खाक भी जिस ज़मी की पारस है, शहर मशहूर यह बनारस है। तो क्या बनारस पहली बार उस राजीनिति को नया जीवन देगा जिस पर से लोकतंत्र के सरमायेदारों का भी भरोसा डिगने लगा है। फिर बनारस तो मुक्ति द्वार है । और संयोग देखिये वक्त ने किस तरह पलटा खाया जो बनारस 2014 में हाई प्रोफाइल संघर्ष वाली लोकसभा सीट थी , 2019 में वही सीट सबसे फिकी लडाई के तौर पर उभर आई । जी, देश के सबसे बडे ब्रांड अंबेसडर के सामने एक ऐसा शख्स खडा हो गया जिसकी पहचान रोटी - दाल से जुडी है । यानी चाहे अनचाहे नरेन्द्र मोदी का ग्लैमर ही काफूर हो गया जो सामने तेज बहादुर खडा हो गया । राजनीतिक तौर पर इससे बडी हार कोई होती नहीं है कि राजा को चुनौती देने के लिये राजा बनने के लिये वजीर या विरोधी नेता चुनौती ना दे बल्कि जनता से निकला कोई शख्स आ खडा हो जाये , और कहे मुझ राजा नहीं बनना है । सिर्फ जनता के हक की लडाई लडनी है । तो फिर राजा अपने औरे को कैसे दिखाये और किसे दिखाये । कयोकि राजा की नीतियो से हारा हुआ शख्स ही राजा को चुनौती देने खडा हुआ है तो फिर राजा के चुनावी जीत के लिये प्रचार की हर हरकत अपनी जनता को हराने वाली होगी । जो जनता की नहीं राजा की हार होगी । और ये सच राजा समझ गया तो व्यवस्था ही ऐसी कर दी गई कि जनता से निकला शख्स सामने खडा ही ना हो पाये । तो सूखी रोटी और पानी वाले दाल की लडाई करने वाले तेजबहादुर का पर्चा ही उस चुनाव आयोग ने खारिज क दिया जो खुद राजा के रहनुमा पर जी रहा है । तो क्या ये मान लिया जाये कि ये बनारस की ही महिमा है जिसने मुक्ति द्वार खोल दिया है और मोक्ष के संदेश देने लगा है । क्योकि बनारस को पुराणादि ग्रंथो के आसरे परखियेगा तो पुराणकार बताते है कि काशी तीनो लोकों में पवित्रतम स्थान रखती है , ये आकाश में स्थित है तछा मर्त्यलोक से बाहर है....
वाराणसी महापुण्या त्रिषुलोकेषु विश्रुता । / अन्तरिक्षे पुरी सा तु मर्त्यलोक बाह्रात ।।
हे पार्वती ! तीनो लोको का सार मेरी काशी सदा धन्य है :
वाराणसीति भुवनत्रयसारभूता धन्या सदा ममपुरी गिरिराजपुत्री ।
लेकिन बनारस तो सियासी छल कपट । घोखा फरेब की सियासत में इस तरह जा उलझी है । जहा राजा एक राज्य संभालते हुये चुनावी दस्तावेज में खुद को अविवाहित बताता है । लेकिन देश संभालने के वक्त खुद को विवाहित बताता है । शिक्षा करत हुये मिलने वाली डिग्री भी चुनाव दर चुनाव बदलती है । लेकिन राजा तो राजा है । इसलिये वसंतसेना भी जब पांच बरस में ग्रेजुएट से बारहवी पास हो जाती है तो भी चुनाव आयोग को कुछ गलत नहीं लगता । और तो और देश भर में चुनाव लडने वालो में 378 उम्मीदवार आपराधी या भ्रष्ट्राचर के दायरे में है , लेकिन लोकतंत्र ऐसी खुली छूट देता है कि चुनाव आयोग उन्हे छू भी नहीं पाता । लेकिन जनता से निकला तेजबहादुर जब राजा की नीतियो पर रोटी का सवाल उठाकर शिंकजा कसता है तो पहले नौकरी से बर्खास्गी फिर लोकतंत्र की परिभाषा तले चुनाव लडने पर ही रोक लगाने में समूचा अमला लग जाता है । जिससे राजा को कोई परेशानी ना हो कि आखिर वह जनता को क्या कहगा ..... जनता को हरा दो । मुस्किल है । तो फिर राजा काशी की महत्ता उसके सच को क्या जाने । वह तो आस्था को चुनावी भावनाओ की थाली में समेट पी लेना चाहता है । तभी तो काशी की पहचान को ही बदल