Sunday, October 11, 2015

अखलाख की हत्या पर भारी साहित्य अकादमी का सम्मान


रविन्द्र नाथ टैगोर को 1913 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 1915 में इंग्लैंड की महारानी ने “सर” की उपाधि से सम्मानित किया । यूं टैगोर की ख्याती तो दुनिया में पहले से थी लेकिन नोबल और “सर” की उपाधि के सम्मान ने टैगोर की कृतियो को दुनिया भर में एक नई पहचान भी दी । खासकर अंग्रेजी भाषा ही नहीं बल्कि ब्रिटिश सत्ता के तहत जितने भी देश रहे, जिन्हें हम मौजूदा वक्त में कामनवेल्थ देश के नाम से जानते है कमोवेश हर जगह टैगोर के साहित्य को सभी ने जाना। सभी ने पढ़ा । जाहिर है दुनिया भर की कई भाषाओ में टैगोर की कृतियों का प्रकाशन हुआ । लेकिन अप्रैल 1919 में जब जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ तो रविन्द्रनाथ टैगोर ने 31 मई 1919 को वायसराय को खत लिख कर ना सिर्फ जलियावालाकांड को दुनिया की सबसे त्रासदीदायक घटना माना बल्कि ब्रिटिश महारानी के दिये गये सम्मान को भी वापस कर दिया । और जब वह पत्र कोलकत्ता से निकलने वाले स्टेट्समैन ने छापा तो ना सिर्फ भारत में बल्कि दुनियाभर में जलियावाला घटना की तीव्र निंदा भी हुई और टैगोर के फैसले पर दुनियाभर के कलाकार-साहित्यकारों ने अपने अपने तरीके से सलाम किया । तब ब्रिटिश सरकार और दिल्ली में बैठे ब्रिटिश गवर्नमेंट के नुमाइन्दे वायसराय का सिर भी शर्म से झुक गया । और उस वक्त ब्रिटिश सरकार भी यह कहने नही आई कि अगर उसने सर की उपाधि ना दी होती तो कामनवेल्थ देशों में टैगौर को कौन जानता ।

इसलिये सम्मान लौटाना है तो 1915 के बाद दुनियाभर में जिस तरह सर की उपाधि पाने के बाद टैगोर को जो सम्मान मिला उसे वह लौटा दें । या फिर सम्मान लौटाने का जिक्र कर टैगोर महात्मा गांधी की राह पर निकल कर सतही सियासत कर रहे है । क्योंकि टैगोर ने तो सिर्फ एक पत्र लिखा है । तो उस वक्त जो शर्म जो नैतिक दबाब ब्रिटिश गवर्नमेंट तक में आया उस तरह की शर्म या नैतिक दबाब मौजूदा वक्त में भारत के ही सस्थानों साहित्यकार और संपादको में कितना बचा है । यह सवाल इसलिये क्योंकि 6 अक्टूबर को नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी ने जब दादरी कांड और पीएम की चुप्पी के विरोध में साहित्य अकादमी सम्मान वापस करने के एलान किया तो उसके दो दिन बाद ही समाचार पत्र जनसत्ता ने पहले पेज पर अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के हवाले से रिपोर्ट छाप कर साहित्यकारों के सम्मान लौटाने को उस सम्मान से जोड़ दिया जो सम्मान देने के बाद अकादमी ने साहित्यकारों के लिये काम किया । जरा कल्पना कीजिये जनसत्ता जैसे अखबार में बिना कोई सवाल उठाये साहित्य अकादमी के यह बोल छपते है कि , ‘जो नाम और यश उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से मिला, उसे हम कैसे वापस लेंगे ?  ‘ बकायदा अकादमी ने कहा कि सम्मान दिये जाने के बाद इन साहिकत्यकार की किताबों का अकादमी ने दसियो भाषाओ में अनुवाद किया , उसे कैसे वापस लिया जा सकता है । यानी झटके में साहित्य अकादमी ने साहित्यकारों की कृत्तियो से भी खुद को ज्यादा महत्वपूर्ण मान लिया । और चूंकि साहित्य अकादमी के मौजूदा अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कोई नौकरशाह नहीं बल्कि कवि आलोचक है तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या मौजूदा वक्त में साहित्यकार-कवि भी पद पर बैठकर देश के हालातों को देखने के लिये अपने आप में सत्ता बन रहे हैं। क्योंकि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष का कहना अपने आप में कुछ इस तरह का खुला एलान है जिससे लगता है  कि साहित्य अकादमी ना होता या वह साहित्यकारों को सम्मान ना देता तो साहित्यकारो को जो यश मिला है वह न मिलता । और सम्मान या पुरस्कार लौटाने की बात कहना दरअसल साहित्यकार की समाज को लेकर संवेदनशीलता नहीं बल्कि सियासी ताम-झाम है । फिर इससे पहले साहित्यकार उदय प्रकाश  ने भी साहित्य अकादमी के पुस्कार को लौटाने के एलान किया था । और अब मलयाली उपन्यासकार सारा जोसेफ ने भी सम्मान लौटाने का फैसला किया । हालाकि इस कतार में आधा दर्जन कन्नड लेखक है जिन्होने कुलबर्गी की हत्या के बाद कन्नड साहित्य अकादमी का सम्मान लौटाया ।

