Sunday, December 23, 2012
इस चुनावी जीत को क्या नाम दें
भ्रष्टाचार, महंगाई, घोटाले, कालाधन से लेकर कारपोरेट, नौकरशाही और सत्ताधारियों के नैक्सस और इन सब के बीच कभी कोलगेट तो कभी राबर्ट वाड्रा, कभी अंबानी। यानी जिस कांग्रेस को लेकर यह माना गया कि वह देश को बेच रही है, गवर्नेंस फेल हो रही है, खनिज संसधानों के राजस्व तक की लूट हो रही है और यह सब कांग्रेस सरकार की नीतियों के तहत हो रहा है और इसे खुले तौर पर संसद से लेकर सड़क तक पर भाजपा चिल्ला चिल्ला कर रखती है। इतना ही नहीं देश के सामने यह आवाज लगाती है कि कांग्रेस ने सत्ता में रहने का हक खो दिया है। वही कांग्रेस हिमाचल प्रदेश चुनाव में ना सिर्फ जीतती है बल्कि सत्ताधारी भाजपा को बडे अंतर से हराती है। जनता का यह फैसला किसके लिये है। जबकि भाजपा के सबसे माहिर चुनावी खिलाडी अरुण जेटली हिमाचल प्रदेश के प्रभारी थे। लगातार वह राबर्ट वाड्रा से लेकर वीरभद्र सिंह के घोटालो की तह में जाकर ना सिर्फ दस्तावेजी सच को हिमाचल प्रदेश में ही मीडिया के जरीये रख रहे थे बल्कि केन्द्र सरकार की रसोई गैस की राशनिंग सरीखी जनविरोधी नीतियों को भी उठा रहे थे लेकिन फैसला फिर भी भाजपा के ही खिलाफ गया। तो फिर इसके संकेत कांग्रेस के हक के निकाले जाये या भाजपा के भीतर की शून्यता के समझे जाये। राजनीतिक तौर पर कांग्रेस और भाजपा यह कहते हुये अपने अपने तर्क गढ़ सकती है कि नीतियां सही थीं या फिर नीतियों के असर को भाजपा सही तरीके से रख नहीं पायी। भाजपा टिकटों के दावेदारों पर भी अंगुली उठा रही है और आपसी झगड़ों को भी हार की वजह मान रही है। लेकिन सच कहीं ना कहीं भाजपा और संघ परिवार के भीतर लगे घुन का है। क्योंकि घोटालों की फेहरिस्त भी जब बेअसर हो जाये। जनविरोधी नीतियां भी जब चुनावी हार के बदले जीत में बदल जाये तो पहली बार जनता के संकेत साफ है कि भाजपा के पास कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं है और आरएसएस के पास देश के लिये कोई एजेंडा नहीं है। यानी मौजूदा वक्त में सत्ता जिसकी रहेगी, वह घोटालों और भ्रष्टाचार या महंगाई या कारपोरेट लूट को रोक नहीं पायेगा। जरुरी है कि इन्हें रोकने की आवाज उठाने के साथ साथ देश की जरुरत बना दी गई इस व्यवस्था की बिसात को बदलने की सोच भी साथ चले। और भाजपा या संघ परिवार के पास यह सोच है नहीं तो पहला संकट तो संघ और भाजपा के संगठन का है।
सवाल यह नहीं है कि चुनावी जीत से कांग्रेस की नीतियों को मान्यता मिल जाती है या फिर जिस तरीके से समाज में मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों की वजह से असमानता बढ़ी है, उसे कांग्रेस की चुनावी जीत समाज और देश की जरुरत करार दें । सवाल यह है कि कांग्रेस जिस रास्ते देश को ले जा रही है, उसके विकल्प के तौर पर भाजपा के पास क्या है और विरोध के तौर तरीके से इतर संघ परिवार के पास भी अपने राजनीतिक स्वयंसेवक के शुद्दिकरण के रास्ते क्या है। यह सवाल अब इसलिये बड़ा है क्योंकि संसदीय राजनीति का मापक यंत्र अगर चुनाव है तो फिर चुनावी जीत को लोकतंत्र का सेहरा और जनहित का फैसला मानना ही होगा। क्योंकि कोई राजनीति इस बिसात को उलटने के लिये तैयार नहीं है कि सोशल इंजीनियरिंग