Friday, November 30, 2018

दिल्ली की सडक पर किसान मार्च आहट है डगमगाते लोकतंत्र का


कोई नंगे बदन । कोई गले में कंकाल लटकाये हुये । तो कोई पेट पर पट्टी बांधे हुये । कोई खुदकुशी कर चुके पिता की तस्वीर को लटकाये हुये । अलग अलग रंग के कपडे । अलग अलग झंडे-बैनर । और दिल्ली की कोलतार व पत्थर की सडको को नापते हजारो हजार पांव के सामानातांर लाखो रुपये की दौडती भागती गाडिया । जिनकी रफ्तार पर कोई लगाम ना लगा दे तो सैकडो की तादाद में पुलिसकर्मियो की मौजूदगी । ये नजारा भी है और देश का सच भी है । कि आखिर दिल्ली किसकी है । फिर भी दिल्ली की सडको को ही किसान ऐसे वक्त नापने क्यो आ पहुंचा जब दिल्ली की नजरे उन पांच राज्यो के चुनाव पर है जिसका जनादेश 2019 की सियासत को पलटाने के संकेत भी दे सकता है और कोई विकल्प है नहीं तो खामोशी से मौजूदा सत्ता को ही अपनाये रह सकता है । वाकई सियासी गलियारो की सांसे गर्म है । घडकने बढी हुई है । क्योकि जीत हार उसी ग्रामीण वोटर को तय करनी है जिसकी पहचान किसान या मजदूर के तौर पर है । बीजेपी नहीं तो काग्रेस या फिर मोदी नहीं तो राहुल गांधी । गजब की सियासी बिसात देश के सामने आ खडी हुई है जिसमें पहली बार देश में जनता का दवाब ही आर्थिक नीतियो में बदलाव के संकेत दे रहा है और सत्ता पाने के लिये आर्थिक सुधार की लकीर छोड कर काग्रेस को भी ग्रामिण भारत की जरुरतो को अपने मैनिफेस्टो में जगह देने की ही नहीं बव्कि उसे लागू करवाने के उपाय खोजने की जरुरत आ पडी है । क्योकि इस सच को तो हर कोई अब समझने लगा है कि तात्कालिक राहत देने के लिये चाहे किसान की कर्जमाफी और समर्थन मूल्य में बढोतरी की बात की जा सकती है । और सत्ता मिलने पर इसे लागू कराने की दिशा में बढा भी जा सकता है । लेकिन इसके असर की उम्र भी बरस भर बाद ही खत्म हो जायेगी । यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है कि स्वामिनाथन रिपोर्ट के मद्देनजर किसानो के हक के सवाल समाधान देखे । या फिर जिस तर्ज पर कारपोरेट की कर्ज मुक्ति की जो रकम सरकारी बैको के जरीये माफ की जा रही है उसका तो एक अंश भर ही किसानो का कर्ज है तो उसे माफ क्यो नहीं किया जा सकता । दरअसर ये चुनावी गणित के सवाल है देश को पटरी पर लाने का रास्ता नहीं है । क्योकि किसानो का कुल कर्ज बारह लाख करोड अगर कोई सरकार सत्ता संभालने के लिये या सत्ता में बरकरार रहने के लिये माफ कर भी देती है तो क्या वाकई देश पटरी पर लौट आयेगा और किसानो कीा हालत ठीक हो जायेगी । ये समझ बिना डिग्री भी मिल जाती है कि जिन्दी सिर्फ एकमुश्त रुपयो से चल नहीं सकती । वक्त के साथ अगर रुपये का मूल्य घटता जाता है । या फिर किसानी और मंहगी होती जाती है । या फिर बाजार में किसी भी उत्पाद की मांग के मुताबिक माल पहुंचता नहीं है । या फिर रोजगार से लेकर अपराध और भ्रष्ट्रचार से लेकर खनिज संसाधनो की लूट जारी रहती है । या फिर सत्ता में आने के लिये पूंजी का जुगाड उन्ही माध्यमो से होता है जो उपर के तमाम हालातो को जिन्दा रखना चाहते है । तो फिर किसी भी क्षेत्र में कोई भी राहत या कल्याण अवस्था को अपना कर सत्ता तो पायी जा सकती है लेकिन राहत अवस्था को ज्यादा दिन टिकाये नहीं रखा जा सकता । और शायद मौजूदा मोदी सत्ता इसके लिये बधाई के पात्र है कि उन्होने सत्ता के लिये संघर्ष करते राजनीतिक दलो को ये सीख दे दी कि अब उन्हे सत्ता मिली और अगर उन्होने जनता की जरुरतो के मुताबिक कार्य नहीं किया तो फिर पांच बरस इंतजार करने की स्थिति में शायद जनता भी नहीं होगी । क्योकि काग्रेस ने अपनी सत्ता के वक्त संस्थानो को ढहाया नहीं बल्कि आर्थिक सुधार के जनरियो को उसी अनुरुप अपनाया जैसा विश्व बैक या आईएमएफ की नीतिया चाहती रही । लेकिन मोदी सत्ता ने संस्थानो को ढहा कर कारपोरेट के हाथो देश को कुछ इस तरह सौपने की सोच पैदा की जिसमें उसकी अंगुलियो से बंधे धागों पर हर कोई नाचता हुआ दिखायी दें । यानी आर्थिक सुधार की उस पराकाष्टा को मोदी सत्ता ने छूने का प्रयास किया जिसमें चुनी हुई सत्ता के दिमाग में जो भी सुधार की सोच हो वह उसे राजनीतिक तौर पर लागू करवाने से ना हिचके । और शायद नोटबंदी फिर जीएसटी उस सोच के तहत लिया गया एक निर्णय भर है । लेकिन ये निर्णय कितना खतरनाक है इसके लिये मोदी सत्ता के ही आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमणयम की नई किताब '"आफ काउसल : द चैलेंजेस आफ द मोदी-जेटली इक्नामी " से ही पता चल जाता है जिसमें बतौर आर्थिक सलाहकार सुब्रहमणयम ये कहने से नहीं चुकते कि जब मोदी नोटबंदी का एलान करते है तो नार्थ ब्लाक के कमरे में बैठे हुये वह सोचते है कि इससे ज्यादा खतरनाक कोई निर्णय हो नहीं सकता । यानी देश को ही संकट में डालने की ऐसी सोच जिसके पीछे राजनीतिक लाभ की व्यापक सोच हो । यानी से संकेत अब काग्रेस को भी है कि 1991 में अपनाये गये आर्थिक सुधार की उम्र ना सिर्फ सामाजिक आर्थिक तौर पर बल्कि राजनीतिक तौर पर भी पूरे हो चले है । क्योकि दिल्ली में किसानो का जमघट पूरे देश से सिर्फ इसलिये जमा नहीं हुआ है कि वह अपनी ताकत का एहसास सत्ता को करा सके । बल्कि चार मैसेज एक साथ उपजे है । पहला , किसान एकजूट है । दूसरा , किसानो के साथ मध्यम वर्ग भी जुड रहा है । तीसरा, किसानो की मांग रुपयो की राहत में नहीं बल्कि इन्फ्रस्ट्रक्चर को मजबूत बनाने पर जा टिकी है । चौथा , किसानो के हक में सभी विपक्षी राजनीतिक दल है तो संसद के भीतर साफ लकीर खिंच रही है किसानो पर मोदी सत्ता अलग थलग है । कह सकते है कि 2019 से पहले किसानो के मुद्दो को केन्द्र में लाने का ये प्रयास भी है । लेकिन इस प्रयास का असर ये भी है कि अब जो भी सत्ता में आयेगा उसे कारपोरेट के हाथो को पकडना छोडना होगा । यानी अब इक्नामिक माडल इसकी इजाजत नहीं देता है कि कारपोरेट के मुनाफे से मिलने वाली रकम से राजनीतिक सत्ता किसान या गरीबो को राहत देने या कल्याण योजनाओ का एलान भर करें  बल्कि ग्रामिण भारत की इकानमी को राष्ट्रीय नीति के तौर पर कैसे लागू करना है अब परीक्षा इसकी शुरु हो चुकी है । इस रास्ते मोदी फेल हो चुके है और राहुल की परीक्षा बाकि है । क्योकि याद किजिये तो 2014 में सत्ता में आते ही संसद के सेन्ट्रल हाल में जो भाषण मोदी ने दिया था वह पूरी तरह गरीब, किसान, मजदूरो पर टिका था । लेकिन सत्ता चलाते वक्त उसमें से साथी कारपोरेट की लूट , ब्लैक मनी पर खामोशी और बहुसंख्यक जनता को मुश्किल में डालने वाले निर्णय निकले । तो दूसरी तरफ राहुल गांधी उस काग्रेस को ढोने से बार बार इंकार कर रहे है जिनके पेट भरे हुये है , एसी कमरो में कैद है और जो मुनाफे की फिलास्फी के साथ इकनामिक माडल को परोसने की दुहाई अब भी दे रहे है । आसान शब्दो में कहे तो ओल्ड गार्ड के आसरे राहुल काग्रेस को रखना नहीं चाहते है और काग्रेस में ये बदलाव काग्रेसी सोच से नहीं बल्कि मोदी दौर में देश के बिगडते हालातो के बीच जनता के सवालो से निकला है । और सबसे बडा सवाल आने वाले वक्त में यही है क्या राष्ट्रीय नीतिया वोट बैक ही परखेगी या वोट बैक की व्यापकता राष्ट्रीय नीतियो के दायरे में आ जायेगी । क्योकि संकट चौतरफा है जिसके दायरे में किसान-मजदूर, दलित-ओबीसी , महिला-युवा  सभी है और सवाल सिर्फ संवैधानिक संस्थाओ को बचाने भर का नहीं है बल्कि राजनीतिक व्यवस्था को भी संभालने का है जो कारपोरेट की पूंजी तले मुश्किल में पडे हर तबके को सिर्फ वोटर मानती हैा 

Thursday, November 29, 2018

स्वंयसेवक की चाय की प्याली का तूफान - पार्ट 2 ....... इंतजार किजिये आपको ओरिजनल पप्पू भी मिल जायेगा ?


हंसते हंसते ही सही...लेकिन स्वयसेवक महोदय ने चाय की प्याली का इंतजाम बरात के शोर में करवा ही दिया और चाय की प्याली को गटकते हुये प्रोफेसर साहेब बोल पडें...
हैट्रिक का मतलब आप समझ गये है जो हंस रहे है
जी बिलकुल ....
क्या है हैट्रिक का मतलब ....अब तो स्वयसेवक भी मूड में आ चुके थे ....बोले साफ साफ नहीं कहूंगा लेकिन जो कहूगां वह इतना साफ होगा कि आप कोई सवाल पूछ नहीं पायेगें ...
जी कहिये....पर जल्दी कहे...क्योकि बारात आ जायेगी तो शोऱ हंगामा और बढ जायेगा ....
वाजपेयी जी आपकी मुश्किल यही है ... शांत वातावरण बहुत पंसद करते है । एक सच को जान लिजिये भारत में शोर और हंगामे के बीच ही लोग अकेले और खामोश होते है ।
फिलास्फी नहीं ...सीधे सीधे हैट्रिक समझाये ...
देखिये , अर्जेन्टिना रवाना होने से पहले राजस्थान में जो आथखरी भाषण प्रचारक मोदी दे रहे थे, वह क्या था ...
अरे ये आप प्रचारक मोदी कहा से ले आये ।
क्यों
प्रधानमंत्री मोदी को प्रचारक मोदी कहना कहा से ठीक है ....
अरे वाजपेयी जी आप कभी प्रचारको को सुना किजिये...खास कर जब किसी विषय पर बोलने का मौका मिलता है तो ...
तो
तो क्या बिना जमीन के कैसी जमीन बनायी जाती है ये प्रचारक बाखूबी जानता है । और मोदी जी पहले प्रचारत है और बाद में पीएम ।
अरे जनाब आप जो भी कहिये लेकिन हैट्रिक पर आप हंसे क्यो ये तो बताइये ...
वही तो कह रहा हूं .....राजस्थान के भाषण में प्रचारक मोदी बोले हम तो काग्रेसवाद को खत्म करना चाहते है । तो बाकि जो बी है वह साथ आ सकते है । और बकायदा अकिलेश यादव, मायावती समेत कई क्षत्रपो का नाम भी लिया...अब आप ही बताइये चार बरस आपने जिन्हे जूता मारा ...पांचवे बरस जब चुनाव नजदीक आ रहा है तो वह जूता चलायेगा या जूता मारने वालो के साथ खडा होगा । फिर जनता जब आपको खारिज कर रही होगी तो काग्रेस के अलावे विपक्ष का कोई दल अगर आपके साथ आ खडा होगा तो फिर उसका क्या होगा । वैसे आपलोगो ने रविवार को मन की बात तो सुनी होगी ।
मैने सुनी तो नहीं थी..लेकिन खुद पीएमओ और प्रधानमंत्री की तरफ से जो ट्रिवट कर जानकारी दी गई उसे जरुर पढा था । अब प्रोफेसर साहेब बोले ...
तो आपने क्या पढा कुछ याद है ।
नहीं ऐसा तो कुछ नहीं था...
यही तो मुस्किल है याद किजिये , ....देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 25 नवंबर 2018 को अपने "मन की बात" के 50 वें एपिसोड में जब ये कहा," मोदी आयेगा और चला जायेगा , लेकिन यह देश अटल रहेगा, हमारी संस्कृति अमर रहेगी ।"  तो पहली बार लगा कि क्या मोदी सत्ता दांव पर है ? क्योकि 2014 के बाद पहले दिन बरसो बरस सत्ता में रहने की खुली मंशा ही नहीं बल्कि खुला दांव भी नरेन्द्र मोदी ने लगाया । और याद किजिये तो महीने भर पहले ही बीजेपी अध्यक्ष तो अगले 50 बरस तक सत्ता में बने रहने का दावा किये थे । तो फिर अचानक आने-जाने वाला मुक्ति भाव कैसे जाग गया । क्या वाकई सबकुछ दांव पर है । किसान का दर्द दांव पर है । युवाओ का रोजगार दांव पर है । रुपये कि कम होती किमते दांव पर । पेट्रोल - डीजल की किमत दांव पर । सीबीआई दांव पर । आरबीआई दांव पर । इक्नामी भी दांव पर और अब तो राम मंदिर निर्माण भी दांव पर । तो चुनाव के वक्त अगर नरेन्द्र मोदी , कहे कि देश अटल है वह तो निमित्त मात्र है । तो इसके मतलब मायने क्या है । खासकर तब   अयोध्या में राम मंदिर की गूंज धीरे धीरे मोदी सत्ता पर ही दबाब बना रही है । किसानो की मुश्किलो में काग्रेसी राहत के एलान कर दे रही है और किसान मान रहा है कि काग्रेस के सत्ता में आने पर उसे राहत मिल जायेगी । यानी झटके में पांच बरस की मोदी सत्ता ने राजनीति इतनी तात्कालिक कर दी है कि शिवराज चौहाण और रमन सिंह भी जो बरसो बरस से अपनी सियासत से बीजेपी सत्ता बरकरार रखे हुये थे उन्हे उनके ही राज्य ही उनका ही वोटर अब त्तकाल की राहत तले देख रहा है और शिवराज या रमन सिंह की जीत-हार अब नहीं होगी बल्कि ये मोदी की साढे चार बरस की सत्ता की जीत हार है ।
तो क्या ये 2019 से पहले का सियासी बैरोमिटर है ...प्रोफेसर की इस टिप्पणी पर सव्यसेवक महोदय लगभग खिझते हुये बोले ...आप बहुत ही जटिल हालात को मत परखे । या हालात को उलझाये मत...ये समझे कि चुनाव अगर बिना मोदी होते तो क्या होता ।
यानी
यानी कि मध्यप्रदेश. छत्तिसगढ और राजस्थान दरअसल राज्यो के चुनाव भर होते तो काग्रेस की पसीने छूट जाते । लेकिन चुनाव मोदी के नाम पर हो रहा है तो उन्ही के नाम का सारा ठिकरा बीजेपी के इन क्षत्रपो पर भी फूटेगा ।
बात तो सही है ...यहा एक सवाल तो ये भी है कि 2014 के बाद यानी मोदी की बंपर जीत के बाद पहली बार बीजेपी की सत्ता का टेस्ट हो रहा है । क्योकि बीते चार बरस में तो काग्रेस या क्षत्रपो को बीजेपी ने पटखनी दी । और हर पटखनी के पीछे मोदी की ताकत को ही तौला गया ।
क्यों गुजरात में तो बीजेपी की ही सत्ता थी...
ठीक कह रहे है आप ...गुजरात में बीजेपी सत्ता गंवाते गंवाते बची ...लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ या राजस्थान में तो बीजेपी है और अब बीजेपी का नहीं मोदी का ही टेस्ट होना है । यानी चाहे अनचाहे राज्यो ने जो अच्छे काम भी किये होगें उनके सामने मोदी का इम्तिहान है । और बीते चार बरस में हुआ क्या क्या है ये किसी से छुपा नहीं है क्योकि केन्द्र सरकार के प्रचार ने बाकि सबकुछ छुपा लिया है । और मेरे ख्याल से आप इसे ही हैट्रिक मान रहे है । मेरे ये कहते ही स्वयसेवक महोदय ने फिर ठहाका लगाया.और बोले वाजपेयी जी आप सिर्फ पत्रकारिय मिजाज के जरीये समझा रहे है लेकिन मै संघ और बीजेपी के भीतर के हालात को देखकर बता रहा हूं कि खतरे की घंटी ये नहीं है कि कल तक काग्रेस हारी अब बीजेपी हारेगी । खतरा तो इस बात को लेकर है कि बीजेपी हारेगी नहीं बल्कि खत्म होने के संकट से गुजरेगी । और फिर भी प्रधानमंत्री मोदी की तरफ देखना उसकी मजबूरी होगी ।
क्यों ....
क्योकि इस दौर में जो दस करोड कार्यकत्ता का ढांचा अमित शाह ने खडा किया है और मोदी कैबिनेट में बिना जमीन के नेताओ को सिर पर बैठाया गया है ....उसके ढहढहाने से क्या होगा ये आप सिर्फ कल्पना भर कर सकते है । लेकिन मै उस हकीकत को देख रहा हूं ।
तो होना क्या चाहिये था ....
होना तो ये चाहिये था कि मोदी खुद को ही इन राज्यो के चुनाव से अलग रखते ।
पर ये कैसे संभव होता....
हां ठीक कह रहे है आप प्रोफेसर साहेब .... दरअसल मोदी सिर्फ प्रचारक या प्रधानमंत्री भर नहीं है बल्कि वही दिमाग है और वही खिलाडी है ।
ये क्या मतलब हुआ...मुझे स्वयसेवक महोदय से पूछना पडा...जरा साफ कहे
साफ तो यही है कि मोजदी अपने आप में पूरी पार्टी समूचे सरकार का परशेप्शन बनाते है और खुद ही प्लेयर भी है । यानी परशेप्शन भी खुद और प्लेयर भी खुद । ये गलती शुरु शुरु में राहुल गांधी ने भी की थी । लेकिन अब देखिये राहुल के साथ एक थिंक टैक काम कर रहा है जो राफेल सौदे से लेकर भूमि अधिग्रहण और किसानो के संकट या रोजगार के सवाल पर उभरने लगा है । लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के साथ कौन सा थिंक टैक है । आप किसी भी कैबिनेट मंत्री को सुन लिजिये । किसी भी संस्थान के चैयरमैन या डायरेक्टर को सुन लिजिये या फिर किसी राज्यपाल या किसी बीएचयू या जेएनयू के वीसी को ही सुन लिजिये ...जैसे ही बात मोदी की आयेगी सभी कहेगें फंला मुद्दे परसारे सुभाव उन्हे के थे । साऱे आईडिया उन्ही की थे । और खुद भी प्रचारक मोदी ये कहने से कहा चुकते है कि वह छुट्टी लेते ही नहीं सिर्फ कार करते करते है । मध्यप्रदेश और राजस्थान की कई सभाओ में उन्होने कहा मै 18 घंटे काम करता हू..
आप बहुत निजी हो रहे है ...मेरे ख्याल से 11 दिसबंर के बाद की राजनीति काफ कुछ तय करेगी ।
ना ना सवाल 11 दिसबंर का नहीं है ...ध्यान रखिये एनडीए के सहयोगियो में भाग दौड मचेगी .... वह बिहार के कुशवाहा तो संकेत दे चुके है कि 6 दिसबंर को वह बीजेपी का साथ छोड देगें ...इसे दिमाग में रखिये जो सहयोगी है उनकी चाहे 30 से 40 सीट ही हो ..लेकिन गठबंधन से आपको राष्ट्रीय मान्यता मिलती है जिसमें जातियो पर टिके राजनीतिक दल बीजेपी के फीछे खडे होकर बीजेपी को मान्यता देते है । और जब मान्यता देने वाले ही खिसकने लगेंगे तो क्या होगा ।
ये तो कोई तर्क नहीं हुआ....गटबंधन करने वाला तो सत्ता ही देखता है ....
ठीक है ...प्रचारक तो अटल बिहारी वाजपेयी भी थे लेकिन 2004 में बीजेपी  हारी लेकिन पीछे जाती कभी नहीं दिखी लेकिन इस दौर को समझे ...बीजेपी सिर्फ हारेगी नहीं ...बल्कि बीस बरस पीछे चली जायेगी
ऐसा क्यो ...
क्योकि वाजपेयी के दौर में बीजेपी पर आरोप लगा कि उसका काग्रेसीकरण हो रहा है .....और बीजेपी हारी और काग्रेस जीती तो गठबंधन के साथी एनडीए से निकलकर यूपीए में चले गये । लेकिन 2019 में हार का मैसेज सिर्फ इतना भर नहीं रहेगा क्योकि मोदी सत्ता ने बीजेपी का काग्रेसीकरण काग्रेस से भी कई कदम आगे बढकर किया । और इस प्रकिया में काग्रेस के भीतर पुरानी बीजेपी भी समा गई और वाम सोच भी समाहित हो गई । लेकिन दूसरी तरफ मोदी-शाह की बीजेपी ने  बीजेपी की पुरानी पंरपरा को भी छोड दिया और बीजेपी को भी ऐसी धारा में मोड दिया जहा अब कोई भी दूसरी पार्टी खुद का बीजेपीकरण करने से बचेगी ।
क्या ये विजन की कमी रही....प्रोफेसर साहेब के इस सवाल पर स्वंयसेवक महोदय बरबस ही बोल पडे विजन की कमी तो नहीं कहेगें प्रोफेसर महोदय ....लेकिन ये जरुर कहेगें कि जिन नीतियो को जिस उम्मीद के साथ अपनाया गया उसके परिणाम उस तरह से सामने आये नहीं ....लेकिन एक के बाद दूसरी नीतियो का एलान जारी रहा क्योकि सफलता दिखाना ही सत्ता की जरुरत बन गई और प्रचारक मोदी ने माना भी यही कि सफलता का पैमाना चुनावी जीत में है । यानी एक के बाद एक चुनावी जीत ही नीतियो की सफलता मान ली गई तो फिर चुनावी हार का मतलब क्या हो सकता है ये इसी से समझ लिजिये कि... आने वाले वक्त में मोदी सरीखी सफलता किसी पार्टी या किसी नेता को मिलने वाली नहीं है । और मोदी सरीखा नेता भी अब कोई होने वाला नहीं है ...
मतलब....
मतलब कुछ नहीं सिर्फ इंतजार किजिये 2019 के बाद आपको पता चल जायेगा ...ओरिजनल पप्पू  कौन है ?
जारी...