और इसी कतार में मलयाली कवि के सच्चिदानंदन और लेखक पी के परक्कादावू ने साहित्य अकादमी की सदस्यता छोडने का निर्णय लिया । यानी मौजूदा वक्त में समाज में जो घट रहा है उससे हर तबके में एक चिंता तो जरुर है। क्योंकि कुलबर्गी, दाभोलकर, पंसारे और अखलाख की हत्या के बाद भी राज्यसत्ता का नजरिया सियासत करने और सत्ता पर पकड मजबूत बनाये रखने के लिये अपने अंतर्रविरोध का भी राजनीतिक इस्तेमाल करने का ही रहा है । मुश्किल तो यह है कि साहित्यकार, लेखक, संपादकों की व्यक्तिगत पहल की विरोध के स्वर उठा रही है। लेकिन वह भी बुलबुले की तरह उठ कर दब जा रही है । क्योंकि सरोकार की भाषा हर स्तर पर खत्म कर दी जा रही है । कोई सीधा संवाद किसी भी माध्यम से लेखक–पाठक के बीच बन नहीं पा रहे है । संपादक भी कमरों में कैद है और साहित्यकार भी । पाठक भी कमरों में कैद है और लेखक भी । संस्थानो को लगने लगा है कि वह समाज से बड़े हो चले है । क्योकि समाज कोई समूह तो है नहीं । गिनती में चाहे  दिल्ली की जनसंख्या दो करोड़ हो । और किसी लेखक की कोई एक साहित्यकृत्ति ही लाखों में बिक जाती हो लेकिन उसे पढ़ने वाले अपनी अपनी जगह अकेले ही है ।  ठीक वैसे ही जैसे नयनतारा सहगल हो या अशोक वाजपेयी या उदय प्रकाश अपने साहिकत्यकर्म से तो लाखो पाठको तक पहुंचते हो । लेकिन यह सभी अपने-अपने दायरे में अकेले है । वही किसी भी सरकारी संस्थान के साथ सत्ता होती है । यानी सत्ता के साथ खडे होने का एहसास संस्थान को भी अपने आप में सत्ता बनाने का एहसास जगा देती है । वजह भी यही है कि कोई लेखक जब साहित्य अकादमी की इस सोच पर कलम चलाता है कि अकादमी ने साहित्यकारों को यश और सम्मान किताबों को छाप कर पहुंचाया तो उसकी सोच भी अकदमी को मान्यता देने लगती है क्योकि अकदमी को खुद को सत्ता बना चुकी है । मसलन साहित्य का सुधीश पचौरी की कलम जब एक दूसरे अखबार हिन्दुस्तान में चलती है तो वह साहित्य अकदमी की सोच को सही ठहराते है । अकादमी के अध्यक्ष के बयान को गुगली मान कर उनकी प्रतिभा के कायल हो जाये है। और यह कहने से नहीं सही मानने से नहीं कतराते कि अकादमी लौटाते हो तो उससे प्राप्त कीर्ति भी लौटाओ। और पचौरी जी तो किसी साहित्यकार के विरोध को टीवी चैनलों की बहस या खबरो के बीच रहने के प्रोपगेंडा से आगे मानते भी नहीं है । यानी सवाल सिर्फ समाज के भीतर खिंची जाती लकीर भर का नहीं है बल्कि बदलते नजरिये और संवादहीनता से उभरे खालीपन का भी है । जो हर विचार को प्रचार तंत्र के दायरे में माप कर निर्णय सुनाने की स्थिति पैदा कर रहा है । तो इंतजार किजिये जब टैगोर के विरोध को भी कोई सत्ता ,संस्थान या साहित्यकार यह कहकर खारिज कर देगा कि उन्होने खुद के प्रचार और नाम कमाने के लिये जलियावाला नरंसहार का विरोध किया ।

5 comments:

  1. दादरी कांड और गुलाम अली का कंसर्ट रोके जाने और इस जैसी अन्य घटनाओं का एक छत्र विरोध सह रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आख़िरकार ख़ामोशी तोड़ दी..लेकिन अब भी विपक्ष वार कर रहा है...कितना जायज़ है पीएम मोदी पर इन घटनाओं का दोषारोपण ? लिंक पर क्लिक करें...
    http://subkikhabar.blogspot.com/2015/10/blog-post_14.html

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  2. आप भी लौट दो कुछ मिला हो तो सीजन चल रहा है।

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  3. आप भी लौट दो कुछ मिला हो तो सीजन चल रहा है।

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  4. आप भी लौट दो कुछ मिला हो तो सीजन चल रहा है।

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  5. जो लोग इतिहास को नजरअंदाज करते हैं वो खुद ही इतिहास के पन्नों में अनोखे अंदाज में खो जाया करते हैं..

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