Sunday, June 29, 2014

मोदी सरकार की बाधाओं को खत्म कर संघ को विस्तार देने के लिये जुटेंगे प्रचारक

जश्न के मूड में संघ के प्रचारको का नायाब अभियान

पहली बार संघ के प्रचारक जश्न के मूड में हैं। चूंकि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सफर संघ के प्रचारक से ही शुरु हुआ तो पहली बार प्रचारकों में इस सच को लेकर उत्साह है कि प्रचारक अपने बूते ना सिर्फ संघ
को विस्तार दे सकता है बल्कि प्रचारक देश में राजनीतिक चेतना भी जगा सकता है । यानी खुद को सामाजिक-सांस्कृतिक संघठन कहने वाले आरएसएस के प्रचारक अब यह मान रहे हैं कि राजनीतिक रुप से उनकी सक्रियता सामाजिक शुद्दीकरण से आगे की सीढी है । वजह भी यही है कि पहली बार प्रचारकों का जमावडा राजनीतिक तौर पर सामाजिक मुद्दो का मंथन करेगा। यानी संघ के विस्तार के लिये पहले जहा जमीन सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर अलख जगाने की सच लिये हर बरस प्रचारक सालाना बैठक के बाद निकलते थे। वहीं इस बार जुलाई के पहले हफ्ते में इंदौर में अपनी सालाना बैठक में सभी प्रचारक जुडेंगे तो हर बरस की ही तरह लेकिन पहली बार राजनीतिक सफलता से आरएसएस की विचारधारा को कैसे बल मिल सकता है इस पर मंथन होगा । किसी मुद्दे पर कोई फैसला इस बार प्रचारकों की बैठक में नही होना है। बल्कि हर उस मुद्दे पर मंथन ही प्रचारकों को करना है जो राजनीतिक तौर पर देश में लागू किये जा सकते है । या फिर जिन्हे लागू कराने की दिशा में मोदी सरकार कदम उठाना चाहती है। उत्तर-पूर्व में संघ को लगातार ईसाई समाज से संघर्ष करना पड़ा है। जम्मू में कश्मीरी पंडितों का दर्द बार बार राहत कैंपों से निकल कर संघ को परेशान करता रहा है। देश भर में शिक्षा का आधुनिकीकरण सरस्वती शिशु मंदिर से लेकर संघ के शिक्षा संस्थानो को चेताते रहा है तो उसका कायाकल्प कैसे हो इस पर प्रचारकों को मंथन करना जरुरी लगने लगा है। यानी धीरे धीरे जो मुद्दे विवाद के दायरे में काग्रेस के दौर में फंसते रहे उसे सुलझाने के लिये सरकार काम करे और जमीन पर उसके अनुकुल माहौल बनाने में संघ के स्वयसेवक काम करे तो रास्ता निकल सकता है। कुछ इसी इरादे से प्रचारकों की सालाना बैठक इस बार  २-३ जुलाई से शुरु होगी। और चूंकि पहली बार राजनीतिक तौर पर प्रचारक सक्रिय भूमिका निभाने की स्थिति में है तो राजनीतिक तौर पर भाजपा को कैसे लाभ मिले या चुनावो में भाजपा की पैठ कैसे बढे इसके लिये संघ चार राज्यो में नयी शक्ति लगाने की तैयारी भी कर रही है ।

संघ का विस्तार हो और भाजपा को राजनीतिक सफलता मिले इसके लिये प्रचारकों की बैटक में तमिलनाडु, उडिसा , केरल और पश्चिम बंगाल को लेकर खास मंथन होना तय है । और पहली बार उस लकीर को भी मिटाया जा रहा है जो एनडीए के शासनकाल में नजर आती थी । हालाकि उस वक्त भी संघ के प्रचारक रहे वाजपेयी ही पीएम थे । लेकिन वाजपेयी के दौर से मौदी का दौर कितना अलग है और आरएसएस किस उत्साह से मोदी के दौर को महसूस कर रहा है उसका नजारा धारा ३७० से लेकर दिल्ली यूनिवर्सिटी के कोर्स और सीमावर्ती इलाको में सेना की मजबूती के लिये निर्माण कार्य को हरी झंडी देने से लेकर सैन्य उत्पादन के
लिये एफडीआई तक को लेकर है । धारा ३७० को खत्म करने के लिये  देश सहमति कैसे बनाये यह प्रचारको के एजेंडे में है । दिल्ली यूनिवर्सिसटी के कोर्स बदलने के बाद अब संघ की निगाहें यूनिवर्सिटी में नियुक्ती को लेकर है । बीते दस बरस से नियुक्तियां रुकी हुई है और अब नियुक्ती ना हो पाने की सारी बाधाओं को खत्म किया जा रहा है जिससे करीब पांच सौ पदो पर नियुक्ती हो सके । हालांकि संघ के लिये यह अजीबोगरीब संयोग है कि मध्यप्रदेश में व्यापम भर्ती घोटाले ने संघ को भी दागदार कर दिया है और संघ के सबसे प्रिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के दरवाजे तक घोटाले की दस्तक हो रही है और फिर प्रचारकों की बैठक भी मध्यप्रदेश में ही हो रही है। जहां संघ के तमाम वरिष्ठो के साथ सुरेश सोनी को भी प्रचारकों की बैठको में पहुंचना है। और चूंकि सुरेश सोनी का नाम भी व्यापम भर्ती घोटाले में आया है तो संघ ने अपने स्तर पर पहली बार अपने शिवराज सिंह चौहान को भी आदर्शवाद घेरे की लक्ष्मण रेखा लाघंने का आरोप लगाना शुरु किया है। दिल्ली से झंडेवालान से लेकर नागपुर के महाल तक में इस बात को लेकर आक्रोश है कि शिवराज सिंह चौहाण की नाक तले व्यापम भर्ती घोटाले होते रहे और चंद नामों की सिफारिशे संघ की तरफ से क्या कर दी गयी समूचा घोटाला ही संघ से जोडने की शुरुआत हो गयी ।

