Tuesday, December 31, 2013

2014 की उम्मीद तले 62 बरस का अंधेरा

15 अगस्त 1947 को आधी रात जब जवाहरलाल नेहरु भारत को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति का एलान दिल्ली में संसद के भीतर कर रहे थे। उस वक्त देश की आजादी के नायक महात्मा गांधी दिल्ली से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर कोलकत्ता के बेलीघाट में अंधेरे में समाये एक घर में बैठे थे। और शायद तभी संसद और समाजिक सरोकार के बीच पहली लकीर सार्वजनिक तौर पर खींची। क्योंकि आजादी के जश्न को गांधी आजादी के बाद की त्रासदी से इतर देख रहे थे। और बीते 62 बरस की संसदीय राजनीति की सियासत ने गांधी की खींची लकीर को कहीं ज्यादा गहरा और मोटा बना दिया। दर्द यह नहीं कि आज भी कोई अंधेरे कमरे में बैठ देश की आजादी के बाद की त्रासदी पर गुस्से में रहे। दर्द यह है कि इसी दौर में इसी त्रासदी को लोकतंत्र मान लिया गया और उसी लोकतंत्र के सुर में देश की सभी संवैधानिक सस्थायें अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सुर मिलाने लगी। और झटके में देश के 80 फीसदी तक लोगों ने महसूस करना शुरु कर दिया कि भारत के नागरिक होकर भी भारत उनके लिये नहीं। संविधान के मौलिक अधिकारों पर भी उनका हक नहीं। संसद की नीतियां उनके लिये नहीं। पीने का पानी हो या दो जून की रोटी या फिर शिक्षा हो या इलाज या महज एक छत। यह सब पाने के लिये जेब भरी होनी चाहिये और अगर जेब खाली है तो बिना सियासी घूंघट डाले कुछ नसीब हो नहीं सकता। यह रास्ता नेहरु के पहले मंत्रिमंडल की नीतियों से ही बनना शुरु हुआ था और 1991 के बाद सबकुछ बाजार के हवाले करने की नीति ने इसे इतनी हवा दे दी कि झटके में देश का सोशल इंडेक्स ही उड़नछू हो गया। यानी सामाज को लेकर ना कोई जिम्मेदारी सरकार की ना ही बाजार की।

सरकार को बाजार से कमीशन चाहिये और बाजार को समाज से मुनाफा। तो आम आदमी के खून को निचोड़ने से लेकर देश को लूटने का अधिकार पाने के लिये सरकार में आने का खेल एक तरफ और सरकार के साथ मिलकर मुनाफा बनाने-कमाने का खेल दूसरी तरफ। इस खेल में हर कोई जिम्मेदारी मुक्त। इस रास्ते को बदले कौन और बदलने का रास्ता हो कौन सा। ध्यान दें तो बीते 62 बरस की सियासत में कभी यह सवाल नहीं उभरा कि राजनीतिक विचारधारायें बेमानी लगने लगी हैं। संविधान के सामाजिक सरोकार नहीं हैं। सत्ता सरकार और हर घेरे में ताकतवर की अंटी में बंधी पड़ी है। लेकिन पहली बार 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से बनी सत्ता ने महात्मा गांधी की उस लकीर पर ध्यान देने को मजबूर किया जो नेहरु के एतिहासिक भाषण को सुनने की जगह बंद अंधेरे कमरे में बैठकर 15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी ने ही खींची थी। तो क्या मौजूदा वक्त में समूची राजनीतिक व्यवस्था को सिरे से उलटने का वक्त आ गया है। या फिर देश की आवाम अब प्रतिनिधित्व की जगह सीधे भागेदारी के लिये तैयार है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि एक तरफ दिल्ली में ना तो कोई ऐसा महकमा है और ना ही कोई ऐसी जरुरत जो पहली बार नयी सरकार के दरवाजे पर इस उम्मीद और आस से दस्तक ना दे रही हो, जिसे पूरा करने के लिये सियासी तिकड़म को ताक पर रखना आना चाहिये। पानी, बिजली, खाना, शिक्षा, इलाज,घर और स्थायी रोजगार। ध्यान दें तो बीते 62 बरस की
सियासत के यही आधार रहे । और 1952 में पहले चुनाव से लेकर 2014 के लिये बज रही तुतहरी में भी सियासी गूंज इन्ही मुद्दों की है। तो क्या बीते 62 बरस से देश वहीं का वहीं है। हर किसी को लग सकता है कि देश को बहुत बदला है । काफी तरक्की देश ने की है । लेकिन बारीकी से देश के संसदीय खांचे में सियासी तिकड़म को समझे तो हालात 1952 से भी बदतर नजर आ सकते हैं। फिर 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से होने वाले असर को समझना आसान होगा। देश के पहले आम चुनाव 1952 में कुल वोटर 17 करोड 32 लाख थे। और इनमें से 10 करोड़ 58 लाख वोटरों ने वोट डाले थे। और जिस कांग्रेस को चुना उसे 4 करोड़ 76 लाख लोगों ने वोट डाले गये। वहीं 2009 में कुल 70 करोड़ वोटर थे। इनमें से सिर्फ 29 करोड़ वोटरों ने वोट डाले। और जो कांग्रेस सत्ता में आयी उसे महज 11 करोड़ वोटरों ने वोट दिये। जबकि 1952 के वक्त के चार भारत 2009 में जनसंख्या के लिहाज से भारत है। तो पहला सवाल जिस तादाद में 1952 में पानी, शिक्षा , बिजली, खाना, इलाज , घर या रोजगार को लेकर तरस रहे थे 2013 में उससे कही ज्यादा भारतीय नागरिक उन्हीं न्यूतम मुद्दों को लेकर तरस रहे हैं। तो फिर संसदीय राजनीतिक सत्ता कैसे और किस रुप में आम आदमी के हक में रही।

हालांकि लोकतंत्र के पाठ को संविधान के खांचे यह कहकर राजनीति करने वाले दल या राजनेता सही ठहरा देते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का ही यह मिजाज है कि चुनी गई सरकारो को लगातार सबसे ज्यादा वोट दे रहे है और उनकी संख्या लगातार बढ रही है। लेकिन सच यह भी नहीं है। 1977 में ही जिस आपातकाल के बाद पहली बार देश में कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ हवा बही, उस वक्त भी देश के कुल 32 करोड़ वोटरो में से सिर्फ 7 करोड़ 80 लाख वोटरों ने ही जेपी के हक में मोरारजी देसाई को पीएम बनाया। और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर, जो वी पी सिंह 1989 में प्रधानमंत्री बने, उन्हे उस वक्त 1957 की तुलना में भी सत्ताधारी से कम वोट मिले थे। सिर्फ 5 करोड़ 35 लाख। दरअसल, यह आंकडे इसलिये क्योंकि लोकतंत्र और आजादी का मतलब होता क्या है या फिर किसी भी देश में आम आदमी की हैसियत सत्ता के कठघरे में कितनी कमजोर होती है, इसका एहसास पढ़ने वाले को हो जाये। और उसके बाद जिन दो सवालों को 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से बनी सत्ता ने जन्म दिया है उस पर लौटे तो आम आदमी पार्टी ने पहली बार आम आदमी को इसका अहसास कराया कि वोट का महत्व होता क्या है और क्यों हर रईस और गरीब वोट देने के अधिकार के दायरे में अगर बराबर है तो फिर सत्ता संभालने के लिये आम आदमी की शिरकत क्या रंग दिखा सकती है । और पहली बार प्रतिनिधित्व की जगह सीधे सत्ता में भागेदारी क्यों नहीं हो सकती । और अगर सीधी भागेदारी हो सकती है तो फिर जिन्दगी जीने से जुड़े न्यूनतम जरुरत के मुद्दे पूरे क्यों नहीं हो सकते है और सियासी अर्थव्यवस्था की सिरे से उलटा क्यों नहीं जा सकता है। अगर नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के तहत आने वाले सुविधाभोगी नागरिकों की तुलना में देश के तमाम नागरिकों के हालात को परखे तो सरकारी आंकड़े ही यह बताने के लिये काफी होंगे की देश के 13 फीसदी लोग देश के 65 फीसदी लोगों के बराबर संस्थानों का उपभोग कर लेते हैं। और सिर्फ देश के ढाई फीसदी लोगो के पास उपभोग की जो वस्तुये बाजार भाव से मौजूद है, उस तुलना में 52 फीसदी देश के लोग भोगते हैं। तो इतनी असमानता वाले समाज में सत्ताधारी होने का मतलब क्या क्या हो सकता है और सत्ता बनाने बिगाडने या सत्ता को चलाने वाली ताकतें जो भी होंगी उनके लिये भारत जन्नत से कम कैसे हो सकता है और जो ताकत नहीं होंगे, वह कैसे नरक सा जीवन जीने को मजबूर होंगे, यह किसे से छुपा रह नहीं सकता है। तो इसी लकीर को अगर 2013 के दिल्ली चुनावी परिणाम की सीख के
तौर पर परखे तो वह आधे दर्जन मुद्दे जो न्यूनत जरुरत पानी और बिजली शुरु होते हैं। इलाज और भोजन पर रुकते हैं। रोजगार से लेकर एक अदद छत पाने को ही सबसे महत्वपूर्ण मानते है, उससे कैसे सियासी सत्ता की आड़ में 62 बरस से खिलवाड़ होता रहा। यह सब सामने आ सकता है।

2014 के लिये यह सोचना कल्पना हो सकता कि 21 मई 2014 को जब देश में नयी सरकार शपथ लें तो वह वाकई आम आदमी के मैनिफेस्टो पर बनी सरकार हो। जहां राजनीतिक विचारधारा मायने ना रखे। जहा वामपंथी या दक्षिणपंथी धारा मायने ना रखे। जहां जातीय राजनीति या धर्म की राजनीति बेमानी साबित हो। और देश के सामने यही सवाल हो पहली बार हर वोटर को जैसे वोट डालने का बराबर अधिकार है वैसे ही न्यूनतम जरुरत से जुड़े आधे दर्जन मुद्दो पर भी बराबर का अधिकार होगा। तो पानी हो या बिजली या फिर इलाज या शिक्षा । और रोजगार या छत । इस दायरे में देश में मौजूदा अर्थव्यवस्था के दायरे में अगर वाकई प्रति व्यक्ति आय 25 से 30 हजार रुपये सालाना हो चुकी है । तो फिर उसी आय के मुताबिक ही सार्वजनिक वितरण नीति काम करेगी। सरकार के आंकड़े कहते है कि देश में प्रति व्यक्ति आय हर महीने के ढाई हजार रुपये पार कर चुके है तो फिर इस दायरे में तो हर परिवार को उतनी सुविधा यू ही मिल जानी चाहिये जो सब्सिडी या राजनीतिक पैकेज के नाम पर सियासी अर्थव्यवस्था करती है। यह सीख 2013 से निकल कर 2014 के लिये इसलिये दस्तक दे रही है क्योंकि दिल्ली चुनाव में जो जीते है वह पहली बार सरकार चलाने के लिये सत्ता तक चुनाव जीत कर नहीं पहुंचे बल्कि समाज में जो वंचित है, उन्हें उनके अधिकारों को पहुंचाने की शपथ लेकर पहुंचे हैं। और पारंपरिक राजनीति के लिये यह सोच इसलिये खतरनाक है क्योंकि यह परिणाम हर अगले चुनाव में कही ज्यादा मजबूत होकर उभर सकते हैं। क्योंकि 2014 के चुनाव के वक्त देश में कुल 75 से 80 करोड़ तक वोटर होंगे। और पारंपरिक राजनीति को सत्ता में आने के लिये 12 से 15 करोड वोटर की ही
जरुरत पड़ेगी। लेकिन यह आंकडे तब जब देश में 35 से 37 करोड़ तक ही वोट पड़ें । लेकिन आम आदमी की भागेदारी ने अगर दिल्ली की तर्ज पर 2014 में समूचे देश में वोट डाले तो वोट डालने वालों का आंकड़ा 45 से 50 करोड़ तक पहुंच सकता है। यानी जो पारंपरिक राजनीति 12 से 15 करोड तक के वोट से सत्ता में पहुंचने का ख्वाब देख रही है, उसके सामानांतर झटके में आम आदमी 8 से 10 करोड़ नये वोटरो के साथ खड़ा होगा और जब पंरपरा टूटती दिखेगी तो 5 करोड़ वोटर से ज्यादा वोटर जो जातीय या धर्म के आसरे नहीं बंधा है या खुद को हर बार छला हुआ महसूस करता है, वह भी खुद को बदल सकता है। तब देश में एक नया सवाल खड़ा होगा क्या वाकई काग्रेस -भाजपा या क्षत्रपो की फौज अपने राजनीतिक तौर तरीको को बदलगी। क्योंकि आम आदमी की अर्थव्यवस्था को जातीय खांचे या वोट बैंक की राजनीति या फिर मुनाफा बनाकर सरकार को ही कमीशन पर रखने वाली निजी कंपनियो या कारपोरेट की अर्थव्यवस्था से अलग होगी । तब क्या विकास का सवाल पीछे छूट जायेगी। या फिर 1991 में विकास के नाम पर जिस कारपोरेट या निजी कंपनियो के साथ सियासी गठजोड ने उड़ान भरी उसपर ब्रेक लग जायेगा । यह सवाल आपातकाल से लेकर मंडल-कंमडल या खुली बाजार अर्थव्यवस्था के दायरे में बदली सत्ता के दौर में मुश्किल हो सकता है। लेकिन 2013 के बाद यह सवाल 2014 में मुश्किल इसलिये नहीं है क्योंकि अरविन्द केजरीवाल ने कोई राजनीतिक विचारधारा खिंच कर खुद पर ही सत्ता को नहीं टिकाया है बल्कि देश के सामने सिर्फ एक राह बनायी है कि कैसे आम आदमी सत्ता पलट कर खुद सत्ताधारी बन सकता है । इसलिये दिल्ली में केजरीवाल फेल होते हैं या पास सवाल यह नहीं है। सवाल सिर्फ इतना है कि 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम ने 2014 के चुनाव को लेकर एक आस एक उम्मीद पैदा की है कि आम आदमी अगर चुनाव को आंदोलन की तर्ज पर लें तो सिर्फ वोट के आसरे वह 62 बरस पुरानी असमानता की लकीर को मिटाने की दिशा में बतौर सरकार पहली पहल कर सकता है।

Thursday, December 26, 2013

क्यों दिल्ली की सत्ता संभालने में बेखौफ हैं केजरीवाल?

दिल्ली की सरकार को लेकर एक सस्पेंस है। जो किसी को डरा रहा है। किसी को सुख की अनुभूति दे रहा है। किसी को नौसिखिये का खेल लग रहा है। किसी को बदलती सियासी बिसात की खूशबू आ रही है। सस्पेंस में ऐसा है क्या और क्या वाकई दिल्ली की राजनीति समूचे देश को प्रभावित कर सकती है। यह ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब भविष्य के गर्भ में हैं। लेकिन परिस्थितियों को पढ़ें तो कांग्रेस के माथे की शिकन भाजपा की सियासी उड़ान पर लगाम और केजरीवाल की मासूम मुस्कुराहट सस्पेंस को लगातार बढ़ा भी रही है और रास्ता भी दिख रही है। ध्यान दें तो समूची राजनीति का शोध मौजूदा वक्त में गवर्नेंस के उस सच पर आ टिका है जो पारंपरिक आंकड़ों के डिब्बे में बंद है। इसलिये बिजली बिल में पचास फीसदी की कमी और सात सौ लीटर मुफ्त पानी देने के केजरीवाल के वादे को पूरा करने या ना करने पर ही दिल्ली सरकार का पहला सस्पेंस टिका है। जाहिर है आंकड़ों के लिहाज से बिजली-पानी की सुविधा परोसने के केजरीवाल के वादे को परखें तो हर किसी को लगेगा कि यह असंभव है। सब्सिडी पर ही संभव है, लेकिन वह भी कब तक। हजारों-करोड़ों रुपये का खेल हर किसी को नजर आने लगेगा। और फिर शुरु होगा राजनीतिक फेल-पास का आंकलन। लेकिन
यहीं से आम आदमी पार्टी की राजनीति के उस पाठ को भी पढ़ना जरुरी है जो मौजूदा राजनीति के तौर तरीकों के खिलाफ खड़ा हुआ। दिल्ली वालों को अच्छा लगा कि कोई तो है जो उनकी रसोई, उनके घर के भीतर झांक कर बाहरी दरवाजे पर लगे परदे के अंदर के उस सच को समझ रहा है कि आखिर सत्ता की नीतियों तले कैसे हर घर के भीतर लोगो का भरोसा राजनेताओ से डिग चुका है। जीने के लिये जिस रोजगार को करने या रोजगार की तालाश में हर घर से कोई ना कोई काम पर निकलता तो उसे यह पता होता है कि हर दिन नौ से बारह घंटे काम करने के बाद भी उसे अगले दिन उसी जद्दोजहद में निकलना है, जहां उसे आराम नहीं है।

लेकिन मोहल्ले या इलाके का कोई शख्स बिना काम किये राजनीति करते करते हर सुविधा ना सिर्फ जुगाड़ता चला जाता है बल्कि झटके में एक दिन पार्षद, विधायक या सांसद बनकर हेकड़ी दिखाता है और हर उस पढ़े-लिखे आम आदमी की जिन्दगी जीने के तौर तरीके तय करना लगता है, जिसने हमेशा रोजगार पाने के
लिये पढ़ाई से लेकर हर उस ईमानदार सोच को जीया, जिससे उसका जीवन बेहतर हो सके। तो पहली बार केजरीवाल ने हर आम आदमी के घर के दरवाजे पर लगे चमकते पर्दे को उठाकर घर के अंदर की बदहाली को अपनी राजनीतिक बिसात में जगह दी । इसलिये बिजली-पानी का सवाल दिल्ली के माथे पर चुनावी जीत हार तय करने वाला हो गया, इससे किसी को इंकार नहीं है। लेकिन अब सवाल आगे है। इसे पूरा कैसे किया जायेगा। दिल्ली में किसी भी नौकरशाह या कांग्रेस-बीजेपी की कद्दावर-समझदार नेता से पूछ लीजिये। उसका जवाब होगा। असंभव। फिर वह मौजूदा व्यवस्था को समझाएगा। दिल्ली को खुद 900 मेगावाट बिजली पैदा करती है। जबकि दिल्ली की जरुरत छह हजार मेगावाट की है। बाकी वह निजी कंपनियों से खरीदती है। जिसमें अनिल अंबानी की बीएसईएस से 65 फिसदी तो टाटा से 30 फिसदी। लुटियन्स की दिल्ली के लिये एनडीएमसी 5 फिसदी बिजली देती है। कुल 27 पावर प्लांट हैं। एनटीपीसी, एनएसपीसी सरीखे आधे दर्जन
कंपनियों से भी करार हैं। सिंगरौली से लेकर सासन तक से बिजली लाइन दिल्ली के लिये बिछी है। हर निजी कंपनी से अलग अलग करार है। प्रति यूनिट बिजली एक रुपये बीस पैसे से लेकर छह रुपये तक खरीदी जाती है। औसतन चार रुपये प्रति यूनिट बिजली पड़ती है। और उसमें ट्रासंमिशन, लीकेज सरीखे बाकि खर्चे जोड़ दिये जायें तो पांच रुपये प्रति यूनिट बिजली की कीमत पड़ती है। अब इसे आधी कीमत में केजरीवाल बिना सब्सिडी कैसे लायेंगे। जाहिर है इसी तरह 700 लीटर मुफ्त पानी देने का सवाल भी राजनेताओं के आंकड़े और नौकरशाहों के गणित में दिल्ली सरकार के सस्पेंस को बढ़ा सकता है कि कैसे यह सब पूरा होगा। लेकिन अब जरा यह सोचे कि जो राजनीति हाशिये पर पड़े लोगों के घरों के बाहरी दरवाजों पर लगें पर्दे को उठाकर भीतर झांक कर सरोकार बनाने को ही राजनीति बना लें तो क्या इन आंकड़ों का कोई महत्व है। तो जरा इसके उलट सोचना शुरु करें। मुख्यमंत्री पद की शपद लेते ही केजरीवाल 700 लीटर मुफ्त पानी देने का एलान कर देते हैं।

