कांग्रेस के खिलाफ गये चार राज्यों के जनादेश का सबसे बडा संकेत 2014 में एक नये विकल्प को खोजता देश है। भारतीय राजनीति में पहली बार ऐसा मौका आया है जब लोकसभा चुनाव की छांव में चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस और बीजेपी को चेताया है कि मौजूदा वक्त में देश विकल्प खोज रहा है। और अगर बीजेपी यह सोच रही है कि कांग्रेस की नीतियों को लेकर बढ़ता आक्रोश बीजेपी को सत्ता में पहुंचा देगा तो यह उसका सपना है क्योंकि दिल्ली में जैसे ही कांग्रेस और बीजेपी से इतर आम आदमी पार्टी मैदान में उतरी, वैसे ही जनता ने कांग्रेसी सत्ता के विकल्प के तौर पर बीजेपी से कही ज्यादा तरजीह आम आदमी पार्टी को दी। हालांकि राजस्थान और मध्यप्रदेश ने कांग्रेस को खारिज कर बीजेपी को जिस तरह दो तिहाई बहुमत दिया, यही स्थिति दिल्ली में भी बीजेपी की हो सकती थी लेकिन इसके लिये जरुरी था कि आम आदमी पार्टी चुनाव मैदान में ना होती।
इसी तर्ज पर पहला सवाल यही है कि क्या राजस्थान या मध्यप्रदेश या फिर छत्तीसगढ में अगर वाकई "आप" सरीखा राजनीतिक दल होता तो कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी को मुश्किल होती। क्योंकि तब सत्ता बदलने का नहीं राजनीतिक विकल्प का सवाल वोटरों के सामने होता। तो क्या चारों राज्यों के परिणाम ने हर राजनीतिक दल को नया ककहरा पढ़ाया है कि वह पारंपरिक राजनीति से इतर देखना शुरु करें और देश की राजनीति को केन्द्र में रखकर राज्यों की राजनीति का महत्व समझें। क्योंकि राजस्थान में अशोक गहलोत के विकास के नारे और कल्याणकारी योजनाओं पर यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और महंगाई भारी पड़े। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के सेक्यूलरवाद की सोच पर बीजेपी के शिवराज सिंह चौहान की सरोकार की राजनीति भारी पड़ी। छत्तीसगढ में विकास की चादर को सरकारी दान के दायरे में लपेटने की कोशिश बीजेपी के चावल वाले बाबा यानी रमन सिंह ने की और सत्ता के लिये वह ऐसे मुहाने पर आ खडे हुये जो बीजेपी के केंद्रीय लीडरशीप को दिल्ली में डराने लगे। क्योंकि चावल बांटने से वोट बटोरा जा सकता है लेकिन शिवराज चौहान की तरह राजनीतिक साख बनायी नहीं जा सकती है। इस लकीर को कही ज्यादा गाढ़ा दिल्ली में "आप" ने बनाया। क्योंकि विकास के ढांचे से लेकर कांग्रेस-बीजेपी की हर उपलब्धि को "आप" ने एक ऐसे कटघरे में रखा, जहां वोटर और पारंपरिक राजनीति के बीच "आप" खड़ी नजर आने लगी। शायद इसीलिये कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को यह मानना पड़ा कि चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस को नये सिरे से मथने के बारे में वह दिल-दिमाग से सोचने लगे हैं।
वहीं बीजेपी को अपनी नीतियों के समानांतर कांग्रेस के प्रति जनता के आक्रोश और नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता की चादर अपनी जीत के साथ लपेटनी पड़ी। और यहीं से भविष्य के भारत के नये राजनीतिक संकेत मिलने लगे हैं। क्योंकि कांग्रेस का साथ छोड़कर मध्यप्रदेश में मुस्लिम बहुल इलाके भी बीजेपी के साथ नजर आ रहे हैं। और राजस्थान में मीणा जाति के वोट बैंक भी गहलोत के राजनीतिक गठबंधन को लाभ पहुंचा नही पाये। और चुनावी संघर्ष में शीला दीक्षित जैसी अनुभवी और कांग्रेस की कद्दावर नेता भी एक बरस पुराने "आप" के नेता केजरीवाल से हार गयी। तो अगर जातीय गठबंधन बेमानी लगने लगा। धर्म के आधार पर राजनीतिक लकीर छोटी हो गयी। विकास के मुद्दे का ढोल खोखला लगने लगा। युवाओं का सैलाब नयी राजनीति की परिभाषा गढ़ने के लिये चुनाव को नये तरीके से देखने के लिये विवश करने लगा है तो पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी 10 जनपथ से बाहर निकल कर प्रधानमंत्री पद के लिये उम्मीदवार के जल्द ऐलान के संकेत देने पड़े। यानी मनमोहन सरकार के दायरे से बाहर सोचना कांग्रेस की जरुरत हो चली है और जिस युवा को