अंधेरा घना है और अंधेरे की सियासत तले लोकतंत्र का उजियारा खोजने की कोशिश हो रही है । मौजूदा वक्त में लोकतंत्र का ये ऐसा रास्ता है जिसने आजादी के बाद से ही सत्ता हस्तातरण के उस मवाद को उभार दिया है जिसमें देश चाह कर भी बार बार 1947 की उसी परिस्थिति में जा खडा होता है जहा न्याय और समानता शब्द गायब रहे । ये कोई आश्चयजनक नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट आज लोकतंत्र को खतरे में होने एलान कर दें और देश में आह तक ना हो । न्यायपालिका खुद के संकट को उभारे और समाज में कोई हरकत ना हो । चुनाव आयोग की स्वतंत्र पहचान खुले तौर पर गायब लगे और आयोग के भीतर से ही आवाज आये कि सत्तानुकुल ना होने पर बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है या सत्ता के विरोध के स्वर को जगह भी चुनाव आयोद में दर्ज नहीं की जाती और समाज के भीतर कोई हलचल नहीं होती । एक तरफ ईवीएम के जरीय तकनीकी लोकतंत्र को जीने का सबब हो तो दूसरी तरफ यही ईवीएम सत्ता के लिये खिलौना सरीखा हो चला हो । पर देश तो लोकतंत्र तले जीने का आदी है तो कोई उफ नही निकलता । आश्चर्य तो इस बात भी नहीं हो पा रहा है कि रिजर्व बैक जनता के पैसो की लूट के लिये समूची बैकिंग प्रणाली को भी सत्ता के कदमो में झुकाने को तैयार है और जनता के भीतर से कोई विरोध हो नहीं पाता । खुलो तौर पर जनता के पैको में जमा रुपयो क कर्ज लूट होती है । रईस कानून व्यवस्था को घता बता कर फरार हो जाते है लेकिन संसद कानून का राज कहकर लोकतंत्र क चादर ओढ लेती है । और तो और किसी तरह की कोई बहस अपने ही बच्चो की शिक्षा के गिरते स्तर या शिक्षा की तरफ की जा रही अनदेखी को लेकर भी मां-बाप में नही जाग रही है । प्रीमियर जांच एंजेसी सीबीआई के भीतर डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर यानी वर्मा-आस्थाना के खुले तौर पर भ्रष्ट होने के आरोपो पर भी समाज में कोई हरकत नहीं हुईऔर खुले तौर पर पीएमओ की दखलअंदाजी को लेकर भी बहुसंख्यक तबका सिर्फ तमाशबीन ही बना रहा है । कैसे और किस तरह से पीने लायक पानी, स्वच्छ पर्यावरण, हेल्थ सर्विस सबकुछ बिगाड कर सत्ताधारियो ने लोकतंत्र का पाठ चुनाव के एक वोट पर जा टिकाया और बेबस देश सिर्फ देखता रहा । और कैसे बेबसी से मुक्ति के लिये हर पांच बरस बाद होने वाले चुनाव को ही उपचार मान लिया गया । यानी सत्ता परिवर्तन के जरीये लोकतंत्र के मिजाज को जीना और सत्ता के लिये देश में लूटतंत्र को कानूनी जामा पहना देना , दोनो हालातो को को देश के हर वोटर ने जिया है और हर नागरिक ने भोगा है । इससे इंकार कौन करेगा । 