Tuesday, December 18, 2018

दस घंटे के भीतर कर्ज माफी के एलान का मतलब....



ना मंत्रियों का शपथ ग्रहण ना कैबिनेट की बैठक । सत्ता बदली और मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही किसानो की कर्ज माफी के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिये । ये वाकई पहली बार है कि राजनीति ने इक्नामी को हडप लिया या फिर राजनीतिक अर्थशास्त्र ही भारत का सच हो चला है । और राजनीतिक सत्ता के लिये  देश की इक्नामी से जो खिलावाड बीते चार बरस में किया गया उसने विपक्ष को नये संकेत यही दे दिये कि इक्नामी संभलती रहेगी पहले सत्ता पाने और फिर संभालने के हालात पैदा करना जरुरी है । हुआ भी यही कर्ज में डूबे मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ की सत्ता पन्द्रह बरस बाद काग्रेस को मिली तो बिना लाग लपेट दस दिनो में कर्ज माफी के एलान को दस घंटे के भीतर कर दिखाया और वह सारे पारंपरिक सवाल हवा हवाई हो गये कि राज्य का बजट इसकी इजाजत देता है कि नहीं । दरअसल , मोदी सत्ता ने जिस तरह सरकार चलायी है उसमें कोई सामान्यजन भी आंखे बंद कर कह सकता है कि नोटबंदी आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक फैसला था । जीएसटी जिस तरह लागू किया गया वह आर्थिक नहीं राजनीतिक फैसला है । रिजर्व बैक में जमा तीन लाख करोड रुपया बाजार में लगाने के लिये माग करना भी आर्थिक नहीं राजनीतिक जरुरत है । पहले दो फैसलो ने देश की आर्थिक कमर को तोडा तो रिजर्व बैक के फैसले ने ढहते इकनामी को खुला इजहार किया । फिर बकायदा नोटबंदी और जीएसटी के वक्त मोदी सरकार के मुख्यआर्थिक सलाहकार रहे अरविन्द सुब्रमणयम ने जब पद छोडा तो बकायदा किताब  [ आफ काउसंल, द चैलेज आफ मोदी-जेटली इक्नामी   ]  लिखकर दुनिया को बताया कि नोटबंदी का फैसला आर्थिक विकास के लिये कितना घातक था । और जीएसटी ने इक्नामी को कैसे उलझा दिया । तो दूसरी तरफ काग्रेस के करीबी माने जाने वाले रिजर्व बैक के पूर्व गर्वनर रधुरामराजन का मानना है कि किसानो की कर्ज माफी से किसानो के संकट दूर नहीं होगें । और संयोग से जिस दिन रधुरामराजन ये कह रहे थे उसी दिन मध्यप्रदेश में कमलनाथ तो छत्तिसगढ में भूपेश बधेल सीएम पद की शपथ लेते ही कर्ज माफी के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर रहे थे । तो सवाल तीन है । पहला , क्या राजनीति और इक्नामी की लकीर मिट चुकी है । दूसरा , क्या 1991 की लिबरल इक्नामी की उम्र अब पूरी हो चुकी है । तीसरा , क्या ग्रामिण भारत के मुश्किल हालात अब मुख्यधारा की राजनीति को चलाने की स्थिति में आ गये है । ये तीनो सवाल ही 2019 की राजनीतिक बिसात कुछ इस तरह बिछा रहे है जिसमें देश अब पिछे मुडकर देखने की स्थिति में नहीं है । और इस बिसात पर  सिर्फ 1991 के आर्थिक सुधार ही नहीं बल्कि मंडल-कंमडल से निकले क्षत्रपो की राजनीति भी सिमट रही है । पर कैसे राजनीति और अर्थव्यवस्था की लकीर मिटी है और वैकल्पिक राजनीतिक अर्थसास्त्र कीा दिशा में भारत बढ रहा है ये काग्रेस के जरीये बाखूबी समझा जा सकता है । काग्रेस मोदी सत्ता के कारपोरेट प्रेम को राजनीतिक मुद्दा बनाती है । किसानो की कर्ज माफी और छोटे और मझौले उघोगो के लिये जमीन बढाने और मजदूरो के हितो के सवाल को मनरेगा से आगे देखने का प्रयास कर रही है । जबकि इन आधारो का विरोध  मनमोहनइक्नामिक्स ने किया । लेकिन अब काग्रेस कृर्षि आर्थसास्त्र को समझ रही है लेकिन उसके पोस्टर ब्याय और कोई नही मनमोहन सिंह ही है ।
