नदी ,जंगल ,बुग्यालों और कच्चे पहाड़ों से पटे पड़े उत्तराखंड में विकास का रोड रोलर कैसे सबकुछ तबाह करने पर आमादा है, इसकी एक तस्वीर भर है मरघट में बदला केदारनाथ । सड़क, बांध, पन बिजली परियोजना और जंगल खत्म कर कंक्रीट का जंगल बसाने की जो सोच गढवाल में घुस चुकी है। उसमें हर बरस औसतन 60 लाख पेड़ काटे जा रहे हैं। 2 हजार किलोग्राम विस्फोटक पहाड़ों के तल में लगाये जा रहे हैं। 20 लाख घनमीटर मलबा नदियों में डाला जा रहा है। यानी जो जंगल हिमालय को बचाये हुये हैं, उन्हें खत्म करना।
जो कच्चे पहाड़ उत्तराखंड को सहेजे हुये हैं, उन्हें और कमजोर बनाने की पहल और अविरल बहती नदियों में परियोजनाओं के निर्माण से निकलने वाले मलबे को डालकर जीने का नायाब अंदाज उत्तराखंड का खौफनाक सच है। और यह सब बीते 10 बरस की रफ्तार है। मुश्किल तो यह है कि इन पहाड़ों पर बसे लोगो की त्रासदी भी दोहरी है। जीना है तो रोजगार के लिये अपनी जमीन पर खड़े होकर अपनी ही जमीन को खत्म करने की हिम्मत दिखानी है। जिस गढवाल को प्राकृतिक विभिषिका ने जड़ से हिला दिया है सिर्फ उस गडवाल का सच यह है कि मौजूदा वक्त में वहां 37 परियोजनाओं का निर्माण कार्य जारी है। जो 8 हजार से ज्यादा गढ़वाली परिवारों का पेट भर रहा है। लेकिन प्राकृतिक विभिषिका ने जो कहर गांव-दर-गांव बरपाया है उसने अब उत्तराकंड के उन्हीं मजदूरों के सामने नया सवाल पैदा कर दिया है कि वह बरसात के बाद क्या करें। क्योंकि उत्तराखंड में मौजूदा सच यही है कि जल विघुत परियोजना पर काम लगातार जारी है। 9 निर्माणाधीन तो 30 प्रक्रिया में। हर परियोजना में 2 हजार किलोग्राम विस्फोटक का इस्तेमाल हो रहा है और पहाड़ में सेंध के लिये 28 हजार डेटोनेटर प्रयोग में लाये जा रहे हैं। निर्माणाधीन बांध की तादाद लगातार बढ़ रही है। कुल 70 बांध से नदी बांधने की तैयारी है। 1 बांध से 2 लाख घनमीटर मलबा निकलता है।
ऐसे में 70 बांध का मतलब है 1 करोड़ 40 लाख घनमीटर मलबा। वहीं सडक निर्माण लगातार जारी है। हर बरस हजार किलोमीटर सड़क निर्माण हो रहा है। बीते 10 साल में 60 लाख से ज्यादा पेड़ कटे गये और सामान्यत हर 10 किलोमीटर सड़क के लिये 60 हजार पेड़ स्वाहा हो रहे हैं। वहीं पर्यटन निर्माण में जबरदस्त तेजी है। नदियों की तलछट पर कंक्रीट और लोहे का इस्तेमाल हो रहा है। हर बरस औसतन 20 हजार टन सीमेंट/लोहा लग रहा है तो हर महीने 10 हजार वर्ग किलोमीटर में निर्माण यानी जंगल खत्म कर कंक्रीट का जंगल तैयार हो रहा है। ऐसे में तबाही के बाद अब उत्तराखंडियों के सामने यह सवाल है कि क्या पहले की तरह
पहाड़ों तले डायनामाइट लगाते रहे, बांध बनाने के लिये मलबे को नदी में बहाते रहे या सड़क बनने वाली जगह पर पेड़ काटने में जुटे रहे या फिर देवभूमि को देव भूमि बनाये रखने के लिये विकास के रोडरोलर को रोकने के लिये संघर्ष का बिगुल फूंक दें। या उसी दो जून की रोटी के सामने नतमस्तक रहे जिस दो जून की कमाई ने पहली बार चारधाम के जरिये कमाई करने वाले को भी मौत ने लील लिया। और केदारघाटी के गांव के गांव पुरुष विहिन हो गये हैं। लेकिन समझना यह भी होगा कि प्राकृतिक विभिषिका से ठीक पहले केदारनाथ मंदिर के क्षेत्र में 150 दुकान , 80 धर्मशाला , 37 होटल , 23 रेस्ट हाउस , 6 आश्रम और 116 कच्चे मकान थे। यानी कोई शहर बल्कि केदारनाथ मंदिर को ही एक छोटा शहर बना दिया गया। जिस केदारनाथ में पहुंचना सबसे कठिन होता था, वहां दुकान मकान से लेकर घर्मशाला और होटल तक जिस खुली आबोहवा में हिमालय को चिढ़ाते हुये बीते बीस-बाइस बरस में बेखौफ बनते चले गये और जब उसी जमीन को हक के साथ पहाड़ और नदियों ने दुबारा मनुष्य से छीन लिया है तो केदारनाथ हर किसी को मरघट सरीखा लगने लगा है। जबकि केदारनाथ का सच यह है कि मनोरम घाटी के बीच 1985 से पहले केदारनाथ मंदिर के इस पूरे इलाके में सिर्फ दो धर्मशाला, तीन आश्रम और पूजा सामाग्री की सिर्फ एक दुकान हुआ करती थी। लेकिन 1990 के बाद से जो दुकान मकान, कच्चेघर और होटलों का निर्माण शुरु हुआ उसने केदारनाथ को एक शहर में ही तब्दील कर दिया। और 2010 में तो उड़नखटोला यानी हेलीकॉप्टर सेवा ने भी केदारनाथ को हिमालय की छाती पर उडान भरने का नायाब सुख रईस भक्तों को दे दिया। और भक्तों को केदारनाथ दर्शन कराने वाले केदारघाटी के दर्जनों गांव के सैकड़ों लोगों को प्राकृतिक विभिषिका एक झटके में खत्म कर दिया। अपनी तरह की पहली इस त्रासदी की वजह जो भी हो लेकिन अब का सच यह है कि कई गांवों में तो कोई पुरुष बचा ही नहीं है। क्योंकि केदारनाथ मंदिर में पूजा सामग्री बेचने वाले पांच सौ से ज्यादा लोग कहा गये किसी को नहीं पता। बुजुर्गो को पालकी में बैठा कर लाने वाले तीन सौ ज्यादा गढ़वाली कहां गये अभी तक किसी को नहीं पता। और तो और जो होटल, रेस्ट हाउस, धर्मशाला और कच्चे घरों में सैकड़ों गढ़वाली लगातार केदारनाथ के दर्शन करने वालो की सेवा में जुटे रहते थे वह तूफान के बाद कहा है किसी को नहीं पता।
मुश्किल यह है कि एक हजार से ज्यादा गढ़वाली केदारनाथ मंदिर के क्षेत्र में तीन से चार महीने तक कमाई के लिये रुकते और पूरे साल के लिये दो जून की रोटी का इंतजाम इसी यात्रा से हो जाता। और जब केदारनाथ बर्फ से ढक जाती तो उससे पहले ही उत्तराखंड के यह लोग अपनी अपनी कमाई कर लौट जाते। घर की जरुरत के सामान और बच्चो के सपने इसी कमाई से पूरी होती। लेकिन यह पहली बार है कि केदारनाथ में आये तूफान ने उत्तराखंड के लोगों का निवाला भी छिना है और लौटने का इंतजार करने वाले बूढे मां-बाप का सहारा भी छिना। नयी साड़ी-चूड़ियों का इंतजार करने वाली औरतों को विधवा बना दिया और बच्चों के सपने को भी चकनाचूर कर दिया।
Wednesday, June 26, 2013
Tuesday, June 25, 2013
जिन्हें पहाड़ों पर ही रहना है उनकी सुध कौन लेगा
पुण्य प्रसून वाजपेयी
उभनती नदी और उजाड केदारनाथ। टुकडो में फंसे श्रद्धालु और पर्यटक। जमीन से आसमान तक मार्च करती सेना।उत्तराखंड में बीते सात दिनो का सच यही है। लेकिन इस सच से इतर एक दूसरा खौफनाक सच अब भी त्रासदी की चादर में ही लिपटा हुआ है। क्योकि यह ना तो केदारनाथ के दर्शन करने आये और ना ही इन्हे दर्शन करके लौटना था। यह पर्यटक भी नहीं है जो खुली आबो-हवा मे जिन्दगी तर कर लौटे। इनका सच ही इनकी त्रासदी है और इन्हे कही लौटना नहीं है तो अभी तक किसी की नजर यहा गई भी नहीं है। खासकर उत्तराखंड में गढवाल इलाके के तीन जिले उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चामोली। और इन तीन जिलो के करीब 250 से ज्यादा गांव। -औसतन हर गांव की आबादी 300 से 400 लोगो की। और सौ से कम आबादी वाले करीब 500 से ज्यादा गांव। अब ना छत है और ना ही सपाट जमीन। जिस जमीन पर गांववाले खडे है उस जमीन पर दो जून का अनाज भी बचा नहीं है जो पेट भर सके। इन तीन जिलो के करीब करीब पचास हजार लोगो के सामने संकट यह है कि बादल के फटने से लेकर नदी के उफान और पहाडो के टूट कर गिरने के बाद जिन्दगी जीने का हर रास्ता बंद हो गया है। जो गांव तबाह हुये है। जहा जिन्दगी अब दो जून की रोटी के लिये तरस रही है उसके सामने सबसे बडा संकट यह है कि अगले 15- 20 दिनो में फंसे लोगो को तो निकाल लिया जायेगा लेकिन उसके बाद शुरु होगी मौतो से होने वाली बीमारी की त्रासदी। साथ ही बीतते वक्त के साथ जिन्दगी जीये कैसे यह संकट गहरायेगा और अभी तक मदद के लिये कोई हाथ गांववालो के लिये उठा नहीं है। क्योकि खेती की जमीन पर गाद भर चुकी है तो खेती हो नहीं सकती। तीन महिनो के लिये चार घाम के खुलने वाले कपाट पर अब ताला लग चुका है। और इसी दौर में पर्यटन से होने वाली कमाई रास्तो के टूटने से ठप हो चुकी है। यानी पहाड का जीवन जो यूं भी संघर्ष के आसरे चलता है उसपर शहरी विकास की अनूठी दास्तान ने स्वाहा कर दिया है। प्रकृतिक त्रासदी ने इन तीन जिलो में खेती लायक करीब सौ स्कावयर किलोमिटर जमीन को पूरी तरह खत्म कर दिया है। करीब दस हजार परिवार जो पूरी तरह पर्यटन और चार घाम को सफल बनाने के दौरान साल भर की कमाई दो-तीन महिनो में करता है वह बंद हो चुकी है।
असल में कैसे उताराखंड को दोहा गया और जिन्दगी की अनदेखी की गई यह अपने आप में मिसाल है। क्योकि केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं. कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी. लोगों को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी. जब मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपने पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी. जिससे उसके रास्ते में बनाए गए सभी निर्माण बह गए. गांव के गांव इसलिये बहे है क्योकि पुराने गाँव ढालों पर बने होते थे. पहले के किसान वेदिकाओं में घर नहीं बनाते थे. वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे. लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में नगर, गाँव, संस्थान, होटल सबकुछ बना दिए गए हैं.। ऐसे गाव के लोग चारधाम करने आये लोगो से कमाते और घर चलाते। लेकिन अब घरवाले को प्रलय ने लील लिया तो गांव में बचे है सिर्फ आंसू।
और अब इन आंसूओ को भी सरकार से ही आस है उसी सरकार से जिसने पर्यटकों के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुँचने के लिए सड़कों का जाल बिछाया है.लेकिन यह नहीं देखा कि ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई जा रही हैं जहां दरारें होने के कारण भू-स्खलन होते रहते हैं। भू-स्खलन के मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है. इसलिए तीर्थ स्थानों को जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं. ये मलबे अंदर से पहले से ही कच्चे थे. ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू से बने होते हैं. ये अंदर से ठोस नहीं होते.। लेकिन सरकार, राजनेता, इंजिनियर, ठेकेदार सभी ने आसान रास्ता बना कर मौत को ही आसान कर दिया।
जबकि इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ़ से चट्टानों को काटकर सड़कें बनाते। उसमें मुश्किल आती क्योकि चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान नहीं होता. यह काफी महँगा भी होता है यानी कमाई नहीं होती लेकिन जिन्दगी मजबूत होती। लेकिन इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की निकासी के लिए समुचित उपाय तक नहीं किया. उन्हें नालियों का जाल बिछाना चाहिए था रपट्टा की जगह पुल बनने चाहिए जिससे बरसात का पानी। अपने मलबे के साथ स्वत्रंता के साथ बह सके. लेकिन कुछ नहीं किया गया। इसके उलट पर्यटकों से कमाई के कारण दुर्गम इलाकों में होटल खोलने की इजाजत सरकार ने दी तो रईसो के लिये बालकोनी खोल कर नदी और खुली हवा का मजा लेने का धंधा पैदा किया गया।ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने जो मलबों से बना थी। नदी ने मलबो को बहाया तो जिन्दगी बह गयी।
और इस दौर में वहा तक किसी बचाववाले की नजर अभी तक गई नही है क्योकि यह लोग बाहर से आकर फंसे नहीं है बल्कि यही रहते हुये कभी पेड को बचाने के लिये चिपको आंदोलन तो कभी अलग और अपना राज्य बनाने के लिये संघर्ष कर चुके है। लेकिन अब इनके हाथ और हथेली दोनो खाली है। बावजूद सबके इन्हे यही रहना है। जो दुनिया के मानचित्र में सबसे भयावह प्रकृतिक विपदा का ग्राउड जीरो बन चुका है।
उभनती नदी और उजाड केदारनाथ। टुकडो में फंसे श्रद्धालु और पर्यटक। जमीन से आसमान तक मार्च करती सेना।उत्तराखंड में बीते सात दिनो का सच यही है। लेकिन इस सच से इतर एक दूसरा खौफनाक सच अब भी त्रासदी की चादर में ही लिपटा हुआ है। क्योकि यह ना तो केदारनाथ के दर्शन करने आये और ना ही इन्हे दर्शन करके लौटना था। यह पर्यटक भी नहीं है जो खुली आबो-हवा मे जिन्दगी तर कर लौटे। इनका सच ही इनकी त्रासदी है और इन्हे कही लौटना नहीं है तो अभी तक किसी की नजर यहा गई भी नहीं है। खासकर उत्तराखंड में गढवाल इलाके के तीन जिले उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चामोली। और इन तीन जिलो के करीब 250 से ज्यादा गांव। -औसतन हर गांव की आबादी 300 से 400 लोगो की। और सौ से कम आबादी वाले करीब 500 से ज्यादा गांव। अब ना छत है और ना ही सपाट जमीन। जिस जमीन पर गांववाले खडे है उस जमीन पर दो जून का अनाज भी बचा नहीं है जो पेट भर सके। इन तीन जिलो के करीब करीब पचास हजार लोगो के सामने संकट यह है कि बादल के फटने से लेकर नदी के उफान और पहाडो के टूट कर गिरने के बाद जिन्दगी जीने का हर रास्ता बंद हो गया है। जो गांव तबाह हुये है। जहा जिन्दगी अब दो जून की रोटी के लिये तरस रही है उसके सामने सबसे बडा संकट यह है कि अगले 15- 20 दिनो में फंसे लोगो को तो निकाल लिया जायेगा लेकिन उसके बाद शुरु होगी मौतो से होने वाली बीमारी की त्रासदी। साथ ही बीतते वक्त के साथ जिन्दगी जीये कैसे यह संकट गहरायेगा और अभी तक मदद के लिये कोई हाथ गांववालो के लिये उठा नहीं है। क्योकि खेती की जमीन पर गाद भर चुकी है तो खेती हो नहीं सकती। तीन महिनो के लिये चार घाम के खुलने वाले कपाट पर अब ताला लग चुका है। और इसी दौर में पर्यटन से होने वाली कमाई रास्तो के टूटने से ठप हो चुकी है। यानी पहाड का जीवन जो यूं भी संघर्ष के आसरे चलता है उसपर शहरी विकास की अनूठी दास्तान ने स्वाहा कर दिया है। प्रकृतिक त्रासदी ने इन तीन जिलो में खेती लायक करीब सौ स्कावयर किलोमिटर जमीन को पूरी तरह खत्म कर दिया है। करीब दस हजार परिवार जो पूरी तरह पर्यटन और चार घाम को सफल बनाने के दौरान साल भर की कमाई दो-तीन महिनो में करता है वह बंद हो चुकी है।