1947 के बाद संसद हर पांच बरस में सजती संवरती रही । जनता की भागीदारी संसद को ही लोकतंत्र का मंदिर मान कर समती गई । और 2014 में जब पहली बार किसी नये नवेले प्रधानमंत्री ने संसद की जमीन को माथे से लगाया तो लोकतंत्र का पावन रुप हर उस आंख में बस गया जिन आंखो ने 1952 से लेकर 2014 तक संसद के भीतर बाढ-सूखा की तबाही ,मंहगाई तले पिसते मध्यम वर्ग , अनाज की किमत तक ना मिलपाने से कर्ज में डूबे किसान की खुदकुशी , न्यूनतम मजदूरी के ना मिलने पर तिल तिल मरते परिवार , गांव गांव में पीने के पानी के लिये भटकते लोग , दो जून की रोटी के लिये गांव से पलायन करते किसानी छोड मजदूर बन शहरो की सडको पर भटकते परिवार के परिवार । तमाम मुद्दो पर संसद की अंसेवनशीलता भी हर किसी ने हर दौर में देखी । आलम ये भी रहा कि 15 फिसदी सांसदो की मौजदगी भी इन मुद्दो पर बहस के वक्त नहीं रहती और बिना कोरम पूरा हुये संसद में जिन्दगी से जुडे मुद्दो को सिर्फ सवाल जवाब में खत्म कर दिया जाता । जिन मुद्दो पर सत्ता को विपक्ष घेरता और उन्ही मुद्दो पर न्याय दिलाने की आस बनाकर विपक्ष सत्ता पाता और सत्ता पाने के बाद उन्ही मुद्द को भूल जाता । ये सब कैसे कोई भूल सकता है । शायद इसीलिये अंधेरा धीरे धीरे गहराता रहा और समूचे समाज ने आंखे मूंद रखी थी ।क्योकि लोकतंत्र के आदि हो चले भारत में आवाज उठाने कर असर डालने का हक उसी राजनीति , उस सियासत के मत्थे थोप दिया गया जिसने अंधेरे को फैलाया और धीरे धीरे गहराया । 1947 में बहस थी हाशिये पर जी रही जातिया या समुदायो को भारत की मुख्यधारा से जोडने के लिये आरक्षण के जरीये रियायत दी जाये । आर्थिक तौर पर विपन्न तबको को सत्ता रुपये बांट कर राहत दें । मुफ्त या सस्ते आनाज को बांटे । पर धीरे धीरे आरक्षण राजनीतिक हथियार बन गया और हाशिये पर रहने वाली जातियो को मुख्यधारा से जोडने के बदले उन्हे ही मुख्यधारा बनाने की कोशिश शुरु हो हई । दलित-आदिवासी-मुस्लिमो की बस्तियो मे स्कूल, हेल्थ सेंटर या जीने की जरुरतो की व्यवस्था नहीं की गई बल्कि हाशिये पर के लोगो को सियासी दान-दक्षिणा या सब्सडी या राजनीतिक रुपयो की राहत तले ही लाया गया । हर राज्य ने दो से पाच रुपये में सस्ता खाना मुहैया कराने के लिय दुकाने खोल दी । और लूट उसमें भी होने लगी । रईसो को मुफ्त आनाज बांटने का ठका भी चाहिये और मीड डे मिल का टेंडर भी चाहिये । क्योकि देश बडा है करोडो लोग है तो लूट का एक कौर भी करोडो के वारे न्यारे कर देता है ।
ऐसे में कोई क्या कहे क्या सोचे कि 70 बरस की उम्र युवा लोकतंत्र के नारे तले छोटी लग सकती है लेकिन 70 बरस का मतलब पांच पीढियो का खपना है और 31 करोड की जनसंक्या से 130 करोड तक पहुंचना भी है । और साथ ही 1947 के वक्त के भारत के बराबर तीन भारत को गरीबी मुफलिसी , हाशिये पर ढकेल कर संसदीय लोकतंत्र के रहमो करम पर टिकाना भी है । और जो पीडा इस अंधेरे में समाये भारत के भीतर है उससे अनभिज्ञ या फिर उस तरह आंख मूंद कर कौन से भारत को विकसित बनाया ज सकता है ये सवाल मुबई की झोडपट्टियो में से निकले एंटीला इमरत को देख कर कुछ हद तक तो समझा जा सकता है । लेकिन समूचा सच 2014 के बाद जिस तरह खुले तौर पर उभरा उसने पहली बार साफ साफ संकेत दे दिये कि अंधेरो की रजामंदी से उजियारे में रहने वालो को खत्म किया जा सकता है या फिर उनके लोकतंत्र को धराशायी कर हशिये पर लडे तबको में इस उल्लास को भरा जा सकता है कि सत्ता ने