दिया जाता है । ऐसे में काशी की वरुणा और अस्सी नदी तो दूर गंगा तक ठगा जा रहा है तो फिर अतित की काशी को कौन परखे कैसे परखे । एक वक्त माना तो ये गया कि वरुणा और अस्सी नदियो के बीच स्थित बनारस में स्नान , जप , होम, मरण और देवपूजा सभी अक्षय होते है । लेकिन गंगा का नाम लेकर सियासत इन्हे भूल गई और गंगा की पहचान बनारस में है क्या इस समझ को भी सत्ता सियासत समझ नहीं पायी । बनारस में गंगा का पानी भक्त कभी घर नहीं ले जाते । क्योकि बनारस में तो गंगा भी मुक्ति द्वार है । काशी के प्रति लोगो में आस्था इस हद तक बढी कि लोग विधानपूर्वक आग में जलकर और गंगा में कूदकर प्राण देने लगे , जिससे कि मृतात्मा सीधे शिव के मुख में प्रवेश कर सके । उन्नीसवी सदी तक लोग मोक्ष पाने के विचार से , यहा गंगा में गले में पत्थर बांधकर डूब जाते थे । आज भी इस विचार को समेटे लोगो के बनारस पहुंचने वाले कम नहीं है । लेकिन अब तो इक्किसवी सदी है । और गंगा मुक्ति नहीं माया का मार्ग है । इसीलिय तो बनारस की सडको पर मु्कित नहीं सत्ता का द्वार खोजने के लिये जब तीन लाख से ज्यादा लोगो को नरेन्द्र मोदी के प्रचार क लिये लाया गया और गंगा को समझे बगैर , बनारस की महत्ता जाने बगैर अगर मेहनताना लेकर सभी राजा के लिये नारा लगाते हुये आये और खामोशी से लोट गये तो फिर चाहे अनचाहे भगवान बुद्द याद आ ही जायेगें । भगवान बुद्द भी अपने धर्म का प्थम उपदेश देने सबसे पहले बनारस ही आये थे । उन्होने कहा था....
भेदी नादयितुं धर्म्या काशी गच्छामि साम्प्रतम ।
न सुखाय न यशसे आर्तत्राणाय केवलम् ।।
यानी धर्मभेरी बजाने के लिये इस समय मै काशी जा रहा हूं - न सुख के लिये और न यश के लिये, अपितु केवल आर्तो की रक्षा के लिये ।
तो हालात कैसे बिखरे है संस्कृति कैसे बिखरी है इसलिये बनारस की पहचान अब खबरो के माध्यम से जब परोसी जाती है तो चुनावी बिसात पर बनारस की तहजीब, बनारस का संगीत , बनारस का जायका या फिर बनारस की मस्ती को खोजने में लगत है । और काशी की तुलना में दिल्ली को ज्यादा पावन बताने में कोई कोताही भी नहीं बरतता है ।
लेकिन 2019 में नरेन्द्र मोदी और तेज बहादुर का सियासी अखाड़ा बनारस बना तो फिर बनारस या तो बदल रहा है या फिर बनारस एक नये इतिहास को लिखने के लिये राजनीतिक पन्नों को खंगाल रहा है। बनारस से महज १५ कोस पर सारनाथ में जब गौतम बुद्द ने अपने ज्ञान का पहला पाठ पढ़ा, तब दुनिया में किसी को भरोसा नहीं था गौतम बुद्द की सीख सियासतों को नतमस्तक होना भी सिखायेगी और आधुनिक दौर में दलित समाज सियासी ककहरा भी बौध धर्म के जरीये ही पढेगा या पढ़ाने की मशक्कत करेगा। गौतम बुद्ध ने राजपाट छोडा था। मायावती ने राजपाट के लिये बुद्द को अपनाया। इसी रास्ते को रामराज ने उदितराज बनकर बताना चाहा और समाजवादी पार्टी ने तो गौतम बुद्द की थ्योरी को सम्राट अशोक की तलवार पर रख दिया। सम्राट अशोक ने बुद्दम शरणम गच्छामी करते हुये तलवार रखी और अखिलेश यादव ने तेजबहादुर के निर्दलिय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भरन के बाद समझा कि समाजवादी बनाकर संघर्ष करवा दिया जाये तो सियासत साधी जा सकती है । तो अखिलेश ने सत्ता गच्छामी करते हुये सियासी तलवार भांजनी शुरु की। पर बनारस तो मुक्ति पर्व को जीता रहा है फिर