Wednesday, October 31, 2018

आज मीडियाकर्मी की मौत को भुला दिया गया कल मीडिया को भुला देंगे

दूरदर्शन के कैमरामैन अच्यूतानंद साहू की मौत की खबर मंगलवार को सुबह ही मिली । सोशल मीडिया पर किसी ने जानकारी दी थी । जैसे ही जानकारी मिली तुरंत और जानकारी पाने की इच्छा हुई । टीवी खोल न्यूज चैनलों को देखने लगा । पर देश के राष्ट्रीय न्यूज चैनलो में कही भी खबर चल नहीं रही थी। घंटे भर बाद तीन राष्ट्रीय चैनलो ने अपने संवाददाता से फोन-इन कर जानकारी ली। और सामान्यत तमाम रिपोर्टर जो फोन के जरीये जानकारी दे रहे थे वह रायपुर  में थे। तो उनके पास भी उतनी ही जानकारी थी जो सोशल मीडिया में रेंग रही थी। बाकी तमाम हिन्दी - अग्रेजी के न्यूज चैनलों में सिर्फ टिकर यानी स्क्रीन के नीचे चलने वाली पट्टी पर ही ये जानकारी चल रही थी कि छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने डीडी के एक कैमरामैन को मार दिया है । कुछ जगहों पर दो  जवान के साथ कैमरामैन के भी शहीद होने की खबर पट्टी के तौर पर ही चल रही थी। हालांकि, इस भीड़ में कुछ संवेदनशीलता दूरदर्शन ने अपने  कैमरामैन-पत्रकार के प्रति दिखायी। और दोपहर में करीब 12-1 के बीच कैमरामैन के बारे में पूरी जानकारी बतायी। कैमरामैन ने दंतेवाडा में रिपोर्टिग के वक्त जो सेल्फी आदिवासी इलाके में ली या कहें आदिवासी बच्चों के साथ ली, उसे शेयर किया गया। और हर सेल्फी में जिस तरह कैमरामैन अच्यूतानंद साहू के चेहरे पर एक खास तरह की बाल-चमक थी, वह बरबस शहरी मिजाज में जीने वाली पत्रकारों से उन्हें अलग भी कर रही थी।

अच्युतानंद  खुद आदिवासी इलाके के रहने वाले थे। पर तमाम न्यूज चैनलों के बाद जो जानकारी निकल कर आयी वह सिर्फ इतनी ही थी कि डीडी के कैमरामैन अच्यूतानंद  की मौत नक्सली हमले में हो गई है। छत्तीसगढ के नक्सल प्रभावित इलाके में चुनाव की रिपोर्टिग करते हुये उनकी मौत हो गई। दंतेवाडा इलाके में नक्सलियो ने सुरक्षाकर्मियों की टोली पर घात लगाकर हमला किया । हमले की जद  में कैमरामैन भी आये और अस्पताल पहुंचने से पहले उनकी मौत हो गई। कैमरामैन की मौत की इतनी जानकारी के बाद आज सुबह जब मैंने छत्तीसगढ से  निकलने वाले अखबारो को नेट पर देखा तो कैमरामैन की मौत अखबार के पन्नों में कुछ इस तरह गुम दिखायी दी कि जबतक खबर खोजने की इच्छा ना हो तबतक वह खबर आपको दिखायी नहीं देगी। वैसे दो अखबारो ने प्रमुखता से छापा जरुर पर वह सारे सवाल जो किसी पत्रकार की  रिपोर्टिग के वक्त हत्या के बाद उभरने चाहिये वह भी गायब मिले। और ये सोचने पर मै भी विवश हुआ कि आखिर वह कौन से हालात हैं, जब पत्रकार या मीडिया ही अपने ही प्रोफेशन के कर्मचारी की मौत पर इतना संवेदनहीन हो चला है। या फिर पत्रकारिता की दुनिया या मीडिया का मर्म ही बदल चुका है। और इसे कई खांचो में बांट कर समझने की जरुरत है। क्योंकि पहली सोच तो यही कहती है कि अगर किसी राष्ट्रीय निजी न्यूज चैनल का कोई कैमरामैन इस तरह नक्सली हमले में मारा जाता तो वह चैनल हंगामा खड़ा कर देता। इतना शोर होता कि राज्य के सीएम से लेकर देश के गृहमंत्री तक को बयान देना पड़ता। प्रधानमंत्री भी ट्वीट करते। और सूचना प्रसारण मंत्री भी रिपोर्टिग के वक्त के नियम कायदे की बात करते। यानी देश जान जाता कि एक कैमरामैन की मौत नक्सली इलाके में रिपोर्टिग करते हुये हुई । और हो सकता है कि राज्य में विधानसभा चुनाव चल रहे है तो रमन
सरकार की असफलता के तौर पर विपक्ष इसे राजनीतिक मुद्दा बनाता । वैसे कुछ पत्रकार जो निजी न्यूज चैनलों में काम करते है वह ये भी महसूस करते है कि हो सकता है इस तरह रिपोर्टिग करते हुये कैमरामैन की मौत की खबर को उभारा ही नहीं जाता । क्योंकि इससे सरकार के सामने कुछ मुश्किले खडी हो जाती और
हो सकता है कि नक्सल प्रभावित इलाके में सुरक्षा से लैस हुये बगैर जाने को लेकर कैमरामैन को ही कटघरे में खडा कर दिया जाता और मौत आई गई हो जाती ।

लेकिन इन तमाम परिस्थितियो के बीच क्या ये सच नहीं है कि मीडिया जिस तरह असल खबरो को लेकर संवेदनहीन हो चला है या फिर जिस तरह मीडिया सिर्फ सत्ता की चापलुसी से जुडी खबरो में जा खोया है और ग्राउंड रिपोटिंग ही बंद हो चुकी है यानी किसी आम नागरिक के क्या दर्द है। जमीनी हालात और सरकारी एलान के बीच कितनी चौडी खाई है । जिन मुश्किल हालातों के बीच देश का एक आम नागरिक खास तौर से ग्रामीण क्षेत्र में जी रहा है, उससे दूर सकारात्मक होकर मीडिया सरकारी चकाचौंध में अगर खोया हुआ है तो फिर उसकी अपनी मौत जिस दिन होगी वह भी ना ता खबर बनेगी और ना ही उस तरफ ध्यान जायेगा। क्या ऐसे हालात बन नहीं रहे है ? ये सवाल हमारा खुद से है। क्योंकि किसी भी खबर को रिपोर्ट करते वक्त कोई भी पत्रकार और अगर न्यूज चैनल का हो तो कोई भी कैमरामैन जिस मनोस्थिति से गुजरता है वही उसकी जिन्दगी का सच होता है। ये संभव ही नहीं है कि दंतेवाड़ा में जाकर वहां के सामाजिक-आर्थिक हालातो से पत्रकार अपनी रिपोर्ट को ना जोड़े। मारे गये कैमरामैन अच्यूतानंद साहू की मौत से पहले ली गई सेल्फी बताती है कि वह सुरक्षाकर्मियों के बीच सेल्फी नहीं ले रहा था बल्कि ग्रामीण जीवन के बीच  हंसते-मुसकुराते बच्चों के बीच सेल्फी ले रहा था । घास-फूस की झोपडियों के बीच अपने होने के एहसास को जी रहा था । यानी दिल्ली में रहते हुये भी कहीं ना कहीं कोई भी पत्रकार जब ग्रामीण इलाकों में पहुचता है तो उसके अपने जीवन के एहसास जागते है और शायद दिल्ली सरीखे जीवन को लेकर उसके भीतर कश्मकश चली है। और पत्रकारों के यही वह हालात है जो सरकार की नीतियों को लेकर क्रिटिकल होते हैं। क्योंकि एक तरफ रेशमी नगर दिल्ली के एलानों के बीच उसे बार बार क्रंकीट की वह खुरदुरी जमीन दिखायी देती है जो सत्ता की नाक तले देश की त्रासदी होती है पर दिल्ली हमेशा उस तरफ से आंखें मूंद लेती हैं।  और न्यूज चैनलों में तो कैमरामैन कितना संवेदनशील हो जाता है ये मैने पांच बरस पहले इसी छत्तीसगढ और महाराष्ट्र-तेलगाना की सीमा पर रिपोर्टिंग करते  हुये देखा। जब रात के दस बजे हमे हमारे सोर्स ने कहा कि नक्सल प्रभावित इलाको को समझना है तो रात में सफर करें। और तमाम खतरो के बीच मेरे साथ गये आजतक के कैमरामैन संजय चौधरी मेरे पीछे लग गये कि हम रात में जरुर चलेंगे। और समूची रात महाराष्ट्र के चन्द्रपर से निकल कर तेलंगाना होते हुये हम उस जगह पर पहुंचे जहा दो सौ मीटर के दायरे में तीन राज्यों की सीमा [ तेलगाना-उडीसा-छत्तीसगढ़ ] लगती थी । और कंघे पर बंदूक लटकाये नकसलियों की आवाजाही एक राज्य से दूसरे राज्य में कितनी आसान है और सुरक्षाकर्मियों का अपने राज्य की सीमा को पार करना कितना मुस्किल है, ये सब सुबह चार से पांच बजे के बीज हमने आंखों से देखा। रिपोर्ट फाइल की ।

और वापस दिल्ली लौटते वक्त कैमरामैन संजय चौधरी का कहना था ये सब दिल्ली को कहां दिखायी देता है। प्रसून जी आप ऐसा जगहो पर ही रिपोर्टिंग करने जाइये तो मुझे साथ लीजिये। दिल्ली में तो कोई काम होता नहीं है। हो सकता है डीडी के कैमरामैन अच्यूतानंद साहू के जहन में भी रिपोर्टिग को लेकर कोई ऐसी ही सोच रही हो। लेकिन इस सोच से इतर अब का संकट दूसरा है। क्योंकि न्यूज चैनलों का दायरा दिल्ली या महानगर या फिर प्रधानमंत्री खुद या उनकी नीतियों के एलान वाले इलाके से आगे जाती नहीं है । और मीडिया जिस तरह अपनी रिपोर्ट के आसरे ही देश से जिस तरह कट चुका है उसमें वाकई ये सवाल है कि आखिर एक पत्रकार-कैमरामैन की मौत कैसे खबर बन सकती है । जबतक उसपर सत्ता सरकार मंत्री की नजर ना जाये । और नजर जानी चाहिये इसके लिये मीडिया में रीढ बची नहीं या फिर सत्ता के मुनाफे के माडल में मीडिया की ये रिपोर्टिग फिट बैठती नहीं है ।

दरअसल संकट इतना भर नहीं है कि आज डीडी के कैमरा मैन अच्यूतानंद साहू की मौत की खबर कही दिखायी नहीं दी । संकट तो ये है कि न्यूज चैनलो पर रेगतें बर भी सरोकार से दूर हो चले है । मुनाफे के दायरे में या सत्ता से डर के दायरे में जिस तरह न्यूज चैनलो पर खबरो को परोसा जा रहा है उसमें शुरु में आप एक दो दिन और फिर हफ्ते भर और उसके बाद महीनो भर न्यूज चैनल नहीं देखेगें तो भी आप खुद को देश से जुडे हुये ही पायेगें । या फिर कोई खबर आप तक नहीं पहुंची ऐसा आप महसूस ही नहीं कर पायेंगे। तो अगला सवाल मीडियाकर्मियों या मीडिया संस्थानों को चलाने वालो के जहन में आना तो चाहिये कि वह एक ऐसे इक्नामिक माडल को अपना रहे है या अपना चुके हैं जिसमें खबरो को परोस कर अपने प्रोडक्ट को जनता से जोडना या जनता को अपने प्रोडक्ट से जोडने का बच ही नहीं रहा है। यानी सकारात्मक खबरों का मतलब रेशमी नगर दिल्ली की वाहवाही कैसे हो सकती है। जब देश के हालात बद से बदतर हो चले हैं तब मीडिया मनोरंजन कर कितने दिन टिक पायेगा । खबरो की छौक लगाकर कुछ दिन नागरिको को ठगा तो जा सकता है लेकिन ठगने के आगे का सवाल तो लोकतंत्र के उस खतरे का भी है जिसका चौथा स्तम्भ मीडिया को कहने में हमे गुरेज नहीं होता । और अगर मीडिया ही खुद को मुनाफे के के लिये ध्वस्त करने पर आमादा है तो फिर सत्ता को ही समझना होगा कि सत्ता के लिये उसका राजनीतिक प्रयोग [ सारे मीडिया उसका गुणगान करें ] आने वाले वक्त में सत्ता की जरुरत उसकी महत्ता को भी नागरिको के जहन से मिटा देगा । यानी धीरे धीरे तमाम संस्थान । फिर गांव । उसके बाद आम नागरिक । फिर चौथा स्तम्भ मायने नहीं रखेगा तो एक वक्त के बाद चुनाव भी बेमानी हो जायेंगे । सचेत रहिये । संवेदनशील रहिये । धीरे धीरे आप भी मर रहे हैं।