तो आरएसएस के भीतर पहली बार शिवराज सिंह चौहाण को लेकर भी दो सवाल हैं। पहला क्या जानबूझकर संघ के वरिष्ठों का नाम उठाया गया। जिससे संघ घोटालों में ढाल बन जाये । और दूसरा क्या शिवराज सिंह चौहाण ने अपनी खाल बचाने के लिये संघ के चंद सिफारिशी नामों को उजागर करवा दिया। जिससे लगे यही कि संघ का भी दबाब था तो चौहाण की शासन व्यवस्था क्या करें । हो जो भी असर यह हुआ है कि पहली बार आरएसएस के घेरे में मध्यप्रदेश के सीएम शिवराजसिंह चौहाण का आदर्श चेहरा भी दागदार हुआ है। और दूसरा सवाल संघ के भीतर पुराने किस्सो को लेकर सच की किस्सागोई में सुनायी देने लगा है। देवरस के दौर के नागपुर के स्वयंसेवक की मानें तो संघ के भीतर सत्ता मिलने पर नियुक्तिया कैसे हो और किसकी हो यह सवाल खासा पुराना है । और पहली बार इसकी खुली गूंज १९९१ के शुरु में भाउराव देवरस की थी । उस वक्त नागपुर में स्वयसेवको की बैठक को संबोधित करते हुये आउराव ने अचानक मौजूद स्वयसेवको से पूछा कि आज अगर हमें नागपुर में वाइस चासंलर नियुक्त करना हो तो किसे करेंगे । इस पर तुरंत कुछ नाम जरुर आये लेकिन ,ही नाम कौन हो सकता है इसपर सहमति नहीं बनी । इसपर भाउराव देवरस ने कहा कि मान लो अगर हमारे बीच से कोई पंतप्रधान यानी प्रधानमंत्री  बन जाये तो फिर उसे कम से कम पांच हजार नियुक्ती तो करनी ही होगी । तो वह कैसे करेगा । जब आप सभी को एक वीसी का नाम सही नहीं मिल पा रहा है। उस वक्त भाउराव देवरस ने यही कहकर बात खत्म की थी कि हर क्षेत्र में सही लोगो का पता लगाना और उन्हे साथ जोडना या उनके साथ खुद जुड़ना जरुरी है। यानी धारा 370 को लेकर कौन कौन से चिंतक सरकार के सात खडे हो सकते है इसकी खोज संघ को करनी है। चीन को चुनौती देने के लिये कौन कौन से प्रशासक या नौकरशाह अतीत के पन्नों को पलट कर देश की नीति को बना सकते है कि कभी चीन में तिब्बत को लेकर भारत ने भी आवाज उठायी थी । तब सरदार पटेल थे अब तो वैसा कोई है नहीं। फिर धर्मातंरण के उलट धर्मातंरण यानी आदिवासी हिन्दुओ की घर वापसी वाले हालात को लेकर उत्तर-पूर्व के बार में कौन नीति बना सकता है या उससे पहले प्रचारकों को ही माहौल तैयार करना होगा अब मंथन इस पर होगा । यानी मोदी सरकार के
रास्ते की बाधाओ को दूर कर संघ के विस्तार का रास्ता बनाने के लिये प्रचारको का मंथन होगा। निकलेगा क्या इसका इंतजार करना होगा।

Friday, June 27, 2014

वे कौन लोग हैं जो एसपी को याद करते हैं

वे कौन लोग है जो एसपी को याद करते हैं। वे कौन लोग है जो खुद को ब्रांड बनाने पर उतारु हैं, लेकिन एसपी को याद करते हैं।  वे कौन लोग है जो पत्रकारिता को मुनाफे के खेल का प्यादा बनाते हैं लेकिन एसपी को याद करते हैं। वे कौन है जो एसपी की पत्रकारीय साख में डुबकी लगाकर अतीत और मौजूदा वक्त की पत्रकारिता को बांट देते हैं। वे कौन है जो समाज को कुंद करती राजनीति के पटल पर बैठकर पत्राकरिता करते हुये एसपी की धारदार पत्रकारिता का गुणगान करने से नहीं कतराते। वे कौन है जो एसपी को याद कर नयी पीढी को ग्लैमर और धंधे का पत्रकारिता का पाठ पढ़ाने से नहीं चूकते। वे कौन है जो पदों पर बैठकर खुद को इतना ताकतवर मान लेते हैं कि एसपी की पत्रकारिता का माखौल बनाया जा सके और मौका आने पर नमन किया जा सके। इतने चेहरों को एक साथ जीने वाले पत्रकारीय वक्त में एसपी यानी सुरेन्द्र प्रताप सिंह को याद करना किसी त्रासदी से कम नहीं है। मौजूदा पत्रकारों की टोली में जिन युवाओ की उम्र एसपी की मौत के वक्त दस से पन्द्रह बरस रही होगी आज की तारिख में वैसे युवा पत्रकार की टोली कमोवेश हर मीडिया संस्थान में है। खासकर न्यूज चैनलों में भागते-दौड़ते युवा कामगार पत्रकारों की उम्र पच्चीस से पैंतीस के बीच ही है। जिन्हें २७ मई १९९७ में यह एहसास भी ना होगा कि उनके बीच अब एक ऐसा पत्रकार नहीं रहा जो २०१४ में जब वह किसी मीडिया कंपनी में काम कर रहे होंगे तो पत्रकरीय ककहरा पढने में वह शख्स मदद कर सकता है। वाकई सबकुछ तो बदल गया फिर एसपी की याद में डुबकी लगाकर किसे क्या मिलने वाला है। कही यह पत्रकरीय पापों को ढोते हुये पुण्य पाने की आकांक्षा तो नहीं है। हो सकता है। क्योंकि पाप से मुक्त होने के लिये कोई दरवाजा तो नहीं बना लेकिन भागवान को याद कर सबकुछ तिरोहित तो किया ही जाता रहा है और यही परंपरा पत्रकारिय जीवन में भी आ गयी है तो फिर गलत क्या है। हर क्षण पत्रकारिय पाप कीजिये और अपने अपने भगवन के सामने नतमस्तक हो जाइये। लेकिन पत्रकारीय रीत है ही उल्टी। यहा भगवन याद तो आते है लेकिन खुद को घोखा दे कर खुद को मौजूदा वक्त में खुद को सही ठहरा कर याद किये जाते हैं। सिर्फ एसपी ही नहीं राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा को भी तो हर बरस इसी तरह याद किया जाता है। यानी जो हो रहा है उसके लिये मै जिम्मेदार नहीं। जो नहीं होना चाहिये वह रोकना मेरे हाथ में नहीं। कमोवेश हर संपादक के हाथ हर दायरे में बंधे है इसका एहसास वह अपने मातहत काम करने वाले वालो को कुछ इस तरह कराता है जैसे उसकी जगह कोई दूसरा आ जाये या फिर परेशान और प्रताड़ित महसूस करती युवा पीढी को ही पद संभालना पड जाये तो वह ज्यादा अमानवीय, ज्यादा असंवेदनशील और कही ज्यादा बडा धंधेबाज हो जायेगा । क्योंकि मौजूदा वक्त की फितरत ही यही है। तो क्या एसपी को याद करना आज की तारीख में मौत पर जश्न मनाना है । हिम्मत चाहिये कहने के लिये । लेकिन आइये जरा हिम्मत से मौजूदा हालात से दो दो हाथ कर लें। मौजूदा वक्त में देश को नागरिको की नहीं उपभोक्ताओं की जरुरत है । साख पर ब्रांड भारी है। या कहे जो ब्रांड है साख उसी की है । नेहरु से लेकर इंदिरा तक साख वाले नेता थे। मोदी ब्रांड वाले नेता हैं। यानी देश को एक ऐसा प्रधानमंत्री मिला है जो जिस भी उत्पाद को हाथ में लें ले या जुबान पर ले आये उसकी कमाई बढ़ सकती है। एसपी की पत्रकारिता ने इंदिरा की साख का उजाला भी देखा और अंधेरा भी भोगा। एसपी की पत्रकारिता ने जेपी के संघर्ष में तप कर निकले नेताओ का सत्ता मिलने पर पिघलना भी देखा । और जोड़तोड़ या मौका परस्त के दायरे में पीवी नरसिंह राव से लेकर गुजराल और देवेगौडा को भी देखा । बाबरी मस्जिद और मंडल कमीशन तले देश को करवट लेते हुये भी एसपी की पत्रकारिता ने देखा। और संयोग ऐसा है कि देश की सियासत एसपी की मौत के बाद कुछ ऐसी बदली कि जीने के तरीके से लेकर देश को समझने के तौर तरीके ही बदल गये । बीते पन्द्रह बरस स्वयंसेवक के नाम रहे । या तो संघ का स्वयंसेवक या फिर विश्व बैंक का स्वयंसेवक । देश की परिभाषा बदलनी ही थी । पत्रकारिता की जगह मीडिया को लेनी ही थी।