Wednesday, November 28, 2018

स्वयसेवक की चाय का तूफान---- संघ कौवे के पीछे भाग रहा है और बीजेपी रिजल्ट बाद की रणनीति में जुटा है



होना तो यही चाहिये था कि संघ अपने कान को देखता लेकिन वह भी कौवे के पीछे ही भाग रहा है । चाय की चुस्की और कई मुद्दो पर लंबी चर्चा के बीच जब स्वयसेवक महोदय ने आरएसएस को लेकर ही ये टिप्पणी कर दी तो पूछना पडा । कान और कौवा है कौन । अब आप भी मासूम की तरहल सवाल कर रहे है । दो दिन पहले आपने ही तो जिक्र किया था कि अयोध्या में अब जमा होने से क्या होगा । 1992 में तो बाबरी मस्जिद विध्वंस करने तो सभी जमा हो गये । अब जमा होकर किसे ढहायेगें । वह तो ठीक है मान्यवर लेकिन कौवा कौन और कान क्या है ये तो आप ही डि-कोड किजिये । अब प्रोफेसर साहेब बोले थे । तो शादी समारोह के हंगामे के बीच एक कमरे में बैठ कर संघ और सियासत पर चर्चा का मजा ही कुछ और है । और मजा भी जिस तरह मौजूदा मोदी सत्ता के हुनरमंद तौर तरीको पर कटाक्ष कर स्वयसेवक संघ की त्रासदियो को उभार रहे थे वह भी अपने आप में अजूबा ही था । जी, बताईये न...मैने कहा और अब स्वयसेवक सीधे ही बोल पडे । आप तो जानते है कि अयोध्या की चाबी सरकार के पास है लेकिन संघ के निशाने पर सुप्रीम कोर्ट है ।
मुझे टोकना पडा , क्या ये संभव है कि संघ मोदी सत्ता को निशाने पर लें लें या फिर दुनिया को बताने लगे कि सत्ता की चाबी के लिये अयोध्या की चाबी को मोदी सत्ता ने सुप्रीम कोर्ट के नाम पर छुपा लिया है ।
ना ना वाजपेयी जी ....मुश्किल ये नहीं है कि सच कौन बोलेगा । या फिर जो सच है अयोध्या की चाबी का , उसे छुपाया क्यो जा रहा है । मुश्किल ये नहीं है कि मोदी सत्ता इस अंतर्विरोध में फंस गई है कि राम मंदिर की चाबी निकाली तो भविष्य शून्य हो जायेगा और चाबी नही निकाली तो मौजूदा वक्त में ही सत्ता चली जायेगी । कटघरा तो संघ के लिये खडा हो चुका है । वह धीरे धीरे संकरा होते हुये संघ को ही जकड रहा है । हर दांव उलटा पड रहा है । विहिप समझ नहीं पा रही है कि जिस प्रवीण तोगडिया को निकाल दिया अब अगर बच्चा बच्चा राम का कहने वाले कार सेवको को प्रवीण तोगडिया का नया संगठन आकर्षित कर रहा है तो वह क्या ऐसा करें जिससे विहिप की उपयोगिता बनी रहे ।
आप सिर्फ विहिप ही क्यो कह रहे है । बजरंग दल से जुडे सैकडो कार्यकत्ता भी तो प्रवीण तोगडिया के पीछे जा खडे हो रहे है । और नागपुर में जब मोहन राव [ सरसंघचालक मोहन भागवत ] भी राम मंदिर पर बयान देने सामने आये तो प्रवीण तोगडिया की ही तरह सफेद कुर्ते पर गले में उसी रंग-तरीके का साफा लटका कर पहुंचे ।
आर रंग-रोगन पर ना जाईये । सिर्फ ये समझने की कोशिश किजिये कि आखिर संघ कान को क्यो नहीं देखना चाह रहा है ...वह कौवे के पीछे क्यो भाग रहा है । जबकि उसी भी पता है कि धीरे धीरे संघ के भीतर भृी वैसे ही सवाल उठने लगेगें जैसे बीजेपी के भीतर आज की तारिख में मोदी-शाह की सत्ता को लेकर उठते है ।
कैसे सवाल ..? अब प्रोफेसर साहेब बोल पडे ।
यही कि 1989  में ही पालमपुर प्रस्ताव में बकायदा बीजेपी ने ही संसद में कानून बनाने का प्रस्ताव पारित किया था । और उ दौर में संघ के अखिल भारतीय प्रतिनिधी सभा के प्रस्ताव को भी पढ लिजिये । रास्ता सिर्फ यही माना या बनाया गया कि बहुमत मिला नहीं कि राम मंदिर निर्माण करेगें ।
ये तो आप ठीक कह रहे है .....अमित शाह से कोई भी मुश्किल सवाल करें तो जवाब यही आता है कि जनता ने हमें चुना है, हम आपके सवालो का जवाब क्यो दें । फिर जब मोदी सत्ता से  ये पूछ दिजिये कि जनता ने क्या आपको राम मंदिर के लिये नही चुना है । तो चुप्पी साध ली जाती है । और बिना जमीन वाले कैबीनेट मंत्री ही कहने लगते है , सबका साथ सबका विकास  का नारा  तो दिया है ना ।
यही तो हम भी कह रहे है ...तमाम मुद्दो पर जिस रास्ते बीजेपी निकल चुकी है उसमें संकट ही यही है कि कहीं 2019 के बाद अपने दस करोड कार्यकत्ता के होने के दावे तले ही ये ढह ना जाये । और बीजेपी सत्ता  के आसरे जो संघ लगातार अपनी बढती शाखाओ की गिनती बता कर अपने विस्तार की लकीर खिंच रहा है वह भी डगमगा ना जाये ।
यानी खतरा दोनो तरफ है । अब प्रोफेसर बोले
प्रोफेसर साहेब ...मामला सिर्फ अयोध्या का भी नहीं है । रिजर्व बैक का ही क्या हो रहा है । जैसे जैसे 2019 नजदीक आ रहा है वैसे वैसे ये सवाल भी बडा हो रहा है कि रिजर्व बैक में जमा कितना रुपया सरकार बाजार में लाने को तैयार है और उसका असर होगा क्या । या फिर चंद दिनो बाद जब रिजर्व बैक बोर्ड बैठक में एक ट्रिलियन रुपया बाजार में लाने पर मुहर लग जायेगी तब सरकार किस तेजी से अपने उस एंजेडा को अमली जामा पहनाने की दिशा में बढेगी , जिससे वोटरो को लुभाया जा सके । और संवयसेवक तो छोड दिजिये बीजेपी के भीतर ये सवाल है कि आंकडो से पेट नहीं भरता तो फिर 2019 का चुनाव कैसे लडेगें । और अगर रिजर्व बैक एक ट्रिलियन रुपया रिलिज कर भी देता है तो मोदी सत्ता के पास ऐसा कौन सा सिस्टम है जो इस तेजी से काम करेगा कि जनवरी में अंतरिम बजट और मार्च में चुनावी नोटिफिकेशन के बीच वोटरो के बैक खातो में रुपया पहुंच जायेगाा ।
आप सिस्टम क्यो खोज रहे है । अब तो हर सिस्टम पीएमओ है । यानी वहां अंगुलिया नाचेगीं और झटपट काम होने लगेगा ।
वाजपेयी जी आप इसे गंभीरता से लिजिये । क्योकि नोटबंदी के वक्त मोदी सत्ता को यही लगता रहा कि तीन लाख करोड रुपया उसके पास होगा जिसे वह अपने वोटरो में बांटेगें और बतायेगें कि कैसे रईसो की जेब से उन्होने गरीबो की कल्याण योजनाओ के लिये घन निकाल लिया । लेकिन हुआ क्या । ये तो सरकार के ही कृर्षि मंत्रालय की रिपोर्ट ने भी जतला दिया कि अंसगठित और ग्रमीण भारत में कितनी मुश्किलात बढ गई । और इस दौर में सांसदो और मंत्रियो को लगा दिया गया कि वह आंकडो के जरीये ग्रमीण भारत के पेट को भर दें । और अब रिजर्व बैक से एक ट्रिलियन रुपया निकाल कर देश में होने क्या वाला है इसका अहसास भर है आपको ।
क्यों नहीं , मंहगाई बढेगी । डालर और मंहगा होगा । पेट्रोल -डिजल की किमते भी बढेगी । और आखिरकार मुस्किल में वही किसान मजदूर या गरीब तबके को आना है जिसकी हथेली जिन्दगी सबकुछ खाली है ।
बंधुवर एक बात कहूं....मुझे लगा स्वयसेवक ही जब सबकुछ बोले दे रहे है तो फिर चुनावी सियासत की छौक जरुरी है ।
जी कहिये...
दरअसल मोदी सत्ता का समूचा खेल ही पूंजी पर जा टिका है । यानी देश में लोकतंत्र तो पहले भी मंहगा था । कुछ काला धान । कुछ बाहुबल का जमा धन । या फिर कारपोरेट फंड भी पहे खूब निकलता था । लेकिन अब तो सबकुछ पूंजी पर इस तरह टिका दिया गया है कि जैसे कारु का खजाना बीजेपी के पास है और जिसे जहा चाहा वहा खरीद लिया । जो खरीदा ना गया उसे पूंजी के आसरे दबा दिया गया । 
यानी...अब प्रोफेसर बोले
यानी यही कि प्रोफेसर साहेब पूंजी का माडल क्या होता है जरा इसे उदाहरम के साथ समझने के लिये छत्तिसगढ के चुनाव को समझे । ग्रामिण छत्तिसगढ जो कि 80 फिसदी है । वहा किसान मान रहा है कि काग्रेस सत्ता में आयेगी तो कर्ड माफी होगी । समर्थन मूल्य बढ जायेगा । तो उसने मंडी जाना ही बंद कर दिय़ा । क्योकि अभी जाने का मतलब होता औने पौने दाम में फसल बेचना । यानी जब हवा ये बन रही है कि छत्तिसगढ बीजेपी गंवा रही है तो सत्ता बरकतरार रखने के लिये जरा सोचिये कौन कौन सा खेल हो रहा होगा या 11 दिसबंर के बाद होगा ।
अब स्वयसेवक की जिज्ञासा जागी .... कुछ खेल तो मै जानता हूं ...लेकिन आप बताइये ।
ना ना आप क्या जानते है ...पहले अब आप ही बताईये...
यही कि छत्तिंसगढ को रमन सिंह समर्थन या विरोध पर ही टिका दिया गया है और उसी दायरे में काग्रेस को भी बांटने की तैयारी है ।
जी ,काफी छोटा सा हिस्सा आपने पकडा .... क्योकि आपके जहन में गोवा माडल होगा । लेकिन अब बात उसके आगे की है ।
वह कैसे ? प्रोफेसर बोले...
दरअसल काग्रेस अब बूथ लेबल तो मैनेज करना सीख गई है लेकिन काग्रेस के नीचे यानी सांगठनिकल तौर पर पुराना लेप ही अब भी चढा हुआ है । और पुराने लेप का मतलब ये है कि सत्ता के पैसे पर सत्ता के खिलाफ विपक्ष की सियासत करने वाले काग्रेस नेता  । 
इसका क्या मतलब हुआ ....प्रोफेसर बोले
तो झटके में स्वयसेवक ही बीच में कूद पडे ....अरे प्रोफेसर साहेब छत्तिसगढ में बीजेपी की सबसे ज्यादा स्टेक है । क्योकि छत्तसगढ में खनन  और पावर सेकटर का खेल है । सत्ता के करीबी कारपोरेट के खन हो या पावर सेक्टर ..उसके लिये काग्रेस के नेता काम करते है और कुछ भी बोलने से कतराते है । इस कतार में सिर्फ काग्रेसी बघेल को छोड दिजिये तो तीन चार जो भी आपको महत्वपूर्ण चेहरे नजर आते है जो सीएम की दौड में हो सकते है जरा जानकारी लिजिये क्यो कभी किसी ने वहा सत्ता से सटे खनन माफिया का नाम लिया । या फिर रमन सिंह को ही निशाने पर लिया । आलम तो ये है कि बीजेपी के सबसे ताकतवर विधायक अग्रवाल दक्षिण रायपुर से आते है और बरसो बरस से वह जीतते इसलिये रहे है क्योकि वही काग्रेसी उम्मीदवार तय करते है ।
इस बार भी किये है क्या ....
बिलकुल...और मजेदार बात तो ये है कि दक्षिण रायपुर सीट में सबसे ज्यादा मुस्लिम वोटर है । और जरा जा कर पता किजिये चुनाव वाले दिन ही कितनी बसे गरीब मुस्लिम वोटरो को लेकर अजमेर शरीफ चली गई । और मजा तो ये भी है कि जो वोटिंग के अगले दिन अपनी साफ अंगुली दिखा दें उसे पांच हजार रुपये मिल जाते है । पिछली बार ये रेट दो हजार था ।
तो क्या काग्रेस हाईकमान या कहे राहुल गांधी इसे समझ नहीं पा रहे है ..
राहुल गांधी अभी संगठन के निचले पायदान पर पहुंचे नहीं है । तो जो शोर नीचे से सुनाई देता है उसे ही कैडर का सच मान लिया जाता है और उसी शोर को तवोज्जो भी मिल जाती है ।
तो क्या ये माना जाये कि पन्ना प्रमुख या बूछ मैनेजमेंट के आगे का रास्ता अब अमित शाह अपना चुके है ।
जी , अब आपने लाइन पकडी ।
तो बंधु वह लकीर है क्या.....मुझे स्वयसेवक महोदय से पूछना पडा ।
लकीर साफ है , समूचा ग्रामीण भारत मुस्किल में है । और छत्तिसगढ मध्यप्रदेश या राजस्थान में 70 फिसदी वोटर ग्रामीण ही है । औकर बीजेपी ये मान कर चल रही है कि मुश्किल तीनो राज्यो में है ।
क्या तीनो में बीजेपी निपट भी सकती है .....प्रोफेसर साहेब का सीधा सवाल सुन कर स्वयसेवक महोदय झटके में बोल पडे...मै कोई ज्योतिष तो हू नहीं ....क्या होगा ये तो 11 दिसबंर को सामने होगा । लेकिन मेरा सिर्फ यही कहना है कि रिजल्ट के बाद कैसे सत्ता बरकरार रहे इसकी मशक्कत अभी से तीनो राज्यो में प्लान बी-सी के तहत हो  रही है । और संघ यही समझ नहीं पा रहा है कि जब सब ठीक है कि बात कही गई तो फिर दांव उल्टा नजर क्यो आ रहा है ।
तो क्या संघ ने भी हाथ खिंच लिये है ....
हाथ नहीं खिंचे है ...लेकिन मै आपको मध्यप्रदेश में हफ्ते भर पहले की एक घटना बताता हू....देर रात करीब 70 सीटो की सूची लेकर सीएम महोदय या नी शिवराज सिंह चौहाण संघ के उस श्खस के निवास पर पहुंचे जिसके पास मध्यप्रदेश की जिम्मेदारी है । ....
उन  70 सीटो में क्या था...
कुछ नहीं बीजेपी इन 70 सीटो पर हार देख रही थी और संघ से मदद मांग रही थी । लेकिन समझना होगा कि मदद सरसंघचालक या दूसरे नंबर के भैयाजी जीशी से मदद नहीं मांगी गई ।
तो इसका मतलब...
मतलब यही कि  जब सारा कमाल करने की क्षमता मोदी-अमित शाह में ही है तो फिर बीजेपी का अदना कार्यकत्ता क्या करें और संघ का स्वयसेवक क्या करें ....
क्यो सत्ता तो बरकरार रहेगी....
वाजपेयी जी...सत्ता हर बीजेपी कार्यकत्ता की नही होती और लाभ हर स्वयसेवक को नहीं मिलता .....
तब तो बीजेपी की हैट्रिक होने वाली है .....
हा हा हा हा .....प्रोफेसर की इस टिप्पणी से स्वयसेवक ठहाका लगा कर हंस पडे...
जारी.........