यहा से सत्ता संघर्ष की नयी आहट नरेन्द्र मोदी ने क्यो दी। मोक्ष के संदर्भ में काशी का ऐसा महात्म्य है कि प्रयागगादु अन्य तीर्थो में मरने से अलोक्य, सारुप्य तथा सानिद्य मुक्ती ही मिलती है और माना जाता है कि सायुज्य मुक्ति केवल काशी में ही मिल सकती है। तो क्या सोमनाथ से विश्वनाथ के दरवाजे पर दस्तक देने नरेन्द्र मोदी 204 में इसलिये पहुंचे कि विहिप के अयोध्या के बाद मथुरा, काशी के नारे को बदला जा सके। या फिर संघ परिवार रामजन्मभूमि को लेकर राजनीतिक तौर पर जितना भटका, उसे नये तरीके से परिभाषित करने के लिये मोदी को काशी चुनना पड़ा। लेकिन 2019 में जिस तरह काशी को मोदी ने सियासी तौर पर आत्मसात कर लिया है उसमें मोदी कहीं भटके नहीं है । क्योंकि काशी को तो हिन्दुओं का काबा माना गया। याद कीजिये गालिब ने भी बनारस को लेकर लिखा,
" तआलल्ला बनारस चश्मे बद्दूर, बहिस्ते खुर्रमो फिरदौसे मामूर, इबादत खानए नाकूसिया अस्त, हमाना काबए हिन्दोस्तां अस्त। "
यानी हे परमात्मा, बनारस को बुरी दृष्टि से दूर रखना, क्योंकि यह आनंदमय स्वर्ग है। यह घंटा बजाने वालों अर्थात हिन्दुओ का पूजा स्थान है, यानी यही हिन्दुस्तान का काबा है। तो फिर तेज बहादुर यहां क्यों पहुंचे। क्या तेज बहादुर काशी की उस सत्ता को चुनौती देने पहुंचे हैं, जिसके आसरे धर्म की इस नगरी को बीजेपी अपना मान चुकी है। या फिर तेजबहादुर के अक्स तले अखिलेश यादव को लगने लगा है कि राजनीति सबसे बड़ा धर्म है और धर्म सबसे बड़ी राजनीति। संघ परिवार धर्म की नगरी से दिल्ली की सत्ता पर अपने राजनीतिक स्वयंसेवक को देख रहा है। और अखिलेश यादव , तेजबहादुर यादव के जरीये काशी में नैतिक जीत से दिल्ली की त्रासदी से मुक्ति चाहने लगे । तो क्या सबे प्रचिन नगरी कासी को ही सियासत पंचतंत्र की कहानियो में तब्दिल करना चाहती है जिससे यहा की सासंकृतिक महत्ता खत्म हो जाये । क्योकि बनारस की राजनीतिक बिसात का सच भी अपने आप में चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि जितनी तादाद यहां ब्राह्मण की है, उतने ही मुसलमान भी हैं। करीब ढाई-ढाई लाख की तादाद दोनों की है। पटेल डेढ़ लाख तो यादव एक लाख है और जायसवाल करीब सवा लाख। मारवाडियों की तादाद भी ४० हजार है। इसके अलावा मराठी, गुजराती, तमिल , बंगाली, सिख और राजस्थानियों को मिला दिया जाये तो इनकी तादाद भी डेढ लाख से उपर की है। तो 17 लाख वोटरों वाले काशी में मोदी का शंखनाद गालिब की तर्ज पर हिन्दुओं का काबा बताकर मोदी का राजतिलक एक बार फिर कर देगा या फिर काशी को चुनौती देने वाले कबीर से लेकर भारतेन्दु की तर्ज पर तेजबहादुर की चुनौती स्वीकार करेगा। क्योंकि गालिब बनारस को लेकर एकमात्र सत्य नहीं है। इस मिथकीय नगर की धार्मिक और आध्यात्मिक सत्ता को चुनौतिया भी मिलती रही हैं। ऐसी पहली चुनौती १५ वी सदी में कबीर से मिली। काशी की मोक्षदा भूमि को उन्होंने अपने अनुभूत-सच से चुनौती दी और ऐसी बातों को अस्वीकार किया। उन्होंने बिलकुल सहज और सरल ढंग से परंपरा से चले आते मिथकीय विचारों को सामने रखा और बताया कि कैसे ये सच नहीं है। अपने अनुभव ज्ञान से उन्होने धार्मिक मान्यताओं के सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जो एक ओर काशी की महिमा को चुनौती देता था तो दूसरी ओर ईश्वर की सत्ता को। उन्होंने दो टूक कहा-जो काशी तन तजै कबीरा। तो रामहिं कौन निहोरा। यह ऐसी नजर थी , जो किसी बात को , धर्म को भी , सुनी -सुनायी बातो से नहीं मानती थी। उसे पहले अपने अनुभव से जांचती थी और फिर उस पर भरोसा करती थी।
