पत्रकार / पत्रकारिता के नाम पर कोई कितनी फ्रॉडगिरी कर सकता है। या फिर मौजूदा दौर में पत्रकारिता एक ऐसे मुकाम पर जा पहुंची है, जहां पत्रकारिता के नाम पर धंधा किया भी जा सकता है और पत्रकारों के लिये ऐसा माहौल बना दिया गया है कि वह धंधे में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर धंधे को ही मुख्यधारा की पत्रकारिता मानने लगे। या फिर धंधे के माहौल से जुड़े बगैर पत्रकार के लिये एक मुश्किल लगातार उसके काम उसके जुनुन के सामानांतर चलती रहती है, जो उसे डराती है या फिर वैकल्पिक सोच के खत्म होने का अंदेशा देकर पत्रकार को धंधे के माहौल में घसीट कर ले जाती है।
दरअसल, यह सारे सवाल मौजूदा दौर में कुकुरमुत्ते की तरह पनपते सोशल मीडिया के विभिन्न आयामों को देखकर लगातार जहन में उतरते रहे हैं लेकिन हाल में ही या कहें 20 जुलाई को देश के 50 हिन्दी के संपादकों/ पत्रकारों को लेकर एक्सचेंज फॉर मीडिया की पहल ने इस तथ्य को पुख्ता कर दिया कि पत्रकार मौजूदा वक्त में बेचने की चीज भी है और पत्रकारिता के नाम का घोल कहीं भी घोलकर धंधेबाजों को मान्यता दिलायी जा सकती है। और समाज के मान्यता प्राप्त या कहें अपने अपने क्षेत्र के पहचान पाये लोगों को ही धंधे का औजार बनाकर धंधे को ही पत्रकारीय मिशन में बदला जा सकता है।
दर्द या पीडा इसलिये क्योंकि राम बहादुर राय (वरिष्ठ पत्रकार), श्री राजेंद्र यादव ( वरिष्ठ साहित्यकार), श्री पुष्पेश पंत (शिक्षाविद्) श्री सुभाष कश्यप (संविधानविद) श्री असगर वजागत (वरिष्ठ रंगकर्मी), श्री वेद प्रताप वैदिक( वरिष्ठ पत्रकार) श्री निदा फाजली (प्रसिद्ध गीतकार व शायर) प्रो. बी. के. कुठियाला ( कुलपति माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय) श्री राजीव मिश्रा ( सीईओ, लोकसभा टीवी) श्री रवि खन्ना ( पूर्व दक्षिण एशिया प्रमुख, वाइस ऑफ अमेरिका), सरीखे व्यक्तित्वों की समझ को मान्यता देकर डेढ़ सौ पत्रकारों में से पचास पत्रकारों का चयन करता है। बकायदा हर संपादक की तस्वीर और नाम देकर प्रचारिक प्रसारित करता है। लेकिन जब चुनिंदा 50 पत्रकारों के नामों के ऐलान का वक्त आता है तो टॉप के दो पत्रकार दो अखबार के मालिक हो जाते हैं। और इन अखबार मालिका का नाम या तस्वीर ना तो उन डेढ सौ की फेरहिस्त में कहीं दिखायी देता है और तो और जिन सम्मानीय लोगों को ज्यूरी का सदस्य बनाकर पत्रकारों को छांटा भी जाता है, उन्हें भी यह नहीं बताया जाता कि अखबार के मालिक पत्रकार हो चुके हैं या फिर दो अखबार के मालिक श्रेष्ठ पत्रकारों की सूची में जगह पा चुके हैं। असल में उन अखबार के मालिकों को नहीं बताया जाता है कि आप पत्रकारो की लिस्ट में सबसे उम्दा पत्रकार, सबसे साख वाले पत्रकार, हिन्दी की सेवा करने वाले सबसे श्रेष्ठ संपादक बनाये जा रहे हैं। जाहिर है यह महज चापलूसी तो हो नहीं सकती। क्योंकि धंधा चापलूसी से नहीं चलता। उसके लिये एक खास तरह के फरेब की जरुरत होती है जो फरेब बड़े कैनवास में मौजूदा पत्रकारिता के बाजारु स्तर को बढता हुआ दिखा दें। फिर पत्रकारिता की साख बनाये रखने के लिये पत्रकारों के बीच मौजूदा वक्त के सबसे साख वाले समाजसेवी अन्ना हजारे को बुला कर विकल्प की सोच और अलग लकीर खिंचने का जायका भी पैदा करने की कोशिश की जाती है।
लेकिन दिमाग में धंधा बस चुका है तो परिणाम क्या निकलेगा। यकीनन कॉकटेल ही समायेगा। तो जो अन्ना हजारे अपने गांव रालेगण सिद्दी से लेकर मुंबई की सड़कों पर दारु बंदी को लेकर ना सिर्फ संघर्ष करते रहे और उम्र गुजार दी बल्कि जिनके समाज सेवा की पहली लकीर ही दारुबंदी से शुरु होती है, उनसे ईमानदार पत्रकारिता का तमगा लेकर उसी माहौल में दारु भी जमकर उढेली जाती है। और तो और महारथी पत्रकारों को कॉकटेल में नहलाने की इतनी जल्दबाजी कि अन्ना के माहौल से निकलने से पहले ही जाम खनकने लगते हैं। हवा में नशे की खुमारी दौड़ने लगती है। अब यहां अन्ना सरीखे व्यक्ति खामोशी ही बरत सकते हैं क्योकि चंद मिनट पहले ही पत्रकारों से देश के लिये संघर्ष की मुनादी कर पत्रकारो को समाज का सबसे जिम्मेदार जो ठहराया। जाहिर है महारथी पत्रकारों की आंखों में उस वक्त शर्म भी रही लेकिन मेजबान की नीयत अगर डगमगाने लगी तो कोई क्या करे। और मेजबान को अगर समूचा कार्यक्रम ही धंधा लगने लगा है तो फिर वहा कैसे कोई पत्रकारिता, नीयत, ईमानदार समझ,मिशन,पत्रकारीय संघर्ष का सवाल उठा सकता है। यह सब तो बाजार तय करते हैं और बाजार से डरे सहमे पत्रकार ही नहीं ज्यूरी सदस्य भी इस कार्यक्रम पर अंगुली नहीं उठा पाते हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है। हर कोई खामोश। और पत्रकारिता के नाम पर एक सफल कार्यक्रम का तमगा एक्सचेंज फार मीडिया के कर्ताधर्ता अपने नाम कर लेते हैं। फिर त्रासदी यह कि जिन पचास महारथी पत्रकारों के नाम चुने भी गये उसे दिल्ली के पांच सितारा होटल के समारोह के बाहर अभी तक रखने की हिम्मत एक्सचेंज फार मीडिया भी दिखा नहीं पाया है। समझना है तो एक्सचेंज4मीडिया के साइट पर जाइये और त्रासदी देख लीजिये। लेकिन हमारी आपकी मुश्किल यह है कि इस साइट पर जितने ज्यादा हिट या क्लिक होंगे, उसे भी वह अपनी लोकप्रियता से जोड़ लेंगे।
Thursday, July 25, 2013
Monday, July 15, 2013
मोदी ! तुम्हारी पालिटिक्स क्या है पार्टनर
अगर नरेन्द्र मोदी ने कुत्ते के बच्चे की जगह चींटी या हाथी का जिक्र किया होता या फिर जरा सोच कर देखिये की मोदी ने कोई भी उदाहरण गुजरात के 2002 के दंगों या नरसंहार को लेकर दिया होता तो क्या देश में बवाल नहीं मचता। यकीनन मोदी कुछ भी कहते तो हंगामा मचना ही था। क्योंकि मोदी एक बात तो तहे दिल में तय कर चुके है कि गुजरात में 11 बरस पहले जो कुछ हुआ या किया गया उसके लिये वह माफी नहीं मागेंगे। अब जरा इसके उलट सोचिये। बाबरी मस्जिद को लेकर अफसोस और माफी जता चुके लालकृष्णा आडवाणी अगर कोई उदाहरण अयोध्या कांड पर देते तो उस पर बवाल हो सकता है। यकीनन नहीं। इसी तरह अगर वाघेला के दौर में गुजरात कांड होता और वाघेला ही नहीं कोई भी सीएम जो उस वक्त होत अगर वह माफी मांग चुका होता तो पहली बात की उससे 11 बरस बाद सवाल नहीं पूछे जाते। अगर पूछे भी जाते तो कोई दिलचस्पी उसे जानने की देश में नहीं होती। अब सवाल है कि जिस मोदी से बार बार 2002 के गुजरात कांड पर सवाल होता है उसे पूछना वाला कोई भी पत्रकार हो अगर नरेन्द्र मोदी जवाब देते हैं। तो वह खबर बनेगी ही। क्योंकि दोनों जानते हैं कि सवाल और जवाब दोनों पर हंगामा होगा ही। अब कोई भी यह समझ सकता है कि नरेन्द्र मोदी 2002 को लेकर कब क्या कहते है और उसकी प्रतिक्रिया समाज-देश में कैसी हो सकती है इससे वह पूरी तरह वाकिफ भी होते हैं। तो रायटर को दिये इंटरव्यूह को पढने या देखने-सुनने से पहले जरा यह समझ लें कि आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी उससे मोदी पहले से वाकिफ है।
बावजूद इसके मोदी अगर गुजरात दंगों को लेकर माफी तो दूर उदाहरणों से अपने दुख को राषट्रवाद से जोड़ते है तो कई सवाल एक साथ खड़े हो सकते हैं। मसलन नरेन्द्र मोदी जिस भरोसे, जिस दम , जिस मासूमियत से खुद को सही ठहराते हैं या मनमोहन सरकार या सोनिया गांधी पर निशाना साधते है, उसके संकेत यही हैं कि मोदी खुद को आर-पार की लड़ाई के लिये तैयार कर रहे हैं। लेकिन यह आर-पार है क्या। और मोदी के लिये लगातार किसी भी विपक्षी नेता से कही ज्यादा तीखी चोट करना क्यों जरुरी हो गया है। नरेन्द्र मोदी के वक्तव्यों को अगर डी-कोड करें तो सबसे बडा सच सामने यही आयेगा कि मौजूदा दौर में जो राजनीति हर राजनीतिक दल या राजनेता कर रहे है उस रास्ते मोदी नहीं चल रहे। क्योंकि बीजेपी के नजरीये से अगर राजनीति होती तो भ्रष्ट्राचार, महंगाई, कालाधन, एफडीआई सरीखे मुद्दे उसी तर्ज पर उठते जिससे लगातर यह मैसेज जाता
कि मनमोहन सरकार नाकाबिल है। कांग्रेस सत्ता के मद में बेफिक्र है। और बीते दिनो संसद से सड़क तक जो माहैल बीजेपी ने कांग्रेस या सरकार के मुद्दों को लेकर ही जिस तरह संघर्ष किया व राजनीति बीजेपी को लगातार मजबूत विपक्ष बना रही थी और बता रही थी। जाहिर है दिल्ली के बीजेपी के धुरंधर इस दौर में सबसे खुश थे कि राजनीतिक चुनावी वक्त में बीजेपी की अगुवाई में एनडीए विकल्प बन सकती है। लेकिन झटके में नरेन्द्र मोदी ने बीजेपी के उस राजनीतिक विकल्प के मिथ को तोड़ दिया।
तो क्या नरेन्द्र मोदी राजनीति नहीं कुछ और कर रहे हैं। क्योंकि मोदी इस हकीकत को समझ चुके हैं कि मौजूदा राजनीतिक तौर-तरीको में वह फिट नहीं हैं या फिर उन्हें फिट होने नहीं दिया जायेगा। या फिर मोदी यह मान कर चल रहे हैं कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था और राजनेताओं के तौर तरीकों से देश के आम लोगों में आक्रोश है। और राजनीति के इसी रास्ते पर चलने का मतलब है आम लोगों के दिमाग में दूसरे राजनेताओं की तरह ही छवि बना देना। अगर ध्यान दें तो नरेन्द्र मोदी फिलहाल अपनी तरह के अकेले हैं, जो गुस्से में मनमोहन सरकार को निशाने पर लेता है। जो धर्मनिरपेक्षता की नयी परिभाषा हिन्दु राष्ट्रवाद के आसरे
गढ़ना चाहता है। जो संविधान के उन तत्वो को भी खारिज करने से नहीं कतराता जिसे संविधान व्याख्यायित तो करता है लेकिन राजनीतिक सत्ता संविधान के उन अनुच्छेदो को भी अपनी सियासत का हथियार बनाने से नहीं चुकती जिसे लागू आजादी के पहले पन्द्रह बरस में ही कर देना चाहिये था। संविधान तो भाषा से लेकर हाशिये पर पडी जातियों को भी मुख्यधारा में लाने के लिये राजनीतिक सत्ता को भी एक वक्त निर्धारित करता है लेकिन राजनीतिक सत्ता उसे वोट बैंक में बदल कर सियासत की नयी इबारत लिखने से नहीं चुकती। यह सवाल मंडल से लेकर कमंडल और जातीय आरक्षण के बाद धर्म के नाम पर आरक्षण के जरीये समाज को बांटने से भी उभरा। साथ ही संविधान से मिले हक को सियासत की मलाई तले छुपा कर अपने अपने चुनावी घोषणापत्र में डालकर आम लोगों के हक की बात राजनेताओं ने ही कुछ इस कदर की बार बार हर किसी को लगा की वह ठगा जा रहा है। लेकिन ठगने की परिस्थितियां भी जिन्दगी जीने की स्थितियों से इस तरह जुड़ी कि हर आम नागरिक को यही लगने लगा कि सत्ता अगर उसके वोट से बनती हुई दिखे तो उसका भला चाहे ना हो लेकिन कम से कम बुरा तो नहीं होगा।
बिहार में यादवों के साथ मुस्लिम आ गये तो दंगे रुक गये। यूपी में मुलायम की सत्ता में मुस्लिम समाज मौलाना मुलायम को खोजने लगा और अपने हक के लिये यादवों से भिडने को तैयार हो गया। तो यादव अपने जन्मसिद्द अधिकार पर आक्षेप मानने लगे। क्योकि समाजवादी की सत्ता का मतलब तो यादवों का कोतवाल हो जाना तय है। इसलिये चालीस जिलों में यादव-मुस्लिम का टकराव दंगों की शक्ल में उभरा। ऐसे मौके पर अगर सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसलों को परखे जो राजनीति के अपराधीकरण और जाति सूचक राजनीति को रोकता है तो झटके में फिर आम नागरिक मान लेगा कि लोकतंत्र है और जो काम संसद को करना था उसे कम से कम सुप्रीम कोर्ट तो कर रही है । यानी राजनीतिक व्यवस्था और राजनीतक सत्ता को लेकर जो आक्रोश आम लोगों में है उसे लोकतंत्र का चौपाया थाम सकता है । यानी सुधार की सोच । लेकिन मौजूदा विसगंति बरकरार। ठीक उसी तरह जैसे कभी टी एन शेषन के आस जगायी।