असल में कैसे उताराखंड को दोहा गया और जिन्दगी की अनदेखी की गई यह अपने आप में मिसाल है। क्योकि केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं. कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी. लोगों को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी. जब मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपने पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी. जिससे उसके रास्ते में बनाए गए सभी निर्माण बह गए. गांव के गांव इसलिये बहे है क्योकि पुराने गाँव ढालों पर बने होते थे. पहले के किसान वेदिकाओं में घर नहीं बनाते थे. वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे. लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में नगर, गाँव, संस्थान, होटल सबकुछ बना दिए गए हैं.। ऐसे गाव के लोग चारधाम करने आये लोगो से कमाते और घर चलाते। लेकिन अब घरवाले को प्रलय ने लील लिया तो गांव में बचे है सिर्फ आंसू।
और अब इन आंसूओ को भी सरकार से ही आस है उसी सरकार से जिसने पर्यटकों के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुँचने के लिए सड़कों का जाल बिछाया है.लेकिन यह नहीं देखा कि ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई जा रही हैं जहां दरारें होने के कारण भू-स्खलन होते रहते हैं। भू-स्खलन के मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है. इसलिए तीर्थ स्थानों को जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं. ये मलबे अंदर से पहले से ही कच्चे थे. ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू से बने होते हैं. ये अंदर से ठोस नहीं होते.। लेकिन सरकार, राजनेता, इंजिनियर, ठेकेदार सभी ने आसान रास्ता बना कर मौत को ही आसान कर दिया।
जबकि इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ़ से चट्टानों को काटकर सड़कें बनाते। उसमें मुश्किल आती क्योकि चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान नहीं होता. यह काफी महँगा भी होता है यानी कमाई नहीं होती लेकिन जिन्दगी मजबूत होती। लेकिन इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की निकासी के लिए समुचित उपाय तक नहीं किया. उन्हें नालियों का जाल बिछाना चाहिए था रपट्टा की जगह पुल बनने चाहिए जिससे बरसात का पानी। अपने मलबे के साथ स्वत्रंता के साथ बह सके. लेकिन कुछ नहीं किया गया। इसके उलट पर्यटकों से कमाई के कारण दुर्गम इलाकों में होटल खोलने की इजाजत सरकार ने दी तो रईसो के लिये बालकोनी खोल कर नदी और खुली हवा का मजा लेने का धंधा पैदा किया गया।ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने जो मलबों से बना थी। नदी ने मलबो को बहाया तो जिन्दगी बह गयी।
और इस दौर में वहा तक किसी बचाववाले की नजर अभी तक गई नही है क्योकि यह लोग बाहर से आकर फंसे नहीं है बल्कि यही रहते हुये कभी पेड को बचाने के लिये चिपको आंदोलन तो कभी अलग और अपना राज्य बनाने के लिये संघर्ष कर चुके है। लेकिन अब इनके हाथ और हथेली दोनो खाली है। बावजूद सबके इन्हे यही रहना है। जो दुनिया के मानचित्र में सबसे भयावह प्रकृतिक विपदा का ग्राउड जीरो बन चुका है।
Wednesday, June 12, 2013
तो संघ अब खुली राजनीति करने पर आ गया
चुनाव की चुनौती, विजय का संकल्प और नरेन्द्र मोदी की नियुक्ति। 2014 के लिये नरेन्द्र मोदी को प्रचार अभियान समिति का चेयरमैन घोषित हुये राजनाथ सिंह ने यही तीन लकीर खींची। लेकिन इस ऐलान के 24 घंटे पूरे होने से पहले ही लालकृष्ण आडवाणी ने चुनौती और संकल्प का मिजाज उठाकर राजनाथ सिंह के ऐलान के तरीके को जिस तरह पार्टी के पदो से इस्तीफा देकर चुनौती दी, उसने पहली बार इसके संकेत दे दिये कि बीजेपी 70 के दशक के जनसंघ के दौर में आ खड़ी हुई है। चार दशक बाद बीजेपी में जो कुछ हुआ उसने चार दशक पहले बलराज मधोक के अटल बिहारी वाजपेयी पर लगाये उस इल्जाम की याद दिला दी जब वाजपेयी से इंदिरा से मिलकर राजनीति करने और जनसंघ से बडा कद वाजपेयी का बनाने का सिलसिला शुरु हुआ था। संयोग से उस वक्त पत्र बलराज मधोक ने लिखा था और आरएसएस को सक्रिय होना पड़ा था। लेकिन सीधे तौर पर संघ ने जनसंघ की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप नहीं किया था लेकिन चार दशक बाद परिस्थितिया उल्टी हैं। पत्र लालकृष्ण आडवाणी ने लिखा। और इल्जाम पार्टी की कार्यप्रणाली पर लगाकर अपना कद बीजेपी के बाहर कहीं ज्यादा बड़ा कर लिया। इस बार आरएसएस ने इतिहास बदलते हुये सीधा हस्तेक्षेप किया और बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ से लेकर लालकृष्ण आडवाणी तक से सीधी बातचीत की। और जो समझौते का रास्ता संघ के हस्तक्षेप से बाहर निकला उसने भी बीजेपी के तरिक लोकतंत्र या राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी की सोच की धज्जियां उड़ा दीं। क्योंकि समझौते के फार्मूले के तहत जो सामने आया उसके मुताबिक राष्ट्रीय पार्टी बीजेपी अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का एलान नहीं करेगी। और 2014 के चुनाव परिणाम के बाद अगर हालात आडवाणी के पक्ष में गठबंधन के जरीये झुकते है तो छह महीने के लिये आडवाणी का रास्ता भी प्रधानमंत्री बनने के लिये संघ रोकेगा नहीं।
सवाल तीन हैं क्या काग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए के जरीये जिस हालात में देश आ पहुंचा है, उसमें बीजेपी मान चुकी है कि ये संघर्ष करने की जरुरत नहीं है. सत्ता उसके पास चल कर खुद आ जायेगी। दूसरा सवाल है कि क्या आरएसएस ऐसे मौके को हाथ से कोने नहीं देना चाहता है। इसलिये मोदी की अगुवाई में संघ उस राजनीतिक प्रयोग को बीजेपी में करना चाह रहा है जिसे अटल-आडवाणी ने अपने दौर में करने नहीं दिया। यानी पहली बार संघ को लगने लगा है कि नेताओं के बदले कार्यकर्ताओं की पार्टी बीजेपी की होनी चाहिये। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी के सबसे बुजुर्ग नेता के बगैर बीजेपी चल नहीं सकती इसे भी सरसंघचालक ने आडवाणी से सुलह कर जता दिया। तो फिर असल में आडवाणी के साथ समझौते का फार्मूला रहा क्या और मोदी का मतलब बीजेपी के लिये होगा क्या है। तो जरा परिस्थितियों को परखें। जब राजनाथ ने गोवा में मोदी के नाम का एलान किया, उस वक्त वही शख्स बीजेपी के नेताओं की उस कतार में नहीं था जो ऐलान के वक्त मौजूद थे। और जो मौजूद थे,ऐलान के वक्त खामोश थे। खामोशी को तोड़ा जश्न के हुडदंग ने। कार्यकर्ताओं के हुजुम ने नारों के साथ जो जश्न मनाना शुरु किया उसके संकेत कई निकले। सवाल उठा क्या बीजेपी में एक नये युग की शुरुआत हुई। वाजपेयी आडवाणी के बाद मोदी युग की। और इस युग में नेता सिर्फ मोदी और बाकि कार्यकर्ता होंगे। यह सवाल इसलिये क्योंकि बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की सत्ता भोगते -भोगते सिर्फ बीजेपी के कैडर में ही जंग नहीं लगी बल्कि संघ के स्वयसेवक भी मस्ती में खोये। संघ के मुद्दे भी हवा हवाई हुये और दिल्ली से चलायी जाने वाली बीजेपी का भी कांग्रेसीकरण हुआ। इस दौर माना यही गया सत्ता चाहिये तो बीजेपी को संघ की जमीन पर नहीं दिल्ली की सियासी समझ के अनुसार चलना होगा। शायद इसीलिये जिस मोदी को दिल्ली की सियासी समझ में अछूत करार देने का प्रयास बार बार हुआ। वहीं मोदी बार बार पलटे और उसी मोदी के आसरे बीजेपी में अलख जगाने का सपना संघ ने देखा। और मोदी के नाम के ऐलान से ही हर प्रांत में बीजेपी का कार्यकर्ता नाचता गाता, मिठाई बांटता और पटाखे छोडता सड़क पर आ गया।
तो क्या मोदी की पहचान मौजूदा राजनेताओं की कतार से एकदम अलग है। क्योंकि इसी दौर में नेताओं की साख और चमक सड़क के आंदोलनों में खत्म भी हुई और घूमिल भी पड़ी। हर पार्टी का नेता जनता को एकसा दिखायी देने लगा है। और किसी भी नेता को कोई भी पद सौपा जाये किसी भी पार्टी के कैडर या आम कार्यकर्ताओं में कोई बड़ी थिरकन देखने को नहीं मिलती है। लेकिन नरेन्द्र मोदी यही अलग दिखायी दिये. क्योंकि वह दो दो हाथ करने के लिये तैयार रहे। भाषणों में गांधी परिवार को नहीं बख्शा तो गुजरात की चमक के पीछे मनमोहन के अर्थशास्त्र से बड़ी कारपोरेट लकीर खींच दी। चीन पाकिस्तान के मसले को राष्ट्रवाद से जोड़ा और सरदार पटेल को जगाकर नेहरु को खारिज करने की लकीर खींचनी शुरु की। और तो और गुजरात दंगो की ताप को 11 बरस बाद भी माफी मांगे बगैर दिल में जलाये रहे। यानी मोदी अलग दिखते रहे और गुजरात में लगातार सफल होकर टिके भी रहे। यानी आक्रोश की भाषा के साथ मौजूदा राजनीति को लेकर पैदा होते जन-आक्रोश को ही अपना हथियार बनाने का अदभूत खेल मोदी ने खेला। शायद इसीलिये गुजरात के बाहर निकल कर 2014 के मिशन की अगुवाई पर जैसे ही मुहर लगी, मोदी के ना शब्द बदले ना अंदाज और ना ही तेवर बदले। भाषण में पाच बार मनमोहन सरकार को बेशर्म कहा। और हर किसी ने जमकर ताली पीटी। और मोदी युग की शुरुआत हुई। लेकिन गोवा में शुरुआत तो दिल्ली में उसी शुरुआत पर मठ्ठा डालने की कवायद भी संघ के एक दूसरे स्वयंसेवक ने की। और निशाने पर लिया भी स्वयंसेवक को। और रास्ता दिखाने भी स्वयंसेवक यानी सरसंघचालक को आना पड़ा। क्योंकि नरेन्द्र मोदी को कैपेन कमेटी का चैयरमैन बनाने पर संघ की हरी झंडी देने के साथ ही सरसंघचालक मोहन भागवत और सहकार्यवाह भैयाजी जोशी ने इशारा यही किया कि बीजेपी में सहमति बनाकर काम हो । लेकिन सहमति की जगह जिस तेजी से मोदी की ताजपोशी गोवा में दिखायी दी उसके पीछे भी बार बार बीजेपी अधयक्ष राजनाथ ने संघ की ही दुहाई दी। और संघ की दुहाई के पीछे संघ और बीजेपी में पुल का काम करने वाले सुरेश सोनी और संसदीय बोर्ड में संघ की नुमाइन्दगी करते रामलाल की सहमति थी। और राजनाथ ने इसे ही आधार बनाकर बीजेपी के भीतर ही नहीं आडवाणी को भी यही संकेत दिये की जो संघ चाहता है उसे वह सिर्फ लागू करवा रहे है। और यही बात सबसे बुजुर्ग स्वयंसेवक को नहीं भायी। आडवाणी अड़े कि राजनीतिक दल कैसे चले और उसमें कैसे निर्णय लिये जायें यह संघ तय नहीं कर सकता। लेकिन खुद का रास्ता निकलवाने के लिये वह संघ के सामने झुकने को तैयार हो गये।
समझौते के फार्मूले में तीन निर्णय सामने आये। पहला, राजनाथ सिंह कोई भी निर्णय आडवाणी से परामर्श के बगैर नहीं लेंगे। यानी आडवाणी पार्टी के भीतर परामर्श और सुझाव देने वाले बुजुर्ग नेता के तौर पर लगातार गाईड करते रहेंगे। यानी गोवा सरीखे निर्णय जिस तरह लिये गये वैसा दोहराव नहीं होगा। दूसरा रामलाल को संसदीय बोर्ड से हटाया जायेगा। और इस पर संघ की तरफ से तीन महिने पहले मार्च में हुई प्रतिनिधी सभा में रामलाल को हटाने पर हुई सहमति की जानकारी संघ की तरफ से संघ को दी गई। यानी रामलाल को लेकर पहले ही निर्णय लिया जा चुका है। यह जानकारी आडवाणी को दी गई। और तीसरा सुरेश सोनी की भी संघ के संगठन में वापस बुलाया जायेगा। सोनी के बारे में भी संघ की तरफ से यही कहा गया कि लगातार बिगडती तबियत की वजह से सोनी जी ने पहले ही पद छोड़ने को कहा था । लेकिन अब इसे लागू कराया जायेगा ।
यानी आडवाणी ने अगर अपना उगला दूबारा निगला तो राजनीतिक तौर पर यह आडवाणी की जरुरत भी थी और संघ ने आडवाणी को जिस तरह गाइड के तौर रखकर राजनाथ को हिदायत दी, उससे संघ के अनुकुल परिस्थितियां भी बनीं। क्योंकि मोदी को ढाल बनाकर राजनाथ जिस संघ के आसरे चाल चल रहे थे उसे थाम कर झटके में संघ ने आडवाणी को गाइड की भूमिका में भी ला दिया और मोदी की बेखौफ उड़ान पर भी लगाम लगा दी।
सवाल तीन हैं क्या काग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए के जरीये जिस हालात में देश आ पहुंचा है, उसमें बीजेपी मान चुकी है कि ये संघर्ष करने की जरुरत नहीं है. सत्ता उसके पास चल कर खुद आ जायेगी। दूसरा सवाल है कि क्या आरएसएस ऐसे मौके को हाथ से कोने नहीं देना चाहता है। इसलिये मोदी की अगुवाई में संघ उस राजनीतिक प्रयोग को बीजेपी में करना चाह रहा है जिसे अटल-आडवाणी ने अपने दौर में करने नहीं दिया। यानी पहली बार संघ को लगने लगा है कि नेताओं के बदले कार्यकर्ताओं की पार्टी बीजेपी की होनी चाहिये। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी के सबसे बुजुर्ग नेता के बगैर बीजेपी चल नहीं सकती इसे भी सरसंघचालक ने आडवाणी से सुलह कर जता दिया। तो फिर असल में आडवाणी के साथ समझौते का फार्मूला रहा क्या और मोदी का मतलब बीजेपी के लिये होगा क्या है। तो जरा परिस्थितियों को परखें। जब राजनाथ ने गोवा में मोदी के नाम का एलान किया, उस वक्त वही शख्स बीजेपी के नेताओं की उस कतार में नहीं था जो ऐलान के वक्त मौजूद थे। और जो मौजूद थे,ऐलान के वक्त खामोश थे। खामोशी को तोड़ा जश्न के हुडदंग ने। कार्यकर्ताओं के हुजुम ने नारों के साथ जो जश्न मनाना शुरु किया उसके संकेत कई निकले। सवाल उठा क्या बीजेपी में एक नये युग की शुरुआत हुई। वाजपेयी आडवाणी के बाद मोदी युग की। और इस युग में नेता सिर्फ मोदी और बाकि कार्यकर्ता होंगे। यह सवाल इसलिये क्योंकि बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की सत्ता भोगते -भोगते सिर्फ बीजेपी के कैडर में ही जंग नहीं लगी बल्कि संघ के स्वयसेवक भी मस्ती में खोये। संघ के मुद्दे भी हवा हवाई हुये और दिल्ली से चलायी जाने वाली बीजेपी का भी कांग्रेसीकरण हुआ। इस दौर माना यही गया सत्ता चाहिये तो बीजेपी को संघ की जमीन पर नहीं दिल्ली की सियासी समझ के अनुसार चलना होगा। शायद इसीलिये जिस मोदी को दिल्ली की सियासी समझ में अछूत करार देने का प्रयास बार बार हुआ। वहीं मोदी बार बार पलटे और उसी मोदी के आसरे बीजेपी में अलख जगाने का सपना संघ ने देखा। और मोदी के नाम के ऐलान से ही हर प्रांत में बीजेपी का कार्यकर्ता नाचता गाता, मिठाई बांटता और पटाखे छोडता सड़क पर आ गया।
