन्द्र सरकार की रसोई गैस की राशनिंग सरीखी जनविरोधी नीतियों को भी उठा रहे थे लेकिन फैसला फिर भी भाजपा के ही खिलाफ गया। तो फिर इसके संकेत कांग्रेस के हक के निकाले जाये या भाजपा के भीतर की शून्यता के समझे जाये। राजनीतिक तौर पर कांग्रेस और भाजपा यह कहते हुये अपने अपने तर्क गढ़ सकती है कि नीतियां सही थीं या फिर नीतियों के असर को भाजपा सही तरीके से रख नहीं पायी। भाजपा टिकटों के दावेदारों पर भी अंगुली उठा रही है और आपसी झगड़ों को भी हार की वजह मान रही है। लेकिन सच कहीं ना कहीं भाजपा और संघ परिवार के भीतर लगे घुन का है। क्योंकि घोटालों की फेहरिस्त भी जब बेअसर हो जाये। जनविरोधी नीतियां भी जब चुनावी हार के बदले जीत में बदल जाये तो पहली बार जनता के संकेत साफ है कि भाजपा के पास कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं है और आरएसएस के पास देश के लिये कोई एजेंडा नहीं है। यानी मौजूदा वक्त में सत्ता जिसकी रहेगी, वह घोटालों और भ्रष्टाचार या महंगाई या कारपोरेट लूट को रोक नहीं पायेगा। जरुरी है कि इन्हें रोकने की आवाज उठाने के साथ साथ देश की जरुरत बना दी गई इस व्यवस्था की बिसात को बदलने की सोच भी साथ चले। और भाजपा या संघ परिवार के पास यह सोच है नहीं तो पहला संकट तो संघ और भाजपा के संगठन का है।

सवाल यह नहीं है कि चुनावी जीत से कांग्रेस की नीतियों को मान्यता मिल जाती है या फिर जिस तरीके से समाज में मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों की वजह से असमानता बढ़ी है, उसे कांग्रेस की चुनावी जीत समाज और देश की जरुरत करार दें । सवाल यह है कि कांग्रेस जिस रास्ते देश को ले जा रही है, उसके विकल्प के तौर पर भाजपा के पास क्या है और विरोध के तौर तरीके से इतर संघ परिवार के पास भी अपने  राजनीतिक स्वयंसेवक के शुद्दिकरण के रास्ते क्या है। यह सवाल अब इसलिये बड़ा है क्योंकि संसदीय राजनीति का मापक यंत्र अगर चुनाव है तो फिर चुनावी जीत को लोकतंत्र का सेहरा और जनहित का फैसला मानना ही होगा। क्योंकि कोई राजनीति इस बिसात को उलटने के लिये तैयार नहीं है कि सोशल इंजीनियरिंग का मतलब विकास और आर्थिक नीतियों के साथ साथ वोट बैंक की सियासत से ही नही बल्कि यह देश सामाजिक-आर्थिक वातावरण और जीने के तरीके से भी जुड़ा है। और इस दायरे में राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र से देश का घोषणपत्र यानी संविधान ही मटियामेट हो रहा है। सवाल यह नहीं है कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये समाजवादी पार्टी उसे सांप्रदायिक बताकर कांग्रेस के साथ खड़ी हो जाती है और जब बात नौकरी में प्रमोशन को लेकर आरक्षण की आती है तो समाजवादी पार्टी और भाजपा एक साथ खड़ी दिखती हैं लेकिन सत्ता कांग्रेस की ही बरकरार रहती है। सवाल यह है कि राजनीतिक सत्ता बरकरार रखने के लिये या फिर सत्ता पाने के लिये की जोड़तोड़ ही देश की तमाम नीतियों को जब परिभाषित कर रही हो तब चुनाव को लेकर एक आम आदमी क्या करें। अगर हर आम आदमी के सामने लोकतंत्र का मतलब चुनाव में जीत हार है और राजनीतिक दल सत्ता के लिये खुले तौर पर इसी लोकतंत्र को पारदर्शी बनाने के लिये सत्ता के लिये ही नीतियां या नीतियों का विरोध बताते हैं तो फिर देश का मतलब सत्ता से इतर क्या होगा। और अगर सत्ता ही देश है यानी सत्ता जो कहे, जो करे उसे देशहित करार देना ही है तो फिर विरोध का मतलब क्या होगा। अगर चुनावी तंत्र के लोकतंत्र तले सत्ता के विरोध का मतलब देखें तो यह राजनीतिक स्टंट भी है और खुद को सत्ता में लाने के लिये चुनी गई सरकार के विरोध की राजनीति करना। लेकिन नीतियों को लेकर कोई सत्ता के निर्णयो पर यह कहकर अंगुली उठाये कि वह चुनावी रास्ते के आसरे नहीं बल्कि आम जनता को इसके लिये तैयार करेगा कि सत्ता का हर निर्णय देशहित का नहीं होता बल्कि सत्ता के ज्यादातक निर्णय सत्ताधारी के खुद को सत्ता में बनाये रखने के तानेबाने का है।