दरअसल नरेन्द्र मोदी इसी राजनीतिक व्यवस्था के उलट चल निकलना चाहते हैं। वह राजनीतिक सोच में बदलाव नहीं बल्कि राजनीतिक सोच को ही बदलना चाहते हैं । इसलिये सत्ता पाने के 2014 के मिशन को उन्होंने औजार बनाया है। क्योंकि इससे राजनीतिक व्यवस्था पर सीधी चोट भी की जा सकती है और राजनीतिक व्यवस्था के दायरे में खडे होकर मौजूदा राजनीति को ही खारिज भी किया जा सकता है। इसलिये मोदी राजनीति के वर्तमान तौर-तरीको की जड़ पर चोट भी कर रहे हैं और जिस राजनीतिक व्यवस्था ने अपनी सत्ता साधना के लिये नायाब सामाजिक ढांचा बनाया है उसे उलटना भी चाह रहे है । ध्यान दें तो नरेन्दर
मोदी तीन मुद्दों पर कांग्रेस या मनमोहन सरकार को घेर रहे हैं। पहला धर्मनिरपेक्षता दूसरा अर्थव्यवयवस्था और तीसरा राष्ट्रीयता। कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता को नरेन्द्र मोदी हिन्दु राष्ट्रवाद से खारिज करना चाहते हैं । मनमोहन की अर्थव्यवस्था को वह कारपोरेट के नजरिये से ही खारिज करना चाहते हैं। तो राष्ट्रवाद का सवाल कांग्रेस की सत्ता के दौर में लगातार हुये भारत के अवमूल्यन से जोड़ रहे हैं। आजादी के बाद से नेहरु की सत्ता
और उसके बाद काग्रेसी सत्ता ने कैसे भारत की जमीन , भारत के उघोग-धंधो को चौपट किया और जो चीन 1950 में भारत से हर क्षेत्र में पीछे था, वह 1975 में ही कई गुना आगे निकल गया। चाहे खेती की बात हो या उघोगों की । असल में मोदी मौजूदा राजनीतिक जोड-तोड की सियासी राजनीति में फंसना ही नहीं चाहते हैं। उन्हें लग चुका है कि इस दायरे में फंसने का मतलब है बाकियों की कतार में से एक होकर रह जाना । इसलिये मोदी जो बिसात बिछा रहे है उससे संघ परिवार भी खुश है। क्योंकि संघ के सवाल भी मोदी ही राजनीतिक व्यवस्था के दायरे में राजनीतिक तौर पर उठाते हुये संघ को भी सक्रिय कर रहे हैं। कांग्रेस के साफ्ट हिन्दुत्व ने कैसे संघ को आजादी के बाद काउंटर किया और एक वक्त बाद कैसे जेपी सरीखे काग्रेसी भी समझ गये कांग्रेस देश का भट्टा बैठा रही है तो वह 1975 में जेपी यह कहने से नहीं कतराये कि अगर आरएसएस सांप्रदायिक है तो मै भी सांप्रदायिक हूं। असल में मोदी काग्रेस को खारिज करने के लिये नेहरु के दौर से टकराने को तैयार हो रहे है। श्यामाप्रसाद मुखर्जी हिन्दु महासभा से जुडे थे ना कि आरएसएस से। नाथूराम गोडसे भी हिन्दु महासभा से जुडा था ना कि संघ से। लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के बाद प्रतिबंध हिन्दु महासभा पर नहीं आरएसएस पर लगा। जबकि हिन्दु महासभा सावरकर की थ्योरी को लेकर कट्टर हिन्दुत्व राष्ट्रवाद को परोस रही थी । और आरएसएस को बनाने वाले हेडगेवार एक वक्त कांग्रेस के हिस्से थे लेकिन सत्ता के लिये जिस तरह कांग्रेस मुस्लिम लीग के साथ खड़ी हो जाती थी उससे आहत होकर हेडगेवार ने आरएसएस बनायी। जो कांग्रेस को बर्दाश्त नहीं थी । जबकि काग्रेस एक वक्त मुस्लिम लीग के साथ तो एक वक्त मुस्लिम लीग के खिलाफ कट्टरता के साथ खडी हिन्दु महासभा के साथ सत्ता के लिये खड़ी हो गई। यानी काग्रेस का राष्ट्रवाद सत्ता पाने से आगे निकला नहीं।
जाहिर है नरेन्द्र मोदी इसी मर्म को छुना चाहते हैं। इसलिये नहीं कि संघ में उनका प्रभाव बढे। बल्कि मोदी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को उलटना चाहते हैं और पहली बार सत्ता की दौड में भागते राजनेताओं को इसका एहसास कराना चाहते है कि सत्ता जोड-तोड या बंटे हुये वोटरों के मन के बीच आंकड़ों को जुटाना ठीक नहीं है। जाहिर है नरेन्द्र मोदी की यह थ्योरी बीजेपी के कद्दावर नेताओ को भी रास नहीं आयेगी। उन्हें लगेगा कि सत्ता पाने का गोल्डन चांस मोदी के आने से बीजेपी गंवा रही है। शायद यह ठीक भी है । और यह समझ गलत भी हो सकती है। क्योंकि नरेन्द्र मोदी जिस रास्ते चल निकले है वह राजनीति नहीं कुछ और है। और इस कुछ और में अगर राजनाथ सिंह या आडवाणी सरीखे नेता यह समझ रहे है कि आखिर में मोदी के नाम पर पीएम बनने की मोहर तो कोई लगायेगा नहीं तो वह जरा मोदी के हर भाषण के बाद बनते माहौल को परखें। असल में मोदी अपने अलावे 2014 में किसी भी बीजेपी नेता को पीएम की कुर्सी तक पहुंचने नहीं देंगे। क्योंकि मोदी मौजबदा राजनीतिक तौर तरीकों के खिलाफ सिर्फ निकले ही नहीं है बल्कि वह सत्ता से इतर अपने साथ आम वोटरों के मन को जोड़ना चाह रहे हैं। और मन को जोड़ने के तरीके राजनीति नहीं कुछ और कहलाते हैं। इस कुछ और में बीजेपी के तिकड़मी दिल्ली में बैठे नेता हो या सरकार में गणित बैठाते मंत्री की मोदी अगर इशरत जहां इनकाउंटर मामले में गिरफ्तार कर लिये जाये तो सब ठीक हो जायेगा। उनके लिये नरेन्द्र मोदी एक मुशिकल सबब तो अभी स बन चुके ह । इसलिय अब मोदी से यह पूछने का वक्त आ गया है कि तुम्हारी पालिटिक्स क्या है पार्टनर।
बावजूद इसके मोदी अगर गुजरात दंगों को लेकर माफी तो दूर उदाहरणों से अपने दुख को राषट्रवाद से जोड़ते है तो कई सवाल एक साथ खड़े हो सकते हैं। मसलन नरेन्द्र मोदी जिस भरोसे, जिस दम , जिस मासूमियत से खुद को सही ठहराते हैं या मनमोहन सरकार या सोनिया गांधी पर निशाना साधते है, उसके संकेत यही हैं कि मोदी खुद को आर-पार की लड़ाई के लिये तैयार कर रहे हैं। लेकिन यह आर-पार है क्या। और मोदी के लिये लगातार किसी भी विपक्षी नेता से कही ज्यादा तीखी चोट करना क्यों जरुरी हो गया है। नरेन्द्र मोदी के वक्तव्यों को अगर डी-कोड करें तो सबसे बडा सच सामने यही आयेगा कि मौजूदा दौर में जो राजनीति हर राजनीतिक दल या राजनेता कर रहे है उस रास्ते मोदी नहीं चल रहे। क्योंकि बीजेपी के नजरीये से अगर राजनीति होती तो भ्रष्ट्राचार, महंगाई, कालाधन, एफडीआई सरीखे मुद्दे उसी तर्ज पर उठते जिससे लगातर यह मैसेज जाता
कि मनमोहन सरकार नाकाबिल है। कांग्रेस सत्ता के मद में बेफिक्र है। और बीते दिनो संसद से सड़क तक जो माहैल बीजेपी ने कांग्रेस या सरकार के मुद्दों को लेकर ही जिस तरह संघर्ष किया व राजनीति बीजेपी को लगातार मजबूत विपक्ष बना रही थी और बता रही थी। जाहिर है दिल्ली के बीजेपी के धुरंधर इस दौर में सबसे खुश थे कि राजनीतिक चुनावी वक्त में बीजेपी की अगुवाई में एनडीए विकल्प बन सकती है। लेकिन झटके में नरेन्द्र मोदी ने बीजेपी के उस राजनीतिक विकल्प के मिथ को तोड़ दिया।
तो क्या नरेन्द्र मोदी राजनीति नहीं कुछ और कर रहे हैं। क्योंकि मोदी इस हकीकत को समझ चुके हैं कि मौजूदा राजनीतिक तौर-तरीको में वह फिट नहीं हैं या फिर उन्हें फिट होने नहीं दिया जायेगा। या फिर मोदी यह मान कर चल रहे हैं कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था और राजनेताओं के तौर तरीकों से देश के आम लोगों में आक्रोश है। और राजनीति के इसी रास्ते पर चलने का मतलब है आम लोगों के दिमाग में दूसरे राजनेताओं की तरह ही छवि बना देना। अगर ध्यान दें तो नरेन्द्र मोदी फिलहाल अपनी तरह के अकेले हैं, जो गुस्से में मनमोहन सरकार को निशाने पर लेता है। जो धर्मनिरपेक्षता की नयी परिभाषा हिन्दु राष्ट्रवाद के आसरे
गढ़ना चाहता है। जो संविधान के उन तत्वो को भी खारिज करने से नहीं कतराता जिसे संविधान व्याख्यायित तो करता है लेकिन राजनीतिक सत्ता संविधान के उन अनुच्छेदो को भी अपनी सियासत का हथियार बनाने से नहीं चुकती जिसे लागू आजादी के पहले पन्द्रह बरस में ही कर देना चाहिये था। संविधान तो भाषा से लेकर हाशिये पर पडी जातियों को भी मुख्यधारा में लाने के लिये राजनीतिक सत्ता को भी एक वक्त निर्धारित करता है लेकिन राजनीतिक सत्ता उसे वोट बैंक में बदल कर सियासत की नयी इबारत लिखने से नहीं चुकती। यह सवाल मंडल से लेकर कमंडल और जातीय आरक्षण के बाद धर्म के नाम पर आरक्षण के जरीये समाज को बांटने से भी उभरा। साथ ही संविधान से मिले हक को सियासत की मलाई तले छुपा कर अपने अपने चुनावी घोषणापत्र में डालकर आम लोगों के हक की बात राजनेताओं ने ही कुछ इस कदर की बार बार हर किसी को लगा की वह ठगा जा रहा है। लेकिन ठगने की परिस्थितियां भी जिन्दगी जीने की स्थितियों से इस तरह जुड़ी कि हर आम नागरिक को यही लगने लगा कि सत्ता अगर उसके वोट से बनती हुई दिखे तो उसका भला चाहे ना हो लेकिन कम से कम बुरा तो नहीं होगा।
बिहार में यादवों के साथ मुस्लिम आ गये तो दंगे रुक गये। यूपी में मुलायम की सत्ता में मुस्लिम समाज मौलाना मुलायम को खोजने लगा और अपने हक के लिये यादवों से भिडने को तैयार हो गया। तो यादव अपने जन्मसिद्द अधिकार पर आक्षेप मानने लगे। क्योकि समाजवादी की सत्ता का मतलब तो यादवों का कोतवाल हो जाना तय है। इसलिये चालीस जिलों में यादव-मुस्लिम का टकराव दंगों की शक्ल में उभरा। ऐसे मौके पर अगर सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसलों को परखे जो राजनीति के अपराधीकरण और जाति सूचक राजनीति को रोकता है तो झटके में फिर आम नागरिक मान लेगा कि लोकतंत्र है और जो काम संसद को करना था उसे कम से कम सुप्रीम कोर्ट तो कर रही है । यानी राजनीतिक व्यवस्था और राजनीतक सत्ता को लेकर जो आक्रोश आम लोगों में है उसे लोकतंत्र का चौपाया थाम सकता है । यानी सुधार की सोच । लेकिन मौजूदा विसगंति बरकरार। ठीक उसी तरह जैसे कभी टी एन शेषन के आस जगायी।
दरअसल नरेन्द्र मोदी इसी राजनीतिक व्यवस्था के उलट चल निकलना चाहते हैं। वह राजनीतिक सोच में बदलाव नहीं बल्कि राजनीतिक सोच को ही बदलना चाहते हैं । इसलिये सत्ता पाने के 2014 के मिशन को उन्होंने औजार बनाया है। क्योंकि इससे राजनीतिक व्यवस्था पर सीधी चोट भी की जा सकती है और राजनीतिक व्यवस्था के दायरे में खडे होकर मौजूदा राजनीति को ही खारिज भी किया जा सकता है। इसलिये मोदी राजनीति के वर्तमान तौर-तरीको की जड़ पर चोट भी कर रहे हैं और जिस राजनीतिक व्यवस्था ने अपनी सत्ता साधना के लिये नायाब सामाजिक ढांचा बनाया है उसे उलटना भी चाह रहे है । ध्यान दें तो नरेन्दर
मोदी तीन मुद्दों पर कांग्रेस या मनमोहन सरकार को घेर रहे हैं। पहला धर्मनिरपेक्षता दूसरा अर्थव्यवयवस्था और तीसरा राष्ट्रीयता। कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता को नरेन्द्र मोदी हिन्दु राष्ट्रवाद से खारिज करना चाहते हैं । मनमोहन की अर्थव्यवस्था को वह कारपोरेट के नजरिये से ही खारिज करना चाहते हैं। तो राष्ट्रवाद का सवाल कांग्रेस की सत्ता के दौर में लगातार हुये भारत के अवमूल्यन से जोड़ रहे हैं। आजादी के बाद से नेहरु की सत्ता