संपादक की जगह मैनेजर को लेनी ही थी। साख की जगह ब्रांड को छाना ही था । तो ब्रांड होकर साख की मौत पर जश्न मनाना ही था। असर इसी का है कि तीन बरस पहले एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल ने यमुना की सफाई अभियान को टीवी के पर्दे पर छेड़ा । बहुतेरे ब्रांडों के बहुतेरे विज्ञापन मिले। अच्छी कमाई हुई । तो टीवी से निकल कर यमुना किनारे ही जश्न की तैयारी हुई। गोधुली वेला से देर शाम तक यमुना की सफाई की गई। कुछ प्लास्टिक, कुछ कूडा जमा किया गया । उसे कैमरे में उतारा गया। जिसे न्यूज चैनल पर साफ मन से दिखाया गया । लेकिन देर शाम के बाद उसी यमुना किनारे जमकर हुल्लबाजी भी की। पोलेथिन पैक भोजन और मदिरापान तले खाली बोतलों को उसी यमुना में प्रवाहित कर दिया गया जिसकी सफाई के कार्यक्रम से न्यूज चैनल ने करोड़ों कमाये। तो ब्रांडिग और साख का पहला अंतर सरोकार का होता है। ब्रांड कमाई पर टिका होता है।
साख सरोकार पर टिका होता है । मौजूदा वक्त में देश के सबसे बडे ब्रांडप्रधानमंत्री ने मैली गंगा का जिक्र किया और हर संपादक इसमें डुबकी लगाने को तैयार हो गया। ऐसी ही डुबकी अयोद्या कांड के वक्त भी कई पत्रकारों- संपादकों ने लगायी थी। लेकिन एसपी ने उस वक्त सोमनाथ से अयोध्या तक के तार से देश के टूटते तार को बचाने की लिखनी की। एसपी होते तो आज पहला सवाल न्यूज रुम में यह दागते कि गंगा तो साफ है मैले तो यह राजनेता है । और फिर रिपोर्टरों को दौड़ाते की गोमुख से लेकर गंगा सागर तक जिन राजनेताओं के एशगाह है सभी का कच्चा चिट्टा देश को बताओ। किसी नेता की हवेली तो किसी नेता का फार्म हाउस। किसी नेता का होटल तो किसी नेता का गेस्ट हाउस गंगा किनारे क्यों अटखेलिया खेल रहा है। इतना ही नहीं अगर साप्ताहिक मैग्जिन रविवार की पत्रकारिता एसपी के साथ होती तो फिर गंगा में इंडस्ट्री का गिरता कचरा ही नही बल्कि शहर दर शहर कैसे शहरी विकास मंत्रालय ने निकासी  के नाम पर किससे कितना पैसा खाया और मंत्री से लेकर पार्षद तक इसमें कैसे जेब ठनकाते हुये निकल गये चोट वहा होती । और अगर ब्रांड पीएम के राजनीतिक मर्म से गंगा को जुडा देकर जनता के साथ सियासी वक्त धोखा घड़ी का जरा भी एहसास एसपी को होता तो स्वतंत्र लेखनी से वह गंगा मइया के असल भक्तों की कहानी कह देते । मुश्कल होता है सियासत को सूंड से पकडना । मौजूदा संपादक तो हाथी की पूंछ पकड कर ही खुश हो जाते है इसलिये उन्हें यह नजर नहीं आता कि क्यो देश भर में सीमेंट की सडक बनाने की बात शहरी विकास मंत्री करने लगे है । और गडकरी के इस एलान के साथ ही क्यों सीमेट के भाव चालीस रुपये से सौ रुपये तक प्रति बोरी बढ़ चुकी है । इन्फ्रास्ट्क्चर के नाम पर कस्ट्रक्सन का केल शुरु होने से पहले ही सरिया की कीमत में पन्द्रह फिसदी की बढोतरी क्यों हो गयी है । और आयरन ओर को लेकर देश-दुनिया भर में क्यो मारा मारी मची है । एसपी की रविवार की पत्रकारिता तो १० जुलाई के बजट से पहले ही बजट के उस खेल को खोल देती जो क्रोनी कैपटलिज्म का असल आईना होती । नाम के साथ कारपोरेट और औघोगिक घरानों की सूची भी छप जाती कि किसे कैसे बजटीय लाभ मिलने वाला है। वैसे एपसी का स्वतंत्र लेखन अक्सर उन सपनो की उडान को पकड़ने की कोसिश करता रहा जो राजनेता सत्ता में आने के लिये जनता को दिखाते है।