उनके लोकतंत्र को जिन्दा कर दिया है । कयोकि देश में अब सिर्फ अंधेरा होगा । और सडक पर बिलबिलाते समाज को ये रोशनी दिखायी देगी कि उनके हिस्से का अंधेरा और हर जगह छाने लगा है । लोकतंत्र के इस मवाद को कोई सत्ता के लिये भी हथियार बना सकता है ये इससे पहले कभी किसी ने सोचा नहीं या फिर इससे पहले संसदीय लोकतंत्र की उम्र बची हुई थी इसलिये किसी ने ध्यान ही नहीं दिया । हो जो भी लेकिन अंधेरे की सत्ता लोकतंत्र के उजियारे को कैसे अपनी मुठठी में कौद कर सकती है और कैसे ढहढहाकर लोकतंत्र सत्ता के आगे नतमस्तक हो सकता है उसकी लाइव कमेन्ट्री देस देश भी रहा है और भोग भी रहा है । संसदीय लोकतंत्र में अब ये इतिहास के पल हो चुके है कि जनता के मुद्दे होने चाहिये । उम्मीदवारो की पहचान होनी चाहिये । मुद्दो के जरीये संसद की जरुरत होनी चाहिये और उम्मीदवारो क जरीये समाज के अलग अलग तबके से सरोकार होने चाहिये । यानी ये महसूस होना चाहिये कि संसद में जनता के प्रतिनिधित्व करने वाले पहुंचे है । और भारत की विवधता को संसद समेटे हुये है । पर अब तो ना मुद्दे मायने रखते है ना ही उम्मीदवार । और ना ही संसद की वह गरिमा बची है जिसके आसरे जनता में भावनात्मक लगाव जागे कि संसद चल रही है तो उनकी जिन्दगी से जुडे मुद्दो पर बात होगी । रास्ता निकलेगा । अब ना तो हमारे पास संसद की गरिमा है । ना ही हमारे पास संविधान की व्याख्या करने वाली सु्रीम कोर्ट है । ना ही कोई संविधानिक सस्थान है जो सत्ताधारियो पर लगते आरोपो की जाच तो दूर सत्ता की मर्जी के बिना अपने ही काम को कर सके । ना ही हर पांच बरस बाद लोकंतत्र को जीने की स्वतंत्रता का एहसास कराने वाला चुनाव आयोग है । ना ही मानवाधिकार आयोग है जो जनता के हक की रक्षा का भरोसा जगाये । ना ही किसान-गरीब-मजदूरो के हके के सवालो को लिये संघर्ष करने वाले समाजसेवी संगठन है । ना ही ऐसे शिक्षा संस्थान है जो दुनिया की दौड में भारतीय बच्चो पर खडा कर सके , शिक्षित कर सके । और ना ही हमारे पास राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का वो एहसास है जो राजनीति को सहकार-सरोकार और बहुसंख्यक जनता से जोडने की दिशा में ले जाये । अब हमारे पास मजदूरो की ऐसी फौज है जिसके लिये कोई काम है ही नहीं । किसानो की बदहाली है जिनके लिये सिवाय खुदकुशी के कुछ देने की स्थिति में सत्ता नहीं है । अब हमारे पास अरबपतियो की ऐसी कतार है जो देश में लूट मचाकर दुनिया के बाजार में अपन धमक बनाये हुये है । अब हमारे पास बेरोजगारो की ऐसी फौज है जो राजनीति पार्टियो में नौकरी कर रही है या कैरियर बनाने के लिेये नेताओ की चाकरी में जुटी है । अब हमारे पास अपराधी और भ्रष्ट्र सांसदो विधायको की ऐसी फौज है जो जनता के प्रतिनिधी बनकर संविधान को खत्म कर संविधान से मिले विशेषाधिकार का भी लुत्फ उठा रही है और अपराध भी खुले तौर पर कर रह है । अब हमारे पास कानून-व्यवस्था नहीं है बल्कि सडक पर लिचिंग कर न्याय देने का जंगल कानून है । अब हमारे पास ऐसी फौज है जो बिना वर्दी