Friday, May 30, 2014
मोदी के हनीमूनकाल बीतने का इंतजार तो कीजिये
रक्षा मंत्री की खोज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को करनी है और बीजेपी के अध्यक्ष की खोज संघ परिवार को करनी है। लेकिन दोनों ही खोज में दोनों ही सहमति होनी चाहिये। इसलिये रक्षा मंत्री होगा कौन यह सवाल बीतते वक्त के साथ सरकार के लिये बड़ा होता जा रहा है, वहीं अध्यक्ष को लेकर भी आरएसएस के लिये परिस्थितियां उलझ रही हैं। फैसला जल्दबाजी में होना नहीं चाहिये। यह आरएसएस का विचार है और रक्षा मंत्रालय कभी भी वित्त मंत्री के पास रहता नहीं यह सरकार चलाने वाले अब खुले तौर पर मान भी रहे हैं और कह भी रहे हैं । क्योंकि रक्षा मंत्रालय का बजट ही अगर वित्त मंत्री बनाने लगे तो रक्षा मंत्रालय का नजरिया और सरकारी खजाने की जरुरत किसे ज्यादा है, यह उलझ जायेगा। वहीं अगले चार -पांच महींनो के भीतर आधे दर्जन राज्यों में चुनाव होने है तो राजनाथ गृह मंत्री रहते हुये कैसे बीजेपी को संवारेंगे यह भी
बड़ा सवाल है। तो दोनों पदो को लेकर कई फार्मूले हैं। पहला फार्मूला आडवाणी कैंप का।
अगर आडवाणी स्पीकर बन जाये तो जोशी रक्षा मंत्री हो जाये । दूसरा फार्मूला आडवाणी विरोधी कैप का है। सुरेश प्रभु को बीजेपी में शामिल कराकर रक्षा मंत्री बना दिया जाये। लेकिन यहा संघ की हरी झंडी चाहिये। क्योंकि सुरेश प्रभु शिवसेना छोड़ चुके है और शिवसेना इससे रुठ सकती है। और तीसरा फार्मूला सत्ता के गलियारे का है। अरुण शौरी को रक्षा मंत्री बना दिया जाये। हालांकि अरुण शौरी का नाम योजना आयोग के उपाध्यक्ष के तौर पर भी लिया जा रहा है। लेकिन इसके सामानांतर चौथे फार्मूला भी चल निकला है। जसवंत सिंह को वापस बीजेपी में ले लिया जाये और यशंवत सिन्हा को बीजेपी की सत्ता के मुख्यधारा में ले आया जाये। लेकिन अभी यह सिर्फ फार्मूले हैं। और किसी भी नाम पर आखरी मुहर संघ से चर्चा के बाद ही लगेगी । लेकिन संघ की चिन्ता को बीजेपी के अध्यक्ष को लेकर कही ज्यादा है। और वहां तीन नाम तेजी से उभरे हैं। जेपी नड्डा, ओम माथुर और अमित शाह । इन तीन चेहरों में कौन बीजेपी का अध्यक्ष होगा। इस पर संघ पहले बीजेपी के भीतर सहमति चाहता है। और मुश्किल यह है कि बीजेपी के भीतर मौजूदा वक्त में सिर्फ पीएम मोदी की ही तूती बोल रही है। तो अध्यक्ष बनने की कतार के तीनों चेहरे मोदी की पंसद ही माने जा रहे हैं। और संघ अभी खामोश है। क्योंकि सरकार और पार्टी का फार्मूला पहली बार साथ साथ चल रहा है। लेकिन सरकार का नजरिया इस दौर में वाकई सरकार चलाने और उस दौड़ाने का है। इसलिये जिन मुद्दो पर सवार होकर बीजेपी सत्ता तक पहुंची उसे भी पहले साधना है और लोकसभा में बहुमत से ज्यादा होते हुये भी राज्यसभा को कैसे साधा जाये इसके उपाय भी निकालने है क्योंकि एनडीए के पास सिर्फ 65 सांसद ही राज्यसभा में है।
तो इसके लिये रास्ता किसी भी तरह जयललिता को साध लाने का शुर हो चुका है। एआईएडीएमके के 11 सांसद राज्यसभा में है । और अगर एआईएडीएमके किसी तरह से बीजेपी के साथ जुड़ जाती है तो यह नरेन्द्र मोदी के लिये सबसे बड़ी राहत होगी। 3 जून को जयललिता दिल्ली आ रही हैं। माना जा रहा है कि तमिलनाडु से जुड़े मुद्दे को लेकर जयललिता प्रधानमंत्री को एक ज्ञापन सौपेंगी। लेकिन अंदरुनी संकेत यही है कि जयललिता के साथ बीजेपी रणनीतिक समझौता करना चाहेगी। जिससे संसद में कोई बिल राज्यसभा के पटल पर पहुंचकर रुके नहीं। वहीं मुद्दों को साधने के लिये पीएम अब अपनी सरकार को मथने के लिये तैयार है। क्योंकि महंगाई ,रोजगार,भ्रष्टाचार और कालाधन का मुद्दा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की निगाहों में है, जिनके आसरे सरकार की साख बननी है। क्योंकि इन्हीं मुद्दों की पीठ पर सवार होकर नरेन्द्र मोदी सत्ता तक पहुंचे हैं। लेकिन सीधे इनका नाम लेकर सरकार अभी से जनता के सामने सरकार को कोई ऐसा एजेंडा रखना नहीं चाहती है, जिससे जनता दिन गिनने लगे कि जो वादे पूरे किये गये वह कब पूरे होंगे या पूरे होने में देरी तो नहीं हो रही है। इसलिये महंगाई की जगह अर्थव्यवस्था को दुरस्त करने की बात कही गयी। रोजगार की जगह इन्फ्रास्ट्रक्चर और निवेश के साथ योजनाओ को पूरा करने पर जोर दिया जा रहा है। भ्रष्टाचार की जगह सुशासन और पारदर्शिता का जिक्र है और कालाधन को लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एसआईटी गठन का एलान है। तो क्या नरेन्द्र मोदी इस सच को समझ चुके हैं कि चुनावी प्रचार में मुद्दों का जिक्र तो किया जा सकता है लेकिन मुद्दों को पूरा करने के लिये समूची सरकार को एक तार में पिरोना जरुरी है। इसलिये पहला कदम हर मंत्री को सौ दिन के प्लान के दायरे में लाना जरुरी है। क्योंकि लक्ष्य सामने नहीं होगा तो फिर जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना भी मुश्किल हो जायेगा। ध्यान दें तो प्रधानमंत्री मोदी ने बेहद बारीकी से उन दो भारत को जोडने की शुरुआत दूसरी कैबिनेट की बैठक में ही दिखला दी जिनके बीच खाई बेहद चौड़ी है । एक तरफ न्यूनतम को पूरा करने का लक्ष्य जिसमें सड़क पानी बिजली, इलाज और शिक्षा है। तो दूसरी तरफ विकास की वह धारा जिसकी तरफ देश का बीस करोड उपभोक्ता बेचैनी से देख रहा है। यानी अटकी योजनायें,विदेशी निवेश की संभावनाये और इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना सरकार की प्राथमिकता है।
लेकिन सबसे बडी बडी मुश्किल खुदकुशी करते किसान से लेकर रोजगार के लिये रोजगार दफ्तर में बढती युवाओ की तादाद पर रोक कैसे लगेगी इसका कोई फार्मूला कहीं नहीं है। इसके उलट कारपोरेट और औघोगिक घरानों की ताकत बढ़ रही है।
उन्हीं के लाभ या कहे उन्हीं के जरीये विकास का समूचा खाका खड़ा किया जा रहा है। इसका एक नजारा पीएम के शपथ ग्रहण समारोह में नजर आया तो दूसरा नजारा सड़क बिजली पानी से लेकर शिक्षा और अस्पताल तक के लिये अब मंत्रालय कारपोरेट से उनकी कार्ययोजना मांग रहे हैं। जिससे अगले 100 दिनो का एजेंडा तय कर सके। ध्यान दें तो यूपीए-2 में इसी तरह मंत्रालयों की रिपोर्ट कार्ड तैयार करने का आधार मंत्रियो की योजनाओ से जोड़ा गया था । और उस वक्त हर मंत्री कारपोरेट के आसरे ही विकास योजनाओ का खाका तैयार करने में ही भरोसा पाले हुये था। और संयोग से तभी राडिया कांड हुआ था। लेकिन मोदी के युग में इतनी पारदर्शिता तो आ ही गयी है कि क्रोनी कैपिटलिज्म पर शपथ ग्रहण में ही सहमति दिखायी दे गयी। अंबानी-अडानी ही नहीं बल्कि सवा छह सौ कुर्सियां सिर्फ कारपोरेट और औघोगिक घरानों के नाम पर लगी थीं। और पहली बार कार्ड में भी छपा था कि आपको इंडस्ट्रिलिस्ट वाली कतार में बैठना है। तो आगे कैसे-कैसे क्या -क्या होगा । इसके संकेत तो
हर कोई समझ रहा है लेकिन यह हनीमून काल है। इसलिये हनीमून-काल के बीतने का इंतजार कीजिये।
Sunday, May 25, 2014
पृथ्वीराज चौहान बनकर मिलेंगे नवाज शरीफ से मोदी
दिल्ली में सुरक्षा और कश्मीर में हलचल। कुछ ऐसे ही हालात पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीज के मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिये दिल्ली पहुंचने को लेकर है। मोदी को मिले जनादेश ने कैसे पाकिस्तान को लेकर सियासी परिभाषा बदल दी है, यह काग्रेस से लेकर शिवसेना और बीजेपी से लेकर संघ परिवार तक की खामोशी या संयम जुबान से दिखायी देने लगा है। लेकिन असल बैचेनी तो घाटी में है। ढाई दशक पहले धाटी में चुनाव को ही फ्राड करार देकर हुर्रियत की नींव रखने वालो में एक अब्दुल गनी बट को नवाज शरीफ का दिल्ली आना तो अच्चा लग रहा है। लेकिन कश्मीर के जख्मों को नजरअंदाज कर सिर्फ मुलाकात या व्यापार समझौतो के आसरे संबंधों को मजबूत करना महज वक्त गुजारने वाले हालात लगने लगे हैं। वहीं बचपन से लाइन आफ कन्ट्रोल के इसपार या उसपार की हिंसक सियासत से लेकर कूटनीति की बिसात पर कभी बंदूक उठाकर तो अब गांधी के अहिंसा का जिक्र करने वाले यासिन मलिक को डर लगने लगा है कि कश्मीर को मौजूदा वक्त में गैरराजनीतिक ही ना बना दिया जाये। सिर्फ बट या यासिन ही नहीं बल्कि अलगाववादियो की वह पूरी जमात ही पहली बार खुद को अलग थलग मान रही है जो कल तक भारत पाकिस्तान के बीच किसी भी मुलाकात या बातचीत के टेबल पर अपनी मौजूदगी को दिखलाने के लिये बेचैन रहते थे। इन सबके बीच दिल्ली -इस्लामाबाद के जुड़ते तार नये संकेत दे रहे है कि कश्मीर से आगे निकला जा सकता है या नहीं।
नवाज शरीफ ही नहीं पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी भी इस हकीकत को समझ रही है कि पाकिस्तान में भी मध्यवर्ग का विस्तार हो रहा है। युवा तबका विचारधारा या सियासत को रोमांच मानने से आगे देखने लगा है। और यह तबका हर चुनाव को प्रभावित कर सकता है। तो फिर पाकिस्तान अगर सिर्फ कश्मीर के आसरे लाइन आफ कन्ट्रोल की सियासत में फंसा रहा तो सेना और आईएसआई के इशारे से आगे ना तो राजनीति की जा सकती है ना ही कूटनीति। तो पहली बार बड़ा सवाल नरेन्द्र मोदी के सामने भी है कि क्या वह कश्मीर को आंतरिक मसला कहकर उस महासंघ की बात कह सकते है जिसका जिक्र कभी श्यामाप्रसाद मुखर्जी और लोहिया किया करते थे। क्योंकि आज नहीं तो कल कश्मीर राग की दस्तक पाकिस्तान की तरफ से आयेगी ही । और यह राग जैसे ही सियासत का रास्ता पाकिस्तान में बनेगा तो फिर इस्लामाबाद हो कराची वह कभी दिल्ली से होकर कश्मीर नहीं जायेगा। बल्कि बार बार एलओसी पर किसी का सर कटेगा और पीओके के रास्ते घाटी में दस्तक दे कर दिल्ली दरबार को घमकाने के हालात पैदा किये जायेंगे। जाहिर है हर किसी की नजर नरेन्द्र मोदी पर ही होगी। क्योंकि जो शिवसेना कल तक पाकिस्तान से बातचीत का जिक्र करना नहीं चाहती थी, जो बीजेपी सीमापार आतंक के गढ़ को ध्वस्त करने के बोल बोलने से नहीं कतराती थी। जो संघ परिवार अखंड भारत का जिक्र कर अपने गौरव को लौटाना चाहता था। वह सब खामोश हैं। या मोदी को मिले जनादेश के सामने हर किसी की बोली बंद हो चुकी है। तो क्या आज नहीं तो कल फिर पुराने जख्म हरे होने लगेंगे। दोबारा कश्मीर को लेकर दिल्ली से लेकर इस्लामाबाद तक कई सत्ता केन्द्र पनप उठेंगे। आजादी के बाद से भारत पाकिस्तान के रिश्तों को समझे तो बंटवारे के घाव से लेकर कश्मीर में खिंची एलओसी को दिल्ली और इस्लामाबाद की सियासत बीते 67 बरस में या तो समझ नहीं पायी या समझबूझकर सियासत करने से नहीं चूकी। लेकिन मौजूदा सच यह भी है 67 बरस बाद या कहे आजादी के बाद पहली बार भारत ने उस धारा के हाथ में सत्ता दी है, जिसका नजरिया कभी नेहरु से लेकर वाजपेयी तक दौर से मेल नहीं खाया। यह नजरिया पाकिस्तान को विबाजन के एतिहासिक सच से ज्यादा महत्व देता नहीं है। यह नजरिया दक्षिण एशिया में भारत को अगुवाई करने वाला मानता है। यह नजरिया चीन से दो दो हाथ करने से नहीं कतराता। यह नजरिया यूरोप-अमेरिका को अपनी सामाजिक सास्कृतिक ज्ञान से बहुत पिछडा हुआ मानता है।
यह नजरिया दुनिया मे भारत के जरीये हिन्दू राष्ट्रवाद का ऐसा प्रतीक बनना चाहता है जो समाजवाद से लेकर पूंजीवाद तक को ठेंगा दिखा सके। और कह सके कि भारत का मतलब सिर्फ नक्शे पर एक देश भर नहीं है। तो क्या मोदी इसी रास्ते पर चलकर अजेय बनना चाहते है। जाहिर है मोदी ऐसा कुछ कर देगें यह सोचना भी संभव नहीं है। तो फिर मोदी का रास्ता जाता किधर है। जाहिर है मोदी सियासत के उस सच के तार को ही पकड़ना चाहेंगे, जिससे सत्ता बनी रही। या फिर बीते साठ बरस की हर सत्ता से बडी लकीर खिंचते हुये वह नजर आये। तो ऐसे में पाकिस्तान को समझौतो की फेहरिस्त चाहिये या फिर पाकिस्त में बिजली-सड़क-पानी से लेकर रोजगार पैदा करने वाले हालात चाहिये। कारपोरेट और औघोगिक घरानों को तो काम और मुनाफा चाहिये। वह जमीन भारत की हो या पाकिस्तान की। तो फिर जिस महासंघ का जिक्र कभी श्यामाप्रसाद मुखर्जी कर गये और कश्मीर के जिस दर्द को लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मौत हो गई। अगर उस महासंघ की नयी परिभाषा पूंजी पर खड़ी हो तो फर्क क्या पड़ता है। असल में कश्मीर के सवाल को ही अगर विकास के नारे तले खत्म कर दिया जाये तो फिर पाकिस्तान में भी सेना और आईएसआई से टकराने के लिये नवाज शरीफ की सत्ता नहीं पलटनी होगी बल्कि पाकिस्तान के उन युवाओं से टकराना होगा जो दुनिया में पाकिस्तान की हैसियत कट्टरपंथ या आतंक से अलग बाजार और चकाचौंध के तौर पर चाहते होंगे । क्योंकि महासंघ का नजरिया एलओसी पर बंदूक के बदले व्यापार, विकास और जरुरतो को पूरा होते हुये देखना चाहता है। मोदी का नवाज शरीफ को पाठ भी बेहद साफ होगा। पाकिस्तान की जनसंख्या से ज्यादा लोगों को तो भारत अपने में समेटे हुये है जिनके रिश्ते आज भी पाकिस्तान में है। तो महासंघ के दायरे में जब हर चीज खुलेगी तो आने वाले वक्त में महासंघ यूरो और डालर की तर्ज पर अपनी करेंसी क्यो नहीं विकसित कर सकता। यानी जो चीन और अमेरिका गाहे बगाहे अपने हितों को साधने के लिये दोनो देशों के बीच लकीर खींचते रहते हैं, उन्हे मिटाने का मौका पहली बार मिला है तो नवाज शरीफ को साथ आना चाहिये। जाहिर है महासंघ की सोच झटके में पाकिस्तान के पीएम पचा ना पाये । तो यही से संघ परिवार का ही दूसरा नजरिया उभरता है। जहां मोदी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर यानी पीओके का सवाल यह कहकर उठा दें कि पाकिस्तान बताये वह कब उसे भारत को लौटा रहा है। यानी कश्मीर हो या धारा 370.. । यह सब भारत के आंतरिक मसले है और पाकिस्तान को इस दिशा में सोचना भी नहीं चाहिये । उल्टे पाकिस्तान को उस आजाद कश्मीर का जबाब देना चाहिये जिसे भारत अपनी जमीन मानता है और कब्जे वाले कश्मीर के तौर पर देखता है ।
जाहिर है यह सवाल युद्द के हालात को पैदा करते है। लेकिन मौजूदा वक्त में मोदी की सत्ता पर समूचे भारत की मुहर है। लेकिन पाकिस्तान तो नवाज शरीफ से लेकर सेना, आईएसआई और तालिबान प्रभावित आंतंकी तंजीमों में बंटा हुआ है। फिर बलूचिस्तान का राग अलग है जहां भारत की पकड़ भी हैं। और इसके सामानांतर पहली बार बांग्लादेश को भी मोदी सीधे चेताने वाले हालात में है । यानी भारत में दो से ढाई करोड बांग्लादेशी घुसपैठियों को चिन्हित करने का काम भी शुरु होगा। और अगर मोदी ने सीधे बंग्लादेश को जता दिया कि अगले एक बरस में भारत में रह रहे बांग्लादेशियों की पहचान कर ली जायेगी ।
इस दौरान उन्हे वर्क परमिट भी दे दिया जायेगा। जिससे पहचान किये गये बांग्लादेशियों को एक साथ बांग्लादेश भेजे जाने का वक्त तय किया जा सके। तो बांग्लादेश की माली हालात यूं ही खराब है उसके बाद दो-ढाई करोड़ बांग्लादेशियों के वापस लौटने की सोच कर क्या हो सकता है इसका अंदाजा शेख हसीना को आज हो या ना हो लेकिन मोदी इस हकीकत को समझ रहे है कि उनके इस फैसले पर संयुक्त राष्ट्र से लेकर अमेरिका तक को मुहर लगाने में कोई परेशानी नहीं होगी। और ऐसी परिस्थितियां बनती है तो फिर ढाई करोड घुसपैठ किये बंग्लादेशियो के लिये सीमा पर एक अलग राज्य की व्यवस्था करने वाले हालात भी बन सकते हैं। तब बंग्लादेश को जमीन भी इन्हें बसाने के लिये देनी होगी। यानी फिर मोदी पड़ोसियों को लेकर जिस महासंघ के रास्ते पर चलने की तैयारी कर रहे है, उसमें पहली बार भारत ने अपनी हथेली पर दोनो तरह के फांसे रखे है। पहला महासंघ का और दूसरा संघर्ष का। और दोनों ही हालात मोदी को संघ परिवार के दायरे पृथ्वीराज चौहान बना रहे हैं। इसलिये दिल्ली से इस्लामाबाद और इस्लामाबाद से दिल्ली के रास्ते में कश्मीर आता नहीं है इसे मोदी अपनी पहली मुलाकात में नवाजशरीफ को बता जरुर देंगे।