और उसके बाद काग्रेसी सत्ता ने कैसे भारत की जमीन , भारत के उघोग-धंधो को चौपट किया और जो चीन 1950 में भारत से हर क्षेत्र में पीछे था, वह 1975 में ही कई गुना आगे निकल गया। चाहे खेती की बात हो या उघोगों की । असल में मोदी मौजूदा राजनीतिक जोड-तोड की सियासी राजनीति में फंसना ही नहीं चाहते हैं। उन्हें लग चुका है कि इस दायरे में फंसने का मतलब है बाकियों की कतार में से एक होकर रह जाना । इसलिये मोदी जो बिसात बिछा रहे है उससे संघ परिवार भी खुश है। क्योंकि संघ के सवाल भी मोदी ही राजनीतिक व्यवस्था के दायरे में राजनीतिक तौर पर उठाते हुये संघ को भी सक्रिय कर रहे हैं। कांग्रेस के साफ्ट हिन्दुत्व ने कैसे संघ को आजादी के बाद काउंटर किया और एक वक्त बाद कैसे जेपी सरीखे काग्रेसी भी समझ गये कांग्रेस देश का भट्टा बैठा रही है तो वह 1975 में जेपी यह कहने से नहीं कतराये कि अगर आरएसएस सांप्रदायिक है तो मै भी सांप्रदायिक हूं। असल में मोदी काग्रेस को खारिज करने के लिये नेहरु के दौर से टकराने को तैयार हो रहे है। श्यामाप्रसाद मुखर्जी हिन्दु महासभा से जुडे थे ना कि आरएसएस से। नाथूराम गोडसे भी हिन्दु महासभा से जुडा था ना कि संघ से। लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के बाद प्रतिबंध हिन्दु महासभा पर नहीं आरएसएस पर लगा। जबकि हिन्दु महासभा सावरकर की थ्योरी को लेकर कट्टर हिन्दुत्व राष्ट्रवाद को परोस रही थी । और आरएसएस को बनाने वाले हेडगेवार एक वक्त कांग्रेस के हिस्से थे लेकिन सत्ता के लिये जिस तरह कांग्रेस मुस्लिम लीग के साथ खड़ी हो जाती थी उससे आहत होकर हेडगेवार ने आरएसएस बनायी। जो कांग्रेस को बर्दाश्त नहीं थी । जबकि काग्रेस एक वक्त मुस्लिम लीग के साथ तो एक वक्त मुस्लिम लीग के खिलाफ कट्टरता के साथ खडी हिन्दु महासभा के साथ सत्ता के लिये खड़ी हो गई। यानी काग्रेस का राष्ट्रवाद सत्ता पाने से आगे निकला नहीं।
जाहिर है नरेन्द्र मोदी इसी मर्म को छुना चाहते हैं। इसलिये नहीं कि संघ में उनका प्रभाव बढे। बल्कि मोदी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को उलटना चाहते हैं और पहली बार सत्ता की दौड में भागते राजनेताओं को इसका एहसास कराना चाहते है कि सत्ता जोड-तोड या बंटे हुये वोटरों के मन के बीच आंकड़ों को जुटाना ठीक नहीं है। जाहिर है नरेन्द्र मोदी की यह थ्योरी बीजेपी के कद्दावर नेताओ को भी रास नहीं आयेगी। उन्हें लगेगा कि सत्ता पाने का गोल्डन चांस मोदी के आने से बीजेपी गंवा रही है। शायद यह ठीक भी है । और यह समझ गलत भी हो सकती है। क्योंकि नरेन्द्र मोदी जिस रास्ते चल निकले है वह राजनीति नहीं कुछ और है। और इस कुछ और में अगर राजनाथ सिंह या आडवाणी सरीखे नेता यह समझ रहे है कि आखिर में मोदी के नाम पर पीएम बनने की मोहर तो कोई लगायेगा नहीं तो वह जरा मोदी के हर भाषण के बाद बनते माहौल को परखें। असल में मोदी अपने अलावे 2014 में किसी भी बीजेपी नेता को पीएम की कुर्सी तक पहुंचने नहीं देंगे। क्योंकि मोदी मौजबदा राजनीतिक तौर तरीकों के खिलाफ सिर्फ निकले ही नहीं है बल्कि वह सत्ता से इतर अपने साथ आम वोटरों के मन को जोड़ना चाह रहे हैं। और मन को जोड़ने के तरीके राजनीति नहीं कुछ और कहलाते हैं। इस कुछ और में बीजेपी के तिकड़मी दिल्ली में बैठे नेता हो या सरकार में गणित बैठाते मंत्री की मोदी अगर इशरत जहां इनकाउंटर मामले में गिरफ्तार कर लिये जाये तो सब ठीक हो जायेगा। उनके लिये नरेन्द्र मोदी एक मुशिकल सबब तो अभी स बन चुके ह । इसलिय अब मोदी से यह पूछने का वक्त आ गया है कि तुम्हारी पालिटिक्स क्या है पार्टनर।
Wednesday, July 10, 2013
सुप्रीम कोर्ट का हंटर बनाम दागी नेताओं की मोटी खाल
पीवी नरसिंह राव और शिबू सोरेन। एक देश का प्रधानमंत्री तो दूसरा प्रधानमंत्री की कुर्सी बनाये रखने के लिये करोड़ रुपये की घूस लेने वाला। और अदालत ने दोनों को ही दोषी करार दिया। लेकिन इतिहास में नरसिंह राव अल्पमत में होते हुये भी पांच बरस तक सत्ता चलाने वाले पीएम माने गये और शिबू सोरेन उसके बाद से कभी चुनाव हारे नहीं ।
तो क्या सुप्रीम कोर्ट जिस राजनीतिक व्यवस्था को पाक साफ करने के लिये दागी राजनेताओं को रोकना चाहता, उसी राजनीतिक व्यवस्था में ऐसा खोट आ चुका है कि दोषी होने के पहले रास्ते से बचने को ही राजनेता एड़ी चोटी का जोर लगाने लगेंगे। यह सवाल जयललिता से लेकर लालू यादव और फूलन देवी से लेकर राजा भैया तक के केस से समझा जा सकता है।
क्योंकि 13 बरस पहले जयललिता को 3 बरस की सजा निचली अदालत ने सुनायी। लेकिन जयललिता मामले को हाई कोर्ट में ले गयी और आज तक उन्हें जेल जाने की नौबत नहीं आयी है। बीते एक दशक से लालू यादव चारा घोटाला में आरोपी हैं लेकिन फैसला आजतक नहीं आ पाया है। फूलन देवी हत्या से लेकर अपहरण और फिरौती से लेकर जातीय नरसंहार तक में दोषी करार देने के बाद भी संसद पहुंची और ठसक से विशेषाधिकार का लाभ उठाती रहीं। राजा भैया कई आरोपों में दोषी होने के बाद और जेल जाने के बाद भी सत्ता की सारी सुविधाओं को ना सिर्फ भोगते रहे बल्कि दोबारा चुनाव जीतकर अपनी राजनीतिक साख को और मजबूत बना गये। और इस प्रकिया को मौजूदा लोकसभा के सांसदों ने कितना मजबूत किया है यह नेशनल इलेक्शन वाच की रिपोर्ट से समझा जा सकता है। जो बताती है कि लोकसभा में 150 सांसद दागी है। और दागियों को उम्मीदवार बनाने में सबसे आगे कांग्रेस और बीजेपी है ।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की दागी राजनेताओ पर नयी नकेल क्या राजनीतिक व्यवस्था को पाक साफ वाकई बना देगी या आपराधिक छवि के नेताओं में कोई डर पैदा करेगी। या फिर राजनेताओं की राजनीति का अहम हिस्सा अब नीचली अदालत से दो बरस सजा ना पाने का होगा या सत्ताधारियो की राजनीति का अहम हिस्सा विरोधियों को दो बरस की सजा दिलवाने का होगा। क्या हालात ऐसे भी आ सकते हैं। यह सवाल इसलिये क्योंकि ना पुलिस सुधार ना अदालती फैसलों में तेजी से निपटारा और ना चुनाव आयोग के फैसलों पर संसद का ठप्पा। बावजूद इसके राजनेता सुधर जायें या सत्ता की होड़ में अपराध रुक जाये क्या यह संभव है। सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले ने अब यह सवाल बड़ा कर दिया है कि अगर किसी दागी राजनेता के आगे पुलिस या जांच एजेंसी नतमस्तक है। अगर निचली अदालत के फैसले उपरी अदालत में और हाईकोर्ट के फैसले सुप्रीम कोर्ट में बदल जाते हो तो फिर दोषी के दोष को सही माना कब जाये। साथ ही संसद अगर चुनाव आयोग के उस फैसले को ही नकारात्मक मान लें, जहां वोटरों के सामने किसी भी उम्मीदवार को वोट ना देने का विकल्प हो।
तो फिर खोट है कहां क्योंकि शिबूसोरेन को दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट दोषी करार देते हुये तुरंत गिरफ्तारी का आदेश देती है और जयललिता को तमिलनाडु की निचली अदालत दोषी करार देते हुये उपरी अदालत में अपील करने के लिये तीन महीने का वक्त दे देती है। इसी तर्ज पर राजनेताओं के खिलाफ करीब 70 फीसदी तक पुलिसिया जांच नीचली अदालत से उपरी अदालत तक पहुंचते पहुंचते उलट हो जाती है । यह सारे सवाल अब नये सिरे से इसलिये महत्वपूर्म हो गये है क्योकि ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक चुने हुये प्रतिनिधियो की तादाद 36 लाख 60 हजार 868 है । और इस कतार में शामिल होने के लिये करोडो नेता गांव से लेकर दिल्ली के रायसीना हिल्स के चक्कर लगाते है । और सभी नेता बनने के लिये अपने अपने घेरे मे आम आदमी की औसत कमाई से सिर्फ 4000 से 5000 फिसदी रुपया ज्यादा खर्च करते है ।
सवाल यही है कि जब रुपये पर ही जीत हार जा टिकी है तो फिर कोई भी नेता कमाई करने के लिये ही चुनाव लडेगा । और कमाई का मतलब होगा आय से ज्यादा संपत्ति । संयोग देखिये जिसके कटघरे में जयललिता, मुलायम और मायावती तीनों ही खड़े हैं। और तीनों में से किसी को भी आने वाले वक्त में सजा हो गई तो जयलिलता की तो कुर्सी जायेगी मुलायम और मायावती 2014 के चुनावी रेस से ही बाहर हो जायेंगे। और फैसला ना आये इसके लिये नेता किसी भी हद तक जाने से चुकेंगे नहीं। ऐसे में न्यापालिका या संसदीय व्यवस्था पर अंगुली उठाने वाली जनता को सड़क पर आकर सुधार या बदलाव की बयार तो बहानी ही होगी। याद कीजिये साल भर पहले देश ने पहली बार राजनेताओं के खिलाफ आम लोगों का आक्रोश सड़क पर देखा भी और सड़क से संसद को चुनौती भी दी। और उस वक्त देश के मिजाज से इतर तमाम राजनीतिक दल ही पार्टी लाइन छोड़कर एक साथ खड़े हो गये, जिससे सांसदों पर आंच ना आये। उस वक्त आपराधिक छवि वाले सांसदों से लेकर आदालतों की लेट लतीफी और सत्ताधारियों के पक्ष में फैसलो को लेकर सवाल उठ रहे थे।
असल में सुप्रीम कोर्ट ने जिस राजनीतिक व्यवस्था को साफ सुधरा बनाने की सोची है उसे साफ सुधरा बनना तो संसद का ही काम है। लेकिन सांसद खुद कितने दागदार हैं, इसकी एक मिसाल नेशनल इलेक्शन वाच ने अपनी जांच के बाद रखी। मौजूदा लोकसभा में 162 सांसद दागी है। 76 सांसदों के खिलाफ कड़े आपराधिक मुकदमे पेंडिंग पड़े हैं।
मुश्किल सिर्फ सांसद विधायकों के आपराधिक छवि के होने भर का नहीं है। सवाल है कि जिस जनता की नुमाइन्दी राजनेता करते हैं, उससे इनका कोई सरोकार कितनी दूर तक नहीं है यह विशेषाधिकार पाये सांसदो के हालात को देखकर भी समझा जा सकता है। देश में एक फिसदी से भी कम करोड़पति है। लेकिन संसद में 58 फीसदी करोड़पति है। औसतन देश में आर्थिक विकास दर 6 फीसदी से ज्यादा होती नहीं है लेकिन सांसदो की कमाई सालाना 200 फीसदी की दर से बढ़ती है। मुश्किल यह है कि राजनेताओं को लेकर सड़क पर जनता का आक्रोश अब सिल्वर स्क्रीन के लिये भी मुनाफे वाली थीम हो चुकी है और सिनेमायी पर्दे पर फिल्म पान सिंह तोमर में सांसदों को डकैत कहा गया तो जनता ने तालियां पीटीं और अब फिल्म सत्याग्रह में सांसद अपनी कमाई के तर्क को सिल्वर स्क्रीन पर कुछ इस तरह गढ़ते नजर आ रहे हैं, जैसे वह जनता के नुमाइंदे नहीं बल्कि कारपोरेट हैं। सुधार यही है कि पान सिंह तोमर को ऱाष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया और सत्याग्रह को भी वही सरकार संभवत: राष्ट्रीय पुरस्कार देगी, जिस पर सवालिया निशान लग रहे हैं।
तो क्या सुप्रीम कोर्ट जिस राजनीतिक व्यवस्था को पाक साफ करने के लिये दागी राजनेताओं को रोकना चाहता, उसी राजनीतिक व्यवस्था में ऐसा खोट आ चुका है कि दोषी होने के पहले रास्ते से बचने को ही राजनेता एड़ी चोटी का जोर लगाने लगेंगे। यह सवाल जयललिता से लेकर लालू यादव और फूलन देवी से लेकर राजा भैया तक के केस से समझा जा सकता है।