इसका असर क्या होगा। पानी की सप्लाई तो जारी रहेगी। हां जब बिल आयेगा तो उसमें 700 लीटर पानी का बिल माफ होगा। जाहिर है जितना पानी लुटियन्स की दिल्ली, पांच सितारा होटल और दक्षिणी दिल्ली के 3 फिसदी लोग [ दिल्ली की जनसंख्या की तुलना में ] पानी का उपभोग करते हैं, अगर उनमें से सिर्फ 9 फिसदी पानी की कटौती कर जाये या फिर उनके बिल में 12 फीसदी का इजाफा कर दिया जाये तो समूची दिल्ली को 700 लीटर मुफ्त पानी देने में केजरीवाल को कोई परेशानी नहीं होने वाली। और मुख्यमंत्री बनने के 48 घंटे के भीतर ही अगर केजरीवाल बिजली बिल में भी 50 फिसदी की कटौती का एलान कर देते हैं तो क्या होगा। बिजली सप्लाई में तो कोई असर नहीं पड़ेगा। हां, कुछ निजी कंपनियां सिरे से यह सवाल उठा सकती है कि उनकी भरपाई कैसे होगी। और उसके बाद केजरीवाल अगर निजी कंपनियों को कहते हैं कि या तो बिल कम करो या बस्ता बांधो तो क्या होगा। जाहिर है कोई निजी कंपनी अपना बस्ता नहीं बांधेगी। और हर कीमत पर केजरीवाल की बात को मानने लगेगी। क्योंकि देश में बिजली की दरें किस आधार पर तय होती हैं, यह आज भी किसी को नहीं पता। फिर दिल्ली को ही सासन से सप्लाइ होने वाली बिजली एक रुपये बीस पैसे प्रति यूनिट मिलती है और सिंगरौली से मिलने वाली बिजली 3.90 पैसे प्रति यूनिट। इतना अंतर क्यों है, यह भी किसी को नहीं पता। ध्यान दें तो जबसे देश में बिजली निजी क्षेत्र को सौंपी गयी और उसके बाद
सिलसिलेवार तरीके से कोयला से लेकर पानी और जमीन से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर त निजी कंपनियों के जिस सस्ते दाम में दे दिया गया और उस पर बैक ने भी बिना कोई तफतीश किये सबसे कम इंटरेस्ट पर बिजली कंपनियों को रुपये बांटे वह अपने आप में एक घोटाला है। और इसका सबूत कोयला खादानों के बंदर बांट से लेकर झारखंड सरकार के सीएम रहे मधु कोड़ा पर लगे आरोपों के साये में देखा-समझा जा सकता है। इतना ही नहीं एनरॉन इसका सबसे बडा उदाहरण है कि कैसे वह खाली हाथ सिर्फ प्रोजेक्ट रिपोर्ट के आधार पर अरबों रुपये लूटने की योजना के साथ भारत में कदम रखा था। और एनरान के बाद टाटा से लेकर अंबानी समेत देश के टापमोस्ट 22 कंपनिया क्यो बिजली उत्पादन से जुड़ी है। और कैसे देश में सौ से ज्यादा पावर प्रोजेक्ट के लाइसेंस राजनेताओं के पास है। जिसमें कांग्रेस के राजनेता भी है और भाजपा के भी। और यह सभी बेहद कद्दावर राजनेता हैं। तो फिर बिजली उत्पादन से जुडकर बिजली बेचकर मुनाफा कमाने के खेल में कितना लाभ है।

अगर इसके आंकडे पर गौर करें तो बिजली उत्पादन करने वाली हर कंपनी के टर्न ओवर में 80 फीसदी तक का मुनाफा बिजली बेच कर कमाने से है। कोयला खादान किस कीमत में दिये गये और कैसी कैसी
कंपनियों के दिये गये यह कोयला घाटाले पर सीएजी की रिपोर्ट आने के बाद किसी से छुपा नहीं है। बेल्लारी से लेकर झारखंड और उडीसा तक में कैसे निजी कंपनियो के विकास मॉडल या इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर औने पौने दाम में कैसे खनिज संपदा लूटी जा रही है, यह किसी से छुपा नहीं है। और इसकी एवज में कैसे राजनितिक दलों या फिर राजनेताओं की अंटी में कितना पैसा जा रहा है, जो चुनाव लडते वक्त निकलता है यह भी किसी से छुपा नहीं है। तो कैसे मौजूदा वक्त में संसद के भीतर ही चुने हुये सौ से ज्यादा सांसदों के पीछे कोई ना कोई कारपोरेट है, यह भी किसी से छुपा नहीं है। तो फिऱ जो कारपोरेट और निजी कंपनियां भारत में क्रोनी कैपटिलिज्म से आगे निकल कर खुद ही सत्ता में दस्तक दे रहा है, वह कैसे और क्यो नहीं केजरीवाल की बात मानेगा। असल में कांग्रेस और भाजपा दोनों यह मान कर सियासत कर रहे हैं कि पारंपरिक तौर तरीके में केजरीवाल फंसेंगे। लेकिन दोनों ही राष्ट्रीय राजनीतिक दल इस सच को समझ नहीं पा रहे हैं कि देश में विकास के नाम पर या फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर जिस तरह की जो नीतियां बनी और उन्हें जिस आंकड़े तले परोसा गया, वह देश के उन बीस फिसदी लोगों की सोच से आगे निकल नहीं पाया जो उपभोक्ता हैं या फिर कमाई के जरिये बाजार अर्थव्यवस्था के नियम कायदों को बनाये रखने में ही खुद को बेहतर मानते हैं और सुकून का जीवन देखते हैं। बाकि हाशिये पर पड़े देश के अस्सी फीसदी के लिये जो कल्याण योजनायें निकलती हैं, वह देश की उसी रुपये से बांटी जाती है जिसे निजी कंपनियों या कारपोरेट के आसरे कही ज्यादा कमाई की गई होती है। इसलिये दिल्ली को लेकर केजरीवाल की रफ्तर सिर्फ बिजली या पानी तक रुकेगी ऐसा भी नहीं। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और डीटीसी से लेकर मेट्रो तक में 72 हजार लोग जो कान्ट्रेक्ट पर काम कर रहे हैं, सभी को स्थायी भी किया जायेगा और जो झुग्गी झोपडी राजनीतिक वायदो तले अपने होने का एहसास करती थी उन्हे खुले तौर पर मान्यता भी मिल जायेगी। यह सब केजरीवाल हफ्ते भर में कर देंगे। फिर सवाल होगा जो पैसा दिल्ली के विकास या इन्फ्रास्ट्रक्चर को पूरा करने के नाम पर खर्च नीतियो के जरीये किया जाता रहा वह मोहल्ला सभाओं के जरीये तय होगा तो बिचौलिये और माफिया झटके में साफ हो जायेंगे, जिनकी कमाई का आंकड़ा कमोवेश हर विभाग में एक हज़ार करोड़ से 20 हजार करोड़ तक का है। जाहिर है लूट की राजनीति से इतर केजरीवाल की सियासी बिसात जब दिल्ली में अपने मैनिफेस्टो को लागू कराने के लिये उन्हीं कारपोरेट और निजी कंपनियों पर दबाब बनायेगी तब दिल्ली छोड़कर बाकि देश में लूट में खलल ना पडे इसलिये वह समझौता कर लेंगी या फिर कांग्रेस और भाजपा के दरवाजे पर जा कर दस्तक देंगी कि सरकार गिराये नहीं तो लूट का इन्फ्रास्ट्रक्चर ही टूट जायेगा। जाहिर है इन हालात में केजरीवाल की सरकार भी अगर गिर जाती है तो फिर चुनाव में देश का आम आदमी क्यों सोचेगा। कांग्रेस को यह डर होगा। लेकिन जिस रास्ते केजरीवाल की सियासी बिसात बिछ रही है, उसमें कांग्रेस या भाजपा अब छोटे खिलाड़ी हैं। एक वक्त के बाद तय देश के उसी कारपोरेट को करना है जिसने मनमोहन सरकार पर यह कहकर अंगुली उंठायी कि गवर्नेंस फेल है और वह नरेन्द्र मोदी के पीछे इसलिये खड़ा हो गया कि गवर्नेंस लौटेगी। लेकिन इस सियासी दौड़ में किसी ने हाशिये पर पड़े लोगों के घरों के पर्दे के भीतर झांक कर नहीं देखा कि हर घर के भीतर की त्रासदी क्या है। पहली बार वह दर्द उम्मीद बनकर केजरीवाल के घोषणापत्र तले उभरा है और संयोग से उस बिसात को ही बदल रहा है जिसे आजादी के बाद से किसी राजनीतिक दल ने नहीं छुया। तो लडाई तो वाकई दिये और तूफान की है। और तूफान पहली बार अपनी ही बिसात पर फंसा है।

Thursday, December 19, 2013

केजरीवाल की बिसात पर राहुल और मोदी

दिल्ली का 24 अकबर रोड यानी कांग्रेस हेडक्वार्टर हो या 10 अशोक रोड यानी बीजेपी हेडक्वार्टर, दोनों ही जगह 8 दिसंबर को एक अजीबो-गरीब खामोशी थी। शाम में दोनों ही हेडक्वार्टर में 2014 के पीएम पद के दावेदार मीडिया के सामने आये। हाथों को हवा में लहराने की जगह पीछे हाथ को बांध कर राहुल गांधी ने
जिस खामोशी से चुनावी हार मानी और नरेन्द्र मोदी ने ढोल नगाड़ों के बीच भी जिस शालीनता से हाथ जोड़कर अभिवादन भर किया, उसने पहली बार यह संकेत तो दे दिये कि चुनाव परिणाम ने दोनों ही राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को अंदर से हिला दिया है। क्योंकि देश का राजनीतिक मिजाज पहली बार एक ऐसे विकल्प को मान्यता देने को तैयार है जो पारंपरिक राजनीति से इतर हो। और दिल्ली के चुनावी परिणाम ने कांग्रेस और बीजेपी को डरा दिया है। वजह भी यही रही कि 8 दिसंबर के बाद बीते बीते दस दिनो में राहुल गांधी आधे दर्जन से ज्यादा बार मीडिया से रुबरु हुये। इन्हीं दस दिनों में नरेन्द्र मोदी ने सिर्फ एक रैली को संबोधित किया, जिसमें दिल्ली के चुनाव परिणाम पर खामोशी बरती। और हो यही रहा है कि केजरीवाल के राजनीतिक प्रयोग ने राहुल गांधी को कांग्रेस के भीतर केजरीवाल बनने को मजबूर कर दिया है। तो नरेन्द्र मोदी बीजेपी के कांग्रेस विरोधी राजनीतिक प्रयोग से आगे निकल नहीं पा रहे हैं। यूपी और बिहार के क्षत्रप मुलायम सिंह यादव को केजरीवाल की सफलता पानी के बुलबुले सरीखे लग रही है तो लालू यादव को केजरीवाल बहुरुपिया लग रहे हैं। तो क्या दिल्ली के चुनाव परिणाम आने के बाद झटके में केजरीवाल वर्सेज ऑल के हालात राजनीतिक तौर पर देश में उभर गये हैं। इसीलिये वैचारिक विरोध होने के बावजूद काग्रेस और बीजेपी केजरीवाल को धराशायी करने वाले मुद्दों पर एक होने से नहीं कतरा रहे हैं। और लोकपाल का 45 बरस बाद संसद में पास होना क्या इसी का प्रतीक है।

यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि लोकपाल को लेकर तब तक कांग्रेस और बीजेपी में सहमति नहीं बनी जब तक चुनावी राजनीति में जनलोकपाल का सवाल उठाकर आंदोलन करने वाली आम आदमी पार्टी को सफलता नहीं मिली। याद कीजिये तो कांग्रेस के साथ खड़ी समाजवादी पार्टी हमेशा लोकपाल का विरोध करती रही और सरकार चलती रहे इसलिये कांग्रेस ने कभी लोकपाल पर वह हिम्मत नहीं दिखायी जो दिल्ली के चुनाव परिणाम आने के बाद राहुल गांधी से लेकर समूची कांग्रेस ने बोल बोल कर दिखा दिये। जबकि समाजवादी पार्टी आज भी लोकपाल का विरोध कर रही है। तो पहला सवाल मुलायम के समर्थन पर आम आदमी की चुनावी सफलता अब कांग्रेस को कही ज्यादा खतरनाक लगने लगी है। और दूसरा सवाल, तो क्या यह माना जाये कि लोकपाल की तर्ज पर ही अगर देश में  महिला आरक्षण को लेकर भी कोई आंदोलन खड़ा हो और फिर वही आंदोलन राजनीतिक पार्टी में तब्दील होकर चुनावी राजनीति में बाजी मार लें तो महिला आरक्षण भी संसद में पास हो जायेगा। क्योंकि महिला आरक्षण का विरोध करने वाले भी वही मुलायम और शरद यादव सरीखे नेता हैं, जो कांग्रेस और बीजेपी के एक होने पर महिला आरक्षण को भी संसद में पास होने से रोक नहीं पायेंगे। यानी केजरीवाल ने पहली बार उस राजनीतिक व्यवव्सथा में सेंध लगा दी है जो सत्ता के जोड तोड में ही आम जनता को उलझाये रखती है और मुद्दो के नाम पर नूरा-कुश्ती इसलिये करती है जिससे राजनीतिक दलों की उपयोगिता बनी रहे। यानी मंडल-कंमडल के बाद पहली बार देश का आम आदमी एक ऐसी राजनीति को देख रहा है, जहां उससे जुड़े मुद्दे उसी के जरीये चुनावी जीत या हार पैदा कर उसे ही सत्ता में पहुंचा रहे हैं।

यानी दिल्ली के चुनाव परिणाम ने जतला दिया है कि देश के आम वोटर ने अगर यह मन बना लिया है या फिर मन में यह मान लिया है कि सभी सत्ताधारी एक सरीखे होते हैं चाहे वह कांग्रेस हो या बीजेपी या फिर जातीय समीकरण पर क्षत्रपों की सत्ता। तो फिर 2014 को लेकर चल रही राहुल गांधी या कांग्रेस की रणनीति हो या फिर बीजेपी पर भारी नरेन्द्र मोदी। या मुलायम सिंह यादव और वामपंथियो का तीसरे मोर्चे का सपना। सबकुछ धरा का धरा रह सकता है ,अगर यह परिस्थितियां वाकई 2014 के लोकसभा चुनाव में तेजी पकड़ ले गईं तो।

जाहिर है, ऐसे में संसद में पास लोकपाल क्या वाकई आम लोगों के जहन में सत्ताधारियों को लेकर बढ़ते आक्रोश को थाम सकेगा। क्योंकि संसद के गलियारे में लोकपाल का जश्न तो यही एहसास कराता है कि जिस जनलोकपाल के आंदोलन से दो बरस पहले संसद थर्रायी थी, उसी संसद ने जब लोकपाल पास कर दिया तो आम आदमी का आक्रोश भी खत्म हो गया। लेकिन जमीनी सच है क्या। खासकर यूपीए -2 के दौर के भ्रष्टाचार के पैमाने में अगर संसद के जश्न को गौर करें तो हर किसी को 2 जी स्पेक्ट्रम, कोयला घोटाला और कॉमनवेल्थ घपले जरुर याद आयेंगे। क्योंकि यह तीन धब्बे यूपीए 2 की खास पहचान हैं और इसके कटघरे में पहली बार सरकार, नौकरशाह और कॉरपोरेट तीनो आये। और सरकार पर निगरानी रखने वाले मीडिया के नामचीन चेहरे भी दायरे में आये। तो देश में पहली बार हर स्तर पर यह सवाल उठा की रास्ता निकलेगा कैसे। क्योंकि देश की सबसे बडी जांच एजेंसी भी इसी दौर में सरकारी पिजंरे में कैद तोता करार दे दी गयी। तो हर किसी के सामने दो सवाल सबसे बड़े थे। अगर प्रधानमंत्री के दामन पर दाग लगे तो उसकी जांच कौन करेगा। और जांच करने वाली एजेंसी सीबीआई ही अगर सरकार के अधीन है तो वह अपने ही बास पीएम की जांच सामने आने पर क्या करेगी।

क्योंकि जैसे ही सीबीआई पीएम से पूछताछ करेगी वैसे ही नैतिकता के आधार पर पीएम से इस्तीफे की मांग देश में सबसे महत्वपूर्ण हो जायेगी। फिर ध्यान दें तो 2जी घोटाले की जांच हो या फिर कोयला घोटाले की जांच दोनों ही जांच सीबीआई कर जरुर रही है लेकिन यह जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही है। यानी इन घोटालो में सरकार की भूमिका ही नहीं बल्कि सीबीआई जांच में सरकार की भूमिका को लेकर भी सवाल उठे। इसलिये सुप्रीम कोर्ट ने सीधे कमान अपने हाथ में ली। ऐसे में अब सवाल है कि लोकपाल अगर पहले से होता तो क्या देश में सरकार के स्तर पर घोटाले ना होते। घोटाले होते तो जांच के लिये हंगामा ना मचता।
हंगामा नहीं मचता तो आरोपी दोषी भी साबित होता। वह भी एक समयसीमा में। तो आखरी सवाल यह खड़ा होता है कि क्या वाकई पीएम और सीबीआई को लेकर जो सवाल जंतर-मंतर और रामलीला मैदान से उठे थे उनका समाधान हो गया या फिर यह फरेब है जैसा अरविन्द केजरीवाल लगातार कह रहे हैं। असल में लोकपाल के दायरे में पीएम पर लगने वाले आरोपो को भी खास प्रावधान के तहत जांच के दायरे में रखा गया है। और सीबीआई को भी सिर्फ लोकपाल के किसी जांच के दौरान ही लोकपाल के अधीन रखा गया है। यानी पीएम के लिये सामान्य कटघरा न है और सीबीआई भी सामन्य परिस्थिति में स्वतंत्र है। और सबसे महत्वपूर्ण है कि लोकपाल हो या राज्यो में लोकायुक्त दोनों चाहे राजनेता ना बन पाये। लेकिन दोनो की नियुक्ति में राजनेताओं की ही सबसे बड़ी भूमिका होगी। और तो और लोकपाल को हटाने की शुरुआत भी उसी संसद से होगी, जिस संसद में मौजूदा दौर में 242 सांसद दागी हैं। क्योंकि 100 सांसद लोकपाल के खिलाफ लिख कर देंगे तो ही सुप्रीम कोर्ट जांच करेगा और जांच में अगर लोकपाल का कोई सदस्य दोषी पाया गया तो सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति से सस्पेंड करने की गुहार लगायेगा। इसी तर्ज पर लोकायुक्त की नियुक्ति से लेकर सस्पेंड कराने तक में उसी विधानसभा की भूमिका बड़ी होगी, जिसमें दागी नेताओ की भरमार है। तो सवाल यही है कि राहुल गांधी हों या नरेन्द्र मोदी या जातिय राजनीति के आधार पर टिके क्षत्रप वह अरविन्द केजरीवाल से घबराये हुये इसीलिये हैं क्योंकि केजरीवाल पहली जनता की भागेदारी से आगे निकल कर आम आदमी को ही सत्ताधारी बनाने का रास्ता दिखा रहे हैं। और सियासत अब भी तिकड़मों के आसरे खुद को पाक साफ बताने-बनाने पर चल रही है।

Thursday, December 12, 2013

सियासत की नयी परिभाषा गढ़ी केजरीवाल ने

अन्ना हजारे जनलोकपाल को लेकर रालेगणसिद्दी में सिमट गये हैं। तो जनलोकपाल पर संघर्ष के आसरे आम आदमी पार्टी दिल्ली की सत्ता पर दखल देने की स्थिति में आ गयी है और संसद में एक बार फिर लोकपाल को लेकर गहमागहमी शुरु हो चुकी है। तो बरस भर में नजारा बदल भी गया और बरस भर बाद सारे नजारे 360 डिग्री में घूम भी गये। याद कीजिये तो दो बरस पहले रामलीला मैदान से जनलोकपाल को लेकर जो जन लहर उठी थी, उसने संसद की सांस बांध दी थी। और दिसंबर 2011 में ही लोकपाल को लेकर जो हुआ उसे जनीतिक दलों ने ही नाटक करार दिया था। और संयोग देखिये उसी जनलोकपाल को लेकर रालेगण सिद्दी में अनशन पर बैठे अन्ना हजारे के इर्द-गिर्द की तस्वीर बदल चुकी है। दो बरस पहले जनलोकपाल आंदोलन में साये की तरह रहने वाले अरविन्द केजरीवाल की जगह पत्रकार संतोष भारतीय ने ले ली है। मंच पर साये की तरह दिखने वाले कुमार विश्वास, गोपाल राय और संजय सिंह को अब मंच की जगह जमीन पर भीड का हिस्सा बनना पड़ रहा है।

