अगर भैयाजी जोशी सरकार्यवाह पद से मुक्त हो गये तो मानकर चलिये की मोदी सरकार पर नजर रखने की तैयारी में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ सक्रिय हो चला है। और अगर संघ की कार्यकारिणी में कोई परिवर्तन हुआ ही नहीं तो मान कर चलिये कि प्रचारक से पीएम बने नरेन्द्र मोदी अपने रास्ते में फिलहाल कोई दखल नहीं चाहते हैं और संघ भी दखल देने के मूड में नहीं है। दरअसल राष्ट्रीय स्वंयसेवक की कल से नागपुर में शुरु हो रही अखिल भारतीय प्रतिनिधी सभा में चर्चा तो सरकार के कामकाज से लेकर संघ की राजनीतिक सक्रियता और इस दायरे में दिल्ली चुनाव से लेकर कश्मीर में मुफ्ती के साथ साझा सरकार बनाने तक के हालात पर चर्चा होगी। लेकिन सारी नजरें इसी पर टिकी हैं कि क्या कार्यकारिणी में कोई फेरबदल भी होगा। क्योंकि संघ के भीतर दो मत काम कर रहे हैं। मराठी लॉबी कोई बदलाव चाहती नहीं है। खुद बीजेपी भी संघ की सक्रियता ऐसी नहीं चाहती है जिससे बाहर यह दिखायी दे कि संघ की नजरों के इशारे पर बीजेपी और मोदी सरकार है। लेकिन संघ के भीतर संघ के विस्तार को लेकर यह सवाल जरुर है कि जब देश में अपनों की ही सरकार हो तब तालमेल बनाते हुये आगे बढना जरुरी होता है। और इस दायरे में सुरेश भैयाजी जोशी अगर दिल्ली में रहकर मोदी सरकार और संघ के बीच सेतू का काम करें तो फिर संघ के संगठन के विस्तार के लिये नये सरकार्यवाह की जरुरत पड़ेगी ही। ऐसे में दत्तात्रेय होसबोले ही आरएसएस संगठन में भैयाजी जोशी की जगह ले लें। यानी दत्तात्रेय नये सरकार्यवाह हो जायें। चूंकि दत्तात्रेय राजनीतिक सक्रियता से दूर हैं तो फिर संघ के संगठन पर वह पूरा ध्यान भी देंगे। यानी अभी तक जो सारे काम सामूहिक चर्चा के जरीये लिये जा रहे हैं, उसमें संघ अब बीजेपी से लेकर सरकार और तमाम संघ के संगठनों के भीतर के सवालो का जबाब देने के लिये नयी रणनीति अपना सकता है।
अगर ऐसा होता है तो समझना यह भी होगा कि 1977 के बाद पहला मौका होगा जब संघ सरकार के बीच सेतू के लिये आरएसएस का कोई वरिष्ठ नियुक्त होगा। याद कीजिये तो जनता पार्टी के दौर में सरसंघचालक देवरस सीधे चन्द्रशेखर से संवाद बनाये हुये थे। देवरस राजनीतिक सक्रियता को सामाजिक मुद्दों के दायरे में लाकर संवाद बनाते थे तो कई धाराओं का मिलन भी जनता पार्टी में हुआ। और कांग्रेस से निकले जयप्रकाश नारायण तक ने संघ को राजनीतिक तौर पर क्लीन चीट देनेमें कोई देरी नहीं की। क्योंकि तब मकसद बड़ा था। लेकिन मौजूदा वक्त में संघ और बीजेपी के बीच जटिलता बड़ी है। यानी विकास की जिस अवधारणा को मोदी सरकार कहीं ज्यादा बड़ा मकसद मान कर चल रही है, उसके सामानांतर राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ के भीतर ही कई स्तर पर असहमति भी है और आलोचना भी है। मसलन नागपुर में अगले सात दिनो में संघ से जुडे संगठन जिला, क्षेत्र और प्रांत स्तर पर ही जब अपनी रिपोर्ट रखेंगे तो अर्से बाद हर किसी की निगाहो में मोदी सरकार होगी। किसानों के बीच काम करने वाले भारतीय किसान संघ, मजदूरो के बीच काम करने वाले भारतीय मजदूर संघ और इसी लकीर को बड़ा करें तो स्वदेशी जागरम मंच, लघु उघोग भारती,सेवा भारती,भारत विकास परिषद और शौषणिका महासंघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक किन आधारो पर कहेंगे कि वह सरकार की बोली जा नीतियों के साथ खड़े है । क्योंकि विकास का जो ढांचा मोदी सरकार खड़ा कर रही है, उसमें और कहें जाने के तौर तरीकों में बड़ा अंतर है। माना यह भी जा रहा है कि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के विरोध में जिस तरह बीएमएस, स्वदेशी जागरम मंच और किसान संघ है, उसमें कोई टकराव सीधे तौर पर उभरे उससे पहले आरएसएस सरकार के साथ संघ का समन्वय बनाने के लिये ही भैयाजी को दिल्ली में रखना चाहता है। यूं समझना यह भी होगा कि यह सवाल वाजपेयी के दौर में वाजपेयी ने हमेशा संघ से बातचीत के लिये लालकृष्ण आडवाणी को ही सामने किया। खुद कभी संघ को महत्ता नहीं दी। असर इसी का हुआ कि तबके सरसंघचालक सुदर्शन ने एक टीवी इंटरव्यू में वाजपेयी आडवाणी को रिटायर्ड होने की सलाह देते हुये वाजपेयी सरकार को ही खारिज कर दिया। और संयोग से वाजपेयी की राह पर नरेन्द्र मोदी भी न चल पड़ें और संघ से बातचीत के लिये हमेशा बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह जाये यह भी संघ नगीं चाहेगा। ऐसे में संघ और सरकार के बीत समन्वय बनाने के एक तरीका गुरु गोलवरकर के दौर का भी है। गोलवरकर के वक्त भी दत्तोपंत ठेंगडी के विचार संघ से टकराते रहे।