का मतलब विकास और आर्थिक नीतियों के साथ साथ वोट बैंक की सियासत से ही नही बल्कि यह देश सामाजिक-आर्थिक वातावरण और जीने के तरीके से भी जुड़ा है। और इस दायरे में राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र से देश का घोषणपत्र यानी संविधान ही मटियामेट हो रहा है। सवाल यह नहीं है कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये समाजवादी पार्टी उसे सांप्रदायिक बताकर कांग्रेस के साथ खड़ी हो जाती है और जब बात नौकरी में प्रमोशन को लेकर आरक्षण की आती है तो समाजवादी पार्टी और भाजपा एक साथ खड़ी दिखती हैं लेकिन सत्ता कांग्रेस की ही बरकरार रहती है। सवाल यह है कि राजनीतिक सत्ता बरकरार रखने के लिये या फिर सत्ता पाने के लिये की जोड़तोड़ ही देश की तमाम नीतियों को जब परिभाषित कर रही हो तब चुनाव को लेकर एक आम आदमी क्या करें। अगर हर आम आदमी के सामने लोकतंत्र का मतलब चुनाव में जीत हार है और राजनीतिक दल सत्ता के लिये खुले तौर पर इसी लोकतंत्र को पारदर्शी बनाने के लिये सत्ता के लिये ही नीतियां या नीतियों का विरोध बताते हैं तो फिर देश का मतलब सत्ता से इतर क्या होगा। और अगर सत्ता ही देश है यानी सत्ता जो कहे, जो करे उसे देशहित करार देना ही है तो फिर विरोध का मतलब क्या होगा। अगर चुनावी तंत्र के लोकतंत्र तले सत्ता के विरोध का मतलब देखें तो यह राजनीतिक स्टंट भी है और खुद को सत्ता में लाने के लिये चुनी गई सरकार के विरोध की राजनीति करना। लेकिन नीतियों को लेकर कोई सत्ता के निर्णयो पर यह कहकर अंगुली उठाये कि वह चुनावी रास्ते के आसरे नहीं बल्कि आम जनता को इसके लिये तैयार करेगा कि सत्ता का हर निर्णय देशहित का नहीं होता बल्कि सत्ता के ज्यादातक निर्णय सत्ताधारी के खुद को सत्ता में बनाये रखने के तानेबाने का है।
जाहिर है संघ परिवार की यही ट्रेनिंग गायब हो चली है। यानी जो आरएसएस कल तक सामाजिक शुद्दिकरण पर जोर देती थी और उसी शुद्दिकरण के दायरे में उसके अपने राजनीतिक स्वयंसेवक तैयार होते थे जब वही स्वयंसेवक भी मान चुके है कि राजनीतिक ट्रेनिंग का मतलब संसदीय राजनीति की बिसात पर ही चलकर सत्ता तक पहुंचना है तो फिर सवाल कांग्रेस के विकल्प या मौजूदा वक्त में मनमोहन सिंह के आर्थिक नीतियों के विकल्प को बनाने की मशक्कत का कहां बचेगा। यानी विकल्प का रास्ता चुनावी तंत्र में शरीक होकर तभी बनाया जा सकता है, जब चुनाव लड़ने के तरीके बदल दिये जाये। क्योंकि तरीके बदले बगैर सत्ता की भाषा उसकी नीतियां सत्ताधारियों से हटकर हो नही सकती है और भाषा या नीतियां अगर सत्ता की एक सी है तो फिर सत्ता में राजनीतिक दलों के बदलने से आम आदमी पर असर भी कुछ नहीं पड़ेगा। असल में हिमाचल प्रदेश के चुनावी परिणामो के संकेत यही है कि सत्ता में कांग्रेस रहे या भाजपा । दिल्ली में सत्ता किसी की रहे लेकिन सामाजिक-आर्थिक वातारण पर असर बदलेगा नहीं। जीने के तौर तरीको में संघर्ष या आराम की परिभाषा आम आदमी और सत्ताधारियों के बीच जस की तस रहेगी । असल सवाल यही से खड़ा होता है कि चुनावी जीत-हार या सत्ता के तौर तरीकों पर चुनावी परिणाम से असर नहीं पड़ता है तो फिर राजनीतिक दलों के सत्ताधारियों के जीवन पर भी जीत हार का असर क्या पड़ता होगा। हिमाचल में भ्रष्टाचार में गोते लगाने वाले वीरभद्र सिंह जीते या फिर प्रेमकुमार धूमल की सत्ता तले भाजपा की युवा पौघ संभाले अनुराग ठाकुर का राग क्रिकेट के धंधे को संभालने वाला हो और वह हार जाये। केन्द्र में कांग्रेस के पास कारोबारियों का हित साघने वाले मनमोहन सिंह की इकनॉमिक्स हो या भाजपा के पास कारोबारी अध्यक्ष गडकरी हो । 