यादें बेहद धूमिल है...कैसे जिक्र सिर्फ इंदिरा गांधी का होता था। कैसे नेताओं की गिरप्तारी की जानकारी अखबारों से नहीं लोगो की आपसी बातचीत से पता चलती थी । कैसे दफ्तरो के बाबू टाइम पर आने लगे थे । बसें वक्त पर चल रही थी । रेलगाडियां लेट नहीं हो रही थी । स्कूलो में टीचर भी क्लास में वक्त पर पहुंचते। जिन्दगी अपनी रफ्तार से हर किसी की चल रही थी । फिर इमरजेन्सी का मतलब या खौफजदा होने की वजह क्या है. ये सवाल उस दौर में हमेशा मेरे जहन में बना रहा। यादें धूमिल हैं लेकिन याद तो आता है कि गाहे-बगाहे कभी छुट्टी के दिन घर में पिता जी के मित्रों की चर्चा का जमावडा होता तो जिक्र इमरजेन्सी या इंदिरा गांधी के साथ साथ जेपी का भी होता । पांचवी-छठी क्लास में पढने के उस दौर की यादे सहेज कर रखना मेरे लिये इसलिये आसान था क्योंकि पिताजी का तबादला दिल्ली से बिहार होने की वजह इमरजेन्सी का लगना और जेपी के बिहार में होना ही था। और इसका जिक्र इतनी बार घर में हुआ कि मैं शुरु में सिर्फ इतना ही जान पाया कि1975 में दिल्ली छूट रहा है और रांची जा रहे हैं तो वजह इमरजेन्सी है ।
खैर ये अलग यादें हैं कि उस वक्त रेडियो का बुलेटिन ही कितना महत्वपूर्ण होता था ...और कैसे रांची में शाम 6 बजकर बीस मिनट का प्रादेशिक बुलेटिन शुरु करने के बाद पटना में साढ़े सात बजे के बुलेटिन के लिये पिताजी को जाना पड़ा और पूरा परिवार ही इमरजेन्सी में दिल्ली से रांची फिर पटना घूमता रहा । लेकिन आज संदर्भ इसलिये याद आ रहा है क्योंकि बीते कई महीनों से मुझे बार बार लग रहा है कि जो भी पढ़ाई की, या जिस वातावरण को जीते हुये हम स्कूल-कॉलेज से होते हुये पत्रकारिता के दौर को जीते हुये चर्चा करते रहे ...सबकुछ अचानक गायब हो गया है । पटना के बीएन कालेज में राजनीतिशास्त्र पढ़ते-पढ़ते हम कई मित्र छात्र देश के संविधान को ही नये सिरे से लिखने की बात तक करते । बकायदा जीने के अधिकार का जिक्र कर कैसे उसे लागू किया जाना चाहिये चर्चा बाखूबी होती । हिन्दी के शिक्षक गांधी मैदान के किनारे एलीफिस्टन सिनेमा हाल के मुहाने पर चाय की दुकान में नीबू की चाय की चुस्कियों में बता देते कि वसंत का मौसम हम युवाओं को जीने नहीं देता क्योंकि सारी परीक्षा वसंत में ही होती है । पटना साइंस कालेज के फिसड्डी छात्रों में होने के बावजूद जातिय राजनीति का ज्ञान पटना यूनिवर्सिटी में एक के बाद एक कर कई हत्याओं ने 1983 में ही समझा दिया था । और नागपुर में पत्रकारिता करते हुये दलित -संघ - नक्सलवाद को बाखूबी समझने के लिये उस वातावरण को जीया । यानी पत्रकारिता के आयाम या कहे उसका कैनवास इतनी विस्तृत था कि किसी खाके में किसी ने 1989 से 1995 तक बांटने की या कहे रखने की कोशिश नहीं की । जबकि उस वक्त के सरसंघचालक बालासाहेब देवरस के साथ सैकड़ों