Monday, November 26, 2018

अयोध्या की धर्म सभा और बनारस की धर्म संसद के बीच फंसी है सियासत




इधर अयोध्या उधर बनारस । अयोध्या में विश्व हिन्दु परिषद ने धर्म सभा लगायी तो बनारस में शारदा ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती ने धर्म संसद बैठा दी । अयोध्या में विहिप के नेता-कार्यकत्ता 28 बरस पहले का जुनुन देखने को बैचेन लगे तो बनारस की हवा में 1992 के बरक्स में धर्म सौहार्द की नई हवा बहाने की कोशिश शुरु हुई । अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का नारा लेकर विहिप संघ और साधु संतो की एक खास टोली ही नजर आई । तो बनारस में सनातनी परंपरा की दिशा तय करने के लिये उग्र हिन्दुत्व को ठेंगा दिखाया गया और चार मठो के शंकराचार्यो के प्रतिनिधियो के साथ 13 अखाडो के संत भी पहुंचे । 108 धर्माचार्यो की कतार में 8 अन्य धर्म के के लोग भी दिखायी दिये । अयोध्या में खुले आसमान तले पांच घंटे की धर्म सभा महज तीन घंटे पचास मिनट के बाद ही नारो के शोर तले खत्म हो गई । तो बनारस में गंगा की साफ-अविरलता और गौ रक्षा के साथ राम मंदिर निर्माण का भी सवाल उठा ।तो धर्म संसद 25 को शुरु होकर 27 तक चलेगी । अयोध्या में राम को महापुरुष के तौर पर रखकर राम मंदिर निर्माण की तत्काल मांग कर दी गई । तो बनारस में राम को ब्रह्मा मान कर किसी भी धर्म को आहत ना करने की कोशिशे दिखायी दी । अयोध्या की गलियो में मुस्लिम सिमटा दिखायी दिया । कुछ को 1992 याद आया तो तो राशन पानी भी जमा कर लिया । बनारस में मुस्लिमो को तरजीह दी गई । 1992 को याद बनारस में भी किया गया पर पहली बार राम मंदिर के नाम पर हालात और ना बिगडने देने की खुली वकालत हुई । अयोध्या के  पांजीटोला, मुगलपुरा जैसे कुछ मोहल्ले की मुस्लिम बस्तियों के लोगों ने बातचीत में आशंका जताई कि बढ़ती भीड़ को लेकर उनमें थोड़ा भय का माहौल बना । तो बनारस ने गंगा जमुनी तहजीब के साथ हिन्दु संसाकृतिक मूल्यो की विवेचना की , तो बुलानाला मोहल्ला हो या दालमण्डी का इलाका है, चर्चा पहली बार यही सुनाई दी कि राम मंदिर पर बीजेपी की सियासत ने और संघ की खामोशी ने हिन्दुओ को बांट दिया । कुछ सियासत के टंटे समझने लगे तो कुछ सियासी लाभ की खोज में फिर से 1992 के हालात को टटोलने लगे । और ये लकीर जब अयोध्या और बनारस के बीच साफ खिची हुई दिखायी देने लगी तो राजनीतिक बिसात पर तीन सवाल उभरे । पहला , बीजेपी के पक्ष में राम मंदिर के नाम पर जिस तरह समूचा संत समाज पहले एकसाथ दिखायी देता अब वह बंट चुका है । दूसरा , जब बीजेपी की ही सत्ता है और प्रचारक से प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी के पास बहुमत का भंडार है तो फिर विहिप कोई भी नारा कैसे अपनी ही सत्ता के खिलाफ कैसे लगा सकती है । तीसरा , राम मंदिर को लेकर काग्रेस की सोच के साथ संत समाज खडा दिखायी देना लगा । यानी ये भी पहली बार हो रहा है कि ढाई दशक पहले के शब्दो को ही निगलने में स्वयसेवको की सत्ता को ही परेशानी हो रही है । और 1992 के हालात के बार राममंदिर बनाने के नाम पर सिर्फ हवा बनाने के केल को और कोई नहीं बीजेपी के अपने सहयोगी ही उसे घेरने से नहीं चूक रहे है ।
दरअसल अपने ही एंजेडे तले  सामाजिक हार और अपनी ही सियासत तले राजनीतिक हार के दो फ्रंट एक साथ मोदी सत्ता को घेर रहे है । महत्वपूर्ण ये नहीं है कि शिवसेना के तेवर विहिप से ज्यादा तीखे है । महत्वपूर्ण तो ये है कि शिवसेना ने पहली बार महाराष्ट्र की लक्ष्मण रेखा पार की है और बीजेपी के हिन्दु गढ में खुद को ज्यादा बडा हिन्दुवादी बताने की खुली चुनौती बीजेपी को दे दी है । यानी जो बीजेपी कल तक महाराष्ट्र में शिवसेना का हाथ पकडकर चलते हुये उसे ही पटकनी देने की स्थिति में आ गई उसी बीजेपी के घर में घुस कर शिवसेना ने अब 2019 के रास्ते जुदा होने के मुद्दे की तालाश कर ली है । तो सवाल दो है , पहला क्या बीजेपी अपने ही बनाये घेरे में फंस रही है या फिर दूसरा की बीजेपी चाहती है कि ये घेरा और बडा हो जिससे एक वक्त के बाद आर्डिनेंस लाकर वह राम मंदिर निर्माण की दिशा में बढ जाये । लेकिन ये काम अगर मोदी सत्ता कर देती है तो उसके सामने 1992 के हालात है । जब बीजेपी राम मय हो गई थी और उसे लगने लगा  था कि सत्ता उसके पास आने से कोई रोक नहीं सकता । लेकिन 1996 के चुनाव में बीजेपी राममय होकर भी सत्ता तक पहुंच नहीं पायी और 13 दिन की वाजपेयी सरकार तब दूसरे राजनीतिक दलो से इसलिये गठबंधन कर नहीं  पायी  क्योकि बाबारी मस्जिद का दाग लेकर चलने की स्थिति में कोई दूसरी पार्टी थी नहीं । और याद कर लिजिये तब का संसद में वाजपेयी का भाषण जिसमें वह बीजेपी को राजनीतिक अछूत बनाने की सोच पर प्रहार करते है । बीजेपी को चाल चरित्र के तौर पर तमाम राजनीतिक दलो से एकदम अलग पेश करते है । और संसद में ये कहने से बी नहीं चुकते , " दूसरे दलो के मेरे सांसद साथी ये कहने से नहीं चुकते कि वाजपेयी तो ठीक है लेकिन पार्टी ठीक नहीं है । " और असर का हुआ कि 1998 में जब वाजपेयी ने अयोध्या मुद्दे पर खामोशी बरती तो प्रचारक से प्रधानमंत्री का ठोस सफर वाजपेयी ने शुरु किया । और 1999 में अयोध्या के साथ साथ धारा 370 और कामन सिविल कोड को भी ताले में जड दिया गया । ध्यान दे तो नरेन्द्र मोदी भी 2019 के लिये इसी रास्ते पर चल रहे है । जो 60 में से 54 महीने बीतने के बाद भी अयोध्या कभी नहीं गये और विकास के आसरे सबका साथ सबका विकास का नारा ही बुंलद कर अपनी उपोयगिता को काग्रेस या दूसरे विपक्षी पार्टियो से अक कदम आगे खडा करने में सफल रहे । लेकिन यहा प्रधानमंत्री मोदी ये भूल कर रहे है कि आखिर वह स्वयसेवक भी है । और स्वयसेवक के पास पूर्ण बहुमत है । जो कानून बनाकर राम मंदिर निर्माण की दिशा में बढ सकते है । क्योकि बीते 70 बरस से अयोध्या का मामला किसी ना किसी तरह अदालत की चौखट पर झूलता रहा है और संघ अपने स्वयसेवको को समझाता आया है कि जिस दिन संसद में उनकी चलेगी उस दिन राम मंदिर का निर्माण कानून बनाकर होगा । और ऐसे हालात में अगर नरेन्द्र मोदी की साख बरकरार रहेगी तो विहिप के चंपतराय और सरसंघचालक मोहन भागवत की साथ मडियामेट होगी । चंपतराय वही शख्स है जिनहोने 6 दिसबंर 1992 की व्यूह रचना की थी । और तब सरसंघचालक देवरस हुआ करते थे । जो 1992 के बाद बीजेपी को समझाते भी रहे कि धर्म की आग से वह बच कर रहे । और राम मंदिर निर्माण की दिशा में राजनीति को ना ले जाये । लेकिन अब हालात उल्टे है सरसंघचालक भागवत अपनी साख के लिये राम मंदिर का उद्घघोष नागपुर से ही कर रहे है । और चंपतराय के पास प्रवीण तोगडिया जैसे उग्र हिन्दुत्व की पोटली बांधे कोई है नहीं । और उन्हे इसका भी अहसास है कि जब तोगडिया निकाले जा सकते है और विहिप की कुर्सी पर ऐसे शख्स बैठा दिया जाते है जिन्हे पता ही नहीं है कि अयोध्या आंदोलन खडा कैसे हुआ । और कैसे सिर पर कफन बांध कर स्वयसेवक तक निकले थे । और नरेन्द्र मोदी की पहचान भी 1990 वाली ही है जो सोमनाथ से निकली आडवाणी की रथयात्रा में गुजरात की सीमा तक नजर आये थे । यानी ढाई दशक में जब सबकुछ बदल चुका है तो फिर अय़ोध्या की गूंज का असर कितना होगा । और बनारस में अगर सर्व धर्म सम्माव के साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत ही तमाम धर्मो के साथ सहमति कर राम मंदिर का रास्ता खोजा जा रहा है तो फिर क्या ये संकेत 2019 की दिशा को तय कर रहे है । क्योकि अयोध्या हो या बनारस दोनो जगहो पर मुस्लिम फुसफुसाहट में ही सही पर ये कहने से नहीं चुक रहा है कि राम मंदिर बनाने से रोका किसने है । सत्ता आपकी । जनादेश आपके पास । तमाम संवैधानिक संस्थान आपके इशारे पर । तो फिर मंदिर को लेकर इतना हंगामा क्यों । और चाहे अनचाहे अब तो हिन्दु भी पूछ रहा है आंदोलन किसके खिलाफ है , जब शहर तुम्हारा, तुम्ही मुद्दई , तुम्ही मुंसिफ तो फिर मुस्लिम  कसूरवार कैसे ....।

Wednesday, November 21, 2018

सुषमा ना तो मोदी है ना ही योगी


 सुषमा स्वराज ना तो  नरेन्द्र मोदी की तरह आरएसएस से निकली है और ना ही योगी आदित्यनाथ की तरह हिन्दु महासभा से । सुषमा स्वराज ने राजनीति में कदम जयप्रकाश नारायण के कहने पर रखा था और राजनीतिक तौर पर संयोग से पहला केस भी अपने पति स्वराज के साथ मिलकर बडौदा डायनामाईट कांड का लडा था । जो कि जार्ज फर्नाडिस पर इमरजेन्सी के वक्त लगाया गया था । और करीब पन्द्रह बरस पहले लेखक को दिये एक इंटरव्यू में सुषमा स्वराज ने राजनीति में हो रहे बदलाव को लेकर टिप्पणी की थी , जेपी ने मेरी साडी के पल्लू के छोर में गांठ बांध कर कहा कि राजनीति इमानदारी से होती है । और तभी मैने मन में गाठं बांध ली इमानदारी नहीं छोडूगी ।
लेकिन मौदूदा वक्त में जब राजनीति ईमानदारी की पटरी से उतर चुकी है । छल-कपट और जुमले की सियासत तले सत्ता की लगाम थामने की बैचेनी हर दिल में समायी हुई है तब सुषमा स्वराज का पांच महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव को ना लडने का एलान उनकी इमानदारी को परोसता है या फिर आने वाले वक्त से पहले की आहट को समझने की काबिलियत को दर्शाता है । सवाल कई हो सकते है कि आखिर छत्तिसगढ में जिस दिन वोटिंग हो रही थी उसी दिन सुषमा स्वराज ने चुनाव ना लडने का एलान क्यो किया । जब मध्यप्रदेश में हफ्ते भर बाद ही वोटिंग होनी ही , तो क्या तब तक सुषमा रुक नहीं सकती थी । या फिर जिस रास्ते मोदी सत्ता या बीजेपी निकल पडी है उसमें बीजेपी या सरकार के किसी भी कद्दावर नेता की जरुरत किसे है । या उसकी उपयोगिता ही कितनी है । यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है कि मोदी सत्ता के दौर में जनता से लेकर नौकशाही और प्रोफेशनल्स से लेकर संवैधानिक संस्थानो तक के भीतर ये सवाल है कि उनकी उपयोगिता क्या है । और इस कैनवास को राजनीतिक तौर पर मथेगें तो जिस अंदाज में बीजेपी अध्यक्ष चुनावी बिसात बिछाते है और जिस अंदाज में प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक सभाये चुनावी जीत दिला देती है उसमें कार्यकत्ता या राजनीतिक कैडर की भी कितनी उपयोगिता है ये भी सवाल है । यानी सिर्फ आडवाणी या जोशी ही नहीं बल्कि सुषमा स्वराज और राजनाथ सरीखे मंत्रियो को भी लग सकता है कि उनकी उपयोगिता है कहां । और ध्यान दें तो जिनका महत्व मोदी सरकार के भीतर है उनमें अरुण जेटली चुनाव जीत नहीं पाते है । पियूष गोयल , धर्मेन्द्र प्रधान , निर्माला सितारमण , राज्यवर्धन राठौर का कौन सा क्षेत्र है जहा से उनकी राजनीतिक जमीन को समझा जाये । और कैबिनेट मंत्रियो की पूरी कतार है जिसमें मोदी के दरबार में जिनका महत्व है अगर उनसे उनका मंत्रालय ले लिया जाये तो नार्थ-साउथ ब्लाक में घुमते इन नेताओ के साथ कोई सेल्फी लेने भी ना आये । और इस कडी में राजनीतिक तौर पर नागपुर से पहचान बनाये नीतिन गडकरी कद्दवर जरुर है लेकिन ये भी नागपुर शहर ने ही देखा है कि 2014 में कैसे मंच पर गडकरी को अनदेखा कर देवेन्द्र फडनवीस को प्रधानमंत्री मोदी तरजीह देते है ।
तो ऐसे हर कोई सोच सकता है कि जब बीजेपी का मतलब अमित शाह-नरेन्द्र मोदी है और सरकार का मतलब नरेन्द्र मोदी-अरुण जेटली है तो फिर वाकई  सुषमा स्वराज चुनाव किसलिये चुनाव लडे । फिर जिस विदिशा की चिंता सुषमा स्वराज ध्यान ना देने के बाबत कर रही है उस विदिसा में अगर सुषमा वाकी विकास को कोई झंडा गाड ही देती तो क्या उन्हे इसकी इजाजत भी होती ही वह मध्यप्रदेश में जाकर बताये कि उनका लोकसभा क्षेत्र किसी भी लोकतसभा क्षेत्र से ज्यादा बेहतर हो चला है । ऐसा कहती तो बनारस बीच में आ खडा होता । काशी में बहती मां गंगा की निर्मलता-अविरला से लेकर क्वेटो तक पर सवाल खडा होते । और होता कुछ नहीं सिर्फ सुषमा स्वराज ही निसाने पर आ जाती । डिजिटल इंडिया के दौर में कहे तो सुषमा स्वराज को हिन्दुवादी ट्रोल कराने लगते । और झटके में भक्त मंत्री से ज्यादा ताकतवर कैसे हो जाते है ये देश भी देख चुका है और सुषमा स्वराज को भी इसका एहसास है । इसी कडी में  यूपी के कद्दावर राजपूत नेता के तौर पर भी पहचान पाये राजनाथ सिह भी चुनाव लडकर क्या कर लेगें । क्योकि योगी भी राजपूत है और मौके बे मौके पर योगी को राजनाथ से ज्यादा तरजीह कैसे किस रुप में दी जाये जिससे राजनाथ सरीखे कद्दावर नेता की भी मिट्टी पलीद होती रहे ये भी कहा किससे छुपा है । फिर 2014 में तो यूपी के ज्यादातर सीटो पर किसे खडे किया जाये उस वक्त के बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ की ही चली थी । ये अलग बात है कि मोदी ने हालात को ही कुछ इस तरह पटकनी दी कि राजनाथ सिंह भी खामोश हो गये । लेकिन 2019 का सच तो यही होगा राजनाथ ही चुनाव किस सीट से लडे इसे भी मोदी-शाह की जोडी तय करेगी । और जो हालात बन रहे है उसमें 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के  बहुमत से दूर रहने के बावजूद कोई मोदी माइनस बीजेपी की ना सोचे, इसलिये टिकट भी मोदी-शाह अपने करीबियो को ही देगें जो बीजेपी की हार के बाद भी नारे हर हर मोदी ....घर घर शाह के लगाते रहे ।
और यही वह बारिक लकीर है जिसपर बीजेपी के पहचान पाये समझदार-कद्दावर नेताओ को भी चलना है और बिना पहचान वाले नेताओ को साथ खडा कर पहचान देते हुये सत्ता-पार्टी चलाने वाले नरेन्द्र मोदी-अमित शाह को भी चलना है ।  क्योकि अभी जिन पांच राज्यो में चुनाव हो रहे है उसमें सभी की नजर बीजेपी शासित तीन राज्य राजस्थान , मध्यप्रदेश, छत्तिसगढ पर ही है । और अमितशाह की बिसात पर मोदी की चुनावी रैली क्या गुल खिलायेगी ये तो दूर की गोटी है लेकिन 2014 से 2018 के हालात कितने बदल चुके है ये चुनाव प्रचार को देखने -सुनने आती भीड की प्रतिक्रया से समझा जा सकता है । 2014 में मोदी के कंघे पर कोई सियासी बोझ नहीं था । लेकिन 2018 में हालात बदल गये है । किसान का कर्ज -बेरोजगारी-नोटबंदी- राफेल का बोझ उठाये प्रधानमंत्री जहा भी जाते है वहा 15 बरस से सत्ता में रहे रमन सिंह या तीन पारी खेल चुके शिवराजसिंह चौहाण के कामकाज छोटे पड जाते है । यानी राज्य की  एंटी इनकबेसी पर  प्रधानमंत्री मोदी की एंटीइनकंबेसी भारी पड रही है । यानी अगर इस तिकडी राज्य को बीजेपी गंवा देती है तो फिर कल्पना किजिये 12 दिसबंर के बाद क्या होगा । सवाल काग्रेस का नहीं सवाल मोदी और अमित शाह की सत्ता का है । वहा क्या होगा । बीजेपी के भीतर क्या होगा । सत्ता तले संघ के विस्तार की आगोश में कोया संघ क्या करवट लेगा ।ये सारे सवाल है , लेकिन 12 दिसबंर के बाद बीजेपी के भीतर की कोई भी हलचल इंतजार कर कदम उठाने वाली मानी जायेगी । यानी तब राजनाथ हो या जोशी या आडवाणी कदम कुछ भी उठाये या सलीके से हालात को समझाये मगर तब हर किसी को याद सुषमा स्वराज ही आयेगी । क्योकि इमानदारी राजनीति के आगे छल-कपट या जुमले ज्यादा दिन नहीं टिकते ।