यानी तीन राज्यो में जीत के बाद करवट लेती राजनीति को एक साथ कई स्तर पर देश की राजनीति को नायाब प्रयोग करने की इजाजत दी है । या कहे खुद को बदलने की सोच पैदा की है । पहले स्तर पर काग्रेस रोजगार के साथ ग्रोथ को अपनाने की दिशा में बढना चाह रही है । क्योकि लिबरल इक्नामी के ढाचे को मोदी सत्ता ने जिस तरह अपनाया उसमें ' ग्रोथ विदाउट जाब '  वाले हालात बन गये । दूसरे स्तर पर विपक्ष की राजनीति के केन्द्र में काग्रेस जिस तरह आ खडी हुई उसमें क्षत्रपो के सामने ये सवाल पैदा हो चुका है कि वह बीजेपी विरोध करते हुये भी बाजी जीत नहीं सकते । उन्हे काग्रेस के साथ खडा होना ही होगा । और तीसरे स्तर पर हालात ऐसे बने है कि तमाम अंतर्विरोध को समेटे एनडीए था जिसकी जरुरत सत्ता थी पर अब यूपीए बन रहा है जिसकी जरुर सत्ता से ज्यादा खुद की राजनीतिक जमीन को बचाना है । और ये नजारा तीन राज्यो में काग्रेस के शपथ ग्रहण के दौरान विपक्ष की एक बस में सवार होने से भी उभरा और मायावती, अखिलेश और ममता के ना आने से भी उभरा ।
दरअसल, मोदी-शाह की बीजेपी ममता बर क्षत्रपो की राजनीतिक जमीन को सत्ता की मलाई  और जांच एंजेसियो की धमकी के जरीये तरह खत्म करना शुरु किया । तो क्षत्रपो के सामने संकट है कि वह बीजेपी के साथ जा नहीं सकते और काग्रेस को अनदेखा कर नहीं सकते । लेकिन इस कडी में समझना ये भी होगा कि काग्रेस का मोदी सत्ता या कहे बीजेपी विरोध पर ही तीन राज्यो में काग्रेस की जीत का जनादेश है । और इस जीत के भीतर मुस्लिम वोट बैक का खामोश दर्द भी छुपा है । कर्ज माफी से ओबीसी व एससी-एसटी समुदाय की राजत भी छुपी है और राजस्थान में जाटो का पूर्ण रुप से काग्रेस के साथ आना भी छुपा है । और इसी कैनवास को अगर 2019 की बिसात पर परखे तो क्षत्रपो के सामने ये संकट तो है कि वह कैसे काग्रेस के साथ काग्रेस की शर्ते पर नहीं जायेगें । क्योकि काग्रेस जब मोदी सत्ता के विरोध को जनादेश में अपने अनुकुल बदलने में सफल हो रही है तो फिर क्षत्रपो के सामने ये चुनौती भी है कि अगर वह काग्रेस के खिलाफ रहते है तो चाहे अनचाहे माना यही जायेगा कि वह बीजेपी के साथ है । उस हालात में मुस्लिम , दलित , जाट या कर्ज माफी से लाभ पाने वाला तबको क्षत्रपो  का साथ क्यो देगा । यानी तमाम विपक्षी दलो की जनवरी में होने वाली अगली बैठक में ममता , माया और अखिलेश भी नजर आयेगें । और अब बीजेपी के सामने चुनौती है कि वह कैसे अपने सहयोगियो को साथ रखे और कैसे  लिबरल इक्नामी का रास्ता छोड वैकल्पिक आर्थिक माडल को लागू करने के लिये बढे । यानी 2019 का राजनीतिक अर्थशास्त्र अब  इबारत पर साफ साफ लिखी जा रही है कि कारपोरेट को मिलने वाली सुविधा या रियायत अब ग्रमीण भारत की तरफ मुडेगी । यानी अब ये नहीं चलेगा कि उर्जित पटेल ने रिजर्व बैक के गवर्नर पद से इस्तिफा दिया तो शेयर बाजार सेसंक्स को कारपोरेट ने राजनीतिक तौर पर शक्तिकांत दास के गवर्नर बनते ही संभाल लिया क्योकि वह मोदी सत्ता के इशारे पर चल निकले । और देश को ये मैसेज दे दिया गया कि सरकार की इक्नामिक सोच पटरी ठीक है उर्जित पटेल ही पटरी पर नहीं थे ।
 