और संसद में फिर लोकपाल बिल को लेकर हरकत वही पार्टी शुरु कर रही है, जिसने इसे ठंडे बस्ते में डाला था। संसद के पटल पर सरकार लोकपाल बिल रखेगी। उसमें कुछ संसोधन का प्रस्ताव लायेगी। जिसपर लोकसभा में मुहर लगने के बाद उसे राज्यसभा में सोमवार को बहस के लिये लाया जायेगा। तो अब सवाल है  जनलोकपाल आंदोलन से निकली राजनीतिक पार्टी भी जीत कर सियासी मैदान में हो और अन्ना का अनशन भी सामाजिक दबाव बना रहा है। तो क्या वाकई इस बार लोकपाल जोकपाल ना होकर वाकई जनलोकपाल के तौर पर मंजूर हो जायेगा ।

अभी यह सवाल है लेकिन आकलन अब यही हो रहा है कि जब आंदोलन भी सफल और आंदोलन से निकली राजनीति भी सफल तो फिर संसद अलग राह कैसे पकड़ सकती है। लेकिन बदलती राजनीति और गिरते पारंपरिक राजनीतिक खंभों के बीच भी हर कोई अब आस्तित्व की लड़ाई लड़ने लगा है क्योंकि उसे लगने लगा है कि 2014 समूची सियासी बिसात ही बदल देगी। शायद इसीलिये आम आदमी पार्टी की इस भीड़ में ऐसा कोई खास दिखायी नहीं देगा, जिस पर नजर टिके तो टिकी रह जाये। ना ही इसमें कोई जमीनी नेता होने का दावा करने वाला है ना ही कोई चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुआ है। हफ्ता भी नहीं हुआ जब आम आदमी पार्टी के विधायकों के चेहरे सड़क पर नारे लगाते हुये धूल फांक रहे थे और दिल्ली की विधानसभा से लेकर संसद के गलियारे तक में कभी इन्हें तरजीह देना तो दूर इन पर चर्चा भी जरुरी नहीं समझी गयी। फिर ऐसा क्या है कि दिल्ली के जनादेश से निकलती आवाज पर या तो बडे बडे नेताओं की धिग्घी बंधी है या फिर जोकर या बुलबुला कहकर खारिज करने पर आ तुले हैं। वजह इसकी है क्या। जाहिर है आम आदमी पार्टी के तमाम नेता मौजूदा दौर के राजनेताओं से एकदम अलग हैं। और मौजूदा दौर के तमाम राजनेता चाहे अलग अलग राजनीतिक दल में हो लेकर बीते ढाई दशक में हर नेता एक सरीखा लगने लगा और हर राजनीतिक दल सत्ता के लिये ही संघर्ष करती नजर आयी। इसलिये विचारधारा गायब हुई। सत्ता समीकरण लोकतंत्र का आखिरी सच बन गया। और सभी राजनीतिक दल सत्ता के लिये दौड़ते हाफ्ते दिखायी देने लगे। जाहिर है इसमें पहली बार ब्रेक दिल्ली से निकले उस जनादेश ने लगायी जो पारंपरिक राजनीति से ऊब चुकी है। सरोकार के बदले सत्ता की हनक वाली राजनीति से डरने लगी है। सत्ता को लूट का पर्याय बना चुकी है। यानी परिवर्तन की लहर या विचारधारा के बदले सिर्फ और सिर्फ कामनसेंस मायने रख रहा है। और ध्यान दें तो आम आदमी पार्टी उसी कामनसेंस की बात कर रही है जो संविधान में दर्ज है। जो भारतीय लोकतंत्र की पहचान है। संयोग से बीते ढाई दशक की सियासत ने इसी कामनसेंस की समझ को ही ही ताक पर रख ऐसी सियासी बिसात बिछायी की वही आम आदमी ही हाशिये पर चला गया, जिसके भरोसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने का तमगा भारत पाये हुये है। और अब आम आदमी ही जब जनादेश से खद्दरधारी पांच सितारा नेताओं को बदलने को कह रहा है तो उन्हे कोई जोकर तो कोई पानी का बुलबुला मान कर अपनी ठसक बरकरार रखना चाह रहा है। यानी सत्ता पाने के लिये चुनाव नहीं लड़ा जाता या फिर सत्ता के लिये ही चुनाव लड़ा जाता है, यह भी उलझन बनेगी यह भी किसी ने नहीं सोचा होगा। लेकिन इतिहास के पन्नों को पलटे तो कई सच अबके दौर में बेमानी लगेंगे।

मसलन सत्ता अगर बहुमत के आंकड़ों से चलती है तो सबसे ज्यादा सीट राजीव गांधी को 1984 में मिली। लोकसभा में दो तिहाई से ज्यादा। इस तुलना में 1957 में नेहरु की अगुवाई में काग्रेस को 371 सीटें मिली। उस वक्त कांग्रेस ने 490 सीटों पर उम्मीदवारों को खड़ा किया था। और उसके बाद 1971 युद्द के तुरंत बाद इंदिरा गांधी को 352 सीट मिलीं। दो तिहाई से महज 13 सीट कम। लेकिन हुआ क्या। नेहरु के दौर को छोड़ दें तो राजीव गांधी और इंदिरा गांधी इतनी बड़ी सफलता के गर्त में ही डूबी।

भ्रष्टाचार की छांव में राजीव गांधी और इमरजेन्सी तले इंदिरा गांधी की सत्ता पांच बरस के कार्यकाल से पहले ही लड़खड़ायी और विकल्प के तौर पर आंदोलन करते हुये सियासी अलख जगा कर सत्ता में आये वीपी सिंह 143 सीट पाकर भी पांच बरस का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये और जेपी आंदोलन से निकली जनता पार्टी की अगुवाई करते मोरराजी देसाई 295 सीट पाकर भी दो बरस में लड़खड़ा गये। तो पहला सवाल -बहुमत पा कर अकेले सत्ता हो या गठबंधन के जरिये मिली सत्ता दोनों फेल हो सकती हैं।

और इस लकीर को आगे खींचे तो नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी दो ऐसे पीएम निकले जो बहुमत ना होने के बावजूद सत्ता बनाये रखने के हुनरमंद कहलाये। नरसिंह राव को 1991 में 232 सीट मिली और उन्होंने सांसदों की खरीद फरोख्त की, जिससे झारखंड घूस कांड निकला तो वाजपेयी 24 राजनीतिक दलों को एक साथ लेकर चले। जिन्हें 1999 में सिर्फ 182 सीट ही मिली थीं। ध्यान दें तो 1984 के बाद से कभी किसी भी राजनीतिक दल को देश ने बहुमत दिया नहीं। और बहुमत ना पाने के बावजूद हर बड़े दल ने जोड़-तोड़ कर सत्ता का दावा भी ठोंका। सत्ता बनायी भी। और 13 दिन से लेकर 4 महीने तक भी केन्द्र में सरकार चली। यानी बीते 25 बरस का सच यही है कि केन्द्र में सरकार जोड़-तोड़, गठबंधन के आसरे ही चली। और इस दौर ने देश ने सात प्रधानमंत्रियों को देखा। वीपी सिंह, चन्द्रशेखर, पीवी नरसिंह राव, देवेगौडा , आई के गुजराल, वाजपेयी, और फिलहाल मनमोहन सिंह। और इतिहास के पन्नों में सबसे सफल मनमोहन सिंह ही कहलायेंगे, जिन्होंने आंदोलन तो दूर राजनीति का ककहरा तक नहीं पढ़ा। लोकसभा का चुनाव तक नही लड़ा।
यानी सत्ता हर किसी को चाहिये लेकिन यही सवाल 2013 में दिल्ली की सत्ता को लेकर एक नयी परिभाषा गढ़ रहा है।

सत्ता में ना आने के तर्क बहुमत के आंकड़े को लेकर बीजेपी भी गढ़ रही है आम आदमी पार्टी भी। दिल्ली की सत्ता के लिये बीजेपी को 5 सीट चाहिये तो केजरीवाल को 8 सीट। और दोनों ही माने बैठी हैं कि चुनाव होंगे तो किसी को तो बहुमत मिलेगा और सरकार तभी बनायेंगे। तो पहली बार दो सवाल सीधे निकले हैं, बहुमत के बगैर सरकार बेमानी है। और चुनावी राजनीति में खंडित जनादेश बेमानी है। यानी पहली बार चुनावी राजनीति में जीत का आंकड़ा ही ना सिर्फ सबसे महत्वपूर्ण हो चला है बल्कि विचारधारा भी बहुमत के आंकड़े तले बेमानी हो चली है। तो देश बदल रहा है अब इसके लिये जनलोकपाल आंदोलन को तमगा दें या आंदोलन से निकले आम आदमी पार्टी को या फिर देश के नागरिकों के आक्रोश को जो पहली बार सियासत की नयी परिभाषा गढ़ने के लिये बैचेन है।

Sunday, December 8, 2013

विकल्प की तलाश में जनादेश

कांग्रेस के खिलाफ गये चार राज्यों के जनादेश का सबसे बडा संकेत 2014 में एक नये विकल्प को खोजता देश है। भारतीय राजनीति में पहली बार ऐसा मौका आया है जब लोकसभा चुनाव की छांव में चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस और बीजेपी को चेताया है कि मौजूदा वक्त में देश विकल्प खोज रहा है। और अगर बीजेपी यह सोच रही है कि कांग्रेस की नीतियों को लेकर बढ़ता आक्रोश बीजेपी को सत्ता में पहुंचा देगा तो यह उसका सपना है क्योंकि दिल्ली में जैसे ही कांग्रेस और बीजेपी से इतर आम आदमी पार्टी मैदान में उतरी, वैसे ही जनता ने कांग्रेसी सत्ता के विकल्प के तौर पर बीजेपी से कही ज्यादा तरजीह आम आदमी पार्टी को दी। हालांकि राजस्थान और मध्यप्रदेश ने कांग्रेस को खारिज कर बीजेपी को जिस तरह दो तिहाई बहुमत दिया, यही स्थिति दिल्ली में भी बीजेपी की हो सकती थी लेकिन इसके लिये जरुरी था कि आम आदमी पार्टी चुनाव मैदान में ना होती।

इसी तर्ज पर पहला सवाल यही है कि क्या राजस्थान या मध्यप्रदेश या फिर छत्तीसगढ में अगर वाकई "आप" सरीखा राजनीतिक दल होता तो कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी को मुश्किल होती। क्योंकि तब सत्ता बदलने का नहीं राजनीतिक विकल्प का सवाल वोटरों के सामने होता। तो क्या चारों राज्यों के परिणाम ने हर राजनीतिक दल को नया ककहरा पढ़ाया है कि वह पारंपरिक राजनीति से इतर देखना शुरु करें और देश की राजनीति को केन्द्र में रखकर राज्यों की राजनीति का महत्व समझें। क्योंकि राजस्थान में अशोक गहलोत के विकास के नारे और कल्याणकारी योजनाओं पर यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और महंगाई भारी पड़े। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के सेक्यूलरवाद की सोच पर बीजेपी के शिवराज सिंह चौहान की सरोकार की राजनीति भारी पड़ी। छत्तीसगढ में विकास की चादर को सरकारी दान के दायरे में लपेटने की कोशिश बीजेपी के चावल वाले बाबा यानी रमन सिंह ने की और सत्ता के लिये वह ऐसे मुहाने पर आ खडे हुये जो बीजेपी के केंद्रीय लीडरशीप को दिल्ली में डराने लगे। क्योंकि चावल बांटने से वोट बटोरा जा सकता है लेकिन शिवराज चौहान की तरह राजनीतिक साख बनायी नहीं जा सकती है। इस लकीर को कही ज्यादा गाढ़ा दिल्ली में "आप" ने बनाया। क्योंकि विकास के ढांचे से लेकर कांग्रेस-बीजेपी की हर उपलब्धि को "आप" ने एक ऐसे कटघरे में रखा, जहां वोटर और पारंपरिक राजनीति के बीच "आप" खड़ी नजर आने लगी। शायद इसीलिये कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को यह मानना पड़ा कि चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस को नये सिरे से मथने के बारे में वह दिल-दिमाग से सोचने लगे हैं।

वहीं बीजेपी को अपनी नीतियों के समानांतर कांग्रेस के प्रति जनता के आक्रोश और नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता की चादर अपनी जीत के साथ लपेटनी पड़ी। और यहीं से भविष्य के भारत के नये राजनीतिक संकेत मिलने लगे हैं। क्योंकि कांग्रेस का साथ छोड़कर मध्यप्रदेश में मुस्लिम बहुल इलाके भी बीजेपी के साथ नजर आ रहे हैं। और राजस्थान में मीणा जाति के वोट बैंक भी गहलोत के राजनीतिक गठबंधन को लाभ पहुंचा नही पाये। और चुनावी संघर्ष में शीला दीक्षित जैसी अनुभवी और कांग्रेस की कद्दावर नेता भी एक बरस पुराने "आप" के नेता केजरीवाल से हार गयी। तो अगर जातीय गठबंधन बेमानी लगने लगा। धर्म के आधार पर राजनीतिक लकीर छोटी हो गयी। विकास के मुद्दे का ढोल खोखला लगने लगा। युवाओं का सैलाब नयी राजनीति की परिभाषा गढ़ने के लिये चुनाव को नये तरीके से देखने के लिये विवश करने लगा है तो पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी 10 जनपथ से बाहर निकल कर प्रधानमंत्री पद के लिये उम्मीदवार के जल्द ऐलान के संकेत देने पड़े। यानी मनमोहन सरकार के दायरे से बाहर सोचना कांग्रेस की जरुरत हो चली है और जिस युवा को अभी तक राहुल गांधी महत्व देने को तैयार नहीं थे उन्हें कांग्रेस के साथ खड़ा करने की बात राहुल गांधी को चुनाव परिणाम के बाद कहना पड़ा। जिस सोशल मीडिया के जरीये पारदर्शी राजनीति की बहस शुरु हुई, उसे चुनाव से पहले जिस तरह कांग्रेस और बीजेपी खारिज कर रही थी उसी सोशल मीडिया पर उभरे खुले विचारो को भी "आप" की जीत के बाद मान्यता मिलने लगी है। और यह वाकई आश्चर्यजनक है कि दिल्ली में शीला दीक्षित की समूची कैबिनेट को जिन उम्मीदवारों ने हराया, वह एक बरस पहले तक सड़क पर जनलोकपाल के लिये सरकार से गुहार लगाते हुये जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक नारे लगा रहे थे।
यानी 2014 के आम चुनाव से पहले राज्यों के चुनाव परिणाम ने एक ऐसा सेमीफाइनल हर किसी के सामने रखा है, जिसमें कांग्रेस अब गांधी परिवार के 'औरा' के जरीये सत्ता पा नहीं सकती है। बीजेपी सिर्फ नरेन्द्र मोदी की पीठ पर सवार होकर सत्ता पा नहीं सकती है। तीसरा मोर्चा महज जातीय समीकरण के आसरे 2014 में अपनी बनती सरकार के नारे लगा नहीं सकता है। क्योंकि चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने जतला दिया है कि देश पारंपरिक राजनीति से इतर नये भारत को बनाने के लिये विकल्प खोज रहा है। जहां आम आदमी की राजनीति अब कद्दवार और कद पाये नेताओं को भी जमीन सूंघाने को तैयार है

 

Wednesday, November 27, 2013

इस शून्यता से कैसे उबरेंगे ?

क्या यह वाकई इतना मुश्किल दौर है जब स्थापित मूल्यों की जड़ें हिल रही हैं और विकल्प की समझ मौका मिलते ही व्यवस्था का हिस्सा बनने को बेताब हो रही है। एक साथ तीन पिलर डगमगाये हैं। समाज को गूथे हुये परिवार । पत्रकारिता के जरीये सत्ता से टकराने का जुनून। राजनीतिक व्यवस्था पर अंगुली उठाकर बदलने का माद्दा। सीधे समझें तो आरुषि हत्याकांड, तरुण तेजपाल और आम आदमी पार्टी। आरुषि हत्याकांड ने परिवार की उस धारणा से आगे निकल कर भारत के उस पारंपरिक और मजबूत रिश्तों की डोर पर ना सिर्फ सीधा हमला किया जो समाज के गूंथे हुये हैं बल्कि आधुनिक भारत के उस परिवेश पर भी सवालिया निशान लगा दिया जो सरोकार और संबंधों को लगातार दरकिनार कर संवेदनाओं का तकनीकीकरण कर रहा है। वहीं तरुण तेजपाल का मतलब महज तहलका का मालिक होना या संपादक होते हुये अपने सहकर्मी या खुद के नीचे काम करने वाली पत्रकार का यौन शौषण भर नहीं है बल्कि जिस दौर में पत्रकारीय मूल्य खत्म हो रहे हैं। पत्रकारिता पेड न्यूज से आगे निकल कर कॉरपोरेट और राजनीति के उस कठघरे का हिस्सा बनने को तैयार है, जहां चौथा खम्बा तीन खम्बो पर खबरो की बेईमानी का लेप इस तरह चढ़ाये जिससे इमानदारी की चिमनी दिखायी दे, उस वक्त तहलका ने सत्ता से टकराने की जुर्रत ही नहीं की बल्कि रास्ता भी दिखाया। संयोग से बलात्कार के आरोप में फंसे तरुण तेजपाल की परतों को जब उसी मिडिया ने खोलना शुरु किया तो पत्रकारीय साख कहीं ज्यादा घुमिल लगी ही नहीं बल्कि तेवर वाली पत्रकारिता के पीछे गोवा की चकाचौंध से लेकर उत्तराखंड समेत तीन राज्यों में करोड़ों की संपत्ति का पिटारा खुल गया। वहीं जन जन के दिल से निकले अन्ना-केजरीवाल आंदोलन ने जब व्यवस्था पर चोट की और बदलाव के लिये विकल्प का साजो सामान तैयार किया तो साधन ने साध्य की ही कैसे हत्या कर दी यह आम आदमी पार्टी के मौजूदा त्रासदी ने जतला दिया। जब बिखरते साथियों के बीच अन्ना हजारे ने ही खुले तौर पर केजरीवाल को आंदोलन के सपने को राजनीतिक चुनाव के लिये बेचने के लिये अपने नाम के इस्तेमाल पर ही रोक लगाने को कह दिया। और झटके में अन्ना का लोकपाल, रामलीला मैदान का लोकपाल हो गया। तो क्या कोई सपना। कोई विकल्प। कोई आदर्श हालात को अब देश स्वीकार पाने या उसे सहेज पाने की स्थिति में नहीं है। और अगर नहीं है तो वजह क्या है। तो जरा सिलसिलेवार तरीके से हालात को परखे।

