Thursday, January 17, 2019

जेटली एक फरवरी तक न्यूयार्क से नहीं लौटे तो कौन पेश करेगा बजट ?


इस बार एक फरवरी को बजट पेश कौन करेगा । जब वित्त मंत्री कैंसर के इलाज के लिये न्यूयार्क जा चुक है ।  क्या 31 जनवरी को पेश होने वाले आर्थिक समीक्षा के आंकडे मैनेज होगें । जिसके संकेत आर्थिक सलाहकार के पद से इस्तिफा दे चुके अरविंद सुब्रहमण्यम ने दिये थे । क्या बजटीय भाषण इस बार प्रधानमंत्री ही देगें । और आर्थिक आंकडे स्वर्णिम काल की तर्ज पर सामने रख जायेगें । क्योकि आम चुनाव से पहले संसद के भीतर मोदी सत्ता की तरफ से पेश देश के आर्थिक हालातो को लेकर दिया गया भाषण आखरी होगा । इसके बाद देश उस चुनावी महासमर में उतर जायेगा जिस महासमर का इंतजार तो हर पांच बरस बाद होता है लेकिन इस महासमर की रोचकता 1977 के चुनाव सरीखी हो चली है । याद किजिये 42 बरस पहले कैसे जेपी की अगुवाई में बिना पीएम उम्मीदवार के समूचा विपक्ष एकजूट हुआ था । और तब के सबसे चमकदार और लोकप्रिय नेतृत्व को लेकर सवाल इतने थे कि जगजीवन राम जो की आजाद भारत में नेहरु की अगुवाई में बनी पहली राष्ट्रीय सरकार में सबसे युवा मंत्री थे वो भी काग्रेस छोड जनता पार्टी में शामिल हो गये । और 1977 में काग्रेस से कही ज्यादा  इन्दिरा गांधी की सत्ता की हार का जश्न ही देश में मनाया गया था । और संयोग ऐसा है कि 42 बरस बाद 2019 के लिये तैयार होते के सामने बीजेपी की सत्ता नहीं बल्कि मोदी की सत्ता है । यानी जीत हार बीजेपी की नहीं मोदी सत्ता की होनी है । इसीलिये तमाम खटास और तल्खी के माहौल में भी राहुल गांधी स्वस्थ्य लाभ के लिये न्यूयार्क रवाना होते अरुण जटली के लिये ट्विट कर रहे है । तो क्या मोदी सत्ता को लेकर ही देश की राजनीतिक बिसात हर असंभव राजनीति को नंगी आंखो से देख रही है । और इस राजनीति में इतना पैनापन आ गया है कि यूपी में सपा-बसपा के गंठबंधन में काग्रेस शामिल ना हो इसके लिये तीनो दलो ने मिल कर महागंठबंधन को दो हिस्सो में बांट दिया । जिससे बीजेपी के पास कोई राजनीतिक जमीन भी ही नहीं । यानी काग्रेस गंठबधन से बाहर होकर ना सिर्फ बीजेपी के अगडी जाति की पहचान को खत्म करेगी बल्कि जो छोटे दल सपा-बसपा-आरएलडी के साथ नहीं है , उन्हे काग्रेस अपने साथ समेट कर मोदी-शाह के किसी भी सोशल इंजिनियरिंग के फार्मूले को चुनावी जीत तक पहुंचने ही नहीं देगी । फिर ध्यान दें तो 2014 में सत्ता बीजेपी को मिलनी ही थी तो बीजेपी  के साथ गठंबधन के हर फार्मूले पर छोटे दल तैयार थे । लेकिन 2019 की बिसात में कश्मीर से कन्याकुमारी तक के हालात बताते है कि गठबंधन के धर्म तले मोदी-शाह अलग थलग पड गये है । सबसे पुराने साथी अकाली- शिवसेना से पटका पटकी के बोल के बीच रास्ता कैसे निकलेगा इसकी धार विपक्ष के राजनीतिक गठबंधन पर जा टिकी है । तो दूसरी तरफ गठबंधन बीजेपी को देक कर नहीं बल्कि मोदी सत्ता के तौर तरीको को देख कर बन रहा है । और इस मोदी सत्ता का मतलब बीजेपी सत्ता से अलग क्यो है इसे समझने से पहले गठबंधन का देशव्यापी चेहा परखना जरुरी है । टीडीपी काग्रेस का गठबंधन उस आध्रप्रदेश और तेलगाना में हो रहा है जहा कभी काग्रेस और चन्द्रबाबू में छत्तिस का आंकडा था । झारखंड में बीजेपी के साथ जाने के आसू भी तैयार नहीं है और झामुमो-आरजेडी-काग्रेस गठबंधन बन रहा है । बिहार-यूपी में मांझी, राजभर , कुशवाहा , अपना दल , आजेडी और काग्रेस की व्यूह रचना मोदी सत्ता के इनकाउंटर की बन रही है । और यही हालात महराष्ट्र और गुजरात में है जहा छोटे छोटे दल अलग अलग मुद्दो के आसरे 2014 में बीजेपी के साथ थे