जाहिर है संघ परिवार की यही ट्रेनिंग गायब हो चली है। यानी जो आरएसएस कल तक सामाजिक शुद्दिकरण पर जोर देती थी और उसी शुद्दिकरण के दायरे में उसके अपने राजनीतिक स्वयंसेवक तैयार होते थे जब वही स्वयंसेवक भी मान चुके है कि राजनीतिक ट्रेनिंग का मतलब संसदीय राजनीति की बिसात पर ही चलकर सत्ता तक पहुंचना है तो फिर सवाल कांग्रेस के विकल्प या मौजूदा वक्त में मनमोहन सिंह के आर्थिक नीतियों के विकल्प को बनाने की मशक्कत का कहां बचेगा। यानी विकल्प का रास्ता चुनावी तंत्र में शरीक होकर तभी बनाया जा सकता है, जब चुनाव लड़ने के तरीके बदल दिये जाये। क्योंकि तरीके बदले बगैर सत्ता की भाषा उसकी नीतियां सत्ताधारियों से हटकर हो नही सकती है और भाषा या नीतियां अगर सत्ता की एक सी है तो फिर सत्ता में राजनीतिक दलों के बदलने से आम आदमी पर असर भी कुछ नहीं पड़ेगा। असल में हिमाचल प्रदेश के चुनावी परिणामो के संकेत यही है कि सत्ता में कांग्रेस रहे या भाजपा । दिल्ली में सत्ता किसी की रहे लेकिन सामाजिक-आर्थिक वातारण पर असर बदलेगा नहीं। जीने के तौर तरीको में संघर्ष या आराम की परिभाषा आम आदमी और सत्ताधारियों के बीच जस की तस रहेगी । असल सवाल यही से खड़ा होता है कि चुनावी जीत-हार या सत्ता के तौर तरीकों पर चुनावी परिणाम से असर नहीं पड़ता है तो फिर राजनीतिक दलों के सत्ताधारियों के जीवन पर भी जीत हार का असर क्या पड़ता होगा। हिमाचल में भ्रष्टाचार में गोते लगाने वाले वीरभद्र सिंह जीते या फिर प्रेमकुमार धूमल की सत्ता तले भाजपा की युवा पौघ संभाले अनुराग ठाकुर का राग क्रिकेट के धंधे को संभालने वाला हो और वह हार जाये। केन्द्र में कांग्रेस के पास कारोबारियों का हित साघने वाले मनमोहन सिंह की इकनॉमिक्स हो या भाजपा के पास कारोबारी अध्यक्ष गडकरी हो । 10 जनपथ की कोटरी कांग्रेस और सत्ताधारी कांग्रेस के जरीये देश को चलाये या फिर भाजपा में दिल्ली की संसदीय दल की कोटरी अपने इशारों पर भाजपा के कैडर को कदमताल कराये या स्वयंसेवकों को राजनीति का पाठ पढ़ाये। दोनो में अंतर क्या है। खासकर आम आदमी के लिये अंतर क्या होगा, सत्ता में कोई रहे या जाये। या फिर सत्ताधारियों पर असर क्या पड़ेगा, उनकी सत्ता जाये या बनी रहे । मुश्किल यही है कि जिस आजादी के आसरे संविधान ने जीने के तरीके बताये उसी आजादी को सत्ता की गुलामी तले दबाकर संविधान की व्याख्या भी सत्ताधारियों के लिये की जा रही है। और उसे लोकतंत्र मान लिया गया है। इस परिभाषा को बदल वही सकता है, जिसके पास वाकई सामाजिक शुद्दिकरण का हुनर हो। जिसके पास सत्ता को जनता की जमीन पर ला पटकने का हुनर हो । जो चुनाव को जिन्दगी जीने की जद्दोजहद से जोड़ कर देखने की मजबूरी को बदल दें । जो राजनीतिक सत्ता की ताकत को आमआदमी की एकजुटता से चुनौती दे सके। यानी जो सत्ता पर टिके रहने की नीतियों से लेकर सत्ता पाने के लिये बनाने वाली नीतियों से इतर जनतंत्र को परिभाषित करें। यानी सत्ता की ताकत चुनावी जीत-हार के राजनीतिक मंच से हटकर विकसित हो तभी आम आदमी की महत्ता है। नहीं तो भ्रष्ट नौकरशाह हो या
राजनेता या फिर कारपोरेट समूह या इस धंधे को चौथी निगाह से देखना वाला मीडिया तंत्र। आरोप भी उसी पर लगेंगे और हर आरोप के बाद ताकत भी उसी की बढ़ेगी। आम आदमी के हाथ सिर्फ चुनावी जीत-हार ही आयेगी।