आरुषि हत्याकांड पर 210 पेज के फैसले के हर शब्द की चीत्कार को अगर सुने तो एक ही आवाज सुनायी देगी। और वह है मां-बाप का झूठ । हत्या के दिन से लेकर फैसले के दिन तक । लगातार साढे बरस तक हर मौके पर झूठ । असंभव लगता है। कोई लगातार इतने बरस तक झूठ क्यों बोलेगा। सिर्फ खुद को बचाने के लिये झूठ। या फिर बेटी के साथ मां-बाप के सबसे पाक और सबसे करीबी रिश्ता। जननी से लेकर गीली मिट्टी के गूथकर कोई शक्ल देने वाले कुम्हार की तर्ज पर बेटी को जिन्दगी देने और सहेजते हुये एक शक्ल देने वाले माता पिता की धारणा के टूटने से बचने के लिये झूठ। हालांकि अदालत के फैसले पर अंगुली उठाते हुये
आरुषी के मां-बाप अदालती न्याय को अन्नाय ही करार दे रहे हैं और समूची जांच में कुछ ना मिलने पर भी फैसला दिये जाने की परिस्थितिजन्य सबूतों को खारिज कर रहे हैं। लेकिन न्याय की कोई लकीर तो खींचनी ही होगी। और न्यायपालिका से इतर न्याय की लकीर खींचने का मतलब होगा अराजक समाज का न्यौता देना। तो फैसले के गुण-दोष से परे मां-बाप के बच्चों के साथ रिश्ते और खासकर आरुषी के साथ राजेश और नुपुर तलवार के सरोकार की हदों को भी समझना होगा। एक तरफ महानगरीय जीवन। चकाचौंध में छाने या पहुंच बनाने का जुनून। रिश्तों में खुलापन। संबंधों के पारंपरिक डोर को तोड़कर आधुनिक दिखने की चाहत। यह सब मां-बाप के लिये अगर ऑक्सीजन का काम कर रहा है तो फिर बेटी के अंतद्वंद को कौन समझेगा। बच्चों की बेबसी कहे या फिर गीली मिट्टी को कुम्हार कोई शक्त ना दे तो कैसे किसी टेड़े-मेढ़े पत्थर की तरह वह मिट्टी का ढेर हो जाता है और कितना वीभत्स लगता है, इसे कुम्हार के किसी भी बर्तन के बगल में पड़े देखकर कोई भी समझ सकता है और खुद कुम्हार को भी इसका एहसास होता है। तो तीन सवाल आरुषि के मां-बाप को लेकर हर जहन में उठ सकते है। पहला, हत्या के हालात में गुस्सा आरुषी की जिन्दगी जीने के तौर तरीके पर था। दूसरा, हत्या के पीछे खुद को लेकर गुस्सा था तो बेटी को सहेज ना सके। उसे जिन्दगी जीने की कोई शक्ल ना दे सके। तीसरा , यह महज तत्काल के हालात थे। अगर तीनों परिस्थितियों को मिला भी दें तो भी पहली और आखिरी उंगुली मा-बाप को लेकर ही उठेगी। क्योंकि एक तरफ आधुनिक भारत के साथ तेज तेज चलने की दिशा में बढ़ते मां बाप के कदम और दूसरी तरफ मध्यमवर्गीय परिवेश में आधुनिक और पंरपरा के बीच झूलती आरुषि। यह इसी दौर का सच है जब पूंजी हर रास्ते को आसान करने की परिभाषा गढ़ रही है। तकनीक रिश्तों की जगह ले रही है। और जिन्दगी चकाचौंध भरी ताकत की आगोश में खोने का नाम हो चला है। तो दोष किसका है और क्या यह भविष्य के भारत की पहली दस्तक है। जो ऑनर के नाम पर हारर किलिंग की हद से भी आगे की तस्वीर है। इसे रोक कौन सकता है। शायद सिस्टम। शायद सत्ता की नीतियों से बनती व्यवस्था।

तो सिस्टम और सत्ता पर नजर रखने के लिये ही तो तहलका के जरीये तरुण तेजपाल ने शुरुआत की थी। याद कीजिये एनडीए की सत्ता के दौर में पेशेवर पत्रकार भी स्वयंसेवक लगने लगे थे। कांग्रेस के वजूद पर बीजेपी नेता अंगुली उठाने लगे थे। आडवाणी तब यह कहने से नहीं चूक रहे थे कि अब तो राष्ट्रपति प्रणाली आ जानी चाहिये। उसी दौर में तेजपाल के स्टिग आपरेशन ने एनडीए सत्ता की चूलें हिलायी थीं। और तब पत्रकारों ने पहली बार महसूस किया था कि कोई मीडिया संस्थान सत्ता से टकराने के लिये खड़ा हो सकता है। और तब तहलका पत्रिका निकालने की योजना बनी । तहलका को ना सत्ता की मदद चाहिये थी और ना ही कारपोरेट की। चंदा लेकर तहलका शुरु हुई। उस वक्त जिन लोगों ने चंदे दिये उसमें कई लोगो ने तो रिटायरमेंट के पैसे भी चंदे के तौर पर तहलका को दे दिये। 13 बरस पहले के उस दौर में तहलका की नींव रखी गयी, जब मीडिया धीरे धीरे कारपोरेट के लिये आकर्षण का केन्द्र बनने लगे थे। और तहलका प्रतीक बनता चला गया ऐसी पत्रकारिता का जो सत्ता से सीधे टकराने से हिचकती नहीं और आम जनता की पूंजी पर आम पाठकों के लिये आक्सीजन का काम करने लगी। लेकिन तेरह बरस के सफर में कैसे तरुण तेजपाल स्कूटर चलाते चलाते खुद में कारपोरेट बन गये और कई शहरो में की संपत्तियों के मालिक हो गये, इसे कभी किसी ने टोटलने की हिम्मत नहीं की। और अब सोचें तो, की भी होती तो कोई भी ऐसी रिपोर्ट को पत्रकारीय मूल्यों पर हमला करार देता। लेकिन जैसे ही बलात्कार के आरोप में तेजपाल फंसे और जैसे ही तेजपाल ने खुद को देश की कानून व्यवस्था से उपर मान कर आरोप को स्वीकारते हुये छह महीने के लिये तहलका के पद को छोड़ने का ऐलान किया, वैसे ही पत्रकारीय जगत अफीम की उस खुमारी से जागा जो तरुण तेजपाल ने तहलका की रिपोर्टों के जरीये पिलायी थी। और झटके में यह सवाल बड़ा हो गया कि क्या अपराध करने वालो के बीच आम और खास की कोई लकीर होती है। और क्या वाकई कोई यौन शोषण कर आत्म ग्लानी करें तो कानून को अपना काम नहीं करना चाहिये। ध्यान दें तो तरुण तेजपाल ऐसा सोच सकते है, यह अपने आप में किसी के लिये भी झटका है। क्योंकि तहलका की पत्रिका ने ही जब अपनी रिपोर्ट से सत्ता पर हमला बोलना शुरु किया तो हर आम पाठक और हर सामान्य पत्रकार को पहली बार महसूस हुआ कि विशेषाधिकार किसी का होता नहीं और अपराधी तो अपराधी ही होता है। चाहे ताबूत घोटाले में कभी जार्ज फर्नाडिस फंसे या फिर सत्ता के मद में चूर मोदी । लेकिन खुद को सजा देने का जो तरीका तरुण तेजपाल ने अपनाया और उसके बाद तेजपाल की निजी संपत्ति से लेकर तहलका के कारोबार का पूरा लेखा-जोखा जब सामने आने लगा तो कई सवाल हर जहन में उठे और बलात्कार के आरोप लगने के बाद भी पीड़ित लड़की को ही कठघरे में खड़ा करने के तेजपाल के अलग अलग तर्कों ने एक बार पिर पत्रकारिय जगत को उसी निराशा में ढकेल दिया जहा साख बनाकर उसे बेचने या खुद को भी उसी सत्ता का हिस्सेदार बनाने की कवायद तरुण तेजपाल ने भी की। शायद वजह भी यही रही कि तहलका पत्रिका के तेवर मौजूदा दौर में चाहे धीरे दीरे कमजोर होते जा रहे थे लेकिन कोई दूसरा मीडिया संस्थान भी इस दौर में खड़ा हुआ नहीं जो सत्ता से टकराये या बिना कारपोरेट चले तो तहलका की मान्यता बनी रही। और तरुण तेजपाल के निजी सरोकार भी आम लोगों से कट कर उस खास कटघरे में पहुंच गये, जहां तरुण तेजपाल को यह लगने लगा कि उसका कद इतना बड़ा हो चुका है कि कहां हुआ हर शब्द कानून पर भी भारी पड़ेगा। यानी देश के उस मिजाज को ही तरुण तेजपाल बलात्कार के आरोपी बनने के बाद समझ नहीं पाये कि जमीन की पत्रकारिता शिखर पर तो पहुंचा सकती है लेकिन शिखर पर होने का दंभ कभी आत्मग्लानी की जमीन पर टिकता नहीं है। और हो यही रहा है। लेकिन यह उस तहलका की मौत है जिसने पत्रकारों को लड़ना और विकल्प खड़ा करना सिखाया था।

विकल्प की सोच तो अन्ना-केजरीवाल के आंदोलन से भी शुरु हुई और व्यवस्था परिवर्तन ही नहीं मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था पर भी सीधी अंगुली उठाकर आंदोलन ने पहली बार हर उस तबके को संसद के सामानांतर सड़क पर ला खड़ा किया जो राजनीतिक व्यवस्था को लेकर गुस्से में था। गुस्सा आंदोलन को तो व्यापक बना सकता है लेकिन आंदोलन ही परिवर्तन की सत्ता में तब्दील हो जाये यह होता नहीं और हुआ भी नही। लेकिन व्यवस्था परिवर्तन के लिये आंदोलन सरीखा हथियार अर्से बाद भारत की जनता को जगा गया। लेकिन आंदोलन की जगह अगर राजनीतिक दल ही हथियार बन जाये और राजीनितक चुनाव के जरीये ही व्यवस्था परिवर्तन का सवाल उठे तो फिर सबकुछ साधन पर टिक जाता है। सीधे समझे तो महात्मा गांधी के साध्य और साधन वाली थ्योरी को .हा समझना जरुरी है । अगर आम आदमी पार्टी चुनाव को भी आंदोलन की शक्ल में ढालती तो क्या अन्ना हजारे यह कहने की हिम्मत जुटा पाते कि उनके नाम का इस्तेमाल आम आदमी पार्टी ना करें । दरअसल अन्ना ने जिस तरह अपने नाम को जनलोकपाल से बडा माना और आम आदमी पार्टी ने भी अन्ना के नाम को लोकपाल से जोड कर अन्ना हजारे की गैर मौजूदगी में भी चुनावी राजनीति में अन्ना की मौजूदगी को दिखाने की कोशिश की उसने व्यवस्था परिवर्तन की उस सोच पर तो सेंध लगाया ही जो आंदोलन के दौर में खड़ी हुई थी। यानी जनलोकपाल के आंदोलन की साख पर आम आदमी पार्टी ही चुनावी तौर तरीकों से बट्टा लगाती हुई इसलिये दिखायी देने लगी क्योंकि आंदोलन समूचे देश का था। जंतर-मंतर और रामलीला मैदान हर शहर में बना था। लेकिन आम आदमी पार्टी ने पार्टी के टिकट पर चुनाव लडने वाले सदस्यो पर ही समूचे आंदोलन का बोझ डाल दिया । यानी जो आंदोलन देश के बदलाव का सपना था उससे निकले राजनीतिक पार्टी के सदस्यो के चुनावी जीत ही पहला और आखिरी सपना दिखायी देने लगा। इसलिये अन्ना के पत्र के बाज जो भी थोथे आरोप आम आदमी पार्टी पर लगे उससे भी आम आदमी पार्टी घायल होती चली गयी क्योंकि चुनाव लड़ने वाले सतही है। उनके सपने उनके संघर्ष बदलाव से पहले खुद की जीत चाहते है। और जीत के बाद बदलाव की सोच को भारती समाज मान्यता इसलिये नहीं देता क्योंकि चुनावी जीत सत्ता बनाती है। जबकि आंदोलन सत्ता के खिलाफ होते है । शायद इसीलिये दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ने वालों के चरित्र भी उसे हर दूसरे राजनीतिक दल की कतार में ही खड़ा करते हैं। चाहे करोड़पति उम्मीदवारों की बात हो या दागी उम्मीदवारों की। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 70 में से 35 करोड़पति और 5 दागी आम आदमी पार्टी में भी है। फिर पार्टी के संगठन पर आंदोलन की हवा कुछ इस तरह हावी है जैसे दिल्ली में हर काम नीतियों के आसरे होता हो। यानी हर वह सवाल जो अन्ना-केजरीवाल के आंदोलन के दौर में उठा और देश बदलाव का सपना देखने लगा । वही सवाल आम आदमी पार्टी के चुनाव प्रचार के तौर तरीकों के सामने नत-मस्तक हो गये ।

यानी हर स्तर पर सपने टूटे । संघर्ष थमा । रिश्तो का दामन छूटा । विकल्प का सवाल उपहास लगने लगा और आंदोलन सत्ता की मद में मलाई बनाने का साधन हो गया। अजब संयोग है मौजूदा वक्त में समाज और सत्ता के सामने परिवार से लेकर संघर्ष बेमानी लगने लगे । और सिस्टम ने खुद को एकजुट कर अपने खिलाफ संघर्ष को ही कुछ इस तरह सिस्टम का हिस्सा बना लिया कि हम आप मानने लगे कि अब इस शून्यता से कैसे उबरेंगे।

Monday, November 18, 2013

हमने ध्यानचंद को खेलते हुये नहीं देखा

जरा कल्पना कीजिये सौ बरस बाद जब भारत के इतिहास के पन्नों को कोई पलटेगा तो मौजूदा दौर को कैसे याद करेगा। नेहरु-गांधी परिवार का जिम्मेदारी से मुक्त हो सत्ता चलाना-भोगना। मनमोहन सिंह का बिना चुनाव लड़े बतौर प्रधानमंत्री भारत को दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश से दुनिया के सबसे बड़े बाजार में बदलना। आरएसएस का हिन्दुत्व का एकला चलो का राग छोड़ मुस्लिम प्रेम जागना। संघ के स्वयंसेवक नरेन्द्र मोदी का देश में सबसे लोकप्रिय होकर भी धर्मनिरपेक्षता की परछाई से भी दूर रहना। या फिर कारपोरेट और अंडरवर्ल्ड के शिकंजे में फंसे जेंटलमैन गेम यानी क्रिकेट के सबसे लंबे वक्त तक बतौर हुनरमंद के तौर पर टिके रहने वाले सचिन तेदूलकर को भारत रत्न मानना। या फिर जन सरोकार और सियासी ताल्लुकात की जगह हर संवाद के लिये मीडिया यानी टीवी युग। और जब सत्ता के निर्णय तले देश को संवारने का या देश के भविष्य को निखारने का सवाल उठेगा तो इतिहास के पन्नों पर मौजूदा दौर को सिर्फ वर्तमान में जीते देश और भावनाओं में बहते देश के तौर पर जरुर आंका जायेगा। क्यों? तो टीवी युग को आजादी से पहले के दौर में जी कर देख-समझ लें। तब समझ में आयेगा सचिन तेदुलकर के भारत रत्न होने और हाकी के जादूगर ध्यानचंद का खामोशी से दिल्ली के एम्स में मरना और देश में कोई घड़कन का ना सुना जाना। तो टीवी युग तले लिये चलते है 1926 से 1947 के दौर में। 21 बरस। जी सचिन के 24 तो ध्यानचंद के 21 बरस। सचिन के कुल जमा 15921 रन । तो ध्यानचंद के 1076 गोल। तो कुछ देर के लिये सचिन और अब के दौर को भूल जाइये । अब कल्पना की उड़ान भरें और टीवी युग से पहुंच जाइये गुलाम भारत में संघर्ष करते कांग्रेस और मुस्लिम लीग से इतर हॉकी के मैदान में। 1936 का बर्लिन ओलंपिक । दुनिया के सबसे ताकतवर तानाशाह एडोल्फ हिटलर की देख-रेख में बर्लिन ओलंपिक के लिये तैयार है। बर्लिन ओलंपिक को लेकर हिटलर कोई कोताही बरतना नहीं चाहते हैं। बर्लिन शहर को दुल्हन की तरह सजाया गया है।

और बर्लिन इंतजार कर रहा है हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का। जर्मनी के आखबारों में ध्यानचंद का नाम एक ऐसे सेनापति की तरह छापा गया है जो अंग्रेजों का गुलाम होकर भी अंग्रेजों को उनके घर में मात देता है। पहली बार 1928 में भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक में हिस्सा लेने ब्रिटेन पहुंचती है और 10 मार्च 1928 को आर्मस्टडम में फोल्कस्टोन फेस्टीवल। ओलंपिक से ठीक पहले फोल्कस्टोन फेस्टीवल में जिस ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज डूबता नहीं था उस देश की राष्ट्रीय टीम के खिलाफ भारत की हॉकी टीम मैदान में उतरती है। और भारत ब्रिटेन की राष्ट्रीय हॉकी टीम को इस तरह पराजित करती है कि अपने ही गुलाम देश से हार की कसमसाहट ऐसी होती है कि ओलंपिक में ब्रिटेन खेलने से इंकार कर देता है। और हर किसी का ध्यान ध्यानचंद पर जाता है, जो महज 16 बरस में सेना में शामिल होने के बाद रेजिमेंट और फिर भारतीय सेना की हॉकी टीम में चुना जाता है और सिर्फ 21 बरस की उम्र में यानी 1926 में न्यूजीलैड जाने वाली टीम में शरीक होता है। और जब हॉकी टीम न्यूजीलैड से लौटती है तो ब्रिटिश सैनिकअधिकारी ध्यानचंद का ओहदा बढाते हुये उसे लांस-नायक बना देते हैं। क्योंकि न्यूजीलैंड में ध्यानचंद की स्टिक कुछ ऐसी चलती है कि भारत 21 में से 18 मैच जीतता है। 2 मैच ड्रा होते हैं और एक में हार मिलती है। और हॉकी टीम के भारत लौटने पर जब कर्नल जार्ज ध्यानचंद से पूछते हैं कि भारत की टीम एक मैच क्यों हार गयी तो ध्यानचंद का जबाब होता है कि उन्हें लगा कि उनके पीछे बाकी 10 खिलाडी भी है तो आगे क्या होगा। किसी से हारेंगे नहीं। और ध्यानचंद लांस नायक बना दिये गये। तो बर्लिन ओलंपिक एक ऐसे जादूगर का इंतजार कर रहा है, जिसने सिर्फ 21 बरस में दिये गये वादे को ना सिर्फ निभाया बल्कि मैदान में जब भी उतरा अपनी टीम को हारने नहीं दिया। चाहे आर्मस्टम में 1928 का ओलंपिक हो या सैन फ्रांसिस्को में 1932 का ओलंपिक। और अब 1936 में क्या होगा जब हिटलर के सामने भारत खेलेगा। क्या जर्मनी की टीम के सामने हिटलर की मौजूदगी में ध्यानचंद की जादूगरी चलेगी। जैसे जैसे बर्लिन ओलंपिक की तारीख करीब आ रही है वैसे वैसे जर्मनी के अखबारो में ध्यानचंद के किस्से किसी सितारे की तरह यह कहकर तमकने लगे है कि."चांद" का खेल देखने के लिये पूरा जर्मनी बेताब है। क्योंकि हर किसी को याद आ रहा है 1928 का ओलंपिक । आस्ट्रिया को 6-0, बेल्जियम को 9-0, डेनमार्क को 5-0, स्वीटजरलैंड को 6-0 और नीदरलैंड को 3-0 से हराकर भारत ने गोल्ड मेडल जीता तो समूची ब्रिटिश मीडिया ने लिखा। यह हॉकी का खेल नहीं जादू था और ध्यानचंद यकीनन हॉकी के जादूगर। लेकिन बर्लिन ओलंपिक का इंतजार कर रहे हिटलर की नज़र 1928 के ओलंपिक से पहले प्रि ओलपिंक में डच, बेल्जीयम के साथ जर्मनी की हार पर थी। और जर्मनी के अखबार 1936 में लगातार यह छाप रहे थे जिस ध्यानचंद ने कभी भी जर्मनी टीम को मैदान पर बख्शा नहीं चाहे वह 1928 का ओलंपिक हो या 1932 का तो फिर 1936 में क्या होगा। क्योंकि हिटलर तो जीतने का नाम है। तो क्या बर्लिन ओलपिंक पहली बार हिटलर की मौजूदगी में जर्मनी की हार का तमगा ठोकेगी। और इधर मुंबई में बर्लिन जाने के लिये तैयार हुई भारतीय टीम में भी हिटलर को लेकर किस्से चल पड़े थे। पत्रकार टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता और कप्तान ध्यानचंद से लेकर लगातार सवाल कर रहे थे कि क्या 1928 में जब ओलपिंक में गोल्ड लेकर भारतीय हॉकी टीम बंबई हारबर पहुंची थी तो पेशावर से लेकर केरल तक से लोग विजेता टीम के एक दर्शन करने और ध्यान चंद को देखने भर के लिये पहुंचे थे।