काशी का यह जुलाहा कबीर कागद की लेखी को नहीं मानता था, चाहे वह पुराण हो या कोई और धर्मग्रंथ। उसे विश्वास सिर्फ अपनी आंखो पर था। इसलिये कि आंखों से देखी बातें उलझाती नहीं थी…तू कहता कागद की लेखी, मै कहता आंखन की देकी। मै कहता सुरझावनहरी, तू देता उरझाई रे। वैसे बनारस की महिमा को चुनौती तो भारतेन्दु ने १९ वी सदी में भी यह कहकर दी…..देखी तुमरी कासी लोगों , देखी तुमरी कासी। जहां बिराजे विस्वनाथ , विश्वेश्वर जी अविनासी। ध्यान दें तो बनारस जिस तरह २०१४ का सियासी अखाडा बन रहा था 2019 के हालात ठीक उसके उलट है । 2014 में नेताओ के कद टकरा रह थे । 2019 में जनता के कद के आगे राजा का बौनापन है जो बनारस को जीता है और जीत भी सकता है । यानी 2014 में सियासी आंकड़े में कूदने वाले राजनीति के महारथियो को जैसे जैसे बनारस के रंग में रंगने की सियासत भी शुरु हुई है। वह ना तो बनारस की संस्कृति है और ना ही बनारसी ठग का मिजाज। लेकिन अब तो वाकई काशी की जमीन पर गंवई अंदाज में काशी मे मुक्ति का सवाल है । और मुक्ति जीत पर भारी है । इसे दिल्ली का राजा चाहे ना समझे लेकिन काशी वासी समझ चुके है । पर उनकी समझ को भी राजा अपने छाती पर तमगे में टांगना चाहता है । पर राजा ये नहीं जानता कि काशी को जीत कर वह हार रहा है क्योकि राजा का लक्ष्य तो अमेरिका है । और बनारस को बिसमिल्ला खां के दिल को जीता है ।
बिस्मिल्ला खां ने अमेरिका तक में बनारस से जुड़े उस जीवन को मान्यता दी, जहां मुक्ति के लिये मुक्ति से आगे बनारस की आबो हवा में नहाया समाज है। शहनाई सुनने के बाद आत्ममुग्ध अमेरिका ने जब बिस्मिल्ला खां को अमेरिका में हर सुविधा के साथ बसने का आग्रह किया तो बिस्मिल्ला खां ने बेहद मासूमियत से पूछा, सारी सुविधा तो ठीक है लेकिन गंगा कहा से लाओगे। और बनारस का सच देखिये। गंगा का पानी हर कोई पूजा के लिये घर ले जाता है लेकिन बनारस ही वह जगह है जहा से गंगा का पानी भरकर घर लाया नहीं जाता । तो ऐसी नगरी में मोदी किसे बांटेंगे या किसे जोड़ेंगे। वैसे भी घंटा-घडियाल, शंख, शहनाई और डमरु की धुन पर मंत्रोच्चार से जागने वाला बनारस आसानी से सियासी गोटियो तले बेसुध होने वाला शहर भी नहीं है। बेहद मिजाजी शहर में गंगा भी चन्द्राकार बहती है बनारस हिन्दु विश्वविघालय के ३५ हजार छात्र हो या काशी विघापीठ और हरिश्चन्द्र महाविघालय के दस -दस हजार छात्र। कोई भी बनारस के मिजाज से इतर सोचता नहीं और छात्र राजनीति को साधने के लिये भी बनारस की रंगत को आजमाने से कतराता नहीं। फिर बनारस आदिकाल से शिक्षा का केन्द्र रहा है और अपनी इस विरासत को अब भी संजोये हुये हैं। ऐसे में सेना के जवान हाथो में सूखी रोटिया और पानी की दाल का सच दिखाकर पहचान पाये है तो दूसरी तरफ गुजरात के राजधर्म और दिल्ली के लोकतंत्र पर चढाई कर नरेन्द्र मोदी बनारस में है । मोदी की बिसात पर बनारसी मिजाज प्यादा हो नहीं सकता और तेज बहादुर सियासी बिसात पर चाहे प्यादा साबित हो खारिज कर दिये गये लेकिन बनारसी मिजाज तो उन्हे मोक्ष दे रहा है । क्योकि मोदी वजीर बनने के लिये लालालियत है और तेज बहादुर मुक्ति पाने की छटपटाहट में बनारस पहुंचे है । तो फिर बनारस का रास्ता जायेगा किधर। नजरें सभी की इसी पर हैं। क्योंकि बनारस की बनावट भी अद्भुत है….