इसका खामियाजा भी उन्हे मानहानी सरीखे मुकदमो से भुगतना पड़ा लेकिन लडने की क्षमता तो एसपी में गजब की थी । बेहद सरलता से चोट करना और सत्ता के वार को अपनी लेखनी तले निढाल कर देना। आप कह सकते है वक्त बदल गया है । अब तो सत्ता भी कारपोरेट की और मीडिया भी कारपोरेट का । तो फिर रास्ता बचा कहा । तो सोशल मीडिया ने तो एक रास्ता खोला है जो नब्बे के दशक में नही था । एसपी के दौर में सोशल मीडिया नहीं बव्कि सामानांतर पत्रकारिता या कहे लघु पत्रकारिता थी । जब कही लिखने कै मौका न मिला तो अति वाम संगठन इंडियन पीपुल्स प्रंट की पत्रिका जनमत में ही लिख दिया । बहस तो उसपर शुरु हुई है क्योकि साख एसपी के साथ जुडी थी । हो सकता है एसपी की साख भी मौजूदा वक्त में ब्रांड हो जाती। हो क्या जाती होती ही। क्योकि एसपी के नाम पर जो सभा हर बरस देश के किसी ना किसी हिस्से में होती है उसका प्रयोजक कोई ना कोई पैसेवाला तो होता ही है। महानगरों में तो बिल्डर और कारपोरेट भी अब पत्रकारिता पर चर्चा कराने से कतराते नहीं है क्योंकि उनके ब्रांड को भी साख चाहिये। असल में मौजूदा दौर मुश्किल दौर इसलिये हो चला है क्योंकि मीडिया में बैठे अधिकतर संपादक पत्रकारों की ताकत राजनेताओ के अंटी में जा बंधी है। ऐसा समूह अपनी ताकत पत्रकारिय लेखनी या पत्रकारिय रिपोर्ट से मिलनी वाली साख से नहीं नापता बल्कि ताकत को ब्रांड राजनेताओ के सहलाने तले देखता है । असर इसी का है कि प्रधानमंत्री मोदी सोशल मीडिया की पत्रकारिता को भी अपने तरीके से चला लेते है और वहा भी ब्रांड मोदी की घूम होती है और मीडिया हाउसो में कुछ भी उलेट-फेर होता है तो उसके पीछे पत्रकारिय वजहो तले असल खेल को पत्रकारिय पदों पर बैठे गैर-पत्रकार ही छुपा लेते है । और जैसे ही एसपी, प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा या राजेन्द्र माथुर की पुण्य तिथि आती है वैसे ही पाप का घड़ा छुपाकर पुण्य बटोरने निकल पडते है ।

Thursday, June 26, 2014

सूखे की आहट में मोदी सरकार के हड़बडी भरे कदम

लहलहाती फसल हो या फिर परती जमीन। जबरदस्त बरसात के साथ शानदार उत्पादन हो या फिर मानसून धोखा दे जाये और किसान आसमान ही ताकता रह जाये। तो सरकार क्या करेगी या क्या कर सकती है। अगर बीते 10 बरस का सच देख लें तो हर उस सवाल का जबाव मिल सकता है कि आखिर क्यों हर सरकार मानसून कमजोर होने पर कमजोर हो जाती है और जब फसलें लहलहाती है तब भी देश के  विकास दर में कृषि की कोई उपयोगिता नहीं होती। तीन वजह साफ हैं। पहला 89 फिसदी खेती के लिये देश में कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। दूसरा,देश में अनाज संरक्षण का कोई इन्फ्रास्ट्क्चर नहीं है। तीसरा कृषि से कई गुना ज्यादा सब्सिडी उद्योग और कॉरपोरेट को मिलता है। यानी मोदी सरकार ने जो आज अनाज संरक्षण से लेकर गोदामों में सीसीटीवी लगाने की योजना बनायी वह है कितनी थोथी इसका अंदाजा इसे से हो सकता है। कि औसतन देश में 259 मिलियन टन अनाज हर बरस होता है। लेकिन सरकार के पास 36.84 मिलियन टन अनाज से
ज्यादा रखने की व्यवस्था है ही नहीं। यानी हर बरस दो सौ मिलियन टन अनाज रखा कहां जाये, यह हमेशा से सवाल ही रहा है। और असर इसी का है कि 44 हजार करोड़ रुपये का अनाज हर बरस बर्बाद हो जाता है। यानी सरकार जो भी सब्सिडीखेती के नाम पर किसानों को देती है उसका आधा सरकार के पास कोई प्लानिंग ना होने की वजह से पानी में मिल जाता है।

मॉनसून कमजोर है इसे लेकर सरकार के हाथ-पांव जिस तरह फूले हुये हैं और जिस तरह गोदामों में सीसीटीवी लगाने की बात हो रही है और राशन दुकानों में कम्प्यूटर की बात हो रही है उसका सबसे बडा सच यही है कि देश में सरकार गोदाम महज 13 मिलियन टन रखने भर का है और किराये के गोदामों में 21 मिलियन टन अनाज रखा जाता है। और-करीब 3 मिलियन अनाज टन चबूतरे पर खुले आसमान तले तिरपाल से ढक कर रखा जाता है। यानी हजारों मिट्रिक टन अनाज हर बरस सिर्फ इसलिये बर्बाद हो जाता है क्योंकि गोदाम नहीं है और देश में गोदाम बनाने का बजट। और गोदाम के लिये जमीन तक सरकार के पास नहीं है। क्योकि भूमि सुधार के दायरे में गोदामों के लिये जमीन लेने की दिशा में किसी सरकार ने कभी ध्यान दिया ही नहीं है । तो फिर कमजोर मानसून से जितना असर फसलों पर पड़ने वाला है करीब उतना ही
अनाज कम गोदामों के वजह से बर बरस बर्बाद होता रहा है। और एफसीआई ने खुद माना है कि 2005 से 2013 के दौरान 194502 मिट्रिक टन अनाज बर्बाद हो गया । और देश में 2009 से 2013 के दौर में बर्बाद हुये फल,सब्जी, अनाज की कीमत 206000 करोड़ रुपये रही।

लेकिन सरकार की नजर पारंपिरक है क्योंकि मानसून की सूखी दस्तक ने सरकार को मजबूर किया है कि वह खेती पर दी जा रही सब्सिडी को जारी रखे। इसलिये मोदी सरकार ने फैसला लिया है कि वह बीज और खाद पर सब्सिडी को बरकरार रखेगी। लेकिन जिस खेती पर देश की साठ फीसदी आबादी टिकी है उसे दी जाने वाली सब्सिडी से कई गुना ज्यादा सब्सिडी उन उघोगों और कॉरपोरेट को दी जाती है, जिस पर 12 फीसदी से भी कम की आबादी टिकी है। यानी सरकार की प्राथमिकता खेती को लेकर कितनी है और सरकार की नीतियां उघोग-धंधों को लेकर किस कदर है इसका अंदाजा मनमोहन सरकार के दौरान के इस सच से समझा जा सकता है कि पी चिदंबरम ने फरवरी में रखे अंतरिम बजट में अनाज, डीजल और खाद पर करीब ढाई लाख करोड की सब्सिडी देने का अनुमान बताया। वहीं कॉरपोरेट टैक्स से लेकर एक्साइज और कस्टम ड्यूटी में जो छूट उघोग और कारपोरेट को दी वह करीब छह लाख करोड़ की है। सवाल यही है कि क्या मोदी सरकार इन नीतियों को पलटेगी या फिर खेती को लेकर शोर शराबा ज्यादा होगा और चुपके चुपके हर बार की तरह इस बरस भी कॉरपोरेट टैक्स, पर्सनल टैक्स, एक्साइज टैक्स और कस्टम टैक्स में औगोगिक घरानों को रियायत देने का सिलसिला जारी रहेगा। मुश्किल यह है कि बीते पांच बरस में करीब तीस लाख करोड़ की रियायत औघोगिक घरानों को दी गयी। और अनाज संरक्षण से लेकर खेती के इन्फ्रास्ट्रक्चर को बनाने में सरकार को सिर्फ इसका आधा यानी दस से बारह लाख करोड़ ही चाहिये। मनमोहन सरकार की प्राथमिकता खेती रही नही। इसलिये जीडीपी में कृषि का योगदान भी 18 फीसदी से भी नीचे आ गया। अब मोदी सरकार की प्राथमिकता खेती है या फिर वह भी औङोगिक घरानों के मुनाफे तले चलेगी इसका इंतजार करना पड़ेगा। जो अभी तक
साफ नहीं है और सरकार ने पहले महीने सिर्फ सरकार चलाने में आने वाली मुश्किलों को ही दुरुस्त करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। यानी असर कोई नजर आये यह बेअसर हैं। वैसे सब्सिडी का खेल भी निराला है। एक तरफ खेती के लिये 246397 करोड़ रुपये सब्सिडी दी गयी तो चालू वर्ष में उघोग/ कारपोरेट को 5,73,630 करोड़ रुपये की रियायत दी गयी है। सवाल है इसे मोदी सरकार बदलेगी या मनमोहन के रास्ते पर ही चलेगी।
वैसे मोदी को अब फूड सिक्यूरटी बिल भी अच्छा लगने लगा है। 1 लाख 31 हजार करोड के जरीये हर किसी को भोजन देने की बात सोनिया के राष्ट्रीय सलाहकार समिति के ड्रीम प्रोजेक्ट से निकली, मनमोहन सिंह ने फूड सिक्यूरटी बिल के तौर पर लाये और अब नरेन्द्र मोदी सरकार इसे लागू कराने पर भिड़ गये हैं।