19 comments:

  1. Commendable work there are one mistake in stats *3 lakh carore
    No 3 carore asking from RBI

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    1. Bhai it was 3lakh crore... Kaun sa weed lete ho

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  2. Over all iska matlab Modi Ji ka Janne ka time AA chuka hai

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  3. आपका नजरिया भी ठीक है लेकिन,
    किसानों का कर्ज कारपोरेट घरानों की तुलना में कुछ भी नहीं है पहली बात । ओर सबसे बड़ी बात ये कि , छोटे से छोटा दुकानदार भी चाहे वो नाइ,जूती बनाने वाले चमार तक भी अपनी वस्तुओं की कीमत खुद तय करते हैं तो यही हक किसान को क्यों नहीं ??
    क्या ये सोचा है कभी किसी ने ?
    एक किसान कितनी मेहनत से कड़ाके की सर्दी में भी कैसे अपनी फसलों को सींचता है ?जब कारपोरेट ओर बाकि सारे इकनॉमिक्स अपनी रज़ाइयों में दुबके हुए होते हैं और रूम हीटर भी चलता रहता है तापमान को सामान्य करने के लिए ,तो उसी सर्दी में रात को कोई किसान अपने खेत की सिंचाई करता है , सोचने वाली बात तो ये भी है , ओर जरा रात को बिना चादर ओढ़े , छत पर बैठ कर सोचना जरूर । !
    सादर प्रणाम आपको ...वाजपेयी जी 💐

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    1. Ekdam sahi
      Kristi economist much Salah karon ko lekar gambhir chinta karni chahie .

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    2. आपको नमस्कार करता हूँ वाजपेयी जी बहुत खूब लिखा है आपने ।आपका जवाब नहीं ।
      आप आजकल कौन से चैनल पर है?।।

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  4. अगर काँग्रेस की सोच सच मे बदली है तो तोये बहोत सकारात्मक होगा

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  5. बेचारा किसान कभी नहीं कहता कि उसका कर्जा माफ कर दो।
    उसकी केवल एक ही छोटी सी मांग है उसकी उपज का सही मूल्य समय पर,खाद बीज मिलना उचित रेट पर,बंपर पैदावार पर बंपर कमाई
    बस यही उम्मीद लगाए सरकार की तरफ टुकुर टुकुर देखता है परंतु कर्ज माफी का झुनझुना पकड़ा कर दोनों सरकारें मुफ्त में ही देश भक्ति दिखा रही है।
    कोई दूरदर्शिता ही नहीं बची खासकर पूर्ण बहुमत मजबूत सरकार होने के बावजूद क्रांतिकारी फैसले लेने से डर रही है वर्तमान सरकार, बेचारा किसान कभी राजनीति के इस पाले में कभी उस पाले में,
    परंतु जिस दिन माल मंडी में लेकर जाता है उस दिन सच्चाई से रूबरू होता है ओने पौने दामों में बिचौलिए फसल को हड़प लेते हैं इस पर ध्यान देने की जरूरत है जय हिंद