क्योंकि 13 बरस पहले जयललिता को 3 बरस की सजा निचली अदालत ने सुनायी। लेकिन जयललिता मामले को हाई कोर्ट में ले गयी और आज तक उन्हें जेल जाने की नौबत नहीं आयी है। बीते एक दशक से लालू यादव चारा घोटाला में आरोपी हैं लेकिन फैसला आजतक नहीं आ पाया है। फूलन देवी हत्या से लेकर अपहरण और फिरौती से लेकर जातीय नरसंहार तक में दोषी करार देने के बाद भी संसद पहुंची और ठसक से विशेषाधिकार का लाभ उठाती रहीं। राजा भैया कई आरोपों में दोषी होने के बाद और जेल जाने के बाद भी सत्ता की सारी सुविधाओं को ना सिर्फ भोगते रहे बल्कि दोबारा चुनाव जीतकर अपनी राजनीतिक साख को और मजबूत बना गये। और इस प्रकिया को मौजूदा लोकसभा के सांसदों ने कितना मजबूत किया है यह नेशनल इलेक्शन वाच की रिपोर्ट से समझा जा सकता है। जो बताती है कि लोकसभा में 150 सांसद दागी है। और दागियों को उम्मीदवार बनाने में सबसे आगे कांग्रेस और बीजेपी है ।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की दागी राजनेताओ पर नयी नकेल क्या राजनीतिक व्यवस्था को पाक साफ वाकई बना देगी या आपराधिक छवि के नेताओं में कोई डर पैदा करेगी। या फिर राजनेताओं की राजनीति का अहम हिस्सा अब नीचली अदालत से दो बरस सजा ना पाने का होगा या सत्ताधारियो की राजनीति का अहम हिस्सा विरोधियों को दो बरस की सजा दिलवाने का होगा। क्या हालात ऐसे भी आ सकते हैं। यह सवाल इसलिये क्योंकि ना पुलिस सुधार ना अदालती फैसलों में तेजी से निपटारा और ना चुनाव आयोग के फैसलों पर संसद का ठप्पा। बावजूद इसके राजनेता सुधर जायें या सत्ता की होड़ में अपराध रुक जाये क्या यह संभव है। सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले ने अब यह सवाल बड़ा कर दिया है कि अगर किसी दागी राजनेता के आगे पुलिस या जांच एजेंसी नतमस्तक है। अगर निचली अदालत के फैसले उपरी अदालत में और हाईकोर्ट के फैसले सुप्रीम कोर्ट में बदल जाते हो तो फिर दोषी के दोष को सही माना कब जाये। साथ ही संसद अगर चुनाव आयोग के उस फैसले को ही नकारात्मक मान लें, जहां वोटरों के सामने किसी भी उम्मीदवार को वोट ना देने का विकल्प हो।
तो फिर खोट है कहां क्योंकि शिबूसोरेन को दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट दोषी करार देते हुये तुरंत गिरफ्तारी का आदेश देती है और जयललिता को तमिलनाडु की निचली अदालत दोषी करार देते हुये उपरी अदालत में अपील करने के लिये तीन महीने का वक्त दे देती है। इसी तर्ज पर राजनेताओं के खिलाफ करीब 70 फीसदी तक पुलिसिया जांच नीचली अदालत से उपरी अदालत तक पहुंचते पहुंचते उलट हो जाती है । यह सारे सवाल अब नये सिरे से इसलिये महत्वपूर्म हो गये है क्योकि ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक चुने हुये प्रतिनिधियो की तादाद 36 लाख 60 हजार 868 है । और इस कतार में शामिल होने के लिये करोडो नेता गांव से लेकर दिल्ली के रायसीना हिल्स के चक्कर लगाते है । और सभी नेता बनने के लिये अपने अपने घेरे मे आम आदमी की औसत कमाई से सिर्फ 4000 से 5000 फिसदी रुपया ज्यादा खर्च करते है ।
सवाल यही है कि जब रुपये पर ही जीत हार जा टिकी है तो फिर कोई भी नेता कमाई करने के लिये ही चुनाव लडेगा । और कमाई का मतलब होगा आय से ज्यादा संपत्ति । संयोग देखिये जिसके कटघरे में जयललिता, मुलायम और मायावती तीनों ही खड़े हैं। और तीनों में से किसी को भी आने वाले वक्त में सजा हो गई तो जयलिलता की तो कुर्सी जायेगी मुलायम और मायावती 2014 के चुनावी रेस से ही बाहर हो जायेंगे। और फैसला ना आये इसके लिये नेता किसी भी हद तक जाने से चुकेंगे नहीं। ऐसे में न्यापालिका या संसदीय व्यवस्था पर अंगुली उठाने वाली जनता को सड़क पर आकर सुधार या बदलाव की बयार तो बहानी ही होगी। याद कीजिये साल भर पहले देश ने पहली बार राजनेताओं के खिलाफ आम लोगों का आक्रोश सड़क पर देखा भी और सड़क से संसद को चुनौती भी दी। और उस वक्त देश के मिजाज से इतर तमाम राजनीतिक दल ही पार्टी लाइन छोड़कर एक साथ खड़े हो गये, जिससे सांसदों पर आंच ना आये। उस वक्त आपराधिक छवि वाले सांसदों से लेकर आदालतों की लेट लतीफी और सत्ताधारियों के पक्ष में फैसलो को लेकर सवाल उठ रहे थे।
असल में सुप्रीम कोर्ट ने जिस राजनीतिक व्यवस्था को साफ सुधरा बनाने की सोची है उसे साफ सुधरा बनना तो संसद का ही काम है। लेकिन सांसद खुद कितने दागदार हैं, इसकी एक मिसाल नेशनल इलेक्शन वाच ने अपनी जांच के बाद रखी। मौजूदा लोकसभा में 162 सांसद दागी है। 76 सांसदों के खिलाफ कड़े आपराधिक मुकदमे पेंडिंग पड़े हैं।
मुश्किल सिर्फ सांसद विधायकों के आपराधिक छवि के होने भर का नहीं है। सवाल है कि जिस जनता की नुमाइन्दी राजनेता करते हैं, उससे इनका कोई सरोकार कितनी दूर तक नहीं है यह विशेषाधिकार पाये सांसदो के हालात को देखकर भी समझा जा सकता है। देश में एक फिसदी से भी कम करोड़पति है। लेकिन संसद में 58 फीसदी करोड़पति है। औसतन देश में आर्थिक विकास दर 6 फीसदी से ज्यादा होती नहीं है लेकिन सांसदो की कमाई सालाना 200 फीसदी की दर से बढ़ती है। मुश्किल यह है कि राजनेताओं को लेकर सड़क पर जनता का आक्रोश अब सिल्वर स्क्रीन के लिये भी मुनाफे वाली थीम हो चुकी है और सिनेमायी पर्दे पर फिल्म पान सिंह तोमर में सांसदों को डकैत कहा गया तो जनता ने तालियां पीटीं और अब फिल्म सत्याग्रह में सांसद अपनी कमाई के तर्क को सिल्वर स्क्रीन पर कुछ इस तरह गढ़ते नजर आ रहे हैं, जैसे वह जनता के नुमाइंदे नहीं बल्कि कारपोरेट हैं। सुधार यही है कि पान सिंह तोमर को ऱाष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया और सत्याग्रह को भी वही सरकार संभवत: राष्ट्रीय पुरस्कार देगी, जिस पर सवालिया निशान लग रहे हैं।
Tuesday, July 9, 2013
बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस को जरुरत है नरेन्द्र मोदी की !
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पहली बार चुनावी राजनीति के मंथन के लिये तैयार हो रहा है। 12 जुलाई से नागपुर से सटे अमरावती में करीब 250 प्रचारक तीन दिनों तक संघ की चल रही योजनाओं पर चर्चा के साथ साथ मिशन 2014 का पाठ भी पढेंगे। यानी हर बरस जो प्रचारक अलग अलग प्रांतों में चल रहे संघ के कार्यक्रमों की रुपरेखा बताते रहे है पहली बार उसमें राजनीतिक चुनाव का भी मिशन होगा। और प्रचारकों के इस मंथन से निकलेगा क्या यह तो किसी को नहीं पता लेकिन हर प्रचारक कैसे अपने अपने क्षेत्र में हिन्दू समाज के सामने राजनीतिक चुनाव की अलख नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी के लिये जगाये, इस पर मंथन जरुर करेगा। यानी पहली बार संघ प्रचारक की कार्यशौली राजनीति होगी। पहली बार संघ राजनीतिक चुनाव में सीधी दखल देगा। पहली बार संघ बीजेपी को राजनीतिक चुनाव का ककहरा पढ़ायेगा। और यह शुरु होगा कैसे इसकी एक झलक लालकृष्ण आडवाणी ने नागपुर में संघ के मुखिया से मुलाकात के बाद चार दिन पहले ही यह कहकर दे दी थी कि आने वाले चुनाव में संघ की अगुवाई में बीजेपी खुद को तैयार करेगी। ध्यान दें तो
पहले मुरली मनोहर जोशी फिर लाल कृष्ण आडवाणी उसके बाद राजनाथ सिंह। बीते हफ्ते लगातार तीन दिन बीजेपी के तीनो कद्दावर नेता एक एक कर नागपुर पहुंचे। सरसंघचालक मोहन भागवत और सहसरसंघचालक भैयाजी जोशी से मुलाकात की। हर मुलाकात के बाद हर किसी को समझ में आ गया कि आरएसएस की ड्योढी पहली बार राजनीति का ककहरा बताने के लिये खोली गई है। और इसका खुला एलान रविवार को नागपुर में डां मुंजे की किताब के विमोचन के मौके पर भैयाजी जोशी ने पहली बार सार्वजनिक तौर पर माना कि लोकतंत्र में राजनीतिक चुनाव के लिये हिन्दु मत को तैयार करना भी जरुरी है और अब संघ इसके लिये पहल करेगा। तो क्या यह माना जाये कि दिल्ली की चौकड़ी को सीधा संदेश संघ दे रहा है कि मिशन 2014 का रास्ता बनाया कैसे जाये। क्योंकि अभी तक तीन मंत्र निकले हैं। पहला मोदी के रास्ते रुकावट कोई ना डाले । दूसरा मोदी समूची पार्टी को लेकर चले। और तीसरा राजनाथ सिंह ज्यादा राम राम या मोदी मोदी ना कहे ।
लेकिन संघ जो रास्ता बीजेपी को दिखा रहा है, उसमें पहली बार बीजेपी की असफलता का ब्यौरा भी है। मसलन संगठन जनसंघ के बाद से नहीं बना। हिन्दु वोटरों को राजनीतिक तौर पर बीजेपी ने जागरुक करने का कोई प्रयास नहीं किया। और पुरानी पीढ़ी ने कभी नयी पीढ़ी के लिये सियासी रास्ता नहीं छोड़ा। इसलिये राजनीतिक तौर पर कभी संघ से परहेज करने वाले आडवाणी भी मान रहे हैं कि संघ ना होता तो कुछ ना होता। लेकिन असल सवाल तो नरेन्द्र मोदी को लेकर है। क्योंकि 2001, 2002, 2007, 2012 चार बार मोदी सीएम पद की शपथ ले चुके हैं। लेकिन गुजरात से बाहर कभी किसी पद की शपथ नरेन्द्र मोदी ने ली नहीं। और पहली बार नरेन्द्र मोदी जिस राजनीतिक उड़ान की तैयारी में जुटे हैं, उसका मकसद सिर्फ और सिर्फ दिल्ली में शपथ लेना है। और शपथ की तारीख चाहे 21 मई 2014 हो लेकिन मोदी की तेजी दिखा रही है कि पहली बार मई 2014 , 2013 में ही आ जायेगा।
यह पहली बार है कि नरेन्द्र मोदी को चुनाव से बरस भर पहले ही चुनाव प्रचार समिति की बागडोर सौप दी गई। जबकि इससे बीजेपी में चुनाव प्रचार की बागडोर सौंपने की परंपरा चुनाव से चार महीने पहले की रही है। तो पहला सवाल इस बार ऐसा क्या है जो मोदी से लेकर बीजेपी अध्यक्ष और संघ ने भी जल्दबाजी दिखायी। पहली बार चुनाव प्रचार समिति के सदस्यो के चयन को लेकर संसदीय बोर्ड एक के बाद एक बैठक कर रहा है और खुद बीजेपी अध्यक्ष इसी में अपनी रुचि दिखा रहे हैं। तो दूसरा सवाल है कि इससे कभी संसदीय बोर्ड इस झमले में नहीं पड़ा और चुनाव से पहले किसी भी बीजेपी अध्यक्ष ने वैसी मशक्कत नहीं की जो इस बार राजनाथ सिंह करते दिख रहे हैं। राजनाथ सिंह ने यह जल्दबाजी तो 2009 में भी बतौर अध्यक्ष नहीं दिखायी थी। फिर पहली बार चुनाव प्रचार समिति का मुखिया यानी मोदी बीजेपी पर भी भारी है और अधयक्ष पर भी। और लग यही रहा है कि पूरी पार्टी ही मोदी की पहलकदमी पर जा टिकी है। तो तीसरा सवाल है कि इससे पहले कभी प्रचार के मुखिया का कद ना तो पार्टी से बड़ा माना गया ना ही बनाया गया। लेकिन इसबार ऐसा क्या है कि बीजेपी से लेकर एनडीए का भाग्य तक मोदी से जोडा गया है ।
तो नरेन्द्र मोदी क्या करें। मई 2014 , 2013 में तो आ नहीं सकता लेकिन 2013 , 2014 के इंतजार में मोदी का नाम जपते हुये कट जाये इसका प्रयास तो मोदी कर ही सकते है। तो ध्यान दीजिये बीजेपी में 2013 की सारी हड़बड़ाहट मोदी को 2014 के केन्द्र में लाने -बैठाने की है। क्योंकि बीजेपी का अपना सच यही है कि संघ के संगठन और मोदी के कारपोरेट के अलावे उसके पास वही फूंके हुये कारतूस है जिसे परिवार ने ही एक वक्त खारिज कर दिया था। लेकिन यही से मोदी को लेकर काग्रेस के सवाल खडे होते है ।