नवाज शरीफ ही नहीं पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी भी इस हकीकत को समझ रही है कि पाकिस्तान में भी मध्यवर्ग का विस्तार हो रहा है। युवा तबका विचारधारा या सियासत को रोमांच मानने से आगे देखने लगा है। और यह तबका हर चुनाव को प्रभावित कर सकता है। तो फिर पाकिस्तान अगर सिर्फ कश्मीर के आसरे लाइन आफ कन्ट्रोल की सियासत में फंसा रहा तो सेना और आईएसआई के इशारे से आगे ना तो राजनीति की जा सकती है ना ही कूटनीति। तो पहली बार बड़ा सवाल नरेन्द्र मोदी के सामने भी है कि क्या वह कश्मीर को आंतरिक मसला कहकर उस महासंघ की बात कह सकते है जिसका जिक्र कभी श्यामाप्रसाद मुखर्जी और लोहिया किया करते थे। क्योंकि आज नहीं तो कल कश्मीर राग की दस्तक पाकिस्तान की तरफ से आयेगी ही । और यह राग जैसे ही सियासत का रास्ता पाकिस्तान में बनेगा तो फिर इस्लामाबाद हो कराची वह कभी दिल्ली से होकर कश्मीर नहीं जायेगा। बल्कि बार बार एलओसी पर किसी का सर कटेगा और पीओके के रास्ते घाटी में दस्तक दे कर दिल्ली दरबार को घमकाने के हालात पैदा किये जायेंगे। जाहिर है हर किसी की नजर नरेन्द्र मोदी पर ही होगी। क्योंकि जो शिवसेना कल तक पाकिस्तान से बातचीत का जिक्र करना नहीं चाहती थी, जो बीजेपी सीमापार आतंक के गढ़ को ध्वस्त करने के बोल बोलने से नहीं कतराती थी। जो संघ परिवार अखंड भारत का जिक्र कर अपने गौरव को लौटाना चाहता था। वह सब खामोश हैं। या मोदी को मिले जनादेश के सामने हर किसी की बोली बंद हो चुकी है। तो क्या आज नहीं तो कल फिर पुराने जख्म हरे होने लगेंगे। दोबारा कश्मीर को लेकर दिल्ली से लेकर इस्लामाबाद तक कई सत्ता केन्द्र पनप उठेंगे। आजादी के बाद से भारत पाकिस्तान के रिश्तों को समझे तो बंटवारे के घाव से लेकर कश्मीर में खिंची एलओसी को दिल्ली और इस्लामाबाद की सियासत बीते 67 बरस में या तो समझ नहीं पायी या समझबूझकर सियासत करने से नहीं चूकी। लेकिन मौजूदा सच यह भी है 67 बरस बाद या कहे आजादी के बाद पहली बार भारत ने उस धारा के हाथ में सत्ता दी है, जिसका नजरिया कभी नेहरु से लेकर वाजपेयी तक दौर से मेल नहीं खाया। यह नजरिया पाकिस्तान को विबाजन के एतिहासिक सच से ज्यादा महत्व देता नहीं है। यह नजरिया दक्षिण एशिया में भारत को अगुवाई करने वाला मानता है। यह नजरिया चीन से दो दो हाथ करने से नहीं कतराता। यह नजरिया यूरोप-अमेरिका को अपनी सामाजिक सास्कृतिक ज्ञान से बहुत पिछडा हुआ मानता है।
यह नजरिया दुनिया मे भारत के जरीये हिन्दू राष्ट्रवाद का ऐसा प्रतीक बनना चाहता है जो समाजवाद से लेकर पूंजीवाद तक को ठेंगा दिखा सके। और कह सके कि भारत का मतलब सिर्फ नक्शे पर एक देश भर नहीं है। तो क्या मोदी इसी रास्ते पर चलकर अजेय बनना चाहते है। जाहिर है मोदी ऐसा कुछ कर देगें यह सोचना भी संभव नहीं है। तो फिर मोदी का रास्ता जाता किधर है। जाहिर है मोदी सियासत के उस सच के तार को ही पकड़ना चाहेंगे, जिससे सत्ता बनी रही। या फिर बीते साठ बरस की हर सत्ता से बडी लकीर खिंचते हुये वह नजर आये। तो ऐसे में पाकिस्तान को समझौतो की फेहरिस्त चाहिये या फिर पाकिस्त में बिजली-सड़क-पानी से लेकर रोजगार पैदा करने वाले हालात चाहिये। कारपोरेट और औघोगिक घरानों को तो काम और मुनाफा चाहिये। वह जमीन भारत की हो या पाकिस्तान की। तो फिर जिस महासंघ का जिक्र कभी श्यामाप्रसाद मुखर्जी कर गये और कश्मीर के जिस दर्द को लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मौत हो गई। अगर उस महासंघ की नयी परिभाषा पूंजी पर खड़ी हो तो फर्क क्या पड़ता है। असल में कश्मीर के सवाल को ही अगर विकास के नारे तले खत्म कर दिया जाये तो फिर पाकिस्तान में भी सेना और आईएसआई से टकराने के लिये नवाज शरीफ की सत्ता नहीं पलटनी होगी बल्कि पाकिस्तान के उन युवाओं से टकराना होगा जो दुनिया में पाकिस्तान की हैसियत कट्टरपंथ या आतंक से अलग बाजार और चकाचौंध के तौर पर चाहते होंगे । क्योंकि महासंघ का नजरिया एलओसी पर बंदूक के बदले व्यापार, विकास और जरुरतो को पूरा होते हुये देखना चाहता है। मोदी का नवाज शरीफ को पाठ भी बेहद साफ होगा। पाकिस्तान की जनसंख्या से ज्यादा लोगों को तो भारत अपने में समेटे हुये है जिनके रिश्ते आज भी पाकिस्तान में है। तो महासंघ के दायरे में जब हर चीज खुलेगी तो आने वाले वक्त में महासंघ यूरो और डालर की तर्ज पर अपनी करेंसी क्यो नहीं विकसित कर सकता। यानी जो चीन और अमेरिका गाहे बगाहे अपने हितों को साधने के लिये दोनो देशों के बीच लकीर खींचते रहते हैं, उन्हे मिटाने का मौका पहली बार मिला है तो नवाज शरीफ को साथ आना चाहिये। जाहिर है महासंघ की सोच झटके में पाकिस्तान के पीएम पचा ना पाये । तो यही से संघ परिवार का ही दूसरा नजरिया उभरता है। जहां मोदी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर यानी पीओके का सवाल यह कहकर उठा दें कि पाकिस्तान बताये वह कब उसे भारत को लौटा रहा है। यानी कश्मीर हो या धारा 370.. । यह सब भारत के आंतरिक मसले है और पाकिस्तान को इस दिशा में सोचना भी नहीं चाहिये । उल्टे पाकिस्तान को उस आजाद कश्मीर का जबाब देना चाहिये जिसे भारत अपनी जमीन मानता है और कब्जे वाले कश्मीर के तौर पर देखता है ।
जाहिर है यह सवाल युद्द के हालात को पैदा करते है। लेकिन मौजूदा वक्त में मोदी की सत्ता पर समूचे भारत की मुहर है। लेकिन पाकिस्तान तो नवाज शरीफ से लेकर सेना, आईएसआई और तालिबान प्रभावित आंतंकी तंजीमों में बंटा हुआ है। फिर बलूचिस्तान का राग अलग है जहां भारत की पकड़ भी हैं। और इसके सामानांतर पहली बार बांग्लादेश को भी मोदी सीधे चेताने वाले हालात में है । यानी भारत में दो से ढाई करोड बांग्लादेशी घुसपैठियों को चिन्हित करने का काम भी शुरु होगा। और अगर मोदी ने सीधे बंग्लादेश को जता दिया कि अगले एक बरस में भारत में रह रहे बांग्लादेशियों की पहचान कर ली जायेगी ।
इस दौरान उन्हे वर्क परमिट भी दे दिया जायेगा। जिससे पहचान किये गये बांग्लादेशियों को एक साथ बांग्लादेश भेजे जाने का वक्त तय किया जा सके। तो बांग्लादेश की माली हालात यूं ही खराब है उसके बाद दो-ढाई करोड़ बांग्लादेशियों के वापस लौटने की सोच कर क्या हो सकता है इसका अंदाजा शेख हसीना को आज हो या ना हो लेकिन मोदी इस हकीकत को समझ रहे है कि उनके इस फैसले पर संयुक्त राष्ट्र से लेकर अमेरिका तक को मुहर लगाने में कोई परेशानी नहीं होगी। और ऐसी परिस्थितियां बनती है तो फिर ढाई करोड घुसपैठ किये बंग्लादेशियो के लिये सीमा पर एक अलग राज्य की व्यवस्था करने वाले हालात भी बन सकते हैं। तब बंग्लादेश को जमीन भी इन्हें बसाने के लिये देनी होगी। यानी फिर मोदी पड़ोसियों को लेकर जिस महासंघ के रास्ते पर चलने की तैयारी कर रहे है, उसमें पहली बार भारत ने अपनी हथेली पर दोनो तरह के फांसे रखे है। पहला महासंघ का और दूसरा संघर्ष का। और दोनों ही हालात मोदी को संघ परिवार के दायरे पृथ्वीराज चौहान बना रहे हैं। इसलिये दिल्ली से इस्लामाबाद और इस्लामाबाद से दिल्ली के रास्ते में कश्मीर आता नहीं है इसे मोदी अपनी पहली मुलाकात में नवाजशरीफ को बता जरुर देंगे।
Thursday, May 22, 2014
बोल के लब आजाद हैं तेरे...जो कहना है कह ले
जब कोई सत्ता से लड़ता है तो उसके चेहरे पर चमक आ जाती है। सत्ता अगर लड़ते लड़ते बदल दी जाये तो लड़ने वाले की धमक कहीं ज्यादा तेजी से फैलती है । लेकिन सत्ता के ढहने के बाद अगर कोई ऐसी सत्ता वहीं लडने वाली जनता खड़ी कर दे, जहा सवाल करना भी मुश्किल लगने लगे तो फिर कवि-लेखक ठिठक कर खामोश रहते हुये भाव-शून्य हो जाता है। बीते दो दशको से देश का बहुसंख्यक तबका लड़ ही तो रहा था। लगातार सत्ता से लेखन टकरा रहा था। पहले बाजार खुले। फिर राष्ट्रीय भावनायें भी बाजार में मोल भाव करते नजर आये। उसके बाद नागरिक से बड़ा उपभोक्ता को बना दिया गया। राष्ट्रीय खनिज संपदा की खुलेआम बोली लगने लगी। वामंपथी विचारधारा भी आधुनिक बाजार में शामिल होने के लिये तड़पने लगी। सिंगूर से नंदीग्राम और लालगढ का आंतक सत्ता का नया प्रयाय बना। ध्यान दें तो लेखक फिर भी सत्ता से टकरा रहे थे। लगातार लिखा जा रहा था। मां, माटी, मानुष को लेकर भी सवाल खड़ा करने से लेखक कतराया नहीं। काग्रेस के भ्रष्टाचार, देश में उत्पादन प्रक्रिया का ठप होना, महंगाई की त्रासदी पर हंसती खिलखिलाती लुटियन्स की दिल्ली पर हर किसी ने चोट की। हाथ कभी नहीं कांपे कि चांदी का चम्मच लेकर सियासत गढने वाले नेहरु गांधी परिवार हो या चिदंबरम सरीखे सिक्कों की सियासत करने वालो पर सीधा निशाना साधने से। लाखों टन गेहूं खुले आसमान तले सड़ता था और देश को बाजार में तब्दील करने पर आमादा शासकों लेकर जनता का गुस्सा सातवें आसमान पर हर वक्त रेंगा। काफी कुछ लिखा गया । कहा गया । सेमिनारों में धज्जियां उड़ाई गईं। संवैधानिक संस्थाओं पर भी सवालिया निशान लगा। सीबीआई से लेकर सीएजी तक सियासत के खेल में बांट दिये गये या फिर बंटे हुये नजर आये। लेकिन पहली बार गुस्सा मंदिर-मस्जिद और मंडल से कई कदम आगे था। क्योंकि सबकुछ मुनाफे में परोसा जा रहा था। कोई सोशल इंडेक्स समाज के लिये बनाया नहीं गया। जिसे जितना कमाना है कमा सकता है। पीएम खादान बांट दें । सीएम योजनाओ के लिये एनओसी बांटे । और करोड़ों के वारे-न्यारे । बीते बीस बरस से यही तो खेल चलता रहा। तो मुनाफे पर आंच आने पर कारपोरेट और औघोघिक घराने भी नाखुश हुये। गवर्नेंस की बात कारपोरेट घराने कुछ इस तरह करने लगे जैसे उन्हे नागरिकों की फिक्र हो। लेकिन इसी दौर में घोटालो के दायरे में नेता, मंत्री,नौकरशाह, कारपोरेट और सिने कलाकारों से लेकर मीडिया के धुरंधर भी फंसे। गुस्सा जनता में था। दिल सुलग रहे थे। गुस्से को सियासत में बदलने का दोतरफा खेल सियासी क्षत्रपों ने बखूबी खेला। कहीं दलित से महादलित तो कही यादव को मुसलमान से जोड़कर तो कही सोशल इंजीनियरिंग का अद्भूत नजारा। जनता ने अपने जनादेश से जैसे मुनाफा बनाने की इस चौसर को उलटा। वैसे ही खामोशी आ गई। मनमोहन का अर्थशास्त्र इतना फ्रॉड था कि जनादेश के बाद उम्मीद, उल्लास, भरोसा जनता में जागना चाहिये था । हर जगह जश्न मनना चाहिये था। लेकिन जनादेश की ताकत से जैसे सत्ता पहले मदहोश थी वैसे ही जश्न पर भी नयी सत्ता ने काबिज होना चाहा। एहसास कमल में जागा। गुलाब या गेंदा की खुशी कमल तले दब गयी। चंपा चमेली की खुशबू भी वातावरण से गायब लगने लगी। तो उल्लास उस समाज से गायब हो गया जो लड़ रहा था। लिख रहा था। जनता के गुस्से को अभिव्यक्ति के शब्द दे रहा था। सवाल उठ सकते हैं कि लेखन क्या जनता से दूर होता है।
लेखन के कोई सरोकार होते ही नहीं। सत्ता बीजेपी को नहीं नरेन्द्र मोदी को मिली है। सत्ता गुजरात के मॉडल को मिली है। सत्ता संघ के सामाजिक शुद्दीकरण के नजरीये को मिली है। सत्ता बदली है तो देश अब बदलेगा। यह उम्मीद और आस सिर्फ नये युग नये भारत के नारे तले दफन की नहीं जा सकती है । इसे बनाना । खड़ा करना। रास्ता दिखाना । लेखन की किसी नयी रचना से इतर कैसे हो सकता है शब्द क्यों थम गये है । तो फिर कागज पर रेंगती कलम की स्याही क्यों सूख गयी है। क्यों लिखा नहीं जा रहा है कि देश के बिगड़ते और खतरनाक हालात में हम ही तो थे जो यह कहने से नहीं चूक रहे थे कि इस देश को कोई तानाशाह ही पटरी पर ला सकता है । क्योंकि लुटियन्स की दिल्ली तो भोग विलास में डूबी हुई थी। उसमें क्या काग्रेस और क्या बीजेपी। इंडिया इंटरनेशनल काउंसिल की महंगी शराब से लेकर हैबिटेट सेंटर में पांच सितारा अपसंस्कृति का नायाब रंग तो हर किसी ने बीते दो दशको में बार बार देखा है। गोधरा कांड से लेकर गुजरात दंगो और उसके बाद आंतक की गिरफ्त में घायल होते देश के दर्द को भी कैसे हंसी -ठठके में पंच-संस्कृति के मातहत सुख ले-लेकर हवा में उड़ाया गया। यह किसने नहीं देखा सुना। अरुंधति राय की कलम से छलनी होते देश के हालात हर किसी ने पढ़ा। शायद ही कोई संपादक हो जिसके देश को बेच दिये जाने वाले हालात पर अंगुली न रखी हो। लेकिन सत्ता मदमस्त ही रही। क्योंकि उसे जनता ने चुना था। और जनादेश की ताकत का एहसास सत्ता ने ही अन्ना से लेकर बाबा रामदेव तक को जंतर मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक में कराये। जनता खामोश रही। क्योंकि जनादेश के घोड़े पर सवार सत्ता को जनता ही पलट सकती है।
यह लोकतंत्र की ताकत है। लेकिन हर दौर में लेखन तो हुआ। लेखक की कलम रुकी तो नहीं । जनादेश को बनाने में लेखन ने कितना काम किया यह आंकलन लुटियन्स की दिल्ली का सबसे सुविचारित सेमिनार का विषय हो सकता है । लेकिन जनादेश के बाद ऐसा क्यो है कि लेखन सत्ता से लडते हुये दिखायी नहीं दे रहा है । लोकतंत्र तो तुरंत जीता है । तो क्या सबकुछ नतमस्तक। यकीनन नहीं । पहली बार जनादेश भारत को बाजार बनने देने से रोकना चाहता है । पहली बार सामाजिक समानता का भाव बहुसंख्यक तबका देखना-समझना चाहता है । पहली बार हुनरमंद युवा तबका देश के भीतर देश को रचना चाहता है । पहली बार एक भूखा भी मर्सिडिज पर घूमते रईसो के पर कटते हुये देखना चाहता है । पहली बार २१ वी सदी की चकाचौंध से इतर गरीब-गुरबो का जिक्र संसद के सेन्द्रल हाल में हो रहा है । पहली बार हाशिये पर पडे तबके को मुख्यधारा से जोडने के सवाल उठ रहे हैं। तो क्या यह संभव है कि जिस मोदी को आसरे देश ने सपने पाले है उस मोदी की आंखों में इन सपनों को पूरा करने का सपना हो। अगर होगा तो फिर क्या संपादक और क्या कारपोरेट या औघोगिक घराने। समाज में जीने का नजरिया तो एक समान हर किसी का लाना ही होगा । यह कैसे संभव है कि देश के राष्ट्रपति का वेतन लाख रुपया हो और देश के टॉप पचास कारपोरेट समेत करीब ८ लाख लोगो के लिये करोड़ रुपये कोई मायने ही ना रखते हो। झांरखंड के चतरा में जो लिट्टी दस पैसे की मिलती हो वह दिल्ली के दिल्ली हाट में पन्द्रह रुपये की हो। जिस बुंदेलखंड , पलामू, बस्तर से लेकर देश के तीन सौ जिलो में एक घर का निर्माण २५ से ३० हजार में हो जाता हो वहीं घर देश के टॉप १०० शहरो में तीस से चालीस लाख तक में बनता हो। मेरठ और गाजियाबाद में दो रुपये से लेकर छह रुपये किलो मिलने वाला लहसून दिल्ली और मुबंई में सौ से डेढ सौ रुपये हो ताजा हो ।
कोई तो अर्तव्यवस्था होगी । कोई तो सिस्टम होगा जिसे बदलने का ख्वाब पाले नंगे बदन , नंगे पांव एवीएम मशीन तक जनता पहुंची हो । जिसने सपने पाले कि जनादेश के बाद कोई तो होगा जो दुनिया को बता सके कि कि हिन्दुस्तान में कई हिन्दुस्तान है । किसी को जातीय समीकरण में उलझाया गया । तो किसी को मंदिर मस्जिद के दायरे में बांधा गया। किसी को मुनाफा बनाने का नशा दे दिया गया । तो किसी को पांच सितारा जीवन जीने के लिये मदमस्त कर दिया गया । मनमोहन सिंह की इक्नामी ने जीवन के उल्लास को ही जीवन का समूचा सच करार दे दिया। कौन लोग थे जो पीएमओ में बैठे थे । बीते बीस बरस में कितने राजनेता और कितने नौकरशाह नार्थ-साउथ ब्लाक में फाइलों पर टिका टिप्पणी करते रहे। चिड़िया बैठाते रहे । जिन्होने भारत को कभी देखा ही नहीं । कैसे देश के लिये नीतियों बनायी गयी। यह धृतराष्ट्र की तर्ज पर मनरेगा पर उड़ाये गये ३५ हजार करोड से भी समझा जा सकता है और हर पेट को भरने के लिये करीब एक लाख करोड के सालाना बजट से भी समझा जा सकता है । और तो और मुनाफा बनाने में लगे कारपोरेट व औघोगिक घरानो को हर बरस ३ से ४ लाख करोड़ की दी जा रही सब्सिडी के सच से भी समझा जा सकता है कि अब जनादेश के बाद रास्ता निकलना क्या चाहिये। कैसे बाजार की हवा ने बारत की सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को भी चौराहे पर बेच कर मुनाफा बना लिया। लेकिन मुश्किल तो थमी कलाम और जनादेश से सड़क पर घर घर और हर हर कहकर डराने वाले हाथों का है। और संयोग से अर्से बाद जनादेश ने मौका दिया है लेखन तीक्ष्ण हो। तीखा हो। जो डराने और जुनूनी सियासी हवा को थाम सके। नहीं तो सत्ता की हवा भी जहरीली हो सकती है । तीस बरस बाद जनादेश बेलगाम है। उसे पूरी ताकत मिली है। और आजादी के बाद जनादेश का नजारा कांग्रेस को मटियामेट कर दूसरी आजादी का नारा भी दे रहा है। लेकिन संसदकी चौखट पर मथा टेक कर देश को साधने का संकल्प लेने वाले मोदी भी अकेले ना तो समाज को बांध सकते है ना ही देश को साध सकते हैं। क्योंकि जनादेश देश का है और जनादेश किसी को गुलाम नहीं बनाता।और आजादी जब छिनती नहीं और सत्ता से लडने वाले के चेहरे पर जब चमक आ जाती है तो फिर फैज को याद करना क्या बुरा है... तो बोल कि लब आजाद है तेरे , बोल जुंबा अब तक तेरी है, बोल कि सच जिंदा है अब तक , बोल कि जो कहना है कह ले..