Tuesday, October 30, 2018

चुनाव...सत्ता ...लूट के लोकतंत्र का सच है भूख और गरीबी

अगर लोकतंत्र का मतलब चुनाव है तो फिर गरीबी का मतलब चुनावी वादा होगा ही। अगर लोकतंत्र का मतलब सत्ता की लूट है तो फिर नागरिकों के पेट का निवाला छिन कर लोकतंत्र के रईस होने का राग होगा ही। और इसे समझने के लिये 2019 में आजाद होने का इंतजार करने की जरुरत नहीं है। सिर्फ जमीनी सच को समझना होगा, जिसे मोदी सरकार भी जानती है और दुनिया के 195 देश भी  जानते हैं, जो संयुक्त राष्ट्र के सदस्य है । यानी दुनिया भारत को बाजार इसलिये मानती है क्योंकि यहां की सत्ता कमीशन पर देश के खनिज संसाधनों की  लूट के लिये तैयार रहती है। सोशल इंडेक्स में भारत इतना नीचे है कि विकसित देशो का रिजेक्टेड माल भारत में खप जाता है। और भारत का बाजार इतना विकसित है कि दुनिय़ा के विकसित देश जिन दवाइयों तक को जानलेवा मान कर अपने देश में बेचने पर पाबंदी लगा देते है, वह जानलेवा दवाई भी भारत के बाजार में खप जाती है। यानी कमाल का लोकतंत्र है, क्योंकि एक तरफ विकसित देसो की तर्ज पर सत्ता, कारोपरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी काम करने लगती हैं तो दूसरी तरफ नागरिकों के हक में आने वाले खनिज संसाधनों की लूट-उपभोग के बाद जो बचा खुचा गरीबों को बांटा जाता वह कल्याणकारी योजना का प्रतीक बना दिया जाता है।

और इस तरह की व्यवस्था पर किसका हक रहे  इसके लिये चुनाव है, जिस पर काबिज होने के लिये लूटतंत्र का रुपया ही लुटाया जाता है। पर लूटतंत्र के इस लोकतंत्र की जमीन के हालात क्या है इसे समझने के लिये देश के उन्हीं तीन राज्यों को ही परख लें, जहां चुनाव में देश के दो राष्ट्रीय राजनीतिक दल आमने सामने है। और सत्ताधारी बीजेपी के तो पौ बारह हैं, क्योंकि तीनो राज्य में उसी की सरकार है। और खासतौर से मोदी-अमित शाह से लेकर संघ परिवार को गर्व है कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान सरीखा राज तो किसी का नहीं है। जो खुद को किसान कहते हैं। तो हिन्दु राग भी अलाप लेते हैं। जो स्वयंसेवकों का भी ख्याल रखते हैं और मध्यप्रदेश के तमाम जिलों में नौकरी दिये हुये हैं। पर इस हकीकत पर कोई नहीं बोलता कि मध्यप्रदेश के चालीस फिसदी लोग बहुआयामी गरीबी इंडेक्स के दायरे में आते हैं। यानी सवाल सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे भर का नहीं है। बल्कि कुपोषित होने, बीमार होने, भूखे रहकर जीने के हालात में चालीस फीसदी मध्यप्रदेश है। और ये बात यूएनडीपी यानी संयुक्त राष्ट्र डेवलपमेंट कार्यक्रम चलाने वाली संस्था कहती है। और इसी यूएनडीपी की रिपोर्ट के आधार पर भारत को आर्थिक मदद मिल जाती है। लेकिन मदद का रास्ता भी चूंकि दिल्ली से होकर गरीब तक जाता है तो वह गरीबी को रोटी की एवज में सत्ता का चुनावी मैनिफेस्टो दिखाता है। वोट मांगता है। और बावजूद इन सबके गरीबों की हालत में कोई सुधार होता नहीं यानी ये भी सवाल है कि क्या दुनिया भर से गरीब भारत के लिये जो अलग अलग कार्यक्रमों के जरीये मदद दी जाती है वह भी कही राजनीतिक सत्ता तो नहीं हड़प लेती। या सत्ता कई मिजाज में होती है। केन्द्र या राज्य की सत्ता को भी इस धन को हड़पने के लिये कई कल्याणकारी संस्थाओ की जरुरत होती है।

तो गरीबी या गरीबों के लिये काम करने वाली भी विदेशी मदद के रुपयों को हड़पने में सत्ता का साथ देती है या ये कहे कि सत्ता उन्ही संस्थानों को ही मान्यता देती है या धन देती है जो रुपयों को हडपने में राजनीतिक सत्ता के साथ खड़े रहें। तो ऐसे में जिस मध्य प्रदेश में देश की सत्ता पर काबिज होने के लिये अरबों रुपये प्रचार प्रसार में लुटाये जा रहे हैं। चार्टेड और हेलीकाप्टर से आसमान में उडते हुये नेता कुलाचे मार रहे हैं। सही झूठ सबकुछ परोस रहे हैं। उस आसमान से जमीन कितनी और कहा की दिखायी देती होगी, क्योंकि दुनिया के मानचित्र में साउथ अफ्रिका का देश नबीबिया एक ऐसा देश है, जहां सबसे ज्यादा भूख है। और कल्पना कीजिये यूएनडीपी की रिपोर्ट कहती है कि नामीबिया का एमपीआई यानी मल्टीनेशनल पोवर्टी इंडेक्स यानी बहुआयामी गरीबी स्तर 0.181 है । और मध्यप्रदेश का भी लेबल 0.181 है। यानी जिस अवस्था में नामीबिया है उसी अवस्था में मध्यप्रदेश है। तो भारत की इक्नामी को लेकर उसके विकसित होने को लेकर जो झूठ फरेब नागरिकों को सत्ता ही बताती है उसका सच कितना त्रासदी दायक है ये इससे भी समझा जा सकता है कि 2015 में जब प्रधानमंत्री मोदी बिहार चुनाव में प्रचार करने पहुचे तो उन्होंने भाषण दिया-मध्य प्रदेश और राजस्थान अब बीमारु राज्य नहीं रहे। और बिहार को बीमारु से उबरने के लिये बीजेपी की जरुरत है। पर सच सिर्फ मध्यप्रदेश का ही त्रासदी दायक नहीं है बल्कि राजस्थान की पहचान दुनिया के दूसरे सबसे बीमार देश ग्वाटेमाला सरीखी है। यूएनडीपी रिपोर्ट के मुताबिक ग्वाटेमाला का एमपीआई 0.143 है और यही इंडेक्स राजस्थान का भी है। और धान का कटोरा कहे जाने वाला छत्तीसगढ़ भी कोई विकसित नहीं हो चला है, जैसा दावा दशक से सत्ता में रहे रमन सिंह करते हैं। गरीबी को लेकर जो रेखा जिम्बाव्वे की है, वही रेखा छत्तीसगढ़ की है। यानी रईस राजनीतिक लोकतंत्र की छांव में अलग अलग प्रांतों में कैसे कैसे देश पनप रहे हैं या दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे या गरीब देश सरीखे हालात है लेकिन सत्ता हमेशा रईस होती है। और रईसी का मतलब कैसे नागरिकों को ही गुलाम बनाकर सत्ता पाने के तौर तरीके अपनाये जाते है, ये नागरिको की आर्थिक सामाजिक हालातों से समझा जा सकता है। आक्सफोम की रिपोर्ट कहती है कि भारत की राजनीति यूरोपीय देश को आर्थिक तौर पर टक्कर देती है। यानी जितनी रईसी दुनिया के टाप 10 देशों की सत्ता की होती है उस रईसी को भी मात देने की स्थिति में हमारे देश के नेता और राजनीतिक दल हो जाते हैं। और 2014 के बाद तो सत्ता की रईसी में चार चांद लग चुके हैं, जो अमेरिकी सीनेटरों को भी पीछे छोड़े दे रही हैं।

लेकिन इसी अक्स में हालात क्या है राज्यों की। मसलन देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तरप्रदेश का एमपीआई यानी बहुआयामी गरीबी इंडेक्स 0.180 है। जो कि कांगो के बराबर है। तो क्या कोई कह सकता है कि योगी कांगो के शासक हैं। शिवराज नामीबिया के शासक हैं। वसुंधरा ग्वाटेमाला की शासक हैं। रमन सिंह जिम्बाव्वे के शासक हैं। और जिस बिहार की सत्ता के लिये बीजेपी मचलती रही और नीतीश कुमार बिहार की बयार से खुद को जोडते रहे उस बिहार का सच तो ये है कि ये भारत से सबसे निचले पायदान पर और दुनिया के पांचवे सबसे नीचले पायदान पर आनावाले साउथईस्ट अफ्रिका के मलावई के समकक्ष बैठता है। यानी नीतीश कुमार मलावई देश के शासक है । जो बीजेपी के समर्थन से चल रही है । यानी देश में क्यों जरुरी है जीरो बजट पर चुनाव लडने के लिये जनता का दवाब बनाना उसकी सबसे बडी वजह यही लूटतंत्र है जिसके आसरे लोकतंत्र का राग गाया जाता है। और हद तो ये है कि जिस केरल में मंदिर में में महिलाओ के प्रवेश को लेकर सियासत अंधी हो चली है और सियासतदान सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी सियासत से चूक नहीं रहे उस राज्य को भी राजनीति अपने ही दलदल में घसीटना चाहती है। ऐसा लगता है क्योंकि केरल देश के सबसे विकसित राज्यो में है, जहां सबसे कम गरीबी है। और दुनिया के देशों में केरल की तुलना जार्डन से होती है। यहां का एमपीआई 0.004 है। तो सियासत और सत्ता चुनावी लोकतंत्र के नाम पर देश को ही हड़प लें उससे पहले चेत तो चाइये। और मान तो लीजिये ये हमारा देश है।

Monday, October 29, 2018

कोई तो निकले सड़क पर सच बोलते हुये.....

खलक खुदा का , मुलुक बादश्ह का / हुकुम शहर कोतवाल का / हर खासो-आम को आगाह किया जाता है / कि खबरदार रहें/ और अपने अपने किवाड़ों को अंदर से /कुंडी चढाकर बंद कर लें / गिरा ले खिड़कियो के परदे/  और बच्चों को सड़क पर न भेजें/ क्योंकि, एक बहतर बरस का बूढा आदमी अपनी कमजोर आवाज में  /  सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है....44 बरस पहले 1974 में धर्मवीर  भारती ने मुनादी नाम से ये कविता तब लिखी जब सत्ता के घमंड में चुर इदिरा की तानाशाही चरम पर थी और जेपी देश में अलख जगाने निकल पड़े थे। उस वक्त इंदिरा की सत्ता चापलूसों से कुछ इस तरह घिरी हुई थी कि इंदिरा को  भ्रष्टाचार में भी ईमानदारी दिखायी देती थी। दमन करने में राष्ट्रीय भावना। और उस वक्त भी विपक्ष की राजनीति शून्य में समायी हुई थी। तब जेपी खड़े हुये थे। और फिर धीरे धीरे कैसे उनके पीछे छात्र-युवा से लेकर  राजनीतिक कार्यकत्ता जुडते गये और स्वयंसेवकों की टोली भी जुडने लगी, ये अब इतिहास जरुर है लेकिन इतिहास के इन पन्नों को पलटते मौजूदा वक्त जिस तरह की आहट कही ज्यादा क्रूर तरीके से नहीं बल्कि सत्ता की मद में चुर होकर जिस इतिहास को रच रहा है, वह सिर्फ संकेत भर है कि आने वाले वक्त में  हालात और खराब होंगे।  कैसे इमरजेन्सी की बाजी जनता पार्टी ने पलटी और कैसे उसी जनता पार्टी से निकले नायक इमरजेन्सी से भी बुरी बाजी चलने से बाज आ नहीं रहे हैं। तो फिर आने वाले वक्त में सत्ता का कौन सा चेहरा  दिखायी देगा या वह कितना क्रूर होगा ये सिर्फ कल्पना की जा सकती है क्योंकि सत्ता पाने के रास्ते ही सारे दौड़ लगा रहे हैं। और जनता एक  त्रासदी को भोगते हुये दूसरे त्रासदी को भोगने के लिये खुद को तैयार कर रही है। यानी आजाद भारत में सत्ता की उम्र तले सत्ताधारियों की उम्र ढल जाती है और नई पीढी विरासत की सोच संभाले सत्ता पाने के लिये दौड़ती नजर आती है, इसके सिवा और हो क्या रहा है या कहे कहां कुछ हो रहा है। 44 बरस पुराने संघर्ष के नायक आडवाणी आज अकेले अंधेरे में कैद है....  मुरली मनोहर  जोशी खामोशी की तरंगों में खोये हुये हैं। जार्ज फर्नाडिंस डिमेन्शिया बीमारी तले सबकुछ भूल चुके हैं। यशंवत सिन्हा सुनसान सड़क पर हंगामा खड़ा  करने के मकसद को लगातार टटोल रहे हैं। शत्रुघ्न सिन्हा की खलनायकी से  लेकर नायकी भी दांव पर है। कांग्रेसी या क्षत्रपों में इतनी ताकत नहीं नहीं कि सत्ता गंवाने के बाद सत्ता पाने के लिये संघर्ष करते हुये दिखायी  देने के अलावे कुछ कर सकें ।