10 जनपथ की कोटरी कांग्रेस और सत्ताधारी कांग्रेस के जरीये देश को चलाये या फिर भाजपा में दिल्ली की संसदीय दल की कोटरी अपने इशारों पर भाजपा के कैडर को कदमताल कराये या स्वयंसेवकों को राजनीति का पाठ पढ़ाये। दोनो में अंतर क्या है। खासकर आम आदमी के लिये अंतर क्या होगा, सत्ता में कोई रहे या जाये। या फिर सत्ताधारियों पर असर क्या पड़ेगा, उनकी सत्ता जाये या बनी रहे । मुश्किल यही है कि जिस आजादी के आसरे संविधान ने जीने के तरीके बताये उसी आजादी को सत्ता की गुलामी तले दबाकर संविधान की व्याख्या भी सत्ताधारियों के लिये की जा रही है। और उसे लोकतंत्र मान लिया गया है। इस परिभाषा को बदल वही सकता है, जिसके पास वाकई सामाजिक शुद्दिकरण का हुनर हो। जिसके पास सत्ता को जनता की जमीन पर ला पटकने का हुनर हो । जो चुनाव को जिन्दगी जीने की जद्दोजहद से जोड़ कर देखने की मजबूरी को बदल दें । जो राजनीतिक सत्ता की ताकत को आमआदमी की एकजुटता से चुनौती दे सके। यानी जो सत्ता पर टिके रहने की नीतियों से लेकर सत्ता पाने के लिये बनाने वाली नीतियों से इतर जनतंत्र को परिभाषित करें। यानी सत्ता की ताकत चुनावी जीत-हार के राजनीतिक मंच से हटकर विकसित हो तभी आम आदमी की महत्ता है। नहीं तो भ्रष्ट नौकरशाह हो या
राजनेता या फिर कारपोरेट समूह या इस धंधे को चौथी निगाह से देखना वाला मीडिया तंत्र। आरोप भी उसी पर लगेंगे और हर आरोप के बाद ताकत भी उसी की बढ़ेगी। आम आदमी के हाथ सिर्फ चुनावी जीत-हार ही आयेगी।
मैँ आपसे इस बात पर तो सहमत हूँ कि राष्ट्रीय महत्व के विभिन्न मुद्दोँ पर कांग्रेस और भाजपा की नितियोँ मेँ बहुत अन्तर नहीँ हैँ और दोनोँ की नितियाँ कमोवेश कारपोरेट को लाभ पहुँचाने बाली है। इन्हीँ आर्थिक नितियोँ के लिहाज से मनमोहन सिँह या मोदी मेँ कोई लकीर खिचीँ नजर नहीँ आती।
ReplyDeleteलेकिन जब आप या अन्य जनता की इस समझदारी की बात करते हैँ तो ये पचा पाना थोड़ा मुश्किल है। जब जनता को 2+2=4 जैसे आसान मुद्दे समझ मेँ नहीँ आते तो क्या कहा जाए। माया, मुलायम या लालू या इन जैसे अन्योँ की संसदीय नौटंकी जनता को दिखाई नहीँ देती.? अगर दिखाई देती है और जनता सब समझती है तो फिर चीजेँ बदलती क्योँ नहीँ.?
do you see any substitute? can Kejriwal do this? Can't it be done through decentralisation? if yes why don't you media people make people aware how the govt's has made the whole system a centralised power center by amending the laws time to time.
ReplyDeleteyou have the ability to understand such typical things, why don't you come forward and present the things in ppl language. I personally have such expectations from you... its your duty, come forward for your nation
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