लेखन के कोई सरोकार होते ही नहीं। सत्ता बीजेपी को नहीं नरेन्द्र मोदी को मिली है। सत्ता गुजरात के मॉडल को मिली है। सत्ता संघ के सामाजिक शुद्दीकरण के नजरीये को मिली है। सत्ता बदली है तो देश अब बदलेगा। यह उम्मीद और आस सिर्फ नये युग नये भारत के नारे तले दफन की नहीं जा सकती है । इसे बनाना । खड़ा करना। रास्ता दिखाना । लेखन की किसी नयी रचना से इतर कैसे हो सकता है शब्द क्यों थम गये है । तो फिर कागज पर रेंगती कलम की स्याही क्यों सूख गयी है। क्यों लिखा नहीं जा रहा है कि देश के बिगड़ते और खतरनाक हालात में हम ही तो थे जो यह कहने से नहीं चूक रहे थे कि इस देश को कोई तानाशाह ही पटरी पर ला सकता है । क्योंकि लुटियन्स की दिल्ली तो भोग विलास में डूबी हुई थी। उसमें क्या काग्रेस और क्या बीजेपी। इंडिया इंटरनेशनल काउंसिल की महंगी शराब से लेकर हैबिटेट सेंटर में पांच सितारा अपसंस्कृति का नायाब रंग तो हर किसी ने बीते दो दशको में बार बार देखा है। गोधरा कांड से लेकर गुजरात दंगो और उसके बाद आंतक की गिरफ्त में घायल होते देश के दर्द को भी कैसे हंसी -ठठके में पंच-संस्कृति के मातहत सुख ले-लेकर हवा में उड़ाया गया। यह किसने नहीं देखा सुना। अरुंधति राय की कलम से छलनी होते देश के हालात हर किसी ने पढ़ा। शायद ही कोई संपादक हो जिसके देश को बेच दिये जाने वाले हालात पर अंगुली न रखी हो। लेकिन सत्ता मदमस्त ही रही। क्योंकि उसे जनता ने चुना था। और जनादेश की ताकत का एहसास सत्ता ने ही अन्ना से लेकर बाबा रामदेव तक को जंतर मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक में कराये। जनता खामोश रही। क्योंकि जनादेश के घोड़े पर सवार सत्ता को जनता ही पलट सकती है।
यह लोकतंत्र की ताकत है। लेकिन हर दौर में लेखन तो हुआ। लेखक की कलम रुकी तो नहीं । जनादेश को बनाने में लेखन ने कितना काम किया यह आंकलन लुटियन्स की दिल्ली का सबसे सुविचारित सेमिनार का विषय हो सकता है । लेकिन जनादेश के बाद ऐसा क्यो है कि लेखन सत्ता से लडते हुये दिखायी नहीं दे रहा है । लोकतंत्र तो तुरंत जीता है । तो क्या सबकुछ नतमस्तक। यकीनन नहीं । पहली बार जनादेश भारत को बाजार बनने देने से रोकना चाहता है । पहली बार सामाजिक समानता का भाव बहुसंख्यक तबका देखना-समझना चाहता है । पहली बार हुनरमंद युवा तबका देश के भीतर देश को रचना चाहता है । पहली बार एक भूखा भी मर्सिडिज पर घूमते रईसो के पर कटते हुये देखना चाहता है । पहली बार २१ वी सदी की चकाचौंध से इतर गरीब-गुरबो का जिक्र संसद के सेन्द्रल हाल में हो रहा है । पहली बार हाशिये पर पडे तबके को मुख्यधारा से जोडने के सवाल उठ रहे हैं। तो क्या यह संभव है कि जिस मोदी को आसरे देश ने सपने पाले है उस मोदी की आंखों में इन सपनों को पूरा करने का सपना हो। अगर होगा तो फिर क्या संपादक और क्या कारपोरेट या औघोगिक घराने। समाज में जीने का नजरिया तो एक समान हर किसी का लाना ही होगा । यह कैसे संभव है कि देश के राष्ट्रपति का वेतन लाख रुपया हो और देश के टॉप पचास कारपोरेट समेत करीब ८ लाख लोगो के लिये करोड़ रुपये कोई मायने ही ना रखते हो। झांरखंड के चतरा में जो लिट्टी दस पैसे की मिलती हो वह दिल्ली के दिल्ली हाट में पन्द्रह रुपये की हो। जिस बुंदेलखंड , पलामू, बस्तर से लेकर देश के तीन सौ जिलो में एक घर का निर्माण २५ से ३० हजार में हो जाता हो वहीं घर देश के टॉप १०० शहरो में तीस से चालीस लाख तक में बनता हो। मेरठ और गाजियाबाद में दो रुपये से लेकर छह रुपये किलो मिलने वाला लहसून दिल्ली और मुबंई में सौ से डेढ सौ रुपये हो ताजा हो ।
कोई तो अर्तव्यवस्था होगी । कोई तो सिस्टम होगा जिसे बदलने का ख्वाब पाले नंगे बदन , नंगे पांव एवीएम मशीन तक जनता पहुंची हो । जिसने सपने पाले कि जनादेश के बाद कोई तो होगा जो दुनिया को बता सके कि कि हिन्दुस्तान में कई हिन्दुस्तान है । किसी को जातीय समीकरण में उलझाया गया । तो किसी को मंदिर मस्जिद के दायरे में बांधा गया। किसी को मुनाफा बनाने का नशा दे दिया गया । तो किसी को पांच सितारा जीवन जीने के लिये मदमस्त कर दिया गया । मनमोहन सिंह की इक्नामी ने जीवन के उल्लास को ही जीवन का समूचा सच करार दे दिया। कौन लोग थे जो पीएमओ में बैठे थे । बीते बीस बरस में कितने राजनेता और कितने नौकरशाह नार्थ-साउथ ब्लाक में फाइलों पर टिका टिप्पणी करते रहे। चिड़िया बैठाते रहे । जिन्होने भारत को कभी देखा ही नहीं । कैसे देश के लिये नीतियों बनायी गयी। यह धृतराष्ट्र की तर्ज पर मनरेगा पर उड़ाये गये ३५ हजार करोड से भी समझा जा सकता है और हर पेट को भरने के लिये करीब एक लाख करोड के सालाना बजट से भी समझा जा सकता है । और तो और मुनाफा बनाने में लगे कारपोरेट व औघोगिक घरानो को हर बरस ३ से ४ लाख करोड़ की दी जा रही सब्सिडी के सच से भी समझा जा सकता है कि अब जनादेश के बाद रास्ता निकलना क्या चाहिये। कैसे बाजार की हवा ने बारत की सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को भी चौराहे पर बेच कर मुनाफा बना लिया। लेकिन मुश्किल तो थमी कलाम और जनादेश से सड़क पर घर घर और हर हर कहकर डराने वाले हाथों का है। और संयोग से अर्से बाद जनादेश ने मौका दिया है लेखन तीक्ष्ण हो। तीखा हो। जो डराने और जुनूनी सियासी हवा को थाम सके। नहीं तो सत्ता की हवा भी जहरीली हो सकती है । तीस बरस बाद जनादेश बेलगाम है। उसे पूरी ताकत मिली है। और आजादी के बाद जनादेश का नजारा कांग्रेस को मटियामेट कर दूसरी आजादी का नारा भी दे रहा है। लेकिन संसदकी चौखट पर मथा टेक कर देश को साधने का संकल्प लेने वाले मोदी भी अकेले ना तो समाज को बांध सकते है ना ही देश को साध सकते हैं। क्योंकि जनादेश देश का है और जनादेश किसी को गुलाम नहीं बनाता।और आजादी जब छिनती नहीं और सत्ता से लडने वाले के चेहरे पर जब चमक आ जाती है तो फिर फैज को याद करना क्या बुरा है... तो बोल कि लब आजाद है तेरे , बोल जुंबा अब तक तेरी है, बोल कि सच जिंदा है अब तक , बोल कि जो कहना है कह ले..
Saturday, May 17, 2014
तो अब अमित शाह को बीजेपी अध्यक्ष बनवाना चाहते है मोदी
जो यूपी में अपने बूते हर समीकरण को तोडते हुये बीजेपी के लिये इतिहास रच
सकता है । उसे बीजेपी का अध्यक्ष क्यो नहीं बनाया जा सकता है । बेहद
महींन राजनीति के जरीये अमित शाह को लेकर अब यही तर्क बीजेपी के भीतर गढे
जाने लगे है । और संकेत उभरने लगे है कि अगर आरएसएस ने हरी झंडी दे दी तो
इधर नरेन्द्र मोदी पीएम पद की शपथ लेगें और दूसरी तरफ अमित शाह बीजेपी
के अध्यक्ष पद को संभालेगें । यानी सरकार और पार्टी दोनो को अब अपने
तरीके से चलाना चाहते है नरेन्द्र मोदी । दरअसल बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ
सिंह चुनाव के वक्त कई बार मोदी सरकार बनने पर कैबिनेट में शामिल होने से
इंकार किया । लेकिन चुनाव खत्म होते ही सरकार में जैसे ही दूसरे नंबर की
शर्त रखी वैसे ही बीजेपी के भीतर यह सवाल बडा होने लगा कि अगर राजनाथ
सिंह मोदी मंत्रिमंडल में गृह मंत्री बन जाते है तो फिर पार्टी अध्यक्ष
कौन होगा । ऐसे में पार्टी अध्यक्ष के पद पर नजरे नीतिन गडकरी की भी है ।
और गडकरी ने चुनाव के बाद जब दिल्ली में सबसे पहले लालकृष्ष आडवाणी के
दरवाजे पर दस्तक दी तो साथ में इनक्म टैक्स के वह कागज भी लेकर गये जिसके
जरीये वह बता सके कि उन पर अब कोई दाग नहीं है । और जिस आरोप की वजह से
उन्होने पार्टी का अध्यक्ष पद छोडा था अब जब उन्हे क्लीन चीट मिल चुकी है
तो फिर दिल्ली का रास्ता तो उनके लिये भी साफ है । गडकरी ने संकेत के तौर
पर खुद को अध्यक्ष बनाने का पत्ता फेंका । और यह बात दिल्ली में जैसे ही
खुली वैसे ही राजनाथ सिंह भी सक्रिय हुये और अपने लिये रास्ता बनाने में
लग गये । इसी वजह से उन्होने भी संकेत में सरकार में नंबर दो की हैसियत
की बात छेड दी । असल में नरेन्द्र मोदी की कैबिनेट में कौन शामिल होगा या
मोदी खुद किसे पंसद करेंगे इसे लेकर इतनी उहापोह के हालात बीजेपी के भीतर
है कि कोई पहले मुंह खोलना नहीं चाहता है । इसलिये नरेन्द्र मोदी किस दिन
प्रधानमंत्री पद की शपथ लेगें इसपर भी आज संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद
अधयक्ष राजनाथ सिंह को खुले तौर पर कहना पडा कि अभी तारिख तय नहीं हुई है
और 20 मई को संसदीय दल की बैठक औपचारिक तौर पर मोदी को पीएम चुने जाने के
एलान के बाद ही शपथ की तारिख तय होगी । लेकिन पार्टी के भीतर का अंदरुनी
संकट यह है कि नरेन्द्र मोदी के साथ कौन कौन बतौर कैबिनेट मनिस्टर शपथ
लेगा इसपर कोई सहमति बनी नहीं है या कहे हर कोई खामोश है । यहा तक की
वरिष्ट् नेता मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज तक ने खामोशी के बीच इसी
संकेत को उभारा है कि अगर जीत का सारा सेहरा मोदी के सिर बांधा जा रहा है
तो फिर मोदी ही तय करें । आलम यह है कि मंत्रिमंडल को लेकर संघ परिवार
में भी खामोशी है । क्योकि संघ किसी भी रुप यह नहीं चाहता है कि देश के
सामने ऐसा कोई संकेत जाये जिससे लगे कि संघ की दखल सरकार बनाने में है ।
इसलिये वरिष्ठो को सम्मान मिलना चाहिये इससे आगे का कोई संकेत नागपुर में
मुरली मनमोहर जोशी की सरसंघचालक मोहन भागवत की मुलाकात के बाद निकले नहीं
। और वैसे भी मंत्रिमंडल में कौन रहे या कौन ना रहे यह अधिकार
प्रधानमंत्री का ही होता है । लेकिन पार्टी के अध्यक्ष पद को लेकर अगर
किसी नाम पर मुहर लगती है तो उसमें आरएसएस की हरी झंडी की जरुरत है । साथ
ही आडवाणी की सहमति से किसी के लिये भी अच्छी स्थिति हो सकती है । और
चुनाव के बाद नागपुर में संरसंधचालक से मुलाकात के बाद गडकरी ने पहले
आडवाणी और उसके बाद सुषमा स्वराज का दरवाजा भी यही सोच कर खटखटाया कि
जैसे ही बात अध्यक्ष पद को लेकर तो उनका नाम ही सबसे उपर हो । लेकिन
नरेन्द्र मोदी के कामकाज के तरीको को जानने वालो की माने तो मोदी ना
सिर्फ सरकार बल्कि संगठन को भी अपने तरीके से साधना चाहते है । और इसके
लिये अध्यक्ष पद पर अमित शाह को चाहते है । फिर यूपी और बिहार में जिस
तरह मोदी लहर ने जातिय समीकरण की धज्जिया उडा दी है और यूपी में जिस महीन
तरीके से अमित शाह ने समूचे प्रदेश के राजनीतिक तौर तरीको को ही बदल दिया
है उसके बाद बीजेपी ने नये सांसदो के लिये अमित शाह सबसे बडे रणनीतिकार
और नेता भी हो चले है । यही स्थिति बिहार के नये सांसदो की भी है । वहीं
नरेन्द्र मोदी संगठन को अपने अनुकुल करने के लिये बीजेपी के
मुख्यमंत्रियो को भी अपने पक्ष में कर चुके है । छत्तिसगढ के सीएम रमन
सिंह हो या फिर राजस्थान की सीएम वसुधरा राजे या फिर गोवा के मनमोहर
पारिकर । सभी मोदी के सामने नतमस्तक है । एकमात्र मध्यप्रदेश के सीएम
शिवराज सिह चौहान है जो पूरी तरह झुके नहीं है । हालाकि मोदी के पक्ष
लेने में कोई कोताही वह भी नहीं बरत रहे है । वैसे बीजेपी के भीतर के
हालात बताते है कि अगर नरेन्द्र मोदी का कद बढता चला जा रहा है और अब
अमित शाह को अध्यक्ष पद पर बैठाने के लिये जब पत्ता फेंका जा रहा है तो
उसके पीछे बीजेपी के तमाम नेताओ की अपनी कमजोरी है । बीजेपी के भीतर
मौजूदा वक्त में किसी नेता के पास इतना नैतिक बल नहीं है कि वह मोदी या
अमित शाह की किसी थ्योरी का विरोध कर सके । यानी कभी कुशाभाउ ठाकरे या
सुंदर सिंह भंडारी जैसे नैतिक बल वाले नेता बीजेपी में होते थे जो ताल
ठोंक सकते थे । लेकिन मौजूदा वक्त में बीजेपी अपने ही कर्मो से इतनी नीचे
आ चुकी है कि दिल्ली में बीजेपी का कार्यकर्त्ता हो या देश भर में फैला
कैडर उसके लिये बीजेपी से ज्यादा नरेन्द्र मोदी मायने रखने लगा है ।
इसलिये मोदी को पीएम की कुर्सी तक बीजेपी या संघ परिवार ने सिर्फ नहीं
पहुंचाया है बल्कि उस जनसमुदाय ने पहुंचाया जो बीजे दस बरस में बीजेपी से
पूरी तरह दूर हो चुका था ।
सकता है । उसे बीजेपी का अध्यक्ष क्यो नहीं बनाया जा सकता है । बेहद
महींन राजनीति के जरीये अमित शाह को लेकर अब यही तर्क बीजेपी के भीतर गढे
जाने लगे है । और संकेत उभरने लगे है कि अगर आरएसएस ने हरी झंडी दे दी तो
इधर नरेन्द्र मोदी पीएम पद की शपथ लेगें और दूसरी तरफ अमित शाह बीजेपी
के अध्यक्ष पद को संभालेगें । यानी सरकार और पार्टी दोनो को अब अपने
तरीके से चलाना चाहते है नरेन्द्र मोदी । दरअसल बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ
सिंह चुनाव के वक्त कई बार मोदी सरकार बनने पर कैबिनेट में शामिल होने से
इंकार किया । लेकिन चुनाव खत्म होते ही सरकार में जैसे ही दूसरे नंबर की
शर्त रखी वैसे ही बीजेपी के भीतर यह सवाल बडा होने लगा कि अगर राजनाथ
सिंह मोदी मंत्रिमंडल में गृह मंत्री बन जाते है तो फिर पार्टी अध्यक्ष
कौन होगा । ऐसे में पार्टी अध्यक्ष के पद पर नजरे नीतिन गडकरी की भी है ।
और गडकरी ने चुनाव के बाद जब दिल्ली में सबसे पहले लालकृष्ष आडवाणी के
दरवाजे पर दस्तक दी तो साथ में इनक्म टैक्स के वह कागज भी लेकर गये जिसके
जरीये वह बता सके कि उन पर अब कोई दाग नहीं है । और जिस आरोप की वजह से
उन्होने पार्टी का अध्यक्ष पद छोडा था अब जब उन्हे क्लीन चीट मिल चुकी है
तो फिर दिल्ली का रास्ता तो उनके लिये भी साफ है । गडकरी ने संकेत के तौर
पर खुद को अध्यक्ष बनाने का पत्ता फेंका । और यह बात दिल्ली में जैसे ही
खुली वैसे ही राजनाथ सिंह भी सक्रिय हुये और अपने लिये रास्ता बनाने में
लग गये । इसी वजह से उन्होने भी संकेत में सरकार में नंबर दो की हैसियत
की बात छेड दी । असल में नरेन्द्र मोदी की कैबिनेट में कौन शामिल होगा या
मोदी खुद किसे पंसद करेंगे इसे लेकर इतनी उहापोह के हालात बीजेपी के भीतर
है कि कोई पहले मुंह खोलना नहीं चाहता है । इसलिये नरेन्द्र मोदी किस दिन
प्रधानमंत्री पद की शपथ लेगें इसपर भी आज संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद
अधयक्ष राजनाथ सिंह को खुले तौर पर कहना पडा कि अभी तारिख तय नहीं हुई है
और 20 मई को संसदीय दल की बैठक औपचारिक तौर पर मोदी को पीएम चुने जाने के
एलान के बाद ही शपथ की तारिख तय होगी । लेकिन पार्टी के भीतर का अंदरुनी
संकट यह है कि नरेन्द्र मोदी के साथ कौन कौन बतौर कैबिनेट मनिस्टर शपथ
लेगा इसपर कोई सहमति बनी नहीं है या कहे हर कोई खामोश है । यहा तक की
वरिष्ट् नेता मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज तक ने खामोशी के बीच इसी
संकेत को उभारा है कि अगर जीत का सारा सेहरा मोदी के सिर बांधा जा रहा है
तो फिर मोदी ही तय करें । आलम यह है कि मंत्रिमंडल को लेकर संघ परिवार
में भी खामोशी है । क्योकि संघ किसी भी रुप यह नहीं चाहता है कि देश के
सामने ऐसा कोई संकेत जाये जिससे लगे कि संघ की दखल सरकार बनाने में है ।
इसलिये वरिष्ठो को सम्मान मिलना चाहिये इससे आगे का कोई संकेत नागपुर में
मुरली मनमोहर जोशी की सरसंघचालक मोहन भागवत की मुलाकात के बाद निकले नहीं
। और वैसे भी मंत्रिमंडल में कौन रहे या कौन ना रहे यह अधिकार