फौज से ज्यादा ताकत रखती है । फिर हमारे पास अब नये चेहरे के साथ नाथूराम गोडसे भी है । और इस आधुनिक पूंजी पर अंगुली उटाने वाले या सवाल करने वाले या तो लुटियन्स के बौध्दिक करार दिया जा चुके है या फिर शहरी नक्सलवादी या फिर खान मार्केट के ग्रूप या फिर देश द्रोही या पाकिस्तान की हिमायती । तो संविधान के नाम पर ही जब सत्ता लोकतंत्र को हडप कर अंधेरे को ही देश का सच बताने निकल पडी हो तो फिर सवाल ये नही है कि चुनाव के जरीये देश के नागरिको ने लोकतंत्र को जीया या नहीं । बल्कि सवाल तो ये है कि एक वोट का लोकतंत्र भी गायब हो गया । क्योकि नागरिक भी ईवीएम के सामने बौना हो गया और ईवीएम में समाये लोकतंत्र में सत्ता को ना तो बीजपी की जरुरत है और ना ही संघ परिवार की । तो लोकतंत्र को जीते देश में जनता के प्रतिनिधी हो या नौकरशाही या फिर न्यायपालिका हो या मीडिया । जो जितनी जल्दी मान लें कि उसकी भागेदारी बटी ही नहीं उसके लिये उतनी ही जलदी ठीक हालात होगें । क्योकि लोकतंत्र की नई परिभाषा में सत्ता के लिये काम करते लोकतंत्र के स्तम्भ ही असल स्तम्भ है । इसीलिये जो सोच रहे है कि आने वाले वक्त में चुनाव की जररत ही नहीं होगी । उसका पहला एहसास तो 2019 में ही हो गया कि जितना लोकतंत्र [ ईवीएम़ ] वोटिंग बूथों के भीतर थे उससे ज्यादा लोकतंत्र बूथो के बाहर था । आप बूथो के बाहर कतारो में खडे थे और बाहर बिना कतार ज्यादा अनुशासत्मक तरके से लोकतंत्र का ठप्पा लग रहा था । तो एक वक्त इंदिरा ने लोकतंत्र खत्म कर एमरजेन्सी को अनुशासनात्मक कारर्वाई कहा था और अब सत्तानुकुल अनुशासानात्मक ठप्पे को ही लोकतंत्र कहा ज रहा है । देश बहुत आगे निकल चुका है । आप कहीं पिछड तो नहीं गये ।
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ReplyDeleteI understand ur feelings.. Keep patience bro..
DeleteVery deeply thought Sir
ReplyDeleteSir I am waiting for your new video after daagi exit poll
ReplyDeleteSir tv exit poll par ek video banaiye plz sir
ReplyDeleteWhat do we do? How to solve the proverty, unemployment, Farmers distress, inequality and sovereignty of India?
ReplyDeleteबहुत खूब ये लेख नही हकीकत को उकेड़ा गया प्रयास है
ReplyDeleteTum Jaison Ko sirf yhi Banda samgha Sakta:-
ReplyDeletehttps://youtu.be/h8JlqH0S3ic
Abe bhakt
DeleteSir i want ur perspective on the exit polls shown by corrupt media
ReplyDeleteशानदार कॉलम लिखा है सर, लेकिन जब जनता को ही अपनी फिक्र नहीं है तो हमारे आपके चिंता करने से क्या होने वाला है ।
ReplyDeleteभगवान आपको सलामत रखे 🙏🏻
Sir app genius hoo🙏🙏
ReplyDeleteGr8 sir
ReplyDeleteSir aaj bhi gandhi ki jarurat h
ReplyDeleteBhut Aacha laga sir
ReplyDeleteGandhi bane kaun yahi search kr raha h bharat
ReplyDeleteSir last mein EVM ka jikr kahin yeh toh nhi ishaara kar raha ki 23 may ko aap ka analysis galat sabit ho sakta hai??