तो क्या मोदी की पहचान मौजूदा राजनेताओं की कतार से एकदम अलग है। क्योंकि इसी दौर में नेताओं की साख और चमक सड़क के आंदोलनों में खत्म भी हुई और घूमिल भी पड़ी। हर पार्टी का नेता जनता को एकसा दिखायी देने लगा है। और किसी भी नेता को कोई भी पद सौपा जाये किसी भी पार्टी के कैडर या आम कार्यकर्ताओं में कोई बड़ी थिरकन देखने को नहीं मिलती है। लेकिन नरेन्द्र मोदी यही अलग दिखायी दिये. क्योंकि वह दो दो हाथ करने के लिये तैयार रहे। भाषणों में गांधी परिवार को नहीं बख्शा तो गुजरात की चमक के पीछे मनमोहन के अर्थशास्त्र से बड़ी कारपोरेट लकीर खींच दी। चीन पाकिस्तान के मसले को राष्ट्रवाद से जोड़ा और सरदार पटेल को जगाकर नेहरु को खारिज करने की लकीर खींचनी शुरु की। और तो और गुजरात दंगो की ताप को 11 बरस बाद भी माफी मांगे बगैर दिल में जलाये रहे। यानी मोदी अलग दिखते रहे और गुजरात में लगातार सफल होकर टिके भी रहे। यानी आक्रोश की भाषा के साथ मौजूदा राजनीति को लेकर पैदा होते जन-आक्रोश को ही अपना हथियार बनाने का अदभूत खेल मोदी ने खेला। शायद इसीलिये गुजरात के बाहर निकल कर 2014 के मिशन की अगुवाई पर जैसे ही मुहर लगी, मोदी के ना शब्द बदले ना अंदाज और ना ही तेवर बदले। भाषण में पाच बार मनमोहन सरकार को बेशर्म कहा। और हर किसी ने जमकर ताली पीटी। और मोदी युग की शुरुआत हुई। लेकिन गोवा में शुरुआत तो दिल्ली में उसी शुरुआत पर मठ्ठा डालने की कवायद भी संघ के एक दूसरे स्वयंसेवक ने की। और निशाने पर लिया भी स्वयंसेवक को। और रास्ता दिखाने भी स्वयंसेवक यानी सरसंघचालक को आना पड़ा। क्योंकि नरेन्द्र मोदी को कैपेन कमेटी का चैयरमैन बनाने पर संघ की हरी झंडी देने के साथ ही सरसंघचालक मोहन भागवत और सहकार्यवाह भैयाजी जोशी ने इशारा यही किया कि बीजेपी में सहमति बनाकर काम हो । लेकिन सहमति की जगह जिस तेजी से मोदी की ताजपोशी गोवा में दिखायी दी उसके पीछे भी बार बार बीजेपी अधयक्ष राजनाथ ने संघ की ही दुहाई दी। और संघ की दुहाई के पीछे संघ और बीजेपी में पुल का काम करने वाले सुरेश सोनी और संसदीय बोर्ड में संघ की नुमाइन्दगी करते रामलाल की सहमति थी। और राजनाथ ने इसे ही आधार बनाकर बीजेपी के भीतर ही नहीं आडवाणी को भी यही संकेत दिये की जो संघ चाहता है उसे वह सिर्फ लागू करवा रहे है। और यही बात सबसे बुजुर्ग स्वयंसेवक को नहीं भायी। आडवाणी अड़े कि राजनीतिक दल कैसे चले और उसमें कैसे निर्णय लिये जायें यह संघ तय नहीं कर सकता। लेकिन खुद का रास्ता निकलवाने के लिये वह संघ के सामने झुकने को तैयार हो गये।
समझौते के फार्मूले में तीन निर्णय सामने आये। पहला, राजनाथ सिंह कोई भी निर्णय आडवाणी से परामर्श के बगैर नहीं लेंगे। यानी आडवाणी पार्टी के भीतर परामर्श और सुझाव देने वाले बुजुर्ग नेता के तौर पर लगातार गाईड करते रहेंगे। यानी गोवा सरीखे निर्णय जिस तरह लिये गये वैसा दोहराव नहीं होगा। दूसरा रामलाल को संसदीय बोर्ड से हटाया जायेगा। और इस पर संघ की तरफ से तीन महिने पहले मार्च में हुई प्रतिनिधी सभा में रामलाल को हटाने पर हुई सहमति की जानकारी संघ की तरफ से संघ को दी गई। यानी रामलाल को लेकर पहले ही निर्णय लिया जा चुका है। यह जानकारी आडवाणी को दी गई। और तीसरा सुरेश सोनी की भी संघ के संगठन में वापस बुलाया जायेगा। सोनी के बारे में भी संघ की तरफ से यही कहा गया कि लगातार बिगडती तबियत की वजह से सोनी जी ने पहले ही पद छोड़ने को कहा था । लेकिन अब इसे लागू कराया जायेगा ।
यानी आडवाणी ने अगर अपना उगला दूबारा निगला तो राजनीतिक तौर पर यह आडवाणी की जरुरत भी थी और संघ ने आडवाणी को जिस तरह गाइड के तौर रखकर राजनाथ को हिदायत दी, उससे संघ के अनुकुल परिस्थितियां भी बनीं। क्योंकि मोदी को ढाल बनाकर राजनाथ जिस संघ के आसरे चाल चल रहे थे उसे थाम कर झटके में संघ ने आडवाणी को गाइड की भूमिका में भी ला दिया और मोदी की बेखौफ उड़ान पर भी लगाम लगा दी।
Friday, June 7, 2013
मोदी चले हंस की चाल
2009 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद शिमला में बीजेपी की चिंतन बैठक हुई थी। उस वक्त बाल आप्टे ने चिंतन को लेकर जो रिपोर्ट बनायी उसे बीजेपी के ही एक महारथी ने लीक कर दिया था। लेकिन उस वक्त जो सवाल उठे थे संयोग से 2014 के चुनाव से पहले यह सवाल आज भी मौजू है और अब बीजेपी के भीतर सुगुबुहाट चल निकली है कि क्या बीजेपी को मोदी की हवा में बह जाना चाहिये या फिर जनता के सामने जाने से पहले तमाम मुद्दो पर एक बार फिर चितंक बैठक करनी चाहिये।
सवाल है कि गोवा अधिवेशन में बीजेपी का कौन ऐसा महारथी होगा जो सच बोलने के लिये सामने आयेगा और खुलकर कहेगा कि चुनाव प्रचार या चुनाव समिति की बात तब तक नहीं करनी चाहिये जब तक विकल्प का रास्ता ना हो। क्योकि 2009 के चुनाव की हार की सबसे बडी वजह उस वक्त आडवाणी का हल्ला था। मनरेगा को लेकर समझ नहीं थी और सिवाय मनमोहन सिंह को कमजोर बताने के अलावे कोई रणनीति नहीं थी। जबकि इसबार सरकार संसद को दरकिनार कर फूड सिक्यूरटी बिल और कैश ट्रासंभर का खेल शुर करने वाली है। और यह सीधे सीधे गरीबी रेखा से नीचे के उस तबके को प्रभावित करेगा जो लाइन में खडे होकर सौ फिसदी वोट डालता है। लेकिन बीजेपी ने कभी इस बारे में नहीं सोचा।
वोट डालने वाला दूसरा बडा तबका अल्पसंक्यक है। जो एक मुनादी पर वोट डालने के लिये कतारो में नजर आने लगता है। और मोदी के नाम पर बीजेपी का झंडा लहराने का मतलब है मुस्लिम वोट बैंक की तरफ से पहले ही आंख मूंद लेना। और उन सवालो पर चुप्पी बनाये रखना जो सवाल आज जनता को परेशान किये हुये है मसलन बीजेपी के यह अनसुलझे जवाब है कि आंतरिक सुरक्षा और सीमा सुरक्षा को लेकर उसकी नीति क्या होगी, घपले, घोटाले ना हो इसपर आर्थिक नीति कौन सी होगी ,बीपीएल परिवारो के लिये कौन सी योजना होगी ,मौजूदा शिक्षा नीति का विक्लप क्या होगा यानी मनमोहन सरकार के जिन भी मुद्दो पर बीजेपी विरोध कर रही है सत्ता में आने के बाद उन्ही मुद्दो पर बीजेपी की राय क्या होगी यह सामने आना चाहिये।
यानी मोदी की हवा को जमीन पर लाने के लिये गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में 2009 की तर्ज पर चितन बैठक का सवाल उठ सकता है। अगर ऐसा होता है तो अंतर सिर्फ इतना ही होगा कि 2009 में हारने के बाद कमजोरी खोजी गई और अब जीतने के लिये मजबूती बनाने की बात होगी। हो क्या रहा है यह समझे तो जोडतोड कर हर कोई अपनी जमीन ही पुख्ता करने में लगा है जैसे सत्ता बीजेपी के दरवाजे पर दस्तक दे चुकी है। पन्नो को पलटे तो मौजूदा स्थिति समझने में कुछ और मदद मिलेगी। मसलन नीतिन गडकरी ने राजनाथ सिंह के लिये रास्ता बनाया। राजनाथ सिंह नरेन्द्र मोदी के लिये रास्ता बना रहे है। मोदी का रास्ता पुख्ता होते चले इसपर गडकरी भी सहमति जता रहे है और गडकरी की यही सहमति राजनाथ को मजबूत करते जा रही है। यानी राजनाथ, मोदी और गडकरी की तिकडी पहली बार एक-दूसरे के हित को साधते हुये दिल्ली की उस चौकडी पर भारी पड रही है जिसे कभी सरसंघचालक मोहनभागवत ने यह कहते हुये खारिज किया था कि बीजेपी का नया अध्यक्ष दिल्ली से नहीं होगा। तो सवाल तीन है। पहला क्या 2014 के चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष के लिये मोदी के नाम पर आरएसएस ने ठप्पा लगा दिया है। दूसरा क्या प्रचार समिति के जरीये -बीजेपी साथी दलो के मिजाज के एसिड टेस्ट के लिये तैयार हो गई है। और तीसरा क्या संसदीय बोर्ड के आगे मोदी की लक्षमण रेखा खिंच दी गयी है। यानी नरेन्द्र मोदी के ही इद्रगिर्द बीजेपी को चलाने की ऐसी तैयारी राजनाथ कर रहे है जिससे गोवा अधिवेशन से लेकर आने वाले वक्त में तमाम राजनीतिक सवाल सिर्फ 2014 की चुनावी तैयारी में ही सिमट जाये। क्योकि राजनाथ सिंह ने जो आडवाणी को समझाया उसके मुताबिक -प्रचार की कमान थामते ही मोदी देश भर भ्रमण करेंगे। इससे कार्यकर्ताओ में उत्साह आयेगा और आने वाले वक्त में दिल्ली,मध्यप्रदेश, छत्तिसगढ और राजस्थान के चुनाव में इसका सीधा लाभ बीजेपी को मिलेगा। जानकारी के मुताबिक नरेन्द्र मोदी ने आडवाणी से मिलने पर जब आश्रिवाद मांगा तो आडवाणी ने मोदी के सर पर हाथ रख यही कहा कि आगे बढिये हम सब साथ है। यानी आडवाणी समझ चुके है कि फिलहाल राजनाथ, मोदी और गडकरी की तिकडी की ही चल रही है तो उन्होने सुझाव सिर्फ इतना दिया की गडकरी चुनाव समिति संभाले और मोदी प्रचार समिति। क्योकि आडवाणी मोदी के इस मिजाज को जानते है कि प्रचार समिति ही धीरे धीरे चुनाव के समूचे तौर तरीके को हडप लेगी। शायद गडकरी भी इस बिसात को समझने लगे है इसीलिये उन्होने खुद के नागपुर से चुनाव लडने का बहाना बना कर चुनाव समिति संभालने से इंकार कर दिया। लेकिन राजनीति तिकडमो से नही चलती। और इसके लिये गोवा के ही 2002 के ुस अधिवेशन में लौटना होगा जहा वाजपेयी टाहते थे कि मोदी गुजरात सीएम का पद छोड दें और मोदी ने तिकडम से ना सिर्फ उस वक्तक खुद को बचाया बल्कि अपने लिये सियासी लकीर खिंचते चले गये। शायद इसीलिये कहा जा रहा है कि जो कहानी 2002 में शुरु हुई उस कहानी की असल पटकथा क्या 2013 में लिखी जायेगी। 2002 में बीजेपी के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी सवाल नरेन्द्र मोदी ही थे और 11 बरस बाद 2013 में भी गोवा अधिवेशन में सवाल मोदी ही होगें। 2002 में नरेन्द्र मोदी को गुजरात के सीएम के पद को छोडने का सवाल था। 2013 में मोदी को 2014 की कमान सौपने का सवाल है। 2002 में मोदी के चहेतो ने बिसात ऐसी बिछायी कि मोदी की गद्दी बरकरार रह गयी। और माना यही गया कि 2002 में राजधर्म की हार हुई और मोदी की जीत हुई। वहीं 2013 में अब मोदी के लिये रेडकारपेट दिल्ली में तो बिछ चुकी है लेकिन रेडकारपेट पर मोदी चलेगे कब इस आस में गोवा अधिवेशवन कल से शुरु हो रहा है। और सवाल एकबार फिर मोदी है। 2002 के वक्त गुजरात दंगो को बीजेपी पचा नहीं पा रही थी क्योकि उस वक्त केन्द्र में बीजेपी की ही अगुवाई में एनडीए की सरकार थी। लेकिन 2013 में बीजेपी को मोदी की अगुवाई इसलिये चाहिये क्योकि वह केन्द्र की सत्ता पर काबिज होना चाहती है। यानी जो मोदी 2002 में वाजपेयी सरकार के लिये दाग थे वही मोदी 2013 में बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाने के लिये तुरुप का पत्ता बन चुके है। यानी मोदी ने 2014 के मिशन को थामा को बीजेपी के सांसदो की संख्या बढेगी लेकिन बीजेपी के भीतर का अंतर्द्वदन्द यही है कि मोदी के आने सी सीट तो बढती है लेकिन सत्ता फिर भी दूर रहती है।
यानी बीजेपी को उन सहयोगियो का भी साथ चाहिये जो अयोध्या, कामन सिविल कोड और धारा 370 को ठंडे बस्ते में डलवाकर बीजेपी के साथ खडे हुये थे। इसलिये सवाल यह नहीं है कि मोदी के नाम का एलान गोवा में हो जाता है। सवाल यह है कि 2002 में कमान वाजपेयी के पास थी जो मोदी को राजघर्म का पाठ पढा रहे थे ौर 2013 में बीजेपी मोदी की सवारी करने जा रही है जहा गुजरात से आगे के मोदी के राजघर्म की नयी पटकथा का इंतजार हर कोई कर रहा है।
मौजूदा दौर में मोदी इसलिये गोवा से आगे भी बडा सवाल बन चुके है क्योकि इसलिये मोदी को लेकर बीजेपी के भीतर सवाल सहयोगी दलो को लेकर भी उठ रहा है और बीजेपी में गठबंधन की जरुरत भी महत्वपूर्म बनती चली जा रही है। चन्द्बाबाबू नायडू , अजित सिंह , चौटाला , नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, रामविलास पासवान,फाऱुख अब्दुल्ला, शिबू सोरेन और एक वक्त जयललिता को उनके हटने पर करुणानिधी बीजेपी के साथ खडे थे। यानी यह दस चेहरे ऐसे है जो 2002 के वक्त बीजेपी के साथ थे तो एनडीए की सरकार बनी हुई थी और चल रही थी। लेकिन 2004 के बाद से 2013 तक को लेकर बीजेपी में भरोसा नहीं जागा है कि एनडीए फिर खडी हो और सरकार बनाने की स्थिति आ जाये। लेकिन 2014 को लेकर अब नरेन्द्र मोदी को जिस तरह प्रचार समिति के कमांडर के तौर पर बीजेपी गुजरात के बाहर निकालने पर सहमति बना चुकी है ऐसे में बीजेपी को अपनी उम्मीद तो सीटे बढाने को लेकर जरुर है लेकिन मौजूदा वक्त में बीजेपी के पास कुछ जमा तीन बडे साथी है। नीतिश कुमार ,उद्दव ठाकरे और प्रकाश सिंह बादल। और इसमें भी नीतिश कुमार मोदी का नाम आते ही गठबंधन से बाहर का रास्ता नापने को तैयार है। शिवसेना के सामने मोदी का नाम आने पर अपने ही वोट बैंक में सेंघ लगने का खतरा है।तो वह दबी जुबान में कभी सुषमा स्वराज तो कभी आडवाणी का नाम उछालने से नहीं कतराती है। लेकिन बीजेपी मोदी को लेकर जिस मूड में है उसे पढे तो तीन बाते साफ उभरती है। पहला मोदी की लोकप्रियता भुनाने पर ही बीजेपी के वोट बढगें। दूसरा सहयोगियो की मजबूरी के आधार पर बीजेपी अपने लाभ को गंवाना नहीं चाहेगी। और तीसरा मोदी की अगुवाई में अगर बीजेपी 180 के आंकडे तक भी पहुंचती है तो नये सहयोगी साथ आ खडे हो सकते है। और मोदी को लेकर फिलहाल राजनाथ गोवा अधिवेशन में इसी बिसात को बिछाना चाहते है जिससे संकेत यही जाये कि मोदी के विरोधी राजनीतिक दलो की अपनी मजबूरी चुनाव लडने के लिये हो सकती है लेकिन चुनाव के बाद अगर बीजेपी सत्ता तक पहुंचने की स्तिति में आती है तो सभी बीजेपी के साथ खडे होगें ही।
सवाल है कि गोवा अधिवेशन में बीजेपी का कौन ऐसा महारथी होगा जो सच बोलने के लिये सामने आयेगा और खुलकर कहेगा कि चुनाव प्रचार या चुनाव समिति की बात तब तक नहीं करनी चाहिये जब तक विकल्प का रास्ता ना हो। क्योकि 2009 के चुनाव की हार की सबसे बडी वजह उस वक्त आडवाणी का हल्ला था। मनरेगा को लेकर समझ नहीं थी और सिवाय मनमोहन सिंह को कमजोर बताने के अलावे कोई रणनीति नहीं थी। जबकि इसबार सरकार संसद को दरकिनार कर फूड सिक्यूरटी बिल और कैश ट्रासंभर का खेल शुर करने वाली है। और यह सीधे सीधे गरीबी रेखा से नीचे के उस तबके को प्रभावित करेगा जो लाइन में खडे होकर सौ फिसदी वोट डालता है। लेकिन बीजेपी ने कभी इस बारे में नहीं सोचा।
वोट डालने वाला दूसरा बडा तबका अल्पसंक्यक है। जो एक मुनादी पर वोट डालने के लिये कतारो में नजर आने लगता है। और मोदी के नाम पर बीजेपी का झंडा लहराने का मतलब है मुस्लिम वोट बैंक की तरफ से पहले ही आंख मूंद लेना। और उन सवालो पर चुप्पी बनाये रखना जो सवाल आज जनता को परेशान किये हुये है मसलन बीजेपी के यह अनसुलझे जवाब है कि आंतरिक सुरक्षा और सीमा सुरक्षा को लेकर उसकी नीति क्या होगी, घपले, घोटाले ना हो इसपर आर्थिक नीति कौन सी होगी ,बीपीएल परिवारो के लिये कौन सी योजना होगी ,मौजूदा शिक्षा नीति का विक्लप क्या होगा यानी मनमोहन सरकार के जिन भी मुद्दो पर बीजेपी विरोध कर रही है सत्ता में आने के बाद उन्ही मुद्दो पर बीजेपी की राय क्या होगी यह सामने आना चाहिये।