प्रधानमंत्री का ही होता है । लेकिन पार्टी के अध्यक्ष पद को लेकर अगर
किसी नाम पर मुहर लगती है तो उसमें आरएसएस की हरी झंडी की जरुरत है । साथ
ही आडवाणी की सहमति से किसी के लिये भी अच्छी स्थिति हो सकती है । और
चुनाव के बाद नागपुर में संरसंधचालक से मुलाकात के बाद गडकरी ने पहले
आडवाणी और उसके बाद सुषमा स्वराज का दरवाजा भी यही सोच कर खटखटाया कि
जैसे ही बात अध्यक्ष पद को लेकर तो उनका नाम ही सबसे उपर हो । लेकिन
नरेन्द्र मोदी के कामकाज के तरीको को जानने वालो की माने तो मोदी ना
सिर्फ सरकार बल्कि संगठन को भी अपने तरीके से साधना चाहते है । और इसके
लिये अध्यक्ष पद पर अमित शाह को चाहते है । फिर यूपी और बिहार में जिस
तरह मोदी लहर ने जातिय समीकरण की धज्जिया उडा दी है और यूपी में जिस महीन
तरीके से अमित शाह ने समूचे प्रदेश के राजनीतिक तौर तरीको को ही बदल दिया
है उसके बाद बीजेपी ने नये सांसदो के लिये अमित शाह सबसे बडे रणनीतिकार
और नेता भी हो चले है । यही स्थिति बिहार के नये सांसदो की भी है । वहीं
नरेन्द्र मोदी संगठन को अपने अनुकुल करने के लिये बीजेपी के
मुख्यमंत्रियो को भी अपने पक्ष में कर चुके है । छत्तिसगढ के सीएम रमन
सिंह हो या फिर राजस्थान की सीएम वसुधरा राजे या फिर गोवा के मनमोहर
पारिकर । सभी मोदी के सामने नतमस्तक है । एकमात्र मध्यप्रदेश के सीएम
शिवराज सिह चौहान है जो पूरी तरह झुके नहीं है । हालाकि मोदी के पक्ष
लेने में कोई कोताही वह भी नहीं बरत रहे है । वैसे बीजेपी के भीतर के
हालात बताते है कि अगर नरेन्द्र मोदी का कद बढता चला जा रहा है और अब
अमित शाह को अध्यक्ष पद पर बैठाने के लिये जब पत्ता फेंका जा रहा है तो
उसके पीछे बीजेपी के तमाम नेताओ की अपनी कमजोरी है । बीजेपी के भीतर
मौजूदा वक्त में किसी नेता के पास इतना नैतिक बल नहीं है कि वह मोदी या
अमित शाह की किसी थ्योरी का विरोध कर सके । यानी कभी कुशाभाउ ठाकरे या
सुंदर सिंह भंडारी जैसे नैतिक बल वाले नेता बीजेपी में होते थे जो ताल
ठोंक सकते थे । लेकिन मौजूदा वक्त में बीजेपी अपने ही कर्मो से इतनी नीचे
आ चुकी है कि दिल्ली में बीजेपी का कार्यकर्त्ता हो या देश भर में फैला
कैडर उसके लिये बीजेपी से ज्यादा नरेन्द्र मोदी मायने रखने लगा है ।
इसलिये मोदी को पीएम की कुर्सी तक बीजेपी या संघ परिवार ने सिर्फ नहीं
पहुंचाया है बल्कि उस जनसमुदाय ने पहुंचाया जो बीजे दस बरस में बीजेपी से
पूरी तरह दूर हो चुका था ।
Wednesday, May 14, 2014
जनादेश पर टिकी है लखनऊ के खान साहेब और राजकोट के राजू भाई की मुलाकात
खान साहेब ने 6 मई को लखनऊ से बनारस के लिये हवाई जहाज पकडा और 5 दिनो तक बनारस की गलियो से लेकर गांव तक की घूल फांकते रहे कि मोदी चुनाव ना जीते। राजकोट से राजू भाई दिल्ली होकर 7 मई को बनारस पहुंचे और बीजेपी के हर कार्यकर्ता से लेकर बनारस की गलियो में अलक जगाते रहे कि मोजी के जीत के मायने कितने अलग है। खान साहेब के पैसंठ हजार रुपये खर्च हो गये। राजू भाई के भी पचास हजार रुपये फूंक गये। दोनो ने रुपये अपनी जेब से लुटाये। किसी पार्टी ने या किसी उम्मीदवार ने उनके दर्द या खूशी को नहीं देखा या देखने-समझने की जुर्रत नहीं की। दोनो ने भी 12 मई के शाम पांच बजे तक कभी नहीं सोचा कि आखिर वो क्य़ो और कैसे मोदी के विरोध या समर्थन में बनारस पहुंच गये। बस आ गये। और अब लौट रहे है। बनारस हवाई अड्डे पर ही दिल्ली से मुंबई जाने वाले विमान पर लौटते वक्त संयोग से दोनो से मुलाकात हुई। दोनो ने एक दूसरे को लखनउ और राजकोट आने का न्यौता भी दिया। और तय यही हुआ कि जब कोई राजकोट या लखनउ जायेगा तो तीनो वहीं मिलेगें। पहले से बता दिया जायेगा। क्योकि तैयारी पहले से होनी चाहिये तो ही मंजिल मिलती है। यह बात अचानक राजू भाई ने कही तो खान साहेब ने चौक कर कहा। राजू भाई तो इसका मतलब है बनारस से लडना पहले से तय किया गया था। सिर्फ लडना ही नहीं हुजुर जो समूची कवायद मोदी ने की है वह किसी प्रोजेक्ट की तरह थी। आप खुद ही सोचिये अगर ब्लू प्रिट ना होता तो फिर मोदी 45 दिनो में कभी भी पल भर के लिये भटकते नहीं। तो क्या पीएम पद की उम्मीदवारी से लेकर 12 मई की शाम पांच बजे तक का ब्लू प्रिट तैयार था।
खान साहेब सिर्फ प्रचार खत्म होने तक का ही नहीं। पीएम बनते ही क्या-कुछ कैसे करना है। पहले छह महिने में और फिर अगले छह महिने में कौन सी कौन सी प्राथमिकताये है। हर काम का ब्लु प्रिंट तैयार है। तो क्या बाबा रामदेव से लेकर गिरिराज तक के बयान ब्लू प्रिट का ही हिस्सा था। नहीं-नहीं हुजुर। ब्लू प्रिट मोदी ने अपने लिये तैयार किया था। अब दाये-बांये से चूक हो रही थी तो उनकी जिम्मेदारी कौन लेता। पार्टी ने ली भी नहीं। लेकिन मोदी कही चूके हो या फिर कभी ऐसा महसूस हुआ हो कि मोदी जो चाह रहे है वह नहीं हो रहा है तो आप बताईये। लेकिन राजू भाई यह कहने की जरुरत पड जाये कि हमसे डरे नहीं। या फिर सत्ता में आये तो हर किसी के साथ बराबरी का सलुक होगा। इसका मतलब क्या है। संविधान तो हर किसी को बराबर मानता ही है। और आपने तो सीएम बनते वक्त ही संविधान की शपथ ले ली थी। खान साहेब बीते साठ बरस के इतिहास को भी तो पलट कर देख लिजिये। कौन सत्ता में रहा और किसने बराबरी का हक किसे नहीं दिया। आपको मौका लगे तो इसी गर्मी में दुजरात आईये। आपके यहा लगंडा या मालदा आम होता है। और महाराष्ट्र का नामी है अल्फांसो। इन दोनो आमो की तासिर को मिला दिजिये तो गुजरात का कैसर आम खाकर देखियेगा। तब आप समझेगें गुजरात का जायका क्या है। राजू भाई सवाल फलो के जायके का नहीं है। ना ही सवाल आम के पेडो का है। अब आप ही बताईये मोदी जी सत्ता के जिस नये शहर को दिल्ली के जरीये बसाना चाहते है उस नये शहर में कौन बचेगा। कौन कटेगा। इसकी लडाई तो आरएसएस के दरबार से लेकर 11 अशोक रोड और गांधीनगर तक होगी। यह सवाल आपके दिमाग में क्यो आया। हमारे यहा तो हर किसी को जगह दी जाती है। सवाल उम्र का होना तो चाहिये। आखिर गुरु या गाईड की भूमिका में भी स्वयसेवको को आना ही चाहिये। नहीं , राजू भाई। मेरा मतलब है कोई नया शहर बनता है तो उसमें भी बरगद या पीपल के पेड को काटा नहीं जाता है। आप तो आस्थावान है। बरगद-पीपल को कैसे काट सकते है।
ऐसे में विकास के नारे तले कुकरमुत्ते की तरह कौन से नये शहर उपजेगें जो बिना बरगद या पीपील के होगें। खान साहेब , अगर आप लालकृष्ण आडवाणी , मुरली मनमोहर जोशी, शांता कुमार या पार्टी छोड चुके जसंवत सिंह की बात कह रहे है तो यह ठीक नहीं है। बरगद के पेड पर भी एक वक्त के बाद बच्चे खेलने नहीं जाते। और ठीक कह रहे आप। पीपल के तो हर पत्ते में देवता है। और आधुनिक विकास के लहजे में समझे तो लुटियन्स की दिल्ली में क्रिसेन्ट रोड पर अग्रेजो ने भी सिर्फ पीपल के पेड ही लगाये। क्योकि वहीं एक मात्र पेड है जो दिन हो या रात हमेशा अक्सीजन देता है। और इसी सडक पर अग्रेज सुबह सवेरे टहलने निकलते थे। तो क्या पार्टी में मोदी के अलावे आक्सीजन देने वाले नेता बचे है जिन्हे मोदी के कैबिनेट में जगह मिलेगी। अरे हुजुर , अभी 16 तारिख तो आने दिजिये। इतनी जल्दबाजी ना करें . ना मोदी को जल्दबाजी में ले। गुजरात के लोग मोदी को जानते समझते है। जो लायक होते है उन्हे चुन-चुन कर अपने साथ समेटते है। चाहे आप उनका विरोध ही क्यो ना करें। आप इंजतार किजिये। हो सकता है जसवंत सिंह की बीजेपी में वापसी हो जाये। तो क्या मोदी के ब्लू प्रिट में यह भी दर्ज है कि किसे किस रुप में साथ लाना है और उससे क्या काम लेना है। खान साहेब कम से कम अपने मंत्रिमंडल को लेकर तो मोदी का ब्लू प्रिंट बिककुल तैयार होगा। लेकिन आप ऐसा ना सोचियेगा कि इस बार कोई दलित नेता ही दलितो की त्रासदी को समझेगा या मुस्लिमो के घाव पर मलहम लगाने के लिये कोई मुस्लिम नेता बीजेपी भी खडा करेगी। तो क्या हर किसी के दर्द या उसकी पीडा की समझ किसी ऐसे नामसझ नेता के हाथ में दे दी जायेगी जो उस समाज या उस कौम का हो ही नहीं। राजू भाई, हम तो मानते है कि जर समाज -हर कौम को उसी समाज से निकला शख्स ज्यादा बेहतर समझ सकता है।
अगर ऐसा है तो मौलाना कलाम साहेब ने रामपुर से चुनाव क्यो लडा। यह कहते हुये जैसे ही मैने बीच बहस में अपनी बात कही। वैसे ही खान साहेब ने तुरंत तर्क दिये, आप तो पत्रकार है और आप जानते होगें 1957 में मौलाना ने दुबारा रामपुर से चुनाव लडने को लेकर नेहरु से विरोध किया था। ठीक कहते है आप। लेकिन मौलाना ने नेहरु से यह भी कहा था कि मै हिन्दुस्तान की नुमाइन्दी करने के लिये पाकिस्तान में नहीं गया। लेकिन नेहरु मुझे मुस्लिम बहुतायत वाले क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतार कर मुझे सिर्फ मुस्लिमो के नुमाइन्दे के तौर पर देखना-बताना चाहते है। मेरे यह कहते ही राजू भाई ने बिना देर किये टोका। प्रसून भाई, यह तो मै कह रहा हूं, मोदी का नजरिया नेहरु वाला या नेहरु परिवार तले बडी हुई काग्रेस वाला कतई नहीं होगा। बराबरी तो लानी होगी ही। नहीं तो अगले चुनाव में तुष्ठीकरण की सियासत फिर किसी तिकडमी को सियासत सौप देगी या क्षत्रपो का बोलबाला बरकरार रहेगा। या कहे काग्रेस की धारा बह निकलेगी। खान साहेब आप मोदी को समझने से पहले यह समझ लिजिये मोदी संघ परिवार के प्रचारक रह चुके है। मौका मिले तो देखियेगा। कुर्ते की उपरी जेब में एक छोटी डायरी और पेंसिल जरुर रखते है। जहा जो अच्छी जानकारी मिले उसे भी नोट करते है। प्रचार के दौर में किसी ने कहा रेलवे को कोई सुधार सकता है तो वह श्रीधरण है। तो मोदी जी ने श्रीधरण का नाम डायरी में लिख लिया। और खान साहेब यह भी जान लिजिये पहले से तैयार ब्लू प्रिट को आधार बनाकर आगे कोई कार्यक्रम तय करते है। यह नहीं कि जहा जब लाभ हो वहीं चल दिये। गुजरात में सीएम पद संभालने के बाद भी अक्टूबर 2001 से लेकर पहले चुनाव में जीत यानी 2003 तक के दौर को देखिये। जो 2001 में साथ दें वह 2003 के बाद मोदी के साथ नहीं थे। क्योकि 2001 में सीएम बनते ही मोदी ने 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद का ब्लू प्रिट बनाना शुरु कर दिया था। इसलिये मंत्रिमंडल से लेकर साथी-सहयोगी सभी 2003 में बदल गये। लेकिन गोधरा कांड कहीये या गुजरात दंगे। मोदी ने विधानसभा चुनाव वक्त पर ही कराये। जबकि 2003 में चुनाव नहीं होगें इसी के सबसे ज्यादा कयास लगाये जा रहे थे। लेकिन दिल्ली के लिये तो ब्लू प्रिट पहले से ही तैयार होगा। होगा नहीं , है हुजुर।
इसीलिये ध्यान दिजिये बीजेपी में पहले दिन से मोदी के ब्लू प्रिट देखकर ही हर कोई बेफ्रिक है। नारा भी इसिलिये लगा, अबकि बार मोदी सरकार। तो क्या गुजरात में हर कोई जानता था। कि बीजेपी नहीं मोदी की ही चलेगी। खान साहेब सच तो यही है कि बीते 12 बरस में हर गुजराती मोदी के कामकाज के तौर तरीके को जान चुका है। मोदी हर काम में समूची शक्ति चाहते है और फिर उसे अंजाम तक पहुंचाते है। 2001 में समूची ताकत मोदी के पास नहीं थी। 2003 के विदानसभा चुनाव में जीत के बाद मोदी ने गुजरात को अपने हाथ में लिया और गुजरात को बदल दिया। और सच यही है कि देश बदल जाये यह सोच कर पचास हजार रुपये खर्च कर मै गुजरात आ गया खान साहेब। लेकन राजू भाई अगर 16 मई को जनादेश ने पूरी ताकत मोदी को नहीं दी तब। इस तब का जबाब राजू भाई ने हंसते हुये यही कहकर दिया। खान साहेब आपकी फ्लाइट का वक्त हो रहा है। आप गुजरात आईये। खान साहेब भी निकलते निकलते कह गये। अगर जनादेश ने मोदी को पूरी ताकत दे ही दी तो फिर गुजरात आने की जरुरत क्या होगी राजू भाई। हम दोनो प्रसून के यहा दिल्ली में ही मिल लेगें। तो तय रहा जनादेश के मुताबिक या तो गुजरात या फिर दिल्ली।
खान साहेब सिर्फ प्रचार खत्म होने तक का ही नहीं। पीएम बनते ही क्या-कुछ कैसे करना है। पहले छह महिने में और फिर अगले छह महिने में कौन सी कौन सी प्राथमिकताये है। हर काम का ब्लु प्रिंट तैयार है। तो क्या बाबा रामदेव से लेकर गिरिराज तक के बयान ब्लू प्रिट का ही हिस्सा था। नहीं-नहीं हुजुर। ब्लू प्रिट मोदी ने अपने लिये तैयार किया था। अब दाये-बांये से चूक हो रही थी तो उनकी जिम्मेदारी कौन लेता। पार्टी ने ली भी नहीं। लेकिन मोदी कही चूके हो या फिर कभी ऐसा महसूस हुआ हो कि मोदी जो चाह रहे है वह नहीं हो रहा है तो आप बताईये। लेकिन राजू भाई यह कहने की जरुरत पड जाये कि हमसे डरे नहीं। या फिर सत्ता में आये तो हर किसी के साथ बराबरी का सलुक होगा। इसका मतलब क्या है। संविधान तो हर किसी को बराबर मानता ही है। और आपने तो सीएम बनते वक्त ही संविधान की शपथ ले ली थी। खान साहेब बीते साठ बरस के इतिहास को भी तो पलट कर देख लिजिये। कौन सत्ता में रहा और किसने बराबरी का हक किसे नहीं दिया। आपको मौका लगे तो इसी गर्मी में दुजरात आईये। आपके यहा लगंडा या मालदा आम होता है। और महाराष्ट्र का नामी है अल्फांसो। इन दोनो आमो की तासिर को मिला दिजिये तो गुजरात का कैसर आम खाकर देखियेगा। तब आप समझेगें गुजरात का जायका क्या है। राजू भाई सवाल फलो के जायके का नहीं है। ना ही सवाल आम के पेडो का है। अब आप ही बताईये मोदी जी सत्ता के जिस नये शहर को दिल्ली के जरीये बसाना चाहते है उस नये शहर में कौन बचेगा। कौन कटेगा। इसकी लडाई तो आरएसएस के दरबार से लेकर 11 अशोक रोड और गांधीनगर तक होगी। यह सवाल आपके दिमाग में क्यो आया। हमारे यहा तो हर किसी को जगह दी जाती है। सवाल उम्र का होना तो चाहिये। आखिर गुरु या गाईड की भूमिका में भी स्वयसेवको को आना ही चाहिये। नहीं , राजू भाई। मेरा मतलब है कोई नया शहर बनता है तो उसमें भी बरगद या पीपल के पेड को काटा नहीं जाता है। आप तो आस्थावान है। बरगद-पीपल को कैसे काट सकते है।
ऐसे में विकास के नारे तले कुकरमुत्ते की तरह कौन से नये शहर उपजेगें जो बिना बरगद या पीपील के होगें। खान साहेब , अगर आप लालकृष्ण आडवाणी , मुरली मनमोहर जोशी, शांता कुमार या पार्टी छोड चुके जसंवत सिंह की बात कह रहे है तो यह ठीक नहीं है। बरगद के पेड पर भी एक वक्त के बाद बच्चे खेलने नहीं जाते। और ठीक कह रहे आप। पीपल के तो हर पत्ते में देवता है। और आधुनिक विकास के लहजे में समझे तो लुटियन्स की दिल्ली में क्रिसेन्ट रोड पर अग्रेजो ने भी सिर्फ पीपल के पेड ही लगाये। क्योकि वहीं एक मात्र पेड है जो दिन हो या रात हमेशा अक्सीजन देता है। और इसी सडक पर अग्रेज सुबह सवेरे टहलने निकलते थे। तो क्या पार्टी में मोदी के अलावे आक्सीजन देने वाले नेता बचे है जिन्हे मोदी के कैबिनेट में जगह मिलेगी। अरे हुजुर , अभी 16 तारिख तो आने दिजिये। इतनी जल्दबाजी ना करें . ना मोदी को जल्दबाजी में ले। गुजरात के लोग मोदी को जानते समझते है। जो लायक होते है उन्हे चुन-चुन कर अपने साथ समेटते है। चाहे आप उनका विरोध ही क्यो ना करें। आप इंजतार किजिये। हो सकता है जसवंत सिंह की बीजेपी में वापसी हो जाये। तो क्या मोदी के ब्लू प्रिट में यह भी दर्ज है कि किसे किस रुप में साथ लाना है और उससे क्या काम लेना है। खान साहेब कम से कम अपने मंत्रिमंडल को लेकर तो मोदी का ब्लू प्रिंट बिककुल तैयार होगा। लेकिन आप ऐसा ना सोचियेगा कि इस बार कोई दलित नेता ही दलितो की त्रासदी को समझेगा या मुस्लिमो के घाव पर मलहम लगाने के लिये कोई मुस्लिम नेता बीजेपी भी खडा करेगी। तो क्या हर किसी के दर्द या उसकी पीडा की समझ किसी ऐसे नामसझ नेता के हाथ में दे दी जायेगी जो उस समाज या उस कौम का हो ही नहीं। राजू भाई, हम तो मानते है कि जर समाज -हर कौम को उसी समाज से निकला शख्स ज्यादा बेहतर समझ सकता है।