यह आधा जल में है । आधा मंत्र में है । आधा फूल में है । आधा शव में है । आधा नींद में है। आधा शंख में है । और काशी का आखरी सच यही है कि यहा सूई की नोंक भर भी स्थान नहीं है , जहा जाने वाले को मोक्ष ना मिले । और मोक्ष में लिंग जाति वर्ण वर्ग का कोई भेद नहीं होता । तो आप तय किजिये मोक्ष किसे मिलेगा या किसे मिलना चाहिये ।
बेहतरीन, बहुत ही बेहतरीन
ReplyDeleteAapke itna bolne ke baad TejBahadur ka to nomination hi radd ho gya janab, kuch uspe bhi bolein...
ReplyDeleteGajjjab विश्लेषण ❤️🙏🙏
ReplyDeleteExcellent,
ReplyDeleteI request you to join a new channel or NDTV at least or the remaining best people like you abhisaar, ravish etc launch a new channel or show it's much needed...it might not be profitable for you but Nation will remember you....Please
I didn't understand what is going on this country.free journalism is going depressed.If I am going to open your blog from institution wifi they displayed access denied. But when I opened other writer on itzmblog then it's okay.
ReplyDeleteWhy so fear ?
बकवास।
ReplyDeleteI want to know how many people read this? Do people read now a days?
ReplyDeleteSir ishke saath pic bhi attach kae dege
ReplyDeleteTo or intresting to ta reading me
Sir, If you like I can design a website for you, a blog website.
ReplyDeleteप्रसून जी मौजूदा वक्त में सूचना तो है नहीं लेकिन जो मिलती है वो आपके शिवा और कोईहै नहीं। तो आपको जब पढते हैं तो लगता है कि कुछ मै भी पढू देखू समझू लेकिन वैसा स्रोत मिल नहीं पाता। मेरी आपसे गुजारिश है कि आप सूसूचना का श्श्रोत अवश्य बतायेगा ताकि हम भी तह तक जा सके।
ReplyDeleteअमल जरूर करायेगा।
ज
अदुतीय, अद्भुक्त।
ReplyDeleteSir, I am kunal solanki recently passed out from iimc delhi. I want to contact you. Kunal.Solanki95@yahoo.com please reply to this mail or comment.
ReplyDeleteआज के दोर में आप जैसे लोग great हैं जी ।
ReplyDeleteकभी मनुवाद के बारे मे भी बोल दिया करिये - कैसे मनुवाद ने भर के जड़ो को खोकला किया था और कर रहा है -
ReplyDeleteभारत तो सदैव से ही श्रमण संस्कृति का रहा है - अहिंसा जिसका धर्म था - अशोका को दोष देते है अहिंसा के लिये - पर अशोका के बाद तो पुश्यमित्र सुंग आ गया था - मनुवाद लगा दिया गया था - तब भारत क्यों बार - विदेशी आक्रांताओ के द्वारा कुचला गया - तक्षशिला / नालंदा हज़ारो हज़ार स्तूप मंदिर मठ नष्ट कर दिए गये - सारा इतिहास जला दिया गया - लाखो करोड़ों अहिंसक / निर्दोष मार दिए गये क्यों कि वह बर्बर नहीं थे - राजपूतो को क्षत्रिय बना दिया गया - कोई रघुवंशी - कोई यह वंशी कोई वोह वंशी - फिर भी भारत की रक्षा नहीं हो पायी -
क्यों तब भी बुद्धा - अशोका - चन्द्रगुप्त - बुद्धा धर्म - तीर्थंकर या जैन धर्म दोषी था ???