उस दिन बंबई के डाकयार्ड पर मालवाहक जहाजों को समुद्र में ही रोक दिया गया था। जहाजों की आवाजाही भी 24 घंटे नहीं हो पायी थी क्योंकि ध्यानचंद की एक झलक के लिये हजारों हजार लोग बंबई हारबर में जुटे। और ओलंपिक खेल लौटे ध्यानचंद का तबादला 1928 में नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस वजीरिस्तान [ फिलहाल पाकिस्तान ] में कर दिया गया, जहां हाकी खेलना मुश्किल था। पहाड़ी इलाका था । मैदान था नहीं। लेकिन ओलंपिक में सबसे ज्यादा गोल [5 मैच में 14 गोल] करने वाले ध्यानचंद का नाम 1932 में सबसे पहले ओलंपिक टीम के खिलाडियों में यहकहकर लिखा गया कि सेंट फ्रांसिस्को ओलंपिक से पहले प्रैक्टिस मैच के लिये टीम को सिलोन यानी मौजूदा वक्त में श्रीलंका भेज दिया जाये। और दो प्रैक्टिस मैच में भारत की ओलंपिक टीम ने सिलोन को 20-0 और 10-0 से हराया । ध्यानचंद ने अकेले डेढ दर्जन गोल ठोंके। और उसके बाद 30 जुलाई 1932 में शुरु होने वाले लास-एंजेल्स ओलंपिक के लिये भारत की टीम 30 मई को मुंबई से रवाना हुई। लगातार 17 दिन के सफर के बाद 4 अगस्त 1932 को अपने पहले मैच में भारत की टीम ने जापान को 11-1 से हराया। ध्यामचंद ने 3 गोल किये और फाइनल में मेजबान देश अमेरिका से ही सामना था। और माना जा रहा था कि मेजबान देश को मैच में अपने दर्शकों का लाभ मिलेगा। लेकिन फाइनल में भारत ने अमेरिकी टीम को दो दर्ज गोल। जी भारत ने अमेरिका को 24-1 से हराया। इस मैच में ध्यानचंद ने 8 गोल किये। लेकिन पहली बार ध्यानचंद को गोल ठोंकने में अपने भाई रुप सिंह से यहा मात मिली। क्योंकि रुप सिंह ने 10 गोल ठोंके। लेकिन 1936 में तो बर्लिन ओलंपिक को लेकर जर्मनी के अखबारों में यही सवाल बड़ा था कि जर्मनी मेजबानी करते हुये भारत से हार जायेगा। या फिर बुरी तरह हारेगा और ध्यानचंद का जादू चल गया तो क्या होगा। क्योंकि 1932 के ओलंपिक में भारत ने कुल 35 गोल ठोंके थे और खाये महज 2 गोल थे। और तो और ध्यान चंद और उनके भाई रुपचंद ने 35 में से 25 गोल ठोंके थे। तो बर्लिन ओलपिक का वक्त जैसे जैसे नजदीक आ रहा था, वैसे वैसे जर्मनी में ध्यानचंद को लेकर जितने सवाल लगातार अखबारों की सुर्खियों में चल रहे थे उसमें पहली बार लग कुछ ऐसा रहा था जैसे हिटलर के खिलाफ भारत को खेलना है और जर्मनी हार देखने के तैयार नहीं है। लेकिन ध्यानचंद के हॉकी को जादू के तौर पर लगातार देखा जा रहा था। और 1932 के ओलंपिक के बाद और 1936 के बर्लिन ओलंपिक से पहले यानी इन चार बरस के दौरान भारत ने 37 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले जिसमें 34 भारत ने जीते, 2 ड्रा हुये और 2 रद्द हो गये। यानी भारत एक मैच भी नहीं हारा। इस दौर में भारत ने 338 गोल किये जिसमें अकेले ध्यानचंद ने 133 गोल किये। तो बर्लिन ओलंपिक से पहले ध्यानचंद के हॉकी के सफर का लेखा-जोखा कुछ इस तरह जर्मनी में छाने लगा कि हिटलर की तानाशाही भी ध्यानचंद की जादूगरी में छुप गयी। क्योंकि सभा याद करने लगे। जब 1926 में पहला टूर न्यूजीलैंड का ध्यानचंद ने किया था तब 48 में से 43 मैच भारत ने जीते थे। और कुल 584 गोल में से ध्यानचंद ने 201 गोल ठोंके थे। खैर इतिहास हिटलर के सामने कैसे दोहराया जायेगा शायद इतिहास बदलने वाले हिटलर को भी इसका इंतजार था। इसलिये बर्लिन ओलंपिक की शान ही यही थी कि किसी मेले की तरह ओलंपिक की तैयारी जर्मनी ने की थी। ओलंपिक ग्राउंड में ही मनोरंजन के साधन भी थे। और दर्शकों की आवाजाही जबरदस्त थी । तो ओलपिंक शुरु होने से 13 दिन पहले 17 जुलाई 1936 को जर्मनी के साथ प्रैक्टिस मैच भारत को खेलना था। 17 दिन के सफर के बाद पहुंची टीम थकी हुई थी। बावजूद इसके भारत ने जर्मनी को 4-1 से हराया। और उसके बाद ओलंपिक में बिना गोल खाये हर देश को बिलकुल रौदते हुये भारत आगे बढ़ रहा था और जर्मनी के अखबारों में छप रहा था कि हॉकी नहीं जादू देखने पहुंचे। क्योंकि हॉकी का जादूगर ध्यानचंद पूरी तरह एक्टिव है। लोग भी ध्यानचंद का जादू देखने ही ओलपिंक ग्राउंड में पहुंच रहे थे। पहले मैच में हंगरी को 4-0, फिर अमेरिका को 7-0, जापान को 9-0, सेमीफाइनल में फ्रांस को 10-0 । और भारत बिना गोल खाये हर किसी को हराकर फाइनल में पहुंचा। जहां पहले से ही जर्मनी फाइनल में भारत का इंतजार कर रही थी। संयोग देखिये भारत को जर्मनी के खिलाफ फाइनल मैच 15 अगस्त 1936 को पड़ा। भारतीय टीम में खलबली थी कि फाइनल देखने एडोल्फ हिटलर भी आ रहे थे। और मैदान में हिटलर की मौजूदगी से ही भारतीय टीम सहमी हुई थी। ड्रेसिंग रुम में सहमी टीम के सामने टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता ने गुलाम भारत में आजादी का संघर्ष करते कांग्रेस के तिरंगे को अपने बैग से निकाला और ध्यानचंद समेत हर खिलाडी को उस वक्त तिंरगे की कसम खिलायी कि हिटलर की मौजूदगी में घबराना नहीं है। यह कल्पना का परे था। लेकिन सच था कि आजादी से पहले जिस भारत को अंग्रेजों से मु्क्ति के बाद राष्ट्रीय ध्वज तो दूर संघर्ष के किसी प्रतीक की जानकरी पूरी दुनिया को नहीं थी और संघर्ष देश के बाहर गया नहीं था। उस वक्त भारतीय हॉकी टीम ने तिरंगे को दिल में लहराया और जर्मनी की टीम के खिलाफ मैदान में उतरी। हिटलर स्टोडियम में ही मौजूद थे। टीम ने खेलना शुरु किया और दनादन गोल दागने भी। हाफ टाइम तक भारत 2 गोल ठोंक चुका था। 14 अगस्त को बारिश हुई थी तो मैदान गीला था। और बिना स्पाइक वाले रबड़ के जूते लगातार फिसल रहे थे। उस वक्त ध्यानचंद ने हाफ टाइम के बाद जूते उतार कर नंगे पांव ही खेलना शुरु किया। जर्मनी को हारता देख हिटलर मैदान छोड़ जा चुके थे। और नंगे पांव ही ध्यानचंद ने हाफ टाइम के बाद गोल दागने शुरु किया। भारत 8-1 से जर्मनी को हरा चुका था।

बर्लिन ओलपिंक में भारत की टीम पर जर्मनी ने ही एकमात्र गोल ठोका था लेकिन संयोग से यह गोल भी भारतीय खिलाडी तपसेल की गलती से हुआ तो जर्मनी इस एक गोल पर गर्व भी नहीं कर सकता था। लेकिन तमगा देने का दिन 16 अगस्त तय हुआ और ऐलान हुआ कि हिटलर खुद ध्यानचंद को तमगा देंगे। इस ऐलान के बाद तो ध्यानचंद की आंखो की नींद रफूचक्कर हो गयी। समूची रात ध्यानचंद इस तनाव में ही ना सो पाये कि हिटलर कहेंगे क्या और कहीं जर्मनी की टीम को हराने पर कोई कदम उठाने का निर्देश ना दे दें। इधर भारत में भी जैसे ही खबर आयी कि कि 16 अगस्त को हिटलर ओलंपिक स्टेडियम में ध्यानचंद से मिलेंगे वैसे ही भारतीय अखबारो में हिटलर के उजूल-फिजूल निर्णयों के बारे में छपने लगा। और एक तरह की आंशका हर दिल में बैठने लगी कि हिटलर जब ध्यानचंद से मिलेंगे तो पता नहीं क्या कहेंगे। खैर वह वक्त भी आ गया। हिटलर के सामने ध्यानचंद खड़े थे। हिटलर ने ध्यामचंद की पीठ ठोंकी। नजरें उपर से नीचे तक की। हिटलर की नजर ध्यानचंद के जूतों में अटक गयी । जूते अंगूठे के पास फटे हुये थे। हिटलर ने पूछा इंडिया में क्या करते हो। सेना में हूं। सेना शब्द सुनते ही हिटलर ने ध्यानचंद की पीठ ठोंकी। क्या करते हो सेना में। पंजाब रेजिमेंट में लांस-नायक हूं। हिटलर ने तुरंत कहा जर्मनी में रह जाओ। यहां सेना में कर्नल का पद मिलेगा। ध्यानचंद ने कहा नहीं पंजाब रेजिमेंट पर मुझे गर्व है और भारत ही मेरा देश है। जैसी तुम्हारी इच्छा। और हिटलर ने सोने का तमगा ध्यानचंद को दिया और तुरंत मुड़ कर स्टेडियम से निकल गये। ध्यानचंद की सांस में सांस आयी और दुनियाभर के अखबारों में पहली बार हिटलर के सामने किसी के नतमस्तक ना होने की खबर छपी। यह कल्पना के परे है कि उस वक्त टीवी युग होता तो क्या होता । उस वक्त भी भावनाओ में देश बह रहा होता तो क्या होता। उस वक्त अगर सिर्फ वर्तमान को ही इंडिया का वजूद माना जाता तो महात्मा गांधी का संघर्ष भी ध्यानचंद के जादुई खेल के सामने काफूर हो चुका होता। हो सकता है अब के टीवी युग की तरह उस वक्त ध्यानचंद को आजादी के बाद पीएम की कुर्सी का ही ऑफर तो नहीं कर दिया जाता। और अगर मौजूदा वक्त में वाकई कोई ऐसा खिलाडी निकल आये तो क्या होगा। सवाल सचिन तेदुलकर को भारत रत्न मानने से आगे का है। क्योंकि बर्लिन से जब हाकी टीम लौटी तो ध्यानचंद को देखने और छूने के लिये पूरे देश में जुनून सा था। और ध्यानचंद जहां जाते वहीं हजारों लोग उमड़ते। रेजिमेंट में भी ध्यानचंद जीवित किस्सा बन गये। क्योंकि हिटलर से मिलकर और जर्मनी में रहने के हिटलर के ऑफर को ठुकरा कर ध्यानचंद लौटे थे। तो कल्पना कीजिये ध्यानचंद का कद क्या रहा होगा। ध्यानचंद को 1937 में लेफ्टिनेंट का दर्जा दिया गया। ध्यानचंद के तबादले होते रहे। सेना में वह काम करते रहे। द्वितीय विश्व युद्द शुरु हुआ और 1945 में जब युद्द थमा तो खुद को 40 की उम्र का बता कर और नये लड़कों को हॉकी खेलने के लिये आगे लाने के लिये पहली बार ध्यनचंद ने हॉकी से रिटायरमेंट की बात की। लेकिन देश के दबाव में ध्यानचंद हॉकी खेलते रहे और किसी भी देश से ना हारने की जो बात उन्होने 1926 में की थी उसे 1947 तक बेधड़क निभाते रहे। और तो और आजादी के बाद जब भारतीय हॉकी फेडरेशन ने एशिय़न स्पोर्ट्रस एसोशियसन { इस्ट अफ्रिका } से गुहार लगायी की उन्हें खेलने का मौका दे, जिससे विभाजन की आंच हॉकी पर ना आये तो एशियाई स्पोर्टस एशोशियन ने साफ कहा कि अगर ध्यानचंद खेलने आयेंगे तो ही भारतीय टीम आये। और यह भी अपने आप में इतिहास है कि 23 नवंबर 1947 को जब ध्यानचंद ने 42 बरस की उम्र में टीम को जोड़ा तो उसमें दो पाकिस्तानी खिलाड़ी भी थे। और उस वक्त देश में दंगों और बहते लहू के बीच भी ध्यानचंद भारतीय हॉकी टीम को लेकर अफ्रीका पहुंचे और यह ऐसी टीम थी जो विभाजन से परे थी। लाहौर, कराची और पेशावर के खिलाडी ध्यानचंद के साथ अफ्रीका जाने को तैयार थे। और वह टीम गयी भी। और उसने 22 मैच खेले। 61 गोल ठोंके। हारे किसी मैच में नहीं। ध्यानचंद ने लौट कर खुद की उम्र 40 पार बताते हुये और हॉकी ना खेलने की बात कही लेकिन देश में सहमति बनी नहीं और ध्यानंचद लगातार खेलते रहे। 51 बरस की उम्र में 1956 में आखिरकार ध्यानचंद रिटायर हुये तो सरकार ने पद्मविभूषण से उन्हें सम्मानित किया और रिटायरमेंट के महज 23 बरस बाद ही यह देश ध्यानचंद को भूल गया। इलाज की तंगी से जुझते ध्यानचंद की मौत 3 दिसबंर 1979 को दिल्ली के एम्स में हुई । और ध्यानचंद की मौत पर देश या सरकार नहीं बल्कि पंजाब रेजिमेंट के जवान निकल कर आये, जिसमें काम करते हुये ध्यानचंद ने उम्र गुजार दी थी और उस वक्त हिटलर के सामने पंजाब रेजिमेंट पर गर्व किया था जब हिटलर के सामने समूचा विश्व कुछ बोलने की ताकत नहीं रखता था। पंजाब रेजिमेंट ने सेना के सम्मान के साथ ध्यानचंद को आखिरी विदाई थी।

मौका मिले तो झांसी में ध्यानचंद की उस आखिरी जमीन पर जरुर जाइएगा, जहां टीवी युग में मीडिया नहीं पहुंचा है। वहां अब भी दूर से ही हॉकी स्टिक के साथ ध्यानचंद दिखायी दे जायेंगे। और जैसे ही ध्यानचंद की वह मूर्ति दिखायी दे तो सोचियेगा अगर ध्यानचंद के वक्त टीवी युग होता और हमने ध्यानचंद को खेलते हुये देखा होता तो ध्यानचंद आज कहां होते। लेकिन हमने तो ध्यानचंद को खेलते हुये देखा ही नहीं।

Wednesday, November 13, 2013

हमने सचिन को खेलते हुए देखा था

24 बरस के सफर में देश ने 8 प्रधानमंत्री को देख लिया। इन 24 बरस में राजनीति की हर धारा ने सत्ता भी संभाल ली। और तो और इन्हीं 24 बरस में देश का कोई राजनीतिक दल नहीं बचा, जिसने दिल्ली की सत्ता की मलाई नहीं चखी। और इसी 24 बरस में सचिन एक युग में बदल गये। जिस उम्र में बल्ला थामा उस उम्र से बड़ा अब उनका बेटा है। और हिन्दुस्तान के जिस रिकॉर्ड को 24 बरस पहले अगुंलियों पर गिना जा सकता था, उसे अपने 24 बरस के रिकॉर्ड से एक नयी परिभाषा दे दी। जो क्रिकेट की पूरी किताब में बदल गयी।
इतिहास के पन्नों में किस प्रधानमंत्री को याद किया जायेगा यह तो किसी को नहीं पता लेकिन क्रिकेट का जिक्र जब भी होगा तब सचिन का पन्ना स्वर्णिम अक्षरों के साथ खुलेगा। और यहीं से सचिन के नये मायने शुरु होते हैं। जो सचिन को क्रिकेटरों की कतार से अलग खड़ा कर देती है।

सचिन का नाम सचिन देव बर्मन के नाम पर पड़ा। सचिन ने उस वक्त पहला मैच खेला जब हर घर में टीवी दस्तक दे रहा था। सचिन उस दौर में चमके जब भारत बाजार में बदल रहा था। सचिन का नाम हर घर के बच्चे का नाम होने लगा। और सचिन भारत का ऐसा नामचीन ब्रांड बन गया। जिस पर भरोसा और विश्वास हर उम्र के लोगों को था। और मुंबई के शिवाजी पार्क में नन्हें पैरों में पैड बांधकर खेलने वाला सचिन देखते देखते देश का सबसे रईस क्रिकेटर बन गया। फोर्ब्स ने बताया कि 2012-13 के दौरान सचिन की कमाई और विज्ञापनों से मिलने वाली राशि 1 अरब 39 करोड 32 लाख रुपये है। वेल्थ एक्स के मुताबिक सचिन 10 अरब 13 करोड़ रुपये के मालिक हैं। तो सचिन जिस मिट्टी से निकले, उसने सचिन को सोना बना दिया। और अब जिस वानखेड़े स्टेडियम में सचिन आखिरी मैच खेलेंगे, उसे देखने देश के सबसे ज्यादा करोड़पति भी पहुचेंगे। और देश के सबसे लोकप्रिय व्यक्तियों से लेकर सबसे ताकतवर लोगों की कतार भी नजर आयेगी।
तो सचिन रिटायरमेंट के बाद 24 बरस पुराने सचिन तेदूलकर नहीं होंगे बल्कि चकाचौंध भारत के नुमाइंदे होंगे, जिनकी परछाई तले अंधेरे में सिमटा भारत खामोशी से सचिन को निहारेगा,खुश होगा और आने वाली पीढ़ियो को बतायेगा कि उसने कभी सचिन को खेलता हुये अपनी नंगी आंखों से देखा था।

क्योंकि सर डोनाल्ड ब्रैडमैन ने ९० के दशक में अपनी ड्रीम टीम में सचिन को जगह देते हुए उन्हें एक जीनियस से एक युग में बदल डाला था। लेकिन भारत में सचिन का जो जुनुन है उसके सामने तो कुछ दूसरे सवाल हैं। क्योंकि शाम 18 नवंबर को भी ढलेगी। लेकिन 18 नवबंर की शाम कुछ अलग होगी। क्योकि सबकुछ ठीक रहा तो 18 नवबंर को शाम ढलने के साथ ही मुबंई के वानखेडे स्टेडियम में सचिन की विदाई का जश्न खत्म होगा और उसके बाद सचिन तो होंगे लेकिन उनके साथ क्रिकेट नहीं होगा। कैसी होगी 19 नवंबर की वह सुबह जब सचिन का हाथ अनायास क्रिकेट के बल्ले को थामने के लिये बढेगा और उन्हे झटके में एहसास होगा कि अब तो 22 गज की पीच को वह पीछे छोड़ आये है । वानखेडे में अपनी मां और अपने गुरु के सामने खेल कर रिटायर होने का आखरी सपना सचिन ने ही संजोया । लेकिन सवाल यह अबूझ है कि आखिर जिस सपने को सचिन ने देखा अब वह खुद उसे पूरा मान चुके हैं तो फिर सचिन के रिटायरमेंट को लेकर एक अकुलाहट हर किसी में क्यों है। हर दिल की धड़कन क्यों बढ़ी हुई है। तो सच यही है कि मौजूदा क्रिकेट में सचिन की तरह चाहे हर कोई खेल रहा हो लेकिन सचिन जिस दौर से निकले और मौजूदा दौर जिस सचिन को देख रहा है वह क्रिकेटर से ज्यादा सचिन के जरीये अपनी पहचान पाने की अकुलाहट है। और फिलहाल देश में कोई ऐसा है नहीं जो कई पिढियो में नोस्टालिजिया जगा सके ।

तो दुआ कीजिये सचिन वानखेडे के कैनवास पर कुछ ऐसे रंग भरके रिटायर होंगे, जो पोएटिक जस्टिस कहलाए नहीं तो सचिन रिटायर हो जाएंगे और हर दिल में कसक रह जायेगी कि सचिन ने रिटायरमेंट का वक्त सही नहीं चुना या फिर देरी कर दी। क्योंकि सचिन सिर्फ बल्लेबाज या क्रिकेटर नहीं बल्कि एक ऐसे युग की पहचान हैं जहां सचिन चकाचौंध और अंधेरे भारत के बीच पुल हैं।

Thursday, November 7, 2013

मौजूदा राजनीति में क्षत्रप कितना टिकेंगे ?