क्योंकि कांग्रेस की राजनीति जिस तर्ज पर मोदी को उछाल रही है, उसी तर्ज पर राहुल गांधी को छुपा भी रही है। और ध्यान दें तो बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस के मिशन 2014 के केन्द्र में नरेन्द्र मोदी हैं। न्यूज चैनलों पर कांग्रेस की प्रचार कमान संभाले दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी , रेणुका चौधरी और शकील अहमद की चौकड़ी के बयानों को परखें तो कभी किसी ने राहुल गांधी के हाथ 2014 की कमान सौंपने की बात उस तरह नहीं की, जितनी बात नरेन्द्र मोदी के हाथ बीजेपी की कमान सौपने का सवाल उठाया। यानी मोदी जब जब रुके या थमे से नजर आये तब तब काग्रेस ने ही मोदी का नाम उछाल कर उन्हे रफ्तार देकर बीजेपी के भीतर हिचकोले पैदा करने का प्रयास किया । बोध गया में घमाके पर दिग्विजय के मोदी बयान से बीजेपी भी मोदी पर सफाई देते हुये काग्रेस पर निसाना साधने में उलझी । फुड सिक्योरटी बिल के जवाब में काग्रेस ने मोदी के कारपोरेट प्रेम पर कसीदे गढे । तो बीजेपी भी मोदी के विकास पर सफाई देने में उलझी । नीतिश कुमार के अलग होने पर मोदी के साप्रदायिक चेहरे को उभारने में काग्रेस जुटी तो बीजेपी ने मोदी के गुजरात पर सफाई देने में उलझी । ध्यान दें तो काग्रेस ने पहली बार अपनी असफलताओं को छुपाने के लिये उसी मोदी को ढाल बनाया है जिस मोदी को उभारने से बीजेपी के कद्दवर नेता आज भी कतराते हैं। यानी कांग्रेस की लोकसभा चुनाव को लेकर रणनीति साफ है । मोदी के नाम की जयजयकार हर वक्त होती रहनी चाहिये। बीजेपी का कद मोदी से छोटा हो जाये। मोदी आरएसएस के चुनावी नुमाइन्दे लगे। क्योंकि यही एक रास्ता कांग्रेस को 2014 की दौड़ में बरकरार रख सकता है। और राजनीतिक चुनाव का सच देखिये काग्रेस 2014 के लिये मोदी को खोना नहीं चाहती है।
पहले मुरली मनोहर जोशी फिर लाल कृष्ण आडवाणी उसके बाद राजनाथ सिंह। बीते हफ्ते लगातार तीन दिन बीजेपी के तीनो कद्दावर नेता एक एक कर नागपुर पहुंचे। सरसंघचालक मोहन भागवत और सहसरसंघचालक भैयाजी जोशी से मुलाकात की। हर मुलाकात के बाद हर किसी को समझ में आ गया कि आरएसएस की ड्योढी पहली बार राजनीति का ककहरा बताने के लिये खोली गई है। और इसका खुला एलान रविवार को नागपुर में डां मुंजे की किताब के विमोचन के मौके पर भैयाजी जोशी ने पहली बार सार्वजनिक तौर पर माना कि लोकतंत्र में राजनीतिक चुनाव के लिये हिन्दु मत को तैयार करना भी जरुरी है और अब संघ इसके लिये पहल करेगा। तो क्या यह माना जाये कि दिल्ली की चौकड़ी को सीधा संदेश संघ दे रहा है कि मिशन 2014 का रास्ता बनाया कैसे जाये। क्योंकि अभी तक तीन मंत्र निकले हैं। पहला मोदी के रास्ते रुकावट कोई ना डाले । दूसरा मोदी समूची पार्टी को लेकर चले। और तीसरा राजनाथ सिंह ज्यादा राम राम या मोदी मोदी ना कहे ।
लेकिन संघ जो रास्ता बीजेपी को दिखा रहा है, उसमें पहली बार बीजेपी की असफलता का ब्यौरा भी है। मसलन संगठन जनसंघ के बाद से नहीं बना। हिन्दु वोटरों को राजनीतिक तौर पर बीजेपी ने जागरुक करने का कोई प्रयास नहीं किया। और पुरानी पीढ़ी ने कभी नयी पीढ़ी के लिये सियासी रास्ता नहीं छोड़ा। इसलिये राजनीतिक तौर पर कभी संघ से परहेज करने वाले आडवाणी भी मान रहे हैं कि संघ ना होता तो कुछ ना होता। लेकिन असल सवाल तो नरेन्द्र मोदी को लेकर है। क्योंकि 2001, 2002, 2007, 2012 चार बार मोदी सीएम पद की शपथ ले चुके हैं। लेकिन गुजरात से बाहर कभी किसी पद की शपथ नरेन्द्र मोदी ने ली नहीं। और पहली बार नरेन्द्र मोदी जिस राजनीतिक उड़ान की तैयारी में जुटे हैं, उसका मकसद सिर्फ और सिर्फ दिल्ली में शपथ लेना है। और शपथ की तारीख चाहे 21 मई 2014 हो लेकिन मोदी की तेजी दिखा रही है कि पहली बार मई 2014 , 2013 में ही आ जायेगा।
यह पहली बार है कि नरेन्द्र मोदी को चुनाव से बरस भर पहले ही चुनाव प्रचार समिति की बागडोर सौप दी गई। जबकि इससे बीजेपी में चुनाव प्रचार की बागडोर सौंपने की परंपरा चुनाव से चार महीने पहले की रही है। तो पहला सवाल इस बार ऐसा क्या है जो मोदी से लेकर बीजेपी अध्यक्ष और संघ ने भी जल्दबाजी दिखायी। पहली बार चुनाव प्रचार समिति के सदस्यो के चयन को लेकर संसदीय बोर्ड एक के बाद एक बैठक कर रहा है और खुद बीजेपी अध्यक्ष इसी में अपनी रुचि दिखा रहे हैं। तो दूसरा सवाल है कि इससे कभी संसदीय बोर्ड इस झमले में नहीं पड़ा और चुनाव से पहले किसी भी बीजेपी अध्यक्ष ने वैसी मशक्कत नहीं की जो इस बार राजनाथ सिंह करते दिख रहे हैं। राजनाथ सिंह ने यह जल्दबाजी तो 2009 में भी बतौर अध्यक्ष नहीं दिखायी थी। फिर पहली बार चुनाव प्रचार समिति का मुखिया यानी मोदी बीजेपी पर भी भारी है और अधयक्ष पर भी। और लग यही रहा है कि पूरी पार्टी ही मोदी की पहलकदमी पर जा टिकी है। तो तीसरा सवाल है कि इससे पहले कभी प्रचार के मुखिया का कद ना तो पार्टी से बड़ा माना गया ना ही बनाया गया। लेकिन इसबार ऐसा क्या है कि बीजेपी से लेकर एनडीए का भाग्य तक मोदी से जोडा गया है ।
तो नरेन्द्र मोदी क्या करें। मई 2014 , 2013 में तो आ नहीं सकता लेकिन 2013 , 2014 के इंतजार में मोदी का नाम जपते हुये कट जाये इसका प्रयास तो मोदी कर ही सकते है। तो ध्यान दीजिये बीजेपी में 2013 की सारी हड़बड़ाहट मोदी को 2014 के केन्द्र में लाने -बैठाने की है। क्योंकि बीजेपी का अपना सच यही है कि संघ के संगठन और मोदी के कारपोरेट के अलावे उसके पास वही फूंके हुये कारतूस है जिसे परिवार ने ही एक वक्त खारिज कर दिया था। लेकिन यही से मोदी को लेकर काग्रेस के सवाल खडे होते है ।
क्योंकि कांग्रेस की राजनीति जिस तर्ज पर मोदी को उछाल रही है, उसी तर्ज पर राहुल गांधी को छुपा भी रही है। और ध्यान दें तो बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस के मिशन 2014 के केन्द्र में नरेन्द्र मोदी हैं। न्यूज चैनलों पर कांग्रेस की प्रचार कमान संभाले दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी , रेणुका चौधरी और शकील अहमद की चौकड़ी के बयानों को परखें तो कभी किसी ने राहुल गांधी के हाथ 2014 की कमान सौंपने की बात उस तरह नहीं की, जितनी बात नरेन्द्र मोदी के हाथ बीजेपी की कमान सौपने का सवाल उठाया। यानी मोदी जब जब रुके या थमे से नजर आये तब तब काग्रेस ने ही मोदी का नाम उछाल कर उन्हे रफ्तार देकर बीजेपी के भीतर हिचकोले पैदा करने का प्रयास किया । बोध गया में घमाके पर दिग्विजय के मोदी बयान से बीजेपी भी मोदी पर सफाई देते हुये काग्रेस पर निसाना साधने में उलझी । फुड सिक्योरटी बिल के जवाब में काग्रेस ने मोदी के कारपोरेट प्रेम पर कसीदे गढे । तो बीजेपी भी मोदी के विकास पर सफाई देने में उलझी । नीतिश कुमार के अलग होने पर मोदी के साप्रदायिक चेहरे को उभारने में काग्रेस जुटी तो बीजेपी ने मोदी के गुजरात पर सफाई देने में उलझी । ध्यान दें तो काग्रेस ने पहली बार अपनी असफलताओं को छुपाने के लिये उसी मोदी को ढाल बनाया है जिस मोदी को उभारने से बीजेपी के कद्दवर नेता आज भी कतराते हैं। यानी कांग्रेस की लोकसभा चुनाव को लेकर रणनीति साफ है । मोदी के नाम की जयजयकार हर वक्त होती रहनी चाहिये। बीजेपी का कद मोदी से छोटा हो जाये। मोदी आरएसएस के चुनावी नुमाइन्दे लगे। क्योंकि यही एक रास्ता कांग्रेस को 2014 की दौड़ में बरकरार रख सकता है। और राजनीतिक चुनाव का सच देखिये काग्रेस 2014 के लिये मोदी को खोना नहीं चाहती है।
Thursday, July 4, 2013
मोदी की मुस्लिम गाथा में होगा क्या ?
नरेन्द्र मोदी ने चाहे गुजरात में मुस्लिम टोपी नहीं पहनी लेकिन देश के लिये जिस मुस्लिम विजन को नरेन्द्र मोदी लाने जा रहे हैं, उसमें मुस्लिम टोपी पहने कांग्रेसियों की टोपी उछालने की पूरी व्यवस्था की जा रही है । मोदी का मुस्लिम विजन तीन स्तर पर सामने आयेगा । पहले स्तर पर आजादी के बाद से देश में हुये हिन्दु मुस्लिम दंगो को लेकर कांग्रेस की भूमिका कटघरे में खड़ी होगी।
और इसके तहत उन काग्रेसियो के नाम भी उजागर किये जायेंगे तो हिन्दु मुस्लिम दंगों में दोषी पाये गये। दूसरे स्तर पर मुस्लिम समुदाय के पिछड़ेपन और गरीबी के लिये कांग्रेसी राजनीति के तौर तरीको को कठघरे में खड़ा किया जायेगा। और तीसरे स्तर पर मुस्लिमों के सामने हिन्द मुस्लिम कहलाने का वह तरीका सामने रखा जायेगा जिससे हिन्दु और मुस्लिम धर्म के आधार पर ना टकराये । यानी इससे पहले बीजेपी को सरकार बनाने के लिये अटलबिहारी वाजपेयी की अगुवाई में अयोध्या , कामन सिविल कोड और धारा 370 छोड़नी पड़ी थी और एनडीए बना था । उससे इतर नरेन्द्र मोदी 2014 के लिये किसी भी मुद्दे को छोडने की जगह मुस्लिमो से जुडे हर मुद्दे को नये तरीके से परिभाषित करना चाह रहे है । और इसके लिये गुरु गोलवरकर के बंच आफ थाट के उस हिस्से को ही आधार बनाया गया है जिसमें काग्रेस को लेकर गोलवरकर मुस्लिमो पर यह कहते हुये चोट करते है कि जिस समाज को अपनी सियासी जरुरत के लिये काग्रेस ने टिकाये रखा है उसे मुस्लिम वोट क्यो देते है । असल में मोदी अपने विकास की थ्योरी से धर्म की उस लक्ष्णण रेखा को मिटाना चाहते है जिसे पार करना मुस्लिमो के लिये आरएसएस का नाम आते ही मुश्किल होता है। इसलिये सच्चर कमेटी ने जिस सामाजिक-आर्थिक विषमता का जिक्र मुस्लिम समाज को लेकर किया है, उसे ही अपने डेवलपमेंट मुद्दे के जरीये मोदी पाटना चाहते हैं। और जो राजनीतिक मुश्किल कांग्रेस दंगों या हिन्दुत्व के आसरे डालने की कोशिश करेगी उस पर मठ्ठा डालने के लिये मोदी दंगों में कांग्रेस की भूमिका और दोषियों के नाम को छाप कर जवाब देने की तैयारी में है। और इस फेरहिस्त में गोधरा कांड के दोषियों का भी जिक्र किया जायेगा ।
लेकिन पहली बार नरेन्द्र मोदी इतिहास के उन पन्नो को टटोलने के लिये तैयार हो रहे हैं, जहां आरएसएस को लेकर मुस्लिम समाज में बनी अछूत की धारणा टूट जाये । मोदी के मुस्लिम विजन में नेहरु की सत्ता के निर्णयो से ही संघ परिवार पर निशाना साधने और महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध को लेकर सवाल उठाने की तैयारी भी होगी। मसलन महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे हिन्दु महासभा से जुडे थे लेकिन हत्या के बाद प्रतिबंध हिन्दु महासभा पर नहीं संघ परिवार पर लगा ।
और जो श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरु के मंत्रीमंडल में शामिल थे वह भी हिन्दु महासभा से जुड़े थे। और जनसंघ बनाने के लिये हिन्दु महासभा छोड़कर श्यामा प्रसाद मुखर्जी आरएसएस में शामिल हुये थे। असल में मुस्लिमों के सवाल पर मोदी कांग्रेस को नेहरु के दौर से घेरना चाहते है। और इसका एहसास मुस्लिमों को कराना चाहते है कि कांग्रेस की जिस नाव पर वह सवार है, वह नाव एक वक्त मुस्लिम लीग तो फिर हिन्दु महासभा के साथ खड़ी रही। और निशाना हिन्दु महासभा पर लगना चाहिये था वह निशाना बार बार आरएसएस पर लगाया गया। 2014 के मुस्लिम विजन के लिये नरेन्द्र मोदी बीजेपी ही नहीं बल्कि जनसंघ के इतिहास के पन्नों को भी खोलने की तैयारी कर रहे हैं। क्योंकि राजनीतिक तौर पर संघ परिवार से अगर जनसंघ निकला तो 1951 में जनसंघ के संविधान में मुस्लिम और इसाई को कार्यकर्ता या पार्टी का सदस्य बनाये जाने पर जोर दिया गया था। यानी स्वयंसेवक जब राजनीतिक मैदान में जाये तो किसी धर्म को लेकर अछूत सा व्यवहार ना करें जैसा हिन्दु महासभा ने किया था। और हिन्दु महासभा को नेहरु ने बार बार बख्शा। जाहिर है पहली बार मोदी बीजेपी को संघ के प्लेटफार्म पर इस तरह खड़ा करना चाहते हैं जिससे साथ खड़ा होने वाले नीतीश कुमार की तरह राजनीतिक तिकड़म में ना फंसे बल्कि जेपी की तर्ज पर यह कहने की हिम्मत रखे कि अगर संघ परिवार सांप्रदायिक है तो वह भी सांप्रदायिक है। लेकिन सवाल यही है मोदी ना तो जेपी है और मोहन भागवत ना ही गोलवरकर । लेकिन मिशन 2014 की बिसात कुछ ऐसी ही बिछ रही है ।
फिर याद आई इशरत....