लेकिन तब गुरु गोलवरकर जनसंघ और ठेंगडी के खड़े किये संगठन बीएमएस, स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ में खुद ही समन्वय बनाते थे। जनसंघ पर हिन्दुत्व का भार राजनीतिक तौर पर गोलवरकर डालते जिससे जनसंघ सियासी तौर पर फिसले नहीं और संघ की सोच के नजदीक ही खड़ा रहे वहीं ठेंगडी को कम्युनिस्ट पार्टी आफ आरएसएस कहकर शांत करते। यानी व्यंग्य से लेकर समझ का जो मिश्रण एक साथ गोलवरकर रखते और संगठन का विस्तार करते क्या वह मोहन भागवत के दौर में संभव है। यह सवाल इसलिये फिर से महत्वपूर्ण हो चला है क्योंकि मौजूदा वक्त में संघ और सरकार के सामानांतर कैसे संघ के थिंक टैक ही ठेंगडी के सवालों को नये सिरे से उठा रहे हैं, इसका नजारा नागपुर में प्रतिनिधी सभा की बैठक से पहले विचारों के संघर्ष से समझा जा सकता है। विहिप के थिक टैंक बालकृष्ण नाईक नागपुर में संघ के करीबी दिलीप देवधर से संघ को समझने वालो के साथ दो दिन पहले नागपुर में मिलते हैं। तो संवाद राम मंदिर या घर वापसी की जगह मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की दिशा में चला जाता है। और संघ को जानने समझने वाले ठेगडी की तर्ज पर वामपंथी सोच तो नहीं रखते लेकिन गांधीवादी सोच के जरिये यह सवाल जरुर उठा देते हैं कि नागपुर में मेट्रो की जरुरत क्या है। अहमदाबाद-मुबई के बीच बुलेट ट्रेन की जरुरत क्या है। और तो और संघ के थिंक टैक मोदी सरकार की नीतियों को पूंजीवाद के करीब या भारत के विदेशीकरण के तौर पर देखने से नहीं चूक रहे । यानी जो सवाल मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद तीक्ष्ण हो रहे है वह मोदी के विकास के नारे की जमीन है। यानी संघ के भीतर यह सवाल भी बड़ा हो चला है कि आने वाले वक्त में टकराव शुरु हो उससे पहले समन्वय बनाकर इसे रोकने की दिशा में कैसे ले जाया जाये । इस दिशा में कदम बढाना जरुरी है । ध्यान दे तो संघ ने दिल्ली चुनाव को लेकर अपनी खुली प्रतिक्रिया दी लेकिन कश्मीर के बवंडर पर वह खामोश रही । उसकी वजह टकराव रोकना था या गलती मानना । हो जो भी लेकिन सच यही है कि संघ से निकल कर बीजेपी में पहुंचे राम माधव ही कश्मीर में सत्ता की समूची बिसात बिछा रहे थे । सच यह भी है कि पहले उमर अब्दुल्ला का दरवाजा संघ ने खटखटाया । लेकिन वहां बीजेपी अपना सीएम बनाना चाहती थी और उमर अपने विधायकों की संख्या से ज्यादा की मांग कर रहे थे। उसी के बाद बातचीत मुफ्ती की तरफ बढ़ी लेकिन मुफ्ती के साथ मिलकर सरकार बनाने के विरोध की आवाज बीजेपी के ही मार्गदर्शक मंडल से निकली। बावजूद इसके सच यह भी है कि संघ को सारी जानकारी राम माधव दे रहे थे। तो फिर कश्मीर में उलझते हालात में संघ ने चुप्पी साधना ही ठीक समझा। ठीक इसी तर्ज पर किसान-मजदूर के जो सवाल संघ के संगठन उठा रहे हैं। घर वापसी और घर्मांतरण को लेकर जो सवाल विहिप और धर्मजागरण उठा रहे हैं। उसमें सरकार के निर्णयों से पहले बिना जिम्मेदारी सामूहिक चर्चा सही है या जिम्मेदारी के साथ निर्णय लेने में भागेदारी हो , आरएसएस को यह भी तय करना होगा । यानी पहली बार सरकार और संघ के बीच तालमेल बैठाने के लिये अगर भैयाजी जोशी सरकार्यवाह का पद छोड विशेष तौर पर नियुक्त हो जाते हैं तो फिर मोदी सरकार की उड़ान थमेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता। और अगर कोई बदलाव होता नहीं है तो मोदी की उड़ान परवान चढेगी और संघ ढील दिये हुये है संकेत यह भी साफ निकलेंगे।
ये संघ संघ की रट छोड़ कर ज़रा अपने क्रांतिकारी आपियों पे भी लिखो कभी। स्टिंग-स्टिंग खेलने में लगे हैं सब आपिये और केजरू जिंदल की खातिरदारी का मज़ा ले रहा है
ReplyDeleteसुना है की आसिफ़ मोहम्मद ख़ान के स्टिंग में वो महा क्रांतिकारी पत्रकार तुम ही हो जो कांग्रेस और केजरू के बीच दलाली कर रहे थे.....बहुत ही क्रांतिकारी हो गया।