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  6. सटीक टिप्पणी ।

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    मेरेप्रियआत्मन
    पुण्यप्रसूनबाजपेईजी
    प्रणाम!
    देश/दुनिया मेँ भारतीय दृष्ट्रिकोण के परिप्रेक्ष्य एक कहावत बहुप्रचलित है कि- "हिन्दुस्तान भेडिया धसान" अर्थात हिन्दुस्तानियोँ की प्रकृति/स्वभाव भेँड की तरह है यानि यदि एक भेँड कुएं में गिर जाए तो सारी भेड कुएं मेँ गिर जाएगीँ जिसका फायदा अबतक देशी/विदेशी अक्रान्ताओँ, लुटेरोँ, आक्रमणकारियोँ, दार्शनिको, धर्मगुरुओँ, उपदेशकोँ, समाजसुधारकोँ, राजनीतिज्ञोँ ने अर्थ का अनर्थ कर शाब्दिक/आर्थिक तल पर खूब उठाया है और सदैव जमकर जनमानस का भावनात्मक शोषण किया है क्यूँकि देश/दुनिया की सभी अध्यात्मिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, समाजिक सत्ताएं आम आदमी का शोषण करती हैँ तभी देश/दुनिया मेँ आजतक सँकल्प अधिकाँशत: सँस्थान बनकर रह गए और सपने दिखाने वाले सपनो के सौदागर अन्तत: मौत के सौदागर सिद्ध होकर खुद के सपनोँ मेँ खो गए तथा सभी के सभी अवतार/ तीर्थँकर/ महापुरुष/ स्वामी/ सन्त/ महात्मा/ ऋषि/ मुनि/ सन्यासी, सन्यासी नही स-न्यासी बनकर असफल सिद्ध हो गए।
    नेत्रत्व की प्रकृति घूस/प्रलोभन पर आकर टिक गई जबकि भ्रष्ट्राचार के कारण/निवारण पर सभी लडने की बात करते हैँ जहाँ घूस लेना/देना पाप है कानून अपराध है तो फिर सत्ता/सियासत/सिंहासन के खेल मेँ धन/पद/प्रतीष्ठा की अन्धी दौड सर्वविदित/जगजाहिर है कि मतदाता से जनप्रतिनिधि तक ग्रामसभा से लोकसभा तक खरीद-फरोक्त होती चली आ रही है जिसके अनेको उदाहरण तथाकथित लोकतान्त्रिक इतिहास मे दर्ज में है जो कहने को तो लोकतन्त्र है किन्तु है ये राजतन्त्र जैसा परन्तु राजतन्त्र तो पृजा(जनता) के प्रति जवाबदेह होता था लेकिन लोकतन्त्र कतई जवाबदेह नही हो सका है और न हो सकता है तभी सत्तापरिवर्तन ही एक मात्र प्रक्रिया है जहाँ चुनाव अच्छे/बुरे, सत्य/असत्य ईमानदार/बेईमान के बीच नही अपितु कमबुरे/ज्यादबुरे, कमझूठे/ज्यादाझूठे, कमबेईमान/ज्यादाबेईमान के बीच है क्यूँकि बुराई/झूठ/बेईमानी सर्वत्र बृम्ह के समान कण-कण मेँ व्याप्त/मौजूद है तो आरोप-प्रत्यारोप ही एकमात्र अन्तिम विकल्प(बृम्हास्त्र) है।-जयहिन्द!

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  8. बहुत ही शानदार विश्लेषण

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  9. महोदय,
    यह विश्लेषण भी किया जाना जरूरी है,की भारतीय बहुसंख्यक समाज ने कभी भी पूंजीवाद और उसकी नीतियों के लिए वोट नहीं दिया,चाहे वो मनमोहन सिंह का दोऔर हो या मोदी का, फिर आखिर सत्ता में आते ही सभी ने क्यों इन नीतियों को खुले मन से लागू किया. किसान क़र्ज़ माफ़ी केवल कुछ किसानो के लिए एक बहुत तात्कालिक राहत है, जिससे किसी समस्या का समाधान नहीं होगा, और यही राजनीति का दुर्भाग्य भी है कि वोट इस वादे पर दिया जा रहा है.
    यह भी देखा जाना चाहिए के चुनाव जीतने वाली पार्टी के पास इन राज्यों कि हालात सुधरने के लिए कोई नीति ,योजना, विचार है भी या नहीं, यदि ऐसा नहीं है तो सिर्फ चेहरे बदलेंगे और कुछ नहीं ..

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  10. Bajpai ji क्षमा चाहता हूँ आप और अनेकों अन्य लोग जो भी विश्लेषण करते हैं वह किसी न किसी राजनैतिक दल को केंद्र में रखकर करते हैं। कृपया विश्लेषण देश को केंद्र में रखकर करें।

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  11. अपने और अपनी पार्टी के फायदे कराने वाला निर्णय लिया गया। न ही सही नीति न ही सही नियत। किसान का फायदा सिर्फ किसानों को शिक्षित कर, परंपरागत खेती से आधुनिक खेती की तरफ लेजाकर, जलवायु परिवर्तन के अनुसार मिट्टी की पोषण क्षमता बढ़ाने ,आदी की व्यवस्था सरकार करें। किसान गरीब है, मजबूर हैं , कर्जदार है यही चिल्लाने से अच्छा। किसान ऐसा क्यों है? इसके क्या कारण है? कारणों को कैसै दूर किया जाए।?
    किसान हित में एक विष्लेषण बताईए किसी सरकार का या पत्रकार का.......?

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