देश के पहले आम चुनाव में कमोवेश हर राजनीतिक दल ने चुनावी प्रचार में कहा कि कमजोर और हाशिये पर पड़ी जातियों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिये हरसंभव प्रयास करेंगे। यूं संविधान में भी इसकी व्यवस्था की गयी कि पहले 15 बरस तो पिछड़ी जातियो को विशेष सुविधा दी जायेगी लेकिन धीरे धीरे हाशिये पर पड़े लोगों को मुख्यधारा से जोड़ लिया जायेगा। यह 15 बरस बीते तो और 10 बरस विशेष सुविधा देने की बात हुई। लेकिन धीरे धीरे विशेष सुविधा देने की राजनीति सत्ता पाने का ऐसा अनूठा मंत्र बनते चला गया कि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होते ही राजनीतिक क्षत्रपों का उदय उसी चुनावी राजनीति से हो गया, जिसने वादा किया था कि पिछड़ी जातियों को मुख्यधारा में शामिल कर लिया जायेगा। सुविधा का मतलब आरक्षण से हुआ। और आरक्षण के जरिये मिलने वाली सुविधा पेट से जुड़ी है तो यह चुनाव में सबसे बडा हथियार के तौर पर उन राजनीतिक क्षत्रपों ने अपनाया जिनकी राजनीतिक जमीन ही जातियों के उस ताने बाने से बनी जो हाशिये पर पड़े रहने को ही मुख्यधारा में आने से कही ज्यादा महत्व देने लगी।

ऐसा ही कुछ मुस्लिमों के साथ हुआ। जिसका सच 2006 में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने यह लिखकर देश को आइना दिखा दिया कि सामाजिक-आर्थिक तौर पर सबसे पिछडा देश का मुस्लिम समाज है। लेकिन यहां भी पिछड़ापन या सुविधा की खोज राजनीति का हथियार बना और पहले कांग्रेस तो उसके बाद जातियों में सिमटे क्षत्रप झटके में कुछ ऐसे मुस्लिम परस्त हुये कि अपनी खास जाति के साथ मुस्लिम गठबंधन ने सत्ता पाने और सत्ता बनाये रखना का अनूठा मंत्र हर किसी को दे दिया। तो "एम" यानी मुस्लिम फैक्टर चुनावी राजनीति का नायाब शब्द बन गया। ध्यान दें तो क्षत्रपों के विकास और मुख्यधारा में जोडने के नारे के साथ साथ इसी दौर में वर्ग संघर्ष का सवाल भी अमीर-गरीब के जरीये मार्क्सवादियों ने राजनीतिक तौर पर बाखूबी उभारा। और इस राजनीति का तोड़ निकला मनमोहन की इकनॉमिक्स तले। क्योंकि सवाल हाशिये पर पड़ी जातियों का हो या गरीबों का संघर्ष और सत्ता की मुनादी ने सत्ता पाने तक हर पांच बरस के दौरान इस वोट बैंक के दर्द को बाखूबी उभारा और उसमें रिसते घाव का बाखूबी इस्तेमाल भी किया। और चूंकि हर दर्द का इलाज या सुविधा का मंत्र पेट से जुड़ा रहा तो हर जाति को नुमाइन्दा भी मिला और उसने विकास की हर थ्योरी को न्यूनतम जरुरत के जुगाड़ से जोड़ा। जिसमें रोजगार से लेकर पैकेज और आर्थिक लाभ से लेकर मुफ्त योजना ही रही। लेकिन मनमोहन सिंह की खुली अर्थव्यवस्था ने झटके में तीन सच की जमीन बदल दी। पहला बाजार को जातिमु्क्त बना कर पेट को उस इक्नामिक्स से जोड़ दिया जो जाति पर निर्भर नहीं थी। दूसरा बाजार राजनीतिक गठबंधन से इतर मुनाफा बनाने की थ्योरी लेकर आया। यानी यादव - मुस्लिम गठबंधन किसी यादव को सत्ता तक तो पहुंचा सकते हैं लेकिन सत्ता की सुविधा जब विकास के कटोरे से निकलेगी तो हो सकता है खुली बाजार अर्थव्यवस्था में दोनो एक दूसरे से टकरायें। यानी यह कतई जरुरी रहा कि सत्ता दो जतियों के जोड़ से मिलती है तो सत्ता का लाभ भी दोनो जातियों को मिले या फिर जातियों के आधार पर मिले। और तीसरा कारपोरेट की सत्ता जातीय या धार्मिक वोटबैंक को आधार नहीं बनाती। यानी लोकतंत्र के पारंपरिक औजार चुनावी राजनीति के नये औजार के सामने भौथरे भी साबित हो रहे हैं। और कॉरपोरेट देश की पारंपरिक राजनीति को प्रभावित कर रही है। और संयोग से मौजूदा राजनीति इसी बिसात पर आ खड़ी हुई है। जिसमें पारंपरिक राजनीति और कारपोरेट सत्ता आमने सामने आ खड़ी हुई है। एक लिये नागरिक होना महत्वपूर्ण है तो दूसरे के लिये उपभोक्ता।

उपभोक्ता तो नागरिक है लेकिन नागरिक उपभोक्ता हो यह जरुरी है। और संयोग से नागरिक को लेकर सियासी मथना चलने वाले राजनीतिक दलों के सामने पहली बार संकट यह आया है कि वह राजनीतिक बिसात पर तो पांसा उलट-पुलट सकते हैं लेकिन कॉरपोरेट पूंजी से कैसे टकरा सकते हैं। वजह यही है कि नरेन्द्र मोदी बड़े खिलाडी के तौर क्यों नजर आ रहे हैं और पारंपरिक राजनीति करने वालो को अपनी जमीनी परिभाषा को ही क्यों बदलना पड़ रहा है, यह समझे इससे पहले राजनीतिक परंपरा की लकीर समझ लें। तो राजनीति की तीन धारा कांग्रेस, क्षत्रप और वामपंथी में सिमटी सियासत में चौथी धारा के तौर पर भाजपा सेंघ लगा पाने में कभी सफल हो नहीं पायी क्योंकि उसकी जननी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हमेशा सामाजिक शुद्दीकरण की बात की। और शुद्दीकरण के दायरे में राजनीति के उन हथियारो को हमेशा प्रतिबंधित रखा जो सत्ता पाने के मंत्र थे। इसीलिये आरएसएस का पाठ पढ कर निकले स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी हो या मौजूदा वक्त में लालकृष्ण आडवाणी दोनो ने संघ की नीतियों को एक वक्त के बाद राजनीतिक तौर पर मानने से इंकार कर दिया। अब जरा नरेन्द्र मोदी के पीएम पद के उम्मीदवार बनने से देश के राजनीतिक जमीनी सच को समझे। पहली बार संघ का स्वयंसेवक जो प्रधानमंत्री पद की दौड़ में है। वह हिन्दू राष्ट्रवाद की गूंज करता है लेकिन वह खुद अतिपिछड़ी जाति का है। यानी मंडल के दौर में बने क्षत्रपो के सामने पारंपरिक परेशानी यह है कि वह ऊंची और पिछडी जातियों के लेकर कोई लकीर मोदी को लेकर खिंच नहीं सकते हैं। क्योंकि तब जातीय समीकरण टूटने लगेंगे। वहीं वाम विचार भी मोदी को लेकर कमजोर पड़ेंगे क्योंकि नरेन्द्र मोदी खुद गरीबी से निकले हैं और चुनाव में गरीबी या अमीरी मुद्दा बनती है तो फिर मौजूदा वक्त में कमोवेश हर क्षत्रप करोड़पति और अरबपति हो चुका है। कांग्रेसी भी इस कतार में अव्वल हैं। तो जाहिर है निशाने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही आयेगा या संघ के संवयसेवक के तौर पर नरेन्द्र मोदी को लाया जायेगा। लेकिन कांग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दल अगर सिर्फ यही बिसात बिछाते हैं तो उनके सामने क्या क्या मुश्किल आ सकती है यह नरेन्द्र मोदी को घेरने के लिये दिल्ली में एक दर्जन से ज्यादा राजनीतिक दलों के नुमाइन्दो के जुटने के हालात से समझा जा सकता है। जो यह मान रहे हैं कि अगर मनमोहनइक्नामिक्स से निकले मुद्दे महंगाई, घोटाले, कालाधन को खारिज कर फासीवाद और साप्रंदायिकता को मुद्दा ना बनाया गया तो राजनीतिक तौर पर हर किसी का सूपड़ा साफ हो जायेगा। तो पहली बार पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी का मतलब ही हिटलरवादी, फासीवादी या सांप्रदायिकता हो चला है। यानी नेताओं का जमघट अतीत के सच को नरेन्द्र मोदी के पीएम पद का उम्मीदवार बनते ही बदल रहा है। क्योंकि संघ परिवार या अयोध्याकांड के नायक आडवाणी या स्वयंसेवक वाजपेयी के पीएम बनते ही फासीवाद और सांप्रदायिकता की जिस परिभाषा को सत्ता के लिये जिन नेताओं ने बदला अब नरेन्द्र मोदी के गुजरात से बाहर निकलते ही नयी परिभाषा दिल्ली में उन्हीं नेताओं ने गढ़ी। नीतीश के लिये बाबरी कांड करने वाले लाल कृष्ण आडवाणी सांप्रदायिक कभी नहीं रहे। मुलायम की सरकार ने मुज्जफरनगर दंगों की आग में सियासी गोटियां फेंकी। और अयोध्याकांड के नायक कल्याण सिंह के साथ जमकर गलबहियां की, जिससे जातियों का जुनुन जगाया जा सके। लेकिन मुलायम मौलाना ही रहे और सांप्रदायिक नहीं हुये। बाबूलाल मंराडी तो बीजेपी से ही निकले। और अब उ बीजेपी सांप्रदायिक दिखायी दे रही है। नवीन पटनायक अयोध्या की आग के बाद भी लंबे वक्त तक बीजेपी से गलबहिया डाले रहे। लेकिन सम्मेलन में बीजेडी के नेता ने कहा कि आरएसएस के स्वयंसेवक देश को बांटने की राह पर निकले हुये हैं। जयललिता ने स्वयंसेवक पीएम वाजपेयी से परहेज नहीं किया। प्रफुल्ल महंत भी एक वक्त स्वयंसेवक पीएम के दौर में साथ खड़े रहे। लेकिन आज उन्हें एक दूसरा स्वयंसेवक सांप्रदायिक नजर आ रहा है और चूंकि नीतीश कुमार ने फासीवाद के आहट का जिक्र कर इमरजेन्सी की याद सम्मेलन में बैठे मीडियाकर्मियो को दिलायी। तो मंच पर बैठे ए बी वर्धन को जरुर यह याद आया होगा कि इमरजेन्सी के वक्त सीपीआई इंदिरा गांधी के साथ खड़ी थी। अब यह सवाल उठना जायज है कि जिस पार्टी या जिन स्वयंसेवको के साथ राजनीति करने में राजनीति के इन धुरन्धरों को कोई परहेज नहीं रहा और अब उसी बीजेपी और उन्हीं राजनीतिक स्वयंसेवकों ने भी अपना नेता नरेन्द्र मोदी को मान कर मिशन 2014 का संघर्ष शुरु किया है तो फिर उसी पार्टी और उन्हीं स्वयंसेवकों को छोड़ कर कभी साथ खड़े रहे राजनेताओं के नये विचार या नयी परिभाषा को लेकर देश का आम वोटर क्या सोचें। असल में राजनीति की साख इसीलिये डांवाडोल है और इसी डांवाडोल स्थिति का लाभ नरेन्द्र मोदी को लगातार मिल रहा है। असल में दिल्ली में 14 राजनीतिक दलो के जमावडे में हर नेता की जुबान पर मोदी का नाम किसी ना किसी रुप में जरुर आया। किसी ने संकेत की भाषा का इस्तेमाल किया तो कोई सीधे निशाने पर लेने लगा।

और पहला सवाल यही निकला की 2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी ही मुद्दा है। और ढाई दशक पहले मंडल कंमडल से निकली राजनीति के जरीये जो भी क्षत्रप बने उनकी राजनीति में पहली बार नरेन्द्र मोदी सेंध लगा रहे हैं। क्योंकि जाति के तौर पर मोदी अति पिछडा से आते हैं। वाम नजरिये से समझे तो मोदी गरीब परिवार से आते हैं । और दूसरा मुद्दा उठा कि मनमोहन सरकार के कामकाज से कांग्रेस का ग्राफ गिर रहा है और अब शरद पवार भी खड़े होने से कतरा रहे हैं। एनसीपी नेता डी पी त्रिपाठी हालाकि लगातार बोलते रहे कि वह यूपीए के साथ हैं। लेकिन जिस तर्ज पर मौजूदा राजनीति का विकल्प खोजने की कवायद शुरु हुई है उसमें मौजूदा क्षत्रपों के आपसी टकराव ही सबसे बडी रुकावट है। क्योंकि शरद पवार महाराष्ट्र में बिना कांग्रेस के रह नहीं सकते। वह जानते है कि कांग्रेस का साथ जहां उन्होंने छोडा वहीं एनसीपी के तमाम नेता काग्रेस की राह पकड़ लेंगे। तो बिहार की सियासत में सांप्रदायिकता के सवाल पर नीतीश पर लालू हमेशा से भारी हैं। यूपी के मौजूदा सियासी हालात बताते हैं कि मुलायम पर मायावती भारी हैं। बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की वाम धारा को ही ममता बनर्जी हड़प चुकी है। असम में प्रफुल्ल महंत फूंके हुये कारतूस हैं। पंजाब में पीपीपी के मनप्रीत बादल चूके हुये राजनीतिक खिलाड़ी हैं। तो राजनेताओं की दिल्ली में कवायद संख्या बल से तो राजनीति को प्रभावित कर सकती है लेकिन जमीनी राजनीति में बिहार में लालू, बंगाल में ममता,यूपी में मायावती, तमिलनाडु में करुणानिधि और आध्र प्रदेश में जगन रेड्डी को कैसे खारिज किया जा सकता है। खासकर तब जब सवाल संख्या बल के भरोसे सरकार बनाने के दौर का हो। और बिना गठबंधन कोई सरकार बना नहीं सकता है, इसे जब हर कोई जानता हो। ध्यान दें तो मनमोहन के बाजारवाद ने सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को कमजोर कर दिया। और मंहगाई भ्रष्टाचार या कालाधन सरीखे मुद्दे आम लोगों के पेट से जुड़ गये जबकि सांप्रदायिकता सियासी मुद्दा भर रह गया। और राजनेताओं ने इस सच को हमेशा पूंछ से पकड़ने की कोशिश की इसीलिये मौजूदा दौर में राजनीति की साख भी कमजोर हुई। इसलिये याद कीजिये तो दो बरस पहले ही अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक आंदोलन ने सत्ताधारी राजनीतिक दलो की चूलें हिला दी थीं। असल में राजनीति को लेकर आम लोगो के इसी गुस्से को नरेन्द्र मोदी हर किसी को खारिज कर भुना रहे हैं और तमाम राजनीतिक दल मुद्दा छोड़ मोदी को ही मुद्दा मान मिशन 2014 की दिशा में चल निकले हैं। तो विकल्प का रास्ता निकलेगा कैसे यह सबसे बड़ा सवाल है। और खासकर तब जब नरेन्द्र मोदी कांग्रेस की नब्ज पर हमला करने की तैयारी भी कर रहे है और संघ से अलग खुद को दिखाने का प्रयास भी कर रहे हैं। एक वक्त संघ के चहते प्रवीण तोगडिया. संजय जोशी और एम जी वैघ ने कई मौको पर मोदी को खारिज किया। लेकिन संघ परिवार मोदी के साथ खड़ा रहा। इस कैनवास को विस्तार दिजियेगा तो संघ के भीतर यह सवाल बार बार उठा कि सिर्फ नरेन्द्र मोदी के आसरे संघ की समूची राजनीतिक धारा को परिभाषित किया जाये। या फिर अयोध्या, कॉमन सिविल कोड, धारा 370 या गोवध या फिर गंगा शुद्दिकरण सरीखे मुद्दो को भी चुनावी राजनीति से जोड़कर स्वयंसेवक मोदी को आगे बढ़ाया जाये। और अगर ऐसा नहीं होता है तो वाजपेयी या आडवाणी से कई कदम आगे निकल कर संघ की राजनीतिक धारा को मोदी खारिज करेंगे। क्योंकि वाजपेयी तो पीएम बनने के
बाद बदले। आडवाणी पीएम होने के लिये जिन्ना प्रकरण में डूबकी लगा आये और मोदी ने अपनी लोकप्रियता को ही राजनीतिक तमगा मान लिया। ध्यान दें तो नरेन्द्र मोदी ने कभी विवादास्पद मुद्दों को नहीं उठाया। राम मंदिर भी नहीं। मंदिर से पहले शौचालय की जरुरत जरुर बतायी। कॉरपोरेट को कभी खारिज नहीं किया। जातीय या वर्ग के आधार पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की। सिर्फ एक बार हिन्दु राष्ट्रवाद का जिक्र मोदी ने अपने इंटरव्यू में किया । लेकिन इस दायरे से कोई नये जातीय समीकरण बनते या टूटते ऐसा भी नहीं है । और बेहद बारीकी से नरेन्द्र मोदी ने दो परिस्थितियों पर कभी कोई हमला नहीं किया। पहला कॉरपोरेट और दूसरा खुली बाजार इकनॉमिक्स।

संयोग से मनमोहन सिंह इन्हीं दो के आसरे सत्ता में 10 बरस से बने हुये हैं। और संयोग से इन दोनो स्थितियों का ही कमाल है कि बिहार यूपी के जातीय वोट बैंक को लगातार डिगा भी रहा है और जातियां अपने नुमाइन्दो पर यह दबाव भी बना रही हैं कि कि पारंपरिक धारा टूटनी चाहिये। इन परिस्थितियों में मुलायम सिंह यादव हो या नीतिश कुमार अगर जातीय समीकरण के आसरे ही सियासत होगी तो फिर मौजूदा राजनीति जातिय सेंघ लगाकर भी पार पा सकते हैं। क्योंकि कुर्मी जाति के नेता के तौर पर नीतीश की पहचान हो सकती है लेकिन राष्ट्रीय तौर पर कुर्मी जाति की बहुलता नहीं है यही मुश्किल मुलायम सिंह यादव को लेकर यादव वोटबैंक के साथ हो सकती है। और ऐसी ही परिस्थितियां महाराष्ट्र में मराठा वोटबैंक की और दक्षिण में द्रविड वोट को लेकर हो सकती है  ध्यान दें तो पहली बार जातीय बंधनों में बंधी राजनीति भी विकास का ढिढोरा इसलिये पीट रही हैं क्योंकि मनमोहन इकनॉमिक्स ने परंपरा से इतर जिन्दगी जीने की मुश्किलें बढायी हैं। और यह मुश्किल सीधे पेट से जुड़ी हैं . इसका लाभ और कोई नहीं कॉरपोरेट सत्ता उठाना चाहती है। जो उठा रही है। इसलिये मौजूदा संसद में अगर सौ से ज्यादा सांसद अगर कॉरपोरेट की पूंजी पर टिके हैं। और चुनाव लडते वक्त कारपोरेट ही पैसा लगाता है और संसद में कारपोरेट का ही हित यह सांसद पूरा करते है और इसे विकास का जामा पहना दिया जाता है। क्योंकि सरकार का अपना कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर है नहीं, जो कॉरपोरेट से बेहतर हो या उसके सामानांतर हो। फिर राजनीति के इस मोड़ पर जब कारपोरेट गवर्नेंस को लेकर सरकार पर सवालिया निशान लगा रही हो और नरेन्द्र मोदी उसी कारपोरेट के चहेते बने हो तब क्षत्रपों की राजनीति क्या मायने रखेगी यह एक सवाल भी है और आने वाले वाले वक्त में नायाब लोकतंत्र का बदलता चेहरा भी।

Thursday, October 31, 2013

वाजपेयी-आडवाणी की राह पर मोदी ?