लेकिन 1 लाख 31 हजार करोड की यह योजना पूरे देश में लागू  कब और कैसे होगी यह अपने आप में सवाल है। क्योंकि यह योजना राशन की दुकानों के जरीये ही लागू होना है । और मौजूदा वक्त में सरकार के ही आंकड़ें बताते है कि देश भर में 478000 राशन दुकाने हैं। जिनके जरीये 18 करोड़ परिवार या कहे 40 करोड़ लोगों तक अनाज पहुंचाया जाता है। वहीं योजना आयोग की रिपोर्ट बताती है कि राशन दुकानों से निकले अनाज का सिर्फ 25 फीसदी ही बीपीएल तक पहुंच पाता है। यानी 1 लाख 31 हजार करोड़ की योजना में से आने वाले वक्त में करीब एक लाख करोड रुपये कहा जायेंगे, यह सबसे बड़ा सवाल है। और इससे जुड़ा सच यह है कि देश में फिलहाल दो करोड 45 लाख फर्जी राशन कार्ड है। 5 लाख राशन दूकानो से अनाज की लूट पकड़ी गयी है। और बीते पांच बरस में दस लाख मिट्रिक टन अनाज बीपीएल परिवार तक पहुंचा ही नहीं। तो फिर फूड सिक्योरटी हो या अंत्योदय इसे लागू कराना ही सबसे बडी चुनौती मोदी सरकार के सामने है । और अब इसके तमाम छेद जस के तस रखते हुये मोदी सरकार भी हर पेट को भोजन देने की दिशा में बढ़ रही है।

Tuesday, June 24, 2014

उच्च शिक्षा को धंधे में बदलकर कौन सा पाठ पढ़ाए सरकार?

विश्व बाजार में भारत की उच्च शिक्षा है कमाई का जरिया

भारत की उच्च शिक्षा को दुनिया के खुले बाजार में लाने का पहला बड़ा प्रयास वाजपेयी की अगुवायी वाली एनडीए सरकार ने किया था। उस वक्त उच्च शिक्षा को डब्ल्यूटीओ और गैट्स के पटल पर रखा गया था और तभी पहली बार यह मान लिया गया था कि भारत में उच्च शिक्षा भी दुनिया के कारोबार का हिस्सा बन रही है।

उच्च शिक्षा को लेकर वाजपेयी दौर के इस नजरिया पर मनमोहन सिंह सरकार ने भी मोहर लगा दी। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में शिक्षा का बाजारीकरण तब और खुल कर सामने आया जब अमेरिकी विदेश मंत्री हेलरी क्लिंटन ने इंडो-अमेरिकन संवाद में दो सवाल सीधे उठाये। पहला अमेरिका चाहता कि दुनिया के दूसरे हिस्सों से छात्र आये और अमेरिका में पढ़े। और दूसरा भारत के विश्वविद्यालयों में अमेरिकी विश्वविघालय के कैंपस स्थापित हो। जिससे वह कमाई कर सके और अमेरिका का यह रुख उसकी अपनी डगमगाती इक्नामी की वजह से है। अमेरिका अपने यहा लगातार उच्च शिक्षा में सरकारी अनुदान कम कर रहा है।लेकिन अमेरिकी विश्वविघालयो की कमाई के लिये वह भारत जैसे देश पर दबाव भी बना रहा है। भारत इस दबाब के आगे झुका इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि इसी के बाद भारत में  भी शिक्षा का पैटर्न अमेरिकी यूनिवर्सिटी जैसा करने की पहल हुई।

जिसका पहला प्रयोग दिल्ली यूनिवर्सिटी में चार बरस के ग्रेजुएट कार्यक्रम से हुआ। इसलिये सवाल यह नहीं है कि अब देश में सरकार बदली है तो चार बरस का कोर्स दुबारा तीन बरस का हो जायेगा। असल सवाल यह है कि भारत की उच्च शिक्षा को जिस तरह दुनिया के बाजार में धंधे के खोल दिया गया है। क्यों इसे रोका जायेगा। अमेरिका का जो दबाव भारत पर उच्च शिक्षा का लेकर है, उससे भारत मुक्त होगा। जब तक मोदी सरकार यह बात खुल कर नहीं कहती है और उच्च शिक्षा को किसी दबाब में नहीं बदला जायेगा की बात पर अमल में नहीं लाती तबतक यूजीसी की गरिमा भी बेमानी होगी । यूनिवर्सिटी की स्वायत्त्ता भी नहीं बचेगी र उच्च शिक्षा के नाम पर छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ भी होगा। और लगेगा यही कि सियासत जीत गयी। जो ज्यादा खतरनाक होगा। खतरनाक इसलिये क्योंकि भारत के उच्च शिक्षा का विदेशी सच है कितना त्रासदी वाला यह आंकडों से समझा जा सकता है। क्योंकि उच्च शिक्षा के लिये करीब 3 लाख भारतीय छात्र विदेशों में हर बरस जाते हैं । और उच्च शिक्षा के लिये विदेश जाने वाले छात्रो का खर्चा 78 हजार करोड़ रुपये सालाना है। इसमें भी सिर्फ अमेरिका जाने वाले कम्प्यूटर एक्सपर्ट से भारत को 12 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है।