Monday, November 19, 2018

साहेब...देश ऐसे नहीं चलता है


सीबीआई, सीवीसी,सीआईसी, आरबीआई और सरकार । मोदी सत्ता के दौर में देश के इन चार प्रीमियर संस्थान और देश की सबसे ताकतवर सत्ता की नब्ज पर आज की तारिख में कोई  अंगुली रख दें तो घडकने उसकी अंगुलियो को भी छलनी कर देगी । क्योकि ये सभी अपनी तरह के ऐसे हालातो को पहली बार जन्म दे चुके है जहा सत्ता का दखल , क्रोनी कैपटलिज्म , भ्रष्ट्रचार की इंतहा और जनता के साथ धोखाधडी का खुला खेल है । और इन सारे नजारो का सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक दायरे में देखना - परखना चाह रहा है लेकिन सत्ता का कटघरा का इतना व्यापक है कि संवैधानिक संस्थाये भी बेबस नजर आ रही है । एक एक कर परतो को उठाये तो रिजर्व बैक चाहे सरकार की रिजर्व मनी की मांग पर  विरोध कर रहा है लेकिन बैको से कर्ज लेकर जो देश को चूना लगा रहे है उनके नाम सामने नहीं आने चाहिये इसपर रिजर्व बैक की सहमति है । यानी एक तरफ सीवीसी रिजर्व बैक को नोटिस देकर पूछ रहा है कि जो देश का पैसा लेकर देश छोड कर चले गये । और जो जा सकते है । या फिर खुले तौर पर बैको को ठेंगा दिखाकर कर्ज लिया पैसा ही लौटाने को तैयार नहीं है उनके नाम तो सामने आने ही चाहिये । लेकिन इसपर रिजर्व बैक की खामोशी और मोदी सत्ता की नाम सामने आने पर इक्नामी के ठगमगाने का खतरा बताकर खामोशी बरती जा रही है । यानी एक तरफ बीते चार बरस में देश के 109 किसानो ने खुदकुशी इसलिये कर दी क्योकि पचास हजार रुपये से नौ लाख रुपये तक का बैक से कर्ज लेकर ना लौटा पाने की स्थिति में बैको ने उनके नाम बैको के नोटिस बोर्ड पर चस्पा कर दिये । तो सामाजिक तौर पर उनके लिये हालात ऐसे होल गये कि जीना मुस्किल हो गया और इसके सामानांतर बैको के बाउंसरो ने किसानो के मवेशी से लेकर घर के कपडे भांडे तक उठाने शुरु कर दिया । तो जिस किसान को सहन नहीं हुआ तो उसने खुदकुशी कर ली । लेकिन इसी सामानांतर देश के करीब सात सौ से ज्यादा रईसो ने कर्ज लेकर बैक को रुपया नहीं लौटाया और रिजर्व बैक के पूर्व गवर्नर ने जब इन कर्जदारो के नामो को सरकार को सौपा तो सरकार ने ही इसे दबा दिया । तो सीआईसी कुछ नहीं कर सकता सिवाय नोटिस देने के । तो उसने नोटिस दे दिया ।
यानी सीआईसी दंतहीन है । लेकिन सीवीसी दंतहीन नहीं है । ये बात सीबीआई के झगडे से उभर कर आ गई । खासकर जब सरकार सीवीसी के पीछे खडी हो गई । सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा ने सोमवार को जब सीवीसी की जांच को लेकर अपना पक्ष सुप्रीम कोर्ट को सीलबंद लिफाफे में सौपा तो तीन बातो साफ हो गई । पहला सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर आस्थाना के बीच सीवीसी खडी है । दूसरी सीवीसी बिना सरकार के निदर्श के बगैर सीबीआई के डायरेक्टर की जांच कर नहीं सकती है यानी सरकार का साथ मिले तो दंतहीन सीवीसी के दांत हाथी सरीखी नजर आने लगेगें । और तीसरा जब संवैधानिक संस्थानो से सत्ता खिलवाड करने लगे तो देश में आखरी रास्ता सुप्रीम कोर्ट का ही बचता है । और आखरी रास्ता का मतलब संसद इसलिये नहीं है क्योकि संसद में अगर विपक्ष कमजोर है तो फिर सत्ता हमेशा जनता की दुहाई देकर संविधान को भी दरकिनार करते हुये जनता के वोटो की दुहाई देगी । और यहा सरकार वाकई " सरकार  " की भूमिका में होगी ना कि जन सेवक की भूमिका में । जो हो रहा है और दिखायी दे रहा है ।
लेकिन इस कडी में अगर सत्ता के साथ देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी जुड जाये तो देश किस मोड पर खडी है इसका एहसास भर ही हो सकता है । और इस बारिक लकीर को जब कोई पकडना या छूना तक नहीं चाहता है जब तब ये समझने की कोशिश करें कि सीबीआई सिर्फ नाम भर की संस्था नहीं है । या फिर जब किसी संस्था का नाम देश की साख से जुड जाता है और अपनी साख बचाने के लिये सत्ता संस्था की साख का इस्तेमाल करने लगती है तो क्या क्या हो सकता है । तो संयोग देखिये सोमवार को ही सीबीआई डायरेक्टर ने अपने उपर स्पेशल डायरेक्टर आस्थाना के लगाये गये करप्शन के आरोपो का जवाब जब सीवीसी की जांच रिपोर्ट के जवाब में सुप्रीम कोर्ट में सौपा तो चंद घंटो में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा सीबीआई के डीआईजी रहे मनीष कुमार सिन्हा ने खटखटाया । और सबे महत्वपूर्ण तो ये है कि सिन्हा ही आलोक वर्मा के निर्देश पर आस्थाना के खिलाफ लगे करप्शन के आरोपो की जांच कर रहे थे । और जिस रात सीबीआई डायरेक्टर और स्पेसळ डायरेक्टर आस्थाना की लडाई के बाद  सरकार सक्रिय हुई , और सीबीआई हेडक्वाटर में आधी रात को सत्ता का आपरेशन हुआ । उसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने सबसे प्रमुख भूमिका निभायी । और तब देश को महसूस कुछ ऐसा कराया गया कि मसला तो वाकई देश की सुरक्षा से जुडा है । हालाकि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कभी भी सीबीआई या सीवीसी सरीखे स्वयत्त संस्थानो में दखल दे नहीं सकते । लेकिन जब सत्ता की ही दखल हो जाये तो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और क्या कर सकते है । या उनके सामने भी कौन सा विक्लप होगा । लेकिन यहा बात रात के आपरेशन की नहीं है बल्कि आस्थाना के खिलाफ जांच कर रहे सीबीआई डीआईजी मनीष कुमार सिन्हा के उस वक्तव्य की हो जो उन्होने सुप्रीम कोर्ट को सौपी है । चूकि सिन्हा का तबादला रात के आपरेशन के अगले ही दिन नागपुर कर दिया गया । यानी आस्थाना के खिलाफ जांच से हटा दिया गया । तो उन्ही मनीष कुमार सिन्हा जब ये कहते है कि  अस्थाना के खिलाफ जांच के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने दो मौकों पर तलाशी अभियान रोकने के निर्देश दिए थे। वहीं, एक बिचौलिए ने पूछताछ में बताया था कि गुजरात से सांसद और मौजूदा कोयला व खनन राज्यमंत्री हरिभाई पार्थीभाई चौधरी को कुछ करोड़ रुपए की रिश्वत दी गई थी। तो इसके अर्थ क्या निकाले जाये । क्या सत्ता सिर्फ अपने अनुकुल हालातो को अपने ही लोगो के जरीये बनाने को देश चलाना मान रही है । और जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार  ही कटघरे में है तो फिर बचा कौन ? क्योकि सिन्हा ने सोमवार को अदालत से तुरंत सुनवाई की मांग करते हुए जब ये कहने की हिम्मत दिखा दी कि ,  "मेरे पास ऐसे दस्तावेज हैं, जो आपको चौंका देंगे। " तो इसके मतलब मायने दो है । पहला दस्तावेज सत्ता को कटघरे में खडा कर रहे है । दूसरा देश के हालात ऐसे है कि अधिकारी या नौकरशाह अब सत्ता के इशारे पर नाचने को तैयार नहीं है और इसके लिये नौकरशाही अब  गोपनियता बरतने की शपथ को भी दरकिनार करने की स्थिति में आ गये है । क्योकि कोरडो की घूसखोरी में नाम जब सीबीाई के स्पेशल डायरेक्टर का आ रहा है । गुजरात के सांसद जो मोदी सरकार में कोयला खनन के राज्यमंत्री है उनका भी आ रहा है और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दागियो को बचाने की पहले करने के आरोपो के कटघरे में खडे किये जा रहे है ।
तो क्या सरकार ऐसे चलती है क्योकि रिजर्व बैक सरकार चलाना चाहती है । सीवीसी जांच को सरकार करना चाहती है । सीबीआई की हर जांच खुद सरकार करना चाहती है । सीआईसी के नोटिस को कागज का पुलिंदा भर सरकार ही मानती है । और जब कोई आईपीएस सुप्रीम कोर्ट में दिये दस्तावेजो में ये लिख दें कि ‘‘अस्थाना के खिलाफ शिकायत करने वाले सतीश सना से पूछताछ के दौरान कई प्रभावशाली लोगों की भूमिका के बारे में पता चला था।’’। और संकेत ये निकलने लगे कि प्रभावशाली का मतलब सत्ता से जुडे या सरकार चलाने वाले ही है तो फिर कोई क्या कहें । क्योकि सुप्रीम कोर्ट में दी गई सिन्हा की याचिकाके मुताबिक, ‘सना ने पूछताछ में दावा किया कि जून 2018 के पहले पखवाड़े में कोयला राज्य मंत्री हरिभाई चौधरी को कुछ करोड़ रुपए दिए गए। हरिभाई ने कार्मिक मंत्रालय के जरिए सीबीआई जांच में दखल दिया था।" और चूकि सीबीआई डायरेक्टर कार्मिक मंत्रालय को ही रिपोर्ट करते है तो फिर आखरी सवाल यही है कि सत्ता चलाने का तानाबाना ही क्या इस दौर में ऐसा बुना गया है जहा सत्ता की अंगुलियो पर नाचना ही हर संस्था से लेकर हर अधिकारी की मजबूरी है । नहीं तो आधी रात का आपरेशन जिसे अंजाम देने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सक्रिय हो जाते है ।

Sunday, November 18, 2018

जब सत्ता लोकतंत्र हडपने पर आमादा हो तब सुप्रीम कोर्ट को ही पहल करनी पडेगी



पत्रकार का सवाल । राष्ट्रपति ट्रंप का गुस्सा । पत्रकार को व्हाइट हाउस में घुसने पर प्रतिबंध । मीडिया संस्थान सीएनएन का राष्ट्रपति के फैसले के खिलाफ अदालत जाना । देश भर में मीडिया की आजादी का सवाल उठना । अदालत का पत्रकार के हक में फैसला देना । ये दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र की परिपक्वता है ।
पत्रकार का प्रधानमंत्री के दावे को ग्राउंड रिपोर्ट के जरीये गलत बताना । सरकार का गुस्से में आना । मीडिया संस्थान के उपर दबाव बनाना । पत्रकार के कार्यक्रम के वक्त न्यूज चैनल के सैटेलाइट लिंक को डिस्टर्ब करना । फिर तमाम विज्ञापन दाताओ से विज्ञापन लेने का दवाब बनवाना । अंतत: पत्रकार का मीडिया संस्थान को छोडना । और सरकार का ठहाके लगाना । ये दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रिक देश में लोकतंत्र का कच्चापन है ।
तो क्या भारत में वाकई लोकतंत्र की परिपक्पवता को वोट के अधिकार तले दफ्न कर दिया गया है । यानी वोट की बराबरी । वोट के जरीये सत्ता परिवर्तन के हक की बात । हर पांच बरस में जनता के हक की बात । सिर्फ यही लोकतंत्र है । ये सवाल अमेरिकी घटना कही ज्यादा प्रासगिक है क्योकि मीडिया की भूमिका ही नहीं बल्कि चुनी हुई सत्ता के दायरे को भी निर्धारित करने की जरुरत अब आन पडी है । और अमेरिकी घटना के बाद अगर मुझे निजी तौर पर महसूस हो रहा है कि क्या वाकई सत्ता को सीख देने के लिये मीडिया संस्थान को अदालत का दरवाजा खटखटाना नहीं चाहिये था । पत्रकार अगर तथ्यो के साथ रिपोर्टतार्ज तैयार कर  प्रधानमंत्री के झूठे दावो की पोल खोलता है तो क्या वह अपने प्रोफेशन से ईमानदारी नहीं कर रहा है । दरअसल जिस तरह अमेरिका में सीएनएन ने राष्ट्रपति के मनमर्जी भरे फैसले से मीडिया की स्वतंत्रता के हनन समझा और अदालत का दरवाजा खटखटाया , उसके बाद ये सवाल भारत में क्यो नहीं उठा कि सरकार के खिलाफ जिसकी अगुवाई पीएम कर रहे है उनके खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखाटाया जाना चाहिये ।
ये किसी को भी लग सकता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति तो सीधे सवाल करते हुये सीएनएन पत्रकार दिखायी दे रहा है । सब सुन रहे है । ऐसा भारत मे तो दिखायी नहीं देता । फिर किसे कैसे कटघरे में खडा किया जाता है । तो जरा सिलसिलेवार तरीके से हालातो को समझे । जिसमें देश के हालात में कही प्रधानमंत्री नजर नहीं आते लेकिन हर कार्य की सफलता-असफलता को लेकर जिक्र प्रधानमंत्री का ही क्यो होता है । मसलन हरियाणा में योगेन्द्र यादव की बहन के हास्पिटल पर छापा पडता है तो योगेन्द्र यादव इसके पीछे मोदी सत्ता के इशारे को ही निसाने पर लेते है । उससे काफी पहले एनडीटीवी और उसके मुखिया प्रणव राय को निशाने पर लेते हुये सीबीआई - इनकमटैक्स अधिकारी पहुंचते है तो प्रणव राय बकायदा प्रेस क्लब में अपने हक की अवाज बुलंद करते है और तमाम पत्रकार-बुद्दिजीवी साथ खडे होते है । निशाने पर और कोई नहीं मोदी सत्ता ही आती है । फिर हाल में मीडिया हाउस  क्विंट के दफ्तर और उसके मुखिया के घर इनकम टैक्स का छापा पडता है । तो क्विट के निशाने पर भी मोदी सत्ता आती है । और इस तरह दर्जनो मामले मीडिया को ही लेकर कई पायदानो में उभरे । निशाने पर मोदी सत्ता को ही लिया गया । और सबसे बडी बात तो ये है कि जो भी छापे पडे उसमें कहीं से भी कुछ ऐसा दस्तावेज सामने आया नहीं जिससे कहा जा सके कि छापा मारना सही था । यानी किसी को भी सामाजिक तौर पर बदनाम करने के लिये अगर सत्ता ही संवैाधानिक संस्थानो का उपयोग करने लगे तो ये सवाल उठना जायज है कि आखिर अमेरिकी तर्ज पर कैसे मान लिया जाये कि भारत में लोकतंत्र जिन्दा है । क्योकि अमेरिका में संस्थान ये नहीं देखते कि सत्ता में कौन है । बल्कि हर संस्थान का काम है संविधान के दायरे में कानून के राज को ही सबसे अहम माने । तो क्या भारत में संविधान ने काम करना बंद कर दिया है । क्योकि सबसे हाल की घटना को ही परख लें तो कर्नाटक संगीत से जुडे टीएम कृष्णा का कार्यक्रम जिस तरह एयरपोर्ट अर्थरेटी और स्पीक-मैके ने रद्द किया और तो  निशाने पर मोदी सत्ता ही आ गई । और ध्यान दें तो कर्नाटक संगीत को लेकर बहस से ज्यादा चर्चा मोदी सत्ता को लेकर होने लगी । चाहे इतिहास कार रामचद्र गुहा हो या फिर नृत्यगना व राज्यसभा सदस्य सोनल मानसिंह या फिर पत्रकार- कालमनिस्ट तवलीन सिंह , ध्यान दे तो बहस इसी दिसा में गई कि आखिर संगीत कैसे भारत-विरोधी हो सकता है या मोदी विरोध को कैसे भारत विरोध से जोडा जा रहा है या मोदी सत्ता को निशाने पर लेकर लोकप्रिय होने का अंदाज संगीतज्ञो में भी तो नहीं समा गया । यानी चाहे अनचाहे देश के बहस के केन्द्र में मोदी सत्ता और लोकतंत्र दोनो है । और इसी के इर्द-गिर्द चुनावी जीत या वोटरो के हक को लेकर लोकतंत्र का ताना-बाना भी और कोई नहीं राजनीतिक सत्ता ही गढ रही है ।
तो ऐसे में रास्ता क्या होगा या क्या हो सकता है , ये सवाल हर किसी के जहन में होगा ही । यानी सिर्फ चुनाव का मतलब ही लोकतंत्र का होना है । चाहे इस दौर में सीबीआई की साख इतनी मटियामेट हो गई कि सुप्रीम कोर्ट में ही झगडा नहीं गया बल्कि जांच करने वाली देश के सबसे बडी एंजेजी सीवीसी यानी सेन्द्रल विजिलेंस कमीशन तकस अंगुली उटने लगे । और संघीय ढांचे पर खतरा अब ये सोच कर मंडराने लगे कि आज आध्रप्रदेश और बंगाल ने सीबीआई की जांच से नाता तोड उनके अधिकारियो पर राज्य में घुसने पर प्रतिबंध लगा दिया । तो कल कई दूसरी केन्द्रीय एंजेसियो या संस्थानो पर दूसरे राज्य सरकार रोक लगायेगें । यानी सत्ता के जरिये केन्द्र-राज्य में लकीर इतनी मोटी हो जायेगी कि चुनावी हुई सत्ता की मुठ्ठी संविधान से बडी होगी । और ये बहस इसलिये हो रही है कि चुनी हुई सत्ता की ताकत संविधान से कैसे बडी होती है ये हर किसी के सामने खुले तौर पर है ।
तो ऐसे में पहल कौन करेगा । नजरे संविधान की व्याख्या करने वाले सुप्रीम कोर्ट पर ही जायेगी । लेकिन सुप्रीम कोर्ट को लेकर फिर ये सवाल उठेगा कि जनवरी में ही तो चार जस्टिस पहली बार चीफ जस्टिस के खिलाफ ये कहते हुये प्रेस कान्फ्रेस कर रहे थे कि " लोकतंत्र पर खतरा है ।" और न्यूज चैनलो के कैमरे ने इ वक्तव्य को कहते हुये कैद किया । और अब के चीफ जस्टिस रंजन गगोई ने ही जनवरी में लोकतंत्र के खतरे का जिक्र किया था ।
तो क्या ऐसे में अब चीफ जस्टिस रंजन गगोई को खुद ही कोई ऐसी पहल नहीं करनी चाहिये जिससे लोकतंत्र सिर्फ चुनावी वोट में सिमटता दिखायी ना दें । बल्कि देश के हर संवैधानिक संस्थान की ताकत हक किसी को समझ में आये । जनता से लेकर प्रोफेनल्स भी इस एहसास से काम करें कि देश में लोकतंत्र तो काम करेगा । जाहिर है ये होगा कैसे और जिस तरह मीडिया की भूमिका ही अलोकतांत्रिक हालात को सही ठहराने या खामोश रहकर सिर्फ सत्ता प्रचार में जा सिमटी है उसमें सत्ता का दवाब या सत्ता को संविधान की सीख देने वाला कोई है नहीं इसलिये है , इससे इंकार किया नहीं जा सकता । तो सुप्रीम कोर्ट यानी चीफ जस्टिस भी क्या करें ? ये सवाल कोई भी कर सकता है कि कोई शिकायत करें तो ही सुनवाई होगी । पर अगला सवाल ये भी हो सकता है कि कोई शिकायत करने के हालात में कैसे होगा जब संस्थानो तक पर दबाव हो ।
चूकिं लोकतंत्र का दायरा मोदी सत्ता से टकरा रहा है तो फिर ऐसे में टेस्ट केस एबीपी न्यूज चैनल को ही बनाया जा सकता है । क्योकि अन्य घटनाओ में अपरोक्ष तौर पर मोदी सत्ता दिखायी देती है । लेकिन एबीपी न्यूज चैनल के कार्यक्रम                    " मास्टरस्ट्रोक " में प्रधानमंत्री के दावे की पोल खोली गई । जिससे नाराज होकर मोदी सरकार के तीन कैबिनेट मंत्रियो ने ट्विट किया । उसके बाद जब जमीनी स्तर पर और ज्यादा गहराई से तथ्यो को समेटा गया और दिखाया गया तो मोदी सत्ता खामोश हो गई । यानी नियमानुसार तो तीन कैबिनेट मंत्रियो की आपत्ति को भी कोई चैनल अगर अनदेखा कर सच दिखाने पर आमादा हो जाये तो कैसी रिपोर्ट आ सकती है ये 9 जुलाई को बकायदा सच नाम से मास्टरस्ट्रोक कार्यक्म में हर किसी ने देखा । लेकिन इसके बाद सत्ता की तरफ से खामोशी के बीच धटके में जिस तरह सिर्फ एक धंटे तक सैटेलाइट लिंग को डिस्टरब किया गया । जिससे कोई भी मास्टरस्ट्रोक कार्यक्रम ना देखे । और सैटेलाइट डिसटर्ब करने की जानकारी भी चैनल खुले तौर पर अपने दर्शको को बताने की हिम्मत ना दिखाये । और विज्ञापन देने वालो के उपर दवाब बनाकर जिस तरह विज्ञापन भी रुकवा दिया गया । उसकी मिनट-टू-मिनट जानकारी तो एबीपी न्यू चैलक के भी पास है । और इसका पटाक्षेप जिस तरह न्यूज चैनल के संपादक को हटाने से किया गया और उसके 24 घंटे के बातर मास्टरस्ट्रोक कार्यक्रम देखने वाले एंकर हो भी हटाया गया । और उसके बाद कैसे सबकुछ ना सिर्फ ठीक हो गया यानी सैटेलाइट लिंक बंद होना बंद हो गया । विज्ञापन लोट आये । और चैनल की माली हालत में भी काफी सुधार हो गया । तो क्या सुप्रीम कोर्ट या फिर चीफ जस्टिस रंजन गगोई साढे तीन महीने पुराने इस मामले को टेस्ट केस बना कर मीडिया की स्वतंत्रता पर सत्ता से सवाल नहीं कर सकते है । क्योकि पहली बार सारे तथ्य मौजूद है । पहली बार केस ऐसा है कि अमेरिकी सत्ता  से कही ज्यादा तानाशाही भरा रुख या मीडिया की स्वतंत्रता हनन का मामला भारत में ज्यादा मजबूत है । ये अलग बात है कि एडिटर्स गिल्ड हो या प्रेस काउसिंल या भी न्यूज चैनलो की संस्था नेशनल ब्राडकास्टिग एसोसियशन , किसी ने भी कोई पहल तो दूर खामोशी ही इस तरह ओढी कि सिलसिला देश में अलग अलग तरीके से लगातार जारी है । क्योकि सभी लोकतंत्र के इस माडल को ही 2019 तक यानी वोट डालने के वक्त आने तक सही मान रहे है । या गलत मानते हुये भी खामोशी बरते हुये है ।
तो आखरी सवाल यही है कि जब चुनाव में ही लोकतंत्र सिमटाया जा रहा है और लोकतंत्र का हर खम्भा सत्ता को बनाये रखने में ही अपनी मौजूदगी दर्ज करने के लिये बेबस है तो फिर इसकी क्या गांरटी है कि 2019 के बाद लोकतंत्र संस्थानो के जरीये या फिर संविधान के जरीये जमीन पर नजर आने लगेगा । क्योकि 1975 के आपातकाल के बाद 2018 के हालात संविधान खारिज किये बिना सत्तानुकुल हालात बनाये रखने में कितने परिपक्व हो चुके है । ये सबके सामने है ।  और अब ये सीख देश को मिल चुकी होगी कि वोट से सत्ता बदलती है लोकतंत्र नहीं लौटता ।   