गुजरात हाई कोर्ट के निर्देश पर इशरत जहां एनकाउंटर केस में दाखिल की गई चार्जशीट में सीबीआई ने साफ तौर पर एनकाउंटर को फर्जी बताया है। सीबीआई ने बुधवार शाम को सीबीआई की स्पेशल कोर्ट में चार्जशीट दायर की। इसमें कहा गया है कि जून 2004 को एनकाउंटर में मारी गई इशरत जहां आतंकवादी नहीं सिर्फ इंटेलीजेंस के अधिकारियों के किए गए एक अपहरण की चश्मदीद थी। सीबीआई सूत्रों के मुताबिक इशरत जहां को को सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि उसने इंटेलिजेंस ब्यूरो के लोगों को अमजद अली राणा का अपहरण करते देख लिया था। इस संबंध में एक लेख 9 सितंबर 2009 को लिखा था। उसे ही दोबारा पेश कर रहा हूं।
देश की असल जांच रिपोर्ट के लिए तो कई मजिस्ट्रेट चाहिए
सत्तर और अस्सी के दशक को याद कीजिये । इस दौर में पहली बार सिनेमायी पर्दे पर एक ऐसा नायक गढ़ा गया, जो समाज की विसंगतियों से अकेले लड़ता है । नायक के तरीके किसी खलनायक की तरह ही होते थे। लेकिन विसंगतियों का पैमाना इतना बड़ा था कि अमिताभ बच्चन सिल्वर स्क्रीन की जगह देखने वालो के जेहन में नायक की तरह उतरता चला गया ।
कुछ ऐसी ही परिस्थितियां पिछले एक दशक के दौरान आतंकवाद के जरिए समाज के भीतर भी गढ़ा गया । चूंकि यह कूची सिल्वर स्क्रीन की तरह सलीम-जावेद की नहीं थी, जिसमें किसी अमिताभ बच्चन को महज अपनी अदाकारी दिखानी थी। बल्कि आतंकवाद को परिभाषित करने की कूची सरकारों की थी। लेकिन इस व्यवस्था में जो नायक गढ़ा जा रहा था, उसमें पटकथा लेखन संघ परिवार का था। और जिस नायक को लोगों के दिलो में उतारना था-वह नरेन्द्र मोदी थे। आतंकवाद से लड़ते इस नायक की नकल सिनेमायी पर्दे पर भी हुई । लेकिन इस दौर में नरेन्द्र मोदी को अमिताभ बच्चन की तरह महज एक्टिंग नहीं करनी थी बल्कि डर और भय का एक ऐसा वातावरण उसी समाज के भीतर बनाना था, जिसमें हर समुदाय-संप्रदाय के लोग दुख-दर्द बांटते हुये सहज तरीके से रह रहे हों।
हां, अदाकारी इतनी दिखानी थी कि राज्य व्यवस्था के हर तंत्र पर उन्हें पूरा भरोसा है और हर तंत्र अपने अपने घेरे में बिलकुल स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर काम कर रहा है। इसलिये जब 15 जून 2004 को सुबह सुबह जब अहमदाबाद के रिपोर्टर ने टेलीफोन पर ब्रेकिंग न्यूज कहते हुये यह खबर दी कि आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोएबा में लड़कियां भी जुड़ी है और गुजरात पुलिस ने पहली बार लश्कर की ही एक लड़की को एनकांउटर में मार गिराया है तो मेरे जेहन में तस्वीर यही उभरी कि कोई लड़की हथियारो से लैस किसी आतंकवादी की तर्ज पर किसी मिशन पर निकली होगी और रास्ते में पुलिस आ गयी होगी, जिसके बाद एनकाउंटर। लेकिन अहमदाबाद के उस रिपोर्टर ने तुरंत अगली लकीर खुद ही खिंच दी। बॉस, यह एक और फर्जी एनकाउंटर है। लेकिन लड़की। यही तो समझ नहीं आ रहा है कि लडकी को जिस तरह मारा गया है और उसके साथ तीन लड़को को मारा गया है, जबकि इस एनकाउंटर में कहीं नहीं लगता कि गोलिया दोनों तरफ से चली हैं। लेकिन शहर के ठीक बाहर खुली चौड़ी सडक पर चारों शव सड़क पर पड़े हैं। एक लड़के की छाती पर बंदूक है। कार का शीशा छलनी है। अंदर सीट पर कुछ कारतूस के खोखे और एक रिवॉल्वर पड़ी है। और पुलिस कमिश्नर खुद कह रहे हैं कि चारो के ताल्लुकात लश्कर-ए-तोएबा से हैं।
घटना स्थल पर पुलिस कमिशनर कौशिक, क्राइम ब्रांच के ज्वाइंट पुलिस कमीशनर पांधे और डीआईजी वंजारा खुद मौजूद है, जो लश्कर का कोई बड़ा गेम प्लान बता रहे हैं। ऐसे में एनकाउंटर को लेकर सवाल खड़ा कौन करे । 6 बजे सुबह से लेकर 10 बजे तक यानी चार घंटो के भीतर ही जिस शोर -हंगामे में लश्कर का नया आंतक और निशाने पर मोदी के साथ हर न्यूज चैनल के स्क्रीन पर आतंकवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़नी शुरु हुई, उसमें रिपोर्टर की पहली टिप्पणी फर्जी एनकाउंटर को कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत करें कौन, यह सवाल खुद मेरे सामने खड़ा था । क्योंकि लड़की के लश्कर के साथ जुड़े तार को न्यूज चैनलों में जिस तरह भी परोसा जा रहा था, उसमें पहली और आखिरी हकीकत यही थी कि एक सनसनाहट देखने वाले में हो और टीआरपी बढ़ती चली जाये।
लेकिन एक खास व्यवस्था में किस तरह हर किसी की जरुरत कमोवेश एक सी होती चली जाती है, और राज्य की ही अगर उसमें भागीदारी हो जाये तो सच और झूठ के बीच की लकीर कितनी महीन हो जाती है, यह इशरत जहां के एनकाउंटर के बाद कई स्तरों पर बार बार साबित होती चली गयी। एनकाउटर के बाद मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब पुलिस प्रशासन की पीठ थपथपायी, तब मोदी राज्य व्सवस्था को आतंकवाद के खिलाफ मजबूती प्रदान करने वाले किसी नायक सरीखे दिखे। लड़की के लश्कर के संबंध को लेकर जब मोदी ने एक खास समुदाय को घेरा तो आंतकवाद के खिलाफ मोदी हिन्दुत्व के नायक सरीखे लगे। इस नायकत्व पर उस वक्त किसी भी राजनीतिक दल ने अंगुली उठाने की हिम्मत नहीं की। क्योंकि जो राजनीति उस वक्त उफान पर थी, उसमें पाकिस्तान या कहें सीमा पार आतंकवाद का नाम ऑक्सीजन का काम कर रहा था। वहीं, आंतकवाद के ब्लास्ट दर ब्लास्ट उसी पुलिस प्रशासन को कुछ भी करके आतंकवाद से जोड़ने का हथियार दे रहे थे, जो किसी भी आतंकवादी को पकड़ना तो दूर, कोई सुराग भी कभी नहीं दे पा रही थी।
यह हथियार सत्ताधारियों के लिये हर मुद्दे को अपने अनुकूल बनाने का ऐसा मंत्र साबित हो रहा था जिस पर कोई अंगुली उठाता तो वह खुद आतंकवादी करार दिया जा सकता था। कई मानवाधिकार संगठनों को इस फेरहिस्त में एनडीए के दौर में खड़ा किया भी गया । इसका लाभ कौन कैसे उठाता है, इसकी भी होड़ मची । इसी दौर में नागपुर के संघ मुख्यालय को जिस तरह आतंकवादी हमले से बचाया गया, उसने देशभर में चाहे आतंकवाद के फैलते जाल पर बहस शुरु की, लेकिन नागपुर में संघ मुख्यालय जिस घनी बस्ती में मौजूद है, उसमें उसी बस्ती यानी महाल के लोगो को भी समझ नहीं आया कि कैसे मिसाइल सरीखे हथियार से लैस होकर कोई उनकी बस्ती में घुस गया और इसकी जानकारी उन्हें सुबह न्यूज चैनल चालू करने पर मिली। इस हमले को भी फर्जी कहने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओ का पुलिस ने जीना मुहाल कर दिया। सुरेश खैरनार नामक एक कार्यकर्ता तो दिल्ली में तमाम न्यूज चैनलो में हमले की जांच रिपोर्ट को दिखाने की मन्नत करते हुये घूमता रहा लेकिन किसी ने संघ हेडक्वार्टर की रिपोर्ट को फर्जी कहने की हिम्मत नहीं की क्योंकि शायद इसे दिखाने का मतलब एक अलग लकीर खिंचना होता । और उस लकीर पर चलने का मतलब सत्ताधारियो का साथ छोड़ एक ऐसी पत्रकारिता को शुरु करना होता, जहां संघर्ष का पैमाना व्यवसायिकता में अवरोध पैदा कर सकता है।
अहमदाबाद में इशरत जहां को जब लश्कर से जोड़ने की बात गुजरात की पुलिस और उसे आधार बनाकर मुख्यमंत्री ने कही तो मेरे जेहन में लश्कर-ए-तोएबा के मुखिया का वह कथन घूमने लगा, जिसका जिक्र लश्कर के चीफ हाफिज सईद ने 2001 में मुझे इंटरव्यू देने से पहले किया था। हाफिज सईद ने इंटरव्यू से पहले मुझसे कहा थी कि मै पहला भारतीय हूं, जिसे वह इंटरव्यू दे रहे हैं। लेकिन भारत से कई और न्यूज चैनलो ने उनसे इंटरव्यू मांगा है । संयोग से कई नाम के बीच बरखा दत्त का नाम भी उसने लिया, लेकिन फिर सीधे कहा खवातिन को तो इंटरव्यू दिया नहीं जा सकता। यानी किसी महिला को लेकर लश्कर का चीफ जब इतना कट्टर है कि वह प्रोफेशनल पत्रकार को भी इंटरव्यू नहीं दे सकता है तो यह सवाल उठना ही था कि अहमदाबाद में पुलिस किस आधार पर कह रही है इशरत जहां के ताल्लुकात लश्कर से हैं ।
यह सवाल उस दौर में मैंने अपने वरिष्ठों के सामने उठाया भी लेकिन फिर एक नयी धारा की पत्रकारिता करने तक बात जा पहुंची, जिसके लिये या तो संघर्ष की क्षमता होनी चाहिये या फिर पत्रकारिता का एक ऐसा विजन, जिसके जरिए राज्य सत्ता को भी हकीकत बताने का माद्दा हो और उस पर चलते हुये उस वातावरण में भी सेंध लगाने की क्षमता हो जो कार्बनडाइऑक्साइड होते हुये भी राजनीतिक सत्ता के लिये ऑक्सीजन का काम करने लगती है।
जाहिर है गुजरात हाईकोर्ट ने कुछ दिनो पहले ही तीन आईएएस अधिकारियो को इस एनकाउंटर का सच जानने की जांच में लगाया है। लेकिन किसी भी घटना के बाद शुरु होने वाली मजिस्ट्रेट जांच की रिपोर्ट ने ही जिस तरह इशरत जहां के एनकाउंटर को ‘पुलिस मेडल पाने के लिये की गयी हत्या’ करार दिया है, उसने एक साथ कई सवालों को खड़ा किया है । अगर मजिस्ट्रेट जांच सही है तो उस दौर में पत्रकारों और मीडिया की भूमिका को किस तरह देखा जाये। खासकर कई रिपोर्ट तो मुबंई के बाहरी क्षेत्र में, जहां इसरत रहती थी, उन इलाको को भी संदेह के घेरे में लाने वाली बनी। उस दौर में मीडिया रिपोर्ट ने ही इशरत की मां और बहन का घर से बाहर निकलता दुश्वार किया। उसको कौन सुधारेगा। फिर 2004 के लोकसभा चुनावों में आतंकवाद का जो डर राजनेताओ ने ऐसे ही मीडिया रिपोर्ट को बताकर दिखाया, अब उनकी भूमिका को किस रुप में देखा जाये । 2004 के लोकसभा चुनाव में हर दल ने जिस तरह गुजरात को आतंकवाद और हिन्दुत्व की प्रयोगशाला करार देकर मोदी के गुजरात की तर्ज पर वहां के पांच करोड़ लोगों को अलग थलग कर दिया, उसने यह भी सवाल खड़ा किया कि समाज का वह हिस्सा जो, इस तरह की प्रयोगशाला का हिस्सा बना दिया जाता है उसकी भूमिका देश के भीतर किस रुप में बचेगी। क्योंकि पांच साल पहले के आतंकवाद को लेकर विसंगतियां अब भी हैं, लेकिन 2009 में उससे लड़ने के तरीके इतने बदल गये हैं कि समाज की विसंगतियों की परिभाषा भी सिल्वर स्क्रीन से लेकर लोगो के जहन तक में बदल चुकी है। नयी परिस्थितियों में समाज से लड़ने के लिये राजनीति में न तो नरेन्द्र मोदी चाहिये, न ही सिल्वर स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन। नयी परिस्थितियों में इशरत जहां के एनकाउटर का तरीका भी बदल गया है । अब सामूहिकता का बोध है। सिल्वर स्क्रीन पर कई कद वाले कलाकारो की सामूहिक हंसी-ठठ्टा का ऐसा जाल है, जहां सच को जानना या उसका सामना करना हंसी को ही ठसक के साथ जी लेना है । वहीं समाज में मुनाफा सबसे बडी सत्ता है जो सामूहिक कर्म से ही पायी जा सकती है । और एनकाउटंर के तरीके अब सच से भरोसा नहीं उठाते बल्कि विकास की अनूठी लकीर खींच कर विकसित भारत का सपना संजोते है।