पीएम की दौड़ में नरेन्द्र मोदी जिस तेजी से सरदार पटेल को हथियाने में लगे हैं, उसने पहली बार यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि कहीं वाजपेयी और आडवाणी की राह पर ही तो मोदी नहीं चल पड़े हैं। क्योंकि जिस धर्मनिरपेक्षता को वैचारिक स्तर पर सरदार पटेल ने रखा उससे आरएसएस ने कभी इत्तेफाक नहीं किया। और संघ ने राष्ट्रवाद की जो परिभाषा गढ़ी उससे बिलकुल अलग सरदार पटेल का राष्ट्रवाद था। पटेल ने भारत के इतिहास को स्वर्णिम बनाने में सम्राट अशोक के बराबर ही मुगल सम्राट अकबर को भी मान्यता दी। और विभाजन के बाद जब दंगों को लेकर देश जल रहा था जब कई सभाओ में सरदार पटेल ने मुस्लिमो को यह कहकर चेताया कि जिन्हें पाकिस्तान जाना है, वह अब भी जा सकते है। लेकिन जब आप भारत में है तो फिर देश की अखंडता और संप्रभुता से खिलवाड करने नहीं दिया जायेगा। लेकिन साथ ही मुस्लिमों को यह भरोसा भी दिलाया कि हिन्दुओ के बराबर ही मुस्लिमों को भी अधिकार मिलेंगे। और इसमे सरकार कोई कोताही नहीं बरतेगी। ध्यान दे तो मोदी बेहद बारीकी से उसी राह को पकड़ना चाह रहे हैं जिस राह पर अटल बिहारी वाजपेयी पीएम बनते ही चल पड़े थे। पीएम बनने के बाद वाजपेयी ने संघ के मुद्दों पर कभी ध्यान नहीं दिया। आडवाणी ने जिन्ना के जरीये धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहना। और नरेन्द्र मोदी जब से पीएम पद के उम्मीदवार बने हैं, उन्होंने मंदिर मुद्दे को कभी नहीं उठाया। मंदिर से पहले शौचालय का मुद्दा उठाया। बुर्का और टोपी के साथ मुस्लिमों को रैली का खुला आमंत्रण भेजा। और अब सरदार पटेल की धर्मनिरपेक्षता की खुली वकालत कर दी। जाहिर है यह रास्ता संघ के स्वयंसेवक का नहीं हो सकता। तो क्या मोदी पीएम की दौड़ के लिये संघ का रास्ता छोड़ खुद को स्टेटसमैन के तौर पर रखना चाहते हैं। यानी मोदी सरदार पटेल के जरीये जो लकीर खींच रहे हैं, वह संघ को फुसलाती भी है और संघ को एक वक्त के बाद झिड़कने के संकेत भी देती है। लेकिन आरएसएस इस हकीकत को समझ रहा है कि मोदी इस वक्त सबसे लोकप्रिय स्वयंसेवक हैं तो सत्ता संघ के हाथ आ सकती है और मोदी इस सच को समझते हैं कि सत्ता पाने के लिये संघ का साथ जरुरी है। तो मोदी घालमेल की सियासी बिसात बिछा कर पहले राउंड में कांग्रेस के पांसे से ही कांग्रेस को घेरना चाह रहे हैं। जिससे संघ भी खुश रहे और उनकी छवि भी धर्मनिरपेक्ष बने।

ऐसा नही है कि मोदी ने पटेल के उन पत्रों को नहीं पढ़ा होगा, जो महात्मा गांधी की हत्या के बाद लिखे गये। पटेल ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद कहा था ,मेरे दिमाग में कोई शंका नहीं है कि हिन्दू महासभा के कद्दरवादी गुट ही इस सजिश में सामिल हैं। फिर कहा संघ की पहल सरकार और राज्य के लिये खतरा है। और यह भी कहा कि संघ के नेताओं के भाषण जहरीले होते हैं। उन्हीं के जहर का परिणाम है कि महात्मा गांधी की हत्या हुई। इतिहास के पन्नों को पलटने पर तब के सरसंघ चालक गुरु गोलवरकर के जवाब भी सामने आते हैं, जिसमें वह राष्ट्रवाद का जिक्र करते हैं।

लेकिन पहली बार नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को घेरेते हुये जो सवाल खड़ा किया उससे आरएसएस खुश हो सकता है क्योंकि मोदी ने सरदार पटेल की धर्मनिरपेक्षता को सोमनाथ मंदिर से यह कहकर जोड़ा कि "देश को सरदार पटेल वाला सेक्युलरिज़्म चाहिए. सोमनाथ का मंदिर बनाते हुए उनका सेक्युलरिज़्म आड़े नहीं आया." मोदी ने अपने भाषण में बार-बार जाति, क्षेत्र समेत तमाम तरह की एकता का जिक्र कर संघ के स्वयंसेवक से इतर अपने लिये एक राजनीतिक बिसात बिछाने की कोशिश जरुर की। जिससे यह ना लगे कि मोदी संघ के एजेडे पर है और मैसेज यही जाये कि पटेल के आसरे उनका कद भी गुजरात से बाहर बढ़ रहा है।

Wednesday, October 30, 2013

मोदी को साधने के लिये तीसरा मोर्चा !

बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को घेरने के लिये दर्जन भर राजनेताओं की दिल्ली शिरकत ने पहली बार जतला दिया कि मोदी के गुजरात से बाहर कदम रखते ही हर राजनीतिक थ्योरी बदल रही है। और अगर एक साथ खड़े होकर इस राजनीतिक लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुंचाया गया तो फासीवाद और सांप्रदायिकता की जीत हो जायेगी। यानी राजनीतिक तौर पर हर किसी का सूपड़ा साफ हो जायेगा। तो पहली बार पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी का मतलब ही हिटलरवादी, फासीवादी या सांप्रदायिकता हो चला है। यानी नेताओं का जमघट अतीत के सच को नरेन्द्र मोदी के पीएम पद का उम्मीदवार बनते ही बदल रहा है।

क्योंकि संघ परिवार या अयोध्याकांड के नायक आडवाणी या स्वयंसेवक वाजपेयी के पीएम बनते ही फासीवाद और सांप्रदायिकता की जिस परिभाषा को सत्ता के लिये जिन नेताओं ने बदला अब नरेन्द्र मोदी के गुजरात से बाहर निकलते ही नयी परिभाषा आज दिल्ली उन्हीं नेताओं ने गढ़ी।

नीतीश के लिये बाबरी कांड करने वाले आडवाणी सांप्रदायिक कभी नहीं रहे। मुलायम की सरकार ने मुजफ्फरनगर दंगों की आग में सियासी गोटियां फेंकी। और इन्होंने सांप्रदायिकता के खिलाफ जमकर आग उगली। बाबूलाल मरांडी तो बीजेपी से ही निकले। और अब उन्हें बीजेपी सांप्रदायिक दिखायी दे रही है। नवीन पटनायक अयोध्या की आग के बाद भी लंबे वक्त तक बीजेपी से गलबहिया डाले रहे। लेकिन सम्मेलन में बीजेडी के नेता ने कहा कि आरएसएस के स्वयंसेवक देश को बांटने की राह पर निकले हुये हैं। जयललिता ने स्वयंसेवक पीएम वाजपेयी से परहेज नहीं की। प्रफुल्ल महंत भी एक वक्त स्वयंसेवक पीएम के दौर में साथ खड़े रहे। लेकिन आज उन्हें भी स्वयसेवक सांप्रदायिक नजर आ रहे थे और चूंकि आज नीतीश कुमार ने फासीवाद के आहट का जिक्र कर इमरजेन्सी की याद सम्मेलन में बैठे मीडियाकर्मियों को दिलायी। तो मंच पर बैठे ए बी वर्धन को जरुर यह याद आया होगा कि इमरजेन्सी के वक्त सीपीआई इंदिरा के साथ खड़ी थी।

अब यह सवाल उठना जायज है कि जिस पार्टी या जिन स्वयंसेवकों के साथ राजनीतिक करने में राजनीति के इन धुरन्धरों को कोई परहेज नहीं रहा और अब उसी बीजेपी और उन्हीं राजनीतिक स्वयंसेवकों ने भी अपना नेता नरेन्द्र मोदी को मान कर मिशन 2014 का संघर्ष शुरु किया है तो फिर उसी पार्टी और उन्हीं स्वयंसेवकों को छोड़ कर कभी साथ खड़े रहे राजनेताओं के नये विचार या नयी परिभाषा को लेकर देश का आम वोटर क्या सोचे। असल में राजनीति की साख इसीलिये डांवाडोल है और इसी डांवाडोल स्थिति का लाभ नरेन्द्र मोदी को लगातार मिल रहा है।

असल में दिल्ली में 14 राजनीतिक दलो के जमावडे में हर नेता की जुबान पर मोदी का नाम किसी ना किसी रुप में जरुर आया। किसी ने संकेत की भाषा का इस्तेमाल किया तो कोई सीधे निशाने पर लेने लगा। और पहला सवाल यही निकला की 2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी ही मुद्दा है। और ढाई दशक पहले मंडल कंमडल से निकली राजनीति के जरीये जो भी क्षत्रप बने उनकी राजनीति में पहली बार नरेन्द्र मोदी सेंध लगा रहे है। क्योंकि जाति के तौर पर मोदी अति पिछड़ा से आते है। वाम नजरिये से समझे तो मोदी गरीब परिवार से आते हैं। और दूसरा मुद्दा उठा कि मनमोहन सरकार के कामकाज से कांग्रेस का ग्राफ गिर रहा है और अब शरद पवार भी खड़े होने से कतरा रहे हैं। एनसीपी नेता डी पी त्रिपाठी हालाकि लगातार बोलते रहे कि वह यूपीए के साथ है। लेकिन जिस तर्ज पर मौजूदा राजनीति का विकल्प खोजने की कवायद शुरु हुई है, उसमें मौजूदा क्षत्रपों के आपसी टकराव ही सबसे बड़ी रुकावट है। क्योंकि शरद पवार महाराष्ट्र में बिना कांग्रेस रह नहीं सकते और वह जानते है कि कांग्रेस का साथ जहां उन्होंने छोड़ा वहीं एनसीपी के तमाम नेता काग्रेस की राह पकड़ लेंगे। तो बिहार की सियासत में साप्रंदायिकता के सवाल पर नीतीश पर लालू हमेशा से भारी हैं। यूपी के मौजूदा सियासी हालात बताते है कि मुलायम पर मायावती भारी हैं।

बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की वाम धारा को ही ममता बनर्जी हड़प चुकी हैं। असम में प्रफुल्ल महंत फुंके हुये कारतूस हैं। पंजाब में पीपीपी के मनप्रित बादल चुके हुये राजनीतिक खिलाड़ी हैं। तो राजनेताओं की दिल्ली में कवायद संख्या बल से तो राजनीति को प्रभावित कर सकती है लेकिन जमीनी राजनीति में बिहार में लालू, बंगाल में ममता,यूपी में मायावती, तमिलनाडु में करुणानिधी और आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी को कैसे खारिज किया जा सकता है। खासकर तब जब सवाल संख्या बल के भरोसे सरकार बनाने के दौर का हो। और बिना गठबंधन कोई सरकार बना नहीं सकता है इसे जब हर कोई जानता हो। ध्यान दें तो मनमोहन के बाजारवाद ने सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को कमजोर कर दिया। और महंगाई भ्रष्टाचार या कालाधन सरीखे मुद्दे आम लोगों के पेट से जुड़ गये जबकि सांप्रदायिकता सियासी मुद्दा भर रह गया। और राजनेताओं ने इस सच को हमेशा पूंछ से पकड़ने की कोशिश की इसीलिये मौजूदा दौर में राजनीति की साख भी कमजोर हुई। इसलिये याद कीजिये तो दो बरस पहले ही अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक आंदोलन ने सत्ताधारी राजनीतिक दलो की चूलें हिला दी थीं। असल में राजनीति को लेकर आम लोगों के इसी गुस्से को नरेन्द्र मोदी हर किसी को खारिज कर भुना रहे हैं और तमाम राजनीतिक दल मुद्दा छोड़ मोदी को ही मुद्दा मान मिशन 2014 की दिशा में चल निकले हैं। तो विकल्प का रास्ता निकलेगा कैसे, यह सबसे बड़ा सवाल है।

Wednesday, October 23, 2013

राहुल गांधी डर रहे हैं या डरा रहे हैं

राहुल गांधी डर रहे हैं या डरा रहे हैं। अगर डर रहे हैं तो उन्हें किस बात का डर है। और अगर वह डरा रहे हैं तो वह देश को किससे डराना चाहते हैं। राहुल गांधी का खुद की मौत को लेकर डर महज भावुकता में दिया गया वक्तव्य नहीं है। और ना ही खुद को इंदिरा या राजीव गांधी के समकक्ष खड़ा करने का इमोश्नल ब्लेकमेल है।
करीब 40 मिनट के भाषण में पहले 12 मिनट राहुल गांधी ने जिस तरह इंदिरा गांधी की हत्या के उस वातावरण को उभारा, जिसमें 1984 में 14 बरस का राहुल डरा हुआ था। उसने पहली बार ना सिर्फ 14 बरस के बालक राहुल के डर को उभारा बल्कि 1 सफदर जंग का वह घर जिसमें भारत की सबसे ताकतवर पीएम इंदिरा गांधी रहती थी, उनकी हत्या की परतों को भी कुछ इस तरह खोला, जिसने झटके में ना सिर्फ पीएम के घर के भीतर की सुरक्षा व्यवस्था बल्कि इंदिरा की हत्या के ठीक बाद सुरक्षा दायरे में भी गांधी परिवार किस तरह हत्या को लेकर खौफजदा था इस डर को उभार दिया। तो क्या राहुल गांधी ने उस डर को सार्वजनिक कर दिया है जो डर बार बार गांधी परिवार से ही निकलता है कि अगर गाधीपरिवार का कोई भी शख्स पीएम बना तो उसकी हत्या कर दी जायेगी।

ध्यान दें तो 2004 में सोनिया गांधी ने जब पीएम बनने से इंकार किया तो कई थ्योरी निकली। जिसमें एक थ्योरी हत्या के डर की भी थी। पिछले दिनो पंजाब में भाषण देते वक्त राहुल गांधी ने अपने पायलट पिता राजीव गांधी की मौत के डर को आसमान में बिगड़ने वाले मौसम को देख कर सोनिया गांधी के डर को ही उभारा। जिसके साये में राहुल और प्रियका भी मौसम के बिगड़ने पर आसमान देखकर सोचते की पिता राजीव लौटेंगे भी या नहीं। असल में यह डर है क्यों। आखिर क्यों गांधी परिवार हत्या के डर से खौफजदा है। ध्यान दें तो नेहरु परिवार में जवाहरलाल नेहरु को छोड़ कोई मौत सामान्य हालात में नहीं हुई। संजय गांधी विमान उड़ाते हुये मरे। इंदिरा गांधी की हत्या हुई। राजीव गांधी की भी हत्या हुई। और इसी दो पीढ़ी के साथ सोनिया गांधी जुड़ी और राहुल गांधी ने भी दादी इंदिरा और पिता राजीव की हत्या को सियासी तौर पर महसूस किया। तो क्या विरासत में मिले सियासी हत्या का डर राहुल को डरा रहा है या फिर जो हालात देश में बन रहे है उस हालात से राहुल डरे हुये हैं क्योंकि गांधी परिवार का दायरा देश में होकर भी कितना अकेला है यह किसी से छुपा नहीं है। ऐसे में राहुल का डर कहीं यह तो नहीं कि सत्ता से बाहर होते ही सुरक्षा दायरा खत्म होगा और गांधी परिवार अलग थलग पड़ जायेगा। इसलिये डर के संकेत की रेखा राहुल गांधी ने राजनीतिक प्रतिद्वंदी बीजेपी की तरफ खींची।

क्योंकि यह पहली बार है जब दंगे और सियासी हिंसा से लेकर लोगो के गुस्से की वजह बीजेपी को बताते हुये राहुल गांधी ने मिशन 2014 को नये राजनीतिक संकेत खुले तौर पर दिये। ध्यान दें तो पहली बार देश के लोगों में कई मुद्दों को लेकर गुस्सा है। लेकिन गुस्से के निशाने पर मनमोहनसिंह से कहीं ज्यादा गांधी परिवार है। क्योंकि मनमोहन सिंह ना तो देश और ना ही कांग्रेस के पीएम पद के उम्मीदवार बनकर चुनाव के मैदान से पीएम बने। मनमोहन सरकार को सोनिया गांधी रिमोट से चलाती है और राहुल गांधी मनमोहन सरकार को अंगुठे की नोंक पर रखते हैं, यह कैबिनेट के अध्यादेश को फाड़ने वाला बताकर राहुल ने साबित भी कर दिया। तो गुस्सा गांधी परिवार से जरुर होगा। लेकिन जिस तर्ज पर राहुल गांधी बीजेपी को कठघरे में खड़ा किया उसके पीछे कहीं ना कहीं मौजूदा राजनीति भी है।

क्योंकि पहली बार पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर संघ परिवार के कहने पर बीजेपी ने उस नरेन्द्र मोदी को उतारा है जो लुटियन्स की दिल्ली का नहीं है। जो उस राजनीतिक क्लास के भी नहीं है जो संसद में तो हर मुद्दे को लेकर कांग्रेस का विरोध करती है लेकिन संसद ठप होते ही गलबहिया करने से नहीं चुकती। ध्यान दें तो संघ परिवार भी दिल्ली के बीजेपी नेताओं से इसीलिये खफा है क्योंकि बीजेपी का भी कांग्रेसीकरण हो रहा था। और सियासी तौर तरीके इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बौद्दिकों के आसरे चलते रहे। मोदी के पास तो गुजरात का फार्मूला है, जहां राजनीतिक सत्ता पर बने रहना सिर्फ सियासी तिकडम भर नहीं होता। इसलिये ध्यान दे तो पीएम उम्मीदवार बनते ही नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से गांधी परिवार को निशाने पर लिया है, वह बीजेपी की राजनीतिक परंपरा से हटकर है। सिर्फ सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही नहीं बल्कि दामाद रॉबर्ट वाड्रा को भी निशाने पर लेने से कोई कोताही नरेन्द्र मोदी ने नहीं बरती।

मोदी की राजनीति को समझे तो गांधी परिवार इस हालात से डरा हुआ नहीं होगा, ऐसा हो नहीं सकता है और राहुल 2014 के मिशन को अस्तित्व की लड़ाई नहीं मान रहे होंगे, यह भी संभव नहीं है। क्योंकि मोदी के सत्ता में आने का मतलब सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं होगा, यह राजनीतिक हालातों और उसके तौर तरीको को भी बदलेगा। राहुल गांधी इस हकीकत को समझ रहे हैं, शायद इसीलिये अपनी दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी को गंवाने के बावजूद अपने गुस्से को अपनी समझदारी तले दफन करने को ही सियासी हथियार बनाने से नहीं चूक रहे हैं।

Monday, October 21, 2013

सीबीआई अब क्या करेगी?