Friday, November 16, 2018

देश के लिये महत्वपूर्ण है विधानसभा चुनाव से लोकसभा चुनाव तक का रास्ता



किसान की कर्ज माफी और रोजगार से आगे बात अभी भी जा नहीं रही है । और बीते ढाई दशक के दौर में चुनावी वादो के जरीये देश के हालात को समझे तो  सडक बिजली पानी पर अब जिन्दगी जीने के हालात भारी पड रहे है । और ऐसे में से सवाल है कि क्या वाकई सत्ता संभालने के लिये बैचेन देश के राजनीतिक दलो के पास कोई वैकल्पिक सोच है ही नहीं । क्योकि राजस्थान , मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ के चुनावी महासंग्राम में कूदी देश की दो सबसे बडी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियो भी या तो खेती के संकट से जुझते किसानो को फुसलाने में लगी है । या फिर बेरोजगार युवाओ की फौज के घाव में मलहम लगाने की कोशिश कर रही है । और चूकिं चार महीने बाद ही देश में आम चुनाव का बिगुल बजेगा तो हिन्दी पट्टी के इन तीन राज्यो के चुनाव भी खासे महत्वपूर्ण है और पहली बार लोकसभा चुनाव की आहट देश को एक ऐसी दिशा में ले जा रही है जहा वैकल्पिक सोच हो या ना हो लेकिन सत्ता बदलती है तो नई सत्ता को सोचना पडेगा ये तय है । अन्यथा नई सत्ता का बोरिया बिस्तर तो और जल्दी बंध जायेगा ।
ये सारे सवाल इसलिये क्योकि 1991 में अपनायी गई उदारवादी आर्थिक नीतियो तले पनपे या बनाये गये या फले फूले आर्थिक संस्थानो भी अब संकट में आ रहे है । और ध्यान दिजिये तो राजनीतिक सत्ता ने इस दौर में हर संस्धान को हडपा जरुर या उस पर कब्जा जरुर किया लेकिन कोई नई सोच निकल कर आई नहीं । काग्रेस के बाद बीजेपी सत्ता में आई तो उसके पास सपने बेचने के अलावे कोई आर्थिक माडल है ही नहीं । और सपनो का पहाड बीजेपी के दौर में जिस तरह बडा होता गया उसके सामानातंर अब काग्रेस जिन संकटो से निजात दिलाने का वादा वोटरो से कर रही है अगर उसे सौ फिसदी पूरा कर दिया गया तो होगा क्या ? इस सवाल पर अभी सभी खामोश है । तो इसे तीन स्तर पर परखे । पहला काग्रेस इस हकीकत को समझ रही है कि वह सिर्फ जुमले बेच कर सत्ता में टिकी नहीं रह सकती । यानी उसे बीजेपी काल से आगे जाना ही होगा । दूसरा , जो वादे काग्रेस कर रही है मसलन, दस दिन में किसानो की कर्ज माफी , या न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्दि या बिजली बिल माफ । अगर काग्रेस इसे पूरा करती है तो फिर बैक सहित उन तमाम आर्थिक संस्थानो की रीढ और टूटेगी इससे इंकार किया नहीं जा सकता । और सपने बेचने या लेफ्ट की आर्थिक नीतियो के अलावे तीसरा विकल्प सत्ता में आने के बाद किसी भी राजनीतिक सत्ता के सामने यही बचेगा कि वह वैकल्पिक आर्थिक नीतियो की तरफ बढे । ,ही मायने में यही वह आस है जो भारतीय लोकतंत्र के प्रति उम्मीद जगाये रखती है । क्योकि मोदी के काल में तमाम अर्थशास्त्री या संघ के विचारो से जुडे वुद्दिजीवी उदारवादी आर्थिक नीतियो से आगे सोच ही नहीं पाये और इस दौर में देश के तमाम संस्थानो को अपने मुताबिक चलाने की जो सोच पैदा हुई उसने संकट इतना तो गहरा ही दिया है कि अगर सत्ता में आने के बाद काग्रेस सिर्फ ये सोच लें कि देश में लोकतंत्र लौट आया और अब वह भी सत्ता की लूट में लग जायेगी तो 2019 के बाद देश इस हालात को बर्दाश्त करने की स्थिति में होगा नहीं ।
दरअसल , बीजेपी की सत्ता क्यों काग्रेस की बी टीम या कार्बन कापी की तरह ही वाजपेयी काल में उभरी और मोदी काल में भी । और काग्रेस से अलग होते हुये भी सत्ता में आते ही बीजेपी का भी काग्रेसी करण क्यों होता रहा है और अब काग्रेस के सामने ये हालात क्यो बन रहे है कि वह वैक्लिपिक सोच विकसित करें । तो इसके कारण कई है । जैसे काग्रेस की उदारवादी नीतिया । मोदी की चुनावी गणित अनुकुल करने की कारपोरेट नीतिया । क्षत्रपो का चुनावी गणित के लिये सोशल इंजिनियंरिग को टिकना । क्षत्रप अभी भी जातिय समीकरण के आधार पर अपनी महत्ता बनाये हुये है । अजित जोगी या मायावती को कितना मतलब है कि आदिवासी या दलित किस सोशल इंडेक्स में फिट बैठ रहा है या उसका जीवन स्तर कितना न्यूनतम पर टिका हुआ है । ये ठीक वैसे ही जैसे उदारवादी आर्थिक नीतिया या कारपोरेट के अनुकल देश को चलाने की नीतियो ने इतनी असमनता पैदा कर दी कि देश का नब्बे फिसदी संसाधन दस फिसदी लोगो के हिस्से में सिमट चुका है । और यही से अब सबसे बडा सवाल राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तिसगढ के विदानसभा चुनाव से लेकर 2019 के लोकसभा चुनाव तक है कि क्या वाकई देश ऐसे मुहाने पर जा पहुंचा है जहा हर नई सत्ता को वैकल्पिक सोच की दिशा में बढना होगा क्योकि विपक्ष के राजनीतिक नैरेटिव मौजूदा सत्ता की नीतियो से ठीक उलट है या खारिज कर रही है । यहा कोई भी सवाल खडा कर सकता है कि बीजेपी ने तो हमेशा काग्रेस के उलट पालेटिकल स्टैड लिया लेकिन सत्ता में आते ही वह काग्रेसी धारा को अपना ली । ये साल भी सही है . क्योकि याद किजिये वाजपेयी के दौर में गोविन्दाचार्य वैक्लिपक स्वदेशी आर्थिक नीति के जरीये वाजपेयी के ट्रैक टू को खारिज कर रहे थे । यानी संघ के स्वयसेवक गोविन्दाचार्य तब दत्तोपंत ठेंगडी और मदनदास देवी के जरीये मनमोहन की आर्थिक नीतियो के ट्रैक पर चलती वाजपेयी सरकार के सामने विकल्प पेश कर रहे थे । पर वाजपेयी सत्ता में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह विकल्प को अपनाये । और अंदरुनी सच तो यही है कि वाजपेयी ने गोविन्दाचार्य को मुखौटा प्रकरण की वजह से दरकिनार नहीं किया/करवाया बल्कि वह विश्व बैक और आईएमएफ का ही दवाब था जहा वह स्वदेशी माडल अपनाने की स्थिति में नहीं थे । तो गोविन्दाचाार्य खारिज कर दिये गये । और आज अमित शाह चुनावी जीत के लिये  जिस सोशल इंजिनियरिंग को अपनाये हुये है उस सोशल इंजिनियरिंग का जिक्र या प्रयोग की बात 1998 में गोविन्दाचार्य कर रहे थे । और तब संघ अंदरुनी अंतर्विरोध की वजह से या तो अपना नहीं पाया या विरोध करने लगा । तो आखरी सवाल यही है कि क्या वाकई सत्ता अपने बनाये दायरे से बाहर की वैक्पिक सोच को अपनाने से कतराती है । या फिर भारत का इक्नामिक माडल जिस दिशा में जा चुका है उसमें विदेशी पूंजी ही सत्ता चलाती है और भारतीय किसान हो या मजदूर या फिर उच्च शिक्षा प्रप्त युवा सभी को प्रवासी मजदूर के तौर पर होना ही है । और सत्ता सिर्फ गांव से शहर और शहर से महानगर और महानगर से विदेश भेजने के हालात को ही बना रही है जिससे शरीरिक श्रम के मजदूर हो या बौद्दिक मजदूर सभी असमान भारत के बीच रहते हये या विदेसी जमीन पर मजदूरी या रोजगार करते हुये भारत में पूंजी भेजे जिसपर टैक्स लगाकर सरकार मदमस्त रहे और देश लोकतंत्र के नाम पर हर सत्ता को सहुलियत देते रहे ।

Wednesday, November 14, 2018

मीडिया के अक्स तले लोकतंत्र के दो चेहरे


मौजूदा वक्त में जिन हालातो से भारतीय  मीडिया दो चार हो रहा है या फिर पत्रकारो के सामने जो संकट है उस परिपेक्ष्य में अमेरिकी मीडिया का ट्रंप की सत्ता से टकराना दुनिया के दो लोकतांत्रिक देशो की दो कहानिया ही सामने लाता है । और दोनो ही दिलचस्प है । क्योकि दुनिया के सबसे पुराने लोकतांभिद देश अमेरिका के राष्ट्रपति मीडिया के सामने खुले तौर पर आने से कतराते नहीं है । पर दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारत के प्रधानमंत्री मीडिया के सामने सवालो के जवाब देने से घबराते है तो अपनी पंसद के पत्रकार या मीडिया हाउस को अपनी चौखट पर बुलाकर किस्सागोई करते है और इंटरव्यू के तौर पर देश उसे सुनता है । पढता है । अमेरिका का मीडिया हाउस राजनीतिक सत्ता के प्रचार प्रसार का हिस्सा नहीं बनता । लेकिन भारत का मीडिया सत्ता के प्रचार प्रसार को ही खबर बना देता है । अमेरिकी मीडिया लोकतंत्र की उस साख को सत्ता से ज्यादा महत्व देता है जो हक उसे संविधान से मिले है । भारत का मीडिया संवैधानिक संस्थाओ को सत्ता की अंगुलियो पर नाचते देख ताली बजाने से नहीं चुकता । तो लोकतंत्र की दो परिभाषाओ के अक्स तले भारतीय मीडिया के रेगने की कहानी भी है और अमेरिकी मीडिया की सत्ता से टकराने की दास्ता भी है ।

दरअसल भारतीय लोकतंत्रिक माहौल में हर कोई इसे अजूबा मान रहा है कि आखिर सीएनएन ने अमेरिका राष्ट्रपति और व्हाइट हाउस प्रशासन के खिलाफ ये केस दर्ज कैसे कर दिया कि सीएनएन के पत्रकार जिम एगोस्टा के संवैधानिक अधिकारो का हनन किया जा रहा है । तो क्या वाकई किसी पत्रकार के संवैधानिक अधिकार भी होते है और क्या वाकई अगर भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसी पत्रकार के सवाल से उलझ जाये या गुस्से में आ जाये और पीएमओ उसके एक्रिडिय़शन को ही कैसंल कर दें तो उसका मीडिया हाउस ये सवाल उठा दे कि ये तो प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है । या फिर पत्रकार के संवैधानिक अधिकारो की ही हनन है । ये वाकई कल्पना के परे है कि भारत में ऐसा हो सकता है । लेकिन अमेरिका में तो बकायदा न्यूज नेटवर्क ने मुकदमें की घोषणा करते हुए कहा, 'प्रेस डॉक्यूमेंट्स को गलत तरीके से निरस्त करना प्रेस की स्वतंत्रता के सीएनएन और एकोस्टा के प्रथम संशोधन अधिकार और नियत प्रक्रिया के पांचवें संशोधन अधिकार का उल्लंघन है.' जाहिर है ये सवाल भारत में प्रेस काउसिंल या एडिटर गिल्ड आफ इंडिया या नेशनल ब्राडकास्टिंग आफ इंडिया से भी पूछा जा सकता है कि भारत में ये क्यो संभव नहीं है । पर भारत के हालात बताते है कि पूछना तो दूर सत्ता के फैसले को संवैधानिक दायरे में मीडिया ही सही ठहराने में इस तरह लग सकता है कि जिससे खबर यही बने कि जनता द्वारा चुनी हुई राजनीतिक सत्ता से कोई पत्रकार या मीडिया हाउस कैसे सवाल कर सकता है । लेकिन दूसरी तरफ अमेरिकी न्यू नेटवर्क का तो कहना है, 'हमने अदालत से आदेश पर तत्काल रोक लगाने और पत्रकार जिम का पास लौटाने का आग्रह किया है और हम इस प्रक्रिया के तहत स्थाई राहत मांगेंगे.' न्यूज नेटवर्क ने यह भी कहा, 'अगर चुनौती नहीं दी जाती तो व्हाइट हाउस की कार्रवाई से निर्वाचित अधिकारियों की कवरेज करने वाले किसी पत्रकार के लिए घातक प्रभाव दिखाई देते.' तो लोकतंत्र का तकादा है कि लोकतंत्र संविधान पर टिका है । और संविधान से मिले अधिकारो का हक चुनी हुई सत्ता को भी नहीं है । इसलिये सिर्फ सीएनएन ही नहीं बल्कि व्हाइट हाउस कॉरेस्पान्डेंट एसोसिएशन ने  भी सीएनएन के मुकदमें का स्वागत किया और कहा कि व्हाइट हाउस परिसर तक पहुंच को रोकना घटनाओं पर अनुचित फीडबैक के बराबर है. और जो भी संवाददाता व्हाइट हाउ को कवर करते है उनके एसोशियसशन ने साफ कहा, 'हम प्रशासन से फैसला पलटने और सीएनएन के पत्रकार की पूर्ण बहाली का लगातार आग्रह करते हैं.' पर ये  भारत में क्यो संभव नहीं है । ये सवाल तो है ही । क्योकि भारत में ना तो आपातकाल लगा है जहा संविधान से मिलने वाले अधिकार सस्पेंड कर दिये गये हो । और ना ही संवैधानिक अधिकारो के हनन पर सुप्रीम कोर्ट या कोई संवैधानिक संस्था सवाल ना उठा सकती है । अमेरिका की तर्ज पर लोकतंत्र का मिजाज वहीं है ।संविधान से मिलने वाले नागरिक अधिकार वहीं है । और प्रेस की स्वतंत्रता से जुडे सवाल भी वहीं है । लेकिन भारत में फिर ऐसा क्या है कि राजनीतिक सत्ता की मुठ्ठी में संविधान कैद हो गया है । किसी भी संवैधानिक संस्था की स्वतंत्रता को लेकर हर मोड पर सवाल है । क्योकि ऐसा कोई कार्य या ऐसा कोई फैसला आता ही नहीं या होता ही नहीं जो सत्तानुकुल ना हो । सीएजी को दर्जन भर नौकरशाह पत्र लिख पूछते है , राफेल की किमत को लेकर उसका अध्धयन क्या कहता है , बताया क्यो नहीं जा रहा है ? सीबीआई, सीवीसी , ईडी  ही नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट तक के निर्देश सत्तानुकुल लगते है या सत्तानुकुल नहीं होते तो संस्था के मुखिया पर सत्ता की गाज गिरती है या सत्ता ही खुद को उस संस्था का सर्वोसर्वा मान लेती है फिर बना लेती है । और इस कडी में मीडिया तो लोकतंत्र का चौथा खम्भा होता है । तो पहले तीन खम्भे ही जब सत्ता संभालने का काम करने लगे तो चौथे खम्भे की क्या हैसियत हो जाती है या क्या साख बना दी गई है ये कई उदाहरणो से समझा जा सकता है ।

मसलन भारत में न्यूज चैनलो का रुतबा खासा बढा है । उसका असर । उसका विस्तार । उसकी पहुंच । और उसके संवाद बनाने की क्षमता ने राजनीतिक सत्ता को साफ तौर पर समझा दिया है कि चैनल मीडिया पर नकेल कसने से सत्तानुकुल राजनीतिक नैरेटिव बनाया जा सकता है । और इस राजनीतिक नैरेटिव को न्यूज चैनलो को चलाने वाले मीडिया हाउस मान चुके है कि वह लोकतंत्र के चौथे खम्भे नही बल्कि एक बिजनेस कर रहे है जिसका लक्ष्य मुनाफा बनाना है । और मुनाफे के मीडिया बिजनेस को मुनाफा देने की स्थिति में सत्ता से बेहतर और कौन हो सकता है । तो लोकतंत्र में संवैधानिक अधिकारो के हनन  का सवाल किस मीडिया हाउस को दिखायी देगा या फिर दिखायी देगा तो भी वह उस अधिकार को मुनाफे में क्यो नहीं बदलेगा । यानी संवैधानिक हनन की खबरो की एवज से सत्ता से मुनाफा लेकर या तो खामोश हो जायेगा या फिर संवैधिनिक हननको ही गलत ठहरा देगा ।

फिर भारत में तो संविधान से मिलने वाले अधिकारो के हनन की लकीर इतनी मोटी है कि कोई भी मीडिया हाउ कही से भी आवाज उठा सकता है और सत्ता से ये सवाल कर सकता है कि आखिर उसका काम क्या है अगर वह संविधान से मिले जीने के अधिकार । शिक्षा के अधिकार । हेल्थ स्रविस के अधिकार ही नहीं बल्कि साफ पानी पीने तक के हालात बना नहीं पायी । यानी सत्ता की नीतियो के झूठ फरेब के जाल को भेदने की आवश्कता नहीं है बल्कि न्यूनतम की लडाई में फंसे देश में कैसे सत्ता तीन हजार करोड की सरदार पटेल की प्रतिमा बनायी जा सकती हैा जबकि वह धन के टैक्स पेयर का है ।  जाहिर है मीडिया इन सवालो को क्यो उठाये ये संपादकिय सोच हो सकती है । लेकिन खुले तौर पर जो मीडिया हाउस सत्ता के साथ हो उसका मुनाफा बढे । खुले तौर पर जो सत्ता को लेकर जरा भी आलोचनात्मक हो या कहे सत्ता की नीतियो का रियल चैक ही करने की हिम्मत दिखाये उस मीडिया हाउस से धमकी या मुनाफे के नाम पर सौदेबाजी करने का खुला खेल ही जब होने लगे तो क्या किसी पत्रकार के अधिकारो का बात वाकई कोई करेगा । या फिर मीडिया हाउस के दफ्तरो में या संपादको के घर पर छापे मारने की प्रक्रिया इस रुप में अपनायी जाये कि सत्ता के साथ खडे मीडिया हाउस छापा मारा गया ये तो जोर शोर से बताये और छापा बिना किसी आधार के या छापा मारने पर भी कुछ नहीं निकला इसे बताने के बदले खामोशी बरत लें । तो क्या ये कहा जा सकता है कि लोकतंत्र को हडप कर सत्ता ने देश को ही लोकतंत्र के नाम पर मनमानी का अधिकार पा लिया है ।

यानी अमेरिकी लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र को एक तराजू पर तौला नहीं जा सकता । क्योकि अमेरिका में खुद को फोर्थ स्टेट बताते हुये मीडिया संवैधानिक हक के लिये संघर्ष करने को तैयार है लेकिन भारत में लोकतंत्र को सत्ता की मनमर्जी पर सौप मीडिया मुनाफे के लिये संविधानिक हक को भूलने के लिये तैयार है । और दुनिया के सबसे रईस देश अमेरिका का सच ये भी है कि मीडिया वहा पूंजी या मुनाफे पर नहीं टिका है लेकिन भारत में पूंजी और मुनाफा दोनो ही  सत्ता ही उपलब्ध कराती है तो मीडिया बिनजेस माडल में तब्दिल हो चुका है । इसीलिये न्यूज चैनलो के लिये टीआरपी से विज्ञापनो की कुल कमाई दो हजार करोड की है । लेकिन राजनीतिक प्रसार प्रसार से कुल कमाई बीस से तीस हजार करोड से ज्यादा की है । 

और संयोग देखिये दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश में सीएनएन का संवाददाता अमेरिका की तरफ बढते प्रवासियो के कारंवा पर अमेरिका राष्ट्रपति की राय जानने के लिये सवाल करता है और भारत में असम के लाखो लोगो को एक रात में प्रवासी बना दिया जाता है और प्रधानमंत्री मोदी से कोई सवाल तक नहीं करता ।

Tuesday, November 13, 2018

स्वयसेवक की किस्सागोई - पार्ट 4 ....... पंडित जी रणनीति और तिकडम मिल जाये तो साहेब की साख को आप डिगा नहीं सकते


