Friday, October 16, 2015
कठघरे में कौन खड़ा है
कलबुर्गी की हत्या कर्नाटक में हुई जहां कांग्रेस की सरकार है। अखलाख की हत्या यूपी में हुई जहां सपा की सरकार है। गुलामअली और कसूरी के कायर्क्रम का विरोध शिवसेना ने किया जो बीजेपी के साथ सत्ता में है। तो
चारों घटनायें तीन अलग अलग राज्यो में हुई और सारे मुद्दे कानून व्यवस्था से जुडे हो तो इसमें केन्द्र सरकार की कोई भूमिका हो भी कैसे सकती है। लेकिन किसी राज्य में कानून व्यवस्था काम ना करे तो केन्द्र सरकार राज्यपाल के जरिये हालात को परखती भी है और राज्य को नोटिस थमा कर चेताता भी है। ध्यान दें तो तीनों राज्यों की इन घटनाओं पर केन्द्र सरकार ने राज्यो को कभी किसी स्तर पर नहीं चेताय़ा। राज्यपाल को रिपोर्ट भेजने तक के लिये नहीं कहा । तो क्या प्रधानमंत्री इस सच को समझ नहीं पाये कि अगर हर घटना के तार कट्टर हिन्दुत्व और कट्टर राष्ट्रवाद से जुड़े हैं और केन्द्र सरकार किसी भी घटना को लेकर संवैधानिक प्रक्रिया के अपना नहीं रही है तो सवाल उसी की भूमिका को लेकर उठेंगे। क्योंकि हर घटना के मर्म को समझे तो एमएम कलबुर्गी ने जून 2014 में अंधविश्वास के खिलाफ बेंगलूर में हुये सेमिनार में हुये हिन्दुओ की मूर्ति पूजा से लेकर नग्न मूर्तियों को लेकर सवाल उठाये। जिसका विरोध विहिप ,बजरंग दल और हिन्दू सेना ने खुलकर किया। और दो महीने बाद ही जब घर में घुसकर कलबुर्गी की हत्या पत्नी की मौजूदगी में करते हुये हत्यारे आराम से निकल गये और आजतक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है तो सवाल उठना वाजिब। लेकिन इसके बावजूद मामले को कानून व्यवस्था के दायरे में देखा गया और कानून व्यवस्था राज्य का मसला है यह कहकर हर स्तर पर खामोशी बरती गई। इतना ही नहीं साहित्य अकादमी ने भी एक विरोध पत्र तक नहीं निकाला जबकि अकादमी उन्हे सम्मनित कर चुकी थी। वहीं अखलाख की हत्या के पीछे गाय का मांस रहा। ध्यान दें तो गो वध का सवाल संघ परिवार ने बार बार उठाया है। और लोकसभा चुनाव से पहले चुनाव प्रचार के दौर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी गुलाबी क्रांति शब्द के जरीये गो वध का सवाल उठाया। यह अलग मसला है कि देश में बीफ का निर्यात बीते साल भर में इतना बढ़ गया कि भारत दुनिया में नंबर एक पर आ गया।
यानी चाहे अनचाहे अखलाख की हत्या, बीफ का सवाल, गो वध के मसले उसी राजनीति से टकराये जिस राजनीति ने कभी मुद्दो के आसरे इस भावना को छुआ। और उसके बाद गुलाम अली और खुर्शीद महमूद कसूरी के कार्यक्रम राष्ट्रवाद का शिकार हुये क्योंकि शिवसेना ने सीमा पर पाकिस्तानी हरकत का जबाब दिया। कमोवेश पाकिस्तान की हर हरकत का जबाब देने की यही सोच बीजेपी की सत्ता में आने से पहले रही है। याद कीजिये पाकिस्तानी नेता मनमोहन सिंह के दौर में दिल्ली आते या अजमेरशरीफ जाते तो बीजेपी के नेता ही पाकिस्तानियों को बिरयानी खिलाने का जिक्र कर सीमा पर मरते जवानों के सवाल उछालते। दो जवान के सिर कटे तो दस जवानो के सिर काटने की बात बीजेपी के नेता ही करते । और सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने इसपर कूटनीतिक तरीके से सोचना शुरु किया। तो शिवसेना खड़ी हो गई। क्योंकि शिवसेना को कूटनीति की नहीं अभी उस राजनीतिक जमीन पर कब्जे की जरुरत है जिसे बीजेपी विकास का नाम लेकर छोड़ रही है। इसीलिये बेहद बारिक राजनीति करते हुये शिवसेना ने नरेन्द्र मोदी को याद भी किया तो गोधरा और अहमदाबाद को लेकर। यानी जिस गोधरा कांड और उसके बाद के दंगों को पीछे छोड मोदी दिल्ली पहुंचे है उसी तस्वीर को शिवसेना जानबूझकर याद कर हिन्दुत्व की साख मोदी के अतीत से जोड़कर अब अपने साथ करना चाहती है। लेकिन सवाल सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी का नहीं है ।