वह मोदी सत्ता को ही सबसे बडा मुद्दा मानकर अब अलग व्यूहरचना कर रह है । जिसेक केन्द्र में काग्रेस की बिसात है । जो पहली बार लोकसभा चुनाव और राज्यो क चुनाव में अलग अलग राजनीति करने और करवाने के लिये तैयार है । यानी लोकसभा चुनाव में काग्रेस राज्य चुनाव के अपने ही दुश्मनो से हाथ मिला रही है और काग्रेस विरोधी क्षत्रप भी अपने आस्त्तित्व के लिये काग्रेस से हाथ मिलाने को तैयार है । मोदी सत्ता के सामने ये हालात क्यो हो गये इसके उदाहरण तो कई दिये जा सकते है लेकिन ताजा मिसाल सीबीआई हो तो उसी के पन्नो को उघाड कर हालात परखे । आलोक वर्मा को जब सीबीआई प्रमुख बनाया गया तो वह मोदी सत्ता के आदमी के थे । और तब काग्रेस विरोध कर रही थी । उस दौर में सीबीआई ने मोदी सत्ता के लिये हर किसी की जासूसी की । ना सिर्फ विपक्ष के नेताओ की बल्कि बीजेपी के कद्दावर नेताओ की भी जासूसी सीबीआई ने ही । और सच तो यही है कि बीजेपी के ही हर नेता-मंत्री की फाइल जिसे सियासी शब्दो में नब्ज कहा जाता है वह पीएमओ के टेबल पर रही । जिससे एक वक्त के कद्दावर राजनाथ सिंह भी रेगते दिखायी पडे । और किसी भी दूसरे नेता की हिम्मत नहीं पडी कि वह कुछ भी बोल सके । यानी यशंवत सिन्हा यू ही सडक-चौराहे पर बोलते नहीं रहे कि बीजेपी में कोई है नहीं जो मोदी सत्ता पर कुछ बोल पाये । दरअसल इसका सच दोहरा है । पहला , हर की नब्ज मोदी सत्ता ने पकडी । और दूसरा राजनीतिक सत्ता किसी भी नेता में इतनी नैतिक हिम्मत छोडती नहीं कि वह सत्ता से टकराने की हिम्मत दिखा सके । और इसमें मदद सीबीआई की जाससी ने ही की । और सीबीआई की जासूसी करने कराने वाले कताकतवर ना हो जाये तो आलोक वर्मा के सामानांतर राकेश आस्थाना को ला खडा कर दिया गया । फिर इन दोनो पर नजर रखे देश के सुरक्षा सलाहकार की भी जासूसी हो गई । और एक को आगे बढाकर दूसरे से उसे काटने की इस थ्योरी में सीवीसी को भी हिस्सेदार बना दिया गया । यानी सत्ता के चक्रव्यू में हर वह ताकतवर संस्थान को संभाले ताकतवर शख्स फंसा जिसे गुमान था कि वह सत्ता के करीब है और वह ताकतवर है । जाहिर है इस खेल से विपक्ष साढे चार बरस डरा -सहमा रहा । सत्ताधारी भी अपने अपने खोल में सिमटे रहे । लेकिन विधानसभा चुनाव के जनादेश ने जब बीजेपी का बोरिया बिस्तर तीन राज्यो में बांध दिया तो फिर सीबीआई जांच के बावजूद अखिलेश यादव का डर सीबीआई से काफूर हो गया । केन्द्रीय मंत्री गडकरी उस राजनीति को साधने लगे जिस राजनीति के तहत उन्हे अध्यक्ष पद की कुर्सी अपनो के द्वारा ही छापा मरवाकर छुडवा दी गई थी । और धीरे धीरे इमानदारी के वह सारे एलान बेमानी से लगने लगे जो 2014 में नैतिकता का पाठ पढाकर खुद को आसमान पर बैठाने से नहीं चुके थे । क्योकि राफेल की लूट नये सिरे से सामने ये कहते हुये आई कि डिसाल्ट कंपनी जेनरेशन टू राफेल की किमत जेनेरेशन थ्री से कम में फ्रांस सरकार को जब बेच रही है तो फिर भारत ज्यादा किमत में जेनरेशन थरी राफेल कैसे करीद रहा है । इसीलिये 2019 में बजट को लेकर संसद का आखरी भाषण जिसे देश सुनना चाहेगा वह इकनामी को पटरी पर लाने वाला होगा या सत्ता की गाडी पटरी पर दौडती रहे इसके लिये इक्नामी को पटरी से उतार देगा । और वह भाषण कौन देगा ये अभी सस्पेंस है ? जेटली अगर न्यूयार्क से नहीं लौटते तो वित्त राज्य मंत्री शिवप्रताप शुक्ला या पी राधाकृष्णन में इतनी ताकत नहीं कि वह भाषण से सियासत साध लें । फिर सिर्फ भाषण के लिये पियूष गोयल वित्त मंत्री प्रभारी हो जायेगें ऐसा संभव नहीं है । तो क्या बजट प्रधानमंत्री मोदी ही रखेगें । ये सवाल तो है ?     