सवाल है इसकी मजिस्ट्रेट जांच कब होगी और इसकी रिपोर्ट कब आयेगी। जिसके घेरे में कौन कौन आएगा कहना मुश्किल है लेकिन इसका इंतजार कर फिलहाल इताना तो कह सकते हैं-इशरत हमें माफ कर दो ।
देश की असल जांच रिपोर्ट के लिए तो कई मजिस्ट्रेट चाहिए
सत्तर और अस्सी के दशक को याद कीजिये । इस दौर में पहली बार सिनेमायी पर्दे पर एक ऐसा नायक गढ़ा गया, जो समाज की विसंगतियों से अकेले लड़ता है । नायक के तरीके किसी खलनायक की तरह ही होते थे। लेकिन विसंगतियों का पैमाना इतना बड़ा था कि अमिताभ बच्चन सिल्वर स्क्रीन की जगह देखने वालो के जेहन में नायक की तरह उतरता चला गया ।
कुछ ऐसी ही परिस्थितियां पिछले एक दशक के दौरान आतंकवाद के जरिए समाज के भीतर भी गढ़ा गया । चूंकि यह कूची सिल्वर स्क्रीन की तरह सलीम-जावेद की नहीं थी, जिसमें किसी अमिताभ बच्चन को महज अपनी अदाकारी दिखानी थी। बल्कि आतंकवाद को परिभाषित करने की कूची सरकारों की थी। लेकिन इस व्यवस्था में जो नायक गढ़ा जा रहा था, उसमें पटकथा लेखन संघ परिवार का था। और जिस नायक को लोगों के दिलो में उतारना था-वह नरेन्द्र मोदी थे। आतंकवाद से लड़ते इस नायक की नकल सिनेमायी पर्दे पर भी हुई । लेकिन इस दौर में नरेन्द्र मोदी को अमिताभ बच्चन की तरह महज एक्टिंग नहीं करनी थी बल्कि डर और भय का एक ऐसा वातावरण उसी समाज के भीतर बनाना था, जिसमें हर समुदाय-संप्रदाय के लोग दुख-दर्द बांटते हुये सहज तरीके से रह रहे हों।
हां, अदाकारी इतनी दिखानी थी कि राज्य व्यवस्था के हर तंत्र पर उन्हें पूरा भरोसा है और हर तंत्र अपने अपने घेरे में बिलकुल स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर काम कर रहा है। इसलिये जब 15 जून 2004 को सुबह सुबह जब अहमदाबाद के रिपोर्टर ने टेलीफोन पर ब्रेकिंग न्यूज कहते हुये यह खबर दी कि आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोएबा में लड़कियां भी जुड़ी है और गुजरात पुलिस ने पहली बार लश्कर की ही एक लड़की को एनकांउटर में मार गिराया है तो मेरे जेहन में तस्वीर यही उभरी कि कोई लड़की हथियारो से लैस किसी आतंकवादी की तर्ज पर किसी मिशन पर निकली होगी और रास्ते में पुलिस आ गयी होगी, जिसके बाद एनकाउंटर। लेकिन अहमदाबाद के उस रिपोर्टर ने तुरंत अगली लकीर खुद ही खिंच दी। बॉस, यह एक और फर्जी एनकाउंटर है। लेकिन लड़की। यही तो समझ नहीं आ रहा है कि लडकी को जिस तरह मारा गया है और उसके साथ तीन लड़को को मारा गया है, जबकि इस एनकाउंटर में कहीं नहीं लगता कि गोलिया दोनों तरफ से चली हैं। लेकिन शहर के ठीक बाहर खुली चौड़ी सडक पर चारों शव सड़क पर पड़े हैं। एक लड़के की छाती पर बंदूक है। कार का शीशा छलनी है। अंदर सीट पर कुछ कारतूस के खोखे और एक रिवॉल्वर पड़ी है। और पुलिस कमिश्नर खुद कह रहे हैं कि चारो के ताल्लुकात लश्कर-ए-तोएबा से हैं।
घटना स्थल पर पुलिस कमिशनर कौशिक, क्राइम ब्रांच के ज्वाइंट पुलिस कमीशनर पांधे और डीआईजी वंजारा खुद मौजूद है, जो लश्कर का कोई बड़ा गेम प्लान बता रहे हैं। ऐसे में एनकाउंटर को लेकर सवाल खड़ा कौन करे । 6 बजे सुबह से लेकर 10 बजे तक यानी चार घंटो के भीतर ही जिस शोर -हंगामे में लश्कर का नया आंतक और निशाने पर मोदी के साथ हर न्यूज चैनल के स्क्रीन पर आतंकवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़नी शुरु हुई, उसमें रिपोर्टर की पहली टिप्पणी फर्जी एनकाउंटर को कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत करें कौन, यह सवाल खुद मेरे सामने खड़ा था । क्योंकि लड़की के लश्कर के साथ जुड़े तार को न्यूज चैनलों में जिस तरह भी परोसा जा रहा था, उसमें पहली और आखिरी हकीकत यही थी कि एक सनसनाहट देखने वाले में हो और टीआरपी बढ़ती चली जाये।
लेकिन एक खास व्यवस्था में किस तरह हर किसी की जरुरत कमोवेश एक सी होती चली जाती है, और राज्य की ही अगर उसमें भागीदारी हो जाये तो सच और झूठ के बीच की लकीर कितनी महीन हो जाती है, यह इशरत जहां के एनकाउंटर के बाद कई स्तरों पर बार बार साबित होती चली गयी। एनकाउटर के बाद मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब पुलिस प्रशासन की पीठ थपथपायी, तब मोदी राज्य व्सवस्था को आतंकवाद के खिलाफ मजबूती प्रदान करने वाले किसी नायक सरीखे दिखे। लड़की के लश्कर के संबंध को लेकर जब मोदी ने एक खास समुदाय को घेरा तो आंतकवाद के खिलाफ मोदी हिन्दुत्व के नायक सरीखे लगे। इस नायकत्व पर उस वक्त किसी भी राजनीतिक दल ने अंगुली उठाने की हिम्मत नहीं की। क्योंकि जो राजनीति उस वक्त उफान पर थी, उसमें पाकिस्तान या कहें सीमा पार आतंकवाद का नाम ऑक्सीजन का काम कर रहा था। वहीं, आंतकवाद के ब्लास्ट दर ब्लास्ट उसी पुलिस प्रशासन को कुछ भी करके आतंकवाद से जोड़ने का हथियार दे रहे थे, जो किसी भी आतंकवादी को पकड़ना तो दूर, कोई सुराग भी कभी नहीं दे पा रही थी।
यह हथियार सत्ताधारियों के लिये हर मुद्दे को अपने अनुकूल बनाने का ऐसा मंत्र साबित हो रहा था जिस पर कोई अंगुली उठाता तो वह खुद आतंकवादी करार दिया जा सकता था। कई मानवाधिकार संगठनों को इस फेरहिस्त में एनडीए के दौर में खड़ा किया भी गया । इसका लाभ कौन कैसे उठाता है, इसकी भी होड़ मची । इसी दौर में नागपुर के संघ मुख्यालय को जिस तरह आतंकवादी हमले से बचाया गया, उसने देशभर में चाहे आतंकवाद के फैलते जाल पर बहस शुरु की, लेकिन नागपुर में संघ मुख्यालय जिस घनी बस्ती में मौजूद है, उसमें उसी बस्ती यानी महाल के लोगो को भी समझ नहीं आया कि कैसे मिसाइल सरीखे हथियार से लैस होकर कोई उनकी बस्ती में घुस गया और इसकी जानकारी उन्हें सुबह न्यूज चैनल चालू करने पर मिली। इस हमले को भी फर्जी कहने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओ का पुलिस ने जीना मुहाल कर दिया। सुरेश खैरनार नामक एक कार्यकर्ता तो दिल्ली में तमाम न्यूज चैनलो में हमले की जांच रिपोर्ट को दिखाने की मन्नत करते हुये घूमता रहा लेकिन किसी ने संघ हेडक्वार्टर की रिपोर्ट को फर्जी कहने की हिम्मत नहीं की क्योंकि शायद इसे दिखाने का मतलब एक अलग लकीर खिंचना होता । और उस लकीर पर चलने का मतलब सत्ताधारियो का साथ छोड़ एक ऐसी पत्रकारिता को शुरु करना होता, जहां संघर्ष का पैमाना व्यवसायिकता में अवरोध पैदा कर सकता है।
अहमदाबाद में इशरत जहां को जब लश्कर से जोड़ने की बात गुजरात की पुलिस और उसे आधार बनाकर मुख्यमंत्री ने कही तो मेरे जेहन में लश्कर-ए-तोएबा के मुखिया का वह कथन घूमने लगा, जिसका जिक्र लश्कर के चीफ हाफिज सईद ने 2001 में मुझे इंटरव्यू देने से पहले किया था। हाफिज सईद ने इंटरव्यू से पहले मुझसे कहा थी कि मै पहला भारतीय हूं, जिसे वह इंटरव्यू दे रहे हैं। लेकिन भारत से कई और न्यूज चैनलो ने उनसे इंटरव्यू मांगा है । संयोग से कई नाम के बीच बरखा दत्त का नाम भी उसने लिया, लेकिन फिर सीधे कहा खवातिन को तो इंटरव्यू दिया नहीं जा सकता। यानी किसी महिला को लेकर लश्कर का चीफ जब इतना कट्टर है कि वह प्रोफेशनल पत्रकार को भी इंटरव्यू नहीं दे सकता है तो यह सवाल उठना ही था कि अहमदाबाद में पुलिस किस आधार पर कह रही है इशरत जहां के ताल्लुकात लश्कर से हैं ।
यह सवाल उस दौर में मैंने अपने वरिष्ठों के सामने उठाया भी लेकिन फिर एक नयी धारा की पत्रकारिता करने तक बात जा पहुंची, जिसके लिये या तो संघर्ष की क्षमता होनी चाहिये या फिर पत्रकारिता का एक ऐसा विजन, जिसके जरिए राज्य सत्ता को भी हकीकत बताने का माद्दा हो और उस पर चलते हुये उस वातावरण में भी सेंध लगाने की क्षमता हो जो कार्बनडाइऑक्साइड होते हुये भी राजनीतिक सत्ता के लिये ऑक्सीजन का काम करने लगती है।
जाहिर है गुजरात हाईकोर्ट ने कुछ दिनो पहले ही तीन आईएएस अधिकारियो को इस एनकाउंटर का सच जानने की जांच में लगाया है। लेकिन किसी भी घटना के बाद शुरु होने वाली मजिस्ट्रेट जांच की रिपोर्ट ने ही जिस तरह इशरत जहां के एनकाउंटर को ‘पुलिस मेडल पाने के लिये की गयी हत्या’ करार दिया है, उसने एक साथ कई सवालों को खड़ा किया है । अगर मजिस्ट्रेट जांच सही है तो उस दौर में पत्रकारों और मीडिया की भूमिका को किस तरह देखा जाये। खासकर कई रिपोर्ट तो मुबंई के बाहरी क्षेत्र में, जहां इसरत रहती थी, उन इलाको को भी संदेह के घेरे में लाने वाली बनी। उस दौर में मीडिया रिपोर्ट ने ही इशरत की मां और बहन का घर से बाहर निकलता दुश्वार किया। उसको कौन सुधारेगा। फिर 2004 के लोकसभा चुनावों में आतंकवाद का जो डर राजनेताओ ने ऐसे ही मीडिया रिपोर्ट को बताकर दिखाया, अब उनकी भूमिका को किस रुप में देखा जाये । 2004 के लोकसभा चुनाव में हर दल ने जिस तरह गुजरात को आतंकवाद और हिन्दुत्व की प्रयोगशाला करार देकर मोदी के गुजरात की तर्ज पर वहां के पांच करोड़ लोगों को अलग थलग कर दिया, उसने यह भी सवाल खड़ा किया कि समाज का वह हिस्सा जो, इस तरह की प्रयोगशाला का हिस्सा बना दिया जाता है उसकी भूमिका देश के भीतर किस रुप में बचेगी। क्योंकि पांच साल पहले के आतंकवाद को लेकर विसंगतियां अब भी हैं, लेकिन 2009 में उससे लड़ने के तरीके इतने बदल गये हैं कि समाज की विसंगतियों की परिभाषा भी सिल्वर स्क्रीन से लेकर लोगो के जहन तक में बदल चुकी है। नयी परिस्थितियों में समाज से लड़ने के लिये राजनीति में न तो नरेन्द्र मोदी चाहिये, न ही सिल्वर स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन। नयी परिस्थितियों में इशरत जहां के एनकाउटर का तरीका भी बदल गया है । अब सामूहिकता का बोध है। सिल्वर स्क्रीन पर कई कद वाले कलाकारो की सामूहिक हंसी-ठठ्टा का ऐसा जाल है, जहां सच को जानना या उसका सामना करना हंसी को ही ठसक के साथ जी लेना है । वहीं समाज में मुनाफा सबसे बडी सत्ता है जो सामूहिक कर्म से ही पायी जा सकती है । और एनकाउटंर के तरीके अब सच से भरोसा नहीं उठाते बल्कि विकास की अनूठी लकीर खींच कर विकसित भारत का सपना संजोते है।
सवाल है इसकी मजिस्ट्रेट जांच कब होगी और इसकी रिपोर्ट कब आयेगी। जिसके घेरे में कौन कौन आएगा कहना मुश्किल है लेकिन इसका इंतजार कर फिलहाल इताना तो कह सकते हैं-इशरत हमें माफ कर दो ।
Wednesday, July 3, 2013