अगर ऐसा है तो मौलाना कलाम साहेब ने रामपुर से चुनाव क्यो लडा। यह कहते हुये जैसे ही मैने बीच बहस में अपनी बात कही। वैसे ही खान साहेब ने तुरंत तर्क दिये, आप तो पत्रकार है और आप जानते होगें 1957 में मौलाना ने दुबारा रामपुर से चुनाव लडने को लेकर नेहरु से विरोध किया था। ठीक कहते है आप। लेकिन मौलाना ने नेहरु से यह भी कहा था कि मै हिन्दुस्तान की नुमाइन्दी करने के लिये पाकिस्तान में नहीं गया। लेकिन नेहरु मुझे मुस्लिम बहुतायत वाले क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतार कर मुझे सिर्फ मुस्लिमो के नुमाइन्दे के तौर पर देखना-बताना चाहते है। मेरे यह कहते ही राजू भाई ने बिना देर किये टोका। प्रसून भाई, यह तो मै कह रहा हूं, मोदी का नजरिया नेहरु वाला या नेहरु परिवार तले बडी हुई काग्रेस वाला कतई नहीं होगा। बराबरी तो लानी होगी ही। नहीं तो अगले चुनाव में तुष्ठीकरण की सियासत फिर किसी तिकडमी को सियासत सौप देगी या क्षत्रपो का बोलबाला बरकरार रहेगा। या कहे काग्रेस की धारा बह निकलेगी। खान साहेब आप मोदी को समझने से पहले यह समझ लिजिये मोदी संघ परिवार के प्रचारक रह चुके है। मौका मिले तो देखियेगा। कुर्ते की उपरी जेब में एक छोटी डायरी और पेंसिल जरुर रखते है। जहा जो अच्छी जानकारी मिले उसे भी नोट करते है। प्रचार के दौर में किसी ने कहा रेलवे को कोई सुधार सकता है तो वह श्रीधरण है। तो मोदी जी ने श्रीधरण का नाम डायरी में लिख लिया। और खान साहेब यह भी जान लिजिये पहले से तैयार ब्लू प्रिट को आधार बनाकर आगे कोई कार्यक्रम तय करते है। यह नहीं कि जहा जब लाभ हो वहीं चल दिये। गुजरात में सीएम पद संभालने के बाद भी अक्टूबर 2001 से लेकर पहले चुनाव में जीत यानी 2003 तक के दौर को देखिये। जो 2001 में साथ दें वह 2003 के बाद मोदी के साथ नहीं थे। क्योकि 2001 में सीएम बनते ही मोदी ने 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद का ब्लू प्रिट बनाना शुरु कर दिया था। इसलिये मंत्रिमंडल से लेकर साथी-सहयोगी सभी 2003 में बदल गये। लेकिन गोधरा कांड कहीये या गुजरात दंगे। मोदी ने विधानसभा चुनाव वक्त पर ही कराये। जबकि 2003 में चुनाव नहीं होगें इसी के सबसे ज्यादा कयास लगाये जा रहे थे। लेकिन दिल्ली के लिये तो ब्लू प्रिट पहले से ही तैयार होगा। होगा नहीं , है हुजुर।
इसीलिये ध्यान दिजिये बीजेपी में पहले दिन से मोदी के ब्लू प्रिट देखकर ही हर कोई बेफ्रिक है। नारा भी इसिलिये लगा, अबकि बार मोदी सरकार। तो क्या गुजरात में हर कोई जानता था। कि बीजेपी नहीं मोदी की ही चलेगी। खान साहेब सच तो यही है कि बीते 12 बरस में हर गुजराती मोदी के कामकाज के तौर तरीके को जान चुका है। मोदी हर काम में समूची शक्ति चाहते है और फिर उसे अंजाम तक पहुंचाते है। 2001 में समूची ताकत मोदी के पास नहीं थी। 2003 के विदानसभा चुनाव में जीत के बाद मोदी ने गुजरात को अपने हाथ में लिया और गुजरात को बदल दिया। और सच यही है कि देश बदल जाये यह सोच कर पचास हजार रुपये खर्च कर मै गुजरात आ गया खान साहेब। लेकन राजू भाई अगर 16 मई को जनादेश ने पूरी ताकत मोदी को नहीं दी तब। इस तब का जबाब राजू भाई ने हंसते हुये यही कहकर दिया। खान साहेब आपकी फ्लाइट का वक्त हो रहा है। आप गुजरात आईये। खान साहेब भी निकलते निकलते कह गये। अगर जनादेश ने मोदी को पूरी ताकत दे ही दी तो फिर गुजरात आने की जरुरत क्या होगी राजू भाई। हम दोनो प्रसून के यहा दिल्ली में ही मिल लेगें। तो तय रहा जनादेश के मुताबिक या तो गुजरात या फिर दिल्ली।
Sunday, May 11, 2014
मोदी-केजरीवाल के न्याय युद्द में तब्दील हो चुका है बनारस
इस बार खूब बंटी गंजी,टोपी,जूते। खूब बांटे गये विज्ञापन। स्टीकर पोस्टर से पट गये शहर दर शहर। नारों ने जगाये सपने। लगता है अच्छी होगी वोट की फसल। बीएचयू के लॉ फैक्लटी की दीवार पर चस्पां यह पोस्टर बनारस के चुनावी हुडदंग की अनकही कहानी बया करता है। जो नेता भी बनारस के जमीन पर पैर रखने से कतराये और उड़नखटोले से बनारस के बाबतरपर से सीधे बीएचयू के हैलीपैड पर उतरे। बीएचयू उनके लिये बदल गया। और राजनेताओं को संभाले राजनीतिक दल भी छात्रों के लिये बदल गये। जो बांटा गया। जो बंटा । और बांटने के नाम पर जो खा गये। सभी का कच्छा चिट्टा इतना पारदर्शी हो गया कि रिबॉक के जूते से लेकर नारे लिखे गंजी और टोपिया बीएचयू के हॉस्टल में खेलने और पोंछने के सामान बन गये। मोटरसाइकिल पर निकलते काफिले के नारे उतनी ही दूर तक गये जितना पेट्रोल गाड़ी में भरवाया गया। आवाज भी लंका चौक पर नेताओं के हार से छुपी पड़ी मदनमोहन मालवीय की प्रतिमा से आगे नहीं गूंजी। लेकिन शहर के भीतर घाट के सवाल। या फिर पप्पू चाय की दुकान पर चर्चा का उबाल। संकेत हर तरफ यही निकला कि गंगा को जिसने बुलाया वह गंगा के तट पर क्यों नहीं गया। जो मोदी के नाम पर बनारस आ गया, वह गंगा के तट
पर बार बार गया। सवाल यह भी उठे कि बनारस के सरोकार से दूर बनारस के इतिहास के आइने में हर कोई चुनावी कहकहरा पढ़ाकर इतिहास बदलने की सोच से क्यों हंगामा कर रहा है। बनारस के सिगर में सिर्फ पांच सौ मीटर के दायरे में कमोवेश हर राजनीतिक दल के हेडक्वार्टर के भीतर बनारसी से ज्यादा बाहरी की तादाद क्यों है। बनारस की सड़कों पर हाथ में झाडू लिये प्रचारकों को संघ के प्रचारक से पॉलिटिसिशन बन चुके मोदी के भक्त पीटने से नहीं कतराते है और पिटने के बाद भी हाथ ना उठाने की कसम खा कर निकले झाडू थामे प्रचारक खामोशी से घायल होकर आगे बढ़ जाते हैं। शहर में कोई स्पंदन नहीं होता, वह देखता है। शायद दिल में कुछ ठानता है। क्योंकि वक्त खामोश रहने का है।
घर घर दरवाजा खटखटाते प्रचारक या तो कमल लिये हैं या फिर झाडू। कोई गुजरात से आया है तो कोई दिल्ली से। बनारसी हर कतार को सिर्फ गली दिखाता है। खुद गली के मुहाने पर खडा होकर सिर्फ निर्देश देता है। उनसे यह कह देना। बाकि कोई परेशानी हो तो बताना। हम यही खड़े हैं। और चाय या पान के जायके में बनारसी प्रचारक इसके आगे सोचता नहीं। जबकि अपने अपने शहर छोड बनारस की गलियों को नापते लोग सिर्फ यही गुहार लगाते हैं। बनारस इतिहास बदलने के मुहाने पर खड़ा है। फैसला लेना होगा । घर से इसबार वोट देने जरुर निकलना होगा। हाथ में स्टीकर या नारों की तर्ज पर पोस्टर बताने लगते है कि दिल्ली से आया केजरावाल बनारस के रंग में रंग रहा है। और बनारस का होकर भी बीजेपी गुजरात के रंग को छोड नहीं पा रहा है। कमल के निशान के साथ सिर्फ एक लकीर, मोदी आनेवाले हैं। या फिर इंतजार खत्म। मोदी आनेवाले है। वहीं झाडू की तस्वीर तले, मारा मुहरिया तान के झाडू के निशान पे। या फिर १२ मई के दिन हौवे, झाडू के निशान हौवे। बदले मिजाज समाजवादियों के भी हैं। पर्ची में अब नेता नहीं आपका सेवक लिखा गया है। लेकिन लड़ाई तो सीधी है। २८४९३ लैपटॉप बांटॉने का नंबर बताकर अखिलेश की तस्वीर वोट मांगती है। या पिर नेताजी की तस्वीर तले ४८२९१३६ बेरोजगारों का जिक्र कर उन्हें भत्ता देने की बात कहकर उपलब्धियों से आगे बात जाती नहीं। लेकिन इन्ही तरीकों ने पहली बार बनारस को एक ऐसे संघर्ष के मुहाने पर ला खडा किया है जहा बनारस का रस युद्द का शंख फूंकता कुरुक्षेत्र बन चुका है। चुनावी लीला है तो मोदी केजरीवाल आमने सामने खड़े हुये हैं। यूपी के क्षत्रप हार मान चुके है । जातीय समीकरम टूट रहे है। तो मुलायम हो या मायावती, दोनो ही केजरीवाल का साथ देने से नही कतरा रहे हैं। तो दोनो के उम्मीदवार अपनो को समझा रहे है इसबार लड़ाई हमारी नहीं हमारे नेताजी और बहनजी के अस्तित्व की है । कभी कभी अपनी ही बिसात
पर वजीर छोड प्यादा बनना पड़ता है। पटेल समाज की अनुप्रिया पटेल भी मिर्जापुर में ब्राह्मणों के वोट अपने पक्ष में करने से हारती दिख रही हैं। तो बीजेपी को साधने से नहीं चुक रही हैं। और चेताने से भी कि ११ बजे के
बाद पटेल झाडू को वोट दे देंगे अगर बीजेपी ने ब्राह्मणों के वोट मिर्जापुर में उन्हें ना दिलाये तो। लेकिन इस तो में बनारस की लीला भी बनारस को कुरुक्षेत्र मान कर यह कहने से नहीं चुक रही है कि युद्ध में एक सज्जन के
खिलाफ कई दुर्जन जुटे हैं। और न्याय के युद्द में ऐसा ही होता है। लेकिन यह आवाज उन ना तो घाट की है ना ही चाय के उबाल की। यह परिवार के भीतर से आवाज गूंज रही हैं। जो समूचे बनारस में छितराये हुये है। लेकिन परिवार की दस्तक जैसे ही मोदी को चुनावी युद्द का नायक करार देती है वैसे ही राम मंदिर और दारा ३७० का सवाल बनारस की उन्हीं गलियो में गूंजने लगता है जिसे मोदी कहने से कतरा रहे हैं। बनारस बीस बरस बाद दुबारा परिवार की सक्रियता भापं रहा है। वादे बीस बरस पहले भी हुये थे और सत्ता दस बरस पहले भी मिली थी। नगरी एतिहासिक संदर्भो को गर्भ में छुपाये हुये है तो जिक्र इतिहास का चुनावी मौके पर हो सकता है, यह परिवार के लिये बारी है ।
क्योंकि बीजेपी के यूथ तो बूथ में बंटेंगे और परिवार की दस्तक से जो परिवार घर से बूथ तक पहुंचेंगे, वह अपनी किस्सागोई में जब अयोध्या आंदोलन के नाम पर ठहाका लगाने से नहीं चूक रहे, वैसे में परिवार पर भी मोदी का नाम ही भारी है। लेकिन मुश्किल यह है कि बीजेपी का संगठन फेल है। और अगर फेल नहीं है तो मुरली मनमोहर जोशी और राजनाथ के गुस्से या रणनीति ने फेल कर दिया है। और वहीं पर परिवार की दस्तक विहिप से लेकर किसान संघ और गुजरात यूनिट से लेकर दिल्ली समेत १८ शहरों के बीजेपी कार्यकर्ता मोहल्ले दर मोहल्ले भटक रहे हैं। सैकडों को इसका एहसास हो चुका है कि आखिर वक्त तक बनारस में रहना जरुरी है तो कार्यकर्त्ताओं और स्वयंसेवकों के घर को ही ठिकाना बना लिया गया है। कोई प्रेस कार्ड के साथ है तो कोई साधु-संत या पंडित की भूमिका में है। चुनावी संघर्ष की अजीबोगरीब मुनादी समूचे शहर में है। गांव खेड़े में है। करीब तीन सौ गांव में या तो संघ परिवार घर घर पहुंचा या फिर झाडू थामे कार्यकर्ता। जो नहीं पहुंचे उनका संकट दिल्ली या लखनउ में सिमट गया। लखनऊ ने तो घुटने टेक समर्थन देने का रास्ता निकाल लिया है। लेकिन दिल्ली में सिमटी कांग्रेस का संकट राहुल गांधी से ही शुरु हुआ और वही पर खत्म हो रहा है। राहुल के रोड शो का असर कैसे बेअसर रहे इसे चुनाव परिणाम ही बता सकते है। तो दिल्ली में कांग्रेस की सियासत को थामने के लिये बैचेन काग्रेसी नायकों की कमी नहीं है। वैसे में राहुल कांग्रेस को ही बदलना चाहते है। तो कांग्रेसियो के खेल बनारस को लेकर निराले है । काग्रेस का राहुल विरोधी गुट लग गया है कि अजय राय पिछडते चले जाये या हर कोई मोदी और केजरीवाल की लडाई में शामिल हो जाये । यानी पिंडारा के विदायक जिनका अपना वोटबैंक ही परिसीमन के खेल में बनारस से मछलीशहर चला गया और दुश्मन नंबर एक ने समर्थन देकर सामाजिक काया भी तोड दी वह दिल्ली के काग्रेसियो के खेल में सिर्फ लोटा बनकर रह गया है ।
जिसके आसरे अस्सी घाट पर पानी भी नहाया भी नहंी जा सकता है । तो बनारस के इस रंग में किसके लिये अच्छी होगी वोट की फसल और बनारस कैसे इतिहास रचेगा यह एहसास महादेव की नगरी में चुनावी तांडव से कम नही है ।
पर बार बार गया। सवाल यह भी उठे कि बनारस के सरोकार से दूर बनारस के इतिहास के आइने में हर कोई चुनावी कहकहरा पढ़ाकर इतिहास बदलने की सोच से क्यों हंगामा कर रहा है। बनारस के सिगर में सिर्फ पांच सौ मीटर के दायरे में कमोवेश हर राजनीतिक दल के हेडक्वार्टर के भीतर बनारसी से ज्यादा बाहरी की तादाद क्यों है। बनारस की सड़कों पर हाथ में झाडू लिये प्रचारकों को संघ के प्रचारक से पॉलिटिसिशन बन चुके मोदी के भक्त पीटने से नहीं कतराते है और पिटने के बाद भी हाथ ना उठाने की कसम खा कर निकले झाडू थामे प्रचारक खामोशी से घायल होकर आगे बढ़ जाते हैं। शहर में कोई स्पंदन नहीं होता, वह देखता है। शायद दिल में कुछ ठानता है। क्योंकि वक्त खामोश रहने का है।
घर घर दरवाजा खटखटाते प्रचारक या तो कमल लिये हैं या फिर झाडू। कोई गुजरात से आया है तो कोई दिल्ली से। बनारसी हर कतार को सिर्फ गली दिखाता है। खुद गली के मुहाने पर खडा होकर सिर्फ निर्देश देता है। उनसे यह कह देना। बाकि कोई परेशानी हो तो बताना। हम यही खड़े हैं। और चाय या पान के जायके में बनारसी प्रचारक इसके आगे सोचता नहीं। जबकि अपने अपने शहर छोड बनारस की गलियों को नापते लोग सिर्फ यही गुहार लगाते हैं। बनारस इतिहास बदलने के मुहाने पर खड़ा है। फैसला लेना होगा । घर से इसबार वोट देने जरुर निकलना होगा। हाथ में स्टीकर या नारों की तर्ज पर पोस्टर बताने लगते है कि दिल्ली से आया केजरावाल बनारस के रंग में रंग रहा है। और बनारस का होकर भी बीजेपी गुजरात के रंग को छोड नहीं पा रहा है। कमल के निशान के साथ सिर्फ एक लकीर, मोदी आनेवाले हैं। या फिर इंतजार खत्म। मोदी आनेवाले है। वहीं झाडू की तस्वीर तले, मारा मुहरिया तान के झाडू के निशान पे। या फिर १२ मई के दिन हौवे, झाडू के निशान हौवे। बदले मिजाज समाजवादियों के भी हैं। पर्ची में अब नेता नहीं आपका सेवक लिखा गया है। लेकिन लड़ाई तो सीधी है। २८४९३ लैपटॉप बांटॉने का नंबर बताकर अखिलेश की तस्वीर वोट मांगती है। या पिर नेताजी की तस्वीर तले ४८२९१३६ बेरोजगारों का जिक्र कर उन्हें भत्ता देने की बात कहकर उपलब्धियों से आगे बात जाती नहीं। लेकिन इन्ही तरीकों ने पहली बार बनारस को एक ऐसे संघर्ष के मुहाने पर ला खडा किया है जहा बनारस का रस युद्द का शंख फूंकता कुरुक्षेत्र बन चुका है। चुनावी लीला है तो मोदी केजरीवाल आमने सामने खड़े हुये हैं। यूपी के क्षत्रप हार मान चुके है । जातीय समीकरम टूट रहे है। तो मुलायम हो या मायावती, दोनो ही केजरीवाल का साथ देने से नही कतरा रहे हैं। तो दोनो के उम्मीदवार अपनो को समझा रहे है इसबार लड़ाई हमारी नहीं हमारे नेताजी और बहनजी के अस्तित्व की है । कभी कभी अपनी ही बिसात
पर वजीर छोड प्यादा बनना पड़ता है। पटेल समाज की अनुप्रिया पटेल भी मिर्जापुर में ब्राह्मणों के वोट अपने पक्ष में करने से हारती दिख रही हैं। तो बीजेपी को साधने से नहीं चुक रही हैं। और चेताने से भी कि ११ बजे के
बाद पटेल झाडू को वोट दे देंगे अगर बीजेपी ने ब्राह्मणों के वोट मिर्जापुर में उन्हें ना दिलाये तो। लेकिन इस तो में बनारस की लीला भी बनारस को कुरुक्षेत्र मान कर यह कहने से नहीं चुक रही है कि युद्ध में एक सज्जन के