अब सवाल है कि नरेन्द्र मोदी जनादेश की जिस ताकत के साथ प्रधानमंत्री बने हैं। अर्से बाद असर उसी का है कि हायर एजूकेशन पर तेजी से निर्णय लेने की स्थिति में यूजीसी भी आ गयी है। और दिल्ली यूनिवर्सिटी की स्वयत्ता का सवाल वीसी के तानाशाही निर्णय के दायरे में सिमट गया है। यानी बीते डेढ़ दशक से हायर एजुकेशन को लेकर लगातार जो प्रयोग बिना किसी विजन के होते रहे उसपर नकेल कसने की पहली शुरुआत हुई है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता । लेकिन मुश्किल यह है कि जो यूजीसी पिछले बरस तक लुंज-पुंज तरीके से चार बरस के ग्रेजुएशन कार्यक्रम को लेकर काम कर रही थी वह एकाएक सक्रिय होकर निर्णय ले रही है तो उसके पीछे उसकी अपनी समझ नहीं बल्कि राजनीतिक दवाब है। बीजेपी ने अपने चुनावी घोषमापत्र में दिल्ली यूनिवर्सिटी ने चार बरस के शिक्षा सत्र को तीन बरस करने का वादा किया। जनादेश ने बहुमत दिया तो मोदी सरकार ने फैसला ले लिया। अब इसमें यूजीसी की भूमिका कहां है। क्योंकि पिछले बरस ही डीयू के वीसी ने जब FYUP लागू कर दिया तो उसके बाद यूजीसी ने चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम की समीक्षा के लिये एक उच्च अधिकार प्राप्त समीति बनायी। जिससे जानकारी मांगी गयी कि पूरे देश में इसे लागू किया जा सकता है या नहीं । फिर ये समिति अभी भी बनी हुई है । और 1 अगस्त 2013 को यूजीसी की इस कमेटी की बैठक में जो सवाल उठे उसने इसके संकेत भी दिये कि जो यूजीसी आज तलवार भांज रही है वहीं यूजीसी पिछले बरस
तक चार बरस के कार्यक्रम के खिलाफ नहीं थी। क्योंकि इस बैठक में दो ही सवाल उठे। पहला डीयू के वीसी को नये शिक्षा कार्यक्रम लागू करने से छह महीने पहले जानकारी देनी चाहिये। और दूसरा यूजीसी डीयू के वीसी की सुपर बॉस होकर निर्णय नहीं ले सकती है। खास बात यह है कि ये समिति अभी भी बनी हुई है,उसे खत्म भी नहीं किया गया है। और बहुत कम लोगों को पता है कि बंगलौर विश्वविद्यालय को निर्देश जा चुके हैं कि इस अकादमिक सत्र से आप भी चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम शुरू कर दीजिए। लेकिन अब मोदी सरकार के दबाव में यूजीसी पीछे हट रही है। लेकिन सच यही है कि यूजीसी ने इस फ़ैसले को पूरे देश में लागू करने का मन बना लिया था क्योंकि ये काम तो अमरीका के दवाब में किया जा रहा था। लेकिन अब जो निर्णय जिस तर्ज पर
लिया जा रहा है वह कही ज्यादा परेशानी पैदा करने वाला है क्योकि अब यूजीसी की अपनी स्वायत्ता और जनता के बीच उसके भरोसे पर हमला हो रहा है। हो सकता है कि मोदी सरकार का फैसला बड़ा लोकलुभावन लग रहा हो। लेकिन जब तक सरकार खुले तौर पर यह नहीं कहेगी कि उच्च शिक्षा किसी दूसरे मुल्क के दबाव में बदले नहीं जायेगें तब तक साख तो देश की ही खत्म होगी। और जिस तेजी से उच्च शिक्षा के लिये देश की प्रतिभाओं का पलायन विदेशों में हो रहा है वह देश के लिये कम खतरनाक नहीं है। आलम यह है कि साइंस, इंजीनियरिंग और मेडिकल में पीएचडी करने के लिये जाने वाले छात्रों में से सिर्फ 5 फीसदी भारत लौटते है। भारत के 75 फीसदी साइंटिस्ट अमेरिका में है।

भारत के 40 फिसदी रिसर्च स्कॉलर विदेश में है। अमेरिका H-1B वीजा के कुल कोटा का 47 फिसदी भारतीय प्रोफेशनल्स को बांट रहा है। और अक्टूबर 2013 के बाद अमेरिका जाने वालो में 40 फीसदी की बढोतरी हुई है।
अब इस हालात में अगर छात्रों के भविष्य को लेकर मंत्री, नौकरशाह और वीसी की अपनी अपनी समझ हो और तीनो में कोई मेल ना हो तो क्या होगा। क्योंकि डीयू के वीसी का मानना है कि उन्होंने चार बरस के शिक्षा सत्र के जरिये अंतराष्ट्रीय शिक्षा बाजार में भारतीय छात्रों की मांग बढा दी है। यूजीसी का मानना है कि जब शिक्षा देने का पूरा इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है तो फिर चार बरस क्यों। वहीं सरकार का मानना है कि मौजूदा शिक्षा सत्र को विदेशी विश्विघालय के लिये जानबूझकर नायाब प्रयोग करने की जरुरत क्यों है। ध्यान दें तो तीनो अपनी जगह सही हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि पहली बार डीयू के प्रयोग ने उस कलई को ही खोल दिया है जहां उच्च शिक्षा को लेकर कोई समझ ना तो सरकार के तौर पर ना ही यूजीसी के तौर पर विकसित की गयी। यानी नौकरी के लिये ही शिक्षा जरुरी है और ज्यादा कमाई के लिये उच्च शिक्षा होगी तो फिर विदेशी यूनिवर्सिटी से डिग्री की महत्ता खुद ब खुद बन जायेगी । और हो यही रहा है। सिर्फ यूनिवर्सिटी ही नहीं आईआईटी से निकले इंजीनियर हो या मैनेजमेंट कोर्स करके निकले प्रोफेशनल्स। विदेशो में उनके मुकाबले उनकी यूनिवर्सिटी से पासआउट छात्रो को ज्यादा वेतन मिलता है । चाहे काम एक सरीखा ही क्यों ना हो। इसके बावजूद भी छात्र विदेशो में इसलिये चले जाते है क्योकि भारत में  उच्च शिक्षा पाने के बाद रोजगार के अवसर भी नहीं है, वेतन भी कम है और देश में कोई विजन भी नहीं है जिससे उच्च शिक्षा करना महत्वपूर्ण माना जाता हो।