अभी तक राहुल गांधी महत्व देने को तैयार नहीं थे उन्हें कांग्रेस के साथ खड़ा करने की बात राहुल गांधी को चुनाव परिणाम के बाद कहना पड़ा। जिस सोशल मीडिया के जरीये पारदर्शी राजनीति की बहस शुरु हुई, उसे चुनाव से पहले जिस तरह कांग्रेस और बीजेपी खारिज कर रही थी उसी सोशल मीडिया पर उभरे खुले विचारो को भी "आप" की जीत के बाद मान्यता मिलने लगी है। और यह वाकई आश्चर्यजनक है कि दिल्ली में शीला दीक्षित की समूची कैबिनेट को जिन उम्मीदवारों ने हराया, वह एक बरस पहले तक सड़क पर जनलोकपाल के लिये सरकार से गुहार लगाते हुये जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक नारे लगा रहे थे।
यानी 2014 के आम चुनाव से पहले राज्यों के चुनाव परिणाम ने एक ऐसा सेमीफाइनल हर किसी के सामने रखा है, जिसमें कांग्रेस अब गांधी परिवार के 'औरा' के जरीये सत्ता पा नहीं सकती है। बीजेपी सिर्फ नरेन्द्र मोदी की पीठ पर सवार होकर सत्ता पा नहीं सकती है। तीसरा मोर्चा महज जातीय समीकरण के आसरे 2014 में अपनी बनती सरकार के नारे लगा नहीं सकता है। क्योंकि चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने जतला दिया है कि देश पारंपरिक राजनीति से इतर नये भारत को बनाने के लिये विकल्प खोज रहा है। जहां आम आदमी की राजनीति अब कद्दवार और कद पाये नेताओं को भी जमीन सूंघाने को तैयार है
"@abdullah_omar: Which was the post poll survey that gave #AAP 6 seats? You need to sack your pollsters, they clearly stayed at home to fill questionnaires."
ReplyDeleteCheck out @abdullah_omar's Tweet: https://twitter.com/abdullah_omar/status/409554405914976257
Jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu
ReplyDeletePrasun Ji aapkay mutabik toh sirf 6 seats milni chahiye thi aapko par AAP ko 27 mil gayi hain aur 1 par ussay baddhat hai..umeed hai janta ne sab exit poll companies ko jawab day diya.
मिडिया का दोगलापन :
ReplyDeleteराजस्थान में भाजपा ने कुछ नहीं किया
मध्यप्रदेश में भाजपा ने कुछ नहीं किया
छतीसगढ़ में भाजपा ने कुछ नहीं किया
दिल्ली में भाजपा ने कुछ नहीं किया
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आज किसी ने कुछ किया तो केजरीवाल ने जिसने
विपछ के लिए चुना है।
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अरे अगर इतना ही कमाली होते तो 47 सीट
जितने वाले 27 पर क्यों सिमट गये।
Rajesh Ji agar media ne farzi CD bina jaanch k name chalayi hoti ya phir AAP ka spastikaran tathyon samait theek tareekay se dikhaya hota toh yakeen maaniye aaj 28 ki jagah 48 seats hotein
ReplyDeleteपुण्य सर सादर प्रणाम। विकल्प की तलाश में जनादेश में आपने पूरा निष्कर्ष ही निकाल दिया। इसे पढ़ कर काफी ज्ञान मिला। चुनाव के दौरान आप की आज तक में लगातार हुई कवरेज के लिए भी बधाई।
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ReplyDeleteKejriwal sahab har din Sunday nh hota h har bar galti se koi nh jeet sakta h,aap apne vade KB aur kaise pure krte ho aye b dhekhne wali baat hogi.....Anth me yahi kehna chahta hu "Abhi toh keval jaage hai,asli maza aage hai,"
ReplyDeleteAAP sirf galti se jeet gyi h,Kejriwal sahab hear din Sunday nh hota ,dhekhte h asp apne case pure krne k lite kya krte ho
ReplyDeleteJanta to kab ki jaati dharm ki raajniti se upar uthke Vikas ke naam pe vote dene lagi hai. Lekin rajneta hi is maansikta se baahar nahi nikal paa rahe hain.
ReplyDeleteBihar ke chunaav iska behtarin example hai jahaan Nitish ko Vikaash ke naam pe vote mila lekin aaj Nitish kumar Jaati or Dharm ki raajniti karke apni satta majboot karne me lage hue hai. Wo bhul gae hai ki unhe vote secular ke naam pe nahi mila.