खिलाफ कई दुर्जन जुटे हैं। और न्याय के युद्द में ऐसा ही होता है। लेकिन यह आवाज उन ना तो घाट की है ना ही चाय के उबाल की। यह परिवार के भीतर से आवाज गूंज रही हैं। जो समूचे बनारस में छितराये हुये है। लेकिन परिवार की दस्तक जैसे ही मोदी को चुनावी युद्द का नायक करार देती है वैसे ही राम मंदिर और दारा ३७० का सवाल बनारस की उन्हीं गलियो में गूंजने लगता है जिसे मोदी कहने से कतरा रहे हैं। बनारस बीस बरस बाद दुबारा परिवार की सक्रियता भापं रहा है। वादे बीस बरस पहले भी हुये थे और सत्ता दस बरस पहले भी मिली थी। नगरी एतिहासिक संदर्भो को गर्भ में छुपाये हुये है तो जिक्र इतिहास का चुनावी मौके पर हो सकता है, यह परिवार के लिये बारी है ।
क्योंकि बीजेपी के यूथ तो बूथ में बंटेंगे और परिवार की दस्तक से जो परिवार घर से बूथ तक पहुंचेंगे, वह अपनी किस्सागोई में जब अयोध्या आंदोलन के नाम पर ठहाका लगाने से नहीं चूक रहे, वैसे में परिवार पर भी मोदी का नाम ही भारी है। लेकिन मुश्किल यह है कि बीजेपी का संगठन फेल है। और अगर फेल नहीं है तो मुरली मनमोहर जोशी और राजनाथ के गुस्से या रणनीति ने फेल कर दिया है। और वहीं पर परिवार की दस्तक विहिप से लेकर किसान संघ और गुजरात यूनिट से लेकर दिल्ली समेत १८ शहरों के बीजेपी कार्यकर्ता मोहल्ले दर मोहल्ले भटक रहे हैं। सैकडों को इसका एहसास हो चुका है कि आखिर वक्त तक बनारस में रहना जरुरी है तो कार्यकर्त्ताओं और स्वयंसेवकों के घर को ही ठिकाना बना लिया गया है। कोई प्रेस कार्ड के साथ है तो कोई साधु-संत या पंडित की भूमिका में है। चुनावी संघर्ष की अजीबोगरीब मुनादी समूचे शहर में है। गांव खेड़े में है। करीब तीन सौ गांव में या तो संघ परिवार घर घर पहुंचा या फिर झाडू थामे कार्यकर्ता। जो नहीं पहुंचे उनका संकट दिल्ली या लखनउ में सिमट गया। लखनऊ ने तो घुटने टेक समर्थन देने का रास्ता निकाल लिया है। लेकिन दिल्ली में सिमटी कांग्रेस का संकट राहुल गांधी से ही शुरु हुआ और वही पर खत्म हो रहा है। राहुल के रोड शो का असर कैसे बेअसर रहे इसे चुनाव परिणाम ही बता सकते है। तो दिल्ली में कांग्रेस की सियासत को थामने के लिये बैचेन काग्रेसी नायकों की कमी नहीं है। वैसे में राहुल कांग्रेस को ही बदलना चाहते है। तो कांग्रेसियो के खेल बनारस को लेकर निराले है । काग्रेस का राहुल विरोधी गुट लग गया है कि अजय राय पिछडते चले जाये या हर कोई मोदी और केजरीवाल की लडाई में शामिल हो जाये । यानी पिंडारा के विदायक जिनका अपना वोटबैंक ही परिसीमन के खेल में बनारस से मछलीशहर चला गया और दुश्मन नंबर एक ने समर्थन देकर सामाजिक काया भी तोड दी वह दिल्ली के काग्रेसियो के खेल में सिर्फ लोटा बनकर रह गया है ।
जिसके आसरे अस्सी घाट पर पानी भी नहाया भी नहंी जा सकता है । तो बनारस के इस रंग में किसके लिये अच्छी होगी वोट की फसल और बनारस कैसे इतिहास रचेगा यह एहसास महादेव की नगरी में चुनावी तांडव से कम नही है ।
Tuesday, May 6, 2014
मुलायम की बिसात पर क्या राहुल क्या मोदी
नेताजी से ज्यादा यूपी की राजनीति कोई नहीं समझता। और सियासत की जो बिसात खुद को पूर्वाचल में खडा कर नेताजी ने बनायी है, उसे गुजरात से आये अमित शाह क्या समझे और पुराने खिलाड़ी राजनाथ क्या जाने। हां, कल्याण सिंह जरुर नेताजी की बिसात को समझ रहे है इसलिये सबसे पहले उन्होंने ही खतरे की घंटी बजायी है, जिसके बाद अमित शाह से लेकर नरेन्द्र मोदी तक को चुनाव आयोग पर निशाना साधना पड़ा है। इलाहबाद से अमेठी और आंबेडकरनगर से बनारस तक कही भी यूपी की सियासी जमीन सूंघकर सियासत करने के सवाल पर ना सिर्फ समाजवादी पार्टी के छुटभय्या नेता हो या बीजेपी के पढे-लिखे स्वयंसेवक सभी बात बात में मुलायम की राजनीत को ही डी-कोड करने में ही लगे है। समूचे पूर्वाचंल की हवा में नरेन्द्र मोदी घुले हुये जरुर है लेकिन जिन्होंने नेताजी पर दांव लगा रखा है अगर उनकी माने तो मुलायम ने बहुत सोच कर आजमगढ में कदम रखा है, जो अपना दल मुज्जफरनगर दंगों के साये में मुलायम सिंह यादव को आजमगढ में घेरने को तैयार है उसके भीतर भी सवाल एक ही है कि मुस्लिमों के बीच नेताजी ने खुद को खडा कर आखिरी दांव खेला है या फिर यूपी की राजनीति के जरीये दिल्ली की सत्ता को साधने की चौसर बिछायी है। अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ मुलायम ने ताल ठोंककर सपा का कोई उम्मीदवार मैदान में नही उतारा।
लेकिन राहुल जीते या हारे इसका पांसा नेताजी के हाथ में है। बनारस में मोदी के खिलाफ कांग्रेसी अजय राज को समर्थन देने वाले मुख्तार अंसारी के पीछे नेताजी की ही बिसात है, जो मोदी के लिये बनारस में मुश्किल खड़ा कर रही है। तो क्या बनारस की चौसर का पांसा भी नेताजी ने अपने पास रखा है। यह सवाल अब केजरीवाल के बदलते सुर के साथ बनारस की गलियों में भी छाने लगा है। क्योंकि केजरीवाल कल तक कह रहे थे अमेठी और बनारस में राहुल और मोदी हार जाये तो बीजेपी और कांग्रेस पार्टी टूट जायेगी इतिहास बदल जायेगा। वहीं पूर्वाचल में वोटिंग शुरु होने से एन पहले अब केजरीवाल बनारस के सेवापुरी विधानसभा क्षेत्र में रोड शो और नुक्कड सभाओं में कहने लगे है कि दिल्ली में कांग्रेस की सरकार तो जा ही रही है, बीजेपी की सरकार भी नहीं बन रही। लेकिन दिल्ली की सत्ता को संभालेगा यूपी से चुनाव जीतने वाला ही। तो सवाल सीधे है । क्या अमेठी और बनारस के जिस पांसे को मुलायम सिंह हाथ में लिये आजमगढ़ पहुंचे हैं, वह राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी के लिये गले की फांस बनने वाली है। क्योंकि अमेठी की राजनीति अगर लोकसभा में गांधी परिवार पर ही टिकी है तो उसके पीछे मुलायम का कंधा है। राहुल गांधी को 2009 में कुल पडे 646642 वोट में से 464195 वोट मिले थे। यानी करीब 72 फिसदी वोट राहुल गांधी को मिले थे।
लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में अमेठी की पांचो विधानसभा सीट [ तिलोई,सालोन,जगदीशपुर,गौरीगंज, अमेठी] के वोट को देखे तो कांग्रेस को 259459 वोट और सपा को 281192 वोट मिले थे। यानी राहुल को कोई हरा ही नहीं सकता है जबतक नेताजी ना चाहे। वही 2012 में बनारस लोकसभा के तहत आने वाली विधानसभा सीटों को देखे तो सपा को 182931 वोट मिले थे। यानी जो लडाई 2009 में मुरली मनोहर जोशी और मुख्तार अंसारी ने लड़ी, उसमें जोशी को 203122 वोट मिले थे तो अंसारी को 185911 वोट मिले थे। यानी इस बार मोदी के सामने अजय राय खड़े जरुर है लेकिन जीतगा कौन इसकी कुंजी मुलायम के हाथ में है। हालांकि मुलायम ने अपने मंत्री चौरसिया को चुनाव मैदान में उतारा है। लेकिन अब मुलायम का गणित सीधा हो चला है कि अगर मोदी का नाम हवा में गूंज रहा है तो जमीन पर डर से मुस्लिम वोट बैंक हर उस जातिय समीकरण के साथ आ खड़ा हो चुका है जो बीजेपी को हरा दें । मौजूदा वक्त में पूर्वाचल की 33 सीटो में से बीजेपी के पास सिर्फ 4 सीट है। जिसमें आजमगढ़ भी है। जहां मुलायम खुद चुनाव लड रहे है। और मुलायम पूर्वाचल की अपनी हर सभा दो ही सवाल हवा में उछाल रहे है पहला मोदी को बीपी के लोग ही पीएम बनने नहीं देंगे। और दूसरा जब बीजेपी के भीतर खटपट है कि अपने बूते बीजेपी सत्ता में आ नहीं सकती तो फिऱ दिल्ली में बिना मुलायम कौन सत्ता में बैठ सकता है। संकेत बहुत साफ है कि यूपी में राहुल और मोदी तक की हार जीत अगर मुलायम के वोट बैक के हाथ में है तो फिर 16 मई के बाद मुलायम के अलावे और कौन बचेगा जिसका कद दिल्ली की राजनीति में फिट बैठता हो। और मुलायम की इसी राजनीति के संकेत पहली बार खुले तौर पर बनारस में केजरीवाल तक भी पहुंचे है कि अगर बनारस और अमेठी यासी वोट बैंक की तिकड़म में फंसा हुआ है तो फिर दिल्ली में दस्तक देने को तैयार यूपी में चुनाव लड रहे कद्दावरो की हार के बीच अमेठी या बनारस से "आप" की जीत क्यो संभव नहीं है।
असर इसी का है कि कल फैजाबाद में मोदी ने राम बाण छोडा तो आज डुमरियागंज में जाति का सवाल उठाया। यानी जिस बीजेपी या संघ परिवार ने हमेशा मंडल को खारिज किया और कंमडल हाथ में लेकर चलने से कतरायी नहीं उसी मंडल - कंमडल को मोदी ने एक साथ उठाया। दरअसल पूर्वांचल में जातिय समीकरण अगर नहीं टूटा तो बीजेपी की जीत का सपना धरा का धरा रह जा सकता है। क्योंकि मुलायम की राजनीति से घबरायी बीजेपी ने पूर्वाचल को लेकर हर प्रयोग किये है। कैसरगंज में सपा छोडकर आये दबंग ब्रजभूषण को तो गौडा में सपा छोड़कर आये कीर्तिवर्धन को बीजेपी ने टिकट दे दिया। बीएसपी से बर्खास्त ददन मिश्रा को श्रवास्ती से बीजेपी ने टिकट दे दिया और डुमरियागंज में कांग्रेस छोड़कर आये जगदम्बिका पाल के लिये तो मोदी रैली करने भी पहुंच गये । दरअसल, चुनाव के आखरी दौर में बीजेपी इस सच को समझ रही है कि पूर्वाचल में नेताजी चुनाव लड़ भी रहे है और लड़वा भी रहे है। यानी दवा में मोदी जरुर है लेकिन जमीन पर नेताजी की बिसात है। जिसे तोड़ना जरुरी है। वहीं नेताजी की सियासत की माने तो वह मोदी का चक्रव्यू यूपी में तोड़ चुके हैं।
लेकिन राहुल जीते या हारे इसका पांसा नेताजी के हाथ में है। बनारस में मोदी के खिलाफ कांग्रेसी अजय राज को समर्थन देने वाले मुख्तार अंसारी के पीछे नेताजी की ही बिसात है, जो मोदी के लिये बनारस में मुश्किल खड़ा कर रही है। तो क्या बनारस की चौसर का पांसा भी नेताजी ने अपने पास रखा है। यह सवाल अब केजरीवाल के बदलते सुर के साथ बनारस की गलियों में भी छाने लगा है। क्योंकि केजरीवाल कल तक कह रहे थे अमेठी और बनारस में राहुल और मोदी हार जाये तो बीजेपी और कांग्रेस पार्टी टूट जायेगी इतिहास बदल जायेगा। वहीं पूर्वाचल में वोटिंग शुरु होने से एन पहले अब केजरीवाल बनारस के सेवापुरी विधानसभा क्षेत्र में रोड शो और नुक्कड सभाओं में कहने लगे है कि दिल्ली में कांग्रेस की सरकार तो जा ही रही है, बीजेपी की सरकार भी नहीं बन रही। लेकिन दिल्ली की सत्ता को संभालेगा यूपी से चुनाव जीतने वाला ही। तो सवाल सीधे है । क्या अमेठी और बनारस के जिस पांसे को मुलायम सिंह हाथ में लिये आजमगढ़ पहुंचे हैं, वह राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी के लिये गले की फांस बनने वाली है। क्योंकि अमेठी की राजनीति अगर लोकसभा में गांधी परिवार पर ही टिकी है तो उसके पीछे मुलायम का कंधा है। राहुल गांधी को 2009 में कुल पडे 646642 वोट में से 464195 वोट मिले थे। यानी करीब 72 फिसदी वोट राहुल गांधी को मिले थे।
लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में अमेठी की पांचो विधानसभा सीट [ तिलोई,सालोन,जगदीशपुर,गौरीगंज, अमेठी] के वोट को देखे तो कांग्रेस को 259459 वोट और सपा को 281192 वोट मिले थे। यानी राहुल को कोई हरा ही नहीं सकता है जबतक नेताजी ना चाहे। वही 2012 में बनारस लोकसभा के तहत आने वाली विधानसभा सीटों को देखे तो सपा को 182931 वोट मिले थे। यानी जो लडाई 2009 में मुरली मनोहर जोशी और मुख्तार अंसारी ने लड़ी, उसमें जोशी को 203122 वोट मिले थे तो अंसारी को 185911 वोट मिले थे। यानी इस बार मोदी के सामने अजय राय खड़े जरुर है लेकिन जीतगा कौन इसकी कुंजी मुलायम के हाथ में है। हालांकि मुलायम ने अपने मंत्री चौरसिया को चुनाव मैदान में उतारा है। लेकिन अब मुलायम का गणित सीधा हो चला है कि अगर मोदी का नाम हवा में गूंज रहा है तो जमीन पर डर से मुस्लिम वोट बैंक हर उस जातिय समीकरण के साथ आ खड़ा हो चुका है जो बीजेपी को हरा दें । मौजूदा वक्त में पूर्वाचल की 33 सीटो में से बीजेपी के पास सिर्फ 4 सीट है। जिसमें आजमगढ़ भी है। जहां मुलायम खुद चुनाव लड रहे है। और मुलायम पूर्वाचल की अपनी हर सभा दो ही सवाल हवा में उछाल रहे है पहला मोदी को बीपी के लोग ही पीएम बनने नहीं देंगे। और दूसरा जब बीजेपी के भीतर खटपट है कि अपने बूते बीजेपी सत्ता में आ नहीं सकती तो फिऱ दिल्ली में बिना मुलायम कौन सत्ता में बैठ सकता है। संकेत बहुत साफ है कि यूपी में राहुल और मोदी तक की हार जीत अगर मुलायम के वोट बैक के हाथ में है तो फिर 16 मई के बाद मुलायम के अलावे और कौन बचेगा जिसका कद दिल्ली की राजनीति में फिट बैठता हो। और मुलायम की इसी राजनीति के संकेत पहली बार खुले तौर पर बनारस में केजरीवाल तक भी पहुंचे है कि अगर बनारस और अमेठी यासी वोट बैंक की तिकड़म में फंसा हुआ है तो फिर दिल्ली में दस्तक देने को तैयार यूपी में चुनाव लड रहे कद्दावरो की हार के बीच अमेठी या बनारस से "आप" की जीत क्यो संभव नहीं है।
असर इसी का है कि कल फैजाबाद में मोदी ने राम बाण छोडा तो आज डुमरियागंज में जाति का सवाल उठाया। यानी जिस बीजेपी या संघ परिवार ने हमेशा मंडल को खारिज किया और कंमडल हाथ में लेकर चलने से कतरायी नहीं उसी मंडल - कंमडल को मोदी ने एक साथ उठाया। दरअसल पूर्वांचल में जातिय समीकरण अगर नहीं टूटा तो बीजेपी की जीत का सपना धरा का धरा रह जा सकता है। क्योंकि मुलायम की राजनीति से घबरायी बीजेपी ने पूर्वाचल को लेकर हर प्रयोग किये है। कैसरगंज में सपा छोडकर आये दबंग ब्रजभूषण को तो गौडा में सपा छोड़कर आये कीर्तिवर्धन को बीजेपी ने टिकट दे दिया। बीएसपी से बर्खास्त ददन मिश्रा को श्रवास्ती से बीजेपी ने टिकट दे दिया और डुमरियागंज में कांग्रेस छोड़कर आये जगदम्बिका पाल के लिये तो मोदी रैली करने भी पहुंच गये । दरअसल, चुनाव के आखरी दौर में बीजेपी इस सच को समझ रही है कि पूर्वाचल में नेताजी चुनाव लड़ भी रहे है और लड़वा भी रहे है। यानी दवा में मोदी जरुर है लेकिन जमीन पर नेताजी की बिसात है। जिसे तोड़ना जरुरी है। वहीं नेताजी की सियासत की माने तो वह मोदी का चक्रव्यू यूपी में तोड़ चुके हैं।
Friday, May 2, 2014
चुनाव में पेटियों में भर भर कौन लुटा रहा है अरबों रुपया
एक लाख करोड़ रुपये भारत जैसे देश के लिये क्या मायने रखते हैं यह देश के 90 फिसदी हिन्दुस्तान से पूछियेगा तो वह दांतो तले अंगुली दबा लेगा। लेकिन देश के ही उस दस फिसदी तबके से पूछियेगा, जिसके लिये भारत का 80 फिसदी संसाधन उपभोग में लगा हुआ है तो वह दांतो में अटकी कोई चीज निकालने वाले खडिका यानी टूथ पिक से ज्यादा नहीं समझेगा। तो ऐसे भारत में 2014 के लोकसभा चुनाव में करीब एक लाख करोड़ रुपये के वारे न्यारे खुले तौर पर हो रहे हैं। जिसमें चुनाव आयोग यानी भारत सरकार का बजट सिर्फ साढे तीन हजार करोड़ रुपये है। बाकी का रुपया कहां से आ रहा है कौन लुटा रहा है। हवाला है या ब्लैक मनी । या फिर नकली करेंसी का अंतर्राष्ट्रीय नैक्सस। इसमें रुचि किसी की नहीं है। चुनावी लोकतंत्र को कैसे लोकतांत्रिक धंधे में बदला गया है यह देश भर की हर लोकसभा सीट को लेकर लग रहे सट्टा बाजार की बोली से समझा जा सकता है जहां 60 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का खेल खुले तौर पर हो रहा है। और इसमें अभी तक सबसे वीवीआईपी सीट बनारस पर दांव नहीं लगा है। वहीं उम्मीदवारों के प्रचार का आंकडा तीस हजार करोड़ से ज्यादा का हो चला है। इस आंकड़े पर चुनाव आयोग की नजर है। लेकिन इसके बाद कितने हजार करोड़ कौन कैसे खर्च कर रहा है यह अपने आप में बेहिसाब है । क्योंकि अग्रेंजी के सबसे बडे राष्ट्रीय अखबार में किसी मरने वाले के सबसे छोटे विज्ञापन पर खर्च आता है 24 हजार रुपये। जो अंदर में एक निर्धारित पन्ने पर छपता है। लेकिन राजनीतिक दल या कोई नेता वोट मांगने के लिये अगर पहले पन्ने को ही खरीद लेता है तो तमाम रियायत के बाद भी 70 लाख रुपये से ज्यादा हो जाता है। जो चुनाव आयोग के जरीये निर्धारित एक उम्मीदवार के प्रचार की बढ़ी हुई रकम है। बावजूद इसके हर कोई खामोश है। क्योंकि बीते एक महीने में अखबारी और टीवी विज्ञापन का कुल खर्चा सौ करोड़ पार कर चुका है। तो यह पैसा कौन दे रहा है। कहां से आ रहा है । किसकी नजर इस पर है। यह सभी अभी भी सवाल है।