Saturday, June 21, 2014

नेहरु के समाजवाद के छौंक की भी जरुरत नहीं मोदी मॉडल को

बात गरीबी की हो लेकिन नीतियां रईसों को उड़ान देने वाली हों। बात गांव की हो लेकिन नीतियां शहरों को बनाने की हो। तो फिर रास्ता भटकाव वाला नहीं झूठ वाला ही लगता है। ठीक वैसे, जैसे नेहरु ने रोटी कपड़ा मकान की बात की । इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और अब नरेन्द्र मोदी गरीबों के सपनों को पूरा करने के सपने दिखा रहे हैं। असल में देश के विकास के रास्ता कौन सा सही है, इसके मर्म को ना नेहरु ने पकड़ा और ना ही मोदी पकड़ पा रहे हैं। रेलगाड़ी का सफर महंगा हुआ। तेल महंगा होना तय है। लोहा और सीमेंट महंगा हो चला है। सब्जी-फल की कीमतें बढेंगी ही। और इन सब के बीच मॉनसून ने दो बरस लगातार धोखा दे दिया तो खुदकुशी करते लोगों की तादाद किसानों से आगे निकल कर गांव और शहर दोनों को अपनी गिरफ्त में लेगी। तो फिर बदलाव आया कैसा। यकीनन जनादेश बदलाव ले कर आया है। लेकिन इस बदलाव
को दो अलग अलग दायरे में देखना जरुरी है। पहला मनमोहन सिंह के काल का खात्मा और दूसरा आजादी के बाद से देश को जिस रास्ते पर चलना चाहिये, उसे सही रास्ता ना दिखा पाने का अपराध। नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह से मुक्ति दिलायी, यह जरुरी था। इसे बड़ा बदलाव कह सकते हैं। क्योंकि मनमोहन सिंह देश के पहले प्रधानमंत्री थे जो भारत के प्रधानमंत्री होकर भी दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नुमाइन्दे के तौर पर ही ७ रेसकोर्स में थे। क्योंकि मनमोहन सिंह ऐसे पहले पीएम बने, जिन्हे विश्व बैंक से प्रधानमंत्री रहते हुये पेंशन मिलती रही। यानी पीएम की नौकरी करते हुये टोकन मनी के तौर पर देश से सिर्फ एक रुपये लेकर ईमानदार पीएम होने का तमगा लगाना हो  या फिर परमाणु संधि के जरीये दूनिया की तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियो को मुफा बनाने देने के लिये भारत को उर्जा शक्ति बनाने का ढोंग हो। हर हाल में मनमोहन सिंह देश की नुमाइन्दगी नहीं कर रहे थे बल्कि विश्व बाजार में बिचौलिये की भूमिका निभा रहे थे।

जाहिर है नरेन्द्र मोदी बदलाव के प्रतीक हैं, जो मनमोहन सिंह नहीं हो सकते। लेकिन यहां से शुरु होता है दूसरा सवाल जो आजादी के बाद नेहरु काल से लेकर शुरु हुये मोदी युग से जुड़ रहा है। और संयोग से नेहरु और मोदी के बीच फर्क सिर्फ इतना ही दिखायी दे रहा है कि भारत की गरीबी को ध्यान में रखकर नेहरु ने समाजवाद का छोंक लगाया था और नरेन्द्र मोदी के रास्ते में उस आरएसएस का छोंक है जो भारत को अमेरिका बनाने के खिलाफ है। लेकिन बाकी सब ? दरअसल नेहरु यूरोपीय माडल से खासे प्रभावित थे। तो उन्होंने जिस मॉडल को अपनाया उसमें बर चीज बड़ी बननी ही थी। बड़े बांध। बड़े अस्पताल। बडे शिक्षण संस्थान । यानी सबकुछ बडा । चाहे भाखडा नांगल हो या एम्स या फिर आईआईटी। और जब बड़ा चाहिये तो दुनिया के बाजार से इन बडी चीजो को पूरा करने के लिये बड़ी मशीनें। बड़ी टेकनालाजी। बडी शिक्षा भी चाहिये। तो असर नेहरु के दौर से ही एक भारत में दो भारत के बनने का शुरु हो चुका था। इसीलिये गरीबी या गरीबों को लेकर सियासी नारे भी आजादी के तुरत बाद से गूंजते रहे और १६ वीं लोकसभा में भी गूंज रहे हैं। लेकिन अब सवाल है कि मोदी जिस रास्ते पर चल पड़े हैं, वह बदलाव का है। या फिर जनादेश ने तो कांग्रेस को रद्दी की टोकरी में डाल कर बदलाव किया लेकिन क्या जनादेश के बदलाव से देश का रास्ता भी बदलेगा। या बदलाव आयेगा, यह बता पाना मुश्किल इसलिये नहीं है क्योकि नेहरु ने जो गलती की उसे अत्यानुधिक तरीके से मोदी मॉडल अपना रहा है। सौ आधुनिकतम शहर। आईआईटी। आईआईएम। एम्स अस्पताल। बडे बांध । विदेशी निवेश । यानी हर गांव को शहर बनाते हुये शहरों को उस चकाचौंध से जोड़ने का सपना जो आजादी के बाद बहुसंख्यक तबका अपने भीतर संजोये रहा है। जहां वह घर से निकले।गांव की पगडंडियों को छोड़े। शहर में आये। वहीं पढ़े। राजधानी पहुंचे तो वहां नौकरी करे। फिर देश के महानगरो में कदम रखे। फिर दिल्ली या मुबंई होते हुये सात समंदर पार। यह सपना कोई आज का नहीं है। लेकिन इस सपने में संघ की राष्ट्रीयता का छौंक लगने के बाद भी देश को सही रास्ता क्यों नहीं मिल पा रहा है, इसे आरएसएस भी कभी समझ नहीं पायी और शायद प्रचारक से पीएम बने मोदी का संकट भी यही है कि जिस रास्ते वह चल निकले है उसमें गांव कैसे बचेंगे, यह किसी को नहीं पता। पलायन कैसे रुकेगा इसपर कोई काम हो नहीं रहा है। सवा सौ करोड़ का देश एक सकारात्मक
जनसंख्या के तौर पर काम करते हुये देश को बनाने संवारने लगे इस दिशा में कभी किसी ने सोचा नहीं । पानी बचाने या उर्जा के विकल्पों को बनाने की दिशा में कभी सरकारो ने काम किया नहीं । बने हुये शहर अपनी क्षमता से ज्यादा लोगों को पनाह दिये हुये है उसे रोके कैसे या शहरो का विस्तार पानी, बिजली, सड़क की खपत के अनुसार ही हो इसपर कोई बात करने को तैयार नहीं है । तो फिर बदलाव का रास्ता है क्या । जरा सरलता से समझे तो हर गांव के हर घर में साफ शौचालय से लेकर पानी निकासी और बायो गैस उर्जा से लेकर पर्यावरण संतुलन बनाने के दिशा में काम होना चाहिये। तीन या चार पढ़े लिखे लोगो हर गांव को सही दिशा दे सकते है । देश में करीब ६ लाख ३८ हजार गांव हैं। तीस लाख से ज्यादा बारहवी पास छात्रो को सरकार नौकरी भी दे सकती है और गाव को पुनर्जीवित करने की दिशा में कदम भी उठा सकती है। फिर क्यों तालाब , बावडी से लेकर बारिश के पानी को जमा करने तक पर कोई काम नहीं हुआ । जल संसाधन मंत्रालय का काम क्या है । पानी देने के राजनीतिक नारे से पहले पानी बचाने और सहेजने का पाठ कौन पढ़ायेगा । इसके सामानांतर कृषि विश्वविद्यालयों के जिन छात्रों को गर्मी की छुट्टी में प्रधानमंत्री मोदी गांव भेजना चाहते हैं और लैब टू लैंड या यानी प्रयोगशाला से जमीन की बात कर किसानों को खेती का पाठ पढाना चाहते हैं, उससे पहले जैविक खेती के रास्ते खोलने के लिये वातावरण क्यों नहीं बनाना चाहते ।