सीबीआई अब क्या करेगी। अगर वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सच को अपना सच बनाती है तो उसे एफआईआर वापस लेनी होगी। और अगर अपनी जांच को सही मानती है और एफआईआर वापस नहीं लेती है तो प्रधानमंत्री का सच बेमानी हो जायेगा। यानी पहली बार सीबीआई की जांच और प्रधानमंत्री की साख में से कोई एक को ही बचना है। लेकिन इन न्याय के तराजू के इन दो पाटों पर निगरानी चूंकि सुप्रीम कोर्ट कर रहा है तो सीबीआई को कोई भी जवाब पहले सुप्रीम कोर्ट को देना है। इसलिये अब सबकी नजर सुप्रीम कोर्ट पर है कि वहा सीबीआई अपनी जांच पर सुप्रीम कोर्ट को कैसे संतुष्ट करती है क्योंकि कोलगेट पर सीबीआई जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही है और 22 अक्टूबर यानी कल सीबीआई को पहली स्टेटस रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में दाखिल करनी है। और खासकर यह पहला मौका है जब सीबीआई की एफआईआर के ठीक उलट पीएमओ ने तीन लाइन का बयान जारी कर सीबीआई की ही सांस अटका दी है। ध्यान दें तो सीबीआई की एफआईआर में कई पेंच ऐसे हैं, जिसे अनदेखा सुप्रीम कोर्ट कर ही नहीं सकता चाहे सीबीआई एफआईआर वापस लेने की बात कहें। पहला पेंच है अगर हिंडाल्को की फाइल पीएम ने क्लियर की, जो वह मान चुके है तो कोल ब्लाक्स की बाकी फाइलों को भी पीएम ने ही बतौर कोयला मंत्री क्लियर की होगी। दूसरा पेंच है -सीबीआई अगर हिंडालको के खिलाफ केस बंद करती है तो फिर पूर्व कोयला सचिव पारेख पर उसका रुख क्या होगा। क्या पारेख को भी सीबीआई क्लीन चीट दे देगी।

क्योंकि एक तरफ सीबीआई ने पूर्व कोयला सचिव के ताल्लुकात दूसरी कंपनियों के साथ होने का जिक्र भी किया है और पूर्व कोयला सचिव ने अपने बयान में पीएम को कटघरे में खड़ा किया है। और तीसरा पेंच है कैग की रिपोर्ट में पूर्व कोयला सचिव को व्हीसल ब्लोअर माना गया। क्योंकि पारेख ने ही कोल ब्लाक बांटने की जगह बोली लगाने की वकालत की थी। जिसे उस वक्त कोयला मंत्री यानी पीएम ने नहीं माना। यानी हर पेंच में सीबीआई की जांच ही पहली बार कटघरे में है और सबसे बड़ा सवाल है कि सीबीआई के एफआईआर ने कोल गेट के पूरे मुद्दे की असल जड़ से ही ध्यान भटका दिया है। क्योंकि सवाल यह नहीं था कि कोल ब्लाक किसे मिले।

सवाल था कि कैसे राजस्व को चूना लगाकर कोल ब्लॉक बकायदा सरकार की नीतियों के तहत औने पौने दाम में बांट दिये गये। इसलिये अब हर किसी की नजर सुप्रीम कोर्ट पर है जहां कल सीबीआई स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करेगी। और सुप्रीम कोर्ट आवश्यक दिशा निर्देश देगी। वहीं दूसरी तरफ मनमोहन सिंह इस सच को समझ रहे है कि 2003 से 2010 के दौरान आंवटित की गई जिन 192 कोल ब्लॉक्स की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई कर रही है उसके कठघरे में बतौर कोयला मंत्री उनका नाम बार बार आयेगा। इसलिये पहली बार पीएमओ ने हिंडाल्को पर सफाई देकर बेहद बारीकी से खुद को पाक साफ किया है। ध्यान दें तो हिंडाल्को को आवंटित की गई खादान को सही करार देते हुये पीएमओ ने जिन तीन लाइन का बयान जारी किया गया उसमे दो तथ्यों को रखा। पहला जो निर्णय लिया गया वह सही था। और जो केस उनके सामने रखा गया वह मेरिट के लिहाज एकदम सही था। यानी संकेत साफ है कि ना सिर्फ हिंडालको के मामले में बल्कि जिन भी कोल ब्लाक्स को आंवटित किया गया, उसकी मेरिट को जांचने का काम कोल सचिव या कोयला मंत्रालय का ही था। ना कि कोयला मंत्री का जो उस वक्त प्रधानमंत्री ही थे। जाहिर है पीएमओ का यह बयान चाहे हिंडालको को क्लीन चीट दें लेकिन पूर्व कोल सचिव को क्लीन चीट मिलेगी यह मुश्किल है। क्योंकि सीबीआई की जांच ने कई सवाल कोल ब्लाक्स आवंटन को लेकर किये है। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण आरोप यह है कि कोल ब्लाक्स आंवटन का निर्णय स्क्रीनिंग कमेटी से बाहर किया जा रहा था। और दूसरा पूर्व कोल सचिव उस वक्त नवभारत पावर के डायरेक्टर थे जब कोल ब्लाक के लिये उसने अप्लायी किया। लेकिन मनमोहन सिंह की मुश्किल यह है कि सरकार कोल ब्लाक देने की प्रक्रिया में ही गडबड़ी पायी गयी और आंवटन के तौर तरीके सरकार ने यानी पीएम ने ही तय किये थे।

और यह ठीक वैसे ही है जैसे 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में ट्राई की पॉलिसी खारिज कर नीतियां सरकार की थीं और इसी चक्कर में संचार मंत्री ए राजा को जेल जाना पड़ा। ऐसे में सीबीआई 22 अक्टूबर को तो सीलबंद लिफाफे में अपना पक्ष सुप्रीम कोर्ट के सामने रखेगी। लेकिन यह सीलबंद लिफाफा खुलेगा 29 अक्टूर को। और तबतक सरकार की सांस तो अटकी ही रहेगी। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का भी निर्देश 29 को ही जारी होगा। जो किस किस को कठघरे में खड़ा करता है यह महत्वपूर्ण होगा।

Monday, October 14, 2013

क्या राहुल का विकल्प है प्रियंका गांधी?

सिर्फ 40 मिनट के भीतर प्रियंका गांधी को राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर लाने के ऐलान की खबर की मौत हो जाती है। लेकिन इन चालीस मिनट में ही गांधी परिवार की एक्स-रे रिपोर्ट सामने आ जाती है। पहला सवाल प्रियंका को लेकर खड़ा होता है कि क्या वाकई कांग्रेस के लिये प्रियका तुरुप का पत्ता है। जिसके सामने राहुल गांधी की लोकप्रियता कोई मायने नहीं रखती हैं। दूसरा सवाल राहुल गांधी को ही लेकर खड़ा होता है कि क्या राहुल गांधी बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को ठिकाने लगाने का स्थिति में नहीं हैं। और संगठन को मथ कर जिसतरह कांग्रेस को युवा हाथों में सौपने का सपना राहुल गांधी ने देखा है, वह महज सपना है। और तीसरा सवाल सोनिया गांधी को लेकर खड़ा होता है कि क्या सोनिया गांधी उम्र, स्वास्थ्य और सियासी वजहों से अब रिटायर होने के रास्ते पर है।

जाहिर है प्रियंका गांधी को लेकर तीनों सवाल गांधी परिवार के ही अंतर्विरोध को लेकर उछले और राजनीतिक धमाचौकडी के उस दौर में उछले जब गांधी परिवार बिना जिम्मेदारी सत्ता में है। और गांधी परिवार का कोई एक शख्स नहीं तीन तीन शख्स सियासत कर रहे हैं। तो क्या ऐसे वक्त में प्रियका गांधी को लेकर कांग्रेस ने जानबूझकर खबर उछाली है कि प्रियका अब रायबरेली-अमेठी से बाहर निकलेंगी और नरेन्द्र मोदी के चुनाव प्रचार का जवाब देंगी।

असल में गांधी परिवार पहली बार सियासत में रहकर भी जिस तर्ज पर देश को चलाने का भ्रम बनाये हुये है, वह आजादी के बाद अपनी तरह का अजूबा ही है। क्योंकि इससे पहले सिर्फ नेहरु की मौत के बाद ही इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष होकर भी पीएम नहीं बनी और तब कांग्रेस सिंडिकेट यानी कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री को पीएम बनाया। लेकिन 1966 में शास्त्री जी की मौत के बाद कहीं कामराज या कहें वही सिंडिकेट इंदिरा गांधी के पत्र में झुका और मोरारजी देसाई वरिष्ठ होकर भी और चाह कर भी पीएम ना बन सके। और एक वक्त के बाद उन्हें कांग्रेस के बाहर का रास्ता देखना ही पड़ा। कांग्रेस के पन्नों को पलटें तो वही कामराज को भी इंदिरा ने अलग थलग किया या कहें कांग्रेस दो फाड़ हो गई जब सिंडिकेट काग्रेस का विरोध इंदिरा गांधी ने किया और कामराज ने इंदिरा गांधी का विरोध किया। अगर इस कडी को आगे बढायें तो

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के तत्काल बाद तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने राजीव गांधी को तुरंत पीएम बनाये जाने का विरोध किया था। और इसका खामियाजा उन्हें सबसे बड़ी जीत के साथ पीएम बने राजीव गांधी को मंत्रिमंडल में जगह मिलना तो दूर, कांग्रेस छोड़ राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बनाकर अपने राजनीतिक आस्तित्व को बचाने तक की आ गई थी। दरअसल गांधी-नेहरु परिवार पर कोई टिप्पणी तो दूर कई मौको पर तो समूची कांग्रेस ही खामोश रही है और जब भी कोई बोला है तो उसे रास्ता अलग पकड़ना पडा है। इंदिरा गांधी के दौर तो इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया के नारे तक लगे। लेकिन अब के दौर में यानी सोनिया गांधी के वक्त पहली बार हालात ऐसे भी हैं, जहां नेहरु परिवार की चौथी पीढी ना सिर्फ जवान हो चुकी है बल्कि भागते वक्त के साथ उम्र भी गुजर रही है। और देरी का मतलब है कांग्रेस की विरासत संभालने से भागना या कांग्रेस का मतलब जहां गांधी-नेहरु परिवार ही माना जाता है, उससे चूक जाना। लेकिन इसी दौर में कांग्रेस की हालत क्या है, यह प्रियका गांधी की खबर के सामने आने से लेकर खबर के खंडन या खारिज किये जाने के चालिस मिनट के वक्त में ही दिख गया। नरेन्द्र मोदी के गुजरात के संबरकांठा से चुन कर आने वाले काग्रेसी सांसद मधुसुधन मिस्त्री ने दिल्ली में पत्रकारों को जानकारी दी कि प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार के लिये रायबरेली-अमेठी से बाहर निकलेगी। और इसके तुरंत बाद ही कांग्रेसियों में होड़ मच गयी कि कौन प्रियंका गांधी के पक्ष में कितना बोल सकता है। राशिद अल्वी और कपिल सिब्बल सरीखे नेता यह कहने से नहीं चूके की कांग्रेस का तो हर कार्यकर्ता चाहता है कि प्रियंका गांधी मुख्यधारा की राजनीति में आयें। लेकिन कांग्रेस की त्रासदी देखिये जैसे ही प्रियंका के चुनाव प्रचार में कूदने की खबर का खंडन काग्रेस के प्रवक्ता अजय माकन ने किया वैसे ही झटके में हर कांग्रेसी को लगने लगा कि प्रियंका गांधी को अभी राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर नहीं आना चाहिये। और एक एक कर वही कांग्रेसी बदलने लगे जो आधे घंटे पहले तक प्रियंका के पक्ष में थे। सवाल है कि क्या मौजूदा दौर में कांग्रेस इतनी कमजोर हो गयी है कि गांधी परिवार के दो सदस्यों के आसरे भी उसे अपनी सत्ता जाती दिख रही है। या फिर जो प्रियंका अभी तक रायबरेली और अमेठी से बाहर चुनाव प्रचार तक के लिये निकली है उनमें कोई नये गुण कांग्रेसी देख रहे है जो राहुल गांधी में नहीं है। या फिर मौजूदा वक्त में राहुल गांधी की राजनीति कांग्रेसियों को ही नहीं भा रही है। क्योंकि राहुल गांधी काग्रेस के उस ढांचे को तोड़ना चाहते हैं, जिसे इंदिरा गांधी ने बनाया। या कहें इंदिरा के बाद राजीव गांधी और फिर सोनिया गांधी ने जिस तरह सत्ता संभाली उसने इसके संकेत साफ दे दिये कांग्रेस संगठन से नहीं गांधी परिवार के औरे से चलती है और हर कांग्रेसी किसी भी तरह की कोई आंच गांधी परिवार पर आने नहीं देता। इसलिये जो भी हवा गांधी परिवार को लेकर बहे या बहने के संकेत दिखने लगे। बस उसी अनुरुप हर कांग्रेसी ढल जाता है। लेकिन प्रियंका के सवाल ने आने वाले वक्त के लिये यह संकेत तो दे दिये कि अगर प्रियंका जब भी मुख्यधारा की राजनीति में आयेगी वैसे ही राहुल गांधी की राजनीति पर पूर्ण विराम लग जायेगा। क्योंकि 2004 में राहुल गांधी के अमेठी से पर्चा भरने से लेकर 19 जनवरी 2013 को जयपुर में राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने तक के दौरान की परिस्थितियों को देखें तो प्रियंका हर जगह मौजूद थी। और बार बार राजनीतिक मिजाज में बात यही उभरी या हर कांग्रेसी ने यही देखा समझा कि राहुल गांधी हर महत्वपूर्ण मौके पर बिना प्रियंका गांधी के एक पग भी आगे नहीं बढ़ाते हैं। लेकिन प्रियंका को लेकर जो कांग्रेसी उनमें इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं, उनके लिये आखिरी सवाल यही है कि इंदिरा यू ही राजनीति में नहीं आ गयी।

केरल में पहली वामपंथी सत्ता डगमगायी तो उसके पीछे इंदिरा गांधी की ही सियासी चाल थी। और 42 बरस की उम्र में इंदिरा 1959 में तब कांग्रेस की अध्यक्ष बनी जब देश में समाजवादी लहर बहने लगी थी। लोहिया सीधे नोहरु को घेर रहे थे। और 1964 में नेहरु की मौत के वक्त भी कांग्रेस की अगुवाई कौन करें इसे लेकर बखूबी परिस्थितियों को देख समझ रही थी। और फिर कामराज के सिंडिकेट कांग्रेस से टकरा कर कहीं ज्यादा तेजी से उभरने का हुनर भी इंदिरा ने दिखाया था। लेकिन प्रियंका ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। और 14 अक्टूबर 2013 को जब कांग्रेस के भीतर से ही प्रियंका गांधी को लेकर खबरे निकले और 40 मिनट बाद दफन हो गयी तो आने वाले वक्त के संकेत भी दे गयी कि अब चाहे प्रियकां गांधी बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को ठिकाने लगाने सामने आये लेकिन माना यही जायेगा कि राहुल हार गये । यानी जिस गांधी परिवार से देश के विकल्प की बात होती रही वही गांधी परिवार अपने ही परिवार का विक्लप बन रहा है। यानी मौजूदा वक्त के आईना यही दिखाया कि राहुल गांधी का विकल्प है प्रियंका गांधी।

Friday, October 4, 2013

"राइट दू रिजेक्ट" के नाम पर वोटर धोखा तो नहीं खायेगा

2013 के चुनाव वोटरों के लिये पहली बार उम्मीदवारों को बाकायदा बटन दबाकर खारिज करने वाला भी चुनाव होगा। यानी ईवीएम की मशीन में वोटरों को यह विकल्प भी मिलेगा कि वह किसी भी उम्मीदवार को चुनना नहीं चाहते है। लेकिन राइट टू रिजेक्ट से इतर इनमें से कोई नहीं वाला बटन क्या वाकई राजनीतिक दलों पर नैतिक दबाव बना पायेगा कि वह दागियो को टिकट ना दें। या फिर दागियों के लिये जीतने का यह स्वर्णिम अवसर हो जायेगा। क्योंकि इस चुनाव में इसकी कोई व्यवस्था ही नहीं है कि कितने वोटरों ने इनमें से कोई नहीं का बटन दबाया उनकी गिनती हो। और दूसरा अगर कुल पड़े वोट की तादाद में सबसे ज्यादा वोटरों ने इनमें से कोई नहीं वाला बटन दबा भी दिया तो भी कोई ना कोई उम्मीदवार तो हर हाल में जीतेगा ही। यानी दागी उम्मीदवार की जो सबसे बड़ी ताकत वोट को मैनेज करना होता है उसमें उसे कम मशक्कत करनी पड़ेगी। क्योंकि आदर्श स्थिति की बात करने वाले वोटर तो इनमे से कोई नहीं वाला बटन दबाएंगे।

और जीत हार तय करने निकले वह वोटर जो जातीय या धर्म या समुदाय के आधार पर बंटे होते हैं वह उम्मीदवार के दागी होने से पहले अपने आधारों को देखते हैं। तो तीन सवाल असबार सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एवीएम में नोटा यानी इनमें से कोई नहीं वाले बटन के घाटे पर बड़ी तादाद में वोटरों के वोट बिना गिने रह जायेंगे। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने एक उदाहरण संसद का यह कहकर दिया था कि वहां भी वोटिंग के हालात में एबसेंट की संख्या भी बतायी जाती है। लेकिन चुनाव आयोग ने कोई व्यवस्था नहीं की है कि नोटा बटन दबाने वालो की गिनती हो। दूसरा सवाल वोट मैनेज करने वालो के लिये आसानी होनी। क्योकि साफ छवि वाले नेता वोटरो के सामने यह आवाज जरुर उठायेगे कि वो नोटा बटन भी दबा सकते हैं। और तीसरा रिप्ररजेन्टेशन आफ पीपुल्स एक्ट की धारा 49 को खत्म करने का कोई महत्व नहीं बचेगा। क्योंकि इस नियम के तहत वोटर पहले प्रिजाइडिंग अफसर को जानकारी देता था कि वह किसी भी उम्मीदवार को वोट देना नहीं चाहता है। तो उसकी संख्या पता चल जाती थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रवधान को इसलिये बदला क्योंकि इससे धारा 19(1) के तहत फ्रीडम आफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन का वॉयलेशन होता क्योकि वोटिग को सिक्रेट बैलेट माना जाता है।

 लेकिन यहीं से सवाल बड़ा होता है कि संविधान चुनाव के अधिकार को अगर बराबरी के तराजू में रखता है तो वोट का मतलब अपने नुमाइन्दे को चुनने या दूसरे को खारिज करने के लिये होता है। इसकी कोई व्यवस्था संविधान में भी नहीं है कि वोटर वोट डाल दें और उसके वोट को कही दिखाया ही ना जाये। यानी गिनती में कही नजर ही ना आये। इसे बारिकी से समझें तो 2009 में देश में कुल 70 करोड़ वोटर थे। लेकिन वोटिंग महज 29 करोड़ हुई। और इसमें से 11.5 करोड़ वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिया और 8.5 करोड वोटरों ने बीजेपी को वोट दिया। कमोवेश इसी तरह करीब एक करोड़ वोट सपा या बीएसपी के पक्ष में पड़े। यानी हर पार्टी को कितने वोट मिले यह चुनाव आयोग के दस्तावेज में दर्ज है और इसे कोई भी कभी भी देख सकता है। लेकिन 2013 के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कुल 11 करोड़ वोटर हैं। मान लीजिये 50 फीसदी वोटिंग होती है। यानी 5.5 करोड़ वोटर वोट डालते है ।

लेकिन इस बार यह तो जिक्र होगा कि कि किस राज्य में राजनीतिक दल को कितने वोट मिले या फिर किस उम्मीदवार को कितने वोट मिले और वह कितने अंतर से जीत गया। लेकिन इसका कोई जिक्र ही नहीं होगा कि कितने वोटरो ने अपने क्षेत्र में किसी भी उम्मीदवार को वोट देना पंसद नहीं किया और अगर 5.5 करोड़ में से तीन करोड़ वोटर इनमे से कोई नहीं वाला बटन भी दबा दें तो भी हर क्षेत्र में कोई ना कोई जीतेगा या किसी ना किसी राजनीतिक दल की सरकार बनेगी। और सैकड़ों, हजारों, लाखों या करोड़ वोट इसबार बिना मतलब के साबित होंगे। और चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट खुश हो सकता है कि वोटरों को एक नया विकल्प मिल गया । लेकिन वोटर यह सोच कर कतई खुश नहीं हो सकता कि उसे विक्लप मिल गया और हो सकता है यह तौर तरीका या कहे चुनाव परिणाम तब एक बडी त्रासदी बन जायेगा जब कोई दागी इस बिला पर चुन कर आ जायेगा कि उसे नोटा की तुलना में  कम वोट मिले लेकिन उम्मीदवारो की पेरहिस्त में सबसे ज्यादा वोट मिले। और यह हर कोई जानता है कि कोई भी राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिये उम्मीदवार को मैदान में उतारता है। तो अधूरी तैयारी के साथ चुनाव आयोग का उठाया गया कदम कहीं ज्यादा घातक ना हो इसका इंतजार करना होगा। क्योंकि राइट टू रिजेक्ट का सीधा मतलब होता है वोट के प्रतिशत की तुलना में रिजेक्ट किये गये वोट का आंकलन या फिर वोट के रिजेक्ट फीसदी की एक लकीर खींच कर रिजेक्ट को भी बतौर उम्मीदवार के तौर पर मानना जिससे वोटर को दुबारा वोट डालने का मौका उसी चुनाव में नये सिरे से मिल सके। लेकिन इसकी कोई व्यवस्था नहीं है ।