हार्वर्ड से लेकर लंदन स्कूल आफ इकनॉमिक्स तक के तीन धुरंधर अर्थशास्त्री कैसे चुनावी बरस में डगमगा गये, उसकी तासीर है अंतरिम बजट। डॉ. मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और मोटेंक सिह अहलूवालिया की तिकड़ी ने बीते दस बरस में अपनी इकनॉमिक्स से आर्थिक सुधार की जो हवा बहायी, उसमें आवारा पूंजी ने कैसे समाज में असमानता पैदा की और कैसे क्रोनी कैपटलिज्म विकास का प्रतीक बन गयी, यह किसी से छुपी तो नहीं लेकिन जब चुनाव दस्तक दे रहा है तो झटके में हाशिये पर पड़े तबकों की सुध आ गयी। जरा ध्यान दीजिये, जो 10 मंत्रालय चिदंबरम के लिये जरुरी हो गये उसमें अल्पसंख्यक, आदिवासी, महिला, बाल विकास ,परिवार कल्याण, हेल्थ, पंचायती राज, ग्रामीण विकास, सामाजिक न्याय से लेकर पीने के पानी तक से जुड़े मंत्रालय शामिल है। सवाल यह नहीं है कि मनमोहनइक्नामिक्स पहली बार हाशिये पर पड़े तबकों को लेकर बैचेनी क्यों दिखा रही है। सवाल यह है कि खुली बाजार अर्थव्यवस्था का जो खाका 1991 में मनमोहन सिंह ने देश में रखा और बतौर पीएम जिस इकनॉमिक्स के जरीये दुनिया में भारत को अव्वल बनाने का सपना पाला वह चुनाव की आहट के साथ ही क्यों टूटता सा दिख रहा है ।
वहीं दूसरा सवाल है कि 2004 से 2014 के दौर में जिस तरह भारत की कंपनिया बहुराष्ट्रीय हो गयी। और दुनिया के बाजार में पैसा लगाने लगी क्या वह क्रोनी कैपिटिलिज्म के अंत की शुरुआत है। क्योंकि बीते 10 बरस का एक सच यह भी है कि कारपोरेट के अनुसार देश के हर मंत्रालय की नीतिया बनने लगी। जिस वक्त नीरा राडिया के टेप सामने आये और 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले से देश में हडकंप मचा उसका एक सच यह भी है कि मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के सोलह मंत्रालयों में कॉरपोरेट के बिचौलिये ही कॉरपोरेट के मुनाफे वाले प्रोजेक्ट को लेकर 2008 से 2011 तक ले जाते रहे। मंत्री का खुला निर्देश नौकरशाही को मिलता रहा और कॉरपोरेट की हर फाइल पर चिड़िया बैठती रही। इस काम को जाम देने के लिये नीरा राड़िया तो एक कंपनी भर है। सरकार की सूची में नीरा राडिया सरीखे 129 बिचौलिये 2011 तक काम करते रहे। और जिन मंत्रालयो ने कारपोरेट के जरिये देश के कथित विकास को गति दी उसे पीएम मनमोहन सिंह ने अव्वल माना।
लेकिन इसी दौर में हुआ क्या। देश की खनिज संपदा औने पौने दाम में निजी हाथो में दे दी गयी। कोयला हो या गैस। बिजली उत्पादन हो या खनन। सब कुछ खुल कर लूटा गया। और दसवें बरस के अंतरिम बजट में संभवत इसीलिये दामन के दाग छुपाने के लिये चिदबंरम को कहना पड़ा कि कोयलेखनन से उत्पादन बढ़ा है। प्राकृतिक गैस कुओं से उत्पादन जारी है..परमाणु रियक्टर जल्द काम करने लगेंगे। लेकिन जिस तरह बाजार के हाथों में सबकुछ सौपने का सिलसिला शुरु हुआ है, उससे देश के उपभोक्ता और नागरिकों के बीच ही कैसे लकीर खिंच गयी है। और कैसे सरकार के सरोकार आम आदमी से खत्म होते जा रहे है, इस पर बीते दो दशक से किसी ने ध्यान नहीं दिया। और उसका एक असर ही है कि मौजूदा वक्त में देश की जीडीपी में खेती का योगदान 17 फिसदी और उघोग उत्पाद का योगदान 23 प्रतिशत हो चुका है जबकि सर्विस सेक्टर की भूमिका बढते बढते 60 फीसदी तक जा पहुंची।
यानी हर हाथ में मोबाइल हो या चुनाव में बंटने वाला लैपटॉप। सरकार चार्जर तक का उत्पादन तो कर नहीं पा रही है। ऐसे में रोजगार पैदा हो कैसे और रोजगार ना मिलने पर युवा तबके का आक्रोश निकलेगा किसपर यह सवाल किसी राजनीतिक दल के जहन में नहीं है। ध्यान दें तो आर्थिक सुधार की धारा में देश के अस्सी फिसदी तबके को लेकर राजनीतिक दान और 20 फीसदी उपभोक्ताओं को लेकर क्रोनी कैपटिलिज्म का ही अर्थसास्त्र बीते दो दशक का सच है। और झटके में ट्रैक वन से ट्रैक-टू के खेल में अर्थसास्त्र को राजनीति बिसात पर प्यादा करार दिया गया है। यानी सत्ता बदले या कोई भी सत्ता में आये खुली बाजार की थ्योरी में हर राजनीतिक दल की राजनीति भी बाजार के सामने बौनी हो चली है तो फिर तीन सवाल देश के सामने है। पहला, क्या मौजूदा वक्त में देश वैकल्पिक राजनीति के लिये तैयार है। दूसरा, वैकल्पिक राजनीति का मतलब सिर्फ सत्ता परिवर्तन है। और तीसरा, संसदीय राजनीति को लेकर जनता में आक्रोश इस हद तक है कि वह मौजूदा राजनीतिक दल से इतर किसी को भी चुनने के लिये तैयार है। यह