इस फेहरिस्त में नीतीश कुमार नतमस्तक हैं। पासवान अपनी विरासत को अपनी ही पीढियों के बंदोबस्त में डूबे हुये हैं।  राजनाथ सिंह से लेकर रविशंकर प्रसाद और अखिलेश यादव से लेकर ममता बनर्जी में राजनीतिक नैरेटिव सिर्फ अपनी सफलता दिखाने या सत्ता पाने के हर तरीके को अपनाने के आगे जाती नहीं। लकीर महीन पर ये समझने की जरुरत है कि आखिर क्यों किसी नेता में नैतिक बल नहीं है कि वह सड़क पर इस मुनादी के साथ  निकल पड़े कि अब राजनीतिक व्यवस्था को बदलने की जरुरत है। यानी 72 की उम्र पार कर चुके पूर्व के नायको में इतनी जिन्दगी नहीं कि वह कुछ बोल भी  सके । और आजादी के बाद जन्म लेने वाली पीढी सत्ता संभाले हुये या सत्ता पाने की होड में मान कर चल रही है कि उसके हाथों नये भारत का सपना जन्म ले  ही लेगा। और सत्ता का घमंड इतनी तीक्ष्ण है कि अमित शाह कहने से नहीं चुकते अदालतों को मर्यादा में रहकर फैसले देने चाहिये। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को गठबंधन की सत्ता देश को कमजोर करने वाली और बहुमत की मोदी सत्ता ताकतवर होकर देश को ताकतवर बनाने वाली नजर आती है । तो वित्त मंत्री अरुण जेटली तो चुनी हुये सत्ता को ही देश मान लेते हैं। और इस बोल के पीछे के सच को समझे तो देश के हर संस्था हर संवैधानिक संस्थान । हर अधिकारी। हर कारोबारी और हर प्रभावी व्यक्ति को सत्ता के पक्ष में खडे होने की तमीज होनी चाहिये, समूची व्यवस्था यही बनाने की कोशिश हो रही है। यानी बहस-चर्चा या फिर सवाल उठने नहीं चाहिये। और जनता ने पांच बरस के लिये चुना है तो सत्ता के ही ऐसे किसी फैसले या निर्णय पर अंगुली उठाने का अधिकार किसी को होना नहीं चाहिये चाहे सत्ता के वो निर्णय संविधान की ही घज्जियां क्यों ना उड़ाता हो । तो असल सवाल यहीं से शुरु होता है कि आखिर इस देश में सडक पर नंगे पांव जेपी की तर्ज पर निकलने वाले भी खत्म क्यों हो गये। युवा तबके का संघर्ष सत्ताधारियों या सत्ता पाने के लिये नारे लगाने में गुम क्यों हो जा रहा है। और किसी भी मुद्दे पर देश  एकजूट होकर ये फैसला देने की स्थिति में क्यो नहीं आ पा रहा है कि भविष्य के बेहतर भारत के लिये ही सही पर चंद दिनों तक रोजी-रोटी छोड कर सड़क पर ही
निकल जाये और पटरी से उतर चुकी राजनीतिक व्यवस्था को वापस पटरी पर लाया जाये। यानी समाज के भीतर की एकजूटता खत्म कैसे हो गई। किसने कर दी। सारे सवाल सूचना तंत्र के बंटे हुये मंत्रो के आसरे गूंजते तो हैं पर असरकारक क्यों नहीं हो पा रहे हैं। और सारी बहस इसी पर क्यों आ टिकती है कि 2019 में तो आजादी मिल ही जायेगी तो उसी में लग जाया जाये। यानी आजादी ने 71 बरस बाद के हालातों को समझे । लोकतंत्र का मतलब सत्ता परिवर्तन से सत्ता हस्तांतरण और एक वोट से एकमुश्त वोट से आगे बढ़ नहीं पाया। और बढ़ा भी तो अंग्रेजों की गुलामी के वातावरण को ही सत्ता के आत्मसात करने वाले हालात विकसित हो गये। यानी कानून सिर्फ आम जनता के लिये और कानून पर राज सत्ता का। यानी संविधान और कानून के राज को ही गुलाम बनाकर लोकतंत्र को जीने का भाव इसलिये विकसित होते चला गया क्योंकि चुनाव जिस तंत्र तले आ खड़ा हो गया वह दबंगई चले बूथ लूट से निकला जरुर। पर धीरे् धीरे वोट को खरीदने और वोटरो को बांटने के सामानांतर सत्ता के ही अपराधी होने पर जा टिका। और सत्ता के लिये अपराधी होने का मतलब यही हो गया कि कानून की नजर में जो भी जायज नहीं है, वह सत्ता के लिये होने वाले चुनाव में जायज होगा ।

लेकिन लोकतंत्र का कवच बरकरार रखना है तो फिर नागरिक और उसके वोट की ताकत को महत्व देना जारी रखा गया। तो सुधार से पहले हालात को समझ लें। अपराधी होना पहले सत्ता से सौदेबाजी करने की ताकत देता है फिर सत्ताधारी बना देता है । भ्रष्ट या लूट के आसरे कालाधान या बेशूमार धन को समेटे व्यक्ति से पहले राउंड में सत्ता सौदेबाजी करती है फिर अपने साथ खडा कर लेती है । मुनाफे के इस केल में जाति भी इसी बिसात को बिछाती है और धर्म भी सियासी बिसात के लिये प्यादा बन जाती है । तो बदलाव लाये कौन और पहल हो कहा से । जबकि किसान के नाम पर आंदोलन । महिला सुरक्षा को लेकर गुस्सा । बेरोजगारी को लेकर आक्रोष । छोटे व्यवसायियो के संकट के नाम पर विरोध । तो संकट में सभी है लेकिन सभी मिलकर तय ही नहीं कर पा रहे है कि सत्ता की राजनीति करने वालो को घूल कैसे चटायी जाये । तो संघर्ष का पैमाना सत्ता को हराने वाले के साथ अलग अलग तरीके से जुडने के अलावे कुछ बच नहीं रहा है । यानी मोदी से आजाद होकर गठबंधन की गुलामी का सुकुन हर कोई पाले हुये है । और लगातार बदलते संभलते हालात संकेत भी दे रहे है कि सत्ता का घमड को चूर चूर करने की तैयारी में हर तबका है । पर वह खामोश है । और खामोशी के परिणाम बेहद प्रभावी होते है ये इंदिरा समझ नहीं पायी तो मोदी भी कैसे समझेगे । लेकिन लोकतंत्र को ही अगर राजनीतिक इकनामिक माडल में बदला जा चुका है तो इसका दूसरा पहलू यही है कि 2019 के बाद कुछ नये चेहरे होंगे। कुछ नये मोहरे होंगे। कुछ नये रईस होंगे। कुछ नये तबके होंगे। कुछ नये समुदाय होंगे। और अभी की भगवा ब्रिग्रेड को सजा तब जरुर मिलेगी । क्योंकि लोकतंत्र हमेशा खुद को विस्तार देता है तो मोदी का पाठ राहुल गांधी ने पढ लिया है । संघ का मोदी राग भी काग्रेस समझ चुकी है । यानी सत्ता बदल रही है पर इस बदलती सत्ता में जनता कहा है और आने वाले वक्त में देश का आम नागरिक कहा होगा । ये सवाल क्यो गायब है । या फिर कैसे 2013-2014 में जो मनमोहन सिंह खलनायक लगते थे । और जो मोदी नायक लग रहे थे । 2018 में वही मोदी खलनायक लगने लगे है । और फिर पीएम मनमोहन बनेगें नहीं लेकिन देश की र्थिक नीतियो को लेकर वह नायक लगने लगे है ।

दरअसल यही से सवाल उठता है कि हमे क्यो नहीं पता है कि हमारी आर्थिक नीतिया कैसी होनी चाहिये । हम क्यों तक्षशिला और नालंदा यूनिवर्सिटी के गौरवमयी अतित को भूल चुके है । क्यों गांव पर टिका भारत हम भूलाते जा रहे है और गांव खत्म कर स्मार्ट सिटी बनाने की दिशा में बढ चुके है । क्यों भारत में शारीरिक श्रम को
महत्व नहीं और शिक्षा महत्वहीन हो चली है। क्यों परिवार खत्म हो रहे हैं और क्यों सरोकार खत्म कर तकनीक के आसरे देश चलाने की दिशा में देश बढ़ चला है। क्यों रुस का साथ छूटा और अमेरिका के मुरीद हो गये। क्यों चीन के सामने भारत नतमस्तक दिखायी दे रहा है। क्यों हर मुद्दे के पीछे पाकिस्तान को देखकर भावनाओं को उभारा जा रहा है और क्यों सत्ता हिन्दु मुस्लमान में अटक जाती है। क्यों सार्क देशो को 2014 में शपथग्रहण में बुलाकार दोस्ती के विस्तार की बात होती है और 2019 से पहले ही नेपाल, मालदीव, भूटान, श्रीलंका तक भारत से दोस्ती छोड चीन के कठघरे में खड़े नजर आते हैं। समझना जरुरी है अगर सत्ता सिर्फ सत्ता बनाये रखने के लिये है और राजनीतिक सत्ता की हथेली पर ही देश को नचाने की सोच है तो फिर हर कोई हर दूसरे को अपनी हथेली पर नचाने की निकलेगा। तो फिर लोकतंत्र का हर पिलर तो यही काम करेगा । और चौथा स्तम्भ मीडिया भी तो नचायेगा ही ...तो फिर फिर सडक पर कौन सच बोलते हुये निकलेगा । और कैसे विकल्प बनेगा और जो सवाल जीरो बजट की राजनीति का है वह कैसा होगा, ये अगले लेख में।

Saturday, October 27, 2018

लोकतंत्र के डूबते जहाज को संभालना तो आप को ही है....

देश ऐसे तो मत ही चलाइए, जिससे एक तबके को लगे कि 2019 के चुनाव के बाद मुक्ति मिले तो आजाद होने का जश्न मनाया जायेगा । और सत्ता को पसंद करने वाले एक तबके को लगे वाकई अर्से बाद करप्ट और शाही व्यवस्था से मुक्ति मिली है ।तो ऐसी सत्ता तो दस बरस और रहनी चाहिये । चार दिन पहले ही टेलीकम्यूनिकेशन के एक कार्यक्रम में मुकेश अंबानी मोदी सरकार के गुण गाते हुये 5 जी जल्द लाने का जिक्र कर रहे थे। तो उसी कार्यक्रम में  भारती मित्तल सरकार की टेलीकाम नीतियों को कोस रहे थे । इसी तरह देश के इतिहास में पहली बार सीवीसी सरीखे स्वायत्त संस्था की जांच को लेकर सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज को जब चीफ जस्टिस गोगोई ने नियुक्त करने का निर्देश दिया तो अटोर्नी जनरल का सवाल था क्या ऐसा संभव है ?