यानी मोदी की हवा को जमीन पर लाने के लिये गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में 2009 की तर्ज पर चितन बैठक का सवाल उठ सकता है। अगर ऐसा होता है तो अंतर सिर्फ इतना ही होगा कि 2009 में हारने के बाद कमजोरी खोजी गई और अब जीतने के लिये मजबूती बनाने की बात होगी। हो क्या रहा है यह समझे तो जोडतोड कर हर कोई अपनी जमीन ही पुख्ता करने में लगा है जैसे सत्ता बीजेपी के दरवाजे पर दस्तक दे चुकी है। पन्नो को पलटे तो मौजूदा स्थिति समझने में कुछ और मदद मिलेगी। मसलन नीतिन गडकरी ने राजनाथ सिंह के लिये रास्ता बनाया। राजनाथ सिंह नरेन्द्र मोदी के लिये रास्ता बना रहे है। मोदी का रास्ता पुख्ता होते चले इसपर गडकरी भी सहमति जता रहे है और गडकरी की यही सहमति राजनाथ को मजबूत करते जा रही है। यानी राजनाथ, मोदी और गडकरी की तिकडी पहली बार एक-दूसरे के हित को साधते हुये दिल्ली की उस चौकडी पर भारी पड रही है जिसे कभी सरसंघचालक मोहनभागवत ने यह कहते हुये खारिज किया था कि बीजेपी का नया अध्यक्ष दिल्ली से नहीं होगा। तो सवाल तीन है। पहला क्या 2014 के चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष के लिये मोदी के नाम पर आरएसएस ने ठप्पा लगा दिया है। दूसरा क्या प्रचार समिति के जरीये -बीजेपी साथी दलो के मिजाज के एसिड टेस्ट के लिये तैयार हो गई है। और तीसरा क्या संसदीय बोर्ड के आगे मोदी की लक्षमण रेखा खिंच दी गयी है। यानी नरेन्द्र मोदी के ही इद्रगिर्द बीजेपी को चलाने की ऐसी तैयारी राजनाथ कर रहे है जिससे गोवा अधिवेशन से लेकर आने वाले वक्त में तमाम राजनीतिक सवाल सिर्फ 2014 की चुनावी तैयारी में ही सिमट जाये। क्योकि राजनाथ सिंह ने जो आडवाणी को समझाया उसके मुताबिक -प्रचार की कमान थामते ही मोदी देश भर भ्रमण करेंगे। इससे कार्यकर्ताओ में उत्साह आयेगा और आने वाले वक्त में दिल्ली,मध्यप्रदेश, छत्तिसगढ और राजस्थान के चुनाव में इसका सीधा लाभ बीजेपी को मिलेगा। जानकारी के मुताबिक नरेन्द्र मोदी ने आडवाणी से मिलने पर जब आश्रिवाद मांगा तो आडवाणी ने मोदी के सर पर हाथ रख यही कहा कि आगे बढिये हम सब साथ है। यानी आडवाणी समझ चुके है कि फिलहाल राजनाथ, मोदी और गडकरी की तिकडी की ही चल रही है तो उन्होने सुझाव सिर्फ इतना दिया की गडकरी चुनाव समिति संभाले और मोदी प्रचार समिति। क्योकि आडवाणी मोदी के इस मिजाज को जानते है कि प्रचार समिति ही धीरे धीरे चुनाव के समूचे तौर तरीके को हडप लेगी। शायद गडकरी भी इस बिसात को समझने लगे है इसीलिये उन्होने खुद के नागपुर से चुनाव लडने का बहाना बना कर चुनाव समिति संभालने से इंकार कर दिया। लेकिन राजनीति तिकडमो से नही चलती। और इसके लिये गोवा के ही 2002 के ुस अधिवेशन में लौटना होगा जहा वाजपेयी टाहते थे कि मोदी गुजरात सीएम का पद छोड दें और मोदी ने तिकडम से ना सिर्फ उस वक्तक खुद को बचाया बल्कि अपने लिये सियासी लकीर खिंचते चले गये। शायद इसीलिये कहा जा रहा है कि जो कहानी 2002 में शुरु हुई उस कहानी की असल पटकथा क्या 2013 में लिखी जायेगी। 2002 में बीजेपी के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी सवाल नरेन्द्र मोदी ही थे और 11 बरस बाद 2013 में भी गोवा अधिवेशन में सवाल मोदी ही होगें। 2002 में नरेन्द्र मोदी को गुजरात के सीएम के पद को छोडने का सवाल था। 2013 में मोदी को 2014 की कमान सौपने का सवाल है। 2002 में मोदी के चहेतो ने बिसात ऐसी बिछायी कि मोदी की गद्दी बरकरार रह गयी। और माना यही गया कि 2002 में राजधर्म की हार हुई और मोदी की जीत हुई। वहीं 2013 में अब मोदी के लिये रेडकारपेट दिल्ली में तो बिछ चुकी है लेकिन रेडकारपेट पर मोदी चलेगे कब इस आस में गोवा अधिवेशवन कल से शुरु हो रहा है। और सवाल एकबार फिर मोदी है। 2002 के वक्त गुजरात दंगो को बीजेपी पचा नहीं पा रही थी क्योकि उस वक्त केन्द्र में बीजेपी की ही अगुवाई में एनडीए की सरकार थी। लेकिन 2013 में बीजेपी को मोदी की अगुवाई इसलिये चाहिये क्योकि वह केन्द्र की सत्ता पर काबिज होना चाहती है। यानी जो मोदी 2002 में वाजपेयी सरकार के लिये दाग थे वही मोदी 2013 में बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाने के लिये तुरुप का पत्ता बन चुके है। यानी मोदी ने 2014 के मिशन को थामा को बीजेपी के सांसदो की संख्या बढेगी लेकिन बीजेपी के भीतर का अंतर्द्वदन्द यही है कि मोदी के आने सी सीट तो बढती है लेकिन सत्ता फिर भी दूर रहती है।
यानी बीजेपी को उन सहयोगियो का भी साथ चाहिये जो अयोध्या, कामन सिविल कोड और धारा 370 को ठंडे बस्ते में डलवाकर बीजेपी के साथ खडे हुये थे। इसलिये सवाल यह नहीं है कि मोदी के नाम का एलान गोवा में हो जाता है। सवाल यह है कि 2002 में कमान वाजपेयी के पास थी जो मोदी को राजघर्म का पाठ पढा रहे थे ौर 2013 में बीजेपी मोदी की सवारी करने जा रही है जहा गुजरात से आगे के मोदी के राजघर्म की नयी पटकथा का इंतजार हर कोई कर रहा है।
मौजूदा दौर में मोदी इसलिये गोवा से आगे भी बडा सवाल बन चुके है क्योकि इसलिये मोदी को लेकर बीजेपी के भीतर सवाल सहयोगी दलो को लेकर भी उठ रहा है और बीजेपी में गठबंधन की जरुरत भी महत्वपूर्म बनती चली जा रही है। चन्द्बाबाबू नायडू , अजित सिंह , चौटाला , नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, रामविलास पासवान,फाऱुख अब्दुल्ला, शिबू सोरेन और एक वक्त जयललिता को उनके हटने पर करुणानिधी बीजेपी के साथ खडे थे। यानी यह दस चेहरे ऐसे है जो 2002 के वक्त बीजेपी के साथ थे तो एनडीए की सरकार बनी हुई थी और चल रही थी। लेकिन 2004 के बाद से 2013 तक को लेकर बीजेपी में भरोसा नहीं जागा है कि एनडीए फिर खडी हो और सरकार बनाने की स्थिति आ जाये। लेकिन 2014 को लेकर अब नरेन्द्र मोदी को जिस तरह प्रचार समिति के कमांडर के तौर पर बीजेपी गुजरात के बाहर निकालने पर सहमति बना चुकी है ऐसे में बीजेपी को अपनी उम्मीद तो सीटे बढाने को लेकर जरुर है लेकिन मौजूदा वक्त में बीजेपी के पास कुछ जमा तीन बडे साथी है। नीतिश कुमार ,उद्दव ठाकरे और प्रकाश सिंह बादल। और इसमें भी नीतिश कुमार मोदी का नाम आते ही गठबंधन से बाहर का रास्ता नापने को तैयार है। शिवसेना के सामने मोदी का नाम आने पर अपने ही वोट बैंक में सेंघ लगने का खतरा है।तो वह दबी जुबान में कभी सुषमा स्वराज तो कभी आडवाणी का नाम उछालने से नहीं कतराती है। लेकिन बीजेपी मोदी को लेकर जिस मूड में है उसे पढे तो तीन बाते साफ उभरती है। पहला मोदी की लोकप्रियता भुनाने पर ही बीजेपी के वोट बढगें। दूसरा सहयोगियो की मजबूरी के आधार पर बीजेपी अपने लाभ को गंवाना नहीं चाहेगी। और तीसरा मोदी की अगुवाई में अगर बीजेपी 180 के आंकडे तक भी पहुंचती है तो नये सहयोगी साथ आ खडे हो सकते है। और मोदी को लेकर फिलहाल राजनाथ गोवा अधिवेशन में इसी बिसात को बिछाना चाहते है जिससे संकेत यही जाये कि मोदी के विरोधी राजनीतिक दलो की अपनी मजबूरी चुनाव लडने के लिये हो सकती है लेकिन चुनाव के बाद अगर बीजेपी सत्ता तक पहुंचने की स्तिति में आती है तो सभी बीजेपी के साथ खडे होगें ही।
Wednesday, June 5, 2013
रेडकॉरिडोर का सफर-3
जंगल गांव बदल गये युद्द क्षेत्र में
सरकार अलग, सुरक्षाकर्मियो की गाड़ी अलग, जायका अलग और राज्य अलग लेकिन कुछ अलग नहीं तो लाल निशान और बंदूकों को थामे हाथों का रवैया। आध्रप्रदेश से छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ से उड़ीसा की जमीन पर कदम रखने के लिये सिर्फ पांच कदम ही चलने पडते हैं और हर कदम के बाद सबकुछ बदल जाता है। लेकिन नक्सल नाम लेते ही आंध्र प्रदेश हो या छत्तीसगढ़ या उडीसा का सीमावर्ती इलाका सभी अपनी अपनी भाषा में लाल सलाम करते ही नजर आते हैं और नक्सल हो या सुरक्षाकर्मियों की फौज [यह कभी अकेले या दो - चार के गुट में नहीं होते] राज्यों की सीमाओं के खत्म होने या राज्य की सीमा शुरु होने के बाद भी एक सरीखे नजर आते हैं। चेट्टि गांव की सीमा पर सुबह सुबह गरम गरम इडली और मिठे बौंडा का नाश्ता हो या कोण्टा में कदम रखते ही झाल-मुरी की भुंजा। या उडीसा की सीमा पर नीरा पिलाने और पीते लोगों की ग्रुप। पग पग बदलते रंगों के बीच हर कोई जानता है कि उनकी जमीन से सिर्फ 35 किलोमीटर [सड़क के रास्ते यह दूरी 125 किलोमीटर की है] की दूरी पर दरभा में राजनेताओं के निशाना बनाया गया और उसके बाद कांग्रेस और बीजेपी की राजनीतिक लड़ाई शुरु हो चुकी है। यानी राजनेता आपस में सत्ता के लिये झगड़ते हैं। तो दादा लोग यानी नक्सली अपनी धून में संघर्ष करते हैं। कोई नक्सली संघर्ष या खूनी लड़ाई को खत्म करने खड़ा नहीं होता। छत्तीसगढ़ में झाल-मूरी बेचने वाले के लिये नक्सली दादा है और आंध्रप्रदेश में इडली बेचने वाले के लिये नक्सली अन्ना है। और कोण्टा या चेट्टि गांव में खडे हो जाइये उनके बीच का लगने लगीये तो वह सियासत के हर ककहरे को खोल कर रख देते हैं। आंध्रप्रदेश में कभी एनटीआर ने नक्सली को अन्ना कहकर फुसलाया तो छत्तीसगढ में रमन सिंह ने नक्सलियो के खिलाफ बंदूक उठाकर अपनी सियासत साधी। कैसे। यह आप दरभा घटना के ढाई हफ्ते पहले 7 मई को कोण्टा में रमन सिंह की राजनीतिक सभा से समझ सकते हैं। कोण्टा में रमन सिंह हेलिकाप्टर से पहुंचे। अगर चाहते तो सुरक्षा के कड़े घेरे में सडक के रास्ते पहुंच सकते थे। हेलीकॉप्टर ग्रीन हंट और सीआरपीएफ कैप में बने हेलिकाप्टर के स्थायी हेलीपैड पर उतरा। हेलीपैड से महज तीन किलोमीटर दूर रमन सिंह की सभा हुई। उसके बाद हेलिकाप्टर से उड़ गये। यानी दरभा घाटी में सुरक्षाकर्मियो की गैर मौजूदगी को लेकर जो रोना कांग्रेसी रो रहे हैं और रमन सिंह पर आरोप लगा रहे हैं, सच वह भी जानते हैं कि बीजापुर-दंतेवाडा से लेकर जगदलपुर-घमतरी तक हालात ऐसे हैं, जहां सड़क के दोनों तरफ जंगल तो है लेकिन जंगल गांव से कोई ताल्लुकात किसी सत्ता का नहीं रहा है और जो चुनाव एक वक्त ग्रामीण-आदिवासियों में उल्लास पैदा करता था वह चुनाव अब घृणा पैदा करने लगा है। क्योंकि चुनाव का मतलब है सौदेबाजी और वह भी ग्रामीण-आदिवासियों के नाम पर। अगर यह सवाल छत्तीसगढ़ के छोटे से किराना दुकान चलाने वाले का है तो छत्तीसगढ की सीमा से सटे आंध्रप्रदेश के चेट्टि गांव में इडली बेचने
वाला और सीधा समझा देता है। जब नकसली संगठन पीपुल्स वार ग्रूप बना तब तेंदू पत्ता को लेकर संघर्ष शुरु हुआ। 1980-84 में तेदूपत्ता तीन रुपये में पच्चतर बंडल खरीदा-बेचा जाता था। 2004 में यह 15 रुपये हुआ। और अभी 25 रुपये पहुचा है। लेकिन नक्सल प्रभावित इलाकों में यह तीन रुपये [80-84] से बढ़कर बारह रुपये फिर पच्चीस रुपये [92-95], उसके बाद पचपन रुपये [2004] और अभी 75 [2012 ] रुपये बेचा जा रहा है। यानी नक्सली ना होते तो तेदूपत्ता चुनते-सुखाते हुये उम्र गुजार देने वाले आदिवासियों को मजदूरी भी नही मिलती। संयोग देखिये दरभा घटना के बाद तेदूपत्ता की कीमत में पांच रुपये की वृद्दि हो गई। यानी अब सौ तेदूपत्ता के 75 बंडल की कीमत 80 से 82 रुपये तक लग रही है। यह छत्तीसगढ में कोण्टा से सुकुमा तक के सफर में कई जगहों पर पर खेत में सुखाते तेंदु पत्ता की खरीद-फरोख्त के दैरान मोल भाव में हमने देखा।
महत्वपूर्ण यह भी है कि राजनेताओं की हत्या के बाद चाहे सियासत गर्म हो, चाहे सुरक्षाकर्मियों की तादाद लगातार बढ़ रही हो लेकिन दरभा की घटना के बाद दादाओं की बढ़ती ताकत का जिक्र कर तेदूपत्ता चुनने-सुखाने वाले गांव वाले खुले तौर पर ठेकेदारो से कह रहे हैं कि उनकी कीमत उन्हें दें नहीं तो वह दादाओ से कहेंगे। छोटे और मझौले ठेकेदार कितने डरे हुये हैं, यह पहली बार राजनेताओं पर हमले के बाद खुले तौर नजर भी आने लगा है क्योंकि खरीद के लिये पत्तो की बंडल की सौदेबाजी तो वह कर रहे है लेकिन मांगी गई कीमत पर हर ठेकेदार खामोश हैं। कोण्टा में घुसते ही नजर अगर वहा की खूबसूरती पर टिकती है तो दूसरी तरफ सुरक्षाकर्मियों के अत्याधुनिक कैंप को देखकर भी एक क्षण लगता है जैसे हम कश्मीर या करगिल सीमा पर पहुंच गये। क्योंकि तार की बाड और हरे रंग जाल से तो कैंप की घेराबंदी नजर आती ही है। चारो तरफ तीस से चालीस फुट ऊंचे पहरेदारी के लिये बनाये गये मंच भी नजर आते हैं। आंखों में दूरबीन और कंधे या बोरियों के सहारे बंदूक से सटे जवान पहरा कुछ इस तरह देते खुले तौर पर दिखायी देते है जो झटके में भ्रम पैदा करता है कि कही हम युद्द स्थल या देश की सीमा पर तो नहीं पहुंच गये। दुरबीन के निशाने पर शबरी नदी है ।