तीनों सवाल इसलिये बड़े हैं क्योंकि चिदंबरम का अंतरिम बजट भी 2104 के लोकसभा चुनाव को देख रहा है। अंतरिम बजट खारिज करने वाले बीजेपी से लेकर वामपंथियों के बयान को भी चुनाव के मद्देनजर दिया जा रहा है। और सत्ता बदलने से भी को परिवर्तन नहीं होगा यह भी 2014 के मद्देनजर वैकल्पिक राजनीति का ज्ञान देने वाली आमआदमी पार्टी कह रही है। तो क्या यह मान लिया जाये कि देश की राजनीति वैचारिक तौर पर सबसे ज्यादा दिवालियपन वाले हालात को जी रही है। या फिर पहली बार देश के सामने यह मौका आया है कि 2014 के चुनाव को ही देश की नीतियों के आसरे उठाकर पारंपरिक राजनीति को ही पलट दिया जाये। यह जरुरी क्यों है, इसे समझने के लिये देश के उस आंकड़े को ही देख लें, जिसे ब्रिटिश फर्म पिछले बरस दुनिया के सामने रखा। तो रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा वक्त में भारत में सबसे ज्यादा रोजगार पैदा करने वाला क्षेत्र है प्राइवेट सिक्योरटी का। और दूसरे नंबर पर है लिफ्ट में स्टूल डाल कर बैठा लिफ्ट मैन। यानी जिस देश में उच्च शिक्षा को लेकर कसीदे गढ़े जाते हों और दुनिया भर में साफ्टवेयर से लेकर मैनेजमेंट के छात्रो की घूम भारत के छात्र मचाने का जिक्र होता हो उस देश में कलर्क पैदा करने से भी बुरे हालात रोजगार पैदा करने को लेकर हो चुके है।
हालात यह है तो 2014 के चुनाव में काग्रेस फिसल जायेगी यह सोच कर बीजेपी ताली जरुर पिट सकती है । लेकिन क्या बीजेपी के पास कोई वैक्पिक सोच है या फिर मनमोहन सिंह के बदले पीएम के कुर्सी पर बैठने के लिये बैचेन नरेन्द्र मोदी के पास कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति है। जाहिर है बीजेपी यह कहकर खुश हो जायेगी कि सारा खेल तो गवर्नेंस का है। और मोदी के आते ही उसमें सुधार हो जायेगा। लेकिन जरा सोचिये कि मोदी के मुखौटे तक तो चीन से बनकर गुजरात में आते रहे। जिसके आसरे मोदी लगातार लोकप्रिय होते चले गये। किसान और ग्रामीण तो बीते छह बरस में कॉरपोरेट के धंधो के फैलाव में अपनी जमीन गंवाते चले गये। समूचे देश में बिल्डर से लेकर कारपोरेट घरानो तक की आय में 900 गुना की औसत वृद्दि सिर्फ 6 बरस में हो गयी। ऐसे में आखरी सवाल यही है कि क्या 2014 का चुनाव डॉ मनमोहन सिंह की इकनॉमिक्स का खात्मा है या फिर बीजेपी मनमोहन इकनॉमिक्स की धारा को नये सिरे से अपनायेगी। सिर्फ नाम कुछ अलग रख दिया जायेगा। क्योंकि कारपोरेट के धुरंधर जो कल तक मनमोहन के पीछे थे वही आज नरेन्द्र मोदी के पीछे खड़े है। या फिर देश के हालात चुनाव के बाद महात्मा गांधी के हर हाथ को काम पर लौटेंगे। या संघ के स्वदेशी चिंतन की दिशा में सोचेंगे। या नेहरु की मिक्स इकनॉमी के युग में लौंटगे। जहां खेती, उघोग और सर्विस सेक्टर पर एक समान नजर रखी जायेगी। इंतजार करना होगा क्योंकि पहली बार सत्ता या गवर्नेंस का मतलब 7 आरसीआर पर दस्तक देना भर नहीं है। बल्कि रायसीना हिल्स पर बैठकर देश की आत्मा को आत्मसात करना होगा। यह पीएम के लिये दौड़ते, भागते ,हांफते उम्मीदवारो में नजर नहीं आता।
read ur blog thoroughly, evry one is saying that today's electroni media is fully paid .
ReplyDeleteपहली बार आप का ब्लॉग पढ़ा है
हाथ की हर उंगली बारबार नही होती
आज पता चल गया
today's electronic media is fully paid _______
ReplyDeleteno ___no___n0
MEDIA PERSON
आपका सवाल जायज है। बिल्कुल आज नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग पर जो लोगों करोड़ रुपए व समय बर्बाद कर रहे हैं, क्या वे नरेंद्र मोदी को सत्ता दिलाने के बाद अपने हित नहीं साधेंगे। बिल्कुल। अगर आपके पास समय हो कृपया सर एक नजर।
ReplyDeletehttp://www.yuvarocks.com/2014/02/one-voter-questions-to-pm-candidate.html
एक वोटर के सवाल एक पीएम प्रत्याशी से
Iske liye kuch had tak hum bhi jimmedar h
ReplyDeleteKuch saman sasta hone se hum khus ho jayenge unki tariff ke Pul bandhenge or phir unhi ko vote denge or pure 5 saal unhi ko kosenge
If there's no perfect choice of parties in future governance, what do you think the people of India do in such a situation.is democracy in its true sense not good for India?and what are your views on left parties?
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