ऐसा तो पहले कभी हुआ नहीं । तो चीफ जस्टिस को कहना पड़ा, नहीं ये सिर्फ सीबीआई केस के  मद्देनजर है । यानी इसे एक्सेप्शनल माना जाये । यानी पंरपरा स्थापित नहीं की जा रही है लेकिन देश हित में तात्कालिक जरुरत है तो फिर इसे सिर्फ अभी भर के लिये माना जाये । यानी सत्ता को लेकर कारपोरेट तक बंट चुका है । सुप्रीम कोर्ट तक सीबीआई सरीखे केस पर अपनो फैसले के मद्देनजर कहना पडा रहा कि ये देशहित में है । तो फिर हम किस दिशा में जा रहे है या हम कितने दिशाहीन हो चुके है और हम लगातार चुनावी लोकतंत्र में ही देश का भाग्य खोज रहे है । तो फिर इससे ज्यादा त्रासदी कुछ हो नहीं सकती । और शायद यही वह दौर है जब राजनीति के आगे नतमस्क होता समाज और सत्ता के आगे नतमस्तक  किया जा चुका संविधान देश का अनूठा सच बनाया जा रहा है और हम आप नंगी आंखो से देख रहे है । सोशल मीडिया के बहसों को देश के लिये सबसे महत्वपूर्ण बनाकर या कहे बताकर खामोश हो चले है। इस खामोशी को तोड़ने के लिये क्या किसी भी राजनीतिक दल के पास कोई पॉलिटिकल नैरेटिव है ।

सरल शब्दों में कहे तो कोई दृष्टि या विजन है । क्योंकि सत्ता विरोध के स्वर  खून में उबाल तो पैदा कर देते है पर रास्ता जायेगा किधर ये किसी को नहीं पता । हां पहली बार ये धीरे धीरे हर किसी को समझ जरुर आ रहा है कि बीमारी का कोई विकल्प नहीं होता । यानी देश को सत्ता की बिमारी लग गई है तो इस जीवाणु को खत्म करना है । यानी ये बहस बेकार है कि एक बीमारी के बदले दूसरी कौन सी बीमारी आपको अच्छी लगती है। ध्यान दीजिये हालात बद से बदतर क्यों हो रहे है या फिर देश का नजरिया है क्या। सरकार हर जिम्मेदारी से मुक्त होकर मुनाफे कमाने वालो के हाथों में यानी निजी सेक्टर के हाथ में सबकुछ क्यों सौप रही है। एयर इंडिया यूं ही डूबता हुआ जहाज नहीं बना है। तकनीकी दौर में सबसे विस्तारित रहने वाला बीएसएनएल यूं ही सबसेज्यादा सिकुडा नहीं है। सबकुछ सरकार ने बेचा है । मनमोहन सिंह के दौर में एयर इंडिया का भट्टा बैठा तो मोदी के दौर में जियो कुलांचे मार रहा है । यानी सार्वजनिक निगमों में छेद सत्ता ही करती है । सत्ता ही सरकारी ढांचे में छेद कर प्राइवेट सेक्टर को बढ़ावा देती है । प्राइवेट सेक्टर देश के ही संस्थानों की लूट में से कुछ कमीशन राजनीतिक फंड के तौर पर तो कही नेताओ के पीछे समाम सुविधाओं को जुटाने के नाम पर खड़े नजर आते हैं। और ध्यान दीजिये हर सरकारी निगमों में डायरेक्टर की कुर्सी पर ऐसे ऐसे नेता मिल जायेंगे जो उस क्षेत्र को जानते तक नहीं है।

आलम ये हो चला है कि सार्वजनिक क्षेत्र के नौरत्न कंपनियों में डायरेक्टर पद पर ऐसे ऐसे छुटभैये नेता या सत्ता के करीबी नियुक्त है कि उनके ज्ञान को जानकर आपको या तो तरस आ जायेगा या आपका खून खौलने लगेगा । देश की तमाम  रकारी कंपनियो में 109 डायरेक्टर ऐसे नियुक्त हुए हैं, जिन्हें उस कंपनी का क...ख तक नहीं आता जिस कंपनी के वह डायरेक्टर हैं । मानवसंसाधन मंत्रालय जिसका जिम्मा देश की शिक्षा व्यवस्था को बनाना है उस मंत्रालय में 60 से ज्यादा अधिकारी पद पर ऐसे ऐसे व्यक्ति नियुक्त कर दिये गये जिनकी क्वालिटी स्वसंसेवक होना ही है । यानी संघ से जुडे थे तो शिक्षा मंत्रालय में बैठ जाइये । और इस दौर का सच ये भी है कि 2014 में जब सरकार आई तो सबसे पहले नई शिक्षा नीति बनाने की ही बात कही गई पर 2019 जब दस्तक देने आ पहुंचा है तब भी नई शिक्षा नीति कहां अटकी पड़ी है, ये बताने के लिये देश के शिक्षा मंत्री तक तैयार नहीं है। हर दिन डिजिटल और तकनीक की पीठ पर सवार होकर कौन सी शिक्षा का विस्तार किया जा रहा है, ये कोई नहीं जानता ।

ध्यान दीजिये तो किसी पिछड़े इलाके से आये किसी व्यक्ति की तर्ज पर आधुनिक होने की व्यूरचना में ही देश को फंसा दिया गया है । यानी जिस तरह बुंदेलखंड से कोई व्यक्ति को लुटियन्स की दिल्ली में छोड दिजिये तो वह पानी-बिजली-खेती-मजदूरी-दो जून की रोटी-कपडे सबकुछ भूल कर साफ हरी घास से लेकर अट्टालिकांओ और सडक पर हवाई जहाज की तरह दौडती गाडियों में ही कुछ देर के लिये को जायेगा । कुछ ऐसा ही विकास के ककहरे में दुनिया घुमने वाले सत्ताधारी नेताओ के साथ हो चला है । दुनिया में जहां जहां जो चकाचौंध देखते हैं, उस चाकाचौंध तले अपने वोटरो को लाने की ऐसी ऐसी व्यूह रचना में खो  जाते है कि सत्ता ही कमीशन लेकर निजी जहाजो पर दुनिया नापने वालो के सामने नतमस्तक हो कर कहती है , बस यही दुनिया भारत में ले आओ । और उसके बाद देश को ही दुहने का खेल शुरु कर दिया जाता है । तो जो लडाई न्यूनतम मजदूरी देख रही हो । खेती के इन्फ्रास्ट्रक्चर की मांग कर रही हो । भूमि सुधार के नियम कायदे की सोच रही हो । अच्छी शिक्षा-बेहतर हेल्थ सर्विस की मांग में अटकी पडी हो । रोजगार के लिये छात्र-युवाओं का आक्रोश कैसे थमे इस पर विचार कहने को कह रही है ।  संविधान की शपथ लेन  वालों से संविधान में मिले हक को पूरा करने की गुहार लगाने के लिये संघर्ष कर रही हो । ये सब सत्ता के आगे काफूर तो होगा ही । और थक हार कर भारतीय वायुसेना प्रमुख भी देसी हिन्दुस्तान एरोनोटिक्स लिमेटिड को नाकाम बताने के लिये सामने आ जाये । रक्षा मंत्री की दिल्चस्पी रक्षा सौदों में जाग जाये । सेनाअध्यक्ष युद्द की जगह राजनीतिक युद्द में खुद को फिट करती दिखायी देने लगे । तो फिर कौन पूछेगा कि देश की खेती नीति क्या होनी चाहिये । एनपीए ना बढ़े या कारपोरेट इक्नामी के सामानातंर स्वदेशी इकनामी के कौन से तरीके अपनाये जाये । वाकई कौन पूछने की हिम्मत करेगा कि आखिर सांसदों की स्टेडिंग कमेटी कौन सी सिक्षा लेने के लिये हर महीने विदेशी टूर पर रहती है । और मोदी काल में ही जो 770 से ज्यादा विदेशी टूर सांसदो ने शिक्षा या ट्रेनिग के नाम पर की उसका रिजल्ट क्या निकला ।

ये सवाल इसलिये मायने नहीं रख रहे है क्योंकि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिये कोई विचार किसी के पास है ही नहीं। विचार के सामानांतर कोई ताकत और कोई सक्षम हालात का जिक्र कर सकता है । लेकिन सैकडों क्षेत्र में काम करने वाले अलग अलग लोग कौई वैकलपिक राजनीतिक व्यवस्था की क्यो नहीं सोच पा रहे है । आपका सवाल फिर हो सकता है कैसे संभव है । तो हमारा जवाब है राजनीतिक व्यवस्था डिगाने के लिये इस बार एक ही एंजेडा ले लिजिये । जो जीरो बजट में चुनाव लडेगा उसे ही जितायेगें । यानी जो भी चुनाव प्रचार में खर्च करते हुये दिखे उसे वोट नहीं देगें । यानी बिना पैसे चुनाव लडे तो जीत मिलेगी । कैसे संभव है ....अगली रिपोर्ट में बात होगी ।

Friday, October 26, 2018

राजनीतिक लोकतंत्र तले 37 करोड़ दलित-मुस्लिमों के खामोश होने के मायने !

दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की राजनीति का सच तो यही है कि सत्ता पाने के लिये नागरिकों को वोटरों में तब्दील किया जाता है। फिर वोटरों को जाति-धर्म-सोशल इंजीनियरिंग के जरीये अलग अलग खांचे में बांट जाता है। पारंपरिक तौर पर किसान-मजदूर, महिला , दलित , युवा और प्रोफेशनल्स व  कारपोरेट तक को सपने और लुभावने वादों की पोटली दिखायी जाती है। और सत्ता पाने के बाद समूचे सिस्टम को ही सत्ता बनाये रखने के लिये काम पर लगाते हुये जनता की चुनी हुई सरकार के नाम पर हर वह काम करा जाता है, जो अंसवैधानिक हो। फिर इसके  सामानांतर में अपने पारंपरिक चुनिंदा वोटरों के लिये कल्याण योजनाओं का एलान करते रहना। यानी चाहे अनचाहे लोकतंत्रिक देश का राजनीतिक मिजाज ही लोकतंत्र को हड़प रहा है। और खामोशी से वोटरो में बंटा समाज राजनीतिक दलों में अपनी सहुलियत अपनी मुश्किलों को देखकर हर पांच बरस में राजनीतिक लोकतंत्र को जीने का इतना अभ्यस्त हो चला है कि उसे इस बात का एहसास तक नहीं है कि उसके पडोस में रहने वाला शख्स कितना जिन्दा है, कितना मर चुका है।

ये अपने तरह का अनूठा या कहे सबसे त्रासदीदायक दौर है कि देश का 17 करोड़ 22 लाख मुसलमान [ 2011 के सेंसस के मुताबिक ] नागरिक है भी कि नहीं इसका कोई एहसास सत्ता को नही है। और मुसलमान भी इतनी खामोशी ओढ़ चुका कि उसे खुद के होने का एहसास 2019 के चुनाव की छांव में जा छुपा है। और लग ऐसा रहा है कि 2019 के चुनाव देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को जीने के लिये नहीं बल्कि आजादी मिलने के एहसास पर जा टिकी है। और इसी एहसास का दूसरा  चेहरा देश के 20 करोड 14 लाख दलितो [ 2011 के सेंसस के मुताबिक ] में है । जो डरा हुआ है । सहमा है । लेकिन वह भी खुद को 2019 के चुनाव तले अपनी खामोश और आक्रोश की जिन्दगी को टाल रहा है । यानी 2014 के चुनाव परिणाम  के बाद जिस तरह समूचा सिस्टम और सिस्टम को चलाने वाले तमाम संस्थान ही सत्तानुकुल हो गये उसमें पहले दो बरस काग्रेस की त्रासदी को याद कर नयी  सत्ता के हर कार्य को लेकर उम्मीद और सपनों को जीने का स्वाद था। लेकिन उसके बाद सत्ता की छांव तले भीडतंत्र के न्याय ने कानून के राज को जिस  तरह हवा कर दिया उसने 37 करोड की आबादी के सामने ये सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि उसकी हैसियत सिवाय वोटर की नहीं। यानी संविधान जरीये मिलने वाले अधिकार भी मायने नहीं रखते है और कानून का राज भी सिमट कर सत्ता की हथेली पर नाचने वाले या कहे सुविधा पाने वाले तबके में जा सिमटा है। वाकई ये लकीर बेहद महीन है । पर सच यही है कि दलितों के खिलाफ औसतन हर बरस 36 हजार से ज्यादा उत्पीडन के मामले दर्ज होते रहे । और मुस्लिमों को वोट  बैंक के दायरे में इतना डराया या बहलाया गया कि उसकी हैसियत सत्ता की तरफ ताकने के अलावे बची ही नहीं। एक तरफ यूपी में 20 करोड की आबादी में से  करीब 4 करोड मुस्लिम कैसे सांस ले रहा है, ये जानने की कोशिश कोई नहीं  करता। हर हर सांस थम जाये इसका वातावरण मुस्लिम बहुसंख्यक इलाकों में जा कर समझा जा सकचता है । बुलंदशहर में हाजी अलीम के माथे पर दो गोली मारी जाती है। पुलिस किसी के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं करती । उल्टे ये कहने से नहीं चुकती कि ये तो खुदकुशी लगती है। यानी खुद ही कनपटी पर पिस्तौल रख हाजी अलीम पहले एक गोली चलाता है फिर दूसरी। मुस्लिम समाज के भीतर सांस थामने वाली सिस्टम की ऐसी बहुतेरी किस्सागोई  मिल जाती है । दो दर्जन इनकाउंटर उसका सबूत है ।

