Monday, March 9, 2015

निकाहनामा बीजेपी का मोहब्बत आंतकवादियों से


मसरत रिहा हो गया फक्तू रिहा होने के रास्ते पर है और बाकि 145 राजनीतिक कैदियों की फाइल जल्द ही खुलेगी। य़ानी कभी आंतकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन के साथ रहे मसरत। और कभी जमायत उल मुजाहिद्दीन के कमांडर रहे आशिक हसन फक्तू। और उसके बाद कश्मीर की जेलो में बेद 145 कैदियों की रिहाई भी आने वाले वक्त में हो जायेगी। क्योंकि राजनीतिक कैदियों की रिहाई होनी चाहिये यह मुद्दा बीजेपी के साथ सरकार बनाने के लिये चलने वाली बातचीत में उठी थी। दरअसल जम्मू कश्मीर की सरकार को लेकर जो नजरिया दिल्ली का है उसमें मउप्ती को केन्द्र के साथ हुये करार नामे पर चलना चाहिये। लेकिन मुफ्ती सरकार जिस जनरिये से चल रही है उसमें उसने निकाहनामा तो केन्द्र की बीजेपी सरकार के साथ पढ़ा है लेकिन मोहब्बत कश्मीरी आंतकवादियों के लेकर कर रहे हैं।

लेकिन निकाह और इश्क के बीच तलवार की जिस नोक पर मौजूदा जम्मू कश्मीर सरकार चल रही है उसका सच यह भी है कि मसरत के बाद जिन आशिक हसन फक्तू की रिहाई होने वाली है। वह मानवाधिकार कार्यकर्ताता वांचू की हत्या के आरोप में बीते 22 बरस से जेल में है। सुप्रीम कोर्ट में यह मामला चल रहा है।
यानी रिहाई की वजह सिर्फ न्याय में देरी को बनाया गया है। और फाइल में लिखा गया है कि 22 बरस से तो कश्मीर की जेल में कोई नही है। वहीं बाकि जिन 145 कैदियो की फाइल रिहाई को लेकर खुलने वाली है,उनमें 67 कैदी अलगाववादियो के साथ नारे लगाते हुये गिरफ्तार हुये हैं। आरोपों की फेहरिस्त कमोवेश हर किसी पर राष्ट्रविरोध और दंगा भडकाने से लेकर सार्वजिनक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की है। बाकि 78 कैदियो पर किसी ना किसी वक्त आतंकवादी होने का तमगा सेना लगा चुकी है। यानी कैदियों की रिहाई का रास्ता कामन मिनिनिम प्रोग्राम से आगे निकल रहा है क्योंकि श्रीनगर की नजर में जो राजनीतिक कैदी है वह दिल्ली की नजर में आतंकवादी।

फिर यह भी अजब संयोग है कि आंतकवाद की दस्तक जब कश्मीर में रुबिया सईद के अपहरण के साथ होती है और केन्द्र सरकार पांच आतंकवादियों की रिहाई का आदेश देती है तो वीपी सरकार को बीजेपी ही उस वक्त समर्थन दे रही थी। और ठीक दस बरस बाद 1999 जब एयर इंडिया का विमान अपहरण कर कंधार ले जाया जाता है तो तीन आंतकवादियों की रिहाई का आदेश उस वक्त एनडीए सरकार देती है, जो बीजेपी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में चल रही थी। और 15 बरस बाद 2015 में जब जम्मू कश्मीर के सीएम उन आतंकवादियों की रिहाई के आदेश देते हैं, जिन पर देशद्रोह से लेकर आंतकवाद की कई धारायें लगी हैं तो संयोग से कश्मीर की सरकार में बीजेपी बराबर की साझीदार होती है। यानी कश्मीर को लेकर जो सवाल बीजेपी जनसंघ के जन्म से धारा 370 के जरीये उठाती रही वही बीजेपी सत्ता में आने के बाद या सत्ता में सहयोग के दौर में कश्मीर को लेकर हमेशा उलझ जाती है। और संयोग देखिये जो मुफ्ती मोहम्मद सईद सीएम बनने के बाद 2015 में एकतरफा निर्णय लेकर अपनी सियासी जमीन पुख्ता बनाने की दिशा में जा रहे है। वहीं मुफ्ती 1999 के कंघार कांड के वक्त पीडीपी बनाते है । और वही मुफ्ती रुबिया अपहरण के वक्त सिर्फ एक बाप ही नहीं बोते बल्कि देश के गृहमंत्री भी होते हैं। यानी बीजेपी और मुफ्ती । कश्मीर में आंतकवाद को लेकर दोनों के रास्ते बिलकुल जुदा रहे हैं। आतंक के घाव को मुफ्ती ने सहा है और आतंकवाद को खत्म करने के लिये मुफ्ती मानवाधिकार की बात करते हुये आंतकियो को भटका हुआ मान मुख्यधारा से जोड़ने की बात खुले तौर पर करते रहे हैं। वही बीजेपी कश्मीर के आतंकवाद के पीछे पाकिस्तान को मानती रही है। इसलिये कश्मीर के आतंकवादियों की निशानदेही हमेशा पाकि्स्तानी आंतकवादी संगठनो से जोड़ कर ही होती रही है। ऐसे में सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि मुफ्ती को निर्णय लेने की ताकत बीजेपी के समर्थन से मिली है और बीजेपी चाहे तो मुफ्ती से समर्थन वापस लेकर उनके निर्णय. पर ब्रेक लगा सकती है। सवाल यह भी नहीं है कि मुफ्ती अपनी राजनीतिक जमीन बीजेपी के समर्थन से बना रहे हैं। सवाल सिर्फ इतना है कि कश्मीर को लेकर अभी भी दिल्ली और श्रीनगर का नजरिया ना सिर्फ अलग है बल्कि एकसाथ खड़े होकर भी निर्णय इतने जुदा है कि केन्द्र सरकार को कहना पडता है कि उन्हें मुफ्ती ने जानकारी नहीं दी और मुफ्ती कहते हैं कानूनन रिहाई के अलावे कोई रास्ता था ही नहीं।