Thursday, December 13, 2012

भाजपा का संकट


एफडीआई ही नहीं हर उस मुद्दे पर संसद के भीतर भाजपा अकेले पड़ी है, जिस मुद्दे पर मनमोहन सरकार पर संकट आया है। महंगाई हो या भ्रष्टाचार,कालाधन हो या एफडीआई, ध्यान दें तो सड़क पर चाहे हर राजनीतिक दल भाजपा के साथ खड़ा नजर आता है लेकिन संसद के भीतर एनडीए के बाहर यूपीए का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की जुबान पर एक ही राग रहता है सांप्रदायिकता। यानी भाजपा सांप्रदायिक है और सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के लिये मौजूदा सरकार ही चलेगी। चाहे उसकी नीतियां जनविरोधी क्यों ना हो।

तो क्या भाजपा का सांप्रदायिक रंग एक ऐसा राजनीतिक नारा बन चुका है जो सीधे चुनाव में असर करता है और कोई राजनीतिक दल भाजपा के साथ खड़े होकर अपनी राजनीतिक जमीन में सेंघ लगाना नहीं चाहता है। सीधे कहें तो जवाब हां ही होगा। क्योंकि देश के 18 करोड़ मुस्लिमों को लेकर चुनावी जवाब सीधा है कि वह खुले मन से भाजपा के पक्ष में जा नहीं सकते और भाजपा के साथ खड़े होकर कोई दूसरा राजनीतिक दल अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बचा नहीं सकता । तो क्या वाकई भाजपा सांप्रदायिक है। या फिर इस राजनीतिक नारे को खत्म करने के लिये भाजपा तैयार नहीं है,क्योंकि उसकी जड़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है।

जाहिर है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा अलग हो नहीं सकती तो क्या सांप्रदायिकता के नाम पर कांग्रेस को हमेशा राजनीतिक लाभ मिलता रहेगा। या कहें भाजपा इस मिथ को तोड़ नहीं सकती कि वह भी राष्ट्रीय
राजनीतिक दल है, जिसे सांप्रदायिकता के आधार पर अछूत करार देना महज राजनीतिक चुनावी समीकरण है। जाहिर है यह मिथ टूट सकता है। लेकिन इसके लिये भाजपा को जो मशक्कत करनी होगी क्या वह इसके लिये तैयार है। यह सवाल इसलिये क्योंकि भाजपा का उदय विकल्प के तौर पर हुआ। हेडगेवार ने आरएसएस को 1923-24 में जब बनाने की सोची तब वह कांग्रेस छोड़ कर संघ को बनाने में जुटे। जनसंघ को बनाने का विचार श्यामाप्रसाद मुखर्जी के जेहन में कांग्रेस के विकल्प को तौर पर आया। जबकि आजादी के बाद 1947 में जवाहर लाल नेहरु की अगुवाई में जो 14 सदस्यीय कैबिनेट देश चला रही थी, उसमें श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी थे। यानी ध्यान दें तो आरएसएस हो या जनसंघ से भाजपा तक सभी विकल्प बनाने के लिये बने। फिर देश की आजादी के बाद 65 बरस में कुल जमा महज बीस बरस ही रहे होंगे, जब देश के किसी राज्य या दिल्ली की सत्ता में कोई स्वयंसेवक रहा। लेकिन बीते 65 बरस में शायद ही कोई चुनाव होगा जब सांप्रदायिकता का सवाल वोट बैंक को बांटने वाला ना रहा हो।