शबरी नदी असल में छत्तीसगढ और उडीसा के बीच बहती है। जो नक्सलियों के राज्य बदलने का सबसे सुगम और सुनहरा रास्ता है। और दरभा घटना के बाद माना यही गया कि नक्सली शबरी नदी पार कर उडीसा के मलकानगिरी जिले में चले गये और दोनो राज्यो के बीच कोई संवाद की स्थिति है नहीं तो सिवाय दुरबीन से देखने के अलावे और कोई काम कैंप लगाकर बरसों बरस से बैठे सुरक्षाकर्मी कर भी नही पाते है। और 7 मई को जब कोण्टा में रमन सिंह का हेलीकाप्टर उतरा तो गाववाले अब यह कहने से नहीं थकते की पुलिस कैप तो मुखयमंत्री ने अपनी रईसी सुरक्षा के लिये लगाये हैं। क्योंकि जब रमन सिंह आये उस दिन सारी रक्षावयवस्था कोण्टा में ही सिमट गयी। खैर शबरी नदी की खूबसुरती देखकर हम भी ऐसे पिघले की हमले तय किया थकान मिटाने के लिये शबरी नदी में ही नहाया जाये। बेहद मीठा पानी। निर्मल जल। जंगल के बीच चिड़ियों के चहचहाने के बीच 29 मई को सुबह साढे नौ बजे से लेकर साढे दस बजे तक हम नदी में ही बैठे रह गये। थकान मिट गयी। नहाने से पहले ड्राइवर ने कहा कि साबुन मत लगाइयेगा। पानी गंदा हो जायेगा। नदी का पानी ही यहा जीवन है। वाकई सिर्फ पानी की धारा के बीच सुरक्षाकर्मियों की दुरबीन तले हम घंटों नहाये। अच्छा लगा। बाहर निकले तो और गाव की आबादी की तरफ बढे तो गांववालो ने बताया कि आगे की सरकार दादा लोगों की ही है। यानी नक्सलियों की सामांनातर सरकार। सुकमा से कुछ पहले हमले चितलनार की तरफ जाने को बढे तो रास्ते में कई छोटे छोटे गाव ऐसे मिले जहा खेती नहीं के बराबर थी । बासं की टोकरी या बांस से बनायी जाने वाले सामानो को वहा बुजुर्ग आदिवासी बना रहे थे । करीब 20 किलोमीटर के पैच में कही सरकार का कोई आभास था तो वह वन विभाग के लगे बोर्ड थे। जो बताते थे कि हम जंगल में है और जंगल में पेड को काटना सबसे बडा अपराध है। लेकिन जगह जगह कटे पेड़ों की तादाद लगातार इसका एहसास करा रही थी कि हर दिन पेड़ काटे जा रहे हैं। खासकर सागवान के पेड़। सागवन के पेड को काटकर अगर कोई नदी में डल देता है तो पेड़ बहते हुये नदी के पार पहुंच जाता है। यानी एक राज्य से दूसरे राज्य में और छत्तीसगढ हो या महाराष्ट्र दोनों राज्यों की सीमाओं पर नक्सल प्रभावित इलाको में ही पेड़ कटे हुये दिखायी देने लगे है। जबकि जहां नक्सल प्रभाव कम है या नहीं है वहां तो बल्लारशाह पेपर मिल को किलो के भाव से वन विभाग की पेड़ काट कर सप्लाई करता है। और उन इलाकों में पेड़ जमीन या कहे जड़ से काटे जाते है। जिससे पते ही नहीं चलता कि यहां पेड़ भी था। सिर्फ जमीन साफ होती चली जाती है। खैर नक्सल प्रभावित इलाकों में पेड़ काट कर नदी में डालने पर ग्रामीणों को एक पेड़ का तीन सौ रुपया मिलता है और पेड़ कटवाने से लेकर नदी में डलवाने वालो में पहले राज्य पार के माफिया थे अब यह ट्रेनिग गांव वालों को ही दे दी गयी है। नक्सल इसे रोक नहीं पा रहे हैं। क्योंकि यह गांववालों के अर्थव्यवस्था का नया आधार हो गया है और कमोवेश हफ्ते भर में दो पेड़ कटते है। नक्सलियों की माने तो वन विभाग के माफिया खुद हर दिन दो से चार पेड़ काटते हैं। ऐसे में कम से कम उनके प्रबावित इलाको में तो पेड़ बहुत ही कम कट रहे हैं।
लेकिन वासागौंडा, जगरगौंडा, चितलनार ऐसी जगह हैं, जहां बीडीओ, पटवारी या तहसीलदार की नहीं चलती। यहां नक्सली कमांडर की चलती है। और गांव में खेती से लेकर घर बनाने की जो जमीन गांववालों के पास है उसे सरकारी नजरीये से समझे तो वन विभाग की ही सारी जमीन है। लेकिन यहां जमीन के पट्टे कमांडर बांटता है। और कोई भी शिकायत हो उसके निपटारा ही कमांडर करता है। दरअसल यहां इन्द्रावती टाइगर प्रोजेक्ट के लिये नक्सलियो की स्पेशल प्लाटून भी है। सरकार इन्द्रवती टाइगर प्रोजेक्ट को राष्ट्रीय पार्क मानती है लेकिन इस घेरे में आये गांववालों की त्रासदी यह है कि वह प्रोजेक्ट की जमीन की भीतर एक पत्ता भी नहीं तोड़ सकते। नदी में मछली नहीं पकड़ सकते। अपने घर को नहीं बना सकते। तो ऐसे में नक्सलियों ने इन्द्रावती प्रोजेक्ट के नाम से ही विशेष प्लाटून बना कर इन आदिवासी बहुल इलाके में अपनी सामानांतर व्यवस्था बना ली है। जहां वन अधिकारी शाम ढलने की बाद जाने से घबराते हैं। लेकिन दरभा घटना के बाद पहली बार इस इलाके में भी एसटीएफ के जवान कंधे पर नयी नवेली बंदूक लगाये पहुंचे हैं। और एसटीएफ की जितनी बडी तादाद हमने बेमनी में देखी लगा वहा कोई आपरेशन हो रहा है। एसटीएफ के कमांडर से मिलने पर पता यही चला कि एसटीएफ की छह कंपनिया 28 मई को छत्तीसगढ़ पहुंच गई और अब खोजी अभियान शुर कर चुकी है। सुकमा की तरफ बढ़ते हुये हमने दो दर्जन बस और दर्जन भर ट्क-ट्रैक्टर में एसटीएफ के जवानों को आते देखा। ट्रक में जवान पानी की बड़ी बड़ी टंकिया भी लादे हुये थे। और साथ ही बख्तरबंद गाड़ी के साथ 50 के करीब मोटरसाइकिल पर भी एसटीएफ के जवान थे। हर मोटरसाइकिल से दो दो जवान कांधे पर बंदूक लटकाये और हर पांच मोटरसाइकिल के बीचे में एक मोटरसाइकिल पर लैंड माईन पकड़ने वाली मशीन के कर जाते दो दवान। और यह सिलसिला करीब एक लगातार में तीन किलोमीटर तक। यानी एसटीएफ एक साथ तीन किलोमीटर को अपनी जद में लेकर आगे बढ रही थी। जंगल -झाड के बीच एसटीएफ का तमगा लगाये जवानो की उम्र 20 से तीस के बीच थी। यूनिफार्म के नाम पर सिर्फ पेंट ही कमोवेश एक तरह की थी। बाकि गंजी से लेकर जूते और पानी की बोतल तक को देखकर लग रहा था कि अपने अपने घर से एसटीएफ जवान जूते-बोतल-गंजी लेकर चले है। क्योंकि प्लास्टिक की बोतल भी थी और बच्चों के स्कूल ले जाने वाली पानी की बोतल भी। गंजी सफेद भी थी। और रंग बिरंगी भी। कुछ जवान तो मोबाइल से बात करते
हुये मस्ती में जंगल में चल रहे थे। और इस अभियान में जो भी ग्रामीण-आदिवासी टकराता उसकी तालाशी लेकर उसे पकड़ने से जबान नहीं चुक रहे थे। तीन ग्रामीण आदिवासियों के पास से मोबाइल निकला तो एसटीएफ के कमांडर ने लात-घूसे जड़कर उसे बख्तरबंद गाडी में यह कहते हुये ढकेल कर बंद कर दिया कि यह नक्सलियों के सिग्नल दे रहा होगा। दो ग्रामीण आदिवासी महिलायें जंगल के बीचसे झोला उठाये आ रही थी तो जवानों ने दूर से ही उसे ऐसा डराना शुरु कर दिया कि महिला डर से वही बैठ गयी। लेकिन इस पूरी पहल में यह भी साफ लग रहा था कि एसटीएफ के जवान खुद कितने डरे हुये हैं और अपना डर कम करने के लिये शोर मचाते हुये आगे बढ़ रहे हैं। बीच बीच में नालों पर बने सीमेंट के छोटे छोटे पुलों के दोनो तरफ की सडक को भी जहां तहां नक्सलियों ने काट रखा था। उसे देखकर जवान दहशत में आते और कही कोई विस्फोटक तो नहीं है, इसे परखने में लंबा वक्त लगता। फिर खोजी अभियान आगे बढता ।यानी पूरा क्षेत्र ही जिस तरह बंदूक के साये में है ऐसे में यह सवाल पहली नजर में ही बेमानी लगता है कि देश के भीतर नागरिकों तक मुख्यधारा पहुंचाने या मुख्यधारा से उस कटी हुई धारा को कोई जोड़ने का प्रयास चल रहा है। युद्द क्षेत्र में तब्दील इस इलाके का दूसरा सच यह भी है कि कोई वैचारिक युद्द लड़ा जा रहा है ऐसा यहां बिलकुल नहीं लगता।
हां, एक दूसरे के खिलाफ आक्रोश और घृणा का भाव यहां जरुर नजर आया। एक तरफ सरकार की पूरी मशीनरी और दूसरी तरफ न्यूनतम की जुगाड़ में फंसे जंगल गांव के लोग। संवादहीनता की इस स्थिति का एक परिणाम भर है दरभा। 45 घंटे के सफर के बाद हम तो यही देख पाये।
सरकार अलग, सुरक्षाकर्मियो की गाड़ी अलग, जायका अलग और राज्य अलग लेकिन कुछ अलग नहीं तो लाल निशान और बंदूकों को थामे हाथों का रवैया। आध्रप्रदेश से छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ से उड़ीसा की जमीन पर कदम रखने के लिये सिर्फ पांच कदम ही चलने पडते हैं और हर कदम के बाद सबकुछ बदल जाता है। लेकिन नक्सल नाम लेते ही आंध्र प्रदेश हो या छत्तीसगढ़ या उडीसा का सीमावर्ती इलाका सभी अपनी अपनी भाषा में लाल सलाम करते ही नजर आते हैं और नक्सल हो या सुरक्षाकर्मियों की फौज [यह कभी अकेले या दो - चार के गुट में नहीं होते] राज्यों की सीमाओं के खत्म होने या राज्य की सीमा शुरु होने के बाद भी एक सरीखे नजर आते हैं। चेट्टि गांव की सीमा पर सुबह सुबह गरम गरम इडली और मिठे बौंडा का नाश्ता हो या कोण्टा में कदम रखते ही झाल-मुरी की भुंजा। या उडीसा की सीमा पर नीरा पिलाने और पीते लोगों की ग्रुप। पग पग बदलते रंगों के बीच हर कोई जानता है कि उनकी जमीन से सिर्फ 35 किलोमीटर [सड़क के रास्ते यह दूरी 125 किलोमीटर की है] की दूरी पर दरभा में राजनेताओं के निशाना बनाया गया और उसके बाद कांग्रेस और बीजेपी की राजनीतिक लड़ाई शुरु हो चुकी है। यानी राजनेता आपस में सत्ता के लिये झगड़ते हैं। तो दादा लोग यानी नक्सली अपनी धून में संघर्ष करते हैं। कोई नक्सली संघर्ष या खूनी लड़ाई को खत्म करने खड़ा नहीं होता। छत्तीसगढ़ में झाल-मूरी बेचने वाले के लिये नक्सली दादा है और आंध्रप्रदेश में इडली बेचने वाले के लिये नक्सली अन्ना है। और कोण्टा या चेट्टि गांव में खडे हो जाइये उनके बीच का लगने लगीये तो वह सियासत के हर ककहरे को खोल कर रख देते हैं। आंध्रप्रदेश में कभी एनटीआर ने नक्सली को अन्ना कहकर फुसलाया तो छत्तीसगढ में रमन सिंह ने नक्सलियो के खिलाफ बंदूक उठाकर अपनी सियासत साधी। कैसे। यह आप दरभा घटना के ढाई हफ्ते पहले 7 मई को कोण्टा में रमन सिंह की राजनीतिक सभा से समझ सकते हैं। कोण्टा में रमन सिंह हेलिकाप्टर से पहुंचे। अगर चाहते तो सुरक्षा के कड़े घेरे में सडक के रास्ते पहुंच सकते थे। हेलीकॉप्टर ग्रीन हंट और सीआरपीएफ कैप में बने हेलिकाप्टर के स्थायी हेलीपैड पर उतरा। हेलीपैड से महज तीन किलोमीटर दूर रमन सिंह की सभा हुई। उसके बाद हेलिकाप्टर से उड़ गये। यानी दरभा घाटी में सुरक्षाकर्मियो की गैर मौजूदगी को लेकर जो रोना कांग्रेसी रो रहे हैं और रमन सिंह पर आरोप लगा रहे हैं, सच वह भी जानते हैं कि बीजापुर-दंतेवाडा से लेकर जगदलपुर-घमतरी तक हालात ऐसे हैं, जहां सड़क के दोनों तरफ जंगल तो है लेकिन जंगल गांव से कोई ताल्लुकात किसी सत्ता का नहीं रहा है और जो चुनाव एक वक्त ग्रामीण-आदिवासियों में उल्लास पैदा करता था वह चुनाव अब घृणा पैदा करने लगा है। क्योंकि चुनाव का मतलब है सौदेबाजी और वह भी ग्रामीण-आदिवासियों के नाम पर। अगर यह सवाल छत्तीसगढ़ के छोटे से किराना दुकान चलाने वाले का है तो छत्तीसगढ की सीमा से सटे आंध्रप्रदेश के चेट्टि गांव में इडली बेचने
वाला और सीधा समझा देता है। जब नकसली संगठन पीपुल्स वार ग्रूप बना तब तेंदू पत्ता को लेकर संघर्ष शुरु हुआ। 1980-84 में तेदूपत्ता तीन रुपये में पच्चतर बंडल खरीदा-बेचा जाता था। 2004 में यह 15 रुपये हुआ। और अभी 25 रुपये पहुचा है। लेकिन नक्सल प्रभावित इलाकों में यह तीन रुपये [80-84] से बढ़कर बारह रुपये फिर पच्चीस रुपये [92-95], उसके बाद पचपन रुपये [2004] और अभी 75 [2012 ] रुपये बेचा जा रहा है। यानी नक्सली ना होते तो तेदूपत्ता चुनते-सुखाते हुये उम्र गुजार देने वाले आदिवासियों को मजदूरी भी नही मिलती। संयोग देखिये दरभा घटना के बाद तेदूपत्ता की कीमत में पांच रुपये की वृद्दि हो गई। यानी अब सौ तेदूपत्ता के 75 बंडल की कीमत 80 से 82 रुपये तक लग रही है। यह छत्तीसगढ में कोण्टा से सुकुमा तक के सफर में कई जगहों पर पर खेत में सुखाते तेंदु पत्ता की खरीद-फरोख्त के दैरान मोल भाव में हमने देखा।
महत्वपूर्ण यह भी है कि राजनेताओं की हत्या के बाद चाहे सियासत गर्म हो, चाहे सुरक्षाकर्मियों की तादाद लगातार बढ़ रही हो लेकिन दरभा की घटना के बाद दादाओं की बढ़ती ताकत का जिक्र कर तेदूपत्ता चुनने-सुखाने वाले गांव वाले खुले तौर पर ठेकेदारो से कह रहे हैं कि उनकी कीमत उन्हें दें नहीं तो वह दादाओ से कहेंगे। छोटे और मझौले ठेकेदार कितने डरे हुये हैं, यह पहली बार राजनेताओं पर हमले के बाद खुले तौर नजर भी आने लगा है क्योंकि खरीद के लिये पत्तो की बंडल की सौदेबाजी तो वह कर रहे है लेकिन मांगी गई कीमत पर हर ठेकेदार खामोश हैं। कोण्टा में घुसते ही नजर अगर वहा की खूबसूरती पर टिकती है तो दूसरी तरफ सुरक्षाकर्मियों के अत्याधुनिक कैंप को देखकर भी एक क्षण लगता है जैसे हम कश्मीर या करगिल सीमा पर पहुंच गये। क्योंकि तार की बाड और हरे रंग जाल से तो कैंप की घेराबंदी नजर आती ही है। चारो तरफ तीस से चालीस फुट ऊंचे पहरेदारी के लिये बनाये गये मंच भी नजर आते हैं। आंखों में दूरबीन और कंधे या बोरियों के सहारे बंदूक से सटे जवान पहरा कुछ इस तरह देते खुले तौर पर दिखायी देते है जो झटके में भ्रम पैदा करता है कि कही हम युद्द स्थल या देश की सीमा पर तो नहीं पहुंच गये। दुरबीन के निशाने पर शबरी नदी है ।
शबरी नदी असल में छत्तीसगढ और उडीसा के बीच बहती है। जो नक्सलियों के राज्य बदलने का सबसे सुगम और सुनहरा रास्ता है। और दरभा घटना के बाद माना यही गया कि नक्सली शबरी नदी पार कर उडीसा के मलकानगिरी जिले में चले गये और दोनो राज्यो के बीच कोई संवाद की स्थिति है नहीं तो सिवाय दुरबीन से देखने के अलावे और कोई काम कैंप लगाकर बरसों बरस से बैठे सुरक्षाकर्मी कर भी नही पाते है। और 7 मई को जब कोण्टा में रमन सिंह का हेलीकाप्टर उतरा तो गाववाले अब यह कहने से नहीं थकते की पुलिस कैप तो मुखयमंत्री ने अपनी रईसी सुरक्षा के लिये लगाये हैं। क्योंकि जब रमन सिंह आये उस दिन सारी रक्षावयवस्था कोण्टा में ही सिमट गयी। खैर शबरी नदी की खूबसुरती देखकर हम भी ऐसे पिघले की हमले तय किया थकान मिटाने के लिये शबरी नदी में ही नहाया जाये। बेहद मीठा पानी। निर्मल जल। जंगल के बीच चिड़ियों के चहचहाने के बीच 29 मई को सुबह साढे नौ बजे से लेकर साढे दस बजे तक हम नदी में ही बैठे रह गये। थकान मिट गयी। नहाने से पहले ड्राइवर ने कहा कि साबुन मत लगाइयेगा। पानी गंदा हो जायेगा। नदी का पानी ही यहा जीवन है। वाकई सिर्फ पानी की धारा के बीच सुरक्षाकर्मियों की दुरबीन तले हम घंटों नहाये। अच्छा लगा। बाहर निकले तो और गाव की आबादी की तरफ बढे तो गांववालो ने बताया कि आगे की सरकार दादा लोगों की ही है। यानी नक्सलियों की सामांनातर सरकार। सुकमा से कुछ पहले हमले चितलनार की तरफ जाने को बढे तो रास्ते में कई छोटे छोटे गाव ऐसे मिले जहा खेती नहीं के बराबर थी । बासं की टोकरी या बांस से बनायी जाने वाले सामानो को वहा बुजुर्ग आदिवासी बना रहे थे । करीब 20 किलोमीटर के पैच में कही सरकार का कोई आभास था तो वह वन विभाग के लगे बोर्ड थे। जो बताते थे कि हम जंगल में है और जंगल में पेड को काटना सबसे बडा अपराध है। लेकिन जगह जगह कटे पेड़ों की तादाद लगातार इसका एहसास करा रही थी कि हर दिन पेड़ काटे जा रहे हैं। खासकर सागवान के पेड़। सागवन के पेड को काटकर अगर कोई नदी में डल देता है तो पेड़ बहते हुये नदी के पार पहुंच जाता है। यानी एक राज्य से दूसरे राज्य में और छत्तीसगढ हो या महाराष्ट्र दोनों राज्यों की सीमाओं पर नक्सल प्रभावित इलाको में ही पेड़ कटे हुये दिखायी देने लगे है। जबकि जहां नक्सल प्रभाव कम है या नहीं है वहां तो बल्लारशाह पेपर मिल को किलो के भाव से वन विभाग की पेड़ काट कर सप्लाई करता है। और उन इलाकों में पेड़ जमीन या कहे जड़ से काटे जाते है। जिससे पते ही नहीं चलता कि यहां पेड़ भी था। सिर्फ जमीन साफ होती चली जाती है। खैर नक्सल प्रभावित इलाकों में पेड़ काट कर नदी में डालने पर ग्रामीणों को एक पेड़ का तीन सौ रुपया मिलता है और पेड़ कटवाने से लेकर नदी में डलवाने वालो में पहले राज्य पार के माफिया थे अब यह ट्रेनिग गांव वालों को ही दे दी गयी है। नक्सल इसे रोक नहीं पा रहे हैं। क्योंकि यह गांववालों के अर्थव्यवस्था का नया आधार हो गया है और कमोवेश हफ्ते भर में दो पेड़ कटते है। नक्सलियों की माने तो वन विभाग के माफिया खुद हर दिन दो से चार पेड़ काटते हैं। ऐसे में कम से कम उनके प्रबावित इलाको में तो पेड़ बहुत ही कम कट रहे हैं।