यह समाज द्वारा एकत्रित पाप थे - जैसे एक दलित समाज का ऋण होता है - वोह अगर दलित है तो इसका अर्थ है कोई उसका अधिकार मार की बैठा हुआ है - यह समाज के द्वारा एकत्रित ऋण है - वैसे ही समाज के वोह सब क्षत्रिय कहाँ गये जो कभी देश की लिये रक्त बहाया करते थे - यह नागवंशी - नाथवंशी - राजभर - शिवभर और दूसरे क्षत्रिय समाप्त कर दिए गए मनुस्मृति से - अगर अशोका, बुद्धा का प्रचार देश से बाहर नहीं करता तो आज सारे के सारे शाक्य ऐसे ही समाप्त कर दिए गए होते - जैन धर्म जो कि एक क्षत्रिय धर्म है, देश से बाहर नहीं निकल पाया - आज लगभग समाप्त की स्थिति में है - उनके सारे के सारे वैदिक क्षत्रिय तीर्थंकरो का कुल - समाजः का अस्तित्व ही समाप्त है
पहले शूद्र वर्ण तो हुआ ही नहीं करता था - वह तो बाद में लाया गया - आज नाथवंशी/नागवंशी/राजभर/शिवभर दूसरे क्षत्रिय और दूसरे लोग कहां गये -
अगर हुए थे तो जैन तीर्थकर Parshwanath, the 23rd Tirthankar was from Nagvanshi Kshatriya clan while Mahavir the last Tirthankar was from Nathwanshi Kshatriya clan - कहां है इनकी clans ???
अब मनुवादी ब्राम्हण शाक्यो को शूद्र (BC) बना नही सकते थे क्यों कि गौतम बुद्धा का प्रचार अशोका ने पूरी दुनिया में कर दिया था - यह झूट हो जाता अगर शाक्य / गौतम शूद्र (BC) घोषित कर दिए जाते - उनको गौतम बुद्धा ने अमर कर दिया था - मौर्यो का इतिहास लगभग पुश्यमित्र सुंग ने समाप्त कर ही दिया था - पर उनको चन्द्रगुप्त और अशोका ने अमर कर दिया था - देर सबेर सत्य सामने आ ही जाता है - तब इतना communication नहीं था - सामग्री उपलब्ध नहीं थी - आज है - १०वी शताब्दी में लिखे ग्रन्थ में शाक्यवंशी चन्द्रगुप्त मौर्या को शूद्र बता के समाप्त करने का खेल खेला - अशोका का तो पूरा इतिहास समाप्त कर दिया मनुवादियो ने
यह सब सत्य तथ्य मिटा के मिथ्या विष्णु परशुराम बना के - शाक्यवंशी मौर्यो को समाप्त करने का खेल - क्यों कहानी लिखी गयी कि - परशुराम ने अपना फरशा केरला के तट से समुद्र में फैक दिया था - और वहाँ उनके मंदिर बना दिए गये - और सशरीर अमर है - कितने आश्चर्य की बात है - भूमिहार ब्राम्हण न hariyanka (बिम्बिसार - अजातशत्रु) dynasty में नहीं थे - न नन्द साम्राज्य में और न मौर्या साम्राज्य में - पर पुश्यमित्र शुंग के बाद से भूमिहारो का अस्तित्व आया और रामायण re-write हुआ बौद्ध जातक कथाओ से निकाल के - और परशुराम पात्र अस्तित्व में आया जबकि ऐसा कोई कभी पैदा ही नहीं हुआ - ताकि मौर्या कभी अपना अस्तित्व न जान सके
कभी इन् सब पर भी बोल दिया करो जो वास्तविक सत्य है और जिसको छुपाने की लिये दसियो हज़ार असत्य लिखे गये और उस असत्य पर खड़ी सभ्यता को तरह तरह से पैबंद लगा लगा के चलाया जा रहा है
कभी मनुवाद पर भी बोल दो - जो सबसे बड़ी जड़ है देश समाज व्यवस्था के लिये - समाज जब स्वयं सशक्त हो जाएगा इन् सब पाखण्डितों का उपाय ढूंढ ही लेगा - यह बार बार पैबंद ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी