Saturday, October 24, 2015

सत्ता से दो दो हाथ करते करते मीडिया कैसे सत्ता के साथ खडा हो गया

अमेरिका में रुपर्ट मर्डोक प्रधानमंत्री मोदी से मिले तो मड्रोक ने मोदी को आजादी के बाद से भारत का सबसे शानदार पीएम करार दे दिया। मड्रोक अब अमेरिकी राजनीति को भी प्रभावित कर रहे है। ओबामा पर अश्वेत प्रेसीडेंट न मानने के मड्रोक के बयान पर बवाल मचा ही हुआ है। अमेरिका में अपने न्यूज़ चैनल को चलाने के लिये मड्रोक आस्ट्रेलियाई नागरिकता छोड़ अमेरिकी नागरिक बन चुके है, तो क्या मीडिया टाइकून इस भूमिका में आ चुके हैं कि वह सीधे सरकार और सियासत को प्रभावित कर सके या कहे राजनीतिक तौर पर सक्रिय ना होते हुये भी राजनीतिक खिलाडियों के लिये काम कर सके। अगर ऐसा हो चला है तो यकीन मानिये अब भारत में भी सत्ता-मीडिया का नैक्सेस पेड न्यूज़ से कही आगे निकल चुका है। जहाँ अब सत्ता के लिये खबरों को नये सिरे से बुनने का है या कहे सत्तानुकुल हालात बने रहे इसके लिये दर्शको के सामने ऐसे हालात बनाने का है जिस देखते वक्त दर्शक महसूस करें कि अगर सत्ता के विरोध की खबर है तो खबर दिखाने वाला देश के साथ गद्दारी कर रहा है। यानी पहली बार मीडिया या पत्रकारिता की इस धारणा को ही मीडिया हाउस जड़-मूल से खत्म करने की राह पर निकल पडे हैं कि पत्रकारिता का मतलब यह कतई नहीं है कि चुनी हुई सरकार के कामकाज पर निगरानी रखी जाये। यानी सत्ता को जनता ने पांच साल के लिये चुना है तो पाँच बरस के दौर में सत्ता जो करे जैसा करे वह देश हित में ही होगा। जाहिर है यह बेहद महीन लकीर है है जहाँ मीडिया का सत्ता के साथ गठजोड़ मीडिया को भी राजनीतिक तौर खड़ा कर दें और सत्ता भी मीडिया को अपना कैडर मान कर बर्ताव करें। यह घालमेल व्यवसायिक तौर पर भी लाभदायक साबित हो जाता है। यानी सत्ता के साथ खड़े होने की पत्रकारिता इसका एहसास होने ही नहीं देती है कि सत्ता कोई लाभ मीडिया हाउस को दे रही है या मीडिया सत्ता की राजनीति का प्यादा बनकर पत्रकारिता कर रही है। इसके कई उदाहरणों को पहले समझें। बिहार चुनाव में किसी भी अखबार या न्यूज चैनल की हेडलाइन नीतिश कुमार को पहले अहमियत देती है। उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी का नंबर आयेगा और फिर लालू प्रसाद यादव का। यानी कोई भी खबर जिसमें नीतिश कह रहे होगें या नीतिश को निशाने पर लिया जा रहा होगा वह खबर नंबर एक हो जायेगी। इसी तर्ज पर मोदी जो कह रहे होगें या मोदी निशाने पर होगें उसका नंबर दो होगा। कोई भी कह सकता है कि जब टक्कर इन्हीं दो नेताओं के बीच है, तो खबर भी इन्ही दो नेताओं को लेकर होगी। तो सवाल है कि जब सुशील मोदी कहते है कि सत्ता में आये तो गो-वध पर पांबदी होगी। तो उस खबर को ना तो कोई पत्रकार परखेगा और ना ही अखबार में उसे प्रमुखता के साथ जगह मिलेगी। लेकिन जब नीतिश इसके जबाब में कहगें कि बिहार में तो साठ बरस से गो-वध पर पाबंदी है तो पत्रकार के लिये वह बड़ी खबर होगी। इसी तर्ज पर केन्द्र का कोई भी मंत्री बिहार चुनाव के वक्त आकर कोई भी बडे से बडा नीतिगत फैसले की जानकारी चुनावी रैली या प्रेस कान्फ्रेस में दे दें। उसको अखबार में जगह नहीं मिलेगी। ना ही प्रधानमंत्री मोदी के किसी बडे फैसले की जानकारी देने को अखबार या न्यूज चैनल दिखायेगें। यानी पीएम मोदी के बयान में जब तक नीतिश –लालू को निशाने पर लेने का मुलम्मा ना चढा हो, वह खबर बन ही नहीं सकती। यानी खबरों का आधार नेता या कहे सियासी चेहरो को उस दौर में बना दिया गया जब सबसे ज्यादा जरुरत ग्राउंड रिपोर्टिंग की है और उसके बाद चेहरों की प्राथमिकता सत्ता के साथ गढजोड़ के जरीये कुछ इस तरह से पाठकों में या कहें दर्शकों में बनाते हुये उभर कर आयी, जिससे ग्राउंड रिपोर्टिंग या आम जनता से जुड़े सरकारी फैसलों को परखने की जरुरत ही ना पड़े। उसकी एवज में सरकार के किसी भी फैसले को सकारात्मक तौर पर तमाम आयामों के साथ इस तरह रखा जाये जिससे पत्रकारिता सूचना संसार में खो जाये। मसलन झारखंड विश्व बैंक की फेरहिस्त में नंबर 29 से खिसक कर नंबर तीन पर आ गया। इसकी जानकारी प्रधानमंत्री मोदी बांका की अपनी चुनावी रैली में यह कहते हुये देते है कि नीतिश बिहार को 27 वें नंबर से आगे ना बढा पाये, तो खबरों के लिहाज से नीतिश पर हमले या उनकी नाकामी या झारखंड में बीजेपी की सत्ता आने के बाद उसके उपलब्धि से आगे कोई पत्रकारिता जायेगी ही नहीं। यानी झारखंड में कैसे सिर्फ खनन का लाइसेंस नये तरीके से सत्ता के करीबियो को बांटा गया और खनन प्रक्रिया का लाभ झरखंड की जनता को कम उघोगपतियों को ज्यादा हो रहा है। इसपर कोई रिपोर्टिंग नहीं और वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट झारखंड के लोगो की बदहाली या इन्फ्रास्ट्रक्चर की दिशा में सबकुछ कैसे ठप पडा है या फिर रोजगार के साधन और ज्यादा सिमट गये हैं, इस पर केन्द्रित होता ही नहीं है। तो नयी मुशकिल यह नहीं है कि कोई पत्रकार इन आधारों को टटोलने क्यों नहीं निकलता। मुश्किल यह है कि जो प्रधानमंत्री कह दें या बिहार में जो नीतिश कह दें उसके आगे कोई लकीर इस दौर में पत्रकारिता खिंचती नहीं है या पत्रकारिता के नये तौर तरीके ऐसे बना दिये गये है जिससे सत्ता के दिये बयान या दावो को ही आखरी सच करार दे दिया जाये। 

अब यह सवाल उठ सकता है कि आखिर ऐसे हालात पेड मीडिया के आगे कैसे है और इस नये हालात के मायने है क्या? असल में मीडिया के सरोकार जनता से हटते हुये कैसे सत्ता से ज्यादा बनते चले गये और सत्ता किस तरह मीडिया पर निर्भर होते हुये मीडिया के तौर तरीकों को ही बदलने में सफल हो गया। समझना यह भी जरुरी है। मौजूदा वक्त में मीडिया हाउस में कारपोरेट की रुची क्या सिर्फ इसलिये है कि मीडिया से मुनाफा बनाया कमाया जा सकता है? या फिर मीडिया को दूसरे धंधो के लिये ढाल बनाया जा सकता है, तो पहला सच तो यही है कि मीडिया कभी अपने आप में बहुत लाभ कमाने का धंधा रहा ही नहीं है। यानी मीडिया के जरीये सत्ता से सौदेबाजी करते हुये दूसरे धंधो से लाभ कमाने के हालात देखे जा सकते है। लेकिन मौजूदा हालात जिस तेजी से बदले है या कहे बदल रहे है उसमें मीडिया की मौजूदगी अपनी आप में सत्ता होना हो चला है और उसकी सबसे बडी वजह है, बाजार का विस्तार। उपभोक्ताओं की बढती तादाद और देश को देखने समझने का नजरिया। तमाम टेक्नॉलाजी या कहें सूचना क्रांति के बाद कहीं ज्यादा तेजी से शहर और गांव में संवाद खत्म हुआ है। भारत जैसे देश में आदिवासियों का एक बडा क्षेत्र और जनसंख्या से कोई संवाद देश की मुख्यधारा का है ही नहीं है। इतना ही नहीं दुनिया में आवाजाही का विस्तार जरुर हुआ लेकिन संवाद बनाना कहीं ज्यादा तेजी से सिकुड़ा है, क्योंकि सुविधाओ को जुगाडना, या जीने की वस्तुओं को पाने के तरीके या फिर जिन्दगी जीने के लिये जो मागदौल बाजारनुकुल है उसमें सबसे बडी भूमिका टेक्नोलॉजी या मीडिया की ही हो चली है। यानी कल तो हर वस्तु के साथ जो संबंध मनुष्य का बना हुआ था वह घटते-घटते मानव संसाधन को हाशिये पर ले आया है। यानी कोई संवाद किसी से बनाये बगैर सिर्फ टेक्नालॉजी के जरीये आपके घर तक पहुँच सकती है। चाहे सब्जी फल हो या टीवी-फ्रिज या फिर किताब खरीदना हो या कम्यूटर। रेलवे और हवाई जहाज के टिकट के लिये भी अब उफभोक्ताओं को किसी व्यक्ति के संपर्क में आने की कोई जरुरत है ही नहीं। सारे काम, सारी सुविधा की वस्तु, या जीने की जरुरत के सामान मोबाइल–कम्यूटर के जरीये अगर आपके घर तक पहुंच सकते है तो उपभोक्ता समाज के लिये मीडिया की जरुरत सामाजिक संकट, मानवीय मूल्यो से रुबरु होना या देश के हालात है क्या या किसी भी धटना विशेष को लेकर जानकारी तलब करना क्यों जरुरी होगा? खासकर भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में जहाँ उपभोक्ताओं की तादाद किसी भी यूरोप के देश से ज्यादा हो और दो जून के लिये संघर्ष करते लोगो की तादाद भी इतनी ज़्यादा हो कि यूरोप के कई देश उसमें समा जाये, तो पहला सवाल यही है कि समाज के भी की असमानता और ज्यादा बढे सके। इसके लिए मीडिया काम करेगा या दूरिया पाटने की दिशा में रिपोर्ट दिखायेगा। जाहिर है मीडिया भी पूंजी से विकसित होता माध्यम ही जब बना दिया गया है और असमानता की सबसे बडी वजह पूंजी कमाने के असमान तरीके ही सत्ता की नीतियों के जरीये विस्तार पा रहे हो तो रास्ता जायेगा किधर। लेकिन यह तर्क सतही है। असल सच यह है कि धीरे-धीरे मीडिया को भी उत्पाद में तब्दील किया गया। फिर मीडिया को भी एहसास कराया गया कि उत्पाद के लिये उपभोक्ता चाहिये। फिर उपभोक्ता को मीडिया के जरीये ही यह सियासी समझ दी गई कि विकास की जो रेखा राज्य सत्ता खिंचे वही आखरी सच है। ध्यान दें तो 1991 के बाद आर्थिक सुधार के तीन स्तर देश ने देखे। नरसिंह राव के दौर में सरकारी मीडिया के सामानांतर सरकारी मंच पर निजी मीडिया हाउस को जगह मिली। उसके बाद वाजपेयी के दौर में निजीकरण का विस्तार हुआ। यानी सरकारी कोटा या सब्सीडी भी खत्म हुई । सरकारी उपक्रम तक की उपयोगिता पर सवालिया निशान लगे। मनमोहन सिंह के दौर में बाजार को पूंजी के लिये पूरी तरह खोल दिया गया। यानी पूंजी ही बाजार का मानक बन गई और मोदी के दौर में पहली बार उस भारत को मुख्यधारा में लाने के लिये पूंजी और बाजार की खोज शुरु हुई जिस भारत को सरकारी पैकेज तले बीते ढाई दशक से हाशिये पर रखा गया था। पहली बार खुले तौर पर यह मान लिया गया कि 80 करोड भारतीयों को तभी कुछ दिया जा सकता है जब बाकी तीस करोड़ उपभोक्ताओं के लिये एक सुंदर और विकसित भारत बनाया जा सके। लेकिन इस सोच में यह कोई समझ नहीं पाया कि जब पूंजी ही विकास का रास्ता तय करेगी तो सत्ता कोई भी हो वह पूंजी पर ही निर्भर होगी और वह पूंजी कही से भी आये और सत्ता के पूंजी पर निर्भर होने का मतलब है वह तमाम आधार भी उसी पूंजी के मातहत खुद को ज्यादा सुरक्षित और मजबूत पायेगें जो चुनी हुई सत्ता के हाथ में नहीं बल्कि पूंजी के जरीये बाजार से मुनाफा बनाने के लिये देश की सीमा नहीं बल्कि सीमाहीन बाजार का खुलापन तलाशेगें। ध्यान दें तो मीडिया हाउसों की साख खबरों से इतर टर्न ओवर पर टिकी है। सेल्स या मार्केटिंग टीम न्यूज रुम पर भारी पडने लगी, तो संपादक भी मैनेजर से होते हुये पूंजी बनाने और जुगाड कराने से आगे निकलते हुये सत्ता से वसूली करते हुये खुद में ही सत्ता बनने के दरवाजे पर टिका। प्रोपराइटर का संपादक हो जाना। समाचार पत्र या न्यूज चैनल के लिये पूंजी का जुगाड करने वाले का संपादक हो जाना। यह सब 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले चलता रहा। लेकिन जिस तर्ज पर 2014 के लोकसभा चुनाव ने सत्ता के बहुआयामी व्यापार को खुल कर सामने रख दिया उसमें खबरो की दुनिया से जुडे पत्रकारो और मालिको को सामने पहली बार यह विकल्प उभरा कि वह सरकार की नीतियो को उसके जरीये बनाये जाने वाली व्यवस्था के साथ कैसे हो सकते है और राज्य के हालात खुद ब खुद उसे मदद दे देगा या फिर उसे खत्म कर देगा। यानी साथ खड़े हैं तो ठीक नहीं तो दुश्मन। यह हालात इसलिये पेड न्यूज से आगे आकर खडे हो गये क्योंकि चाहे अनचाहे अब राज्य को अपने मीडिया बजट का बंदर बाँट अपने साथ खड़े मीडिया हाउस में बाँटने के नहीं थे। बल्कि सत्ता की अकूत ताकत ने खबरों को परोसने के सलीके में भी सत्ता की खुशबू बिखरनी शुरु कर दी। सामाजिक तौर पर सत्ता मीडिया के साथ कैसे खड़ी होगी यह मीडिया के सत्ता के लिये काम करने के मिजाज पर आ टिका। दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी उन्हीं पत्रकारो के साथ डिनर करेगें जो उनकी चापलूसी में माहिर होगा और पटना में नीतिश कुमार उन्ही पत्रकारो को आगे बढाने में सहयोग देगें जो उनके गुणगाण करने से हिचकेगा नहीं। इसलिये कोई पत्रकार दिल्ली में मोदी हो गया तो कोई पत्रकार पटना में नीतिश कुमार और जो-जो पत्रकार सत्ता से खुले तौर पर जुडा नजर आया उसे लगा कि वह खुद में सत्ता है। यानी सबसे ताकतवर है। असर में बिहार चुनाव इस मायने में भी महत्वपूर्ण हो चला है कि पहली बार नायको की खोज से चुनाव जा जुडा है। यानी 1989 में लालू यादव मंडल के नायक बने तो 2010 में नीतिश सुशासन के नायक बने और 2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी देश के विकास नायक बन कर उभरे। ध्यान दें तो इसके अलावे सिर्फ दिल्ली के चुनाव ने केजरीवाल के तौर पर नायक की छवि गढी। लेकिन केजरीवाल का नायककत्व पारंपरिक राजनीतिक को बदलने के लिये था ना कि नायक बन कर उसमें ढलने के लिये। लेकिन 2015 के आखिर में बिहार चुनाव की जीत हार में तय यही होना है कि विदेशी पूंजी और खुले बाजार व्यवस्था के जरीये भारत को बदलने वाला नायक चाहिये या फिर जातिय गठबंधन के आसरे सामाजिक न्याय की सोच को आगे बढाने वाला नायक चाहिये। जाहिर है बिहार जिस रास्ते पर जायेगा उसका असर देश की राजनीति पर पडेगा, क्योंकि चुनाव के केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की नायक छवि है और दूसरी तरफ चकाचौंध नायकत्व को चुनौती देने वाले नीतिश – लालू है। यानी यही हालात यूपी में भी टकरायेगें। अगर बिहार लालू नीतिश का रास्ता चुनता है तो यकीन मानिये मुलायम-मायावती भी दुश्मनी छोड गद्दी के लिये साथ आ खडे होगें ही। यानी 2 जून 1995 का गेस्ट हाउस कांड एक याद भर रह जायेगा और इससे पहले जो थ्योरी गठबंधन के फार्मूले में फेल होती रही वह फार्मूला चल पडेगा। यानी दो बराबर की पार्टियों में गठबंधन। जाहिर है राजनीतिक बदलाव का असर मीडिया पर भी पडेगा। क्योंकि सत्ता के साथ वैचारिक तौर पर खड़े होकर पूंजी या मुनाफा बनाने से आगे खुद को सत्ता मानने की सोच को मान्यता मिले या सत्ता के सामाजिक सरोकार का ताना-बाना बुनते हुये कारपोरेट या पूंजी की सत्ता को ही चुनौती देनी वाली पत्रकारिता रहे। फैसला इसका भी होना है, लेकिन दोनो हालात छोटे घेरे में मीडिया को वैसे ही बड़ा कर रहे है जैसे अमेरिका में मड्रोक सत्ता को प्रभावित करने की स्थिति में है वैसे ही भारत में सत्ता के लिये मीडिया सबसे असरकारक हथियार बन चुका है। फर्क इतना ही है कि वहा पूंजी तय कर रही है और भारत में सत्ता की ताकत।

Tuesday, October 20, 2015

ऐ अंधेरे ! देख लें मुंह तेरा काला हो गया

मुनव्वर राणा का दर्द और संघ परिवार की मुश्किल

आप सम्मान वापस लौटाने के अपने एलान को वापस तो लीजिये। एक संवाद तो बनाइये। सरकार की तरफ से मैं आपसे कह रहा हूं कि आप सम्मान लौटाने को वापस लीजिये देश में एक अच्छे माहौल की दिशा में यह बड़ा कदम होगा। आप पहले सम्मान लौटाने को वापस तो लीजिये। यहीं न्यूज चैनल की बहस के बीच में आप कह दीजिये। देश में बहुत सारे लोग देख रहे हैं। आप कहिए इससे देश में अच्छा माहौल बनेगा।

19 अक्टूबर को आजतक पर हो रही बहस के बीच में जब संघ विचारक राकेश सिन्हा ने उर्दू के मशहू शायर मुनव्वर राणा से अकादमी सम्मान वापस लौटाने के एलान को वापस लेने की गुहार बार बार लगायी तब हो सकता है जो भी देख रहा हो उसके जहन में मेरी तरह ही यह सवाल जरुर उठा होगा कि चौबिस घंटे पहले ही तो मुनव्वर राणा ने एक दूसरे न्यूज चैनल एबीपी पर बीच बहस में अकादमी सम्मान लौटाने का एलान किया था तो यही संघ विचारक बकायदा पिल पड़े थे। ना जाने कैसे कैसे आरोप किस किस तरह जड़ दिये । लेकिन महज चौबिस घंटे बाद ही संघ विचारक के मिजाज बदल गये तो क्यों बदल गये। क्योंकि आकादमी सम्मान लौटाने वालो को लेकर संघ परिवार ने इससे पहले हर किसी पर सीधे वार किये । कभी कहा लोकप्रिय होने के लिये । तो कभी कहा न्यूज चैनलों में छाये रहने के लिये । तो कभी कहा यह सभी नेहरु की सोच से पैदा हुये साहित्यकार हैं, जिन्हें कांग्रेसियों और वामपंथियों ने पाला पोसा। अब देश में सत्ता पलट गई तो यही साहित्यकार बर्दाश्त कर नहीं पा रहे हैं। सिर्फ हिंसा नहीं हुई बाकि वाक युद्द तो हर किसी ने न्यूज चैनलों में देखा ही। सुना ही । और यही हाल 18 अक्टूबर को उर्दू के मशहूर शायर मुनव्वर राणा के साथ भी हुआ । लेकिन अंदरुनी सच यह है कि जैसे ही मुनव्वर राणा ने अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान किया, सरकार की घिग्गी बंध गई। संघ परिवार के गले में मुनव्वर का सम्मान लौटाना हड्डी फंसने सरीका हो गया ।क्योकि अकादमी सम्मान लौटाने वालो की फेरहिस्त में मुनव्वर राणा पहला नाम थे जिन्हे साहित्य अकादमी सम्मान देश में सत्ता परिवर्तन के बाद मिला । सीधे कहे तो मोदी सरकार के वक्त मिला । 19 दिसबंर 2014 को जिन 59 साहित्यकार, लेखक, कवियों को अकादमी सम्मान दिया गये उनमें मुनव्वर राणाअकेले शख्स निकले जिन्होंने उसी सरकार को सम्मान लौटा दिया जिस सरकार ने दस महीने पहले सम्मान दिया था । यानी नेहरु की सोच या कांग्रेस-वाम के पाले पोसे आरोपों में भी मुनव्वर राणा फिट नहीं बैठते।

तो यह मुश्किल मोदी सरकार के सामने तो आ ही गई। लेकिन सवाल सिर्फ मोदी सरकार के दिये सम्मान को मोदी सरकार को ही लौटाने भर का नहीं है। क्योंकि संघ विचारक के बार बार सम्मान लौटाने को वापस लेने की गुहार के बाद भी अपनी शायरी से ही जब शायर मुन्नर राणा यह कहकर स्टूडियो में जबाब देने लगे कि, हम तो शायर है सियासत नहीं आती हमको/ हम से मुंह देखकर लहजा नहीं बदला जाता। तो मेरी रुचि भी जागी कि आखिर मुनव्वर राणा को लेकर संघ परेशान क्यों है तो मुनव्वर राणा के स्टूडियो से निकलते ही जब उनसे बातचीत शुरु हुई और संघ की मान-मनौवल पर पूछा तो उन्होने तुरंत शायरी दाग दी, जब रुलाया है तो
हंसने पर ना मजबूर करो/ रोज बिमार का नुस्खा नहीं बदला जाता । यह तो ठीक है मुनव्वर साहेब लेकिन कल तक जो आपको लेकर चिल्लम पो कर रहे ते आज गुहार क्यों लगा रहे हैं। अरे हुजूर यह दौर प्रवक्ताओं का है । और जिन्हें देश का ही इतिहास भूगोल नहीं पता वह मेरा इतिहास कहां से जानेंगे। कोई इन्हें बताये तो फिर बोल बदल जायेंगे। यह जानते नहीं कि शायर किसी के कंधे के सहारे नहीं चलता। और मै तो हर दिल अजीज रहा है क्योंकि मैं खिलंदर हूं । मेरा जीवन बिना नक्शे के मकान की तरह है। पिताजी जब थे तो पैसे होने पर
कभी पायजामा बनाकर काम पर लौट जाते तो कभी कुर्ता बनवाते। और इसी तर्ज पर मेरे पास कुछ पैसे जब होते को घर की एक दीवार बनवा लेते। कुछ पैसे और आते तो दीवार में खिड़की निकलवा लेता । अब यह मेरे उपर सोनिया गांधी के उपर लिखी कविता का जिक्र कर मुझे कठघरे में खडा कर रहे हैं। तो यह नहीं जानते कि मेरा तो काफी वक्त केशव कुंज [ दिल्ली में संघ हेडक्वार्टर] में भी गुजरा। मैंने तो नमाज तक केशव कुंज में अदा की है। तरुण विजय मेरे अच्छे मित्र हैं। क्योंकि एक वक्त उनसे कुम्भ के दौरान उनकी मां के साथ मुलाकात हो गई। तो तभी से। एक वक्त तो आडवाणी जी से भी मुलाकात हुई। आडवाणी जी के कहने पर मैंने सिन्धु नदीं पर भी कविता लिखी। सिन्धु नदी को मैंने मां कहकर संबोधित किया। यह नौसिखेयो का दौर है इसलिये इन्हें हर
शायरी के मायने समझाने पड़ते हैं। और यह हर शायरी को किसी व्यक्ति या वक्त से जोड़कर अपनी सियासत को हवा देते रहते है। मैंने तो सोनिया पर लिखा, मैं तो भारत में मोहब्बत के लिये आई थी /कौन कहता है हुकूमत के लिये आई थी / नफरतों ने मेरे चेहरे का उजाला छीना/ जो मेरे पास था वो चाहने वाला छीना
। शायर तो हर किसी पर लिखता है । जिस दिन दिल कहेगा उन दिन मोदी जी पर भी शायरी चलेगी। अब नयी पीढ़ी के प्रवक्ता क्या जाने कि संघ के मुखपत्र पांचजन्य ने मेरे उपर लिखा और कांग्रेस की पत्रिका में भी मेरी शायरी का जिक्र हो चुका है । तो फिर एसे वैसो के सम्मान वापस लौटाने के बाद कदम पिछे खिंचने की गुहार का मतलब कुछ नहीं , सबो के कहने से इरादा नहीं बदला जाता / हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता। तो यह माना जाये मौजूदा वक्त से आप खौफ ज्यादा है। सवाल खौफ का नहीं है । सवाल है कुछ लिख दो तो मां की गालियां पड़ती है । यह मैंने ही लिखा, मामूली एक कलम से कहां तक घसीट लाए/हम इस गजल को कोठे से मां तक घसीट लाए। लेकिन हालात ऐसे है जो रुठे हुये है तो मुझे अपनी ही नज्म याद आती है, लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती / बस एक मां है जो मुझसे खफा नहीं होती। लेकिन सवाल सिर्फ गालियों का नहीं है सवाल तो देश का भी है। ठीक कह रहे हैं आप । कहां ले जाकर डुबोयेगें उन्हें जिन्हें आप गालियां देते है । कहते हैं कि औरंगजेब और नाथूराम गोडसे एक था । क्योंकि दाराशिकोह को मारने वाला भी हत्यारा और महात्मा गांधी को मारने वाला भी हत्यारा। तब तो कल आप दाराशिकोह को महात्मा गांधी कह देंगे। इतिहास बदला नहीं जाता  । रचा जाता है । यह समझ जब आ जायेगी । तब आ जायेगी । अभी तो इतना ही कि, ऐ अंधेरे ! देख लें मुंह तेरा काला हो गया / मां ने आंखे खोल दी घर में उजाला हो गया ।

Monday, October 19, 2015

बीजेपी, मौर्या और सपने

15 अगस्त 1982 । पटना गांधी मैदान । मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा । स्वतंत्रता दिवस के मौके पर भाषण देते वक्त झटके में उन्होंने गांधी मैदान के दक्षिणी छोर की तरफ अंगुली उठाते हुये कहा कि वो जो बिस्कोमान की
इमारत है उसके बगल में ही पांच सितारा होटल बन रहा है । धीरे धीरे पटना , फिर बिहार की तस्वीर बदल जायेगी । और संयोग देखिये 33 बरस बीत गये । ना पटना बदला । ना बिहार । और तीन दशक बाद बिहार की तस्वीर बदलने का जो ख्वाह बिहारियों को दिखाया जा रहा है, इसके लिये चुनावी बिसात का ताना-बाना उसी पांच सितारा होटल में बुना जा रहा है , जिसके जरीये पटना-बिहार को बदलने का ख्वाब जगन्नाथ मिश्रा ने दिखाया । तो क्या बिहार का राजनीतिक मिजाज गांधी मैदान से निकलकर पांच सितारा होटल में जा सिमटा है। यह सवाल इसलिये क्योंकि पहली बार किसी राजनीतिक दल ने अपने चुनाव लड़ने का ग्राउंड जीरो पटना के मौर्या होटल को ही बनाया है ।  जो 1984 में बना । उसके बाद से कोई बडा होटल पटना में बना नहीं और जिस दौर में लालू का राज आया उस दौर में लालू के दोनो सालो का ग्रउंड जीरो जरुर मोर्या होटल हो गया था । और पटना ही बिहार के हर कोने में यादव बहुत ही फक्र से कहते की “सधुआ मोर्या में रात गुजरे ला “। जिसे सुन कर ऊंची जाति की छाती पर सांप लोटता और सामाजिक न्याय का नारा मौर्या होटल में दबंगई से रहने में दफन हो जाता


सच यही है कि बिहार में मंडल-कंमडल के संघर्ष का दौर हो या जातीय राजनीति के उफान पर सवार होकर सियासी प्रयोग का दौर । पटना का मौर्या होटल हर युवा नजरों में किसी प्रेमिका की तरह ही बसा रहा । जहां एक रात रुक कर गुजारना जिन्दगी में नशा घोलने से कहीं ज्यादा रहा । चूंकि गांधी मैदान से सटा है मौर्या होटल तो दूसरे छोर पर अशोक राजपथ के किनारे पटना यूनिवर्सिटी से निकलते छात्रों के कदम भी जब कभी राजनीतिक रैली के लिये गांधी मैदान की तरफ बढते तो छात्रो के झुंड में एक चर्चा हमेशा होती कि नेता जी को तो मौर्या से ही तो निकलना है । फांद कर आ जायेंगे । भाषण देंगे और लौट जायेगें । असर इसी वर्ग संघर्ष की सोच का भी रहा कि कभी भी नेताओ या सत्ताधारियों का अड्डा मौर्या होटल नहीं बना । दिल्ली से पटना पहुंचने वाले नेताओं ने भी धीरे धीरे  मोर्या की जगह पाटलीपुत्र होटल या चाणक्य होटल में ठहरना शुरु कर दिया । पाटलीपुत्र होटल चूंकि आईटीडीसी का है तो दिल्ली से आने वाले नेता-मंत्री वहीं ठहरने लगे । जब बीजेपी में प्रमोद महाजन की तूती बोलती थी और वाजपेयी सरकार के वक्त भी जब भी प्रमोद महाजन चुनावी रैली या सभा के लिये बिहार आये तो पाटलीपुत्र में ही उनका सूट बुक रहता । उस दौर में मौर्या होटल को व्यापारियों या खाये-पियो का अड्डा मान लिया गया । खासकर डाक्टरों और बिल्डरों का अड्डा मौर्या रहा। राजनीतिक चर्चा पाटलीपुत्र और चाणक्य होटल में जा सिमटी। क्योंकि यह दोनों होटल एक ऐसी सडक के दो छोर पर है । जिस सडक पर तमाम राजनीतिक दलों का हेडक्वार्टर भी है और विधायक होस्टल भी । यानी आईटीओ चौराहे और आर ब्लाक चौराहे के बीच वीरचंद पटेल रोड पर ही समूची राजनीतिक बहस और मीडिया का हुजुम 2010 के चुनाव तक रहा । लेकिन जिस तरह बीजेपी अध्यक्ष अमित  शाह ने चुनावी डेरा-डंडा मोर्या होटल में डाला उसने पहली बार यह सवाल पटना ही नहीं बिहार की सियासी बहस में मौर्या होटल की चकाचौंध को तो घोल ही दिया ।   वैसे पटना में मीडियाकर्मियो ही नहीं बल्कि राजनीति की चादर ओढने-बिछाने वालो के जहन में लगातार चर्चा में यह सवाल ही है कि आखिर कैसे मौर्या होटल से बीजेपी हेडक्वाटर जाने के बजाये बीजेपी हेडक्वाटर को ही मोर्या होटल जाना पड़ गया । यानी जिस प्रदेश की राजनीति सडक-चौराहे की बहस में तय होती रही और बहस ही राजनीतिक सुकून नेताओ को देती रही । वह झटके में कैसे मौर्या होटल की तीसरी मंजिल पर जा ठहर जायेगी । बहस तो निर्मल पानी की तरह बहती है उसे कोई ठहरा दें तो वह बहस नहीं फैसला होता है । इसी लिये तो एक फिल्म भी बनी थी , एक रुका हुआ फैसला । अरे हुजूर सवाल फिल्म का नहीं है सवाल बिहार की राजनीति को समझने का है । तो क्या बीजेपी के धुरंधर ही बिहार की राजनीति को समझ नहीं पा रहे है । वह तो समझ पा रहे है लेकिन जिनकी बीजेपी में चलती है वह नहीं समझ पा रहे । यह वह चर्चा है जो मौर्या होटल के रिसेपशन के पीछे लगे सोफे पर बैठकर बीजेपी नेताओ की भागम-भाग को देखते हुये हो रही है । क्यों सुशील मोदी कोई आज के नेता तो है नहीं। वह नहीं समझते होगें कि मौर्या होटल से सियासत साधना मुश्किल है । सुशील मोदी समझते तो होगें लेकिन उनकी चलती कहां होगी । सही कह रहे है , सुशील मोदी को तो ज्यादा सम्मान नीतीश कुमार के साथ रहने पर था । तब कम से कम हर कोई जानता था कि सुशील मोदी नंबर दो है ।और बीजेपी
में नंबर एक ।  ईहा अब कितने नंबर पर है कोई नहीं जानता । आधे दर्जन नेता तो सीएम बनने की दौड में है । गजब कह रहे है तो क्या बिहार में शाह बाबू नेताओ को फेंट रहे है। जुआ खेल रहे हैं । ऐसा जुआ जिसमें पा गये तो सब अपना । गंवा दिये तो मौर्या होटल से निकलकर हवाई अड्डे ही तो जाना है । कोई बात-विचार कहां हो रहा है किसी से । बीजेपी दफ्तर में झंडे , बैनर और बैच बिक रहे है । मौर्या होटल में जीत की बिसात बिछी हुई है । मौर्या होटल के आंगन में ही नहीं बल्कि वीरचंद पटेल मार्ग हो या खुर्जी रोड कही भी चाय-पान की दुकान पर बैठ-खड़े होकर कुछ वक्त गुजारिये जातिय समीकरण की सियासत और वर्ग संघर्ष का गुस्सा झटके में सरोकार जुडते ही सामने वाले की जुबा पर आ जायेगें । इसीलिये मोर्या होटल में सुबह नौ बजे से ग्यारह बजे तक गाडिया की कतार और उसमें सवार होते बीजेपी अध्यक्ष से लेकर केन्द्रीयमंत्री और सांसदों से लेकर पहचान वाले बिहार के नेताओ को जिस तरह हर कोई चुनावी सभा में जाते हुये देखता है । उस तर्ज पर शाम छह बजे से रात नौ-दस बजे तक थके हारे लौटते हुये भी हर कोई देखता है । इन देखने वालो में मौर्या होटल की सीढियो पर खडे दरबान का जबाब अच्छा लगा रौनक है । बनी रहे तो अच्छा ।

लेकिन सारी रौनक तो दिवाली से पहले ही खत्म हो जायेगी । क्यो फैसला 8 नंवबंर को हो जायेगा इसलिये । और दीपावली तीन दिन बाद है इसलिये । अब मतलब आप खुद लगाईये । जी , कुरदने पर दरबान भी इसके आगे कुछ नहीं कहता । मौर्या होटल की तीसरी मंजिल बीजेपी के छुटमैये नेताओ के लिये किसी तिलिस्म से कम नहीं । जब नेताओ की भीड जमती है । कोई प्रेस वार्ता होती है तो तीसरी मंजिल पर यू ही घूमकर आना भी बीजेपी अध्यक्ष से मुलाकात हो गई सोच सोच कर हर छुटमैये को सुकुन देती है । और जो तीसरी मंजिल जाने की हिम्मत जुटा नहीं पाते वह सुकून पाये नेताओ की सुन कर अपनी कहानी शुरु कर देते है । पैसो से पार्टी तो हेलीकाप्टर में उड़ रही है । लेकिन पांच सितारा में बैठकर चुनाव नहीं जीता जाता । नेताओ तक पहुंच रखने वालो की ही चलेगी तो बीजेपी अलग कैसे हुई । मोर्या से निकले कर हेलीकाप्टर में उड कर रैली निपटा कर वापस कमरे में अरामतलबी । गरम पानी , पांव सेकाई की व्यवस्था क्रेडिल पर चलना । शरीर स्वस्थ। लेकिन पार्टी तो बीमार । भला देश भर से लोगो को जमाकर खर्च बढाने से क्या फायदा । बिहा में तो सियासत ककहरा जीने का सलीका है ।  यह गुस्सा है या अपनी पार्टी को लेकर चिंता । हो जो भी लेकिन मौर्या होटल के भीतर की हवा बीजेपी को बदल रही है और पहली बार बीजेपी के ही नेता-कार्यकात्ताओ के चेहरे शून्य हो चले है । हर चेहरे पर चुनावी रौनक कर अनुशासन में बंधे होने का तनाव ज्यादा है । हर दिमाग में कल की रैली को सफल बनाने का भार ज्यादा चुनावी जीत के लिये चर्चा और सियासी तिकडम करने का वक्त नहीं है । बूथ मैनेजमेंट जरुरी है या दिमाग मैनेजमेंट । गजब का सवाल है यह । कार्यकर्ता है बिहार शरीफ है लेकिन उसका तर्क है कमरे में मशीन पर चलने के बदले नेतालोग गांधी मैदान में ही सुबह टहल लें तो भी नजर आयेगा कि बीजेपी पटना में मौजूद है । नहीं तो नंद किशोर जी आपको भी मुस्किल हो जायेगी । अब आप नाला रोड जाकर बीजेपी के लिये वोट मांग कर दिखाईये । बिहारी बाबू के लिये जगह ही नहीं है तो जहा वह रहते है वहा का ब्चचा-ब्चचा क्या सोचेगा । खाली रुपया-गाडी बांटकर प्रचार करवाने से चुनाव नहीं जीता जाता । यह सब पुराना खेल हो चुका है ।ठीक कह रहे है । 84 में जब पहली बार सीपी ठाकुर चुनाव लडने उतरे तो बीएन कालेज के हास्टल में आते थे । पेट्रोल भरकर महिन्द्रा जीप और पांच सौ रुपया देकर जाते थे । छात्र सब मजा करता । जीप में टक्कर लगाता । दुछ जगह उतर कर सीपी ठाकुर का नारा लगाता । और जब सीपी ठाकुर जीत गये तो छात्र सब उनके घर पहुंचे । तो ठाकुर जी सभी को कुछ दिये । तो उस वक्त ठाकुर जी के पहचान बेहतरीन डाक्टर के तौर पर था । तो जीते । लेकिन अब तो कोईके पहचान अच्छा काम के लिये है ही नहीं । खुद सीपी ठाकुर भी चुनाव लड लें । वह भी हार जायेगें । तो भईया वक्त बदल गया है । यह ऐसे सवाल और ऐसी बहस है जो बीजेपी से जुडे नेता-कार्यकत्ता को कही ज्यादा परेशान कर रही है । क्योंकि इन्हे लग रहा है कि जिस लालू  राज के विरोध पर नीतिश की दस बरस की सियासत टिकी रही । वह झटके में कैसे बदल सकती है । और अगर नहीं बदल सकती तो बीजेपी की जीत को कौन रोक सकता है । और कोई नहीं रोक सकता तो फिर बीजेपी अपने ही नेता-कार्यकत्ता को छोड मौर्या होटल से कैसे चल सकती है । हवाई रैलियो के जरीये कैसे जीत सकती है । सडक-चौराहो पर लालू-नीतिश की जोडी क्यों बहस का हिस्सा है । क्यों पार्टी दप्तर सूना है और मोर्या का लान चहल –पहल से सराबोर है । क्यों मोर्या होटल में एक रात गुजारने के बिहारियो के सपनो के साथ बीजेपी को जोडा जा रहा है ।  जबकि बीते तीन दशक में तो बिहार के  हालात जस के तस है । सिर्फ मौर्या होटल ही बना । जिसे दूर से देखते तो बिहारी कहलाते । इसमें रहकर बिहार को देखेगें तो बिहार नहीं बीजेपी बदलती दिखेगी ।

Friday, October 16, 2015

कठघरे में कौन खड़ा है


कलबुर्गी की हत्या कर्नाटक में हुई जहां कांग्रेस की सरकार है। अखलाख की हत्या यूपी में हुई जहां सपा की सरकार है। गुलामअली और कसूरी के कायर्क्रम का विरोध शिवसेना ने किया जो बीजेपी के साथ सत्ता में है। तो
चारों घटनायें तीन अलग अलग राज्यो में हुई और सारे मुद्दे कानून व्यवस्था से जुडे हो तो इसमें केन्द्र सरकार की कोई भूमिका हो भी कैसे सकती है। लेकिन किसी राज्य में कानून व्यवस्था काम ना करे तो केन्द्र सरकार राज्यपाल के जरिये हालात को परखती भी है और राज्य को नोटिस थमा कर चेताता भी है। ध्यान दें तो तीनों राज्यों की इन घटनाओं पर केन्द्र सरकार ने राज्यो को कभी किसी स्तर पर नहीं चेताय़ा। राज्यपाल को रिपोर्ट भेजने तक के लिये नहीं कहा । तो क्या प्रधानमंत्री इस सच को समझ नहीं पाये कि अगर हर घटना के तार कट्टर हिन्दुत्व और कट्टर राष्ट्रवाद से जुड़े हैं और केन्द्र सरकार किसी भी घटना को लेकर संवैधानिक प्रक्रिया के अपना नहीं रही है तो सवाल उसी की भूमिका को लेकर उठेंगे। क्योंकि हर घटना के मर्म को समझे तो एमएम कलबुर्गी ने जून 2014 में अंधविश्वास के खिलाफ बेंगलूर में हुये सेमिनार में हुये हिन्दुओ की मूर्ति पूजा से लेकर नग्न मूर्तियों को लेकर सवाल उठाये। जिसका विरोध विहिप ,बजरंग दल और हिन्दू सेना ने खुलकर किया। और दो महीने बाद ही जब घर में घुसकर कलबुर्गी की हत्या पत्नी की मौजूदगी में करते हुये हत्यारे आराम से निकल गये और आजतक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है तो सवाल उठना वाजिब। लेकिन इसके बावजूद मामले को कानून व्यवस्था के दायरे में देखा गया और कानून व्यवस्था राज्य का मसला है यह कहकर हर स्तर पर खामोशी बरती गई। इतना ही नहीं साहित्य अकादमी ने भी एक विरोध पत्र तक नहीं निकाला जबकि अकादमी उन्हे सम्मनित कर चुकी थी। वहीं अखलाख की हत्या के पीछे गाय का मांस रहा। ध्यान दें तो गो वध का सवाल संघ परिवार ने बार बार उठाया है। और लोकसभा चुनाव से पहले चुनाव प्रचार के दौर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी गुलाबी क्रांति शब्द के जरीये गो वध का सवाल उठाया। यह अलग मसला है कि देश में बीफ का निर्यात बीते साल भर में इतना बढ़ गया कि भारत दुनिया में नंबर एक पर आ गया।

यानी चाहे अनचाहे अखलाख की हत्या, बीफ का सवाल, गो वध के मसले उसी राजनीति से टकराये जिस राजनीति ने कभी मुद्दो के आसरे इस भावना को छुआ। और उसके बाद गुलाम अली और खुर्शीद महमूद कसूरी के कार्यक्रम राष्ट्रवाद का शिकार हुये क्योंकि शिवसेना ने सीमा पर पाकिस्तानी हरकत का जबाब दिया। कमोवेश पाकिस्तान की हर हरकत का जबाब देने की यही सोच बीजेपी की सत्ता में आने से पहले रही है। याद कीजिये पाकिस्तानी नेता मनमोहन सिंह के दौर में दिल्ली आते या अजमेरशरीफ जाते तो बीजेपी के नेता ही पाकिस्तानियों को बिरयानी खिलाने का जिक्र कर सीमा पर मरते जवानों के सवाल उछालते। दो जवान के सिर कटे तो दस जवानो के सिर काटने की बात बीजेपी के नेता ही करते । और सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने इसपर कूटनीतिक तरीके से सोचना शुरु किया। तो शिवसेना खड़ी हो गई। क्योंकि शिवसेना को कूटनीति की नहीं अभी उस राजनीतिक जमीन पर कब्जे की जरुरत है जिसे बीजेपी विकास का नाम लेकर छोड़ रही है। इसीलिये बेहद बारिक राजनीति करते हुये शिवसेना ने नरेन्द्र मोदी को याद भी किया तो गोधरा और अहमदाबाद को लेकर। यानी जिस गोधरा कांड और उसके बाद के दंगों को पीछे छोड मोदी दिल्ली पहुंचे है उसी तस्वीर को शिवसेना जानबूझकर याद कर हिन्दुत्व की साख मोदी के अतीत से जोड़कर अब अपने साथ करना चाहती है। लेकिन सवाल सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी का नहीं है ।

सवाल है बीजेपी के भीतर अभी भी वह तमाम अंतर्विरोध मौजूद है जो विकास पुरुष मोदी के नारे और हिन्दू ऱाष्ट्र के एंजेडे को साथ लेकर चलते हैं। और इनपर कोई रोक नहीं है। ध्यान दीजिये तो कलबुर्गी या दादरी के सामानांतर सामाजिक राजनीतिक तौर पर इन सभी घटनाओं की शुरुआत जहां से हुई उसके पीछे उसी विचारधारा का उफान रहा जिसके पक्ष में बीजेपी के कई नेता रहे है और इन नेताओं को ना तो बीजेपी हाईकमान कभी शांत कर पाया और ना ही संघ परिवार ने कभी कहा कि इनके बोलने से मोदी सरकार की छवि बिगाड़ सकती है। मसलन साध्वी निरंजन ज्योती, योगी आदित्यनाथ,स्वामी साक्षी महराज समेत दर्जनों सांसद और भगवा पहने नेता-मंत्री जब चाहे जो भी बोलते रहे। यानी मुशिकल यह भी रही कि बीजेपी सांसदों तक ने धर्म को राजनीति से जोड़ने में कभी कोई कोताही नहीं बरती । और सांसद होते हुये भी संविधान की मर्यादा से इतर निजी भावनाओं में ही उबाल पैदा किया। साक्षी महराज तो यहां तक कह गये कि गाय हमारी मां है। जो गाय को मारेगा उसे हम भी मारेंगे। जाहिर है यह वक्तव्य किसी की भी भावनाओं को छु सकती है। लेकिन सवाल है कि अगर ऐसा कहने से राजनीतिक मान्यता मिलती है तो फिर राजनीतिक मान्यता पाने का यही तरीका सबसे सरल हो जायेगा। बिना जिम्मेदारी कहना है और जिम्मदारी को जिन मुद्दों से जोड़ना है वह भावनात्मक ज्यादा है । इस रास्ते पर अपने दायरे में अगर संगीत सोम चले तो फिर अपने राजनीतिक दायरे में लालू प्रसाद भी बोले। कि गौ मांस तो हिन्दु भी खाता है। यह कड़ी कितनी भी बड़ी हो सकती है लेकिन ध्यान दें तो हर राजनेता और हर राजनीतिक दल ने अपने अपने दायरे में अपने अपने वक्तव्य चुने। बिहार में जातिय राजनीति के उबाल के लिये धर्म का इस्तेमाल किया गया तो देशभर में धर्म में उबाल के जरीये राजनीति का इस्तेमाल किया गया। इसलिये कौन छद्म धर्मनिरपेक्ष है या कौन सांप्रदायिक। यह सवाल मौजूदा वक्त में कोई भी उछाले वह सियासी राजनीति का हिस्सा माना ही जायेगा । क्योंकि पहली बार देश में जो माहौल बन रहा है उसमें कठघरे से कोई बाहर है यह कठघरे पर सवाल उठाने वाला भी नहीं कह सकता। और कठघरे में खड़े लोग भी बाहर खडे लोगों को कठघरे में खडा करार देने में भी नहीं हिचक रहा है । तो सवाल तीन है । पहला क्या देश में सत्ता परिवर्तन का मतलब विचारधारा परिवर्तन है । दूसरा क्या विचारधाराओ का टकराव इतिहास तक को बदलने पर आमादा है । और तीसरा क्या टकराव की सियासत के सामने पहली बार जनता को लगने लगा है कि वह किस तरफ खड़ी है यह सत्ता जानना चाहती है । और उसे बताना होगा । यानी जीने की लकीर इतनी मोटी और गहरी हो रही है कि विचार हो या खान-पान या फिर सियासत करने के तौर तरीके , हर स्तर पर यह सवाल ही बड़ा हो चला है कि आप सत्ता के साथ है या नहीं । यह सवाल इसलिये क्योकि मोदी सरकार के सबसे प्रभावी मंत्री अरुण जेटली साहित्यकारो के विरोध को कागजी बगावत करार देते है और यह सवाल उठाने से नही कतराते कि इससे पहले कभी साहित्यकारों ने इस तरह सम्मान वापस क्यों नहीं किया । इसका मतलब है कि कांग्रेसी और वाम सत्ता के पोसे साहित्यकार ही सम्मान लौटा रहे है क्योकि मौजूदा वक्त में सत्ता परिवर्तन विचारधारा के बदलाव का भी युग है । क्योंकि जो सवाल अरुण जेटली ने उठाये वह अपनी जगह सही हो सकते है । मसलन 75 में एमरजेन्सी के वक्त सम्मान क्यों नहीं लौटाये गये । 84 के दंगो के वक्त विरोध क्यो नहीं हुआ । 89 के भागलपुर दंगे या 2013 के मुज्जफरनगर दंगों के वक्त विरोध क्यों नहीं हुआ । तो इसका जबाब यह भी हो सकता है कि आपातकाल के वक्त सीपीआई इंदिरा गांधी का समर्थन दे रही थी ।

और जिस शिवसेना के साथ बीजेपी खड़ी है उस शिवसेना के मुखिया बालासाहेब ठाकरे भी आपातकाल को सही ठहरा रहे थे। और तमाम लेखकों को या तो गिरप्तार कर लिया गया था या सभी नजरबंद या भूमिगत हो गये थे। फिर ब्लू स्टार के वक्त इंदिरा गांधी का विरोध करते हुये खुशवंत सिह ने सम्मान लौटाया था। भागलपुर दंगों के तुरंत बाद तो बिहार में काग्रेस की सत्ता ही जनता ने कुछ इस तरह बदली की आजतक कांग्रेस सत्ता में लौट नहीं पायी। मुज्जफरनगर दंगो पर सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को नोटिस थमा दिया। तो समझना यह भी होगा कि साहित्यकारो की आवाज देश में चाहे जितनी कम नजर आती हो लेकिन दुनिया में कमोवेश हर देश के साहित्यकारो का मान-सम्मान है । और साहित्यकारो के नजरिये को कैसे कितना महत्वपूर्ण माना जाता है यह
फैक्फर्त पुस्तक मेले से भी समझा जा सकता है । जहा सलमान रुशदी को आमंत्रित किया गया तो ईरान ने विरोध कर दिया । लेकिन आयोजको ने इरान के विरोध को दरकिनार करते हुये रुशदी को विशेष आंमत्रित श्रेणी में रखा । क्योकि अभिव्यक्ती की आजादी फैंक्फर्त पुस्तक मेले की थीम भी है। तो सवाल यह नहीं है कि देश में सत्ता परिवर्तन के साथ विचारधारा के बदलाव को ही आखरी सच मान लिया जाये । सवाल यह है कि कलबुर्गी भी देश के नागरिक थे और अखलाख भी और सम्मान लौटाते साहित्यकार भी देश के नागरिक है और राजनीतिक सत्ता में ही जब सारी ताकत सिमटी हुई है तो फिर हर नागरिक के एहसास को समझना भी राजनीतिक सत्ता का ही काम है ।

Sunday, October 11, 2015

अखलाख की हत्या पर भारी साहित्य अकादमी का सम्मान


रविन्द्र नाथ टैगोर को 1913 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 1915 में इंग्लैंड की महारानी ने “सर” की उपाधि से सम्मानित किया । यूं टैगोर की ख्याती तो दुनिया में पहले से थी लेकिन नोबल और “सर” की उपाधि के सम्मान ने टैगोर की कृतियो को दुनिया भर में एक नई पहचान भी दी । खासकर अंग्रेजी भाषा ही नहीं बल्कि ब्रिटिश सत्ता के तहत जितने भी देश रहे, जिन्हें हम मौजूदा वक्त में कामनवेल्थ देश के नाम से जानते है कमोवेश हर जगह टैगोर के साहित्य को सभी ने जाना। सभी ने पढ़ा । जाहिर है दुनिया भर की कई भाषाओ में टैगोर की कृतियों का प्रकाशन हुआ । लेकिन अप्रैल 1919 में जब जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ तो रविन्द्रनाथ टैगोर ने 31 मई 1919 को वायसराय को खत लिख कर ना सिर्फ जलियावालाकांड को दुनिया की सबसे त्रासदीदायक घटना माना बल्कि ब्रिटिश महारानी के दिये गये सम्मान को भी वापस कर दिया । और जब वह पत्र कोलकत्ता से निकलने वाले स्टेट्समैन ने छापा तो ना सिर्फ भारत में बल्कि दुनियाभर में जलियावाला घटना की तीव्र निंदा भी हुई और टैगोर के फैसले पर दुनियाभर के कलाकार-साहित्यकारों ने अपने अपने तरीके से सलाम किया । तब ब्रिटिश सरकार और दिल्ली में बैठे ब्रिटिश गवर्नमेंट के नुमाइन्दे वायसराय का सिर भी शर्म से झुक गया । और उस वक्त ब्रिटिश सरकार भी यह कहने नही आई कि अगर उसने सर की उपाधि ना दी होती तो कामनवेल्थ देशों में टैगौर को कौन जानता ।

इसलिये सम्मान लौटाना है तो 1915 के बाद दुनियाभर में जिस तरह सर की उपाधि पाने के बाद टैगोर को जो सम्मान मिला उसे वह लौटा दें । या फिर सम्मान लौटाने का जिक्र कर टैगोर महात्मा गांधी की राह पर निकल कर सतही सियासत कर रहे है । क्योंकि टैगोर ने तो सिर्फ एक पत्र लिखा है । तो उस वक्त जो शर्म जो नैतिक दबाब ब्रिटिश गवर्नमेंट तक में आया उस तरह की शर्म या नैतिक दबाब मौजूदा वक्त में भारत के ही सस्थानों साहित्यकार और संपादको में कितना बचा है । यह सवाल इसलिये क्योंकि 6 अक्टूबर को नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी ने जब दादरी कांड और पीएम की चुप्पी के विरोध में साहित्य अकादमी सम्मान वापस करने के एलान किया तो उसके दो दिन बाद ही समाचार पत्र जनसत्ता ने पहले पेज पर अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के हवाले से रिपोर्ट छाप कर साहित्यकारों के सम्मान लौटाने को उस सम्मान से जोड़ दिया जो सम्मान देने के बाद अकादमी ने साहित्यकारों के लिये काम किया । जरा कल्पना कीजिये जनसत्ता जैसे अखबार में बिना कोई सवाल उठाये साहित्य अकादमी के यह बोल छपते है कि , ‘जो नाम और यश उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से मिला, उसे हम कैसे वापस लेंगे ?  ‘ बकायदा अकादमी ने कहा कि सम्मान दिये जाने के बाद इन साहिकत्यकार की किताबों का अकादमी ने दसियो भाषाओ में अनुवाद किया , उसे कैसे वापस लिया जा सकता है । यानी झटके में साहित्य अकादमी ने साहित्यकारों की कृत्तियो से भी खुद को ज्यादा महत्वपूर्ण मान लिया । और चूंकि साहित्य अकादमी के मौजूदा अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कोई नौकरशाह नहीं बल्कि कवि आलोचक है तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या मौजूदा वक्त में साहित्यकार-कवि भी पद पर बैठकर देश के हालातों को देखने के लिये अपने आप में सत्ता बन रहे हैं। क्योंकि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष का कहना अपने आप में कुछ इस तरह का खुला एलान है जिससे लगता है  कि साहित्य अकादमी ना होता या वह साहित्यकारों को सम्मान ना देता तो साहित्यकारो को जो यश मिला है वह न मिलता । और सम्मान या पुरस्कार लौटाने की बात कहना दरअसल साहित्यकार की समाज को लेकर संवेदनशीलता नहीं बल्कि सियासी ताम-झाम है । फिर इससे पहले साहित्यकार उदय प्रकाश  ने भी साहित्य अकादमी के पुस्कार को लौटाने के एलान किया था । और अब मलयाली उपन्यासकार सारा जोसेफ ने भी सम्मान लौटाने का फैसला किया । हालाकि इस कतार में आधा दर्जन कन्नड लेखक है जिन्होने कुलबर्गी की हत्या के बाद कन्नड साहित्य अकादमी का सम्मान लौटाया ।

और इसी कतार में मलयाली कवि के सच्चिदानंदन और लेखक पी के परक्कादावू ने साहित्य अकादमी की सदस्यता छोडने का निर्णय लिया । यानी मौजूदा वक्त में समाज में जो घट रहा है उससे हर तबके में एक चिंता तो जरुर है। क्योंकि कुलबर्गी, दाभोलकर, पंसारे और अखलाख की हत्या के बाद भी राज्यसत्ता का नजरिया सियासत करने और सत्ता पर पकड मजबूत बनाये रखने के लिये अपने अंतर्रविरोध का भी राजनीतिक इस्तेमाल करने का ही रहा है । मुश्किल तो यह है कि साहित्यकार, लेखक, संपादकों की व्यक्तिगत पहल की विरोध के स्वर उठा रही है। लेकिन वह भी बुलबुले की तरह उठ कर दब जा रही है । क्योंकि सरोकार की भाषा हर स्तर पर खत्म कर दी जा रही है । कोई सीधा संवाद किसी भी माध्यम से लेखक–पाठक के बीच बन नहीं पा रहे है । संपादक भी कमरों में कैद है और साहित्यकार भी । पाठक भी कमरों में कैद है और लेखक भी । संस्थानो को लगने लगा है कि वह समाज से बड़े हो चले है । क्योकि समाज कोई समूह तो है नहीं । गिनती में चाहे  दिल्ली की जनसंख्या दो करोड़ हो । और किसी लेखक की कोई एक साहित्यकृत्ति ही लाखों में बिक जाती हो लेकिन उसे पढ़ने वाले अपनी अपनी जगह अकेले ही है ।  ठीक वैसे ही जैसे नयनतारा सहगल हो या अशोक वाजपेयी या उदय प्रकाश अपने साहिकत्यकर्म से तो लाखो पाठको तक पहुंचते हो । लेकिन यह सभी अपने-अपने दायरे में अकेले है । वही किसी भी सरकारी संस्थान के साथ सत्ता होती है । यानी सत्ता के साथ खडे होने का एहसास संस्थान को भी अपने आप में सत्ता बनाने का एहसास जगा देती है । वजह भी यही है कि कोई लेखक जब साहित्य अकादमी की इस सोच पर कलम चलाता है कि अकादमी ने साहित्यकारों को यश और सम्मान किताबों को छाप कर पहुंचाया तो उसकी सोच भी अकदमी को मान्यता देने लगती है क्योकि अकदमी को खुद को सत्ता बना चुकी है । मसलन साहित्य का सुधीश पचौरी की कलम जब एक दूसरे अखबार हिन्दुस्तान में चलती है तो वह साहित्य अकदमी की सोच को सही ठहराते है । अकादमी के अध्यक्ष के बयान को गुगली मान कर उनकी प्रतिभा के कायल हो जाये है। और यह कहने से नहीं सही मानने से नहीं कतराते कि अकादमी लौटाते हो तो उससे प्राप्त कीर्ति भी लौटाओ। और पचौरी जी तो किसी साहित्यकार के विरोध को टीवी चैनलों की बहस या खबरो के बीच रहने के प्रोपगेंडा से आगे मानते भी नहीं है । यानी सवाल सिर्फ समाज के भीतर खिंची जाती लकीर भर का नहीं है बल्कि बदलते नजरिये और संवादहीनता से उभरे खालीपन का भी है । जो हर विचार को प्रचार तंत्र के दायरे में माप कर निर्णय सुनाने की स्थिति पैदा कर रहा है । तो इंतजार किजिये जब टैगोर के विरोध को भी कोई सत्ता ,संस्थान या साहित्यकार यह कहकर खारिज कर देगा कि उन्होने खुद के प्रचार और नाम कमाने के लिये जलियावाला नरंसहार का विरोध किया ।

Friday, October 9, 2015

बिहार का सच दफन कर लोकतंत्र का राग

सर ये मछली खाइये । कांटा तो नहीं है । बोनलैस । एकदम ताजी । सर ये खीर खाइये । एकदम नये तरीके से तैयार । शुगर फ्री है । शानदार । मैनेजर खुद ही ख्नाना परोस रहा था और मंत्री-नेता का समूह चटखारे ले रहे थे । खाना शानदार है । जी सर । तो सर एक और मिठाई दें । अरे नहीं । तो एक अक्टूबर को विजन डाक्यूमेंट जारी करने का बाद पटना के मोर्य़ा होटल के कमरा नंबर 301 में जुटे बीजेपी के नेता और मोदी कैबिनेट के आधे दर्जन मंत्रियों के इस सामूहिक भोजन की इस तस्वीर के बीच मेरे हाथ में विजन डाक्यूमेंट की कॉपी आ गई । और आदतन आखरी पन्ने से ही विजन डाक्यूमेंट पढ़ना शुरु किया तो आखिरी लाइनों पर ही पहली नजर गई । कुल पचास वादों में 48 नंबर पर लिखा था सभी दलित,महादलित टोलों में एक मुफ्त रंगीन टीवी दिया जायेगा। और 47 वें नंबर पर लिखा था प्रत्येक गरीब परिवार को एक जोड़ा धोती साडी प्रतिवर्ष दिया जायेगा।

यानी गरीबी ऐसी कि साल में दो धोती-साडी । जिसकी कुल कीमत दो सौ रुपये से ज्यादा नहीं । और दो जून की रोटी के लिये जिंदगी गुजार देने वाले दलित-महादलितों को रंगीन टीवी देने का वादा । कही तो बिहार को लेकर जो नजरिया नेताओ के जहन में है या सत्ता पाने की होड में बिहार चुनाव विचारधारा की प्रयोगशाला के तौर पर देखा जा रहा है उसमें सत्ता और जमीनी सच में कितना अंतर है यह पटना के पांच सितारा होटल के कमरा नंबर 301 के माहौल से सिर्फ जाना-समझा नहीं जा सकता । दरअसल एक तरफ लाखों के बिल के साथ एक वक्त का लंच-नर है तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय के नारे तले बिहार के हालात को जस का तस बनाये रखने की सियासत । और इसके बीच बेबस बिहार की अनकही कहानियां । लालू यादव जीने की न्यूनतम जरुरतों पर ही बिहार को इसलिये टिकाये रखना चाहते है जिससे गांव चलते हुये पटना-दिल्ली तक ना पहुंच जाये । नीतिश कुमार साइकिल पर सवार बिहार के विकास माडल को न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने के उस सामूहिक संघर्ष से जोडते है जहा भोग-उपभोग के बीच लकीर दिखायी दें ।

यानी हर क्षेत्र को छूने भर की ऐसी ख्वाइश जिससे हर तबके को लगे कि सीएम उनतक पहुंच गये । जाहिर है हर तक पहुंचने की नीतिश कुमार की सोच बिहार के बिगडे हालात को जातिय समीकरण और जातिय टकराव के बीच लाकर खडा कर ही देती है । और खुद ब खुद चुनाव प्रचार के दौर में एक आम बिहारी यह सवाल खुले तौर पर उछालने से कतराता नहीं है कि जब कुर्मी सिर्फ 4 फिसदी है तो नीतिश कुमार के रास विकल्प क्या है । और यादव अगर 15 फिसदी है तो लालू यादव के पास यदुवंशी गीत गाने के अलावे विकल्प क्या है । और 17 फिसदी मुसलमानों और 15 फिसदी उंची जातियों के पास अपना कुछ भी नहीं है तो दोनो को अपने सामाजिक सरोकार और आर्थिक जरुरतों के मद्देनजर देखने के अलावे और विकल्प है क्या। ऐसे में कोई नेता कुछ भी भाषण दें और दिल्ली से चलकर कोई मुद्दा कितना भी उछले उसका असर बिहार में होगा कितना यह मापने के लिये मौर्या होटल से भी बाहर निकलना होगा और पटना के अणे मार्ग की ताकत को भी चुनाव के वक्त खारिज करना होगा । क्योंकि जमीन पर जो सवाल है उसमें कौन किसकी ताकत को खत्म कर सकता है और किसकी ताकत जाति या समाज को आश्रय दे सकती है यह भी सवाल है । लालू यादव के वोटबैक की ताकत को बरकरार रखने के लिये नीतिश कुमार झुक गये और अंनत सिह को जेल जाना पड़़ा। लेकिन मोकामा ये अनंत सिह निर्दलीय चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंच जायेंगे इसे कोई रोक नहीं सकता । यह आवाज मोकामा के हर गली-सडक पर सुनी जा सकती है । क्योंकि मोकामा के लिये अंनत सिंह किसी राबिन-हुड की तरह है । और यहा की गलियों में ना तो नीतिश कुमार के शानदार सीएम होने का कोई असर है ना ही पीएम मोदी की ठसक भरी आवाज में विकासवाद का नारा लगाने की गूंज । हां, लालू यादव को लेकर गुस्सा है । तो क्या हुआ । लालू का वोट पावर सब पर भारी है तो वह मनमर्जी करेगें । वोट-पावर का मतलब है जो वोट डालने पहुंचे । खगडिया के सुरेश यादव को यह बोलते हुये कोई शक –शुबहा नहीं है कि लालू की जीत का मतलब यादवो की सामाजिक ताकत में बढोतरी । यानी हर यादव की पुलिस सुनेगी । और नहीं सुनेगी तो लालू यादव उस पुलिस वाले को हटाकर न्याय कर देगें । तो सामाजिक न्याय का मतलब क्या है । लालू के पोस्टर सिर्फ पटना में चस्पा है जिसपर लिखा गया है कि , जब रोटी को पलट दिये तो कहते है जंगल राज । यानी सामाजिक न्याय की लालू की जंगल राज की कहानी का पोस्टर सिर्फ पटना में ही क्यों चस्पा है । इस अनकही कहानी पर से पर्दा उठाया प्रधानमंत्री मोदी की बांका रैली में पहुंचे सूरज यादव ने । उनकी अपनी व्याख्या है । यादव को सामाजिक न्याय पर नहीं सामाजिक ताकत पर भरोसा है । उसे लगता है कि उसकी लाठी हर किसी को हाक सकती है । और जब सामाजिक ताकत नहीं होती तो यादव मेढक की तरह दुबक कर बैठ जाता है । लेकिन अब यादव को लगने लगा है कि नीतिश के जरीये लालू की सत्ता लौट सकती है । तो यादव को भी लगने लगा है कि मेढकों के बाहर निकल कर कूदने का वक्त आ गया । मजा यह है कि जो बात बांका के अमरपुर में एक गांव वाला कहता है उसे ही अपने तरीके से पटना में मौजूद एक आईपीएस कहता है । पुलिस अधिकारी का मानना है कि लालू यादव के मेढक तो मोहल्ले मोहल्ले में मौजूद है । बीजेपी सत्ता में आयेगा तो उसे अपने मोढको को बनाने में वक्त लगेगा लेकिन लालू सत्ता में लौटते है तो सभी यादव कूदते-फांदते सड़क पर आ जायेगें । यानी बिहार के लिये बदलाव का मतलब उतना ही वक्त है जितने वक्त में सत्ता के मेढक हर चौक-चौराह पर कूदने की स्थिति में आये । यानी बिहार में जंगल राज भी सियासी शब्द है और विकासवाद भी । और इसकी सबसे बडी वजह सत्ता की वह मानसिकता है जहां उसे सत्ता में आते ही तीन स्तर के झटके आते हैं। यह तीन स्तर के झटके क्या होते हैं।

तो पटना के नामी डाक्टर की माने तो पहली झटका सत्ता पाने के बाद सत्ता समेटने की चाहत होती है । जिसे जात के लोग पूरा करते है और भीतर भीतर उबाल भी मारते है । दूसरा झटका सत्ता का स्वाद खुद चखने से ज्यादा अपने विरोधियो को चखाने का स्वाद लेना होता है । इसमें भी जात के लोग आगे आते है और जातीय टकराव के साथ अपनी जाति की सत्ता का एहसास कराते है । और तीसरा झटका सत्ता में आते ही सत्ता ना गंवाने का होता है । इसके लिये राजनीतिक प्रयास भी जातिय वोट बैंक पर ही आ टिकते है । भागलपुर दंगों के बाद कांग्रेस मुसलमान को संभाल नहीं पायी तो दंबगई के जरीये लालू यादव के मुसलमानो की कमजोर आर्थक हालातो को यादवों की ताकत तले ढकेला ।

पांच बरस बाद पसमांदा का सवाल खड़ा किया। नीतिश भी सत्ता में आने के बाद सत्ता बरकरार रखने के लिये महादलित के सियासी प्रयोग को लेकर चल पडे । और बीजेपी भी सत्ता में आने के लिये जातिय राजनीति को ही धार दे रही है । चाहे उसका नाम सोशल इंजीनियरिंग का रख रही हो । यूं बिहार की त्रासदी पटना में सुकून देती है क्योंकि पटना में लोकतंत्र है । लेकिन पटना से बाहर निकलते ही लोकतंत्र पीछे छूटता है तो त्रासदी धाव बनकर गुस्सा और आक्रोष पैदा करती है । दरअसल लोकतंत्र का मतलब है कमाई । ताकत । लालू सत्ता में आ जाये तो पुलिस महकमा खुश हो जायेगा । उसका ताकत बढेगी क्योकि दारोगा तक को हर उत्सव में हर खाता-पीता घर निमंत्रण देगा । जिससे अपराधी डरे । यानी छुट्मैया मेढक छंलाग मारने की कोशिश ना करे । वहीं डाक्टर भी खुश । क्योकि कमाई बढेगी । गोलियां चलेगी । जातीय संघर्ष होगा । हर कोई खुले-आम अपनी ताकत दिखायेगा तो नर्सिग होम का महत्व पढ़ जायेगा । वैसे यह किस्सा एक डाक्टर ने सुनाया कि जब पहली बार अंनत सिंह को गोली लगी तो कोई भी डाक्टर इलाज के लिये भर्ती करने से कतराने लगा। लेकिन जिस डाक्टर ने इलाज किया उसे शूटर का ही फोन आया कि अंनत सिंह मर गया तो एक करोड रुपये देंगे । अंनत सिंह बच गया । तो डाक्टर का मुरीद हो गय़ा । और उसके बाद जो भी अपराधी या राजनेता गोली खाता वह उसी डाक्टर के पास जाने लगा । कमाल यह भी है कि जातीय संघर्ष में कमाई और बिहार की गरीबी को बरकार रखने की सोच ने सोशल इंडेक्स भी बिहार में पैदा कर रखा है । यानी हर वस्तु सस्ती लेकिन उसे पाने के लिये अलग से रकम देनी ही होगी । मसलन पटना की सडकों पर बड़े बड़े बैनर पोस्टर किसी भी दूसरे राज्य के चुनाव से इतर दिखायी देगें । बाकि जगहो पर कोई भी पोलिटिकल पार्टी बचना चाहती है कि पोस्टर-बैनर चस्पा कर
वह क्यो अपना खर्च बढाये । लेकिन बिहार में पोस्टर-बैनर चस्पा करने का खर्च बेहद कम है । कल्पना कीजिये कि समूचे पटना में अगर चालीस फीट के दर्जन भर बैनर कोई लगा लें तो भी खर्चा लाख रुपये नहीं पहुंचेगा । लेकिन बैनर पोस्टर लेने के लिये अलग से दस लाख से ज्यादा रकम देनी होगी।


कमोवेश यह सोशल इंडेक्स ऐसा है जो बिहार के प्रति व्यक्ति आय के सामानातंर हर वस्तु की किमत दिखाता बताता है लेकिन उसे पाने के लिये जितना पैसा होना चाहिये वह किसी रईस के पास ही हो सकता है । तो कालेधन की सामानांतर अर्थव्यवस्था सिस्टम का ही कैसे हिस्सा है यह बिहार में नौकरशाही और व्यापारियों की माली हालत देख कर समझी जा सकती है जिनके बच्चे बिहार से बाहर और बारह फिसदी के बच्चे तो विदेशो में पढ़ते है । हर किसी का दिल्ली में कई फ्लैट है । बिहार से निकल कर दिल्ली पहुंचे कई बिल्डर है जो बिहार
में दिल्ली के घर बेतने के लिये कैंप लगाते है और हर बार खुश होकर लौटते है क्योकि बिहार में नौकरी करने वाला हो या दुकान चलाने वाला वह बिहार में संपत्ति रखने के बजाय दिल्ली या देश के दूसरे हिस्सो में लगाता है । यानी बिहार जस का तस दिखायी देते रहे लेकिन बिहार से कालेधन या मुनाफाबनाकर बिहार के बाहर संपत्ति बनाते जाये । तो बिहार की पांरपरिक सत्ता हर किसी के अनुकूल है जो अपने अपने दायरे में सत्ता में है । लेकिन
बाहर क्या आलम है । बाहर किसान सडक या इन्फ्रास्ट्रक्चर क्या मांगे।


सत्ता ही किसान से उसका इन्फ्रास्ट्रक्चर छीन लेती है । जिससे किसान गुलाम बनकर रहे । मसलन खगडियो दुनिया में सबसे ज्यादा मक्का पैदा करने वाला जिला है । लेकिन 52 फिसदी किसान गरीबी की रेखा से नीचे है । और इसकी सबसे बडा वजह है मक्का के औने पौने दाम में बिकना । और इसकी सबसे बड़ी वजह खगडिया का किसान खगडिया के बाहर मक्का लेकर जाये कैसे । हालात कितने बदतर है इसका अंदाज इससे भी लग सकता है 2009 में बीपी मंडल पुल बनाया गया । जिस सड़क से जुड़ा वह पुल होने के बाद राष्ट्रीय राजमार्ग में बदल दी गयी।


तो दो सौ करोड़ से ज्यादा की लागत से बना पुल ही टूट गया । फिर 19 करोड़ की लागत से स्टील का पुल बनाया गया । यह पुल 19 महीने भी नहीं चला । और पुल ना हो तो वान से नदी पार करनी ही पडेगी और इसके लिये विधायक या कहा सत्ताधरियो को घर बैठे हर महीने तीन से चार लाख की कमाई शुरु हो गई । भागलपुर में भी यही हाल । कहलगांव जाते वक्त त्रिमुहान और गोगा गांव के बीच तीन पुल है लेकिन कभी पुल काम नहीं करता क्योंकि वहा भी वही नजारा । किसान  मजदूर को इस पार उसपार जाना कतो है ही । तो नाव सेवा और नाव  वा
के मतलब है सत्ता की बैठ बैठे लाखो की कमाई । वहां कांग्रेस के सदानंद सिंह की सत्ता है । जो राजनीति में आये तो संपत्ति अंगुलियो पर गिनी जा सकती है लेकिन वक्त के साथ साथ विधायक महोदय इतने ताकतवर हो गये कि संपत्ति तो आज कागजों और दस्तावेजों में भी नहीं गिनी जा सकती । और कहलगांव सीट पर जीत इस तरह पक्की है कि सोनिया गांधी ने भी बिहार में चुनाव प्रचार के लिये अपनी पहली सभा कहलगांव में ही रखी । और बीते चालीस बरस से कहलगांव के किसानो की आय में कोई बढोतरी हुई ही नहीं । स्कूल, कालेज या हेल्थ सेंटर
तो दूर रोजगार के लिये कोई उघोग भी इस क्षेत्र में नहीं आ पाया । उल्टे तकनीक आई तो कहलगांव एनटीपीसी में भी छंटनी हो गई । वैसे बिहार को जातीय राजनीतिक के चश्मे से हटकर देखने की कोशिश कोई भी करें तो उसे चुनाव से बडा अपराध कुछ दिखायी देगा नहीं । क्योंकि जिस चुनाव में प्रति उम्मीदवार चुनाव आयोगके नियम तले चालिस लाख खर्च कर सकता है वहा बिहार में 243 सीटो में से 108 सीट ऐसी है जहा चालिस लाख का बेसिक इन्फ्र्स्ट्रक्चर भी अगर लोगो की जिन्दगी को आसान बनाने के लिये खर्च कर दिया जाये तो भी लोगो का भला हो । नेता कैसे सत्ता में कर बिहार की अनदेखी करते है इसकी एक मिसाल रामविलास पासवान का वह कोसी कालेज है जहा से वह पढ कर निकले । कोसी कालेज 1947 में बना और 2015 में इस कालेज में बिजली तक नहीं है । 4500 छात्र-छात्राएं पढ़ते है । लेकिन पढाने वाले हैं सिर्फ 16 टीचर । छात्रों से फिस ली जाती है बारह और चौदह रुपये । और पढाई एमए और एमएससी तक की है । छात्राओं को फीस माफ है । और नीतिश कुमार ने साइकिल बांट दी है तो सामाजिक विकास का तानाबाना साइकिल पर सवार होकर कालेज की चारदिवारी को छूने से ज्यादा है ही नहीं । कालेज की लेबोर्ट्री हो या कन्वेशन हाल । घुसते ही आपको लग सकता है कि पाषण काल में आ पहुंचे । लेकिन गर्व किजिये कि कालेज की इमारत तो है ।

जिसे चुनाव के वक्त अर्धसैनिक बलो के रहने के लिये प्रशासन लगातार कालेज के प्रचार्य पर दबाब बना रहा है और प्रचार्य अपनी बेबसी बता रहे है कि जवान कालेज में रुकेगें तो कुछ दिन पढ़ाई ही ठप नहीं होगी बल्कि जो टेबल – डेस्क मौजूद है उसके भी अस्थि पंजर अलग हो जायेगें । औपृर हर डेस्क की किमत है साढे तीन सौ रुपये । यानी मोर्या होटल में एक प्लेट मछली की कीमत है तेरह सौ रुपये । जिसे कितने नेता कितने प्लेट डकार लेते होंगें इसकी कोई गिनती नहीं । पटना हवाई अड्डे पर चौपर और हेलीकाप्टर की तादाद चुनाव में इतनी बढ गई है कि शाम ढलने के बाद उन्हे गिनने में अंगुलिया कम पडा जाये । 15 से 25 लाख तक की एसयूवी गांडिया का काफिला समूचे बिहार के खेत-पगडडी सबकुछ लगातार रौद रहे है । लेकिन कोई यह जानने समझने और देखने की स्थिति में नहीं है कि एसी कमरे, एसी गाडी और एसी के ब्लोअर से बनाये जा रहे प्रधानमंत्री के चुनावी मंच का खर्चा ही अगर बिहार के विकास के लिये इमानदारी से लगा दिया जाये तो छह करोड़ अस्सी लाख  वोटर के लिये एक सुबह तो होगी । नही तो लालू के दौर का पुलिस महकमे का सबसे मशहुर किस्सा । रात दो बजे राबडी देवी का फोन पटना एसी को आया । साहेब को परवल का भुछिंया खाने का मन है । और रात दो बजे एसपी साहेब परवल खोजने निकल पड़े ।