लेकिन वासागौंडा, जगरगौंडा, चितलनार ऐसी जगह हैं, जहां बीडीओ, पटवारी या तहसीलदार की नहीं चलती। यहां नक्सली कमांडर की चलती है। और गांव में खेती से लेकर घर बनाने की जो जमीन गांववालों के पास है उसे सरकारी नजरीये से समझे तो वन विभाग की ही सारी जमीन है। लेकिन यहां जमीन के पट्टे कमांडर बांटता है। और कोई भी शिकायत हो उसके निपटारा ही कमांडर करता है। दरअसल यहां इन्द्रावती टाइगर प्रोजेक्ट के लिये नक्सलियो की स्पेशल प्लाटून भी है। सरकार इन्द्रवती टाइगर प्रोजेक्ट को राष्ट्रीय पार्क मानती है लेकिन इस घेरे में आये गांववालों की त्रासदी यह है कि वह प्रोजेक्ट की जमीन की भीतर एक पत्ता भी नहीं तोड़ सकते। नदी में मछली नहीं पकड़ सकते। अपने घर को नहीं बना सकते। तो ऐसे में नक्सलियों ने इन्द्रावती प्रोजेक्ट के नाम से ही विशेष प्लाटून बना कर इन आदिवासी बहुल इलाके में अपनी सामानांतर व्यवस्था बना ली है। जहां वन अधिकारी शाम ढलने की बाद जाने से घबराते हैं। लेकिन दरभा घटना के बाद पहली बार इस इलाके में भी एसटीएफ के जवान कंधे पर नयी नवेली बंदूक लगाये पहुंचे हैं। और एसटीएफ की जितनी बडी तादाद हमने बेमनी में देखी लगा वहा कोई आपरेशन हो रहा है। एसटीएफ के कमांडर से मिलने पर पता यही चला कि एसटीएफ की छह कंपनिया 28 मई को छत्तीसगढ़ पहुंच गई और अब खोजी अभियान शुर कर चुकी है। सुकमा की तरफ बढ़ते हुये हमने दो दर्जन बस और दर्जन भर ट्क-ट्रैक्टर में एसटीएफ के जवानों को आते देखा। ट्रक में जवान पानी की बड़ी बड़ी टंकिया भी लादे हुये थे। और साथ ही बख्तरबंद गाड़ी के साथ 50 के करीब मोटरसाइकिल पर भी एसटीएफ के जवान थे। हर मोटरसाइकिल से दो दो जवान कांधे पर बंदूक लटकाये और हर पांच मोटरसाइकिल के बीचे में एक मोटरसाइकिल पर लैंड माईन पकड़ने वाली मशीन के कर जाते दो दवान। और यह सिलसिला करीब एक लगातार में तीन किलोमीटर तक। यानी एसटीएफ एक साथ तीन किलोमीटर को अपनी जद में लेकर आगे बढ रही थी। जंगल -झाड के बीच एसटीएफ का तमगा लगाये जवानो की उम्र 20 से तीस के बीच थी। यूनिफार्म के नाम पर सिर्फ पेंट ही कमोवेश एक तरह की थी। बाकि गंजी से लेकर जूते और पानी की बोतल तक को देखकर लग रहा था कि अपने अपने घर से एसटीएफ जवान जूते-बोतल-गंजी लेकर चले है। क्योंकि प्लास्टिक की बोतल भी थी और बच्चों के स्कूल ले जाने वाली पानी की बोतल भी। गंजी सफेद भी थी। और रंग बिरंगी भी। कुछ जवान तो मोबाइल से बात करते
हुये मस्ती में जंगल में चल रहे थे। और इस अभियान में जो भी ग्रामीण-आदिवासी टकराता उसकी तालाशी लेकर उसे पकड़ने से जबान नहीं चुक रहे थे। तीन ग्रामीण आदिवासियों के पास से मोबाइल निकला तो एसटीएफ के कमांडर ने लात-घूसे जड़कर उसे बख्तरबंद गाडी में यह कहते हुये ढकेल कर बंद कर दिया कि यह नक्सलियों के सिग्नल दे रहा होगा। दो ग्रामीण आदिवासी महिलायें जंगल के बीचसे झोला उठाये आ रही थी तो जवानों ने दूर से ही उसे ऐसा डराना शुरु कर दिया कि महिला डर से वही बैठ गयी। लेकिन इस पूरी पहल में यह भी साफ लग रहा था कि एसटीएफ के जवान खुद कितने डरे हुये हैं और अपना डर कम करने के लिये शोर मचाते हुये आगे बढ़ रहे हैं। बीच बीच में नालों पर बने सीमेंट के छोटे छोटे पुलों के दोनो तरफ की सडक को भी जहां तहां नक्सलियों ने काट रखा था। उसे देखकर जवान दहशत में आते और कही कोई विस्फोटक तो नहीं है, इसे परखने में लंबा वक्त लगता। फिर खोजी अभियान आगे बढता ।यानी पूरा क्षेत्र ही जिस तरह बंदूक के साये में है ऐसे में यह सवाल पहली नजर में ही बेमानी लगता है कि देश के भीतर नागरिकों तक मुख्यधारा पहुंचाने या मुख्यधारा से उस कटी हुई धारा को कोई जोड़ने का प्रयास चल रहा है। युद्द क्षेत्र में तब्दील इस इलाके का दूसरा सच यह भी है कि कोई वैचारिक युद्द लड़ा जा रहा है ऐसा यहां बिलकुल नहीं लगता।
हां, एक दूसरे के खिलाफ आक्रोश और घृणा का भाव यहां जरुर नजर आया। एक तरफ सरकार की पूरी मशीनरी और दूसरी तरफ न्यूनतम की जुगाड़ में फंसे जंगल गांव के लोग। संवादहीनता की इस स्थिति का एक परिणाम भर है दरभा। 45 घंटे के सफर के बाद हम तो यही देख पाये।
Monday, June 3, 2013
रेडकॉरिडोर का सफर-2
सलवाजुडुम के असल निर्माता मधुकर राव अब निशाने पर
महाराष्ट्र से छत्तीसगढ में जिस खामोशी और आसानी से नक्सलवाद ने कदम रखा शायद उस आसानी से पुलिस, प्रशासन या सरकार नक्सलवाद के पीछे नकेल कसने के लिये ना भाग सकी ना ही थाम सकी। और इसका अहसास हमें रेडकॉरिडोर की यात्रा करते हुये 28 मई 2013 की आधी रात तब हुआ, जब हम नक्सली रास्ते से महाराष्ट्र से छत्तीसगढ पहुंचने का प्रयास कर रहे थे। महाराष्ट्र से छत्तीसगढ़ जाने का नक्सलियों के लिये सबसे सुगम लेकिन सुरक्षाकर्मियो के लिये सबसे कठिन रास्ता गढ़चिरोली के पातालगुड्डम से इन्द्रवती नदी पार कर बीजपुर के भोपालपट्टनम में प्रवेश करना है। लगातार साढे तीन घंटे जंगल के बीच गाड़ी की रोशनी के आसरे गढ़चिरोली के पातालगुड्डम की दिशा में हम इसलिये बढ़े जा रहे थे क्योकि क्षेत्र में रहने वाले ग्रामिण-आदिवासी अगर भरोसे के साथ कह रहे थे कि नदी पार करना आसान है तो दूसरी तरफ जानकरी यह भी मिली कि महाराष्ट्र और छत्तीसगढ के बीच बहने वाली नदी इन्द्रवती के सबसे करीब या सटे हुये गांव में एक ट्रैक्टर है जो फोर व्हील वाली गाडी ना होने पर खींच कर नदी पार करवा देता है। साढे तीन घंटे का यह सफर इसलिये सुहावना अंधेरे में भी लग रहा था क्योकि इस रास्ते कभी पुलिस ने कदम नहीं रखे। वन अधिकारी हिम्मत नही कर पाते और इस रास्ते का मतलब था सवा सौ किलोमीटर गाडी दौड़ाने से बचना भी और नदी पार करने के बाद उस मधुकर राव से मुलाकात करना, जिसने सलमा जुडुम की नीव रखी और महेन्द्र कर्मा की हत्या के बाद किसी भी दिन मधुकर राव की हत्या नक्सली कर सकते हैं, जिसका एलान हो चुका है। असल में छत्तीसगढ में खूनी नक्सली संघर्ष को जानने के लिये यह समझना वाकई महत्वपूर्ण है कि कैसे और क्यों सलवा जुडुम को उभारा गया और आखिर रमन सिंह सरकार ने क्यों सलवा जुडुम को अपना राजनीतिक हथियार बनाया। चूंकि छत्तीसगढ़ जाने के जिस रास्ते को हमने चुना था उसमें लैंड माईन होने के खतरे तो थे और बचने का उपाय यही था कि सलवा जुडुम, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज कर दिया, उसके मर्म को समझने के लिये आदिवासियो के बीच रहने वाले उन कमांडरो को भी साथ ले लिया जाये, जो पहले से जानते हैं कि किन रास्तों पर लैंड माईन हैं या जिन रास्तो से हमें गुजरना है वहां से गुजरना सही है या नहीं। तो सफर सिरोंचा से शुरु होकर पातालगुड्डम तक पहुंचने के बीच में कई नये सवाल हमारे सामने आ खड़े हुये। क्योंकि मधुकर राव ने नब्बे के दशक में जब सलवाजुडुम का सवाल आदिवासियो के संघर्ष को लेकर उठाया था तो उस वक्त नक्सली और पुलिस संघर्ष के बीच उनके अपने गांव के आदिवासी लड़कों की पिटाई पुलिस ने भी की थी और नक्सलियो ने भी। मधुकर राव न्याय की आस लगाकर पहले स्थानीय पुलिसकर्मियो से फिर जिला कलेक्टर से मिले थे।
लेकिन नक्सली के पुलिस संघर्ष के बीच उन्हें उन गांव वालों को लेकर कभी आसरा नहीं मिला और उसी के बाद पहली बार सलवाजुडुम कच्ची शक्ल में बीजापुर में सामने आया। लेकिन शुरुआती दौर में इसका असर यह हुआ कि इसे शांति संघर्ष देने का नाम मधुकर राव ने किया तो पुलिस ने नक्सलियो के खिलाफ अपने हर इनकाउंटर के बाद मधुकर राव के शांति संघर्ष को ही ढाल बना लिया और पुलिस संकेत यही देती रही कि वह आदिवासियों के हक के लिये नक्सलियों को निशाने पर ले रही है। यह बात रात के अंधेरे में गाड़ी में बैठा अगर एक कमांडर कह रहा था तो दूसरी तरफ बीस बरस पहले नक्सली रास्ता छोड़ गांव की खेती से जुड़े एक पूर्व नक्सली ने सलवाजुडुम और पुलिस संघर्ष गाथा का नायाब सच बताया, जिसकी तस्वीर फिलहाल समूचे रेडकॉरिडोर में धीरे धीरे फैल भी रही है और छत्तीसगढ इसमें अग्रणी है। पूर्व नक्सली ने बात महेन्द्र कर्मा को लेकर ही शुरु की कि कैसे मधुकर राव के विचार का राजनीतिकिकरण तो महेन्द्रकर्मा ने अपनी सियासत और पैसा जुगाडने के लिहाज से जनजागरण अभियान के नाम पर किया। जिसमें अदिवासियो को ढाल बनाया गया लेकिन स्थानीय दुकानदार और जंगल में पेड से लेकर तेदूं पत्ता के धंधे से जुडे ठेकेदारों का हित साधना शुरु किया। पुलिस के लिये महेन्द्र कर्मा की यह पहल अनुकुल थी। क्योंकि अब पुलिस कार्रवाई सुरक्षा के नाम पर भी हो सकती थी। तो खूनी संघर्ष की इस आहट में अगर अजित जोगी का दिमाग 2002-03 में जागा तो
2005 में रमन सरकार ने इस मौके को पूरी तरह हथियाने की बिसात बिछायी। महेन्द्र कर्मा खुद आदिवासी थे और जोगी भी आदिवासी थे तो कांग्रेस की सत्ता के दौर में खनिज की लूट उस हद तक शुरु नहीं हुई। लेकिन जैसे ही सलवा-जुडुम के नाम पर पुलिस की तादाद बढ़ने लगी। हथियारों की आवाजाही आदिवासी के नाम पर खुले तौर पर होने लगी। वैसे ही टाटा और एस्सार के साथ खनिज-खनन के एमओयू पर राज्य सरकार के द्सतख्त हुये और झटके में आदिवासी के नाम पर खनन माफिया और उङोगपतियों की सुरक्षा ही नक्सली संघर्ष की कहानी में तब्दील किया गया। असर इसी का हुआ कि गोली किधर से भी चली मौत आदिवासियो की ही हुई। और उसी का असर हुआ की इस संघर्ष में गांव के गांव खाली होने लगे। लाखों विस्थापित आदिवासी आंध्र भी भागे और राज्य सरकार की शरण में भी पहुंचे। इसी कडी में दोरणपाल में सवा लाख आदिवासी पहुंचे। जहां विस्थापित आदिवासियों के कैंप लगाये गये। चारों तरफ सुरक्षा कैंप और दोनों को एक दूसरे का आसरा। क्योंकि सुरक्षाकर्मियों को लगा कि उनके अगल बगल विस्थापित आदिवासी है तो वहां नक्सली हमला नहीं होगा और विस्थापित आदिवासियों को लगा कि जब वह सुरक्षाकर्मियो के कैंप से ही घिरे है तो उन पर
हमला कोई क्या करेगा।
खैर इस चर्चा के बीच हमारी गाड़ी दो किलोमीटर गलत रास्ते पर चली गई और उबड-खाबड रास्ते पर और आधे घंटे बरबाद हुआ लेकिन जब नदी किनारे जब पहुंचे तो पता चला ट्रैक्टर के दोनो बड़े पहिये इतने खिंच
चूके है कि वह बालू को पकड़ नहीं पाते है और कल रात ट्रैक्टर ही रेत पर फंस गया था। और गांव में अभी कोई फोर व्हील गाड़ी भी नहीं है। यानी गाड़ी के साथ नदी पार करना मुश्किल है। हालांकि नदी में पानी घुटने भर ही है। तो आधी रात में तय यही हुआ कि बीजापुर के कुटरु गांव तक तो पहुंचना अब मुश्किल है लेकिन छत्तीसगढा जाना ही है तो आंध्रप्रदेश के रास्ते से छत्तीसगढ जाया जाये। आंध्रप्रदेश के जिस रास्ते छत्तीसगढ जाना था, असल में उस रास्ते पर चलने के दौरान समझ में यह भी आ गया कि आंध्र मेन पीपुल्स वार ग्रूप अगर सिमटा तो बस्तर का इलाका नकसलियों के लिये स्वर्णिम क्यों हो गया । और छत्तीसगढ में नक्सली हिसा आंध्रप्रदेश से अलग क्यों है। आंध्र की सीमा रात के अंधेरे में सिरोचा में बने कच्चे नक्सली पुल से ही हमने पार की। अदिलाबाद, करीमनगर और वारगंल के पांच किलोमीटर के पैच के बाद खम्माम से सटे हये उस आखिरी पाइंट पर सुबह साढ़े सात हम जा पहुंचे, जहा तीन राज्यों की सीमा लगती है। खम्माम का आखिरी गांव चेट्टि है और उससे सटा हुआ है छत्तीसगढ के दंत्तेवाडा का कोंटा और उडीसा के मलाकनगिरी का डोगरघाट। नक्सलवादियों के लिये यह रास्ता रणनितिक तौर पर कितना सुगम हो सकता है इसका अंदाज इसी से लग सकता है खम्माम के छोर यानी चेट्टि गांव से कुछ पहले सुबह छह-साढे छह बजे के करीब हमें सड़क पर चाय की दुकान पर एसएलआर और एके-47 लटकाये चार नक्सिलियों का एक गुप मिला। जिसे कोई खौफ नहीं था और चाय दुकान का मतलब है एक चोटे से गांव के किनारे की सड़क पर चलते फिरते लोग भी इसमें कोई अचरज नहीं कर रहे थे। हो सकता है यहां हमारे दिमाग में सवाल नक्सलियों की सामानातंर सरकार का उठा हो। जो था भी लेकिन जिस तरह समूचा वातावरण सामान्य था और कमर में गोलियों को लपेटे, कंधे पर बंदूक लटकाये युवाओं की यह टोली मस्ती में चाय की चुस्की ले रही थी, वैसे में रुके हम भी। चाय हमने भी पी। कुछ बात हमनें भी की। हमारे साथ पूर्व नक्सली तेलुगु जानते थे तो तेलुगु में उनसे बात भी हुई। उन्होंने हमारे बारे में भी बताया। जिक्र छत्तीसगढ के हमले का भी हुआ। लेकिन जो समझे और जो समझाया गया उसका मतलब साफ था कि दण्काराण्य में अब नेतृत्व बदल रहा है। राजनीतिक तौर पर सलवाजुडुम के समर्थक रहे और भी निशाने पर आयेंगे। कुल बारह लोगो का जिक्र भी हुआ, जिन्हें निशाने पर लेना है। और रणनीतिक तौर पर राजनीति या राजनेताओं को किस हद तक निशाने पर लेना है, उसकी भी नयी रणनीति पूरे दण्काराण्य के लिये बदल रही है। ज्यादा वक्त गुजरा नहीं, वह चारों एक सामान्य सी चाल में निकल पड़े और हम एक घंटे बाद चेट्टि गांव के उस मुहाने पर पहुंचे जहां आध्रप्रदेश की सीमा खत्म होती और छत्तीसगढ़ शुरु होता है। और उससे सिर्फ एक किलोमीटर की दूरी पर अगर सडक के रास्ते चले तो उडीसा शुरु होता है। लेकिन खेत के रास्ते सिर्फ 400 मीटर बाद ही उडीसा शुरु हो जाता है। और एक खेत तो ऐसा मिला, जिसकी सीमा तीनों राज्यों को छूती है। यानी जिन तीन राज्यों में नक्सलियों से निपटने के लिये तालमेल नहीं उसी तीन राज्यों के बीच एक खेत ऐसा भी है, जो अन्न यह सोच कर नहीं उपजाता कि वह किस राज्य में है। और यह जगह नक्सलियों के लिये एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने के लिये सबसे सरल भी है। और इस इलाके में माना यही गया कि दरभा घाटी में हिंसा करने के बाद नक्सलियो का एक ग्रूप आंध्र की तरफ आ गया तो दूसरा उडीसा चला गया। तो छत्तीसगढ के कोण्टा का इलाका और कोण्टा से ही सीधी सडक सुकुमा तक है। जहां वाकई भारत सरकार की नहीं नकसलियों की सामानांतर सरकार चलती है।
(जारी.........)