जाहिर है यहां यह सवाल खडा हो सकता है कि क्या सांप्रदायिकता संघ के रास्ते से निकलते हुये भाजपा की भी जरुरत बन चुकी है। क्योंकि उसके पास कोई विकल्प नहीं है । विकल्प सिर्फ राजनीतिक तौर पर ही नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक तौर पर भी भाजपा के पास वैकल्पिक सोच बची नहीं है। यह मुद्दा इसलिये बड़ा है क्योंकि राजनीतिक तौर पर भाजपा के तौर तरीके साफ बताते है देश के किसी भी ज्वलंत मुद्दों को लेकर देश को किस राह पर चलना चाहिये उसके लिये उसके राजनीतिक समीकरण अगर कांग्रेसी सोच से आगे बढ़ नहीं पाते तो हिन्दुत्व का ऐसा रंग अपने साथ ले लेते हैं कि उसे सांप्रदायिक करार देना सबसे आसान काम हो जाता
है। मसलन एफडीआई यानी विदेशी निवेश का विरोध भाजपा करती है। लेकिन जरा सोचिये अगर भाजपा एफडीआई से होने वाले नुकसान के सामानांतर उस अर्थव्यवस्था के खांके को रख पाती जो देश की मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों के लिये विदेशी निवेश का विकल्प बन जाता तो क्या कोई राजनीतिक दल यह कह सकता था कि सांप्रदायिक ताकत को सत्ता से बाहर रखने के लिये उसे जनविरोधी एफडीआई का समर्थन करने वाली मनमोहन सरकार के साथ खड़ा होना पड़ रहा है। भाजपा शासित राज्यों का ही हाल देख लें। भाजपा को जिन तीन राज्यों पर सबसे ज्यादा गुमान है वह गुजरात,छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश हैं। गुजरात की अर्थव्यवस्था की जमीन ही कॉरपोरेट और विदेशी पूंजी पर टिकी है। छत्तीसगढ़ तो दो रुपये चना और चावल देकर राजनीतिक अर्थव्यवस्था के जरिये सामाजिक राजनीति को मजबूती दिये हुये है। मध्यप्रदेश में तो न्यूनतम जरुरत की संरचना भी विकसित नहीं हो पायी है। पीने का पानी, इलाज के लिये स्वास्थ्य
केन्द्र और पढ़ाई-लिखाई के लिये शिक्षा का कोई ऐसा खाका मध्य प्रदेश में आज भी खड़ा नहीं हो पाया है, जहां लगे कि वाकई सरकार के सरोकार आम लोगों से है और अर्थव्यवस्था स्वावलंबन की दिशा दे सकती है। यहां कांग्रेस शासित राज्यों की बदहाली का सवाल भी खड़ा किया जा सकता है। लेकिन समझना यह भी होगा कि कांग्रेस और भाजपा के बीच एक मोटी लकीर मौजूदा परिस्थितयों के ताने बाने को चलाने और उसके विकल्प को देने का है। और भाजपा ने इस दिशा में ना तो कोई काम किया है और ना ही विकल्प की राजनीति की जमीन बनाने की कभी सोची भी। भाजपा के सामानांतर जिस विकल्प की बात आरएसएस करता है भाजपा ना तो उससे जुड़ पाती है और ना ही उससे कट पाती है। मसलन संघ परिवार के किसी संगठन पर भाजपा का बस नहीं है। विहिप हो या स्वदेशी जागरण मंच , भारतीय मजदूर संघ हो या विघार्थी परिषद इन पर भाजपा की नहीं आरएसएस की चलती है । ध्यान दें तो सत्ता में आने के बाद भाजपा राजनीतिक तौर पर संघ से ज्यादा वक्त रुठी हुई नजर आती है। उसे लगता है कि संसदीय राजनीति की जो जरुरतें हैं, उसे आरएसएस समझता नहीं है। लेकिन रुठने के सामानांतर क्या भाजपा ने कभी संघ से असहमति जताते हुये कोई रचनात्मक कार्यक्रम देश के सामने रखा है। क्या भाजपा में किसी नेतृत्व ने राजनीतिक तौर पर अपने कार्यक्रमों के जरिये भाजपा में ही सार्वजनिक सहमति बनायी है, जिससे संघ को भी लगे कि भाजपा के राजनीतिक दिशा को मथने की जरुरत नहीं है।