दरअसल दुनिया के सबसे बडा लोकतंत्र कितना महंगा हो गया है यह आजादी के बाद के चुनावों के हाल पर देखें या फिर सिर्फ इस बार के चुनाव को परखें तो भी तस्वीर पारदर्शी दिखायी देगी। आजादी के बाद पहले चुनाव में कुल खर्चा 11 करोड़ 25 लाख रुपये का हुआ था। और 2014 या नी इस बार जो चुनाव हो रहे हैं, उसका आंकडा 34 हजार करोड़ को पार कर रहा है। 1952 में चुनाव आयोग के खर्च में ही चुनाव संपन्न हो गया था। लेकिन अब चुनाव आयोग के खर्चे से दस गुना ज्यादा खर्चा उम्मीदवार कर देते हैं। तो रुपयो में कैसे चुनावी लोकतंत्र का यह मिजाज बदला है, यह समझना भी दिलचस्प है । 1952 में चुनाव आयोग को प्रति वोटर 60 पैसे खर्च करने पड़ते थे। वहीं 2014 में यह 60 पैसे 437 रुपये में बदल चुके हैं। यानी 1952 में चुनाव आयोग का खुल खर्च साढे दस करोड़ हुआ था। उस वक्त 17 करोड़ वोटर थे। लेकिन आज की तारीख में देश में 81 करोड़ वोटर है और चुनाव आयोग का खर्च साढे तीन हजार करोड़ पार कर चुका है।
लेकिन सवाल चुनाव आयोग के खर्चे का नहीं है। असल सवाल है जो चुनाव लड़ते है वह जीतने के लिये दोनो हाथो से जिस तरह चुनाव खर्च के नाम पर लुटाते है या उन्हें लुटाना पड़ता है, उसका असर यह हो चला है कि 1952 के चुनाव में सभी उम्मीदवारों ने अपने चुनाव प्रचार पर सिर्फ 75 लाख रुपये खर्च किये थे। जबकि इस बार यानी 2014 के चुनाव में उम्मीदवारों का खर्च 30 हजार करोड़ से ज्यादा का हो चला है। सेंटर फार मीडिया स्टडीज और नेशनल इलेक्शन वाच की मानें तो चुनाव जीतने के लिये हर उम्मीदवार जिस तरह रुपये को लुटा रहा है, उसने इसके संकेत तो दे ही दिये है कि चुनाव सबसे कम वक्त में सबसे बडे बिजनेस में तब्दील होता जा रहा है। क्योंकि इस बार चुनाव में सवाल चुनाव आयोग के साढे तीन हजार करोड़ रपये के खर्चे का नहीं है। बल्कि उम्मीदवार चुनाव जीतने के लिये हर माध्यम का खुला उपयोग कर रहे है उसका ही असर है कि 30 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का खर्चा चुनाव प्रचार के नाम पर हो रहा है। कितनी बडी तादाद में चुनाव रुपये का खेल हो चला है इसका अंदाजा इससे भी लग सकता है कि 1952 में जितना खर्च सभी उम्मीदवारों के प्रचार पर आया था जो करीब 75 लाख रुपये था। करीब उतनी ही रकम 2014 में हर उम्मीदवार अपने प्रचार पर खर्च कर सकता है इसकी इजाजत चुनाव आयोग दे चुका है। हर उम्मीदवार की प्रचार सीमा 70 लाख रुपये है। लेकिन किसी भी उम्मीदवार से मिलिये तो वह यह कहने से नही कतरायेगा कि 70 लाख में चुनाव कैसे लड़ा जा सकता है।
यानी रुपया और ज्यादा बहाया जा रहा होगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
एसोशियन फार डेमोक्टेरिक रिपोर्ट की माने को मौजूदा चुनाव में औसतन 5 करोड़ तक का खर्च हर सीट पर पहले तीन उम्मीदवार अपने प्रचार में कर ही रहे हैं। बाकियों का औसत भी 2 करोड़ से ज्यादा का है। यानी 2014 के चुनाव का जो खर्च 34 हजार करोड़ नजर आ रहा है वह और कितना ज्यादा होगा इसके सिर्फ कयास ही लगाये जा सकते है। लेकिन यह रास्ता जा किधर जा रहा है। क्योंकि एक वक्त अपराधी राजनीति में घुसे क्योकि राजनेता बाहुबलियो और अपराधियों के आसरे चुनाव जीतने लगे थे। और अब कारपोरेट या औघोगिक घराने राजनीति में सीधे घुसेगें क्योकि राजनेता अब कारपोरेट की पूंजी पर निर्भर हो चले हैं। यह सवाल इसलिये बड़ा हो चला है क्योकि जिस तर्ज पर मौजूदा चुनाव में रुपये खर्च किये जा रहे है उसके पीछे के स्रोत क्या हो सकते है और स्रोत अब सीधे राजनीतिक मैदान में क्यो नहीं कूदे यह सवाल बड़ा हो चला है। या किजिये तो बीस बरस पहले वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में राजनेताओ के साथ बाहुबलियो और अपराधियों के गठबंधन के खेल को खुले तौर पर माना गया था । और रिपोर्ट में इसके संकेत भी दिये गये थे कि अगर कानून के जरीये इसपर रोक नही लगायी गयी तो फिर आने वाले वक्त में संसद के विशेषाधिकार का लाभ उठाने के लिये अपराधी राजनीति में आने से चुकेगें नहीं । और इन बीस बरस में हुआ भी यही। 15वीं लोकसभा में 162 सांसदों ने अपने खिलाफ दर्ज आरपाधिक मामलो की पुष्टि की। असर और ज्यादा हुआ तो विधायक से लेकर सांसदों ने भी आपराधिक छवि को तवज्जो दी और मौजूदा राज्यसभा में कुल 232 सांसदो में से 40 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज है । असल में जितनी बडी तादाद में बकायदा अपनी एफीडेविट में विधानसभा से लेकर संसद तक में आपराधिक मामले दर्ज करने वाले राजनेता है उसमें अब यह सवाल छोटा हो चला है कि साफ छवि के आसरे कौन चुनाव लड रहा है। लेकिन अब बडा सवाल रुपयों का हो चला है तो रुपये लुटाने वालो की ताकत भी बढती जा रही है। और ध्यान दें तो इस बार चुनाव में 400 हेलीकाफ्टर लगातार नेताओं के लिये उडान भर रहे हैं। डेढ दर्जन से ज्यादा निजी प्लेन नेताओं के प्रचार में लगे है। नेताओ के प्रचार की दूरी नापने के लिये करीब 450 करोड़ रुपये हवा में ही फूंक दिये हैं।
इसी तर्ज पर चुनाव प्रचार के अलग अलग आयामो पर जितना खर्च हो रहा है। चाहे वह अखबार से लेकर टीवी पर विज्ञापन हो या सोशल मीडिया से लेकर तकनीकी प्रचार के आधुनिकतम तरीके। इतने खर्चे कौन कहा से कर सकता है। अगर राजनेताओं की जीत के आसरे यह अकूत धन लुटाया जा रहा है तो फिर अगला सवाल इस धन को वसूलने का भी होगा। यानी जिस क्रोनी कैप्टलिज्म को रोकने की बात मनमोहन सिंह करते रहे और बीजेपी अंगुली उठाती रही और इसी के साये में 2जी से लेकर कोयला घोटाला तक हो गया। जिसपर तमाम विपक्षी पार्टियो ने संसद ठप किया। सड़क पर मामले को उठाया। मौजूदा वक्त में सबसे बडा सवाल यही है कि क्रोनी कैपटलिज्म यानी कारपोरेट या औघोगिक घरानों के साथ सरकार या मंत्रियों के बिजनेस सहयोग पर रोक लगायेगा कौन। अगर उस पर नकेल कसेगी तो फिर कारपोरेट सत्ता में आने के लिये बैचेन राजनेताओ पर रुपया लुटायेगा क्यों। और अगर देश के विकास का मॉडल ही कारपोरेट या औघोगिक घरानो की जेब से होकर गुजरेगा तो फिर राजनेता कितने दिन तक पूंजी के आसरे पर टिकेंगे। क्योंकि एक वक्त अपराधी राजनीति में आये और संसद में सरकार चलाने सेलकर नियम-कायदे बनाने लगे तो फिर अब कारपोरेट या औघोगिक घराने अपने धंधे के लिये राजनीति में क्यो नहीं आयेंगे। और जिस लीक पर देश का लोकतंत्र रुपये की पेटियों के आसरे चल निकला है उसमें राजनेताओ को कमीशन दे कर काम कराने के तौर तरीके कितने दिन टिकेंगे। राजनीति में सीधे शिरकत करने से कमीशन भी नहीं देना पड़ेगा और धंधे पर टिका विकास का मॉडल भी किसी भी नेता की तुलना में ज्यादा रफ्तार से चलेगा। और यह इसलिये अब संभव लगने लगा है क्योंकि चुनाव कैसे साफ-सुधरे हो। और सरकार के पास बिना रुपयो के खेल के कौन सा विजन है। यह इस बार चुनाव में ना सिर्फ गायब है बल्कि विकास का समूचा विजन ही रुपयो के मुनाफे पर सरपट दौड़ रहा है।
दरअसल दुनिया के सबसे बडा लोकतंत्र कितना महंगा हो गया है यह आजादी के बाद के चुनावों के हाल पर देखें या फिर सिर्फ इस बार के चुनाव को परखें तो भी तस्वीर पारदर्शी दिखायी देगी। आजादी के बाद पहले चुनाव में कुल खर्चा 11 करोड़ 25 लाख रुपये का हुआ था। और 2014 या नी इस बार जो चुनाव हो रहे हैं, उसका आंकडा 34 हजार करोड़ को पार कर रहा है। 1952 में चुनाव आयोग के खर्च में ही चुनाव संपन्न हो गया था। लेकिन अब चुनाव आयोग के खर्चे से दस गुना ज्यादा खर्चा उम्मीदवार कर देते हैं। तो रुपयो में कैसे चुनावी लोकतंत्र का यह मिजाज बदला है, यह समझना भी दिलचस्प है । 1952 में चुनाव आयोग को प्रति वोटर 60 पैसे खर्च करने पड़ते थे। वहीं 2014 में यह 60 पैसे 437 रुपये में बदल चुके हैं। यानी 1952 में चुनाव आयोग का खुल खर्च साढे दस करोड़ हुआ था। उस वक्त 17 करोड़ वोटर थे। लेकिन आज की तारीख में देश में 81 करोड़ वोटर है और चुनाव आयोग का खर्च साढे तीन हजार करोड़ पार कर चुका है।
लेकिन सवाल चुनाव आयोग के खर्चे का नहीं है। असल सवाल है जो चुनाव लड़ते है वह जीतने के लिये दोनो हाथो से जिस तरह चुनाव खर्च के नाम पर लुटाते है या उन्हें लुटाना पड़ता है, उसका असर यह हो चला है कि 1952 के चुनाव में सभी उम्मीदवारों ने अपने चुनाव प्रचार पर सिर्फ 75 लाख रुपये खर्च किये थे। जबकि इस बार यानी 2014 के चुनाव में उम्मीदवारों का खर्च 30 हजार करोड़ से ज्यादा का हो चला है। सेंटर फार मीडिया स्टडीज और नेशनल इलेक्शन वाच की मानें तो चुनाव जीतने के लिये हर उम्मीदवार जिस तरह रुपये को लुटा रहा है, उसने इसके संकेत तो दे ही दिये है कि चुनाव सबसे कम वक्त में सबसे बडे बिजनेस में तब्दील होता जा रहा है। क्योंकि इस बार चुनाव में सवाल चुनाव आयोग के साढे तीन हजार करोड़ रपये के खर्चे का नहीं है। बल्कि उम्मीदवार चुनाव जीतने के लिये हर माध्यम का खुला उपयोग कर रहे है उसका ही असर है कि 30 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का खर्चा चुनाव प्रचार के नाम पर हो रहा है। कितनी बडी तादाद में चुनाव रुपये का खेल हो चला है इसका अंदाजा इससे भी लग सकता है कि 1952 में जितना खर्च सभी उम्मीदवारों के प्रचार पर आया था जो करीब 75 लाख रुपये था। करीब उतनी ही रकम 2014 में हर उम्मीदवार अपने प्रचार पर खर्च कर सकता है इसकी इजाजत चुनाव आयोग दे चुका है। हर उम्मीदवार की प्रचार सीमा 70 लाख रुपये है। लेकिन किसी भी उम्मीदवार से मिलिये तो वह यह कहने से नही कतरायेगा कि 70 लाख में चुनाव कैसे लड़ा जा सकता है।
यानी रुपया और ज्यादा बहाया जा रहा होगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
एसोशियन फार डेमोक्टेरिक रिपोर्ट की माने को मौजूदा चुनाव में औसतन 5 करोड़ तक का खर्च हर सीट पर पहले तीन उम्मीदवार अपने प्रचार में कर ही रहे हैं। बाकियों का औसत भी 2 करोड़ से ज्यादा का है। यानी 2014 के चुनाव का जो खर्च 34 हजार करोड़ नजर आ रहा है वह और कितना ज्यादा होगा इसके सिर्फ कयास ही लगाये जा सकते है। लेकिन यह रास्ता जा किधर जा रहा है। क्योंकि एक वक्त अपराधी राजनीति में घुसे क्योकि राजनेता बाहुबलियो और अपराधियों के आसरे चुनाव जीतने लगे थे। और अब कारपोरेट या औघोगिक घराने राजनीति में सीधे घुसेगें क्योकि राजनेता अब कारपोरेट की पूंजी पर निर्भर हो चले हैं। यह सवाल इसलिये बड़ा हो चला है क्योकि जिस तर्ज पर मौजूदा चुनाव में रुपये खर्च किये जा रहे है उसके पीछे के स्रोत क्या हो सकते है और स्रोत अब सीधे राजनीतिक मैदान में क्यो नहीं कूदे यह सवाल बड़ा हो चला है। या किजिये तो बीस बरस पहले वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में राजनेताओ के साथ बाहुबलियो और अपराधियों के गठबंधन के खेल को खुले तौर पर माना गया था । और रिपोर्ट में इसके संकेत भी दिये गये थे कि अगर कानून के जरीये इसपर रोक नही लगायी गयी तो फिर आने वाले वक्त में संसद के विशेषाधिकार का लाभ उठाने के लिये अपराधी राजनीति में आने से चुकेगें नहीं । और इन बीस बरस में हुआ भी यही। 15वीं लोकसभा में 162 सांसदों ने अपने खिलाफ दर्ज आरपाधिक मामलो की पुष्टि की। असर और ज्यादा हुआ तो विधायक से लेकर सांसदों ने भी आपराधिक छवि को तवज्जो दी और मौजूदा राज्यसभा में कुल 232 सांसदो में से 40 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज है । असल में जितनी बडी तादाद में बकायदा अपनी एफीडेविट में विधानसभा से लेकर संसद तक में आपराधिक मामले दर्ज करने वाले राजनेता है उसमें अब यह सवाल छोटा हो चला है कि साफ छवि के आसरे कौन चुनाव लड रहा है। लेकिन अब बडा सवाल रुपयों का हो चला है तो रुपये लुटाने वालो की ताकत भी बढती जा रही है। और ध्यान दें तो इस बार चुनाव में 400 हेलीकाफ्टर लगातार नेताओं के लिये उडान भर रहे हैं। डेढ दर्जन से ज्यादा निजी प्लेन नेताओं के प्रचार में लगे है। नेताओ के प्रचार की दूरी नापने के लिये करीब 450 करोड़ रुपये हवा में ही फूंक दिये हैं।
इसी तर्ज पर चुनाव प्रचार के अलग अलग आयामो पर जितना खर्च हो रहा है। चाहे वह अखबार से लेकर टीवी पर विज्ञापन हो या सोशल मीडिया से लेकर तकनीकी प्रचार के आधुनिकतम तरीके। इतने खर्चे कौन कहा से कर सकता है। अगर राजनेताओं की जीत के आसरे यह अकूत धन लुटाया जा रहा है तो फिर अगला सवाल इस धन को वसूलने का भी होगा। यानी जिस क्रोनी कैप्टलिज्म को रोकने की बात मनमोहन सिंह करते रहे और बीजेपी अंगुली उठाती रही और इसी के साये में 2जी से लेकर कोयला घोटाला तक हो गया। जिसपर तमाम विपक्षी पार्टियो ने संसद ठप किया। सड़क पर मामले को उठाया। मौजूदा वक्त में सबसे बडा सवाल यही है कि क्रोनी कैपटलिज्म यानी कारपोरेट या औघोगिक घरानों के साथ सरकार या मंत्रियों के बिजनेस सहयोग पर रोक लगायेगा कौन। अगर उस पर नकेल कसेगी तो फिर कारपोरेट सत्ता में आने के लिये बैचेन राजनेताओ पर रुपया लुटायेगा क्यों। और अगर देश के विकास का मॉडल ही कारपोरेट या औघोगिक घरानो की जेब से होकर गुजरेगा तो फिर राजनेता कितने दिन तक पूंजी के आसरे पर टिकेंगे। क्योंकि एक वक्त अपराधी राजनीति में आये और संसद में सरकार चलाने सेलकर नियम-कायदे बनाने लगे तो फिर अब कारपोरेट या औघोगिक घराने अपने धंधे के लिये राजनीति में क्यो नहीं आयेंगे। और जिस लीक पर देश का लोकतंत्र रुपये की पेटियों के आसरे चल निकला है उसमें राजनेताओ को कमीशन दे कर काम कराने के तौर तरीके कितने दिन टिकेंगे। राजनीति में सीधे शिरकत करने से कमीशन भी नहीं देना पड़ेगा और धंधे पर टिका विकास का मॉडल भी किसी भी नेता की तुलना में ज्यादा रफ्तार से चलेगा। और यह इसलिये अब संभव लगने लगा है क्योंकि चुनाव कैसे साफ-सुधरे हो। और सरकार के पास बिना रुपयो के खेल के कौन सा विजन है। यह इस बार चुनाव में ना सिर्फ गायब है बल्कि विकास का समूचा विजन ही रुपयो के मुनाफे पर सरपट दौड़ रहा है।
Thursday, May 1, 2014
किसका तिलिस्म पहले टूटेगा : नरेन्द्र मोदी या प्रियंका गांधी ?