14 comments:

  1. सर जी थोरा दिन आपका मास्टर स्ट्रोक और चलता तो साहेब को इतना मेहनत नही करना परता विपक्ष में बैटने के लिये और बजट भी आम जनता को समझ आ जाता। दुर्भाग्य आज का गोदी मिडिया लगा है विपक्ष पे मास्टर स्ट्रोक करने पे ये देश का मीडिया कैसा हो चला की देश की आम जनता का ही दुसमन बन गया है।

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    1. बिलकुल सही कहाँ आपने

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    2. विनाश काले विपरीत बुद्धि मीडिया और भक्त ही सवॅ नाश करेगे

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  2. You are requested to please start new news tv. Citizens of India want the real situations of Indian economy and political system.

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  3. ठीक है लेकिन दुसरी तरफ कौन है हालात इससे भी बूरा होगा

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  4. Sir aap bahut achcha kar rahe hain..

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  5. Aap kab aaoge sir please comback

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  6. लेकिन ऐसा तो है ही नहीं कि सत्ता का परिवर्तन अगर हो तो सब कुछ ठीक ठाक हो, क्योंकि शेर के मुह तो खून लग चुका है.......

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  7. Sir aap live kab aarahe hai
    Intejaar hai sir ji

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  8. लगभग छ: हजार वर्ष से हमारे देश में लोकतन्त्र/प्रजातन्त्र/जनतन्त्र/जनता का शासन/पूर्णत: स्वदेशी शासन व्यवस्था नहीं है। लोकतन्त्र में नेता / जनप्रतिनिधि चुनने / बनने के लिये नामांकन नहीं होता है। नामांकन नहीं होने के कारण जमानत राशि, चुनाव चिह्न और चुनाव प्रचार की नाममात्र भी आवश्यकता नहीं होती है। मतपत्र रेल टिकट के बराबर होता है। गुप्त मतदान होता है। सभी मतदाता प्रत्याशी होते हैं। भ्रष्टाचार का नामोनिशान नहीं होता है। लोकतन्त्र में सुख, शान्ति और समृद्धि निरन्तर बनी रहती है।
    सत्तर वर्ष से गणतन्त्र है। गणतन्त्र पूर्णत: विदेशी शासन प्रणाली है। गणतन्त्र का अर्थ है- गनतन्त्र = बंदूकतन्त्र, गुण्डातन्त्र = गुण्डाराज, जुआंतन्त्र = चुनाव लडऩा अर्थात् दाँव लगाना, पार्टीतन्त्र = दलतन्त्र, तानाशाहीतन्त्र, परिवारतन्त्र = वंशतन्त्र, गठबन्धन सरकार = दल-दलतन्त्र = कीचड़तन्त्र, गुट्टतन्त्र, धर्मनिरपेक्षतन्त्र = अधर्मतन्त्र, सिद्धान्तहीनतन्त्र, आरक्षणतन्त्र = अन्यायतन्त्र, अवैध पँूजीतन्त्र = अवैध उद्योगतन्त्र - अवैध व्यापारतन्त्र - अवैध व्यवसायतन्त्र - हवाला तन्त्र अर्थात् तस्करतन्त्र-माफियातन्त्र; फिक्सतन्त्र, जुमलातन्त्र, विज्ञापनतन्त्र, प्रचारतन्त्र, अफवाहतन्त्र, झूठतन्त्र, लूटतन्त्र, वोटबैंकतन्त्र, भीड़तन्त्र, भेड़तन्त्र, भाड़ातन्त्र, भड़ुवातन्त्र, गोहत्यातन्त्र, घोटालातन्त्र, दंगातन्त्र, जड़पूजातन्त्र (मूर्ति व कब्र पूजा को प्रोत्साहित करने वाला शासन) अर्थात् राष्ट्रविनाशकतन्त्र। गणतन्त्र को लोकतन्त्र कहना अन्धपरम्परा और भेड़चाल है। अज्ञानता और मूर्खता की पराकाष्ठा है। बाल बुद्धि का मिथ्या प्रलाप है।