असल में भाजपा सांप्रदायिक होने के लिये तब तक अभिशप्त है, जब तक उसके पास देश चलाने का कोई वैकल्पिक नजरिया नहीं होगा । और संयोग से संघ के नजरिये से आगे विकल्प का सवाल राजनीतिक स्वयंसेवकों के सामने है ही नहीं। किसी भी मुद्दे को परख लें। आरक्षण सिर्फ राजनीतिक प्रभाव को बढाने का शस्त्र है , भाजपा सिर्फ यह कहकर कैसे बच सकती है कि जब तक आरक्षण के बदले सामाजिक और आर्थिक स्थितियों पर विचार ना हो कोई वैकल्पिक खाका देश के सामने ना रखा जाए। वही जो यह सोचते है कि भाजपा अगर विकल्प यह सोच कर नहीं दे सकती कि उसकी उत्पत्ति तो संघ से हुई है और संघ को ही विकल्प खड़ा करना होगा, भाजपा तो वैकल्पिक सोच को महज उसकी राजनीतिक परिणति तक पहुंचा सकती है। तो इस दौर में संघ परिवार के तमाम संगठनों की पहल को परखे तो हर संगठन ठिठक कर रह गया है। सोच सिमटी है और आरएसएस के भीतर भी सत्ता को परिभाषित करने का सिलसिला शुरु हो चुका है। यानी कल तक जो संगठन अपने कामकाज से सत्ता पर दवाब बनाते थे। जो आरएसएस राजनीतिक शुद्दिकरण की प्रक्रिया को आजमाते हुये सामाजिक बदलाव की दिशा में सत्ता को ले जाना चाहती थी। अब वही संगठन सत्ता के लिये काम करने को बेचैन हैं। आरएसएस सत्ता की परिभाषा गढने में मशगूल है। शिक्षा के तौर तरीके हो या स्वदेशी स्ववलंबन की सोच,हिन्दुत्व की व्यापक समझ हो ग्रमीण भारत की अर्थव्यवस्था को विकसित करने की सोच,सभी कुछ भाजपा की सत्ता समझ में जा सिमटे है। इसलिये मौजूदा वक्त में नौजवानों के लिये संघ का रास्ता भाजपा के जरीये समाज को गढने के बदले सत्ता के नजदीक पहुंचने की कवायद हो चला है। और दूसरे राजनीतिक दलों के लिये सत्ता तक पहुंचने का रास्ता भाजपा को सांप्रदायिक करार देना हो चला है। जाहिर है ऐसे में भाजपा के लिये राजनीतिक रास्ता उसे अपने विकल्प को खुद ही गढ़ने का हो सकता है। और यह
रास्ता भाजपा की टूट से ही निकल सकता है। क्योंकि भाजपा बैकल्पिक राजनीति का मुलम्मा ओढ़कर बरगद की तरह हो चुकी है और बरगद तले कोई नया पौधा पनप ही नहीं सकता है। ऐसे में भाजपा जबतक टूटेगी नहीं तबतक कोई क्रांतिकारी परिवर्तन भी नहीं होगा। और मौजूदा राजनीतिक चुनावी व्यवस्था में भाजपा के लिये जरुरी है कि वह टूटे जिससे राजनीतिक तौर पर जो सोच हेडगेवार ने 1925 में कांग्रेस से इतर वैकल्पिक राजनीति की सोच कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव डाल कर रखी उसे आने वाले वक्त में नये तरीके से संघ भी आत्मसात करे। क्योंकि राजनीतिक तौर पर जो रास्ता भाजपा अपना चुकी है सामाजिक तौर पर वही रास्ता आरएसएस का है।

Thursday, December 6, 2012

संसदीय लोकतंत्र की जय हो !


दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का तमगा लगाकर जीना आसान काम नहीं है। खासकर लोकतंत्र अगर संसदीय राजनीति का मोहताज हो। और संसदीय सत्ता की राजनीति समूचे देश को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाये। और सत्ता के प्रतीक संसद पर काबिज राजनीतिक दलों के नुमाइन्दे अगर सौ करोड़ लोगों के पेट से जुड़े सवालों को संसद की चौखट पर घाटे-मुनाफे में तौल कर लोकतंत्रिक होने का स्वांग करने लगे तो क्या होगा।