खाकी का खून बहेगा, खादी मौज करेगा और नक्सलियों को ग्रामीणों का साथ मिलेगा
गृह मंत्रालय के नक्शे में झारखंड का संथाल परगना नक्सल प्रभावित इलाके में आता ही नहीं है, जहां नक्सलियों ने एक एसपी समेत 6 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी। दिल्ली में बैठी सरकार की रिपोर्ट में झारखंड के 16 जिले नक्सल प्रभावित जरुर हैं और इन 16 में से 9 में नक्सलियों के ट्रेनिंग कैप चलते हैं। लेकिन संथालपरगना के सभी 6 जिलों को नक्सल से मुक्त देश का गृहमंत्रालय मानता है। जबकि मंगलवार को झारखंड के दुमका जिले में नक्सली हमला हुआ है। इस हमले में दुमका से सटे पाकुड जिले के एसपी अमरजीत बलिहार समेत 5 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई। और दो पुलिसकर्मी घायल हो गये। लेकिन हमला जिस तर्ज पर हुआ उसने सरकार के नक्सलियों से भिड़ने के तौर तरीके पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। क्योंकि हमला इतना सुनियोजित था जिससे साफ लगता है कि नक्सलियों की इस इलाके में ना सिर्फ पैठ है बल्कि वह पूरी तरह इलाके में अपनी सरकार चलाते हैं। हमला दुमका और पाकुड की सीमा पर काजीकुंड में हुआ। जिससे एक जिले में हमले को अंजाम देकर दूसरे जिले से भागने या छुपने में इन्हे कोई परेशानी नहीं हुई। नक्सलियों ने हमला झुंड में किया। यानी बड़ी तादाद में नक्सलियो की मौजूदगी इस इलाके में है। जमीनी सुरंग को उस रास्ते पर ही लगाया गया, जिस रास्ते पाकुड एसपी का काफिला डीआईजी के साथ बैठक करने के लिये दुमका गया था। और उसी रास्ते लौटते वक्त विस्फोट से पहले गाड़ी ठस की गई। उसके बाद बंदूकों से पुलिस काफिले को निशाने पर लिया। यानी नक्सलियो को ना सिर्फ इलाके का भूगोल पता है बल्कि हमला करने के बाद राज्य पुलिस या सीआरपीएफ टीम को भी पहुंचने में जितना वक्त लगा उसमें भारी तादाद में हमलावर नक्सली आसानी से टहलते हुये निकल गये।
महत्वपूर्ण यह भी है संथालपरगना में नक्सलियों से प्रभावित माना नहीं गया है तो वहा सुरक्षा के कोई बंदोबस्त भी ऐसे नहीं है, जिससे नक्सली हमले से बचा जा सके। जाहिर है अपनी तरह के इस पहले नक्सली हमले ने जहां बढ़ते रेड कॉरीडोर को दिखला दिया है, वहीं सरकार नक्सलियों के रेडकारिडोर को लेकर किस मिजाज में जीती है इसका अंदेशा भी दे दिया है। महत्वपूर्ण है कि संथाल परगना के सभी छह जिले को नक्सल प्रभावित घोषित करने की मांग लगातार संथाल परगना के सांसद दिल्ली में करते रहे हैं। गोड्डा के सांसद निशीकांत दुबे ने तो 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 2011 में चिदंबरम को 2012 में योजना आयोग और शिंदे को पत्र लिख कर सभी छह जिलों को नक्सल प्रभावित करने की मांग की। और जो हालात नक्सलियों पर नकेल कसने के सरकारी कामकाज के हैं, वह तो सुभान अल्लाह। क्योंकि 92 नये थाने बनाने का एलान 2011 में हुआ , लेकिन बना एक भी नहीं। क़्योकि बजट नहीं है तो 18,000 पुलिसकर्मियों का पद रिक्त पड़ा है। केन्द्र से आये बजट का 44 फिसदी का उपयोग ही नहीं हुआ। साइबर सुरक्षा, सरवाइलेंस सिस्टम और खुफिया ट्रेनिंग स्कूल अब तक नहीं है। दुमका के जिस काजीकुंड में नक्सली हमला हुआ, वहां पुलिस थाना भी नहीं है। और सरकारी दस्तावेज में नक्सल प्रभावित इलाका ना होने की वजह से यहां अर्दसैनिक बलों की कोई तैनाती भी है। इसलिये हमले के बाद यहां पाकुड और दुमका से पुलिस तो पहुंची लेकिन सीआरपीएफ नहीं पहुंच पायी। और जो जानकारी पुलिस ने दी उसके मुताबिक हमलावर नक्सलियो में बडी तादाद में आदिवासी थे।
तो सवाल तीन हैं। क्या झारखंड के आदिवासी नक्सलियों के साथ है। क्या पुलिस पर हमला कर आदिवासी अपने क्षेत्र को आजाद चाहते हैं। और क्या आदिवासियों में सरकारी योजनाओ को लेकर आक्रोश है। यह तीन सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि केन्द्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्री किशोर चन्द्र देव ने 12 दिन पहले ही यह माना कि झारखंड के आदिवासियों में सरकारी योजनाओं और खनन को लेकर बेहद आक्रोश है। मंत्री ने 21 जून को बकायदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पत्र लिखा।
जिसमें लिखा की संविधान की धज्जियां उड़ाते हुये गैर कानूनी तरीके से झारखंड में खनन हो रहा है और इसपर तत्काल रोक लगनी चाहिये। मंत्री ने संविधान के अनुच्चछेद 244 और शिड्यूल 5 का हवाला देकर आदिवासियों के अधिकारों के हनन का आरोप लगाया। और इसके लिये खास तौर से पश्चमी सिंहभूम के सारंडा इलाके का जिक्र किया।
लेकिन महत्वपूर्ण यह भी है कि जिस पाकुड जिले के एसपी की मौत नक्सलियो के हमले में हुई उसी पाकुड के अमरापाडा में पंचवारा कोयले की खादान से कोयला निकाल कर पंजाब भेजा जा रहा है और यहां के आदिवासी लगातार उसका विरोध भी करते रहे हैं। लेकिन कोयला खादान के मालिक बंगाल इमटा और ईसीएल की बपौती ऐसी है कि विरोध करने वाले आदिवासियों को पकड़ कर मारने पीटने का काम पुलिस खादान मालिकों के इशारे पर करती रहती है।
असल में समूचे झारखंड में बीते दस बरस में ढाई दर्जन से ज्यादा ऐसी योजनाओं पर हरी झंडी दी गई है, जो आदिवासियों को उन्हीं की जमीन से बेदखल और संविधान के तहत आदिवासियों के हक के सारे सवाल हाशिये पर ढकेलती है। लेकिन कारपोरेट पैसे और योजनाओं के मुनाफे के खेल में समूचे झारखंड को ही ताक पर रखा गया है। और यही सवाल पहली बार मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के आदिवासी मामलो के मंत्री ने भी उठाया है लेकिन कांग्रेस ने इस दिशा में कोई कदम उटाने के बदले झरखंड में जोड़ तोड़ से सरकार कैसे बने इसके लिये झमुमो के साथ कांग्रेस दिल्ली में बैठक में ही मशगुल है। और त्रासदी देखिये जब हमला हुआ उस वक्त दिल्ली में झारखंड के नेता काग्रेस के साथ बैठकर जोड़-तोड़ की अपनी सरकार बनाने में मशगुल थे। यानी खाकी का खून बहेगा और खादी मौज करेगा। वह भी उस इलाके में जहां 72 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। 73फिसदी महिलाएं एनीमिक हैं और 52 फिसदी बच्चे कुपोषित हैं।
महत्वपूर्ण यह भी है संथालपरगना में नक्सलियों से प्रभावित माना नहीं गया है तो वहा सुरक्षा के कोई बंदोबस्त भी ऐसे नहीं है, जिससे नक्सली हमले से बचा जा सके। जाहिर है अपनी तरह के इस पहले नक्सली हमले ने जहां बढ़ते रेड कॉरीडोर को दिखला दिया है, वहीं सरकार नक्सलियों के रेडकारिडोर को लेकर किस मिजाज में जीती है इसका अंदेशा भी दे दिया है। महत्वपूर्ण है कि संथाल परगना के सभी छह जिले को नक्सल प्रभावित घोषित करने की मांग लगातार संथाल परगना के सांसद दिल्ली में करते रहे हैं। गोड्डा के सांसद निशीकांत दुबे ने तो 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 2011 में चिदंबरम को 2012 में योजना आयोग और शिंदे को पत्र लिख कर सभी छह जिलों को नक्सल प्रभावित करने की मांग की। और जो हालात नक्सलियों पर नकेल कसने के सरकारी कामकाज के हैं, वह तो सुभान अल्लाह। क्योंकि 92 नये थाने बनाने का एलान 2011 में हुआ , लेकिन बना एक भी नहीं। क़्योकि बजट नहीं है तो 18,000 पुलिसकर्मियों का पद रिक्त पड़ा है। केन्द्र से आये बजट का 44 फिसदी का उपयोग ही नहीं हुआ। साइबर सुरक्षा, सरवाइलेंस सिस्टम और खुफिया ट्रेनिंग स्कूल अब तक नहीं है। दुमका के जिस काजीकुंड में नक्सली हमला हुआ, वहां पुलिस थाना भी नहीं है। और सरकारी दस्तावेज में नक्सल प्रभावित इलाका ना होने की वजह से यहां अर्दसैनिक बलों की कोई तैनाती भी है। इसलिये हमले के बाद यहां पाकुड और दुमका से पुलिस तो पहुंची लेकिन सीआरपीएफ नहीं पहुंच पायी। और जो जानकारी पुलिस ने दी उसके मुताबिक हमलावर नक्सलियो में बडी तादाद में आदिवासी थे।
तो सवाल तीन हैं। क्या झारखंड के आदिवासी नक्सलियों के साथ है। क्या पुलिस पर हमला कर आदिवासी अपने क्षेत्र को आजाद चाहते हैं। और क्या आदिवासियों में सरकारी योजनाओ को लेकर आक्रोश है। यह तीन सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि केन्द्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्री किशोर चन्द्र देव ने 12 दिन पहले ही यह माना कि झारखंड के आदिवासियों में सरकारी योजनाओं और खनन को लेकर बेहद आक्रोश है। मंत्री ने 21 जून को बकायदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पत्र लिखा।
जिसमें लिखा की संविधान की धज्जियां उड़ाते हुये गैर कानूनी तरीके से झारखंड में खनन हो रहा है और इसपर तत्काल रोक लगनी चाहिये। मंत्री ने संविधान के अनुच्चछेद 244 और शिड्यूल 5 का हवाला देकर आदिवासियों के अधिकारों के हनन का आरोप लगाया। और इसके लिये खास तौर से पश्चमी सिंहभूम के सारंडा इलाके का जिक्र किया।
लेकिन महत्वपूर्ण यह भी है कि जिस पाकुड जिले के एसपी की मौत नक्सलियो के हमले में हुई उसी पाकुड के अमरापाडा में पंचवारा कोयले की खादान से कोयला निकाल कर पंजाब भेजा जा रहा है और यहां के आदिवासी लगातार उसका विरोध भी करते रहे हैं। लेकिन कोयला खादान के मालिक बंगाल इमटा और ईसीएल की बपौती ऐसी है कि विरोध करने वाले आदिवासियों को पकड़ कर मारने पीटने का काम पुलिस खादान मालिकों के इशारे पर करती रहती है।
असल में समूचे झारखंड में बीते दस बरस में ढाई दर्जन से ज्यादा ऐसी योजनाओं पर हरी झंडी दी गई है, जो आदिवासियों को उन्हीं की जमीन से बेदखल और संविधान के तहत आदिवासियों के हक के सारे सवाल हाशिये पर ढकेलती है। लेकिन कारपोरेट पैसे और योजनाओं के मुनाफे के खेल में समूचे झारखंड को ही ताक पर रखा गया है। और यही सवाल पहली बार मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के आदिवासी मामलो के मंत्री ने भी उठाया है लेकिन कांग्रेस ने इस दिशा में कोई कदम उटाने के बदले झरखंड में जोड़ तोड़ से सरकार कैसे बने इसके लिये झमुमो के साथ कांग्रेस दिल्ली में बैठक में ही मशगुल है। और त्रासदी देखिये जब हमला हुआ उस वक्त दिल्ली में झारखंड के नेता काग्रेस के साथ बैठकर जोड़-तोड़ की अपनी सरकार बनाने में मशगुल थे। यानी खाकी का खून बहेगा और खादी मौज करेगा। वह भी उस इलाके में जहां 72 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। 73फिसदी महिलाएं एनीमिक हैं और 52 फिसदी बच्चे कुपोषित हैं।