तो जिन्दगी के लिये सत्ता की रहम-करम। तो दूसरी  तरफ पं. बंगाल में करीब ढाई करोड बंगाली मुस्लिम भी सत्ता की रियायत पर ही जिन्दगी जी सकता है। और रियायत की एवज में लोकतंत्र के उस राग को  जिन्दा रखना है जहा दिल्ली या कहे बीजेपी की सत्ता का विरोध करती टीएमसी यानी ममता बनर्जी की सत्ता बनी रहे। तो सत्ता को कही बतौर नागरिक भी  मुस्लिम बर्दाश्त नहीं तो कही वोटर होकर ही जिन्दा रह सकता है। और इस  दायरे की सबसे त्रासदी दायक परिस्थितियां मुस्लिम समाज के भीतर जमा होते उस मवाद की है जिसमें सवा चार करोड मुस्लिम की जिन्दगी प्रतिदिन 28 से 33  रुपये पर कटती है। 42 फिसदी बच्चे कुपोषित पैदा होते हैं। एक हजार बच्चों में से कोई एक बच्चा ही तकनीकी शिक्षा पाने की स्थिति में होता है । जो
क्लर्क या प्रोफनल्स की नौकरी में है उनकी संख्या भी एक फिसदी से आगे की नहीं है। यानी किस तरह का समाज या देश गढा जा रहा है जो सिर्फ राजनीतिक सत्ता ही देखता है । और इसमें दलित को काढ दीजियेगा तो हालात बद से बदतर  हो जायेंगे क्योंकि देश में 6 करोड दलित 28 से 33 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से जीते हैं। और करीब 48 फिसदी दलित बच्चे कुपोषित ही होते हैं। शिक्षा  या उच्च शिक्षा या तकनीकी शिक्षा के मामले में इनका हाल मुस्लिम को ही पछाड़ता है और वह भी उन आंकडो के साथ जिसका मुकाबला युगांडा या  अफगानिस्तान से हो सकता हो । क्योंकि दो फिसदी से आगे के सामने किताब होती  नहीं और दशमलव एक फिसदी उच्च शिक्षा के दायरे में पहुंच पाता है। पर इनका संकट दोहरा है। उनके नाम पर सत्ता आंखे बंद नहीं करती बल्कि सुविधा  देने के नाम पर हर सत्ता इन्हे अपने साथ जोडने की जो भी पहल करती है वह सिवाय भीख देने के आगे बढ नहीं पाती ।

यानी राजनीतिक लोकतंत्र के दायरे  में इनकी पहचान सिवाय वोट देने के वक्त ईवीएम पर दबाये जाते एक बटन से ज्यादा नहीं होती । किमत हर कोई लगाता है । पर इसका ये मतलब कतई नहीं है कि दलित मुस्लिम के अलावे देश में हर कोई नागरिक के हक को जी रहा है। व्यवसाय या रोजगार के दायरे में या फिर महिला या युवा होने का दर्द भी राजनीति सत्ता के लोकतंत्र तले क्या हो सकता है ये किसान की खुदकुशी और
मनरेगा से भी कम आय पाने वाले देश के 25 करोड किसान-मजदूर को देख कर या फिर सरकारी आंकडों से ही जाना जा सकता है । और इसी कतार में साढे चार करोड रजिस्टर्ड बेरोजगारों को खडा कर अंतर्राष्टरीय तौर पर जब आकलन कीजियेगा तो पता चलेगा भारत दुनिया का अव्वल देश हो चला है जहा सबसे ज्यादा
बेरोजगार है । सीएमआईए के मुताबिक साढे आढ करोड बेरोजगारों को ढोते भारत का अनूठा सच ये भी है कि राजनीतिक दलों के जरिये चुनाव के वक्त लोकतंत्र का डंडा उठाने वाले बेरोजगार युवाओ की तादाद साढ छह करोड हो चुकी है । तो कौन कैसे दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को देखे और चुनाव के अक् तले ही लोकतंत्र को माना जाये या उससे हट कर भारतीय समाज के उस सच को उभारा जाये जिसे जबाने का प्रयास लोकतंत्र के नाम पर राजनीति ही करती है । क्योकि विकास उस सूराख वाले झोले में तब्दील हो चुका है जिसमें नेहरु से लेकर मोदी तक खूब रुपया डालते हैं पर जनता उसका उपभोग कर नहीं पाती और राजनीति-राजनेता-सियासत-सत्ता इतनी रईस हो जाती है कि जब सरकारी आंकडे ही ये जानकारी देते है कि देश की दस फिसदी आबादी 80 फिसदी संस्धानो का उपभोग कर रही है और उसके दस फिसदी के भीतर एक फीसदी का वही समाज है जो राजनीति में लिप्त है । या पिर राजनीति के दायरे में खुद को लाकर धंधा करने में मशगुल है जिसे क्रोनी कैपटलिज्म कहा जाता है । और इ एक फिसदी के पास देश का साठ पिसदी संस्धान है तो फिर लोकतंत्र या कानून  का राज शब्द कितने बडे लग सकते है ये सिर्फ सोचा जा सकता है । क्योकि संविधान नहीं तो कानून
का राज भी नहीं और उसी का एक चेहरा देश में 14 लाख सरकारी पुलिस बल के सामानातंर 70 लाख निजी सुरक्षाकर्मियों के नौकरी करने का है । और राजनीतिक लोकतंत्र की बडी लकीर खिंचनी है तो फिर आखिर में दो सच को निगलना आना चाहिये ।

पहला ये व्यवस्था चलती रहे इसके लिये देश के संसाधनो से ही सत्ता की शह पर कमाई करने वाले कारपोरेट एक हजार करोड से ज्यादा का चंदा सत्ता को दे देते है । और दूसरा जनता में ये एहसास बने रहे कि उसकी
भागीदारी जारी है तो कल्याण या दूसरे नामो से सेस लगाकर 2014 से 2017 तक चार लाख करोड से ज्यादा जनता से ही वसूला जाता है जिसमें से सवाल लाख करोड रुपये सरकार खुद डकार लेती है । यानी जनता के पैसे से जो सुविधा जनता को देनी है उस सुविधा को भी सत्ता हडप लेती है । और इस कडी में राजनीतिक लोकतंत्र का समूचा हंगामा इंतजार कर रहा है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 1352 करोड रुपये सिर्फ प्रचार पर उडाने वाली राजनीति 2019 में कितने हजार करोड प्रचार में उड़ायेगी । जिससे हर नागरिक के जहन में ये बस जाये कि लोकतंत्र का मतलब है राजनीति-सियासत-सत्ता पाने की होड़।

Thursday, October 25, 2018

क्यों महत्वपूर्ण है सुप्रीम कोर्ट में कल की सुनवाई

जब 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सभी बरी हो गये और कोयला खादान घोटाले में कोई जेल नहीं पहुंचा तो सवाल सीएजी पर भी उठा कि घोटाले से राजस्व के घाटे का जो आंकड़ा दिया गया, वह सिर्फ आंकडा भर था या विपक्ष [ बीजेपी ] को राजनीतिक हथियार दिया गया। जब सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट ने पिंजरे में बंद तोता कहा तो लगा यही कांग्रेसी सत्ता में नैतिक बल नहीं और सत्ता  परिवर्तन के बाद नैतिकता की दुहाई देती बीजेपी की सत्ता तोते को पिंजरे से मुक्त कर देगी । लेकिन संस्थानों की मुक्ति तो दूर सत्ता बदलने के बाद एक एक कर सारे संस्थान ही जब राजनीतिक सत्ता की हथेलियो पर नाचने लगे और  सीएजी से लेकर सीआईसी। सीबीआई से लेकर सीवीसी । ईडी से लेकर इनकमटैक्स और चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट [चार जस्टिस की प्रेस कान्फेन्स]  तक के भीतर से आवाज सुनाई देने लगी की लोकतंत्र खतरे में है, तो अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या लोकतंत्र के एसिड टेस्ट का वक्त आ गया है। और कल जब सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई के पूर्व डायरेक्टर आलोक वर्मा की याचिका पर जब सुनवाई होगी तो चीफ जस्टिस गोगोई का फैसला इस मायने में अहम
होगा कि देश में संवैधानिक व्यवस्था जिस " चैक एंड बैलेंस" की बात कहती है, वह किस हद तक सही है। क्योंकि संविधान चुनी हुई सत्ता को सबसे ताकतवर जरुर मानता है और संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहता है। लेकिन संविधान में इसकी व्यवस्था भी है कि कोई संस्था तानाशाही में तब्दिल ना हो जाये। और  ध्यान दें तो इंदिरा गांधी ने भी आपातकाल लगाया तो संविधान से मिलने वाले हक को निलंबित कर दिया। यानी देश में संविधान लागू हो और संवैधानिक  ढांचे में ही राजनीतिक सत्ता सेंध लगा रही हो ये आवाज लगातार बीते चंद बरसों से सुनाई तो दे रही है, लेकिन ये कितना संभव है या कितना असंभव है  संयोग से सीबीआई का मामला अब जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है तो हर जहन में एक साथ कई सवाल है। मसलन , क्या सुप्रीम कोर्ट सीबीआई डायरेक्टर आलोक  वर्मा को छुट्टी पर भेजे जाने के फैसले को खारिज कर देगी। क्या विशेष डायरेक्टर अस्थाना के आरोप को सही ठहराते हुये सीवीसी के फैसले को सही करार दे देगी। क्या सीवीसी को वाकई ये अधिकार है कि वह सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति के वक्त लिये गये तीन सदस्यीय कमेटी के फैसलों को पलटने का  सुझाव दें और सरकार उसे अमल में ले आये। और संयोग देखिये जिस कमेटी ने  आलोक वर्मा को सीबीआई डायरेक्टर बनाया उसमें प्रधानमंत्री मोदी और विपक्ष के नेता खडगे के अलावे चीफ जस्टिस भी शामिल थे। और अब सीबीआई डायरेक्टर  का मामला चीफ जस्टिस की अदालत में आया है। यानी ये अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है कि जिस कमेटी में चीफ जस्टिस है, उस कमेटी के फैसले को ही  सरकार ने सीवीसी के कहने भर से बदल दिया। यानी दो वर्ष के लिये बनाये गये सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा को पद से हटाने से पहले सरकार ने नियुक्त करने वाली कमेटी से भी नहीं पूछा। जाहिर है ऐसे में तकनीकी वजह से भी चीफ जस्टिस चाहे तो कल सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकते है।