    निर्दलीय हो या किसी पार्टी का- जो व्यक्ति नामांकन, जमानत राशि, चुनाव चिह्न और चुनाव प्रचार से नेता / जनप्रतिनिधि (ग्राम प्रधान, पार्षद, जिला पंचायत सदस्य, मेयर, ब्लॉक प्रमुख, विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री आदि) बनेगा। उसका जुआरी, बेईमान, कामचोर, पक्षपाती, विश्वासघाती, दलबदलू, अविद्वान्, असभ्य, अशिष्ट, अहंकारी, अपराधी, जड़पूजक (मूर्ति और कब्र पूजा करने वाला) तथा देशद्रोही होना सुनिश्चित है। इसलिये ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमन्त्री तक सभी भ्रष्ट हैं। अपवाद की संभावना बहुत कम या नहीं के बराबर हो सकती है। इसीलिये देश की सभी राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक, भौगोलिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषायी और प्रान्तीय समस्यायें निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। सभी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय राजनैतिक दल देश को बर्बाद कर रहे हैं। राष्ट्रहित में इन राजनैतिक दलों का नामोनिशान मिटना / मिटाना अत्यन्त आवश्यक है।
    विदेशी शासन प्रणाली और विदेशी चुनाव प्रणाली के कारण भारत निर्वाचन आयोग अपराधियों का जन्मदाता और पोषक बना हुआ है। इसलिये वर्तमान में इसे भारत विनाशक आयोग कहना अधिक उचित होगा। जब चुनाव में नामांकन प्रणाली समाप्त हो जायेगा तब इसे भारत निर्माण आयोग कहेंगे। यह हमारे देश का सबसे बड़ा जुआंघर है, जहाँ चुनाव लडऩे के लिये नामांकन करवाकर निर्दलीय और राजनैतिक दल के उम्मीदवार करोड़ो-अरबों रुपये का दाँव लगाते हैं। यह चुनाव आयोग हमारे देश का एकमात्र ऐसा जुआंघर है, जो जुआरियों (चुनाव लड़कर जीतने वालों) को प्रमाण पत्र देता है।
    इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पूर्णत: अविश्वसनीय उपकरण है। यह ई.वी.एम. भ्रष्टाचार का अत्याधुनिक यंत्र है। आम आदमी इन मशीनों द्वारा होने वाले जालसाजी से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि उनके पास इस विषय में सोचने का समय और समझ नहीं है। इन मशीनों द्वारा होने वाली जालसाजी को कम्प्यूटर चलाने वाले और सॉफ्टवेयर बनाने वाले बुद्धिमान इंजीनियनर/तकनीशियन लोग ही निश्चित रूप से जानते हैं। वर्तमान में सभी राजनैतिक दल ई.वी.एम. से होने वाले भ्रष्टाचार से परिचित हंै, जब तक विपक्ष में रहते हैं तब तक ई.वी.एम को हटाने की मांग करते हैं, लेकिन जिस पार्टी की सरकार बन जाती है वह पार्टी चुप रहता है। अनेक देशों में ई. वी. एम. पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित है। ई. वी. एम. के स्थान पर कुछ जगह वी. वी. पेट. का प्रयोग किया जाता है, जो बहुत खर्चीला है। उसमें निकलने वाले मतपत्रों (पर्चियों) को सुरक्षित रखने और गिनने से तो अच्छा है कि पुरानी पद्धति से बड़े-बड़े मतपत्रों में मुहर लगवाकर मतदान करवाया जाय। हमारे देश के सभी ई. वी. एम. और वी. वी. पेट मशीनों को तोड़-फोड़ कर, आग लगाकर या समुद्र में फेंककर नष्ट कर देना चाहिये।
    गणतन्त्र अर्थात् पार्टीतन्त्र/ दलतन्त्र/ दल-दलतन्त्र/ गठबन्धन सरकार में हमारे देश का राष्ट्रपति सत्ताधारी राजनैतिक दल की कठपुतली/ रबर स्टैम्प/ गुलाम/ नौकर/ बंधुआ मजदूर/ मूकदर्शक होता है। राजनैतिक दलों के नेताओं को आपस में कुत्तों जैसे लड़ते हुए देखकर, जनता को कष्टों से पीडि़त देखकर, देश को बर्बाद होते हुए देखकर भी चुप रहता है।

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