पत्रकार / पत्रकारिता के नाम पर कोई कितनी फ्रॉडगिरी कर सकता है। या फिर मौजूदा दौर में पत्रकारिता एक ऐसे मुकाम पर जा पहुंची है, जहां पत्रकारिता के नाम पर धंधा किया भी जा सकता है और पत्रकारों के लिये ऐसा माहौल बना दिया गया है कि वह धंधे में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर धंधे को ही मुख्यधारा की पत्रकारिता मानने लगे। या फिर धंधे के माहौल से जुड़े बगैर पत्रकार के लिये एक मुश्किल लगातार उसके काम उसके जुनुन के सामानांतर चलती रहती है, जो उसे डराती है या फिर वैकल्पिक सोच के खत्म होने का अंदेशा देकर पत्रकार को धंधे के माहौल में घसीट कर ले जाती है।
दरअसल, यह सारे सवाल मौजूदा दौर में कुकुरमुत्ते की तरह पनपते सोशल मीडिया के विभिन्न आयामों को देखकर लगातार जहन में उतरते रहे हैं लेकिन हाल में ही या कहें 20 जुलाई को देश के 50 हिन्दी के संपादकों/ पत्रकारों को लेकर एक्सचेंज फॉर मीडिया की पहल ने इस तथ्य को पुख्ता कर दिया कि पत्रकार मौजूदा वक्त में बेचने की चीज भी है और पत्रकारिता के नाम का घोल कहीं भी घोलकर धंधेबाजों को मान्यता दिलायी जा सकती है। और समाज के मान्यता प्राप्त या कहें अपने अपने क्षेत्र के पहचान पाये लोगों को ही धंधे का औजार बनाकर धंधे को ही पत्रकारीय मिशन में बदला जा सकता है।
दर्द या पीडा इसलिये क्योंकि राम बहादुर राय (वरिष्ठ पत्रकार), श्री राजेंद्र यादव ( वरिष्ठ साहित्यकार), श्री पुष्पेश पंत (शिक्षाविद्) श्री सुभाष कश्यप (संविधानविद) श्री असगर वजागत (वरिष्ठ रंगकर्मी), श्री वेद प्रताप वैदिक( वरिष्ठ पत्रकार) श्री निदा फाजली (प्रसिद्ध गीतकार व शायर) प्रो. बी. के. कुठियाला ( कुलपति माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय) श्री राजीव मिश्रा ( सीईओ, लोकसभा टीवी) श्री रवि खन्ना ( पूर्व दक्षिण एशिया प्रमुख, वाइस ऑफ अमेरिका), सरीखे व्यक्तित्वों की समझ को मान्यता देकर डेढ़ सौ पत्रकारों में से पचास पत्रकारों का चयन करता है। बकायदा हर संपादक की तस्वीर और नाम देकर प्रचारिक प्रसारित करता है। लेकिन जब चुनिंदा 50 पत्रकारों के नामों के ऐलान का वक्त आता है तो टॉप के दो पत्रकार दो अखबार के मालिक हो जाते हैं। और इन अखबार मालिका का नाम या तस्वीर ना तो उन डेढ सौ की फेरहिस्त में कहीं दिखायी देता है और तो और जिन सम्मानीय लोगों को ज्यूरी का सदस्य बनाकर पत्रकारों को छांटा भी जाता है, उन्हें भी यह नहीं बताया जाता कि अखबार के मालिक पत्रकार हो चुके हैं या फिर दो अखबार के मालिक श्रेष्ठ पत्रकारों की सूची में जगह पा चुके हैं। असल में उन अखबार के मालिकों को नहीं बताया जाता है कि आप पत्रकारो की लिस्ट में सबसे उम्दा पत्रकार, सबसे साख वाले पत्रकार, हिन्दी की सेवा करने वाले सबसे श्रेष्ठ संपादक बनाये जा रहे हैं। जाहिर है यह महज चापलूसी तो हो नहीं सकती। क्योंकि धंधा चापलूसी से नहीं चलता। उसके लिये एक खास तरह के फरेब की जरुरत होती है जो फरेब बड़े कैनवास में मौजूदा पत्रकारिता के बाजारु स्तर को बढता हुआ दिखा दें। फिर पत्रकारिता की साख बनाये रखने के लिये पत्रकारों के बीच मौजूदा वक्त के सबसे साख वाले समाजसेवी अन्ना हजारे को बुला कर विकल्प की सोच और अलग लकीर खिंचने का जायका भी पैदा करने की कोशिश की जाती है।