बार बैठना हुआ । उस वक्त दलित राजनीति के केन्द्र में नागपुर के रिपब्लिकन नेताओं के साथ कई कई दिन गुजारे। म्हारों की बस्ती में जा कर रहा । उनके बीच से दलित रंगभूमि को खड़ा किया । तब के नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रूप के सर्वेसर्वा सीतारमैया से तेलगांना के जंगलों में जा कर मुलाकात की । और नागपुर में रहते हुये पत्रकारिता का एैसा अंदाज था कि क्या मुंब्ई क्या दिल्ली या क्या लंदन । देश दुनिया से कोई भी पत्रकार या रिसर्च स्कॉलर नागपुर पहुंचा तो या तो वह हमारी चौखट पर जानकारी के लिये या फिर हम जानकारी
हासिल करने के लिये उसकी चौखट पर। याद नहीं आता इंदिरा गांधी के इमरजेन्सी के दौर को छोडकर कभी कोई प्रधानमंत्री बहस - चर्चा में आया । जेएनयू में रहते हुये मुनिस रजा तो शैक्सपियर और किट्स के जरीये क्लासिकल अंग्रेजी साहित्य को छात्रों के साथ शाम में घूमते-टहलते हुये बकायदा जीते । छात्र भी जीते । आगवानी साहेब तो जेएनयू की खूबसूरती तले पर्यावरण का जिक्र अक्सर करते । यूं हाल में रहे बीबी भट्टाचार्य भी सिर्फ देश ही नहीं बल्कि इंटरनेशनल इक्नामी पर चर्चा कर सामाजिक-राजनीतिक पहलुओं का जिक्र नई नई किताब या किसी रिसर्च पेपर के बताकर करते । फणीश्वरनाथ रेणु की दिनमान की पत्रकारिता । अज्ञेय का पेड़ पर घर बनाकर रहना । और उनकी मुश्किल हिन्दी । मुक्तीबोध के चांद के मुंह ढेडा । या फिर पाश का सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना । या फिर प्रेमचंद की ही दलित पत्रकारिता को लेकर बहस । कह सकते है सवाल और समझ जितने दायरे में घूमते रहे उस दायरे में गुरुदत की प्यासा भी रेंगी और घडकन बढाने वाली "ब्लेम इट आन रियो" भी
।
मधुबाला की खूबसूरती से लेकर वहीदा का अंदाज और डिंपल का जादू भी चर्चा में शरीक रहा । रेखा-अमिताभ की जोड़ी के रोमानीपन तले विवाह के बंधन पर चर्चा हुई । मीना-कुमारी के इश्क और शराब में भी गोते लगाये । लेकिन कभी कुछ ठहरा नहीं । स्कूल कालेज या पत्रकारिता करते हुये समाज के हर क्षेत्र में घुमावड़ा। थमा कुछ भी नहीं। अंडरवर्ल्ड को जानने समझते बंबई भी पहंचे। भाई ठाकुर से भी मिले । उसके ज्ञान पर रश्क भी हुआ। और 1989 में शिवसेना की सामना के शुरुआत वाले दिन पत्रकारों की टोली के साथ गोवा से लौटते हुये बंबई में बालासाहेब ठाकरे से मुलाकात के मोह में रुक भी गये । और ठाकरे की ठसक को छत पर बीयर के साथ तौला भी । और लौटते वक्त फैज की नज्म ...जख्म मिलता रहा ..जख्म पीते रहे ...हम भी जीते रहे...को भी बखूबी गुनगुनाया । एसपी सिंह की पत्रकारिता को सलाम करते हुये अपने ही अखबार के मालिक के खिलाफ खडे होकर एसपी को सहयोग करते रहे । प्रभाष जोशी की पत्रकारिता के अंदाज को बखूबी जीते हुये अपने जन्मदिन वाले दिन संपादकीय पन्ने पर उस लेख को छापने की मांग रख दी जो बताता था,,,क्यों नहीं हो पा रहा है व्यवस्था परिवर्तन और 18 मार्च को बकायदा लेख छा पर प्रभाष जी का फोन लोकमत के संपादक को आया....