पर कल का दिन सिर्फ सीबीआई डायरेक्टर भर से नहीं जुड़ा है। कल का दिन मोदी सरकार की उस साख से भी जा जुड़ा है, जहां वह संवैधानिक संस्थानों की ताकत को सत्तानुकुल बनाने की दिशा में बढते हुये भी ईमानदारी का पाठ ही जोर जोर से पढ़ती रही । यानी सवाल सिर्फ इतना भर नहीं है कि जो जस्टिस गगोई नौ महीने पहले चीफ जस्टिस मिश्रा के दौर में सार्वजनिक तौर पर "लोकतंत्र खतरे में है" कहने से हिचके नहीं थे, अब वह खुद चीफ जस्टिस है तो न्याय होगा ही। सवाल तो ये है कि आखिर संविधान की व्याख्या करते हुये कैसे जस्टिस गोगोई उन हालातो को उभारेंगे जो हर सत्ता को ताकत दे देती है कि वह संवैधानिक संस्थाओं के जरीये ही सत्ता को बनाये और बजाये रखने के लिये  संविधान में ही सेंध लगाते हुये कार्य करती है। जाहिर है ये कार्य जितना कठिन है उससे ज्यादा कही हिम्मत भरा कार्य है। क्योंकि सीबीआई का अपना सच  तो यही है कि बीते पांच बरस में वहा के 25 अधिकारी दागदार साबित हुये है । तीन सीबीआई डायरेक्टर भ्रष्टाचार के मामले में फंसे है । नौ हजार से  ज्यादा मामले सीबीआई में पेंडिंग पडे है। और इसके सामानांतर जिस सीवीसी को मोदी सरकार ने ढाल बनाया है और कानूनी और तकनीकी तर्क से अपने फैसलों को सही करार दे रही है उस सीवीसी की 2017 की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि 2017 में उसके पास 2016 तक के 1678 पेंडिंग पड़े मामले। और सीवीसी जिस तेजी से काम करती है उसमें 3666 पेडिग मामले उसने 2018 पर डाल दिये। पर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि करप्शन पर नकेल कसने को लेकर सक्रिय सीवीसी ने नारा दिया , " मेरा लक्ष्य, भ्रष्टाचार मुक्त भारत"। और सीवीसी का  काम है कि सीवीओ या सीबीआई जब किसी पर कोऊ आरोप लगाती है तो उसे वह परखे  । और तत्काल निर्णय दे। क्योंकि तीन सौ से ज्यादा कर्मचारी और अधिकारी वहां इसीलिये नियुक्त किये गये हैं। और असर इसी का है कि सितंबर में  सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर आस्थाना की शिकायत पर महीने भर में तमाम जांच  के बाद सीबीआई डायरेक्टर के खिलाफ पुख्ता सबूत होते हुये जांच की बात कहते हुये पद से हटाने की बात कही गई और सरकार ने झट-पट सीबीआई डायरेक्टर  को छुट्टी पर भेजकर एडिशनल डायरेक्टर को डायरेक्टर के पद पर भी बैठा दिया  । लेकिन ये तेजी सीबीआई के ही तमाम मामलो को लेकर सीवीसी कैसे काम करती है ये जानना भी जरुरी है। 2017 में सीबीआई ने सीवीसी के सामने 171 मामले
रखे । जिसमें से सिर्फ 39 मामलो को ही साल भर में तमाम जांच प्रकिया के बाद निर्णय तक सीवीसी पहुंच पाये । और बाकि मामलो में कही आपराधिक सुनवाई चल रही है तो कही पेन्लटी भरने को कहा गया तो प्रशासनिक चेतावनी या एक्शन  भर की बात कही गई । पर महत्वपूर्ण ये भी नहीं है कि किस स्वायत्त और संवैधानिक संस्था में कितनी तेजी से काम हो रहा है । राजनीतिक सत्ता के  लिये संवैधानिक संस्था को लेकर हालात उलट होते है । यानी जो संस्था जितनी भ्रष्ट होगी । या फिर जिस संस्था में जितनी धीमी गति से काम होता होगा । वहा के अधिकारी/ कर्मचारियो में नैातिक बल उतना ही कम होगा और उसे  सत्तानुकुल बनाने में उतनी ही आसानी किसी भी सत्ता को होगी । तो संस्थानों पर गौर करें ईडी या इन्कंम टैक्स में 80 फिसदी मामले लंबित पडे है ।

सीआईसी में आरटीआई कानून को लेकर दो फाड है । सीआईसी चैयरमैन आर्चुलु के ही मुताबिक सरकार चाहती है आरटीआई कानून निष्क्रिय हो । यानी सरकार जवाब देने से बचना चाहती है तो देश भर में इसे कमजोर करने की दिशा में पढ रही है । सीएजी ने चार महिने पहले मोदी सरकार के 11 मंत्रालयों में गड़बड़ी की रिपोर्ट दी तो उन अधिकारियों को ही शंट कर दिया गया, जो सक्रिय थे । पर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जिस सीएजी की रिपोर्ट को मनमोहन सरकार के दौर में मीडिया सिर पर बैठाये रहता था वह सीएजी की रिपोर्ट मोदी सरकार के 11  मंत्रालयो को लेकर कब आई और कब गायब कर दी गई इसे मीडिया ने छुआ तक नहीं । यानी सत्ता के काम करने का दायरा किस रुप में विस्तारित हुआ ये चुनाव आयोग के जरीये चुनाव की तारीखों के एलान में सत्ताधारी पार्टी की सुविधा और सुप्रीम कोर्ट में जजो की नियुक्ति को लेकर कोलेजियम के जरीये भिड़ने के तरीकों ले कर सीबीआई के भीतर भी दो फाड की स्थिति कैसे लाई गयी ये आस्थाना की स्पेशल डायरेक्टर के पद पर अचानक हुई नियुक्ति से भी समझा जा सकता है और आस्थाना के खिलाफ जाच कर रही टीम जिसे आलोक वर्मा के लोग करार दे दिया गया और उसे  बदल कर तीन ऐसे लोगों को जांच टीम का हिस्सा बनाया गया जो आस्थाना की ही टीम का माना जाता है । यानी संवैधानिक संस्था के भीतर दो फाड कैसे हो सकते है ये स्थिति सामाजिक और आर्थिक तौर पर राजनीति करते हुये सत्ता किसे कैसे इस्तेमाल करती है ये भी किसी से छिपा नहीं है । और इसका बेहतरीन उदाहरण तो मीडिया ही है । जो पहले बंटा । फिर एकतरफा हो गया । यही हालात राजनीति के भी है । मायावती की चुनावी रणनीति और मुलायम या शिवपाल की राजनीति । या फिर तमिलनाडु में एआईडीएम का बंटना । यानी लकीर बेहद महीन है लेकिन चाहे अनचाहे इस महीन लकीर पर ही कल का फैसला आ टिका है। यानी संविधान की व्यख्या करते हुये सुप्रीम कोर्ट " चैक एंड बैलेंस " की उस लकीर को किस हद तक खिंच पायेगा, जिसमें सत्ता का ये भ्रम टूटे की पांच बरस की मनमानी के लिये जनता ने उसे नहीं चुना। और जनता में कितना भरोसा जागे कि आधी रात को सत्ता की हरकत जब संवैधानिक पद पर बैठे सीबीआई डायरेक्टर को डिगा सकती है तो उसकी क्या बिसात । इंतजार कीजिये दांव पर संविधान सम्मत लोकतंत्र है

Saturday, October 13, 2018

वोट पर नहीं नोट पर जा टिका है दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र

देश में फिर बहार लौट रही है । पांच राज्यों के चुनाव के एलान के साथ हर कोई 2019 को ताड़ने में भी से लग गया है । कोई राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ को कांग्रेस के लिये सेमीफाइनल मान रहा है तो कोई बीजेपी के सांगठनिक विस्तार की फाइनल परीक्षा के तौर पर देख रहा है। कहीं मायावती को सबसे बडे सौदेबाजी के सौदागर के तौर पर देखा जा रहा तो कोई ये मान कर चल रहा है कि पहली बार मुस्लिम-दलित चुनावी प्रचार के सौदेबाजी से बाहर हो चुके हैं। और बटते समाज में हर तबके ने अपने अपने नुमाइन्दों को तय कर लिया है । यानी वोट किसी सौदे से डिगेगा नहीं। तो दूसरी तरफ इन तमाम अक्स तले ये कोई नहीं जानता कि देश का युवा मन क्या सोच रहा है। 18 से 30 बरस की उम्र के लिये कोई सपने देश के पास नहीं है तो फिर इन युवाओं का रास्ता जायेगा किधर । कोई नहीं जानता पूंजी समेटे कारपोरेट का रुख अब चुनाव को लेकर होगा क्या । यानी पारपंरिक तौर तरीके चूके हैं तो नई इबारत लिखने के लिये नये नये प्रयोग शुरु हो चले हैं। और चाहे अनचाहे सारे प्रयोग उस इकनॉमिक माडल में समा रहे हैं, जहां सिर्फ और सिर्फ पूंजी है । और इस पूंजी तले युवा मन बैचेन हैं। मुस्लिम के भीतर के उबाल ने उसे खामोश कर दिया है । तो दलित के भीतर गुस्सा भरा हुआ है। किसान - मजदूर छोटी छोटी राहतों के लिये चुनाव को ताक रहा है तो छोटे-मझौले व्यापारी अपनी घाटे की कमाई की कमस खा रहे है कि अबकि बार हालात बदल देंगे। मध्यम तबके में जीने का संघर्ष बढ़ा है । वह हालात से दो दो हाथ करने के लिये बैचेन है । तो मध्यम तबके के बच्चो में जीने की जद्दोजहद रोजगार को लेकर
तड़प को बढा रही है । पर इस अंधेरे में उजियारा भरने के लिये सत्ता इतनी पूंजी झोकने के लिये तैयार है कि हर घाव बीजेपी के कारपेट तले छिप जाये । और काग्रेस हर घाव को उभारने के लिये तैयार है चाहे जख्म और छलनी हो जाये । मलहम किसके पास है ये अबूझ पहेली है । फिर भी चुनाव है तो बहार है। और 2019 के लिये बनाये जा रहे इस बहार में कौन क्या क्या झोकने के लिये तैयार है ये भी गरीब देश पर रईस सत्ता के हंटर की ऐसी चोट है जिसकी मार सहने के लिये हर कोई तैयार है । क्योंकि ये कल्पना के परे है कि एक तरफ दुनिया के सबसे ज्यादा युवा जिसदेश में है वह भारत है ।

तो दूसरी तरफ देश में लोगों के बदतर सामाजिक हालातों के मद्देनजर सबसे ज्यादा पूंजी चुनाव में ही लुटायी जाती है । अगर 2011 के सेंसस से समझे तो 18 से 35 बरस के युवाओ की तादाद देश में 37 करोड़ 87 लाख 90 हजार 541 थी । जिसमें अब इजाफा ही हुआ है । और 2014 के चुनाव में 1352 करोड रुपये चुनाव प्रचार में स्वाहा हुये । जिसमें बीजेपी ने 781 करोड तो काग्रेस ने 571 करोड रुपये प्रचार में फूंके । तो 2019 में चुनाव प्रचार में और कितना इजाफा होगा ये सिर्फ इससे समझा जा सकता है कि 2004 से 2012 तक कारपोरेट ने राजनीतिक दलो को 460 करोड 83 लाख रुपये की फंडिग की थी । लेकिन 2013 में जब बीजेपी ने वाईब्रेंट गुजरात को जन्म देने वाले नरेन्द्र मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाया तो 2013 से 2016 के बीच कारपोरेट ने राजनीतिक दलो को 956 करोड 77 लाख रुपये की फंडिग की । और इसमें से 75 फिसदी से ज्यादा फंडिंग बीजेपी को हुई । बीजेपी को 705 करोड 81 लाख रुपये मिल गये । जबकि कांग्रेस के हिस्से में 198 करोड रुपये ही आये । इतनी रकम भी कांग्रेस को इसलिये मिल गई क्योकि 2013 में वह सत्ता में थी । यानी मई 2014 के बाद के देश में कारोपरेट ने जितनी भी पालेटिकल फंडिंग की उसका रास्ता सत्ता को दिये जाने वाले फंडिंग को ही अपनाया । इसके अलावे विदेशी फंडिंग की रकम अब भी अबूझ पहेली है क्योंकि अब तो सत्ता ने भी नियम कायदे बना दिये है कि विदेशी राजनीतिक ड को बताना जरुरी नहीं है । अगर 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से 22 राज्यों के विधानसभा चुनाव में प्रचार की रकम को समझे तो बीते चार बरस में दो सौ फीसदी तक की बढ़ोतरी 2018 तक हो गई । यानी 2013 में हुये मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान चुनाव जो पांच बरस बाद अब नवंबर दिसंबर में हो रहे है उसके चुनावी प्रचार और उम्मीदवारों के रुपये लुटाने के तौर तरीकों में अब इतना अंतर आ गया है कि चुनावी पंडित सिर्फ कयास लगा रहे है कि प्रचार में खर्चा 6 हजार करोड का होगा या या 60 हजार करोड । यानी पांच बरस में सिर्फ चुनावी प्रचार का खर्चा ही 900 फीसदी तक बढ़ रहा है । और संयोग से इन तीन राज्यों में बेरोजगारी की रफ्तार भी दस फिसदी पार कर चुकी है । किसानों की कमाई में डेढ़ गुना तो दूर लागत से 20 फिसदी कम हो गई है । सरकारों के जरीये तय न्यूनमत मजदूरी भी दिला पाने की स्थिति में कोई सरकार नहीं है । शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा पर तीनो ही राज्य में खर्च देश के खर्च की तुलना मे 15 फिसदी कम है । और ये तब है जब देश में हेल्थ सर्विस पर जीडीपी का महज 1.4 फिसदी ही खर्च किया जाता है । दुनिया के आंकडो के सामानातंर भारत की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा की लकीर खिचे तो भारत की स्थिति दुनिया की छठी सबसे बडी इक्नामी होने के बावजदूद सौ देशो से नीचे है । यानी असमानता की हर लकीर जब जिन्दगी जीने के दौरान पूरा देश भोग रहा है तो फिर चुनाव प्रचार की रकम ये बताने के लिये काफी है कि 30 से 40 दिनो में चुनाव प्रचार के लिये जितना खर्च राज्यो में या फिर 2019 के चुनाव प्रचार में खर्च होने वाला है और पांच राज्यो के प्रचार में सुरु हो चुका है वह रकम 2014 के नरेन्द्र मोदी के उस भाषण पर भारी पड जायेगी जिसे वापस लाकर हर व्यक्ति को 15 लाख रुपये देने की बात कह दी गई थी । यानी 2019 में 70 अरब रुपये से ज्यादा सिर्फ प्रचार पर खर्च होने वाले है । और लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिये कितने खरब रुपये राजनीति लुटायेगी इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है ।