ऐसे में अब बड़ा सवाल यही हो चला है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का रास्ता कश्मीर होते हुये पाकिस्तान जायेगा या पाकिस्तान से बातचीत का दरवाजा खोलने के लिये कश्मीर पर समझौता का रास्ता दिखायेगा। क्योंकि मुश्किल सिर्फ यह नही है कि कश्मीर में मुफ्ती ने मसरत आलम को रिहा कर दिया। और दिल्ली में पाकिस्तान के हाई कमिश्नर बस्सी ने गिलानी से मुलाकात की। मुश्किल यह है कि सिर्फ छह महीने
पहले ही अलगाववादियों के साथ पाकिस्तान के हाई कमिश्नर की मुलाकात भर से फर्धानमंत्री मोदी ने विदेश सचिव की वार्ता को ही रद्द कर दिया था और अब दिल्ली से लेकर इस्लामाबाद और इस्लामाबाद से लेकर श्रीनगर तक में अलगाववादियों से पाकिस्तान हाई कमिश्नर मिल रहे हैं। विदेश सचिव पाकिस्तान में बातचीत कर रहे है और जम्मू कश्मीर के सीएम पाकिस्तान परस्त अलगाववादी को जेल से रिहा कर रहे हैं। और इन सबके बीच बीसीसीआई भी पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने की बिसात बिछा रही है। तो सवाल तीन हैं। पहला क्या पाकिस्तान को लेकर सरकार यू टर्न मूड में है ।दूसरा,क्या कश्मीर पर कोई बडे फैसले की राह पर सरकार है । तीसरा क्या अमेरिका दबाब काम कर रहा है । हो जो भी लेकिन जिस तरह पाकिस्तान के हाईकमीश्नर दिल्ली में कशमीरी अलगाववादी नेता गिलानी से मुलाकात करते है और मुलाकात के बाद
गिलानी यह कहने से नहीं चूकते कि आखिर कश्मीर को लेकर दिल्ली कबतक आंखे मूंदे रह सकता है। तो संकेत साफ है कि केन्द्र सरकार की हरी झंडी के बगैर यह मुलाकात संभव हो नहीं सकती है। तो क्या पाकिस्तान के साथ बातचीत का रास्ता खोलने के लिये मोदी सरकार के रुख में नरमी आयी है। या फिर कश्मीर के सवाल को सरकार तबतक उछालना चाहती है जबतक यह राष्ट्रीय भावना से सीधे न जुड़ जाये। यानी मुफ्ती हो हुर्रियत दोनो की जमीन अगर एक है औऱ उसी जमीन का लाभ पाकिस्तान भी उठा रहा है तो फिर मोदी सरकार जरुर चाहेगी कि कश्मीर को लेकर देशभक्ति की भावना उन्हीं के साथ देश की भी वैसे ही जुड़
जाये जिसका जिक्रमोदी ने संसद में यह कहकर किया कि उन्हें राष्ट्रभक्ति न सिखाये । यानी मुफ्ती के साथ मिलकर दो महीने की मशक्कत के बाद जब साझा सरकार बनायी गयी है फिर सिर्फ देश भक्ति के दायरे में कश्मीर को तौला भी नहीं जा सकता है और सरकार गिरायी भी नहीं जा सकती । क्योंकि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान अपनी सियासी जमीन देखता है । शायद इसीलिये पहली बार प्रधानमंत्री मोदी के सामने कश्मीर का सवाल गले की हड्डी बन रहा है ।

2 comments:

  1. Sir, I am not in a state to comment on this article...but apriciate your depth of the subject.

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  2. Sir, I am not in a state to comment on this article...but apriciate your depth of the subject.

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