लेकिन दिमाग में धंधा बस चुका है तो परिणाम क्या निकलेगा। यकीनन कॉकटेल ही समायेगा। तो जो अन्ना हजारे अपने गांव रालेगण सिद्दी से लेकर मुंबई की सड़कों पर दारु बंदी को लेकर ना सिर्फ संघर्ष करते रहे और उम्र गुजार दी बल्कि जिनके समाज सेवा की पहली लकीर ही दारुबंदी से शुरु होती है, उनसे ईमानदार पत्रकारिता का तमगा लेकर उसी माहौल में दारु भी जमकर उढेली जाती है। और तो और महारथी पत्रकारों को कॉकटेल में नहलाने की इतनी जल्दबाजी कि अन्ना के माहौल से निकलने से पहले ही जाम खनकने लगते हैं। हवा में नशे की खुमारी दौड़ने लगती है। अब यहां अन्ना सरीखे व्यक्ति खामोशी ही बरत सकते हैं क्योकि चंद मिनट पहले ही पत्रकारों से देश के लिये संघर्ष की मुनादी कर पत्रकारो को समाज का सबसे जिम्मेदार जो ठहराया। जाहिर है महारथी पत्रकारों की आंखों में उस वक्त शर्म भी रही लेकिन मेजबान की नीयत अगर डगमगाने लगी तो कोई क्या करे। और मेजबान को अगर समूचा कार्यक्रम ही धंधा लगने लगा है तो फिर वहा कैसे कोई पत्रकारिता, नीयत, ईमानदार समझ,मिशन,पत्रकारीय संघर्ष का सवाल उठा सकता है। यह सब तो बाजार तय करते हैं और बाजार से डरे सहमे पत्रकार ही नहीं ज्यूरी सदस्य भी इस कार्यक्रम पर अंगुली नहीं उठा पाते हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है। हर कोई खामोश। और पत्रकारिता के नाम पर एक सफल कार्यक्रम का तमगा एक्सचेंज फार मीडिया के कर्ताधर्ता अपने नाम कर लेते हैं। फिर त्रासदी यह कि जिन पचास महारथी पत्रकारों के नाम चुने भी गये उसे दिल्ली के पांच सितारा होटल के समारोह के बाहर अभी तक रखने की हिम्मत एक्सचेंज फार मीडिया भी दिखा नहीं पाया है। समझना है तो एक्सचेंज4मीडिया के साइट पर जाइये और त्रासदी देख लीजिये। लेकिन हमारी आपकी मुश्किल यह है कि इस साइट पर जितने ज्यादा हिट या क्लिक होंगे, उसे भी वह अपनी लोकप्रियता से जोड़ लेंगे।
हईशा
ReplyDeleteसर अगर पुरस्कार बांटने की मंशा ही इस हाथ दे उस हाथ ले की हो...फिर तो राम ही राखे...
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ReplyDeleteअखबार के संवाददाता नौकरी वेतन के लिऐ नही आई डी कार्ड के लिऐ करते हो,जिससे धमकी चमकी देकर अपना खर्चा निकाल सके , अखबार दफतर का आफिस बाय से लेकर हाकर तक सब ब्लेकमेलर बन जाऐ, अखबार मालिक जब राष्टीय राजनैतिक दल का प्रवक्ता होगा,तब इस पेशे की क्या मौलिकता या विश्वनीयता होगी .....? ,जिस पेशे के लिऐ कोई निर्धारित योग्यता, ड्रिग्री डिप्लोमा ही नही होती उसमें फ्रॉडगिरी तो होगी ही ........
ReplyDeleteदेश में राजनेताओं के प्रति तो जनता का विश्वास पूरी तरह से वैसे ही धूमिल हो चूका है और अब पत्रकारिता पर से ही धीरे धीरे विश्वास कम होता जा रहा है और इसके लिए जनता जिम्मेदार नहीं है बल्कि खुद ही जिम्मेदार है !!
ReplyDeleteओह, ये तो आपने झल्ला-वल्ला गाने की पंक्तियां उड़ेल दीं।
ReplyDeleteउसमें भी तो कहा गया है -
"महफिल सज्जनों की जेन्टलमैनों की है, बेवड़ा कोई हो जाये तो आये मजा"।
इस लिहाज से देखा जाय तो उन जेन्टलमनों की महफिल में आप ही वह "कोई" हैं जो जिससे पत्रकारात्मक बेवड़ा होने की इल्तिजा की जा रही थी
:)
सचमुच, भीतरी सच्चाई कुछ और होती है जैसा कि आपने पूरे मामले को इस पोस्ट के माध्यम से रखा। Good one.