ReplyDeleteThis writing is the mirror of Indian Democracy.
ReplyDeleteWe must understand how our constitunal institutions face a problem of some powerful people.
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ReplyDeleteDekhna hai ki Kya hoga ,sach hoga ki na hoga ,jhuth hee rahe ga ,jhuth ko sach Bata kar
ReplyDeleteआपकी कलम जो कह रही है शायद भाजपा के भक्ति में विलीन लोग ये बात समझ जाये तो आज लोकतंत्र खतरे में नही आता.
ReplyDeleteआपने कड़वी सच्चाई बयां की है। पर ये हालात इन 5 वर्षों में नहीं बने। आजादी के पहले से ही और आजादी के तुरन्त बाद से अधिक तेजी के साथ आरएसएस और उससे जुड़े संग़ठन झूठ, अफवाहों से समाज के अंदर नफरत और विभाजन के अपने कार्य में लगातार लगे रहे।आरएसएस अपने एजेंडा को लागू करने के लिए जमीन तैयार करता रहा। और इसके लिए उसने हर पाखण्ड हथकंडा अपनाने से गुरेज नहीँ किया।
ReplyDeleteनरेंद्र मोदी के रूप में उसे मोहरा मिल गया जिसमेँ आरएसएस की सोच का हर एब मौजूद था ,बोलने की कला,बेशर्मी,अशिक्षा,पाखण्ड नाट्य कला और नफरत का जहर रोम रोम में बसा हुआ।
समाज,देश,इंसानियत आज खतरे में है ।आपके प्रयास सराहनीय हैं।
Shandar!
ReplyDeletehttps://democraticindia70.blogspot.com/2019/03/17-1947-2019-1947-purchasing-power.html
अंतरात्मा को झकझोर देने वाला सच। आज भारत इतने गहरे साजिश के दलदल में फंस चुका है जहाँ से उसे निकालने के लिए अब नए लोकनायक और उसकी जैसी क्रांति की जरूरत पड़ेगी। आज समाज को विभाजित कर भारत को कमजोर किया जा चुका है, देश इसकी बड़ी कीमत एक दिन जरूरत चुकाएगा।
ReplyDeleteमैं आपका पुराना फैन हूँ, आपका अंदाज, बेबाकी और सच्चे पत्रकार के साहस की दाद देता हूँ। आप और अभिसार को कोटिशः नमन।
Very nice article.. U r genius
ReplyDeleteI.... Love your thought.... Sir
ReplyDeleteसर अब क्या करना होगा हम लोगो को,अब तो बहुत डर भी लग रहा है।लगता है कि यह अन्तिम चुनाव है।
ReplyDeleteSir
ReplyDeleteHistory is witness nothing is permanent
Change will come
“Hope” Is people like u
Sir
ReplyDeleteHistory is witness nothing is permanent
Change will come
“Hope” Is people like u
Prasun G Jitna Negative aap Ho gye h bjp ko lekr bjp utnii buri bhi nhi 😊
ReplyDeleteVery good sir
ReplyDeleteBhut effective Sir
ReplyDeleteसर आप जैसे पत्रकार हैं इसलिए मैं थोड़ा बहुत न्यूज ।देख लेता हूं।