महाराष्ट्र से छत्तीसगढ में जिस खामोशी और आसानी से नक्सलवाद ने कदम रखा शायद उस आसानी से पुलिस, प्रशासन या सरकार नक्सलवाद के पीछे नकेल कसने के लिये ना भाग सकी ना ही थाम सकी। और इसका अहसास हमें रेडकॉरिडोर की यात्रा करते हुये 28 मई 2013 की आधी रात तब हुआ, जब हम नक्सली रास्ते से महाराष्ट्र से छत्तीसगढ पहुंचने का प्रयास कर रहे थे। महाराष्ट्र से छत्तीसगढ़ जाने का नक्सलियों के लिये सबसे सुगम लेकिन सुरक्षाकर्मियो के लिये सबसे कठिन रास्ता गढ़चिरोली के पातालगुड्डम से इन्द्रवती नदी पार कर बीजपुर के भोपालपट्टनम में प्रवेश करना है। लगातार साढे तीन घंटे जंगल के बीच गाड़ी की रोशनी के आसरे गढ़चिरोली के पातालगुड्डम की दिशा में हम इसलिये बढ़े जा रहे थे क्योकि क्षेत्र में रहने वाले ग्रामिण-आदिवासी अगर भरोसे के साथ कह रहे थे कि नदी पार करना आसान है तो दूसरी तरफ जानकरी यह भी मिली कि महाराष्ट्र और छत्तीसगढ के बीच बहने वाली नदी इन्द्रवती के सबसे करीब या सटे हुये गांव में एक ट्रैक्टर है जो फोर व्हील वाली गाडी ना होने पर खींच कर नदी पार करवा देता है। साढे तीन घंटे का यह सफर इसलिये सुहावना अंधेरे में भी लग रहा था क्योकि इस रास्ते कभी पुलिस ने कदम नहीं रखे। वन अधिकारी हिम्मत नही कर पाते और इस रास्ते का मतलब था सवा सौ किलोमीटर गाडी दौड़ाने से बचना भी और नदी पार करने के बाद उस मधुकर राव से मुलाकात करना, जिसने सलमा जुडुम की नीव रखी और महेन्द्र कर्मा की हत्या के बाद किसी भी दिन मधुकर राव की हत्या नक्सली कर सकते हैं, जिसका एलान हो चुका है। असल में छत्तीसगढ में खूनी नक्सली संघर्ष को जानने के लिये यह समझना वाकई महत्वपूर्ण है कि कैसे और क्यों सलवा जुडुम को उभारा गया और आखिर रमन सिंह सरकार ने क्यों सलवा जुडुम को अपना राजनीतिक हथियार बनाया। चूंकि छत्तीसगढ़ जाने के जिस रास्ते को हमने चुना था उसमें लैंड माईन होने के खतरे तो थे और बचने का उपाय यही था कि सलवा जुडुम, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज कर दिया, उसके मर्म को समझने के लिये आदिवासियो के बीच रहने वाले उन कमांडरो को भी साथ ले लिया जाये, जो पहले से जानते हैं कि किन रास्तों पर लैंड माईन हैं या जिन रास्तो से हमें गुजरना है वहां से गुजरना सही है या नहीं। तो सफर सिरोंचा से शुरु होकर पातालगुड्डम तक पहुंचने के बीच में कई नये सवाल हमारे सामने आ खड़े हुये। क्योंकि मधुकर राव ने नब्बे के दशक में जब सलवाजुडुम का सवाल आदिवासियो के संघर्ष को लेकर उठाया था तो उस वक्त नक्सली और पुलिस संघर्ष के बीच उनके अपने गांव के आदिवासी लड़कों की पिटाई पुलिस ने भी की थी और नक्सलियो ने भी। मधुकर राव न्याय की आस लगाकर पहले स्थानीय पुलिसकर्मियो से फिर जिला कलेक्टर से मिले थे।
लेकिन नक्सली के पुलिस संघर्ष के बीच उन्हें उन गांव वालों को लेकर कभी आसरा नहीं मिला और उसी के बाद पहली बार सलवाजुडुम कच्ची शक्ल में बीजापुर में सामने आया। लेकिन शुरुआती दौर में इसका असर यह हुआ कि इसे शांति संघर्ष देने का नाम मधुकर राव ने किया तो पुलिस ने नक्सलियो के खिलाफ अपने हर इनकाउंटर के बाद मधुकर राव के शांति संघर्ष को ही ढाल बना लिया और पुलिस संकेत यही देती रही कि वह आदिवासियों के हक के लिये नक्सलियों को निशाने पर ले रही है। यह बात रात के अंधेरे में गाड़ी में बैठा अगर एक कमांडर कह रहा था तो दूसरी तरफ बीस बरस पहले नक्सली रास्ता छोड़ गांव की खेती से जुड़े एक पूर्व नक्सली ने सलवाजुडुम और पुलिस संघर्ष गाथा का नायाब सच बताया, जिसकी तस्वीर फिलहाल समूचे रेडकॉरिडोर में धीरे धीरे फैल भी रही है और छत्तीसगढ इसमें अग्रणी है। पूर्व नक्सली ने बात महेन्द्र कर्मा को लेकर ही शुरु की कि कैसे मधुकर राव के विचार का राजनीतिकिकरण तो महेन्द्रकर्मा ने अपनी सियासत और पैसा जुगाडने के लिहाज से जनजागरण अभियान के नाम पर किया। जिसमें अदिवासियो को ढाल बनाया गया लेकिन स्थानीय दुकानदार और जंगल में पेड से लेकर तेदूं पत्ता के धंधे से जुडे ठेकेदारों का हित साधना शुरु किया। पुलिस के लिये महेन्द्र कर्मा की यह पहल अनुकुल थी। क्योंकि अब पुलिस कार्रवाई सुरक्षा के नाम पर भी हो सकती थी। तो खूनी संघर्ष की इस आहट में अगर अजित जोगी का दिमाग 2002-03 में जागा तो
2005 में रमन सरकार ने इस मौके को पूरी तरह हथियाने की बिसात बिछायी। महेन्द्र कर्मा खुद आदिवासी थे और जोगी भी आदिवासी थे तो कांग्रेस की सत्ता के दौर में खनिज की लूट उस हद तक शुरु नहीं हुई। लेकिन जैसे ही सलवा-जुडुम के नाम पर पुलिस की तादाद बढ़ने लगी। हथियारों की आवाजाही आदिवासी के नाम पर खुले तौर पर होने लगी। वैसे ही टाटा और एस्सार के साथ खनिज-खनन के एमओयू पर राज्य सरकार के द्सतख्त हुये और झटके में आदिवासी के नाम पर खनन माफिया और उङोगपतियों की सुरक्षा ही नक्सली संघर्ष की कहानी में तब्दील किया गया। असर इसी का हुआ कि गोली किधर से भी चली मौत आदिवासियो की ही हुई। और उसी का असर हुआ की इस संघर्ष में गांव के गांव खाली होने लगे। लाखों विस्थापित आदिवासी आंध्र भी भागे और राज्य सरकार की शरण में भी पहुंचे। इसी कडी में दोरणपाल में सवा लाख आदिवासी पहुंचे। जहां विस्थापित आदिवासियों के कैंप लगाये गये। चारों तरफ सुरक्षा कैंप और दोनों को एक दूसरे का आसरा। क्योंकि सुरक्षाकर्मियों को लगा कि उनके अगल बगल विस्थापित आदिवासी है तो वहां नक्सली हमला नहीं होगा और विस्थापित आदिवासियों को लगा कि जब वह सुरक्षाकर्मियो के कैंप से ही घिरे है तो उन पर
हमला कोई क्या करेगा।
खैर इस चर्चा के बीच हमारी गाड़ी दो किलोमीटर गलत रास्ते पर चली गई और उबड-खाबड रास्ते पर और आधे घंटे बरबाद हुआ लेकिन जब नदी किनारे जब पहुंचे तो पता चला ट्रैक्टर के दोनो बड़े पहिये इतने खिंच
चूके है कि वह बालू को पकड़ नहीं पाते है और कल रात ट्रैक्टर ही रेत पर फंस गया था। और गांव में अभी कोई फोर व्हील गाड़ी भी नहीं है। यानी गाड़ी के साथ नदी पार करना मुश्किल है। हालांकि नदी में पानी घुटने भर ही है। तो आधी रात में तय यही हुआ कि बीजापुर के कुटरु गांव तक तो पहुंचना अब मुश्किल है लेकिन छत्तीसगढा जाना ही है तो आंध्रप्रदेश के रास्ते से छत्तीसगढ जाया जाये। आंध्रप्रदेश के जिस रास्ते छत्तीसगढ जाना था, असल में उस रास्ते पर चलने के दौरान समझ में यह भी आ गया कि आंध्र मेन पीपुल्स वार ग्रूप अगर सिमटा तो बस्तर का इलाका नकसलियों के लिये स्वर्णिम क्यों हो गया । और छत्तीसगढ में नक्सली हिसा आंध्रप्रदेश से अलग क्यों है। आंध्र की सीमा रात के अंधेरे में सिरोचा में बने कच्चे नक्सली पुल से ही हमने पार की। अदिलाबाद, करीमनगर और वारगंल के पांच किलोमीटर के पैच के बाद खम्माम से सटे हये उस आखिरी पाइंट पर सुबह साढ़े सात हम जा पहुंचे, जहा तीन राज्यों की सीमा लगती है। खम्माम का आखिरी गांव चेट्टि है और उससे सटा हुआ है छत्तीसगढ के दंत्तेवाडा का कोंटा और उडीसा के मलाकनगिरी का डोगरघाट। नक्सलवादियों के लिये यह रास्ता रणनितिक तौर पर कितना सुगम हो सकता है इसका अंदाज इसी से लग सकता है खम्माम के छोर यानी चेट्टि गांव से कुछ पहले सुबह छह-साढे छह बजे के करीब हमें सड़क पर चाय की दुकान पर एसएलआर और एके-47 लटकाये चार नक्सिलियों का एक गुप मिला। जिसे कोई खौफ नहीं था और चाय दुकान का मतलब है एक चोटे से गांव के किनारे की सड़क पर चलते फिरते लोग भी इसमें कोई अचरज नहीं कर रहे थे। हो सकता है यहां हमारे दिमाग में सवाल नक्सलियों की सामानातंर सरकार का उठा हो। जो था भी लेकिन जिस तरह समूचा वातावरण सामान्य था और कमर में गोलियों को लपेटे, कंधे पर बंदूक लटकाये युवाओं की यह टोली मस्ती में चाय की चुस्की ले रही थी, वैसे में रुके हम भी। चाय हमने भी पी। कुछ बात हमनें भी की। हमारे साथ पूर्व नक्सली तेलुगु जानते थे तो तेलुगु में उनसे बात भी हुई। उन्होंने हमारे बारे में भी बताया। जिक्र छत्तीसगढ के हमले का भी हुआ। लेकिन जो समझे और जो समझाया गया उसका मतलब साफ था कि दण्काराण्य में अब नेतृत्व बदल रहा है। राजनीतिक तौर पर सलवाजुडुम के समर्थक रहे और भी निशाने पर आयेंगे। कुल बारह लोगो का जिक्र भी हुआ, जिन्हें निशाने पर लेना है। और रणनीतिक तौर पर राजनीति या राजनेताओं को किस हद तक निशाने पर लेना है, उसकी भी नयी रणनीति पूरे दण्काराण्य के लिये बदल रही है। ज्यादा वक्त गुजरा नहीं, वह चारों एक सामान्य सी चाल में निकल पड़े और हम एक घंटे बाद चेट्टि गांव के उस मुहाने पर पहुंचे जहां आध्रप्रदेश की सीमा खत्म होती और छत्तीसगढ़ शुरु होता है। और उससे सिर्फ एक किलोमीटर की दूरी पर अगर सडक के रास्ते चले तो उडीसा शुरु होता है। लेकिन खेत के रास्ते सिर्फ 400 मीटर बाद ही उडीसा शुरु हो जाता है। और एक खेत तो ऐसा मिला, जिसकी सीमा तीनों राज्यों को छूती है। यानी जिन तीन राज्यों में नक्सलियों से निपटने के लिये तालमेल नहीं उसी तीन राज्यों के बीच एक खेत ऐसा भी है, जो अन्न यह सोच कर नहीं उपजाता कि वह किस राज्य में है। और यह जगह नक्सलियों के लिये एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने के लिये सबसे सरल भी है। और इस इलाके में माना यही गया कि दरभा घाटी में हिंसा करने के बाद नक्सलियो का एक ग्रूप आंध्र की तरफ आ गया तो दूसरा उडीसा चला गया। तो छत्तीसगढ के कोण्टा का इलाका और कोण्टा से ही सीधी सडक सुकुमा तक है। जहां वाकई भारत सरकार की नहीं नकसलियों की सामानांतर सरकार चलती है।
(जारी.........)
Saturday, June 1, 2013
रेडकॉरिडोर का सफर-1
दरभा हमले के बाद दण्डकारण्य का सच
छत्तीसगढ़ के जिस दरभा घाट के मुहाने पर राजनेताओं के काफिले पर नक्सलियों ने हमला किया और उसकी बैचेनी रायपुर से दिल्ली तक दिखायी दी, उसके मर्म में क्या वाकई लोकतंत्र की परिभाषा छुप गयी। जिस तरह से केन्द्र या राज्य सरकार या बीजेपी-कांग्रेस ने हमले के तुरंत बाद इसे लोकतंत्र पर हमला करार दिया उसके मर्म में क्या किसी ने यह टटोलने की कोशिश की कि जहां खून बहा, जहां हमला हुआ वहां लोकतंत्र है भी या नहीं। आदिवासी बहुल क्षेत्र , दण्काराण्य या रेड कॉरीडोर नाम जो भी दे दीजिये लेकिन यहां की जिन्दगी में राजनेताओं की सत्ता के तौर तरीको ने जिस तरह जहर घोल दिया है, उसका असर यही है कि पग पग पर से गुजरते हुये हर हालात से टकराने के बाद आपको भी लग सकता है कि हमला लोकतंत्र पर नहीं हुआ। बल्कि लोकतंत्र है नहीं और उसी के गुस्से और आक्रोश का परिणाम है हमला-दर-हमला। हिंसा-प्रतिहिंसा। दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक की फाइलों में इस रेड कॉरीडोर को लेकर बाबुओं के रिसर्च के दस्तावेजों से उलट रेडकॉरीडोर है। जहां की वजहो से देश की सत्ता को कोई मतलब नहीं है और वजह है क्या इसे ही टटोलने के लिये लगातार 48 घटे तक मैंने 1700 किलोमीटर का रास्ता दरभा हमले के तुरंत बाद तय किया।
आंध्र प्रदेश के अदिलाबाद जिले का एक मुहाना है कालेश्वरम, जहां से नक्सलवाद ने पहला सफर 1984 में महाराष्ट्र के कमलापुर गांव के लिये नदी के रास्ते किया। कालेश्वरम से महज पांच मिनट का वक्त लगता है महाराष्ट्र के सिरोंचा में नदी के रास्ते कदम रखने के लिये। प्राणहिता नदी ही आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के बीच है। आंध्र की तरफ तो नहीं लेकिन महाराष्ट्र की इस सीमा पर यानी सिरोंचा में एके47 और एसएलआर के साथ बैठे
चार जवानों ने तुरंत ध्यान खींचा कि नक्सलियो पर नजर तो महाराष्ट्र में रखी गयी है। लेकिन जिस नाव पर बैठकर आंध्र से महाराष्ट्र में कदम रखा और सुरक्षाकर्मियों को देखकर नाव खेने वाले से पूछा कि इनकी जरुरत क्या है और क्या कभी इन बंदूकधारियों ने गोलियां भी दागी हैं। इस सवाल के जवाब में नाव वाले ने तुंरत कहा यह नक्सलियो के लिये नहीं है यह हमारे गुस्से को दबाने के लिये है। यहां सिर्फ पैसो वालों की चलती है और उन्हीं के लिये यह बंदूकधारी नौकरी करते हैं। ऐसा क्या है। तो नाव खेने वाले मारुति सत्यम घनपुपवार ने बेहिचक कहा। नक्सवाद तो तीस बरस पहले आया। लेकिन हम इस नदीं पर पचास साल से नाव खे रहे हैं। पीढ़ियो से यही हमारा धंधा रहा है। जब निजाम थे और सिरोंचा या गढचिरोली भी निजाम के अधीन था तब से हमारे पूर्वज नदी पर नाव चला रहे हैं। लेकिन अब इसे भी हमसे छीनने का प्रयास पैसे वाले कर रहे हैं। हर साल नाव चलाने की बोली लगती है। इस बार बोली 14 लाख रुपये सालाना तय कर दी गयी है। इतना पैसा कहां से हम दे सकेंगे। जबकि सिरोंचा नगर परिषद में बकायदा बोर्ड लगा है कि साढ़े तीन लाख से ज्यादा की बोली नहीं लगनी चाहिये। लेकिन जिनके पास पैसा है अब वह नदी पर कब्जा करना चाहते हैं। और अपनी नाव देकर हम मछुआरो को दो हजार के महीने पर नौकर बनाना चाहते हैं। सिरोंचा नगर परिषद में हमने शिकायत भी की, लेकिन नगर परिषद का कहना है कि उसे कोई ज्यादा पैसे देगा तो वह नियम
कायदे क्यों देखे। मारुति घनपुपवार यहीं नहीं रुके बोले आप हमारे साथ दुबारा नदी पार कर अदिलाबाद चलें। उस पार कालेश्वरम से भी नाव चलती है। उस नाव के मालिक नदी पार ही टेंट लगाकर बैठे हैं आप खुद उनसे पूछ लीजियेगा , वहां क्या हालात है। रास्ता पांच मिनट का ही है तो मैं भी नाव पर फिर उस पार चल पड़ा। कालेश्वरम यानी नदी पार के नाविक ने बताया कि हर बरस नाव चलाने की बोली तो उनके यहां भी लगती है। लेकिन उनके रोजगार पर कोई आंच कभी नहीं आयी क्योंकि अन्ना लोग न्याय करते है। अन्ना यानी माओवादी। जो बंदूक लेकर घूमते हैं । उन्होने कालेश्वरम नगर परिषद को कह रखा है, जो पीढियो से नाव चला रहे हैं, पहली प्राथमिकता उन्हें ही देनी होगी। और बोली साठ हजार से ज्यादा नहीं लगेगी। अन्ना से सभी डरते है तो पैसे वाले भी यहां खामोश रहते हैं। लेकिन सिरोंचा में पुलिस और बंदूक का साया नदी किनारे से ही आतंक पैदा करता है तो वहां 14 लाख की बोली लग जाती है। ऐसे में मारुति ने हमारे चलते चलते यही सवाल किया कि अब माओवादी यहां भी आते है तो उनका विरोध कौन करेगा। और जो बंदूकधारी हमारे नाव पर निगरानी के लिये बैठे हैं, उन पर हमला होता है तो कौन किसका साथ देगा यह आप ही सोच लीजिये। और किसी तरह 14 लाख की रकम को कम करवा दीजिये जिसे हम दे सके या साढे तीन लाख की बोली वाले नियम को लागू करवा दीजिये। नहीं तो अगली बार आप नाव खेने वालो को भी माओवादी कहेंगे। पता नहीं यह धमकी थी या भविष्य की आहट। लेकिन इस गुस्से को शांत करने के लिये हमने पूछा यहां कुछ खाने को मिलेगा। खाना है तो प्राउन खा कर जाइये । प्राणहिता नदी के प्राउन के लिये तो हैदराबाद से हमे ऑर्डर आता है। मारुति ने नदी पार करते है सिर्फ पांच मीटर की दूरी पर सडक किनारे एक होटल का रास्ता दिखाया। और वाकई चार प्राउन की प्लेट सिर्फ पच्चतर रुपये में। जिसकी कीमत दिल्ली में हजार रुपये तो हैदराबाद में साढे सात रुपये है। खैर, रेडकॉरिडोर के पहले पढ़ाव में गुस्से के इजहार और जायके को चखकर हमने तय किया कि हम कमलापुर गांव जायेंगे, जहां पहली बार नक्सवाद ने कमलापुर अधिवेशन के जरीये महाराष्ट्र में दस्तक दी थी।
सिरोचा से महज 25 किलोमीटर की दूरी पर कमलापुर गांव है। रास्ता ठीक ठाक । सिर्फ 7 किलोमीटर का पैच उबड़-खाबड़। मुख्यसड़क यानी सिरोंचा से अल्लापल्ली जाने वाली सड़क से सिर्फ 100 मिटर अंदर घुसते ही कमलापुर गांव। जहां 1984 में सिर्फ कमलापुर अधिवेशन का नाम सुनकर अगल-बगल से दस हजार से ज्यादा लोग जुट गये थे। अगल बगल से मतलब आंध्र-महाराष्ट्र-मध्य प्रदेश है।
मध्यप्रदेश का वह इलाका जो अब छत्तीसगढ बन चुका है और 10 हजार से ज्यादा तादाद इसलिये क्योंकि पहली बार पुलिस ने दावा किया था कि उसने 10 हजार लोगो को गिरफ्तार कर कमलापुर अधिवेशन होने ही नहीं दिया। क्योंकि कमलापुर अधिवेशन होता तो वह नक्सलबाडी की तरह ही एक नये संघर्ष को पैदा करता। कमलापुर में मुद्दा तेंदू पत्ता, न्यूनतम मजदूरी और जंगल गांव का था। यह सारी बाते और कोई नहीं कमलापुर अधिवेशन में शरीक होने से पहले ही गिरफ्तार कर लिये गये एड. एकनाथ साल्वे ने बतायी तो अधिवेशन में पहुंचे शिव के मुताबिक पुलिस ने उन्हे कमलापुर में गिरफ्तार इसलिये किया क्योंकि उस वक्त आंध्र की नक्सली लहर ने महाराष्ट्र सरकार को संदेश दे दिया था कि जो भी सम्मेलन में शरीक होने पहुंचे उसे नक्सली मान कर गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया जाये। और पुलिस खुले तौर पर बिना कोई धारा लगाये बस अधिवेशन होने देना नहीं चाहती थी। उस वक्त मुंबई के एलिफेस्टन कॉलेज से निकले स्कॉलर कोबात गांधी, अनुराधा गांधी, सुजन अब्राहम का लोग सम्मेलन में इंतजार कर रहे थे लेकिन पुलिस ने कमलापुर पहुंचने वाले हर रास्ते की नाकेबंदी कर रखी थी। कोई पहुंचा नहीं तो कमलापुर अधिवेशन को असफल करार
दे दिया गया।
लेकिन साहेब तीस बरस पहले के सम्मेलन के दौर में जो पुलिस ने किया उससे सैकड़ों परिवार तबाह हो गये। अचानक हमारी बातचीत के बीच में ही कमलापुर गांव का एक शख्स कूद पडा । 55-60 की उम्र के इस आदिवासी ने जो जानकारी दी उसने कई सवाल नक्सलवाद के नाम पर पुलिसिया कहर के दिखा दिए। गांव में सैकड़ों परिवारों को पुलिस ने बेदखल कर दिया। अगल-बगल के गांव से जो सिर्फ यह देखने आये थ कि गांव में होने क्या वाला है, उनपर ऐसी ऐसी कलम [धारायें] पुलिस ने लगायी कि उनके बच्चों के लिये जीवन जीना मुश्किल हो गया। उस वक्त से अभीतक सवाल सुलझे तो नहीं लेकिन नकसलियों की तादाद पुलिस फाइल में बढती गई और तेदू पत्ता से लेकर जंगल गांव से आगे के सवाल ने अब जिन्दगी जीने की न्यूनतम जरुरतों का मोहताज बना दिया है। कमलापुर के जिस मैदान में 30 बरस पहले अधिवेशन होना था आज वह जमीन बंजर है। गांव में करीब सवा किलोमीटर पगडंडी वाली सडक ही सबकुछ है। अंग्रेजी अक्षर एल की शक्ल में ही पगडंडी हैं। तो गांव के करीब 700 घर भी उसी के इर्द-गिर्द सिमटे हुये हैं। इस गांव में किसी गांधी के नाम की कोई योजना पहुंची नहीं और माओ या कोण्डापल्ली के नाम को जान कर भी हर कोई अनजान रहता है। चालीस फीसदी गांव के घरो में बच्चे शहर जाने के बाद गांव लौटे नहीं। जिन्हे रोजगार का कोई माध्यम मिला वह नहीं लौटा क्योकि लौटने पर पुलिस के सवाल और थाने के चक्कर उसे नौकरी पर जाने नहीं देगें और थानों के चक्कर नक्सलियों के मन में शक पैदा करेगी। तो गांव में अघेड लोग कैरम बोर्ड खेलते भी दिखे और ताडी का सार्वजनिक जायका लेते भी नजर आये। लेकिन पूछने या टटोलने पर यह जानकारी हर किसी को थी कि पहली बार राजनेताओ को छत्तीसगढ में निशाने पर लिया गया। लेकिन हमले से रास्ता निकलता नहीं है, और बीते 30 बरस में जिन्दगी और मुश्किल होती जा रही है। क्योंकि इसी दौर में कमलापुर के ही छह आदिवासी पर टाडा भी लगा और तीन ग्रामीणो पर पोटा भी। यह अलग बात है कि 1984 के बाद से कमलापुर में कोई दस्तक नक्सवाद ने दी नहीं। लेकिन पुलिस की दहशत बार बार गांववालों को 84 के खौफ की याद दिला देती है। और आक्रोश हर चेहरे पर पढ़ा जा सकता है, जिन्हें लगता है कि आजादी का स्वाद उनके लिये नक्सलवाद के नाम और पुलिस की जुबान के बीच ही चखना है। लेकिन महाराष्ट्र के बाद जिस तरह बस्तर में नक्सवाद ने खामोशी से दस्तक दी और उसके बाद जिस तेजी से नक्सलवद सियासी जरुरत बनी उसे टटोलने हम दोरणपाल के लिये निकल पडे। छत्तीसगढ में दोहणपाल का मतलब है विस्थापित आदिवासियों की ऐसी जमीन जहां एक तरफ नक्सली है तो दूसरी तरफ सलवा जुडुम और तीसरा जिसे कोई नहीं जानता वह है डरा, सहमा विस्थापित आदिवासी। जहां 2005 में गांव छोडकर सैकडो या हजार नहीं बल्कि सवा लाख आदिवासी पहुंचे।
(जारी...........)