2014 का जनादेश ही क्यो ? उसके बाद कमोवेश 18 राज्यो के चुनाव पर भी गौर करें और फिर सोचना शुरु करें बीजेपी के पास क्या वाकई कभी कोई ऐसा तुरुप का पत्ता रहा है जो चुनाव प्रचार के मैदान में उतरता है तो सारे समीकरण बदल जाते है । वाजपेयी जी भाषण अच्छा देते थे । लोग सुनते थे । लेकिन भाषण के सुखद क्षण वोट में तब्दि हो नहीं पाते थे । लेकिन नरेन्द्र मोदी के शब्द वोट में तब्दिल हो जाते है । स्वयसेवक की ये बात प्रोफेसर साहेब को खटक गई तो बरबस बोल पडे इसका मतलब है संगठन कोई काम नहीं कर रहा है । बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह जिस तरह बूथ दर बूथ बिसात बिछाते है क्या उसे अनदेखा किया जा सकता है । या फिर आप इसे चुनावी जीत की ना हारने वाली जोडी कहेगें । हम कुछ कहेगें नहीं । सिर्फ ये समझने की बात है कि आखिर कैसे उसी बीजेपी में अमित शाह जीत दिलाने वाले तिकडमी मान लिये गये । उसी बीजेपी में आखिर कैसे मोदी सबसे प्रभावी संघ के संवयसेवक होते हुये भी विकास का मंत्र परोसने में ना सिर्फ कामयाब हो गये बल्कि जीत का आधार भी वहीं रहा ।
बात तो महोदय आप ठीक कह रहे है । मुझे इस बहस के बीच कूदना पडा । मोदी साढे चार बरस में अयोध्या नहीं गये । वह भी सत्ता के पांचवे बरस भी नहीं जा रहे है जब सरसंघचालक मोहन भागवत भी नागपुर से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का दबाव अपने शब्दो के जरीये बना रहे है ।
पंडित जी अभी दोनो तथ्यो को ना मिलाइये । पहले चुनावी प्रचार की रणनीति-तिकडम और मोदी-शाह की जोडी को समझे । क्यो संघ समझ गया है । मै ये तो नहीं कह सकता कि संघ कितना समझा है लेकिन प्रचार जिस रणनीति के आसरे चल रहा है वह बीजेपी के कार्यकत्ता को सक्रिय करने की जगह कुंद कर रहा है , इंकार इससे किया नहीं जा सकता ।
कैसे
इसे दो हिस्सो में समझना होगा । पहला , जब अमित शाह की बिसात है और नरेन्द्र मोदी सरीखा चेहरा है तो फिर बाकि किसी को करने की जरुरत ही क्या है । दूसरा , जिन जगहो पर बीजेपी कमजोर है वहा भी अगर जीत मिल रही है तो फिर मोदी-शाह की जोडी ही केन्द्र से लेकर राज्यो में काम करेगी । तो बाकियो की जरुरत ही या क्यों है ।
बाकि का मतलब ?
बाकि यानी केन्द्र में बैठे मजबूत चेहरे । जिनके बगैर कल तक बीजेपी कुछ नहीं लगती थी ।
मसलन
मसलन , राजनाथ सिंह , सुषमा स्वराज , मुरली मनोहर जोशी  सरीखे कोई भी नाम ले लिजिये .....किसी की भी जरुरत क्या किसी भी विधानसभा चुनाव तक में पडी । या आपने सुना कि कोई नेता गया और उसने चुनावी धारा बदल दी । सबकुछ केन्द्रित है नरेन्द्र मोदी के ही इर्द गिर्द ।
प्रोफेसर साहेब जो बार बार बीच में कुछ बोलना चाह रहे थे । झटके में स्वयसेवक महोदय के तमाम तथ्यो को दरकिनार करते हुये बोले .... मै सिर्फ आपकी इस बात से सहमत हूं कि बाकि कोई नेता फिलहाल मायने नहीं रख रहा है लेकिन आप अब भी उस नब्ज को पकड नही पा रहे है जहा रणनीति और तिकडम मिल रही है । अब स्वयसेवक को बोलना पडा प्रोफेसर साहेब आप ही बताइये कैसे ।
देखिये मैने जो बीजेपी के चुनाव प्रचार का अध्ययन किया है उसके मुताबिक बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह चुनाव प्रचार की रणनीति बनाते वक्त तीन स्तर पर काम करते है लेकिन केन्र्दित एक ही स्तर पर होते है । 
कैसे , थोडा साफ करें ।
जी , अमित शाह किसी भी राज्य में चुनाव प्रचार के दौरान सबसे पहले पता लगाते है कि वह किस सीट को जीत नहीं सकते । उन सीटो को अपने दायरे से अलग कर राज्यो के कद्दावरो को कहते है आप इन सीटो पर जीत के लिये उम्मीदवार बताइये । जीत के तरीके बताइये । तो राज्य स्तर की पूरी टीम जो कल तक खुद को बीजेपी का सर्वोसर्वा मानती रही वह हार की सीटो को जीत में बदलने के दौरान अपने ही अध्यक्ष के सामने नतमस्तक हो जाती है । दूसरे स्तर पर जिन सीटो पर बीजेपी जीतती आई है उन सीटो पर अपने करीबी या कहे अपने भक्तो को टिकट देकर सुनिश्तिच कर लेते है कि राज्य में सरकार बनने पर उनके अनुसार ही सारी पहलकदमी होगी । और सारा ध्यान उन सीटोपर होता है जहा कम मार्जिन में जीत-हार होती है । या फिर कोई मुद्दा बीजेपी के लिये परेशानी का सबब हो और किसी इलाके में एकमुश्त हार की संभावना हो ।
जैसे ?
जैसे , गुजरात में सूरत या राजकोट के हालात बीजेपी के लिये ठीक नहीं थे । पटेल तो इन दोनो जगहो पर अमित शाह की रैली तक नहीं होने दे रहे थे । लेकिन चुनाव परिणाम इन्ही दोनो जगहो पर बीजेपी के लिये सबसे शानदार रहे ।
हां इसे ही तो स्वयसेवक महोदय रणनीतिक बिसात की सफलता और मोदी के प्रचार के जादू से जोड रहे है ।
प्रसून जी ये तर्क ना दिजिये .... जरा समझने की कोशिश किजिये । यू ही ईवीएम का खेल नहीं होता और दुनिया भर में ईवीएम को लेकर यू ही सवाल नहीं उठ रहे है । आप ईवीएम से समूचे देश को प्रबावित नहीं कर सकते है लेकिन जब आपने बीस से तीस फिसदी सीटो को लेकर रणनीति बनानी शुरु की तो ईवीएम का खेल भी वहीं होगा और बीजेपी का चेहरा भी प्रचार के आखरी दौर में वहीं चुनावी प्रचार करेगा । जिसके बाद जीत मिलेगी तो माना यही जायेगा कि ये बीजेपी के तुरुप के पत्ते का जादू है । यानी विकास की थ्योरी जिसे एक तरफ नरेन्द्र मोदी देश के सामने परोस रहे है और दूसरी तरफ संघ का एंजेडा मंदिर मंदिर कर रहा है तो जीत विकास की थ्योरी को मिलेगी । क्योकि तब आप उन क्षेत्रो में जाति या धर्म के आधार पर वोटो को बांच नहीं सकते । यानी खेल ईवीएम का होगा लेकिन मैसेज मोदी के प्रचार से समहति बनाते वोटरो का होगा ।
अब स्वयसेवक महोदय ने ही सवाल किया .... प्रोफेसर साहेब अगर मौजूदा हालात को आप सिर्फ ईवीएम के माथे मढ देगें तो फिर रास्ता निकलेगा नहीं । क्योकि याद किजिये गोरखपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में क्या हुआ था । कलेक्टर ने आखरी राउंड की गिनती के बाद काउंडिग रोक दी थी । और तब विपक्ष से लेकर मीडिया ने हंगामा किया तो क्लेक्टर को झुकना पडा । फटाफट नतीजो का एलान करना पडा ।
तो इससे क्या मतलब निकाले...
यही कि ईवीएम या चुनावी गडबडी का विरोध हो रहा है तो 2019 के लोकसभा चुनाव में ज्यादा होगा ।
न न मेरा कहना कम या ज्यादा से नहीं है । मेरा कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी के जादू को जिस तरह विकास की थ्योरी के तौर पर लारजर दैन लाइफ बना कर बीजेपी या संघ परिवार भी पेश करने में लगा है उसके पीछे तकनालाजी की ट्रेनिग है ।
मुझे लगा अभी के हालात पर बात तो आनी चाहिये .....तो बह के बीच में कूदना पडा ....स्वयसेवक महोदय आपको अगर याद हो तो 2009 में बीजेपी जब चुनाव हाी तो ईवीएम का मुद्दा उसने भी उठाया था । और 2010 में तो बकायदा जीवीएल नरसिम्भा राव जो कि तब सैफोलोजिस्ट हुआ करते थे बकायदा ईवीएम के जरीसे कैसे लोकतंत्र पर खतरा मंडरा है इसपर एक किताब " डेमोक्रेसी इन रिस्क " लिख डाली । और अगर उस किताब को पढा जाये तो मान कर चलिये ईवीएम के जरीये वाकई लोकतंत्र को राजनीतिक सत्ता हडप ले रही है ये खुले तौर पर सामने आता है । लेकिन अगला सवाल है कि फिर काग्रेस ये खेल 2014 में क्यो नहीं कर पायी ।
अब स्वयसेवक ही पहले बोल पडे । आप दोनो सही हो सकते है । लेकिन 2014 का चुनाव आपको इस दृश्टि से देखना ही होगा कि काग्रेस की दस बरस की सत्ता से लोग उभ चुके थे या कहे गुस्से में थे । और उस वक्त चुनाव प्रचार से लेकर कारपोरेट फंडिग और वोटिंग ट्रेंड भी तो देखिये । फिर कैसे बीजेपी जो चुनाव 2014 में जीतती है उसे बेहद शानदार तरीके से मोदी की जीत और अमित शाह को मैन आफ द मैच में परिवर्तित किया गया । क्योकि आने वाले वक्त में सत्ता का विस्तार नहीं करना था बल्कि सत्ता को चंद हाथो में सिमटाना था । और ये फिसाल्फी 2019 में क्या गुल खिला सकती है अब मोदी सत्ता के सामने यही चुनौती है ।
और क्या संघ परिवार इसे समझ रहा है  ।
समझ रहा है या नहीं सवाल ये नहीं है ..... सवाल तो ये है कि संघ के भीतर संघर्ष करते हुये विस्तार या फिर सत्ता की सहुलियत तले आंकडो का विस्तार महत्वपूर्ण है । उलझन इस को लेकर है । तभी तो मोदी जी अयोध्या नहीं जाते और योगी जी अयोध्यावासी ही हो जाते है । मोदी जी बनारस जा कर गंगा या मंदिर को याद नहीं करते बल्कि गंगा में चलती नाव को देखकर खुश होते है ।
तो क्या हुआ मोदी जी और योगी जी के रास्ते दो तरीके से बीजेपी को लाभ पहुंचा सकते है तो अच्छा ही है ।
जी नहीं ...ऐसा होता नहीं है । जो चेहरा है वहीं सबसे बडा मोहरा है । और बीजेपी कही बोझ तो नहीं जरा इसका एक असर तमिलनाडु में देख कर समझे । रजनीकांत भी बीजेपी के खिलाफ नोटबंदी को लेकर बोल रहे है और एआईडीएमके भी फिल्म सरकार का समर्थन करने पर रजीनाकांत को निशाने पर ले रही है ।
तो...
तो क्या कुछ दिनो पहले तक एआईडीएमके , रजनी कांत और बीजेपी एक ही बिसात पर खडे थे । लेकिन अब कोई भी दूसरे का बोझ लेकर चलने को तैयार नहीं है ।
तो क्या बीजेपी भी बोझ बन रही है ।
क्यो नहीं । बिहार यूपी में छोटे दल जो सोशल इंजिनियरिंग के नाम पर जातिगत वोट लेकर बीजेपी से 2014 में  जुडे वह अब  क्या कर रहे है ।
जारी...........

Monday, November 12, 2018

पूंजी निवेश के जरीय उपनिवेश बनाने की सोच का प्रतिक है श्रीलंका का संकट



पडौसी देशो के कतार में पहली बार श्रीलंका में राजनीतिक संकट के पीछे जिस तरह चीन के विस्तार को देखा जा रहा है , वह एक नये संकट की आहट भी है और संकेत भी कि अब वाकई युद्द विश्व बाजार पर कब्जा करने के लिये पूंजी के जरीये होगें ना कि हथियारो के जरीये । ये सवाल इसलिये क्योकि श्रीलंका के ऱाष्ट्रपति सिरीसेना ने जिस तरह प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिघें को बर्खास्त कर पूर्व राष्ट्रपति महिन्दा राजपक्षे को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया । जबकि रानिल विक्रमसिंघे के पास राजपक्षे से ज्यादा सीट है । और उसके बाद के घटनाक्रम में संसद को ही भंग कर नये चुनाव के एलान की तरफ बढना पडा । इन हालातो को सिर्फ श्रीलंका के राजनीतिक धटनाक्रम के तहत देखना अब भूल होगी । क्योकि राष्ट्रपति सिरीसेना और राजपक्षे दोनो ही चीन के प्रोजेक्ट के लकितने हिमायती है ये किसी से छुपा नहीं है । और जिसतरह चीन ने श्रीलंका में पूंजी के जरीये अपना विस्तार किया वह भारत के लिये नये संकट की आहट इसलिये है क्योकि दुनिया एक बार फिर उस उपनिवेशी सोच के दायरे में लौट रही है जिसके लिये पहला विश्वयुद्द हुआ । ये लकीर बेहद महीन है लेकिन आधुनिक वक्त में या कहे इक्ससवी सदी में उपनिवेश बनाने के लिये किसी भी देश को कैसे कर्ज तले दबाया जाता है और पिर मनमानी की जाती है ये एक के बाद एक कई घटनाओ से साफ से होने लगा है । और भारत की विदेश नीति इस दौड में ना सिर्फ चुकी है बल्कि चीन का सामना करने में इतने मुश्किल हालात भी पैदा हुये है कि एक वक्त बिना किसी एंजेडे के सबंध ठीक करने भर के लिये प्रधानमंत्री मोदी दो दिन की चीन यात्रा पर चले जाते है ।
दरअसल बात श्रीलंका से ही शुरु करें तो भारत और चीन दोनो ही श्रीलंका में भारी पूंजी निवेश की दौड लगा रहे है । और राजनीतिक उठापटक की स्थिति श्रीलंका में तभी गहराती है जब कोलबो पोर्ट को लेकर कैबिनेट की बैठक में भारत -जापान के साथ साझा वेंचर को खारिज कर चीन को परियोजना देने की बात होती है । तब श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे इसका विरोध करते है । और उसके बाद राष्ट्रपति सिरीसेना 26 अक्टूबर को प्रधानमंत्री रानिल को ही बर्खास्त कर चीन के हिमायती रहे राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना देते है । और मौजूदा सच तो यही है कि कोलबो पोर्ट ही नहीं बल्कि कोलबो में करीब डेढ बिलियन डालर का निवेश चीन होटल , जहाज , मोटर रेसिंग ट्रैक तक बना रहा है ।  इसके मतलब मायने दो तरह से समझे जा सकते है । पहला, इससे पहले श्रीलंका चीन के सरकारी बैको का कर्ज चुका नहीं पाया तो उसे हम्बनटोटा बंदरगाह सौ बरस के लिये चीन के हवाले करना पडा और अब कोलबो पोर्ट भी अगर उस दिसा में जा रहा है तो दूसरे हालात सामरिक संकट के है । क्योकि भारत के लिये चीन उस संकट की तरह है जहा वह अपने मिलिट्री बेस का विस्तार पडौसी देशो में कर रहा है । कोलबों तक अगर चीन पहुंचता है तो भारत के लिये संकट कई स्तर पर होगा । यानी श्रीलंका के राजनीतिक संकट को सिर्फ श्रीलंका के दायरे में देखना अब मूर्खतापूर्ण ही होगा । ठीक वैसे ही जैसे चीन मालदीव में घुस चुका है । नेपाल में चीन हिमालय तक सडक के जरीये दस्तक देने को तैयार हो रहा है । भूटान में नई वाम सोच वाली सत्ता के साथ निकटता के जरीये डोकलाम की जमीन के बदले दूसरी जमीन देने पर सहमति बनाने की दिशा में काम कर रहा है । और बांगलादेश जिस तरह हथियारो को लेकर चीन पर निर्भर है । करीब 31 अरब डालर लगाकर बांग्लादेश की दर्जन भल परियोजनाओ पर काम कर रहा है । हालाकि पहली बार बांग्लादेश ने पद्मा नदी पर बनने वाले 20 किलोमिटर लंबे पुल समेत कई अन्य परियोजनाओ को लेकर 2015 में हुये चीन के साथ समझौते से अब पांव पीछे खिंचे है । लेकिन जिस तरह बांग्लादेश ने ढाका स्टाक एक्सचेंस को 11.99 करोड डालर में चीन को बेच दिया । और इसी के सामानातंर पाकिस्तान की इक्नामी भी अब चीन ही संभाले हुये है । तो क्या पाकिस्तन चीन का नया उपनिवेश है । और नये हालात में क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है चीन की विस्तारवादी नीति पूंजी निवेश कर कई देशो को उपनिवेश बनाने की ही दिशा में जा रही है । 
दरअसल ये पूरी प्रक्रिया भारत के लिये खतरनाक है । लेकिन समझना ये भी होगा कि इसी दौर में भारत की विदेश नीति ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को खत्म कर दिया । पडौसियो के साथ तालमेल बनाये रखने के लिये सार्क मंच भी ठप कर दिया । यानी जिस गुटनिरपेक्ष मंच के जरीये भारत दुनिया के ताकतवर देशो के सामने खडा हो सकता था । अपनी वैदेशिक सौदेबाजी के दायरे को विस्तार दे सकता था उसे अमेरिकी राह पर चलते हुये खत्म कर गया । तो क्या भारत की विदेश नीति आर्थिक हितो को पाने के लिये अमेरिकी उपनिवेश बनेन की दिशा में जाने लगी है । ये सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है कि आज भारत की इक्नामी तो खासी बडी है । लेकिन अमेरिका तय करता है कि भारत ईरान से तेल ले या नहीं । या फिर रुस के साथ हथियारो के समझौते पर उस विरोध भारत के लिये महत्वपूर्ण हो जाता है । जबकि एक सच तो ये भी है कि इंदिरा गांधी के दौर में भारत की अर्थव्यवस्था आज सरीखे मजबूत भी नहीं थी । लेकिन तब इंदिरा गांधी अमेरिका से भी टकरा रही थी । वाजपेयी के दौर में भी परमाणु परिक्षण अमेरिका को दरकिनार करने की सोच के साथ हुये ।
तो आखिरी सवाल ये खडा हो सकता है कि अब रास्ता क्या है । दरअसल भारत का संकट भी राजनीतिक सत्ता को पाने या गंवाने पर जिस तरह जा टिका है उससे सारी नीतिया किस तरह प्रभावित हो रही है ये सभी के सामने है । क्योकि हम ज्यादा से ज्यादा क्षेत्र में विदेश पूंजी और विदेशी ताकतो पर निर्भर होते जा रहे है । ताजा मिसाल रिजर्व बैक की है । जो देश के आर्थिक संकट का एक नायाब चेहरा है । चुनावी बरस होने की वजह से सत्ता चाहती है रिजर्व बैक 3 लाख करोड रिजर्व राशी मार्केट में झोके । यानी इतनी बडी राशी के बाजार में आने से तीन असर साफ पडेगें । पहला , डालर और मंहगा होगा । दूसरा मंहगाई बढगी । तीसरा पेट्रोल की किमते और बढेगी । यानी सत्ता में बने रहने की तिकडम अगर देश की इक्नामी से खिलवाड करें तो ये सवाल आने वाले वक्त में किसी भी सत्ता से पूछा जा सकता है कि विदेशी निवेश के जरीये राजनीतिक सत्ता जब उपनिवेश बन जाती है तो फिर देश को उपनिवेश बनाने से कोई कैसे रोकेगा । 