ReplyDeleteजिस तरफ लोगो को सोचना चाहिए उन अभी बातो को दबाया जा रहा है आज का नोजवान कही सुनी बातो पर यकीन करके वायरल झुटे वीडियो को सही तथ्य मानकर अपना वोट दे रहा है देश का युवा गुमराह किया जा रहा उन्हें नही पता देश आर्थिक कमजोर हो जाएगा , आसान लोन की बात होती है 15 लाख का जुमला , हिंदुत्व की बात होती , देश गुमराह किया जा रहा है , एक युवा होने के नाती मेरा कर्तव्य है मेरे देश की युवा पीढ़ी को सही मार्ग के बारे में जागरूक करू, मुझे आज तक ऐसा कोई प्लेटफार्म नही मिला जहा से मेरे विचार लाखो लोगो को बीजेपी की झूटी राजनीति का सच बता सके , राम मंदिर के नाम पर आर्मी के नाम पर हिंदुत्व के नाम मेजोरिटी मजबूत की जा रही है देश मस कोई काम नही हुआ एक इंटरव्यू मेरे साथ punya prasun जी न में कांग्रेस से हु न में बीजेपी से हु , में देश का एक आम।नागरिक हु ट्विटर पर आपका फॉलोवर हु आपको देख प्रेरणा मिलो की लड़ाई चाहे छोटी हो या बड़ी अपने मरे बिना स्वर्ग नही मिल सकता ईमेल एड्रेस पर आप मुझे से बात कीजिये lavishsoni10@gmail.com
ReplyDeleteJab rajnaitik dal sambidhan main likhe fundamental duties ko nazarandaz Kare. To desh kaa vikash matra ek sapna hai..
ReplyDeleteएक अच्छा पत्रकार अच्छा आलोचक होता है,लेकिन पत्रकार को किसी भी तथ्य के दोनों पहलुओं को उजागर करना चाहिए।कोई भी विचारधारा परिपूर्ण नहीं होती है और ये कटु सत्य है कि जो भी विचारधारा सत्ता में आती है, नीतियों को व्यापक रूप में प्रभावित करती है।इतिहास गवाह है, चाहे वो मार्क्सवादी विचारधारा हो, साम्यवादी विचारधारा हो या समाजवादी विचारधारा हो,सबने अपने अनुसार सत्ता को ढालने की पुरजोर कोशिश की है कामयाब भी रहे हैं।परिवर्तित परिस्थितियों में ये दुर्भाग्य है कि वर्तमान में विगत वर्षों से सत्तासीन विचारधारा के नेतृत्व में पंगुता आ गई है।जिसके कारण लोगों के पास विकल्प ही नहीं है।और वर्तमान सरकार की विचारधारा आपके विचारधारा से नहीं मिलती इसका ये कतई मतलब नहीं है कि वो गलत है।देश की इतनी बड़ी आबादी जब प्रभावित है, यदपि ये अलग विषय है कि कितना अच्छा काम किया या कितना बुरा;तो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि एकदम गलत ही सरकार है, और फिर किसी भी सरकार का मूल्यांकन कम से कम दशक बाद ही किया जा सकता है। मुझे आजकल के पत्रकारों की सबसे खराब स्थिति यही लगती है कि वो तटस्थय ना होके किसी खास विचारधारा से प्रभावित है और अपना अपना ग्रुप बना लिये है।ग़ांधी जी से बोस की कुछ खास नहीं बनती थी फिर भी दोनों एक दूसरे के विचारों को समझते थे और समन्वय स्थापित करते थे।आजकल सब अपनी विचारधारा थोपने में लगे हैं, मैं अच्छा हूँ, मैं अच्छा हूँ।और एक बात कहूँगा।शायद राजनीति अपने नये युग में प्रवेश कर रही है जहाँ कम से कम परिवारवाद तो ना हो, लोकतंत्र में सबकी भागीदारी हो तो ज्यादा अच्छा है।
ReplyDeletehasiii k paatra hain aap bs, aur kuch nahi kahunga
ReplyDeleteलोकतंत्र का ऊज़ियारा EVM के अन्धेरे तले दब गया है, इसे ज्यादा ढूंडने की ज़रूरत नहीं बस अन्धेर हटाओ नीचे ऊज़िआरा मिल जायेगा जी
ReplyDeleteRead my blog - society15054445.
ReplyDeleteblogspot.com