सवाल है बीजेपी के भीतर अभी भी वह तमाम अंतर्विरोध मौजूद है जो विकास पुरुष मोदी के नारे और हिन्दू ऱाष्ट्र के एंजेडे को साथ लेकर चलते हैं। और इनपर कोई रोक नहीं है। ध्यान दीजिये तो कलबुर्गी या दादरी के सामानांतर सामाजिक राजनीतिक तौर पर इन सभी घटनाओं की शुरुआत जहां से हुई उसके पीछे उसी विचारधारा का उफान रहा जिसके पक्ष में बीजेपी के कई नेता रहे है और इन नेताओं को ना तो बीजेपी हाईकमान कभी शांत कर पाया और ना ही संघ परिवार ने कभी कहा कि इनके बोलने से मोदी सरकार की छवि बिगाड़ सकती है। मसलन साध्वी निरंजन ज्योती, योगी आदित्यनाथ,स्वामी साक्षी महराज समेत दर्जनों सांसद और भगवा पहने नेता-मंत्री जब चाहे जो भी बोलते रहे। यानी मुशिकल यह भी रही कि बीजेपी सांसदों तक ने धर्म को राजनीति से जोड़ने में कभी कोई कोताही नहीं बरती । और सांसद होते हुये भी संविधान की मर्यादा से इतर निजी भावनाओं में ही उबाल पैदा किया। साक्षी महराज तो यहां तक कह गये कि गाय हमारी मां है। जो गाय को मारेगा उसे हम भी मारेंगे। जाहिर है यह वक्तव्य किसी की भी भावनाओं को छु सकती है। लेकिन सवाल है कि अगर ऐसा कहने से राजनीतिक मान्यता मिलती है तो फिर राजनीतिक मान्यता पाने का यही तरीका सबसे सरल हो जायेगा। बिना जिम्मेदारी कहना है और जिम्मदारी को जिन मुद्दों से जोड़ना है वह भावनात्मक ज्यादा है । इस रास्ते पर अपने दायरे में अगर संगीत सोम चले तो फिर अपने राजनीतिक दायरे में लालू प्रसाद भी बोले। कि गौ मांस तो हिन्दु भी खाता है। यह कड़ी कितनी भी बड़ी हो सकती है लेकिन ध्यान दें तो हर राजनेता और हर राजनीतिक दल ने अपने अपने दायरे में अपने अपने वक्तव्य चुने। बिहार में जातिय राजनीति के उबाल के लिये धर्म का इस्तेमाल किया गया तो देशभर में धर्म में उबाल के जरीये राजनीति का इस्तेमाल किया गया। इसलिये कौन छद्म धर्मनिरपेक्ष है या कौन सांप्रदायिक। यह सवाल मौजूदा वक्त में कोई भी उछाले वह सियासी राजनीति का हिस्सा माना ही जायेगा । क्योंकि पहली बार देश में जो माहौल बन रहा है उसमें कठघरे से कोई बाहर है यह कठघरे पर सवाल उठाने वाला भी नहीं कह सकता। और कठघरे में खड़े लोग भी बाहर खडे लोगों को कठघरे में खडा करार देने में भी नहीं हिचक रहा है । तो सवाल तीन है । पहला क्या देश में सत्ता परिवर्तन का मतलब विचारधारा परिवर्तन है । दूसरा क्या विचारधाराओ का टकराव इतिहास तक को बदलने पर आमादा है । और तीसरा क्या टकराव की सियासत के सामने पहली बार जनता को लगने लगा है कि वह किस तरफ खड़ी है यह सत्ता जानना चाहती है । और उसे बताना होगा । यानी जीने की लकीर इतनी मोटी और गहरी हो रही है कि विचार हो या खान-पान या फिर सियासत करने के तौर तरीके , हर स्तर पर यह सवाल ही बड़ा हो चला है कि आप सत्ता के साथ है या नहीं । यह सवाल इसलिये क्योकि मोदी सरकार के सबसे प्रभावी मंत्री अरुण जेटली साहित्यकारो