और इस परिप्रेक्ष्य में देश जा किस दिशा में रहा है ये सिर्फ इससे समझा जा सकता है कि बीजेपी के पास फिलहाल देश भर में 6 करोड युवा बेरोजगारों की फौज कार्यकत्ता के तौर पर है । और देशभर में विधानसभा और लोकसभा चुनाव के प्रचार के लिये करीब 10 करोड युवा चुनाव प्रचार के दौरान रोजगार पा जाते है । कोई बतौर कार्यकत्ता तो कोई नारे लगाने के लिये जुटता है ।यानी चुनाव की डुगडगी बजते ही कैसे देश में बहार आ जाती है ये इससे भी समझा जा सकता है कि सबसे ज्यादा काला धन ही इस दौर में बाहर नहीं निकलता है बल्कि हर तबके के भीतर एक उम्मीद जागती है और हर तबके को उस राजनीतिक सौदेबाजी की दिशा में ले ही जाती है जहा सत्ता पैसा बांटती है या फिर सत्ता में आने के लिये हर विपक्ष को अरबों रुपया लुटाना ही पडता है । और अगर इलेक्शन वाच या ए़डीआर की रिपोर्ट के आंकड़ों को समझे तो चुनावी वक्त में देश में कोई गरीबी रेखा से नीचे नहीं होता बशर्ते उसे वोटर होना चाहिये । क्योंकि देश में तीस करोड़ लोग 28 से 33 रुपये रोज पर जीते हैं, जिन्हें बीपीएल कहा जाता है । और चुनावी प्रचार के 30 से 45 दिनों के दौर में हर वोटर के नाम पर हर दिन औसतन पांच सौ रुपये लुटाये जाते हैं। यानी देश की पूंजी को ही कैसे राजनीति ने हड़प लिया है और देश के अंधियारे को दूर करने के लिये राजनीति ही कैसे सबसे चमकता हुआ बल्ब है ये चाहे अनचाहे राजनीतिक लोकतंत्र ने देश के सामने रख तो दिया ही है ।

Saturday, October 6, 2018

द ग्रेट बनाना रिपब्लिक ऑफ इंडिया

दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश बनाना रिपब्लिक की राह पर है, ये आवाज 2011 से 2014 के बीच जितनी तेज थी, 2014 के बाद उतनी ही मंद है या कहें अब कोई नहीं कहता कि भारत बनाना रिपब्लिक की दिशा में है। 2011 में देश के सर्वप्रमुख व्यवसायी रतन टाटा ने कहा भारत भी बनाना रिपब्लिक बनने की दिशा में अग्रसर है। साल भर बाद अप्रैल 2012 में भारत के वित्त सचिव आर. एस. गुजराल ने वोडाफोन को कर चुकाने के केन्द्र सरकार के आदेश के परिप्रेक्ष्य में कहा था कि भारत अभी बनाना रिपब्लिक नहीं है कि कोई विदेशी कम्पनी अपने आर्थिक लाभ को भुनाने भारत की ओर रुख कर ले और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। तीन महीने बाद ही 2012 में राबर्ट वाड्रा ने तंज कसा मैंगो पीपुल इन बनाना रिपब्लिक । अगले ही बरस कश्मीर को लेकर मुफ्ती मोहम्मद इतने गुस्से में आ गये कि 2013 में उन्होंने भारत की नीतियों के मद्देनजर देश को बनाना रिपब्लिक कहने में गुरेज नहीं की ।

और याद कीजिये 2014 लोकसभा चुनाव के परिणामो से ऐन पहले 8 मई को नरेन्द्र मोदी को एक खास जगह सिर्फ प्रेस कान्फ्रेंस करने से रोका गया तो अरुण जेटली को भारत बनाना रिपब्लिक नजर आने लगा । तो क्या वाकई मनमोहन सिंह के दौर में भारत बनाना रिपब्लिक हो चला था और सत्ता बदली तो बनाना रिपब्लिक की सोच थम गई , क्योंकि एक न्यायपूर्ण सत्ता चलने लगी । या फिर मनमोहन सिंह के दौर में भारत को बनाना रिपब्लिक कहा जा रहा था और नरेन्द्र मोदी के दौर में भारत बनाना रिपब्लिक हो गया तो फिर कहे कौन की भारत बनाना रिपब्लिक है। तो जरा पहले समझ लें कि बनाना रिपबल्कि शब्द निकला कहां से और इसका मतलब होता क्या है । दरअसल बनाना रिपब्लिक शब्दावली का प्रयोग सर्वप्रथम प्रसिद्ध अमेरिकी कथाकार ओ. हेनरी द्वारा किया गया था। वर्तमान संदर्भ में उस देश के लिए बनाना रिपब्लिक शब्दावली का प्रयोग किया जाता है जिसे एक व्यावसायिक इकाई की तरह से अधिकाधिक निजी लाभ के लिए कुछ अत्यंत धनी एकाधिकारी व्यक्तियों तथा कम्पनियों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा हो।

राजनीतिक रूप से बनाना रिपब्लिक देशों की एक मुख्य विशेषता होती है बहुत व्यापक राजनीतिक अस्थिरता। ओ. हेनरी ने बनाना रिपब्लिक शब्दावली का प्रयोग उस विशेष स्थिति के लिए किया था, जहाँ कुछ अमेरिकी व्यवसायियों ने कैरीबियन द्वीपों, मध्य अमेरिका तथा दक्षिण अमेरिका में अपनी चतुराई से भारी मात्रा में केला उत्पादक क्षेत्रों पर अपना एकाधिकार कर लिया। यहाँ स्थानीय मजदूरों को कौड़ियों के भाव पर काम करवा कर केलों के उत्पादन को अमेरिका में निर्यातित कर इससे भारी लाभ उठाया जाता था। इसलिए बनाना रिपब्लिक की व्याख्या में प्राय: इस गुण को भी राजनीतिक पण्डित शामिल करते हैं कि ऐसा देश प्राय: कुछ सीमित संसाधनों के प्रयोग पर ही काफी हद तक निर्भर होता है। आप कह सकते है कि भारत में कहां ऐसा है । या फिर ये भी कह सकते है कि भारत में तो ये आम है । असल में बनाना रिपब्लिक में एक स्पष्ट वर्ग की दीवार दिखाई देती है, जहाँ काफी बड़ी जनसंख्या कामगार वर्ग की होती है, जो प्राय: काफ़ी खराब स्थितियों में जीवन यापन करती है। इस गरीब कामगार वर्ग पर मुट्ठी-भर प्रभावशाली धनी वर्ग का नियंत्रण होता है। यह धनी वर्ग देश का इस्तेमाल सिर्फ अपने अधिकाधिक लाभ के लिए करता है। अब आप सोचेंगे ये तो भारत का सच है । तो क्या भारत वाकई बनाना रिपब्लिक है । तो भारत के बार में कोई राय बनाइये, उससे पहले ये समझ लीजिये कि बनाना रिपब्लिक शब्दावली का प्रयोग अधिकांशत: मध्य अमेरिकी तथा लैटिन अमेरिकी देशों के लिए किया जाता है जैसे हाण्डूरास तथा ग्वाटेमाला। लेकिन यहा ये समझना होगा कि इन देशों में ऐसी कौन सी मुख्य विशेषताएं है जो इन्हें भारत से अलग करती है । या फिर इन देशों की हर विशेषता ही भारत की विशेषता है । तो जरा सिलसिलेवार तरीके से समझे। बनाना रिपब्लिक में सबसे पहले तो भूमि का अत्यंत असमान वितरण होता है । और असमान आर्थिक विकास होता है । यानी दुनिया के किसी भी देश की तुलना में भारत में ये सबसे ज्यादा और तीखा है । यानी जमीन और आर्थिक असमानता का आलम भारत में ये है कि एक फीसदी बनाम 67 फीसदी का खेल खुले तौर पर है । एक फीसदी के पास संपत्ति । एक फीसदी के पास संसाधन । एक फीसदी के पास जमीन । और दूसरी तरफ 67 फीसदी के बराबर । फिर भारत में असमानता सा इंडेक्स तो अंग्रेजों की सत्ता के दौर में 1921 वाले हालात को छू रहा है ।

पर भारत को कोई बनाना रिपब्लिक कैसे कहेगा । जबकि बीते चार बरस के दौर में देश के सिर्फ 5 कारपोरेट/औघोगिक समूह की संपत्ति में जितना इजाफा सिर्फ मुनाफे से हुआ है , मुनाफे की उतनी रकम भर ही अगर देश के करीब 30 करोड़ बीपीएल में बांट दी जाती तो झटके में गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन बसर करने वाले 30 करोड लोग इनकम टैक्स रिटर्न भरने की हैसियत पा जाते । फिर भी भारत जब बनाना रिपब्लिक है ही नहीं तो बनाना रिपब्लिक के दूसरे मापदंडों को परखें । बनाना रिपब्लिक वाले देश में बहुत छोटे लेकिन बहुत प्रभावशाली सामंतशाही वर्ग की मौजूदगी होती है । इस सामंतशाही वर्ग का देश के व्यावसायिक हितों पर व्यापक एकाधिकार होता है । सामंतशाही वर्ग के कुछ धनी देशों के व्यावसायियों से घनिष्ठ सम्बन्ध होते है । इन घनिष्ठ सम्बन्धों का देश के निर्यात व्यापार पर स्पष्ट पकड़ होना माना जाता है । तो इन मापदंडों पर भारत कितना खरा उतरता है, ये क्रोनी कैपटलिज्म के हर चेहरे तले भारतीय राजनीतिक सत्ता को देखकर समझा जा सकता है । मसला सिर्फ राफेल डील में देश का हजारों करोड रुपया एक खास आधुनिक सत्ता के करीबी सामंत को देना भर नहीं है । बल्कि हर क्षेत्र में चीनी से लेकर आलू तक और इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर हथियार तक में मुनाफा बनाने के लिये सत्ता के करीबी चंद सामंतों की मौजूदगी हर दायरे में नजर आयेगी । बिजली पैदा करनी हो । खदानों से कोयला निकालना हो । सूचना तकनीक विकसित करनी हो । फ्लाई ओवर से लेकर सीमेंट रोड बनानी है । मेट्रो लाइन बिछानी हो । सब के लिये देश के खनिज संसाधनों से लेकर सस्ते मजदूरो की लूट अगर सत्ता ही मुहैया कराने लगे । या फिर सत्ता की उपयोगिता ही नागरिको की सेवा के नाम पर आधुनिक सामंतों को लाभ पहुंचाते हुये खुद को सत्ता में बरकरार रखने की इक्नामी हो तो फिर बनाना रिपब्लिक कहा मायने रखेगा । दरअसल भारत बनाना रिपब्लिक हो ही नहीं सकता क्योंकि बनाना रिपब्लिक के लिये जरुरी है उस एहसास को बनाये रखना कि लोकतंत्र ऐसा होगा । इसीलिये बनाना रिपब्लिक के मापदंडों में सबसे महत्वपूर्ण होता है कि ऐसे देशों में सेना द्वारा सत्ता का तख्ता पलटने की संभावनाएं प्राय: हमेशा बनी रहती हैं। अब कल्पना कीजिये क्या ये भारत में संभव है । यकीनन नहीं । लेकिन अब इसके सामानांतर सोचना शुरु कीजिये लोकतंत्र तो तब होगा जब संविधान होगा । जब संविधान का मतलब सत्ता हो जाये । और लोकतंत्र सत्ता के चुने जाने के सत्तानुकूल तरीके पर जा टिका हो तब बनाना रिपब्लिक का मतलब होगा क्या । दरअसल मोदी दौर की सबसे बडी खासियत यही है कि बनाना रिपबल्कि होने की जो जो परिभाषाएं अंतरराष्ट्रीय तौर पर गढी गई है उन परिभाषाओ को भी लोकतंत्र के नाम पर संविधान दफन करते हुये इस तरह हड़प ली गई है कि आप भारत को बनाना रिपब्लिक कभी कहें ही नहीं । सिर्फ अघोषित आपातकाल कहकर अपने भीतर उस रौशनी को जलाये रखेंगे कि देश में एक संविधान है । दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश भारत है । तो यहां चंद दिनों के लिये एक तानाशाह है, जिसे जनता 2019 में बदल देगी । पर बनाना रिपबल्कि की माहौल बताता है कि आप बनाना रिपब्लिक में जीने के आदी हो चुके हैं और अब आप संविधान की दुहाई देते हुये संघर्ष करते नजर आयेंगे । और इस संघर्ष का दोहन भी सत्ता कर लेगी।

Monday, October 1, 2018

तो वर्धा पहुंच कर क्या याद करेंगे और क्या भूलेंगे राहुल गांधी ?