छत्तीसगढ़ के जिस दरभा घाट के मुहाने पर राजनेताओं के काफिले पर नक्सलियों ने हमला किया और उसकी बैचेनी रायपुर से दिल्ली तक दिखायी दी, उसके मर्म में क्या वाकई लोकतंत्र की परिभाषा छुप गयी। जिस तरह से केन्द्र या राज्य सरकार या बीजेपी-कांग्रेस ने हमले के तुरंत बाद इसे लोकतंत्र पर हमला करार दिया उसके मर्म में क्या किसी ने यह टटोलने की कोशिश की कि जहां खून बहा, जहां हमला हुआ वहां लोकतंत्र है भी या नहीं। आदिवासी बहुल क्षेत्र , दण्काराण्य या रेड कॉरीडोर नाम जो भी दे दीजिये लेकिन यहां की जिन्दगी में राजनेताओं की सत्ता के तौर तरीको ने जिस तरह जहर घोल दिया है, उसका असर यही है कि पग पग पर से गुजरते हुये हर हालात से टकराने के बाद आपको भी लग सकता है कि हमला लोकतंत्र पर नहीं हुआ। बल्कि लोकतंत्र है नहीं और उसी के गुस्से और आक्रोश का परिणाम है हमला-दर-हमला। हिंसा-प्रतिहिंसा। दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक की फाइलों में इस रेड कॉरीडोर को लेकर बाबुओं के रिसर्च के दस्तावेजों से उलट रेडकॉरीडोर है। जहां की वजहो से देश की सत्ता को कोई मतलब नहीं है और वजह है क्या इसे ही टटोलने के लिये लगातार 48 घटे तक मैंने 1700 किलोमीटर का रास्ता दरभा हमले के तुरंत बाद तय किया।
आंध्र प्रदेश के अदिलाबाद जिले का एक मुहाना है कालेश्वरम, जहां से नक्सलवाद ने पहला सफर 1984 में महाराष्ट्र के कमलापुर गांव के लिये नदी के रास्ते किया। कालेश्वरम से महज पांच मिनट का वक्त लगता है महाराष्ट्र के सिरोंचा में नदी के रास्ते कदम रखने के लिये। प्राणहिता नदी ही आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के बीच है। आंध्र की तरफ तो नहीं लेकिन महाराष्ट्र की इस सीमा पर यानी सिरोंचा में एके47 और एसएलआर के साथ बैठे
चार जवानों ने तुरंत ध्यान खींचा कि नक्सलियो पर नजर तो महाराष्ट्र में रखी गयी है। लेकिन जिस नाव पर बैठकर आंध्र से महाराष्ट्र में कदम रखा और सुरक्षाकर्मियों को देखकर नाव खेने वाले से पूछा कि इनकी जरुरत क्या है और क्या कभी इन बंदूकधारियों ने गोलियां भी दागी हैं। इस सवाल के जवाब में नाव वाले ने तुंरत कहा यह नक्सलियो के लिये नहीं है यह हमारे गुस्से को दबाने के लिये है। यहां सिर्फ पैसो वालों की चलती है और उन्हीं के लिये यह बंदूकधारी नौकरी करते हैं। ऐसा क्या है। तो नाव खेने वाले मारुति सत्यम घनपुपवार ने बेहिचक कहा। नक्सवाद तो तीस बरस पहले आया। लेकिन हम इस नदीं पर पचास साल से नाव खे रहे हैं। पीढ़ियो से यही हमारा धंधा रहा है। जब निजाम थे और सिरोंचा या गढचिरोली भी निजाम के अधीन था तब से हमारे पूर्वज नदी पर नाव चला रहे हैं। लेकिन अब इसे भी हमसे छीनने का प्रयास पैसे वाले कर रहे हैं। हर साल नाव चलाने की बोली लगती है। इस बार बोली 14 लाख रुपये सालाना तय कर दी गयी है। इतना पैसा कहां से हम दे सकेंगे। जबकि सिरोंचा नगर परिषद में बकायदा बोर्ड लगा है कि साढ़े तीन लाख से ज्यादा की बोली नहीं लगनी चाहिये। लेकिन जिनके पास पैसा है अब वह नदी पर कब्जा करना चाहते हैं। और अपनी नाव देकर हम मछुआरो को दो हजार के महीने पर नौकर बनाना चाहते हैं। सिरोंचा नगर परिषद में हमने शिकायत भी की, लेकिन नगर परिषद का कहना है कि उसे कोई ज्यादा पैसे देगा तो वह नियम
कायदे क्यों देखे। मारुति घनपुपवार यहीं नहीं रुके बोले आप हमारे साथ दुबारा नदी पार कर अदिलाबाद चलें। उस पार कालेश्वरम से भी नाव चलती है। उस नाव के मालिक नदी पार ही टेंट लगाकर बैठे हैं आप खुद उनसे पूछ लीजियेगा , वहां क्या हालात है। रास्ता पांच मिनट का ही है तो मैं भी नाव पर फिर उस पार चल पड़ा। कालेश्वरम यानी नदी पार के नाविक ने बताया कि हर बरस नाव चलाने की बोली तो उनके यहां भी लगती है। लेकिन उनके रोजगार पर कोई आंच कभी नहीं आयी क्योंकि अन्ना लोग न्याय करते है। अन्ना यानी माओवादी। जो बंदूक लेकर घूमते हैं । उन्होने कालेश्वरम नगर परिषद को कह रखा है, जो पीढियो से नाव चला रहे हैं, पहली प्राथमिकता उन्हें ही देनी होगी। और बोली साठ हजार से ज्यादा नहीं लगेगी। अन्ना से सभी डरते है तो पैसे वाले भी यहां खामोश रहते हैं। लेकिन सिरोंचा में पुलिस और बंदूक का साया नदी किनारे से ही आतंक पैदा करता है तो वहां 14 लाख की बोली लग जाती है। ऐसे में मारुति ने हमारे चलते चलते यही सवाल किया कि अब माओवादी यहां भी आते है तो उनका विरोध कौन करेगा। और जो बंदूकधारी हमारे नाव पर निगरानी के लिये बैठे हैं, उन पर हमला होता है तो कौन किसका साथ देगा यह आप ही सोच लीजिये। और किसी तरह 14 लाख की रकम को कम करवा दीजिये जिसे हम दे सके या साढे तीन लाख की बोली वाले नियम को लागू करवा दीजिये। नहीं तो अगली बार आप नाव खेने वालो को भी माओवादी कहेंगे। पता नहीं यह धमकी थी या भविष्य की आहट। लेकिन इस गुस्से को शांत करने के लिये हमने पूछा यहां कुछ खाने को मिलेगा। खाना है तो प्राउन खा कर जाइये । प्राणहिता नदी के प्राउन के लिये तो हैदराबाद से हमे ऑर्डर आता है। मारुति ने नदी पार करते है सिर्फ पांच मीटर की दूरी पर सडक किनारे एक होटल का रास्ता दिखाया। और वाकई चार प्राउन की प्लेट सिर्फ पच्चतर रुपये में। जिसकी कीमत दिल्ली में हजार रुपये तो हैदराबाद में साढे सात रुपये है। खैर, रेडकॉरिडोर के पहले पढ़ाव में गुस्से के इजहार और जायके को चखकर हमने तय किया कि हम कमलापुर गांव जायेंगे, जहां पहली बार नक्सवाद ने कमलापुर अधिवेशन के जरीये महाराष्ट्र में दस्तक दी थी।
सिरोचा से महज 25 किलोमीटर की दूरी पर कमलापुर गांव है। रास्ता ठीक ठाक । सिर्फ 7 किलोमीटर का पैच उबड़-खाबड़। मुख्यसड़क यानी सिरोंचा से अल्लापल्ली जाने वाली सड़क से सिर्फ 100 मिटर अंदर घुसते ही कमलापुर गांव। जहां 1984 में सिर्फ कमलापुर अधिवेशन का नाम सुनकर अगल-बगल से दस हजार से ज्यादा लोग जुट गये थे। अगल बगल से मतलब आंध्र-महाराष्ट्र-मध्य प्रदेश है।
मध्यप्रदेश का वह इलाका जो अब छत्तीसगढ बन चुका है और 10 हजार से ज्यादा तादाद इसलिये क्योंकि पहली बार पुलिस ने दावा किया था कि उसने 10 हजार लोगो को गिरफ्तार कर कमलापुर अधिवेशन होने ही नहीं दिया। क्योंकि कमलापुर अधिवेशन होता तो वह नक्सलबाडी की तरह ही एक नये संघर्ष को पैदा करता। कमलापुर में मुद्दा तेंदू पत्ता, न्यूनतम मजदूरी और जंगल गांव का था। यह सारी बाते और कोई नहीं कमलापुर अधिवेशन में शरीक होने से पहले ही गिरफ्तार कर लिये गये एड. एकनाथ साल्वे ने बतायी तो अधिवेशन में पहुंचे शिव के मुताबिक पुलिस ने उन्हे कमलापुर में गिरफ्तार इसलिये किया क्योंकि उस वक्त आंध्र की नक्सली लहर ने महाराष्ट्र सरकार को संदेश दे दिया था कि जो भी सम्मेलन में शरीक होने पहुंचे उसे नक्सली मान कर गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया जाये। और पुलिस खुले तौर पर बिना कोई धारा लगाये बस अधिवेशन होने देना नहीं चाहती थी। उस वक्त मुंबई के एलिफेस्टन कॉलेज से निकले स्कॉलर कोबात गांधी, अनुराधा गांधी, सुजन अब्राहम का लोग सम्मेलन में इंतजार कर रहे थे लेकिन पुलिस ने कमलापुर पहुंचने वाले हर रास्ते की नाकेबंदी कर रखी थी। कोई पहुंचा नहीं तो कमलापुर अधिवेशन को असफल करार
दे दिया गया।
लेकिन साहेब तीस बरस पहले के सम्मेलन के दौर में जो पुलिस ने किया उससे सैकड़ों परिवार तबाह हो गये। अचानक हमारी बातचीत के बीच में ही कमलापुर गांव का एक शख्स कूद पडा । 55-60 की उम्र के इस आदिवासी ने जो जानकारी दी उसने कई सवाल नक्सलवाद के नाम पर पुलिसिया कहर के दिखा दिए। गांव में सैकड़ों परिवारों को पुलिस ने बेदखल कर दिया। अगल-बगल के गांव से जो सिर्फ यह देखने आये थ कि गांव में होने क्या वाला है, उनपर ऐसी ऐसी कलम [धारायें] पुलिस ने लगायी कि उनके बच्चों के लिये जीवन जीना मुश्किल हो गया। उस वक्त से अभीतक सवाल सुलझे तो नहीं लेकिन नकसलियों की तादाद पुलिस फाइल में बढती गई और तेदू पत्ता से लेकर जंगल गांव से आगे के सवाल ने अब जिन्दगी जीने की न्यूनतम जरुरतों का मोहताज बना दिया है। कमलापुर के जिस मैदान में 30 बरस पहले अधिवेशन होना था आज वह जमीन बंजर है। गांव में करीब सवा किलोमीटर पगडंडी वाली सडक ही सबकुछ है। अंग्रेजी अक्षर एल की शक्ल में ही पगडंडी हैं। तो गांव के करीब 700 घर भी उसी के इर्द-गिर्द सिमटे हुये हैं। इस गांव में किसी गांधी के नाम की कोई योजना पहुंची नहीं और माओ या कोण्डापल्ली के नाम को जान कर भी हर कोई अनजान रहता है। चालीस फीसदी गांव के घरो में बच्चे शहर जाने के बाद गांव लौटे नहीं। जिन्हे रोजगार का कोई माध्यम मिला वह नहीं लौटा क्योकि लौटने पर पुलिस के सवाल और थाने के चक्कर उसे नौकरी पर जाने नहीं देगें और थानों के चक्कर नक्सलियों के मन में शक पैदा करेगी। तो गांव में अघेड लोग कैरम बोर्ड खेलते भी दिखे और ताडी का सार्वजनिक जायका लेते भी नजर आये। लेकिन पूछने या टटोलने पर यह जानकारी हर किसी को थी कि पहली बार राजनेताओ को छत्तीसगढ में निशाने पर लिया गया। लेकिन हमले से रास्ता निकलता नहीं है, और बीते 30 बरस में जिन्दगी और मुश्किल होती जा रही है। क्योंकि इसी दौर में कमलापुर के ही छह आदिवासी पर टाडा भी लगा और तीन ग्रामीणो पर पोटा भी। यह अलग बात है कि 1984 के बाद से कमलापुर में कोई दस्तक नक्सवाद ने दी नहीं। लेकिन पुलिस की दहशत बार बार गांववालों को 84 के खौफ की याद दिला देती है। और आक्रोश हर चेहरे पर पढ़ा जा सकता है, जिन्हें लगता है कि आजादी का स्वाद उनके लिये नक्सलवाद के नाम और पुलिस की जुबान के बीच ही चखना है। लेकिन महाराष्ट्र के बाद जिस तरह बस्तर में नक्सवाद ने खामोशी से दस्तक दी और उसके बाद जिस तेजी से नक्सलवद सियासी जरुरत बनी उसे टटोलने हम दोरणपाल के लिये निकल पडे। छत्तीसगढ में दोहणपाल का मतलब है विस्थापित आदिवासियों की ऐसी जमीन जहां एक तरफ नक्सली है तो दूसरी तरफ सलवा जुडुम और तीसरा जिसे कोई नहीं जानता वह है डरा, सहमा विस्थापित आदिवासी। जहां 2005 में गांव छोडकर सैकडो या हजार नहीं बल्कि सवा लाख आदिवासी पहुंचे।
(जारी...........)