Sunday, November 11, 2018

तमिल " सरकार " बालीवुड में बनती तो सेंसर पास ही नहीं करता




"ठग आफ हिन्दुस्तान" ने एहसास कराया कि मौजूदा राजनीतिक महौल में कैसे रचनात्मकता काफूर है तो "सरकार  " ने एहसास कराया  कि जब रचनात्मकता खत्म होती है और समाज में वैचारिक शून्यता आती है तो कैसे हालात लोकतंत्र ही हडप लेती है । जी , दोनो ही सिनेमा है । एक मुंबईया फिल्म इंडस्ट्री से तो दूसरी तमिल सिनेमा से । और मौजूदा वक्त में कौन किस रुप में नतमस्तक है या किन हालातो में कितनी सक्रियता क्षेत्रिय स्तर पर महसूस की जा रही है ये राज " ठग आफ हिन्दुस्तान  " में भी छिपा है और " सरकार " में भी । दरअसल हिन्दी पट्टी में बालीवुड की घूम हमेशा से रही है । और सिनेमा को समाज का आईना इसलिये भी माना गया क्योकि इमरजेन्सी में गुलजार फिल्म आंधी बनाने से नहीं हिचकते । नेहरु के दौर में सोशलिज्म को चोचलिस्ट कहने से  राजकपूर नही कतराते । और ये दुनिया अगर मिल भी जाये ... गीत परोसते वक्त गुरुदत्त आधी रात की आजादी के महज दस बरस बाद ही सवाल खडे करने से नही हिचकिचाते । हर दौर को परखे तो बालीवुड से कुछ तो निकला जिसने सवाल खडे किये । या फिर सवालो से घिरे समाज के सामने फिल्म के जरीये ही सही अपने होने का एहसास करा ही दिया । लेकिन ऐसा क्या है कि बीते चार बरस के दौर में आपको कोई ऐसी फिल्म बालीवुड की दिखायी नही दी । जो सामाज का आईना हो । या फिर समाज से आगे फिलमकारो की  क्रियटिव का एहसास कराता हो । । खामोशी क्यो हो गई ....और जब क्रियटिविटी थमती है या दबाव में आ जाती है तो कैसे फिल्म बनती है ये "ठग आफ हिन्दुस्तान" के जरीये समझी जा सकती है । पर इसी कडी में जब आप " सरकार  " देखते है तो रचनात्मकता एक नये उफान के साथ दिखायी देती है । और फिल्म सरकार देखते वक्त बार बार ये सवाल जहन में उभरता ही है कि अगर इसी कहानी को लेकर बालीवुड का कोई फिल्मकार सिनेमा बनाता तो क्या सेंसर बोर्ड पास कर देता । क्योकि फिल्म सरकार शुरु तो होती है अमेरिका के लास वैगास से सीधे चेन्नई पहुंचे एक एनआरआई से । जो विधानसभा चुनाव में एक वोट डालने के लिये लाखो  रुपये यात्रा पर खर्च कर पहुंचा है । लेकिन पोलिंग बूथ पर जब वह पहुंचता है और उसे पता चलता है कि उसका वोट तो पहले ही किसी ने डाल दिया । और एक वोट के जरीये परिवर्तन की लोकतांत्रिक थ्योरी ही सही लेकिन जिसे लोकतंत्र में ही कानून के जरीये अमली जामा पहनाया गया है , उसे ही थाम कर महज वोट देने का संघर्ष कैसे लोकतंत्र के भीतर भरे पडे मवाद को उभार देता है । और परत दर परत जो भी हालात सत्ता में आने के लिये या सत्ता बरकरार रखने के लिये राजनीतिक दल करते है वो उभरते चले जाते है । और तब ये सवाल भी उभरता है कि अपने ही गांव से राजनीतिक सत्ता की नीतियो तले कैसे लोग शहरो में रोजगार की तालाश में पहुंचते है । और उनकी हालत शर्णारथी की तरह हो जाती है । और आखिर कार राजनीतिक सत्ता की मेहरबानी पर ही गांव छोड शहरो में आये लोग निर्भर हो जते है । और सियासत अपने तरीके से वोटरो का दोहन करती है और खुद लूट का नंगा खेल लोकतंत्र के नाम पर करती है । दरअसल, ये फिल्म इस मायने में महत्वपूर्ण है कि एक वोट की अहमियत और वोट के लिये अरबो खरबो की लूट के तरीके इतने सामानांतर हो चले है कि कुछ बदलेगा ही नहीं ये बात हर दिल में समा चुकी है । लेकिन फिल्म तो फिल्म होती है और तीन घंटे में पोयटिक जस्टिस होना चाहिये तो फिल्म सरकार में भी पोयटिक जस्टिस होता है । आप कह सकते है कि ये तो तमाम फिल्मो में होता है फिर सरकार अलग कैसे । इस कडी में आप कालेज स्टूडेंट के जरीये चुनावी लोकतंत्र के भीतर के हालात को उभारने वाली फिल्म युवा को भी याद कर सकते है । लेकिन उ,स पिल्म में चार उम्मीदवार जितते है । और बाकि अगली बार.....इस सोच के साथ फिल्म खत्म हो जाती है । लेकिन " सरकार " की सबसे बडी खासियत यही है कि एक वोट के सवाल पर शुरु हुई फिल्म चुनाव आयोग की कमजोर कडियो को पकडते हुये सत्ता पर पकड बनाने के लिये बहुमत के जनादेश को पाने तक की स्थति कैसे बनेगी उसे बताने की कोशिश जरुर की गई । और 234 सीटो की विधानसभा में 210 निर्दिलिय भी जीत सकते है इसका नायाब प्रयोग भी किया गया और फिल्म का नायक खुद सीएम नहीं बन कर उस लोकतंत्र को जिन्दा करने की कोशिश करता है जो सरोकार या कहे जन सहयोग राजनीतिक सत्ता तले खत्म किया जा चुका है । यानी लोकतंत्र का संदेश मजबूत विपक्ष के होने में कैसे छिपा है जो की गायब हो चला है और जिसकी सत्ता होती है वह बिना जवाबदेही सारी नीतिया बनाता है । लूट मचाता है । क्योकि कोई रोकने वाला नहीं होता , इसका एहसास कराने की कोशिश की गई है । इसलिये फिल्म 210 विधायको में से खुद को अलग कर नायक विजय कुमार बतौर विपक्ष का विधायक होने का संदेश देता है । दरअसल चाहे अनचाहे देश में मौजूदा सत्ता के सामने कमजोर विपक्ष । या सत्ता के एकतरफा फैसले । ईवीएम के सवाल । और जनता के सामने मुश्किल भरे हालात और उसपर सत्ता की कल्याणकारी योजनाओ का ढकोसला या लैपटाप से लेकर टीवी सेट बांटने सरीखे हालात भी फिल्म देखते वक्त सवालो के घेरे में आ ही जाते है । हालाकि फिल्म कामर्शियल है यानी बिकाउ बनाने के लिहाज को रखा गया है तो फिल्म में हर वह दृश्य है जो किसी भी तमिल फिल्म में होता है .... मसलन नायक का एक साथ दर्जनो गुंडो को मार देना । या फिर हर विधा में निपुण नायक । पर पहली बार बालीवुड की फिल्मो में रहमान का संगीत सुनने वालो के लिये फिल्म सरकार का संगीत अलग सुनाई देगा । जो तेज है । कानफाडू है । लेकिन इसी के सामानातंर अगर "ठग आफ हिन्दुस्तान" का जिक्र करें तो अलग कुछ भी नहीं लगेगा । "ठग आफ हिन्दुस्तान" में भी संगीत बेस्वाद है । गायकी का अंदाज पटरी से उतरा हुआ है । ठग नायक है तो हर दृश्टी से बलिष्ट है । और कहानी बिना सिर पैर सिर्फ अंजाम तक पहुंचने के लिये भागती- दौडती रहती है । तो निकलता कुछ भी नहीं है और ये सवाल रेगं सकता है कि  जब अमिताभ बच्चन और आमिर खान एक साथ पहली बार सिनेमाई पर्दे पर हो तो कुछ नया प्रयोग की आस हर देखने वाले में जगी होगी । पर निकला कुछ नहीं तो निराशा गहरायी होगी । सही मायने में हुआ यही है । क्योकि "ठग आफ हिन्दुस्तान" को पहले दिन देखने पर भी हाल में सीटे खाली मिली । और " सरकार " को पांचवे दिन देखने पर भी सिनेमाघर के मैनेजर से कहकर दो सीटो की व्यवस्था करानी पडी । जबकि फिल्म दिल्ली में देखी जा रही थी , चेन्नई या तमिलनाडु के किसी शहर में नहीं । तो दोनो फिल्म का आखरी सच तो यही निकला कि दोनो ही फिल्मो ने नई लकीर खिंची या पुराने मिथ तोड दिये । क्योकि अमिताभ और आमिर खान जिस तरह मौजूदा वक्त से कटे हुये एतिहासिक परिपेक्ष्य में पंचतंत्र की कहानी की तरह किसी नाटकीय भूमिका में सिलवर स्क्रिन पर नजर आये । तो दूसरी तरफ दक्षिण की फिल्म " सरकार " ने लोकतंत्र के उस नींव पर ही अंगुली रख दी जिसपर बहस की गुंजाइश राजनीतिक तौर पर भी हर किसी ने बंद कर दी है । वोट की चोरी । या कहे एक वोट का महत्व । या फिर एक एक वोट पर टिके लोकतंत्र को ही खरीदने की सत्ता की धमक । तो सिनेमा असरकारक भी है और बेअसर होकर असरकारक नायको को भी खारिज करने की स्थिति में आ चुका है । तभी तो पुणे में "ठग आफ हिन्दुस्तान" का शो दर्शक ही रुकवा देते है । और " सरकार " रुकवाने के लिये एआईडीएमके सरकार के इशारे पर तमिलनाडु पुलिस फिल्म के डायरेक्टर मुरुगादौस के घर पर पहुंच जाती है और डायरेक्टर को मद्रास कोर्ट से अग्रिम जमानत लेनी पड जाती है । यानी देश में सियासी हकीकत जब " सरकार   " से आगे है तो फिर "ठग आफ हिन्दुस्तान" सरीखी फिल्म को लोग देखे क्यो और " सरकार "  चाहे तमिल में हो देखना हिन्दी पट्टी के लोगो को भी चाहिये क्योकि जिन हालातो से वह खुद दो चार हो रहे है उसमें सरकार क्या क्या कर रही है उसका धुधलाका कुछ और साफ होता है । और सिनेमाई सरकार देखने के बाद लोकतंत्र में काबिज सरकार  कैसे-कैसे हथकंडे अपनाती है ये भी समझ में आ जायेगा ।

Saturday, November 10, 2018

स्वयंसेवक की किस्सागोई पार्ट-3 , सबकुछ गंवा कर भी होश नहीं आ रहा है तो क्या किजियेगा.....

स्वयसेवक की किस्सागोई पार्ट-3
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लिजिये झाल-मुडी । ये बिहार-झारखंड में कच्चे सरसो तेल में बनाया जाता है । वाजपेयी जी आपने तो खाया है । प्रोफेसर साहेब आपने खाया है । जी खाये तो हम भी है लेकिन आप जिस तरह बनाये है ...उसकी खुशबी अभी से नाको में बसी जा रही है ।
जी ये चाय के साथ खाने में चाय के जायके को भी शानदार बना देता है ।
हा हां स्वयसेवक ठहाका लगाते हुये बोले और चायवाले का भी मिजाज तो इससे नहीं बदलता ?
ये आप पूछ रहे है या बता रहे हैा
जो भी समझे । लेकिन बदलते हालातो के बीच जरा समझने की कोशिश करें कि भारत की निकटता जिस जापान से है और जापान के राष्ट्रपति आबे को बनारस के गंगा घाट पर आरती कराने तक देश के प्रधानमंत्री ले गये .... उस राष्ट्रपति की टीम ही 15 दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी की जापान यात्रा से ऐेन पहले मोदी के ही करीबी रहे एक शख्स से जानकारी हासिल करना चाहती है कि उनकी राय में जापान जिन प्रोजेक्ट पर भारत में काम कर रहा है उसपर उनकी क्या क्या राय है । और ये शख्स और कोई नहीं बल्कि जिस वक्त बतौर गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी को अमेरिका ने वीजा देने से इंकार किया हुआ था उस वक्त और कोई बल्कि यही शख्स नरेन्द्र मोदी जापान यात्रा पर ले कर जाता है । क्योकि ये शख्स जापान की सत्ता के बेहद करीब था और लगातार बीस बरस से जापान में रहते हुये भारत के अनकुल इस तरह काम कर रहा था जहा जापान की पूंजी और वहा के युवाओ को भारत से जोडा जाये । अलग अलग परियोजनाओ के जरीये जापान भारत में निवेश भी करें और भारतीय युवाओ के साथ साथ जापान के युवा भी भारत में जापान के साथ साझा परियजनाओ पर काम करें । इसी कडी में दिल्ली - मुबई इक्नामिक कारीडोर जापान के साथ मिलकर बनाने की सोची गई । लेकिन नौकरशाही को लेगा इसमें कमाई नहीं है तो ये ठंडे बस्ते में डाल दिया गया । बुलेट ट्रेन का प्रोजेक्ट भी नार्थ इस्ट से मुबंई तक जाल बिछाने का था । लेकिन उसे अहमदाबाद से मंबई तक सिमटा दिया गया । और असल तो काशी को क्वेटो बनाने का प्रोजेक्ट था । जिसमें बकायदा सामाजिक-आर्थिक परिपेक्षेय में अध्ययन कर लोगो की जिन्दगी से जुडकर कासी को क्वेटो बनाने की योजना कागज पर बनी । लेकिन इसे भी सत्ता की चुनावी तिकडमों में इस तरह फंसा दिया गया कि काशी के लोगो की आंखो में खून के आंसू  है । पुलिस प्रशासन बिना योजना को समझे भौगौलिक तौर पर साफ सफाई कराने में लगे । राजनीतिक बिचौलिये किवेटो क्वेटो कहते हुये वसूली में लगे है ।
पर एक बात बताइये ....आप खुद ही कह रहे है कि जिस शख्स पर जापान को भरोसा है और प्रधानमंत्री की यात्रा से पहले उससे ही जानकारी हासिल की जा रही है तो फिर उसकी निकटता तो प्रधानमंत्री मोदी के साथ भी रही है । तो परेशानी क्या है ।
प्रोफेसर के इस तरह झटके में सवाल पूछने पर स्वयसेवक महोदय ने बिना लाग लपेट कहा , परेसानी ये है कि अब उस शख्स को प्रधानमंत्री बनने के बाद खुद से दूर कर दिया ।
हां तो ठीक है । जब सीएम थे तो जरुरत थी । अब पीएम है तो अपने करीब क्यों रखे ।
ये क्या मतलब हुआ । क्यो रखे । जनाब उस शख्स की पहचान सिर्फ जापान ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशो के साथ है ।
मुझसे रहा नहीं गया तो मैने पूछ ही लिया ... आप ना बताने चाहे तो ना बताइये लेकिन कौन है ये शख्स ।
मै सोच ही रहा था कि प्रसून वाजपेयी नाम क्यो नहीं पूछ रहे हैा आप कभी ना कभी जरुर मिलेगें । विभवकांत उपाध्याय जी से ।
मेरे मुहं से बरबस निकल पडा ....अरे उनको जिक्र को सीबीआई और इनकम टैकस के एक अधिकारी कर रहे थे ।
जी अब समझे ...मै क्यो अभी के हालात का जिक्र ये कहते हुये कर रहा हूं कि अतित में जिस तरह तमाम स्वयत्त या संवैधानिक एंजेसियो या संस्धानो का उपयोग सरकारो ने किया वह मौजूदा वक्त में परिणाम के तौर पर इस तरह सामने है कि राजनीतिक सत्ता खुद ही तमाम स्वयत्त संस्था के तौर पर है । यानी हर संस्थान को सत्ता के लिये काम ही नहीं करना है बल्कि सत्ता ही सबकुछ है ।
मतलब ?
  मतलब यही कि अभी रिजर्व बैक को ही देख लिजिये । 19 नवंबर को बैठक किसलिये बुलाई गई है ये सवाल तो आपके जहन में होना चाहिये । क्या वाकई उस दिन बोर्ड आफ डायरेक्टर सरकार को मिलने वाले सेकशन-7 के पावर के तहत तीन लाख करोड रुपये डिविडेंट के साथ सरकार को दे देदगें ।
तो इसे देने से क्या होगा । और अगर दे ही देगें तो फिर सरकार को तो जनता ने ही चुना है इसमें गलती क्या है ।
गलती यही है कि सत्ता खुद के लिये काम कर रही है । जनता-नागरिको की फिक्र किसे है ।
क्यो रिजर्व बैक में जमा रिजर्व मनी किस काम की जब उसका उपयोग सरकार ही ना कर सके ।
ठीक कह रहे है वाजपेयी जी । यही तो आर्थिक नीतिया है । जो डावाडोल है । मुझे नहीं पता आप मजाक में ये सब कह रहे है या गंभीर है । क्योकि रिजर्व बैक का तीन लाख करोड अगर रनिंग में आ जायेगा तो क्या होगा ....समझ रहे है आप ।
आप ही बताइये...
जी, डालर और मंहगा होगा । पेट्रोल-डिजल की किमते और बढेगी । मंहगाई और बढेगी । और इन्ही सवालो को तो अब रिजर्व बैक के गवर्नर कह रहे है ।
हां, सही कहा आपने पर ये समझ नहीं आया कि उर्जित पटेल को तो रिजर्व बैक का गवर्नर सत्ता ने ही बनाया । और रधुरामराजन भी अब उर्जित पटेल को सही बता रहे है । लेकिन नोटबंदी के वक्त तो उर्जित पटेल का रुख सरकार के साथ था ।
तब तो आपको ये भी समझना होगा कि आलोक वर्मा को सीबीाई डायरेक्टर भी सत्ता ने ही बनवाया और तब काग्रेस विरोध कर रही थी । लेकिन अब काग्रेस ही आलोक वर्मा के साथ है और आस्थाना को सत्ता सही बता रही है ।
मै समझ तो रहा हूं ..लेकिन आप क्या कहना चाहते है । साफ बताये । क्योकि अगर हालात इतने उबाल पर है तो क्या सरकार इसे नहीं समझ रही और संघ इसे नहीं समझ रहा है ।
एक बात तो जान लिजिये...डूबते जहाज में सबसे पहले चूहे ही जहाज छोड भागना चाहते है । ये अलग बात है कि चूहे भागते जरुर है लेकिन समुद्र में फंसे जहाज में चूहे भी भाग कर कहा जायेगे । अब नीतिया डगमगा रही है तो सरकार का परिक्षण तो जनता को करना है । लेकिन नौकरशाह को तो अगली सरकार के साथ भी काम करना है ।
यानी मोदी सरकार जा रही है .... आप ये कह रहे है ।
मै कुछ कह नहीं रहा हूं सिर्फ हालात समझते हुये समझा रहा हूं ।...आप देखिये पहली बार गोविन्दाचार्य ने भी प्रदानमंत्री मोदी के नाम खत लिखा ना । पहली बार मुरली मनोहर जोशी की रिपोर्ट संसद के पटल पर रखी गई । लेकिन किसी मिडिया में ना आये ये हुआ ना । खंडूरी जी ने अपनी रिपोर्ट में डिफेन्स को लेकर सवाल उटाये ना । तो इसे आप क्या कहेगे ।
यही की सत्ता की उम्र पूरी हो रही है तो वह उम्र बरकारर रखने के लिये हर कदम उठा रही है...और जिन्हे सरकार की नीतियो पर भरोसा नहीं वह विरोध कर रहे है । क्योकि उन्हे भी समझ आ रहा है कि सत्ता चुनावी मोड में है तो सारी नीतिया चुनावी जीत सुनिशचित करने के लिये ही बन रही है ।
आपने एक शब्द का इस्तेमाल किया " हर कदम " । इसका मतलब क्या है । क्योकि ये हाल तो हर सत्ता के दौर में चुनाव के वक्त रहा है ...... प्रोफेसर साहेब ने इस बार मुझसे ही सवाल कर दिया ।
हर सरकार और इस सरकार में थोडा सा अंतर है । पहले सरकार का मतलब कैबिनेट होता था .....अब सरकार का मतलब एक दो या तीन शख्स है । पहले सरकार देश के अलग अलग क्षेत्रो के लिहाज से हालात अपने अनुकुल बनाती थी । अब अलग अलग क्षेत्रो या कहे विधानसभा या लोकतसभा क्षेत्रो को ही सत्ता अपने अनुकुल करना चाहती है । यानी सारे हालातो के केन्द्र में अगर एक व्यक्ति रहेगा तो फिर या तो वही पार्टी होगा या फिर पार्टी से बडा हो जायेगा ।
अरे वाह प्रसून वाजपेयी तो पैलेटिकल नैरेटिव बनाने में आ गये....
बंधुवर आप मेरे नैरेटिव को छोडिये ये बताइये कि जापान वाला वह शख्स कौन है । जिसका नाम आप बता रहे थे...
ओह , हा बात विभवकांत उपाध्यय...जिक्र तो मैने किया लेकिन समझना होगा कि इंडिया जारपपान ग्लोबल पार्टनरशीप के ये पाउंडर ही नहीं रहे । बल्कि इन्होने इंडिया सेंटर फाउंडेशन बनाया । और ये भी बता दू कि मोदी सत्ता के वैदेशिक विस्तार में इस शख्स ने खासा काम किया । कभी मौका मिले तो किसी भी बीजेपी के बडे नेताओ से पूछ लिजियेगा कि विभवकांत ने क्या क्या किया तो आप समझ जायेगें ।
पर हुआ क्या ....
हुआ कुछ नहीं कोई गुजरात से दिल्ली आ जाये और उसे लगने लगे कि गुजरात के मेरे साथी मेरे दिल्ली आने पर मेरे पद का लाभ उठायेगें तो आप क्या किजियेगा.... बस उसी की मार विभव पर पडी । और जो आप सीबीआई या इनकम टैक्स अदिकारियो की बात कह रहे थे...उसी का प्रतिफल है । और ध्यान दिजिये जो काम विभव कांत कर रहे थे उसी काम को नये सिरे से शोर्य डोभाल और राम माधव इंडिया फाउंडेशन बना कर करने लगे । जिसमें पारिकर भी जुडे और कई मंत्री भी जुडे । यानी इंडिया सेंटर फाउंडेशन को नये सिरे से दुनिया के साथ संबध बनाने के लिये इंडिया फाउंडेशन बना लिया गया ।
तो फिर इसमें मुस्किल क्या है ...
प्रसून जी सत्ता खुद का विस्तार करती है ना कि सिमटती है । सबकुछ आप अपनी हथेली में सिमटा कर कैसे सत्ता , सरकार पार्टी और देश को भी आगे बढा सकते है । ध्यान दिजिये हो क्या रहा है .....आज आपसे कोई पूछे सत्ता का मतलब ...आप दो नाम ले लोगे । फिर कोई पूछे सरकार का मतलब , तो आप तीन नाम लोगे । फिर कोई पूछे बीजेपी का मतलब , फिर दो से तीन नाम लेने से आगे बात जायेगी नहीं । और देश चला कौन रहा है तो आपको दस नाम लेने में सांसे फूलने लगेगी ।
तो क्या कहे...2014 के जनादेश को ये गंवा बैठे ..
कह सकते है ..क्योकि जनादेश तो ऐसा मिला ..कि चाहते तो देश की सूरत सीरत सब बदल सकते थे......
मतलब ...
मतलब यही कि ....गीत सुना है न आपने सबकुछ गंवा कर होश में आये तो क्या मिला...यहा तो उल्टा है सबकुछ गंवाकर भी होश में आना नहीं चाहते....