लोकतंत्र का मतलब है हर नागरिक को बराबर अधिकार और सत्ता में भागेदारी के लिये बराबर के अवसर। लेकिन बीते चार बरस में जिस तरह भ्रष्टाचार, महंगाई, काला धन और परमाणु समझौते को लेकर संसद के भीतर बहस हुई और जनता के हित-अहित को अपने अपने राजनीतिक जरुरत की परिभाषा में पिरोकर लोकतांत्रिक होने का मुखौटा दिखाया गया। उसी कड़ी में एफडीआई की बहस ने यह तो जतला दिया की लोकतंत्र का मतलब चुने हुये सत्ताधारियों के विशेषाधिकार है ना कि आम जनता को बराबरी का अधिकार। लोकतंत्र बरकरार रहे यह देश की संसद और राज्यों की विधानसभा के सदस्यों के कंधों पर सबसे ज्यादा है। जनता अपने जितने नुमाइन्दों को चुनकर संसद और विधानसभा में भेजती है, इनकी संख्या देश की समूची जनसंख्या का दशमलव शून्य शून्य शून्य एक फीसदी से भी कम है। लेकिन इस राजनीतिक लोकतंत्र का विस्तार पंचायत, गांव और जिला स्तर पर चुने जाने वाले करीब अड़तीस लाख सदस्यों तक भी है। संयोग से यह भी देश की जनसंख्या का एक फीसदी नहीं है। लेकिन सबसे बड़े लोकतंत्र के तमगे का खेल यहीं से शुरु होता है। चुने हुये नुमाइन्दे के घेरे में पहुंचते ही ऐसे विशेषाधिकार मिलते हैं, जो कानून और सुविधा का दायरा ना सिर्फ एकदम अलग बना देते हैं बल्कि उनके दायरे को ही लोकतंत्र मान लिया जाता है। इस दायरे में जो एक बार पहुंच गया, वह कैसे इस दायरे से अलग हो सकता है। इसकी कड़ियो को परखना बेहद जरुरी है। जाहिर है सत्ता के लोकतंत्र का पहला पाठ यहीं से शुरु होता है कि सत्ता मिले तो सत्ता को कैसे बरकरार रखा जाये और बरकरार रखने के हर हथकंडे को लोकतंत्र का कवच बता दिया जाये। यानी भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये कानून है। महंगाई को थामने के लिये राजनीतिक पैकेज है। कालेधन पर रोक के लिये अंतराष्ट्रीय समझोते हैं। और पेट की भूख मिटाने के लिये विदेशी निवेश हैं। यानी सबकुछ मौजूद है और उसे लागू करने के लिये सरकार है जो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई है। यानी लोकतंत्र की पहली सत्ताधारी परिभाषा पूंजी और मुनाफे की थ्योरी की गलियो से होकर निकलती है, जिसके जरीये सत्ता मिलती है तो समूची कवायद उसी को लेकर होती है।

असल में लोकतंत्र की जागरुकता मुनाफे के इर्द-गिर्द किस तरह जा टिकी है, यह बाजार के मुनाफे की समझ और जातियों की राजनीतिक जागरुकता से भी उभरा है। माना जाता था पहले गांव के लोगों में राजनीतिक जागरुकता नहीं थी तो वह अपना वोट बेच देते थे। लेकिन आधुनिक दौर में वोट नही सरकार और सत्ता बिकती है। देश में कौन सी नीति किस औघोगिक घराने को लाभ पहुंचा सकती है, शरुआती समझ यही से बढ़ी। लेकिन लोकतंत्र में हर किसी की बराबरी की भागेदारी ने हर तबके-जाति में अब उस सौदेबाजी के लंबे मुनाफे के तंत्र को विकसित कर दिया जिसमें मामला सिर्फ एक बार वोट बेचने से नही चलता बल्कि पांच साल तक सत्ता को दुहने का खेल चलता रहता है। यानी चुनावी लोकतंत्र का मतलब चंद लोगों के लिये नीतियों के जरीये मुनाफे का ब्लैंक चैक है तो एक बड़े वोट बैंक के लिये पांच साल तक का रोजगार है। यानी संसद में किसी भी मुद्दे को लेकर चर्चा-बहस हो उसका झुकाव खुद ब खुद सत्ता की तरफ इसलिये होगा क्योंकि संसद का मतलब सत्ता है। यानी सत्ता के अनुकुल बहस नहीं तो फिर सत्ता को बहस मंजूर भी नहीं। यानी लोकतंत्र को जीने के नाम पर पहली ठगी संसद की चौखट से ही निकलेगी। और उस पर अंगुली उठाने का मतलब है संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को खारिज करना जिसकी इजाजत संविधान देता नही। तो लोकतंत्र के रंग कैसे बदलते बदलते बदल गये, जरा यह भी समझें।