बता देना आज छप गया है....क्यों नहीं हो पा रहा है व्यवस्था परिवर्तन...जन्मदिन की बधाई भी दे देना । और कहना कि जरा बाबरी मस्जिद को ढहाने वालों पर भी लेख लिखे..नागपुर में है तो दिल्ली का कुछ भला करे। यानी चर्चा बहस हर बात को लेकर ।
हालात तो इतने खुले हुये कि...6 दिसबंर 1992 का बाद देश में माहौल जो भी हो..लेकिन कहीं गोली नहीं चली..कोई मरा नहीं...मगर नागपुर के मोमिनपुरा में विरोध रैली सडक पर ना आ जाये तो तबके कमीश्नर ईनामदार ने गोली चलवा दी....12 लोग मारे गये ...मरने वालो में संयोग से वह लड़का भी जो चार दिन बाद दिलीप कुमार को मुशायरे में बुलवाने के लिये आमंत्रण देकर स्वीकृति लेकर नागपुर पहुंचा था । और मुशायरा रद्द हुआ तो ...आग्रह पर दिलीप कुमार ने भी खासकर अखबार में छापने के लिये पत्र लिखा...हालात पर लिखा और शायरी के अंदाज में मुश्यरा दिलों में जगाये रखने की तमन्ना भी जाहिर की । 10 या 11 दिसंबर 1992 को दिलीप कुमार का पत्र छपा भी । नागपुर यूनिर्वसिटी के पालेटिकल साइस के प्रोफेसर राणाडे ने घर बुलाकर चाय पिलाई । चर्चा की । चर्चा तो खूब होती रही । जब राहुल गांधी ने मनमोहन सिंह की इक्नामिक पालेसी पर अंगुली उठाई तब फिल्म दीवार के दृश्य ...मंदिर से निकल कर दो अलग अलग रास्तों पर जाते अमिताभ बच्चन और शशि कपूर की तर्ज पर मनमोहन सिंह और राहुल गांधी का जिक्र किया ...और भास्कर ने लेख छापा तो पीएमओ को अच्छा नहीं लगा । लेकिन पीएमओ का अंदाज भी चर्चा वाला ही रहा । क्या होना चाहिये ...पीएमओ बाहर से देखने में कितना अमानवीय है, इस पर भी खुल कर चर्चा की । मनमोहन सिंह के दौर में घोटाले दर घोटालों का जिक्र भी रिपोर्टो के जरीये खूब किया । कोयला से लेकर टू-जी । राडिया टेप से लेकर कलमाडी । खूब लिखा । सत्ता की एडवाइरी को भी देखा-सुना परखा । सत्ता की हेकडी को भी देखा । वाजपेयी की सादगी में मनमोहन सिंह को खोजना मूर्खता लगा। तो सत्ता की चौखट पर खडे होकर कहने से भी नहीं चूके । नागपुर से ए बी वर्धन की यारी जारी रही तो 2004 में इक्नामिस्ट मनमोहन की इक्नामिक पॉलिसी तले खडे होकर बर्धन ने जब एलान किया.....डिसइन्वेस्टमेंट को बंगाल की खाडी में डूबो देना चाहिये...फिर फोन कर पूछा ..समुद्र इतना गहरा होता कि उसमें से डिसइन्वेस्टमेंट वापस तो नहीं निकलेगा । और ठहाके के अंदाज में सत्ता को भी बिना लाल बत्ती जी लिया। यही खुलापन लगातार खोज रहा हूं..सोच रहा हूं कोई जिक्र किसी गजल का कोई क्यों नहीं कर रहा.....