जारी.....
 

Friday, November 9, 2018

स्वंसेवक की किस्सागोई पार्ट - 2.....तोते की जान गुजरात में ही फंसी है....



तो गर्म गर्म चाय । ग्रीन टी का जायका और उस पर चाय लाते हुये स्वयसेवक की टिप्पणी । गुजरात चाहे देश ना हो लेकिन देश के तोते की जान तो गुजरात में ही फंसी है ।
इस बार मै कुछ बोलता उससे पहले ही प्रोफेसर साहेब जो डीयू के एक कालेज के प्रीसिपल है वही बोल पडे । आपने तोता शब्द क्यो कहा ।
क्यों !
बाज या चील भी कह सकत थे ।
तो फिर आप ही सोच लिजिये .....क्या कहना है । स्वयसेवक कुछ सख्त लहजे में बोले लेकिन यहा बात प्रसून वाजपेयी जी पक्षियो की नहीं कर रहे है । हम और वो बैठे है देश के हालात पर चर्चा करने । तो आप यहा प्रोफेसरी के नजरिये से हालात को ना परखे ।
अरे छोडिये...मुझे बीच में कूदना पडा ।
केशुभाई । लालजी भाई । संजय जोशी । प्रवीण तोगडिया । कितने भी नाम ले लिजिये और इस फेरहिस्त में हरेन पांड्या की हत्या या सोहराबुद्दीन के इनकाउंटर को भी याद कर लिजिये । लेकिन इन नामो के आसरे घटनाओ की नहीं बल्कि इन्ही दिल्ली तक पहुंचने की सीढी के तौर पर समझे और फिर सियासी चालो का जिक्र करना चाहिये ।
मतलब...
मतलब यही कि अतित की सियासी चालो ने ही मौजूदा सियासी परिणामो को पैदा किया है । और आने वाले वक्त में हालात ठीक हो जायेगें...मेरा भरोसा इससे डिग गया ।
अरे आप भी उम्मीद खो देगें । तो फिर संघ के होने या ना होने का मतलब भी तो खत्म हो जायेगा ।
मुझे नहीं पता मौजूदा वक्त में आप संघ का मतलब क्या समझते है । लेकिन इस हकीकत को समझे कि संस्थानो का खत्म होने की बात जो आप कहते है । या लगातार टीवी पर बोलते रहे उस दिशा में क्या आपने कभी सोचा है कि स्थिति रिजर्व बैक तक पहुंच जायेगी । और ये भी आपने सोचा है एक तरफ सत्ताधारी बीजेपी के पास नान डिजटिललाइज रकम की भरमार होगी और दूसरी तरफ सरकारी खजाने में पैसा ही नहीं होगा । तो सरकार रिजर्व बैक से कहेगी.....जनता का जमा रुपया जो इमरजेन्सी सरीखे हालात के लिये रखा होता है उसे दे दो ।
आप भी गोल गोल बात कर रहे है । सरकार तो मना कर रही है कि रिजर्व बैक की रिजर्व रकम में से उसने कुछ मांगा है ।
तो फिर इंतजार किजिये । 19 नवबंर का । देखिये बैठक में क्या क्या होता है । और अगर आपमे बहुत ज्यादा संयम है तो फिर जनवरी में पेश होने वाले इक्नामिक सर्वे का इंतजार किजिये . तब पता तलेगा कि सरकारी खजाने की रकम कहां कहा उडाई गई । देखिये मैने शुरु में ही कहा गुजरात का मतलब देश नहीं होता या फिर देश गुजरात हो नहीं सकता । किसी राज्य में ऐसा इक्नामिक माडल काम कर सकता है कि सीएम निर्णय लें और तमाम संस्थान उसी दिशा में काम करने लगे । पर देश के साथ ऐसा करने से खिलवाड होगा ।
अगर ऐसा हो रहा है तो फिर आप रोकते क्यो नहीं । या फिर संघ के भीतर से ही बीजेपी के उन सदस्यो को क्यो नहीं कहा जाता कि आप तो आवाज उठाइये । मेरे ये कहते ही प्रोफेसर साहेब बोल पडे....और बीजेपी तो सांगठनिक पार्टी है । संगठन महत्वपूर्ण है । उसके सरोकार जनता से जुडे रहे है । संघ की ट्रेनिंग भी है ।
आप दोनो ये सोच सकते है । आप ही बताइये । बीजेपी में महासचिव कौन है । या फिर बीजेपी में राष्ट्री नेता की छवि किसकी है । कोई नाम आपकी जुबा पर आयेगा नहीं । गुजरात माडल में गुजरात के ही पुर्जे लगे हुये है । चाहे वह कारपोरेट हो या व्यापारी । नेता हो या नौकरशाह । पर इसकी बारिकी ऐसे नहीं समझेगें । मै आपको एक उदाहरण देता हूं । जब दिल्ली में बीजेपी का नया हेडक्वाटर बना तो सभी को आंमत्रित किया गया । लेकिन जैसे ही पीएम का काफिला पहुंचने को हुआ तो संघ के वरिष्ट हो या बीजेपी को खडा करने वाले वरिष्ट सभी की गाडिया सडक पर ही रोक दी गई । हम भी एक गाडी में बैठे थे । एक शख्स ने बाहर से शीशे के पार हमें देखा तो रुक गया । जाना पहचाना था तो मैने ही सवाल किया । हमारा नया कार्यलय बना है । कैसा है । तो सवाल खत्म होने से पहले ही वह टूट पडा और सीधे बोला , कार्यालय हमारा कैसे हो गया । क्यो ये तो बीजेपी का ही हेडक्वाटर है । बीजेपी हमारा राजनीतिक दल है । ठीक है । लेकिन हमारी तो एक भी ईंट इस कार्यालय में नहीं लगी है । ये बात मेरे दिमाग में बैठ गई । कुछ दिनो बाद एक राज्य के मंत्री मुझसे मिलने आये और बताने लगे कि राजधानी में बीजेपी का नया दफ्तर बन चुका है । तो मैने पूछा , कैसा दफ्तर बना है । तो वह बोला आलीशान । तो मैने कहा पैसा कहा से आया है । पैसा तो केन्द्र से आया है । तो फिर दफ्तर पार्टी का हुआ की केन्द्र का ।
आप किस राज्य के किस मंत्री की बात कर रहे है ।
अरे वाजपेयी जी .....आप पत्रकार है ये आप पता किजिये । मै तो सिर्फ उदाहरण दे रहा हूं और हालात बता रहा हूं । क्योकि उसके बाद उस मंत्री ने कहा मै अपने जिले में बीजेपी का दफ्तर बना रहा हूं ....लेकिन मै आपकी बात समझ गया । जनता से चंदा लेकर दफ्तर बनाउगां ।
प्रोफेसर खुद को रोक ना पाये तो बोले ....तो आप मान रहे है बीजेपी के जन-सरोकार खत्म हो चले है ।
ये आप कहिये । बात रिजर्व बैक की निकली है तो मै अब सियासी जरुरत और पार्टी के तौर तरीको का जिक्र कर रहा हूं ।
तो संघ इस सवाल को क्यो नहीं उठाता है कि सिय़ासत रुपयो से नही चलती ।
अब ठीक पकडा आपने वाजपेयी जी ....ये सवाल तो उठेगें । कल ही तो कर्नाटक उपचुनाव के रिजल्ट आये है । बेल्लारी में तो खूब पैसा है । पार्टी के पास भी । उम्मीदवार के पास भी । पिछली बार बीजेपी 70 हजार वोट से जीती थी । पर इस बार करीब ढाई लाख मतो से चुनाव हार गई । तो पैसा और बूथ मैनेजमेंट कहा गया । किसी ने सवाल उठाया । फिर शिमोगा में तो रुपया के साथ बूथ मैनेजमेंट भी जबरदस्त था । लेकिन सिर्फ 26 हजार वोट विपक्ष को मिल जाते तो लोकतसभा की ये सीट भी हाथ से निकल जाती ।
अरे आपका विश्लेषण तो 2019 में बीजेपी के बिगडे हालात को दिखा रहा है ।
मै इसे बीजेपी नहीं कहूंगा ।
क्यो
क्योकि बीजेपी इस तरह कभी भी एक दो या तीन व्यक्ति की पार्टी में नहीं सिमटी । और जो आप संघ का जिक्र बार बार करते है । तो ये भी समझ लिजिये । जब श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने राजनीतिक दल बनाने की बात कही तो गुरु जी ने शुरु में ये कहकर खारिज कर दिया था कि संघ में सभी बराबर होते है । और राजनीतिक दल में आप खुद को ही लीडर मान रहे है तो फिर राजनीतिक दल क्यो बनेगा । इसीलिये दो साल का वक्त लग गया था जनसंघ को बनाने में ।
तब तो ये भी कहा जा सकता है कि अब तो संघ हो या बीजेपी दोनो का रास्ता सिर्फ नेरन्द्र मोदी की सत्ता कैसे बरकरार रहे उसी दिशा में काम करते हुये दिखायी देना है ।
ये आपने ठीक कहा । दिखायी देना है ।
यानी ?
यानी.... कि जीत हार सत्ता की होनी है । जिसका चेहरा नरेन्द्र मोदी है । और ये उन्ही की नीतिया है जिसमें बीजेपी से जुडा व्यापारी भी परेशान है और कार्यकत्ता अपनी हैसियत सत्ता के निकट होने या दिखाने में लगा है ।
आप ठीक कह रहे है । वाजपेयी जी की अस्थि विजर्जन के वक्त भी सिर्फ दो लोगो की तस्वीर दिखायी । एक प्रधानमंत्री दूसरे बीजेपी अध्यक्ष । तब मेरे जहन में ये सवाल था कि क्या वाजपेयी जी के निधन के साथ राजधर्म की परिभाषा बदल गई । मैने उस वक्त इस पर लिखा भी था ।
जी मैने पढा था ....आपका लिखा हुआ ।
लेकिन क्या से हमारी सफलता नहीं है कि वाजपेयी को जितने जोर से बीजेपी या सत्ता कह पायी उससे ज्यादा जोर से काग्रेस ने वाजपेयी को अपने करीब बताया ।
न न आप इसे संघ की सफलता ना मानिये । प्रोफेसर साहेब कुछ गुस्से में बोले । दरअसल वाजपेयी जी के उलट मोदी को जिस तरह संघ ने मान्यता दी है य़। और बीजेपी सत्ता के लिये मोदी की आगोश में सिमटी है , उसमें काग्रेस को पहली बार समझ में आ रहा है कि हिन्दु वोट बैक में सेंघ लगाना जरुरी है । और मोदी को ही बीजेपी के खिलाफ बताना जरुरी है । इसीलिये राहुल गांधी भी मंदिर जाने में होड दिखा रहे है और मोदी के कडक मिजाज को वाजपेयी से अलग दिखा रहे है ।
तो मै भी यही कह रहा हूं ....
नहीं मेरा कहना है नरेन्द्र मोदी के पालेटिकल नैरेटिव ही सकारात्मक-नकारात्मक हो कर चल रहे है । दूसरा कोई नहीं है । संघ भी नहीं ।
पर हम बात नरेन्द्र मोदी की नहीं मौजूदा हालात को लेकर कर रहे है । मुझे टोकना पडा ।
ठीक कह रहे है ..लेकिन सत्ता के बगैर नेता की कोई पहचान होती नहीं । ये बीजेपी के भीतर हर कोई जानता समझता है । मुश्किल ये जरुर है कि संघ को भी लगने लगा है कि सत्ता के बगैर उसके सामने भी मुस्किल होगी तो सत्ता केन्द्र में होगी ही । और सत्ता का मतलब जब मोदी जी है तो फिर बात तो उनकी होगी ही ।
लेकिन सवाल तो यही है कि रास्ता सही है । गलता है । विजन की कमी है । या विजन जबरदस्त है ।
मुझे और प्रोफेसर साहेब को तो नहीं मेरे इस सवाल से स्वयसेवक ही ठहाका लग हंस पडे । .....बोले , ये बात गंभीर है , लेकिन इस दौर में हंस कर कहनी होगी, भारती की इक्नामी जब मजबूत नहीं थी तब इंदिरा गांधी अमेरिका से दो दो हाथ करने को तैयार थी । और आज जब हमारी इक्नामी मजबूत है तब सत्ता भारत को अमेरिका की कालोनी बनाने की दिशा में विदेश नीति को ले गये । इससे ज्यादा बुरे हालात क्या हो सकते है कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन हमने ही खत्म कर दिया । यानी जिसके जरीये दुनिया के ताकतवर देशो से हम सौदेबाजी कहे या जवाब देने की स्थिति में आते उसे हमने ही खत्म कर दिया । पडौसियो को साथ लेकर चलने के लिये सार्क है । हमने उसे भी ठप कर दिया । तो पडौसियो से संबंध है या दुनिया के ताकतवर देसो के सामने भारत की हैसियत....क्या है । इसका विशलेषण आप किजिये । क्योकि अब के दौर में फिर से विदेश नीति का मतलब बिजनेस हो चला है । और भारत खुद को बाजार मान कर अपनी ताकत को डालर के सामने खत्म कर रहा है ।
वह कैसे । क्या आप स्वदेशी का जिक्र कर रहे है .....
बिलकुल , जरा सोचिये हमारा मिसाइल कार्यक्रम कहां है । राफेल ने तो हिन्दुस्तान एयरोनाटिकल लि यानी एचआईएल को कमजोर करने के हालातो को उभार दिया । देखिये मुश्किल ये नहीं है कि दुनिया के किस ताकत के साथ हम खडे होते है । मुश्किल तो ये है कि हमारी ताकत क्या है । पाकिस्तान चीन की कालोनी बन चुका है । यानी आर्थिक तौर पर पाकिस्तन पूरी तरह चीन पर निर्भर है । नेपाल , बांग्लादेश , मालदीव और अब तो श्रीलंका में भी जिस तरह संसद को भंग इसलिये किया जा रहा है कि चीन के प्रजोक्ट को आगे बढञाया जाये । और श्रीलंका के राष्ट्रपति सिरीसेना जिस तरह खु ले तौर पर भारत के खिलाफ है । उसके मतलब मायने आप क्या निकलेगें ।
आप ठीक कह रहे है ...क्योकि मुझे भी लगता है कि दुनिया फिर से प्रथम विश्वयुद्द वाले हालात की तरफ है । जब युद्द कालोनी यानी उपनिवेश को लेकर हुये । हालाकि उसके बाद शीत युद्द ने हालात बदले लेकिन फिर से उपनिवेश बनाने की ही दिशा में दुनिया के ताकतवर देश बढ चले है । लेकिन हमारा सवाल तो भारत को लेकर है । उसका विजन क्यो डगमगा रहा है ।
सवाल सिर्फ विजन का नहीं है...और ना ही सिर्फ सत्ता का है या बीजेपी का है । वाजपेयी जी आप ही बताईये मीडिया की भूमिका ही क्या है । आप लोगो ने कभी सेना को लेकर स्टैडिंग कमेटी की रिपोर्ट को दिखाया । खंडूरी जी या जोशी जी ने रिपोर्ट में भारतीय सेना को लेकर क्या लिखा है । दुनिया भर में सवाल है । सेना भी हालात समझ रही है । लेकिन देश के लोगो तक मीडिया ही रिपोर्ट नहीं पहुंचा पायी । जबकि वह संसद में रखी जा चुकी है । इसलिये मुश्किल सिर्फ विजन का नहीं बल्कि तथ्यो की जानकारी तक लोगो तक नहीं पहुंच पा रही है । जिम्मेदारी क्या सिर्फ सत्ता की हैा
लगातार खामोश प्रोफेसर साहेब से रहा नहीं गया .....इसके लिये दूर क्यो देखना चाहे है । नेहरु मेमोरियल व म्यूजियम के नये सदस्य या निदेशक को ही देख लिजिये । जो सत्ता के करीब है या उसके बोल बोल सकता है वही नेहरु मेमोरियल चलायेगा । अब आप ही बताइये वहा कौन रिसर्च करेगा या रिसर्ज के लिये ग्रांट किसे मिलेगा । जाहिर है जब विचार नहीं सोच नहीं बल्कि संबंधो और अपने होने वालो को रिसर्च सेंटर सौप देगें तो फिर कौन सी सोच देश में विकसित होगी । और जो रिसर्च करने पहुंचेगे या जिन्हे ग्रांट मिलेगा वह तो वहा बैठ कर कुछ भी कर लें.....देश के सामने कोई विजन आयेगा कैसे । और सत्ता ही जब काबिलियत को दरकिनार कर सिर्फ इस आधार पर चलती है , वह हमारा आदमी है और हम सत्ता में नहीं भी रहेगें तो भी हमारी सोच जिन्दा रहेगी । तो फिर देश है कहा । मै बताउ दिल्ली यूनिवर्सिटी में दो दर्जन कालेजो में प्रिसिपल नियुक्त हुये । एक या दो को छोड दिजिये बाकि सभी की क्वालिफिकेशन यही रही कि उसके संबंध बीजेपी या संघ से रहे ।
प्रोफेसर साहेब बात तो सही कह रहे है ....मेरा मत तो यह भी है कि बीजेपी या संघ के पास इन्टलेचलुल्स है ही नहीं । और जो इन्टेलेक्चलुल्स है बीजेपी या संघ दोनो को लगता है कि ये या तो काग्रेसी है या फिर वामपंथी । तो इसी शून्यता को भरने के लिये बीजेपी सत्ता कोर्स बदलने में लग जाती है । कभी चैप्टर बदलती है तो कभी पूरा सिलेबस । और नई नई लकीरे खिंच कर वह खुद को ज्ञानी कैसे मनवा लें सारी मेहनत इी में लगा जाती है ।
नही से पूरा सच नहीं है । संघ तो सास्कृतिक मूल्यो और भारत के स्वर्णिम इतिहास को भी देखता समझाता है ।
अच्छा ... तो फिर मोदी सत्ता ने स्वदेसी माडल क्यो नहीं अपनाया । गांव को स्मार्ट बनाने की क्यो नहीं सोची । मंडियो में सिमटे देश में डिजिटल के गीत क्यो गाने लगे । तक्षशिला-नांलदा का शिक्षा माडल क्यो नहीं अपनाया । साधु संतो के जरीये मूल्यो का ज्ञान दिलवाने के बदले राम मंदिर के राग में सभी को क्यो फंसा दिया । भगवा बिग्रेड तले गौ रक्षा से लेकर भीडतंत्र वाले हालात पैदा क्यो कर दिया । बनारस को क्वेटो बनाने की दिसा में क्यो बढने दिया ।
अब इतने सवालो का जवाब तो नहीं दिया जा सकता है । लेकिन हमारे सामने खुद की नीतियो के असफल होने का संकट है ये मै मान रहा है । मुझे लगाता है बहुत अतित में ना जाकर अभी के हालात को समझे ....आखिर संकट क्या है । क्योकि नरेन्द्र मोदी इस बार जापान से क्या लेकर लौटे । आपने देखा इस बार ज्यादा शोर नहीं मचा ।
क्यों
जी , इसलिये क्योकि पहली बार जापान ने भी काशी को क्योटो बनाने । बुलेट ट्रेन बनाने और दिल्ली - मुबई के बीच इक्नामिक कारीडोर बनाने को लेकर भारत से कुछ सवाल किये है ।
कैसे सवाल.....
बताते है पहेल आप लोगो के लिये कुछ नाश्ते की व्यवस्था करे शाम भी ढलने वाली है ।
जारी...........