नरेन्द्र मोदी और प्रियंका गांधी। मौजूदा राजनीति के यही दो चेहरे हैं जो अपने अपने 'औरा' को लेकर टकरा रहे हैं। और दोनों का ही तिलिस्म बरकरार है। दोनों की राजनीतिक मुठ्टी अभी तक बंद है। लेकिन दोनों ही लीक तोड़कर राजनीतिक पहचान बनाने में माहिर हैं। लेकिन दोनों के तिलिस्म के पीछे दोनों के हालात अलग अलग हैं। प्रियंका इसलिये चमक रही हैं क्योंकि चमकदार राहुल गांधी फीके पड़ चुके हैं। मोदी इसलिये धूमकेतू की तरह नजर आ रहे हैं क्योकि बीजेपी अमावस में खो चुकी है। प्रियंका का औरा इसलिये बरकरार है क्योंकि इंदिरा का अक्स उसी में नजर आता है। मोदी का औरा इसलिये नहीं टूटा है क्योकि मोदी पॉलिटिशियन कम और प्रचारक ज्यादा है। लेकिन दोनों के लिये सबसे सकारात्मक हालात यही है कि दोनों ही उस राजनीतिक सत्ता के हिस्सेदार नहीं हैं जिस पर से आम जनता का भरोसा उठा है। जिस राजनीति को लेकर जनता में आक्रोश है।
इसलिये मोदी के भाषण में आक्रोश झलकता है तो लोग अपने हक में मोदी को खड़ा देखते है। वहीं प्रियंका गांधी के भाषण में सादगी है तो सुनने वालों को लगता है कि सियासत सरलता के साथ सरोकार जोड़कर भी हो सकती है। जो मुश्किल के वक्त दुर्गा भी बन जाये । जैसे इंदिरा बनी थी। तो प्रियंका की अपनी राजनीतिक उपलब्धि से कहीं ज्यादा इंदिरा के राजनीतिक कद की परछाई होने का लाभ मिल रहा है और मोदी राजनीति में होकर भी राजनेता से ज्यादा प्रचारक है तो भ्रष्ट होती राजनीति में मोदी पाक साफ नजर आ रहे हैं। जिसका लाभ मोदी को मिल रहा है। और दोनों मौजूदा राजनीति में अगर चमक रहे हैं या एक दूसरे को राजनीतिक चुनौती देने की स्थिति में आ खड़े हुये हैं तो उसकी एक बड़ी वजह दोनों दोनो के वह हालात है जिसके दायरे में दोनों ही अभी तक पारंपरिक राजनीति के खिलाफ खड़े होते आये हैं। लेकिन पहली बार दोनों आमने सामने हैं तो दोनों के तौर तरीके ही एक दूसरे को चुनौती दे रहे हैं। निशाने पर कद्दावरों ने लिया और मोदी का कद बढता चला गया। मोदी के बढते कद की हकीकत गुजरात से आगे की है। गुजरात को कालिख मानने वालों ने मोदी का विरोध कर खुद को ही काजल की कोठरी में ला खड़ा किया। क्योंकि नीतिश कुमार ने मोदी का खुला विरोध किया तो बिहार में बीजेपी का गठबंधन टूटा। नीतिश खलनायक हो गये। मोदी नायक करार दिये गये । बालासाहेब ठाकरे ने पीएम पद के लिये मोदी को खारिज कर सुषमा स्वराज का नाम लिया। लेकिन बीजेपी ने ठाकरे को खारिज कर मोदी को ही चुना तो शिवसेना को बालासाहेब की बात छोडकर मोदी के पीछे खड़ा होना पड़ा। मोदी शिवसेना के भी नायक हो गये। क्षत्रपों की फौज में उड़ीसा के नवीन पटनायक हो या यूपी के मुलायम और मायावती। सभी ने मोदी को खारिज किया और किसी ने मोदी को सांप्रदायिक करार दिया तो किसी ने दंगों का खलनायक। लेकिन मोदी के पीछे संघ परिवार ही आ खड़ा हुआ तो फिर बीजेपी के वह धुरंधर भी झुक गये जो क्षत्रपों के आसरे खुद को सेक्यूलर बनाने में लगे थे। मोदी यहां भी नायक होकर निकले। और तमिलनाडु की सीएम जयललिता ने जब गुजरात से ज्यादा तमिलनाडु में विकास का राग छेड़ा तो झटके में मोदी का विकास मंत्र दक्षिण में भी जुबान पर आ गया । और दक्षिण में मोदी की रैली किसी तमिल सितारे की तर्ज पर सफल होने लगी । यानी हर के निशाने पर मोदी रहे और मोदी का कद इस तरह बढता चला गया कि दिल्ली में बैठे बीजेपी के कद्दावरो को जमीन चटा कर जब मोदी ने पीएम पद की हुंकार भरी तो फिर दिल्ली में बरसो बरस की राजनीति करने वाले नेता भी झटके में मोदी के सामने बौने नजर आने लगे । और मोदी कद थ्री डी की तरज पर हर प्रदेश में नजर आने लगा और सामने चुनौती देने के लिये फेल हो चुके गांधी परिवार में से राजनीति से दूर प्रियंका को सामने आना पड़ा।
इंदिरा का अक्स प्रियका में झलकता है तो प्रियका की राजनीतिक परछाई कई गुना बड़ी दिखती है। खासकर तब जब राजनीतिक तौर पर सोनिया गांधी का राजनीतिक प्रयोग मनमोहन सिंह हर किसी को फेल दिखने लगा हो । और राहुल गांधी का राजनीतिक मिजाज लडकपन की कहानी को ही ज्यादा कहता हो । ध्यान दें तो कुछ ऐसी ही चमक प्रियंका गांधी में है। नेहरु, इंदिरा और राजीव गांधी ने मौका मिलते ही सत्ता संभाली। लेकिन सोनिया और राहुल ने मौका होने पर भी सत्ता नहीं संभाली। इंदिरा गांधी ने तो सत्ता के लिये कांग्रेस को ही दो टुकडों में बांट दिया और राजीव गांधी ने पीएम की कुर्सी संभालने के लिये तो संसदीय बोर्ड की बैठक का भी इंतजार नहीं किया। लेकिन सोनिया गांधी ने पीएम की कुर्सी छोड़कर अपना कद तो बढाया लेकिन मनमोहन सिंह जैसे गैर राजनीतिक व्यक्ति को झटके में पीएम बनाकर खुद को कटघरे में खड़ा कर लिया । इसी लकीर को राहुल गांधी ने सुपर पीएम बनकर और बडा कर दिया । यानी काग्रेस के लिये जो परिवार सबकुछ है उसी परिवार की राजनीतिक जद्दोजदह ने काग्रेस को ही राशिये पर ला खडा किया । सोनिया राहुल का औरा यही से खत्म होता है और राजनीतिक दायरे से बाहर खडी प्रियका गांधी का औरा राजनीतिक मंच पर चमकने लगता है। असल में सोनिया राहुल के घूमिल पडने का ही असर हुआ कि कांग्रेस के विकल्प के तौर पर बीजेपी भी चमकी और बतौर पीएम उम्मीवार होकर मोदी में भी चमक आ गयी। लेकिन कांग्रेस के भीतर प्रियंका के जरीये मोदी की चमक पर वार करने का इरादा बरकरार है। इसीलिये कांग्रेस प्रियंका के जरीये पुनहर्विजिवत हो सकती है कांग्रेसियों का यह भरोसा और बीजेपी को काग्रेस का विकल्प ना मानने वालों के लिये प्रियंका गांधी मौजूदा वक्त में सबसे चमकता सितारा है ।
लेकिन सच यह भी है कि एक ने साड़ी बदली दूसरे ने सदरी। रायबरेली से लेकर अमेठी तक प्रियंका ने सूती साड़ियां इस तर्ज पर पहनी और लगातार बदली की इंदिरा का अक्स उसमें दिखायी देने लगा। और तीन महीने में लगातार सौ से ज्यादा चुनाव रैलियों में नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह रंग-बिंरगी सगरी पहनी और बदली उसने मोदी के कपड़े प्रेम को जगजाहिर कर दिया।
लुटियन्स की दिल्ली में प्रियका का फैशनबल टच जगजाहिर है। जिस तरीके से प्रियका दिल्ली में नजर आती है उसमें इंदिरा गांधी का कोई टच देखना मुश्किल है। लेकिन राजनीतिक जमीन पर प्रियंका इतना बदल जाती है जैसे किसी माहिर राजनेता की तर्ज पर आम जमता से उनके सरोकार पुराने हो । इसीलिये अपनी सादगी से ही प्रियका मोदी पर सियासी वार करती है तो उसकी गूंज भी सुनायी देती है । लेकिन मोदी को इससे फर्क नहीं पडता । आधी बांह के कुरते को पहनने का फैशन मोदी ने गुजरात सीएम की कुर्सी पर बैठकर बनाया । तो अब लगातार सदरी बदल बदल कर एक नयी पहचान अपने राजनीतिक पहचान को दी । लेकिन मुश्किल यही है कि प्रियका साडी बदले या मोदी सदरी । दोनो ने बार बार देश का ही जिक्र किया । यह अलग बात है कि देश के मौजूदा हालात ठीक नहीं है इसे तो दोनो ही बताते रहे है लेकिन हालात ठीक करने की दिशा में कोई ठोस पहल आजतक किसी ने नहीं की है । मोदी अभी तक 6 करोड गुजरात से बाहर निकले नहीं है और प्रियंका को रायबरेली और अमेठी के बाहर की राजनीतिक हवा लगी नहीं है ।
इसलिये मोदी के भाषण में आक्रोश झलकता है तो लोग अपने हक में मोदी को खड़ा देखते है। वहीं प्रियंका गांधी के भाषण में सादगी है तो सुनने वालों को लगता है कि सियासत सरलता के साथ सरोकार जोड़कर भी हो सकती है। जो मुश्किल के वक्त दुर्गा भी बन जाये । जैसे इंदिरा बनी थी। तो प्रियंका की अपनी राजनीतिक उपलब्धि से कहीं ज्यादा इंदिरा के राजनीतिक कद की परछाई होने का लाभ मिल रहा है और मोदी राजनीति में होकर भी राजनेता से ज्यादा प्रचारक है तो भ्रष्ट होती राजनीति में मोदी पाक साफ नजर आ रहे हैं। जिसका लाभ मोदी को मिल रहा है। और दोनों मौजूदा राजनीति में अगर चमक रहे हैं या एक दूसरे को राजनीतिक चुनौती देने की स्थिति में आ खड़े हुये हैं तो उसकी एक बड़ी वजह दोनों दोनो के वह हालात है जिसके दायरे में दोनों ही अभी तक पारंपरिक राजनीति के खिलाफ खड़े होते आये हैं। लेकिन पहली बार दोनों आमने सामने हैं तो दोनों के तौर तरीके ही एक दूसरे को चुनौती दे रहे हैं। निशाने पर कद्दावरों ने लिया और मोदी का कद बढता चला गया। मोदी के बढते कद की हकीकत गुजरात से आगे की है। गुजरात को कालिख मानने वालों ने मोदी का विरोध कर खुद को ही काजल की कोठरी में ला खड़ा किया। क्योंकि नीतिश कुमार ने मोदी का खुला विरोध किया तो बिहार में बीजेपी का गठबंधन टूटा। नीतिश खलनायक हो गये। मोदी नायक करार दिये गये । बालासाहेब ठाकरे ने पीएम पद के लिये मोदी को खारिज कर सुषमा स्वराज का नाम लिया। लेकिन बीजेपी ने ठाकरे को खारिज कर मोदी को ही चुना तो शिवसेना को बालासाहेब की बात छोडकर मोदी के पीछे खड़ा होना पड़ा। मोदी शिवसेना के भी नायक हो गये। क्षत्रपों की फौज में उड़ीसा के नवीन पटनायक हो या यूपी के मुलायम और मायावती। सभी ने मोदी को खारिज किया और किसी ने मोदी को सांप्रदायिक करार दिया तो किसी ने दंगों का खलनायक। लेकिन मोदी के पीछे संघ परिवार ही आ खड़ा हुआ तो फिर बीजेपी के वह धुरंधर भी झुक गये जो क्षत्रपों के आसरे खुद को सेक्यूलर बनाने में लगे थे। मोदी यहां भी नायक होकर निकले। और तमिलनाडु की सीएम जयललिता ने जब गुजरात से ज्यादा तमिलनाडु में विकास का राग छेड़ा तो झटके में मोदी का विकास मंत्र दक्षिण में भी जुबान पर आ गया । और दक्षिण में मोदी की रैली किसी तमिल सितारे की तर्ज पर सफल होने लगी । यानी हर के निशाने पर मोदी रहे और मोदी का कद इस तरह बढता चला गया कि दिल्ली में बैठे बीजेपी के कद्दावरो को जमीन चटा कर जब मोदी ने पीएम पद की हुंकार भरी तो फिर दिल्ली में बरसो बरस की राजनीति करने वाले नेता भी झटके में मोदी के सामने बौने नजर आने लगे । और मोदी कद थ्री डी की तरज पर हर प्रदेश में नजर आने लगा और सामने चुनौती देने के लिये फेल हो चुके गांधी परिवार में से राजनीति से दूर प्रियंका को सामने आना पड़ा।
इंदिरा का अक्स प्रियका में झलकता है तो प्रियका की राजनीतिक परछाई कई गुना बड़ी दिखती है। खासकर तब जब राजनीतिक तौर पर सोनिया गांधी का राजनीतिक प्रयोग मनमोहन सिंह हर किसी को फेल दिखने लगा हो । और राहुल गांधी का राजनीतिक मिजाज लडकपन की कहानी को ही ज्यादा कहता हो । ध्यान दें तो कुछ ऐसी ही चमक प्रियंका गांधी में है। नेहरु, इंदिरा और राजीव गांधी ने मौका मिलते ही सत्ता संभाली। लेकिन सोनिया और राहुल ने मौका होने पर भी सत्ता नहीं संभाली। इंदिरा गांधी ने तो सत्ता के लिये कांग्रेस को ही दो टुकडों में बांट दिया और राजीव गांधी ने पीएम की कुर्सी संभालने के लिये तो संसदीय बोर्ड की बैठक का भी इंतजार नहीं किया। लेकिन सोनिया गांधी ने पीएम की कुर्सी छोड़कर अपना कद तो बढाया लेकिन मनमोहन सिंह जैसे गैर राजनीतिक व्यक्ति को झटके में पीएम बनाकर खुद को कटघरे में खड़ा कर लिया । इसी लकीर को राहुल गांधी ने सुपर पीएम बनकर और बडा कर दिया । यानी काग्रेस के लिये जो परिवार सबकुछ है उसी परिवार की राजनीतिक जद्दोजदह ने काग्रेस को ही राशिये पर ला खडा किया । सोनिया राहुल का औरा यही से खत्म होता है और राजनीतिक दायरे से बाहर खडी प्रियका गांधी का औरा राजनीतिक मंच पर चमकने लगता है। असल में सोनिया राहुल के घूमिल पडने का ही असर हुआ कि कांग्रेस के विकल्प के तौर पर बीजेपी भी चमकी और बतौर पीएम उम्मीवार होकर मोदी में भी चमक आ गयी। लेकिन कांग्रेस के भीतर प्रियंका के जरीये मोदी की चमक पर वार करने का इरादा बरकरार है। इसीलिये कांग्रेस प्रियंका के जरीये पुनहर्विजिवत हो सकती है कांग्रेसियों का यह भरोसा और बीजेपी को काग्रेस का विकल्प ना मानने वालों के लिये प्रियंका गांधी मौजूदा वक्त में सबसे चमकता सितारा है ।
लेकिन सच यह भी है कि एक ने साड़ी बदली दूसरे ने सदरी। रायबरेली से लेकर अमेठी तक प्रियंका ने सूती साड़ियां इस तर्ज पर पहनी और लगातार बदली की इंदिरा का अक्स उसमें दिखायी देने लगा। और तीन महीने में लगातार सौ से ज्यादा चुनाव रैलियों में नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह रंग-बिंरगी सगरी पहनी और बदली उसने मोदी के कपड़े प्रेम को जगजाहिर कर दिया।
लुटियन्स की दिल्ली में प्रियका का फैशनबल टच जगजाहिर है। जिस तरीके से प्रियका दिल्ली में नजर आती है उसमें इंदिरा गांधी का कोई टच देखना मुश्किल है। लेकिन राजनीतिक जमीन पर प्रियंका इतना बदल जाती है जैसे किसी माहिर राजनेता की तर्ज पर आम जमता से उनके सरोकार पुराने हो । इसीलिये अपनी सादगी से ही प्रियका मोदी पर सियासी वार करती है तो उसकी गूंज भी सुनायी देती है । लेकिन मोदी को इससे फर्क नहीं पडता । आधी बांह के कुरते को पहनने का फैशन मोदी ने गुजरात सीएम की कुर्सी पर बैठकर बनाया । तो अब लगातार सदरी बदल बदल कर एक नयी पहचान अपने राजनीतिक पहचान को दी । लेकिन मुश्किल यही है कि प्रियका साडी बदले या मोदी सदरी । दोनो ने बार बार देश का ही जिक्र किया । यह अलग बात है कि देश के मौजूदा हालात ठीक नहीं है इसे तो दोनो ही बताते रहे है लेकिन हालात ठीक करने की दिशा में कोई ठोस पहल आजतक किसी ने नहीं की है । मोदी अभी तक 6 करोड गुजरात से बाहर निकले नहीं है और प्रियंका को रायबरेली और अमेठी के बाहर की राजनीतिक हवा लगी नहीं है ।