संभवत ये अपनी तरह का पहला मौका होगा जब गांधी जयंती के दिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी वर्धा में होंगे। और कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक वर्धा में होगी। यूं तो ये प्रतीकात्मक है पर मौजूदा वक्त में जिस राजनीतिक शून्यता को देश महसूस कर रहा है उसका सच ये भी है कि अतीत के प्रतीकों को प्रतीकात्मक तौर पर अपना कर सत्ता-विपक्ष दोनों ही अपने होने का एहसास देश  से ज्यादा खुद को करा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी खुद को सरदार पटेल के करीब खड़ा कर रहे है तो नेहरु खारिज किये जा रहे हैं। तो नेहरु गांधी  परिवार महात्मा गांधी के साये तले सत्ता को चुनौती देने से ये कहकर नहीं कतरा रहा है कि संघ तो महात्मा गांधी का हत्यारा है। संघ भी अपने  संस्थापक हेडगेवार को कांग्रेसी करार देकर डायनेस्टी माइनस कांग्रेस को अपनाने में अपना भविष्य देख रहा है। तो ऐसे मोड़ पर महात्मा गांधी को कैसे याद करें। क्योंकि याद कीजिये 15 अगस्त 1947 को आधी रात का सच। नेहरु संसद में भाषण देते है , " कई सालों पहले, हमने नियति के साथ एक वादा किया था, और अब समय आ गया है कि हम अपना वादा निभायें, पूरी तरह न सही पर बहुत हद तक तो निभायें."  और इस भाषण के वक्त महात्मा गांधी  दिल्ली से डेढ हजार किलोमीटर दूर कलकत्ता के बेलियाघाट के घर में अंधेरे में बैठे रहे। दिल्ली में आजादी के जश्न से दूर बेलियाघाट में अपने घर से  राजगोपालाचारी को ये कहकर लौटा दिया कि घर में रोशनी ना करना। आजादी का मतलब सिर्फ सत्ता हस्तांतरण नहीं होता। ध्यान दें तो सत्ता हस्तांतरण से  इतर देश में बीते 71 बरस के दौर में और हुआ क्या। इन 71 बरस में किसान-मजदूरों की मौत ने खेती को श्मशान में बदल दिया है। औद्योगिक  मजदूरों की लड़ाई न्यूनतम को लेकर आज भी है। गरीबी की रेखा के नीचे 1947 के भारत से दोगुनी तादाद पहुंच चुकी है। पीने के साफ पानी से लेकर भूख की  लडाई अब भी लड़ी जा रही है।

तो क्या याद करें क्या भूल जायें। याद कीजिये 15 अगस्त 1947 की आधी रात पीएम नेहरु ने कहा, "भारत की सेवा मतलब लाखों पीड़ित लोगों की सेवा करना है. इसका मतलब गरीबी, अज्ञानता, बीमारी और अवसर की असमानता को समाप्त करना है. हमारी पीढ़ी के सबसे महानतम व्यक्ति [ महात्मा गांधी ] की महत्वाकांक्षा हर आंख से एक-एक आंसू पोंछने की है।  हो सकता है ये कार्य हमारे लिए संभव न हो लेकिन जब तक पीड़ितों के आँसू ख़त्म नहीं हो जाते, तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा।"  तो क्या महात्मा गांधी जिन आंसूओं का जिक्र कर रहे थे उसे भूल जायें। या फिर मौजूदा वक्त में जो हंसी-ठठाका सत्ता लगाती है और भारत के स्वर्णिम काल को 2022 तक लाने का जिक्र कर देती है उसे सुनते हुये आंखे बंद कर ली  जायें। या फिर महात्मा गांधी की बातो को ही दोहरा कर खुश हो जाये कि बापू
को हम भूले नहीं हैं।

छह अक्टूबर, 1921, को महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में लिखा , "हिंदू धर्म के नाम पर ऐसे बहुत से काम किए जाते हैं, जो मुझे मंजूर नहीं है....और गौरक्षा का तरीका है उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति  देना. गाय की रक्षा के लिए मनुष्य की हत्या करना हिंदू धर्म और अहिंसा धर्म से विमुख होना है। हिंदुओं के लिए तपस्या द्वारा, आत्मशुद्धि द्वारा  और आत्माहुति द्वारा गौरक्षा का विधान है. लेकिन आजकल की गौरक्षा का स्वरूप बिगड़ गया है।" तो करीब 97 बरस पहले महात्मा गांधी ने गो रक्षा  को लेकर जो बात कही थी-उसी को टूटे फूटे अंदाज में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गौ रक्षा पर अपनी बात कह कर खुश हो जाते हैं। तो क्या आजादी से 26  बरस पहले और आजादी के 71 बरस बाद भी सत्ता को गो रक्षा के नाम पर मानव  हत्या के हालात से रुबरु होना ही पड़ता है। तो भारत बदला कितना। संविधान अपना है। कानून अपना है। कानून की रक्षा के लिये संस्थाएं काम कर रही हैं। बावजूद इसके सिस्टम फेल कहां हैं,जो देशभर में भीडतंत्र नजर आ जाता  है। जो न्याय तंत्र को खारिज कर देता है। इस एहसास को मिटा देता है कि कानून का राज भी देश में है। याद कीजिये बीते बरस सोशल मीडिया से शुरु हुए नॉट इन माई  नेम कैंपेन के तहत लोगो ने बोलना शुरु इसलिये कर दिया क्योंकि सत्ता खामोश रही। और सिस्टम कही फेल दिखायी देने लगा । फेल इसलिये क्योकि गौरक्षा के  नाम पर पहलू खान से लेकर जुनैद तक। और 12  शहरों में 36 लोगो की हत्या गौ रक्षा के नाम पर की जा चुकी है। यानी शहर  दर शहर भीड ने गो रक्षा ने नाम  पर जिस तरह न्याय की हत्या सड़क पर खुलेआम की। और न्याय की रक्षा के लिये तैनात संस्थान ही फेल नजर आये, उसमें महात्मा गांधी को याद कर भारत की आजादी की दुहाई देने का मतलब क्या है।  महात्मा गांधी ने 19 जनवरी, 1921 को गुजरात के खेड़ा जिले में स्वामीनारायण संप्रदाय के तीर्थस्थान पर एक विशाल सभा को संबोधित करते  हुए कहा , " आप अंग्रेज अथवा मुसलमान की हत्या करके गाय की सेवा नहीं कर सकते, बल्कि अपनी ही प्यारी जान देकर उसे बचा पाएंगे. ...मैं ईश्वर नहीं  हूं कि गाय  बचाने के लिए मुझे दूसरों का खून करने का अधिकार हो. ...कितने हिंदुओं ने बिना शर्त मुसलमानों के लिए अपने जीवन को उत्सर्ग कर दिया है. वणिकवृत्ति से गाय की रक्षा नहीं हो सकती’  तो अतीत की इन आवाजों का मतलब है क्या। और काग्रेस अध्यक्ष राहुल सेवाग्राम पहुंच कर क्या सिर्फ महात्मा गांधी को प्रतीकात्मक तौर पर याद करेंगे। या फिर उनके जहन में ये सवाल उठेगा कि पहले कांग्रेस देश का रास्ता बनाती थी, जिस पर लोग चलते थे। अब देश का रास्ता बाजार बनाते है जिस पर कांग्रेस चलती है। और लोग खुद को सियासी राजनीति में हाशिये पर खड़े पा रहे हैं। या फिर कांग्रेस कल वर्धा में गांधी आश्रम पहुंच कर  सीडब्लुसी को याद आयेगा कि महात्मा गांधी ने तो नील किसानों की मुक्ति के लिये चंपारण सत्याग्रह भी किया। और किसानों के हक को लेकर कहा भी , " मैं आपसे यकीनन कहता हूं कि खेतों में  हमारे किसान आज भी निर्भय होकर सोते हैं, जबकि अंग्रेज और आप वहां सोने के लिए आनाकानी करेंगे...... किसान तलवार चलाना नहीं जानते, लेकिन किसी की तलवार से वे डरते नहीं हैं.......किसानों का, फिर वे भूमिहीन मजदूर हों या मेहनत करने वाले जमीन मालिक हों, उनका स्थान पहला है। उनके परिश्रम से ही पृथ्‍वी फलप्रसू और समृद्ध हुई हैं और इसलिए  सच कहा जाए तो जमीन उनकी ही है या होनी चाहिए, जमीन से दूर रहने वाले जमींदारों की नहीं।" तो गांधी ने किसानों से ऊपर किसी को माना ही नहीं।  लेकिन गांधी का नाम लेकर राजनीति करने वालों के इस देश में किसानों का  हाल कभी सुधरा नहीं-ये सच है। आलम ये कि मंदसौर में किसान आंदोलन के दौरान गोली चलने से 7 किसानो की मौत पर तो हर विपक्षी दल ने आंसू बहाए और  विरोध जताया-लेकिन उसी मध्य प्रदेश में 6 जून 2017 से सितंबर 2018 के बाद से अब तक 442 किसान खुदकुशी कर चुके हैं,लेकिन चिंता में डूबी आवाज़े गायब हैं। हद तो ये कि 29 किसानों ने उसी सीहोर में खुदकुशी की-जो शिवराज सिंह चौहान का गृहनगर है। और मध्य प्रदेश में ऐसा कोई दिन नहीं जा रहा-जब किसान खुदकुशी नहीं कर रहा। और उससे सटे धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ में बीते एक बर के दौर में 410 किसानों ने खुदकुशी कर ली । और देश का हाल इतना बेहाल की 18800 किसानो ने इस दौर में खुदकुशी कर ली ।

तो आज की तारीख में कोई सत्ताधारी या राजनीतिज्ञ खुद को किसान नहीं लिखता । बल्कि जाति या धर्म में खुद को बांट कर राजनीतिक सहुलियत चाहता है । पर महात्मा गांधी ने हमेशा पेशे के कालम के आगे किसान ही लिखा । तो क्या वर्धा पहुंचकर राहुल गांधी को ये एहसास होगा कि देश के हर रंग को साथ जोड़कर ही कांग्रेस बनी थी और आज कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को कांग्रेस को गढ़ने के लिये देश के हर रंग के पास जाना पड़ रहा है। यानी सवाल जन सरोकार का है और जवाब नब्ज पकडने की है । महात्मा गांधी ने देश की नब्ज को आंदोलन - संघर्ष और सादगी के जरीये काग्रेस से जोडा । और काग्रेस ने धीरे धीरे संघर्ष सादगी ही तिरोहित कर दिया । तो सत्ता में रहते हुये गांधी पारिवार बदलते हिन्दुस्तन की उस नब्ज को पकड़ नहीं पाया जहा जनता की नुमाइन्दगी करते हुये जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी कांग्रेसी नेता-मंत्रियों की होनी चाहिये। तो आखरी सवाल यही है कि वर्धा में गांधी आश्रम पहुंचना काग्रेस के लिये टोकनिज्म है या फिर आत्ममंथन । देखें महात्मा गांधी को याद करते हुये राहुल गांधी क्या क्या आत्मसात करते हैं।