के विरोध को कागजी बगावत करार देते है और यह सवाल उठाने से नही कतराते कि इससे पहले कभी साहित्यकारों ने इस तरह सम्मान वापस क्यों नहीं किया । इसका मतलब है कि कांग्रेसी और वाम सत्ता के पोसे साहित्यकार ही सम्मान लौटा रहे है क्योकि मौजूदा वक्त में सत्ता परिवर्तन विचारधारा के बदलाव का भी युग है । क्योंकि जो सवाल अरुण जेटली ने उठाये वह अपनी जगह सही हो सकते है । मसलन 75 में एमरजेन्सी के वक्त सम्मान क्यों नहीं लौटाये गये । 84 के दंगो के वक्त विरोध क्यो नहीं हुआ । 89 के भागलपुर दंगे या 2013 के मुज्जफरनगर दंगों के वक्त विरोध क्यों नहीं हुआ । तो इसका जबाब यह भी हो सकता है कि आपातकाल के वक्त सीपीआई इंदिरा गांधी का समर्थन दे रही थी ।
और जिस शिवसेना के साथ बीजेपी खड़ी है उस शिवसेना के मुखिया बालासाहेब ठाकरे भी आपातकाल को सही ठहरा रहे थे। और तमाम लेखकों को या तो गिरप्तार कर लिया गया था या सभी नजरबंद या भूमिगत हो गये थे। फिर ब्लू स्टार के वक्त इंदिरा गांधी का विरोध करते हुये खुशवंत सिह ने सम्मान लौटाया था। भागलपुर दंगों के तुरंत बाद तो बिहार में काग्रेस की सत्ता ही जनता ने कुछ इस तरह बदली की आजतक कांग्रेस सत्ता में लौट नहीं पायी। मुज्जफरनगर दंगो पर सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को नोटिस थमा दिया। तो समझना यह भी होगा कि साहित्यकारो की आवाज देश में चाहे जितनी कम नजर आती हो लेकिन दुनिया में कमोवेश हर देश के साहित्यकारो का मान-सम्मान है । और साहित्यकारो के नजरिये को कैसे कितना महत्वपूर्ण माना जाता है यह
फैक्फर्त पुस्तक मेले से भी समझा जा सकता है । जहा सलमान रुशदी को आमंत्रित किया गया तो ईरान ने विरोध कर दिया । लेकिन आयोजको ने इरान के विरोध को दरकिनार करते हुये रुशदी को विशेष आंमत्रित श्रेणी में रखा । क्योकि अभिव्यक्ती की आजादी फैंक्फर्त पुस्तक मेले की थीम भी है। तो सवाल यह नहीं है कि देश में सत्ता परिवर्तन के साथ विचारधारा के बदलाव को ही आखरी सच मान लिया जाये । सवाल यह है कि कलबुर्गी भी देश के नागरिक थे और अखलाख भी और सम्मान लौटाते साहित्यकार भी देश के नागरिक है और राजनीतिक सत्ता में ही जब सारी ताकत सिमटी हुई है तो फिर हर नागरिक के एहसास को समझना भी राजनीतिक सत्ता का ही काम है ।
पुण्यजी, हम आपकी रिपोर्टिंग काफी समय से देखते आ रहे हैं. शायद मेरी बुद्धि उतनी तेज़ नहीं है की मैं सही आकलन कर सकूँ लेकिन फिर भी मेरा निष्कर्ष है की आप अपने पाठकों को स्पष्ट शब्दों में बताने की बजाय गोल गोल घुमाते हैं. ख़त्म करते 2 वो उलझा ही महसूस करता है.
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ReplyDeleteAgar main kuch bhi galat likh diya jiske karan aapko comment remive karna pada to i am REALLY SORRY
DeleteAgar main kuch bhi galat likh diya jiske karan aapko comment remive karna pada to i am REALLY SORRY
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ReplyDelete@Tapasvi Bhardwaj There is no filter on this blog and you can make comment easily.
ReplyDeleteतपस्वी जी , आपका कामेंट आपकी तकनीकी वजहो से नहीं आया होगा । हमने न कोई फिल्टर लगाया है न कोई एडिटर । आप अपना कामेंट फिर भेज कर देखे ।
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