राजनीतिक चुनाव का एक ऐसा तंत्र समाज के मिजाज में ही बना दिया गया है जिसमें बिछी बिसात पर पांसे तो कोई भी फेंक सकता है, लेकिन पांसा उसी का चलता है, जिसके हाथ से ज्यादा आस्तिन में पांसे हों। लोकतंत्र के इस चुनावी खेल में सहमति- असहमति मायने नहीं रखती। हर स्तम्भ के लिये खुद को सत्ता की तर्ज पर बनाये और टिकाये रखते हुये अपनी जरुरत बताने का खेल सबसे ज्यादा होता है। आर्थिक नीतियों के फेल होने से लेकर देश की सुरक्षा में लगातार सेंध लगने पर आम जनता के निशाने पर राज्य और राजनीति आयी तो उसे बचाने के लिये न्यायपालिका और मीडिया ही सक्रिय हुआ। कड़े कानून के जरीये काम ना करने की मानसिकता का ढाप लिया गया। शहीदों के परिवारों को नेताओं के हाथों सम्मान दिलवाने के कार्यक्रम के जरीय जनता के आक्रोश को थामने का काम मीडिया ने ही किया। इसको सफल बनाने में औघोगिक घरानों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। विज्ञापन और प्रायोजक खूब नजर आये। आर्थिक नीतियों तले करीब दो करोड़ लोगों के रोजगार जा चुके है, लेकिन विधायिका और कार्यपालिका ने न्यायपालिका का आसरा लेकर बेलआउट की व्यूहरचना कुछ इस तरह की, जिससे बाजार व्यवस्था चाहे ढह रही हो लेकिन कमजोर ना दिखे। इसी के
प्रयास में कम होते मुनाफे को घाटा और घाटे को बेलआउट में बदलने की थ्योरी परोसी जा रही है। लेकिन जहां दो जून की रोटी रोजगार छिनने से जा जुड़ी है, उसे विश्वव्यापी मंदी से जोड़कर आंख फेरने की राज्यनीति भी बाखुबी चल रही है। इसलिये कोई एक स्तम्भ अगर जनता के निशाने पर आता है तो बाकी सक्रिय होकर उसे बचाते हैं, जिससे लोकतंत्र का खेल चलता रहे। इन परिस्थितियों में विकल्प का सवाल महज सवाल बनकर ही क्यों रहेगा, इसका जवाब इसी गोरखधंधे में छिपा है कि सभी के लिये एक बराबर खेलने का मैदान नहीं है। लोकतंत्र हर किसी के बराबरी का नारा तो लगाता है लेकिन गैरबराबरी का अनूठा चक्रव्यूह बनाकर। चक्रव्यू का मतलब लोकतंत्र के संसदीय विकल्प को खारिज करते हुये हर किसी को संसदीय राजनीति के घेरे में लाकर हमाम में खड़ा बतलाना कहीं ज्यादा है। इसीलिये संसद के जरीये सपना जगाने की राजनीति तो लोकतंत्र कर सकता है लेकिन कोई संसद इस चक्रव्यूह को तोड़ पाये इसकी इजाजत संसदीय राजनीति नहीं देती। इसीलिये संसद का मतलब या उसको परिभाषित करने का मंत्र सवा सौ करोड़ लोगों पर आ टिकता है। लेकिन लोकतंत्र की सत्ता का उपभोग करने के लिये अंगुलियों पर गिने जाने वाले नेता, कारपोरेट, नौकरशाह के इक्के ही नजर आते हैं। मौजूदा वक्त में देश के टॉप बीस राजनेताओं के परिवार, टॉप बीस कारपोरेट और टॉप छत्तीस सरकारी संस्थानों को संभाले नौकरशाहों को हटा दें तो यकीन जानिये जिस लोकतंत्र को हम-आप जी रहे हैं, वह ढह-ढहाकर गिर जायेगा। क्योंकि राजनीतिक दल इन्हीं के नाम पर चलते हैं। भारत ही नहीं दुनिया भर के 9 फीसदी धंधे यही करते हैं।