क्या वह आखिरी पाश था जो कलाई में बंधी खडी के कांटे को घूमते हुये ठहरा मान चुका था । आखिर साहित्य--संगीत पर देश में बात क्यों नहीं हो रही है । क्यों घर में जुटे चार दोस्त भी पकौडी-चाय पर ठहाके लगाते सुनाई दिखायी नहीं दे रहे हैं । क्यों खुफिया तरीके से कोई फोन कर बताता है ,,,बंधुवर प्रेमचंद की गोदान अब सिलेबस से बाहर कर दी गई है । क्यों मीडिया संस्धानों में जिन्दगी पर चर्चा नहीं हो पा रही है । क्यों सरकारी दफ्तरों में घुसते ही एक तरह की मुर्दानगी दिखायी दे रही है । ऐसा क्यो लग रहा है कि हर किसी ने लक्ष्य निर्धारित कर लिये है और उसे पाने में जुटा है । जैसे गुरुग्राम में सात बरस के प्रघुम्न की हत्या पर कंडक्टर को गिरफ्तार कर पुलिस सबूत जुटाने में जुटी । तो फिर देश भी चुनाव दर चुनाव जीतने के लिये माहौल बनाने के लिये ही काम करेगा । सत्ता हो या विपक्ष । और इस माहौल में जनता भी तो पहले ही तय कर रही है उसे किससे चाहिये । क्या चाहिये । देने वाले के सामने भी लक्ष्य है । और उसी आसरे वह भी तय कर रहा है किसे कितना देना है । तो फिर याद किजिये पंचतंत्र की कहा यो को । पंचतंत्र जो दुनिया के हर भाषा में अनुवादित है । और उसे दो हजार बरस पहले विष्णु शर्मा ने उस राजा के कहने पर लिखा । जिसके बच्चे बिगडे हुये थे । और वन में रह कर तपस्या कर रहे विष्णु शर्मा की तरफ भी राजा का ध्यान इसलिये गया क्योकि वह भोग-उपभोग से दूर वन में तपस्या कर रहे थे । यानी तब राजा भी जानते थे कि ज्ञान उसी के पास होगा जिसे कुछ चाहिये नहीं । यानी 2019 का लक्ष्य रखकर कौन का काम होगा और कौन सा ज्ञान किसके पास होगा । मुक्त हो कर जीने का मजा देखिये । ..जख्म मिलता रहा / जख्म पीते रहे / जख्म जब भी कोई जहन-ओ-दिल को मिला / जिन्दगी की तरफ एक दरीचा खुला / जिन्दगी हमें रोज आजमाती रही / हम भी उसे रोज आजमाते रहे....
दिल को छु लिया इस लेख ने सर बचपन,लडकपन सब खत्म हो गया इस दौर मे क्योकि हर किसी को दौड़ने मे मजा आ रहा है पैसे के पीछे ,भोग और विलास की जिंदगी के पीछे ।
ReplyDeleteआपने आधी सदी को समेट दिया एक लेख में। सब कुछ टारगेट ओरिएंटेड होता जा रहा है। इंसान केंद्र में नहीं है, वह भी निमित्त मात्र है, मुद्दा तो सत्ता हासिल करना है।
ReplyDeleteआपने आधी सदी को समेट दिया एक लेख में। सब कुछ टारगेट ओरिएंटेड होता जा रहा है। इंसान केंद्र में नहीं है, वह भी निमित्त मात्र है, मुद्दा तो सत्ता हासिल करना है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख रोचक तथ्य पर गहन मंथन
ReplyDeleteलाजवाब, एक लेख में आधी सदी को समेटना .......यहां सब को सत्ता चाहिए, हर चीज़ हासिल करने की होड़ में इंसान ज्ञान से कोसो दूर होता जा रहा है।नैतिक शिक्षा ही नही हो रही तो कोई नैतिक ज़िम्मेदारी कौन निभाएगा। सिर्फ दूसरों पर आक्रमण करने के लिए नैतिक शब्द का उपयोग किया जा रहा है।
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