देश की नीतियों को लागू कराने से लेकर कानूनों की आड़ में गलत-सही बताने के अधिकार इन्हीं के पास हैं। यानी यह कहा जा सकता है कि देश के सौ से कम परिवारों के जरीये देश का लोकतंत्र चल रहा है। तो ऐसे में संसद की बिसात क्या और संसदीय लोकतंत्र का मतलब क्या है, जिसके जरिये जवाहरलाल नेहरु से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी के दौर को याद कर लोकतांत्रिक देश होने का तमगा लगाया जाता है। और विरासत के जरिये पीढ़ियो को सहजने और घर की चारदीवारी में सुरक्षा-सुविधा का ऐसा ताना बाना बुना जाता है, जो इस एहसास को खत्म करता है कि सत्ता का मतलब देश और सवा सौ करोड़ लोग हैं। लोकसभा के 545 सदस्यों में से मौजूदा वक्त में पन्द्रह फीसदी सदस्य यानी करीब 80 सदस्य ऐसे हैं, जिनकी पहचान किसी बड़े नेता के बेटे-बेटी या पत्नी-बहु के तौर पर है। नाम तो अब हर किसी के जुबान पर हैं। महत्वपूर्ण है कि पहली बार देश के छह हजार गांवों में भी सत्ताधारी की राजनीति और उसके परिवार की अहमियत ने एक नया तबका पैदा कर दिया है जो राजनीतिक जाति का है। और यह राजनीतिक जाति हर जाति पर भारी भी है और सत्ताधारी बनाकर लोकतंत्र की लूट का आधार भी है।

दरअसल देश में चार स्तरीय संसदीय राजनीति में पंचायत स्तर पर अड़तीस लाख सात सौ के करीब नुमाइन्दे चुने जाते हैं। फिर इसमें नगर निकाय,विधानसभा और लोकसभा के तमाम नुमाइन्दों को जोड़ दे तो तादाद उनचालिस लाख के करीब पहुंचेगी। और इन नुमाइन्दों के कोटरी में अगर औसतन 10 लोगों को रखें और फिर कोटरी के हर सदस्य की कोटरी में 10 लोगों को रखे। इसी तरह कॉरपोरेट और नौकरशाहो की फेरहिस्त को भी अगर सत्ताधारी मान लिया जाये तो इसी आधार पर इनकी कोटरी को भी सत्ताधारी या विशेषाधिकार वाला मान कर गिनती की जाये तो देश में यह तादाद पांच करोड से ज्यादा होती नहीं है। और सरकार खुद ही अपने आंकडो से बताती है कि देश के 28 हजार 650 परिवारों के पास जो संपत्ति है, देश की कुल तादाद का 42 फीसदी है और इन पर देश का जो संसादन खर्च होता है वह 19 फीसदी से ज्यादा है। जबकि देश के 65 करोड़ लोगों पर 19 फीसदी संसाधन खर्च होता है। और देश के 110 करोड़ लोगों के हिस्से में 42 फीसदी संपत्ति आती है। यानी असमानता का चरम सत्ता की छांव में ही नहीं बल्कि सत्ता के भागेदारी से जिस देश में हो, वहां संसद के भीतर की बहस चाहे सौ करोड़ लोगो के पेट से जुड़ी हो उस पर संसदीय राजनीति का फैसला तो शून्य दशमलव एक फीसदी के लिये ही होगा। ऐसे में एफडीआई की गिरफ्त में रोजगार गंवाने वाला खुदरा क्षेत्र के 6 करोड़ व्यापारी मजदूर हो या महंगाई से परेशान का सबसे व्यापक चालीस करोड़ का मध्यवर्ग हो। फैसला इनके हित में कैसे जा सकता है। जबकि संसद में बनती नीतियों के आसरे ही देश में एक करोड साठ लाख युवाओं की रोजी रोटी छिनी हो। 6 करोड़ किसान जमीन से बेदखल हुये हों। 9 करोड़ मनरेगा पर टिके हों। 42 करोड का जीवन राशन कार्ड पर टिका हो। साढ़े छह करोड़ सरकारी कैश का इंतजार करने लगे हों। और सत्ता में आने के लिये महज साढे ग्यारह करोड वोट चाहिये हों।और देश में सत्ताधारियों का समाज महज सौ परिवारों में टिक जाये तो क्या लोकतंत्र की जय कहा जाये। और संसदीय बहस के जरिये लोकतांत्रिक जय पर ठप्पा लगा दिया जाये।