किसान का जीवन फसल पर टिका है और फसल की किमत अगर उत्पादन कीमत से कमहोगी तो फिर हर मौसम में ज्यादा फसल का बोझ किसान पर क्यों नहीं आयेगा । खनन से लेकर तमाम बडे प्रजोक्ट जो पावर के हो या फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर के। उन्हें पूरा करने में तकनालाजी की जगह मानव श्रम क्यों नहीं लगाया जा सकता। जबकि मौजूदा वक्त में जितनी भी योजनाओं पर काम चल रहा है और जो योजनायें मोदी सरकार की प्राथमिकता है उनमें से अस्सी फीसदी योजना की जमीन तो ग्रामीण बारत में है। इनमें भी साठ फीसदी योजनायें आदिवासी बहुल इलाको में है। जहां देश के बीस करोड़ से ज्यादा श्रमिक हाथ बेरोजगार हैं। क्या
इन्हें काम पर नहीं लगाया जा सकता। लातूर में चीन की टक्नालाजी से आठ महीने में पावर प्रोजेक्ट लगा दिया गया। मशीने लायी गयी और लातूर में लाकर जोड़ दिया गया । लेकिन इसका फायदा किसे मिला जाहिर है उसी कारपोरेट को जिसने इसे लगाया । तो फिर गांव गांव तक जब बिजली पहुंचायी जायेगी तो वहा तक लगे खंभों का खर्च कौन उठायेगा । निजी क्षेत्र के हाथ में पावर सेक्टर आ चुका है तो फिर खर्च कर वह वसूलेगी भी । तो मंहगी बिजली गांव वाले कैसे खरीदेगें । और किसान मंहगी बिजली कैसे खरीदेगा । अगर यह खरीद पायेगें तो अनाज का समर्थन मूल्य तो सरकार को ही बढाना होगा । यानी मंहगे होते साधनो पर रोक लगाने का कोई विकास का माडल सरकार के पास नहीं है । सबसे बडा सवाल यही है कि बदलाव के जनादेश के बाद क्या वाकई बदलाव की खूशबू देने की स्थिति में मोदी सरकार है । क्योंकि छोटे बांध । रहट से सिंचाई । रिक्शा और बैलगाडी । सरकारी स्कूल । प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र । सौर उर्जा या बायो-गैस । सबकुछ खत्म कर जिस विकास माडल में सरकार समा रही है उस रास्ते पहाडियो से अब पानी झरने की तरह गिरते नहीं है । सड़कों पर साइकिल के लिये जगह नहीं । बच्चो के खुले मैदानों की जगह कम्यूटर गेम्स ने ले ली है । चलने वालों की पटरी पर चढाई कर फोर व्हील गाडिया ओवर-टेक कर दौडने को तैयार है । और जिस पेट्रोल -डीजल पर विदेशी बाजार का कब्जा है उसका उपयोग ज्यादा से ज्यादा करने के लिये गाडियों को खरीदने की सुविधा ही देश में सबसे ज्यादा है। यानी आत्मनिर्भर होने की जगह आत्मनिर्भर बनने के लिये पैसा बनाने या रुपया कमाने की होड ही विकास माडल हो चला है । तभी तो पहली बार बदलाव के पहले संकेत उसी बदलाव के जनादेश से निकले है जिससे बनी मोदी सरकार ने रेल बजट का इंतजार नहीं किया और प्रचारक से पीएम बने मोदी जी ने यह जानते समझते हुये यात्रियो का सफरचौदह फिसदी मंहगा कर दिया कि भारत में रेलगाडी का सबसे ज्यादा उपयोग सबसे मजबूर-कमजोर तबका करता है। खत्म होते गांवों, खत्म होती खेती के दौर में शहरो की तरफ पलायन करते लोग और कुछ कमाकर होली-दिवाली -ईद में मां-बाप के पास लौटता भारत ही सबसे ज्यादा रेलगाड़ी में सफर करता है ।

दूसरे नंबर पर धार्मिक तीर्थ स्थलो के दर्शन करने वाले और तीसरे नंबर पर विवाह उत्सव में शरीक होने वाले ही रेलगाडी में सफर सबसे ज्यादा संख्या में करते है । और जो भारत रेलगाड़ी से सस्ते में सफर  के लिये बचा उस भारत को खत्म कर शहर बनाकर गाडी और पेट्रोलॉ-डीजल पर निर्भर बनाने की कवायद भूमि सुधार के जरीये करने पर शहरी विकास मंत्रालय पहले दिन से ही लग चुका है । यानी महंगाई पर रोक कैसे लगे इसकी जगह हर सुविधा देने और लेने की सोच विकसित होते भारत की अनकही कहानी हो चली है । जिसके लिये हर घेरे में सत्तादारी बनने की ललक का नाम भारत है । तो गंगा साफ कैसे होगी जब सिस्टम मैला होगा। और सत्ता पाने के खातिर गरीबो के लिये जीयेंगे-मरेंगे का नारा लगाना ही आजाद भारत की फितरत होगी।




Tuesday, June 17, 2014

बेघरों को घर देने वाले को दिल्ली में कोई घर किराये पर देने को तैयार नहीं

बंधु दिल्ली में कोई हमें घर देने को तैयार नहीं है। यह ना तो मुंबई की तर्ज पर किसी मुस्लिम का कथन है और ना ही घर ढूंढने वाले किसी बेरोजगार का। जिससे किराया मिलेगा या नहीं इस डर से मकान मालिक घर देने से इंकार कर दे। यह शब्द अरविन्द केजरीवाल के हैं। जी, वही केजरीवाल जिन्होंने दिल्ली में बेघरों को घर दिलाने की जद्दोजहद की। ठंड भरी रातों में खुले आसमान तले रात बेघरों को गुजारनी ना पड़े इसके लिये केजरीवाल के मंत्री जद्दोजहद करते रहे। उसी केजरीवाल को दिल्ली में कोई किराये पर मकान देने को तैयार नहीं है। केजरीवाल ने दिल्ली का सीएम बनने के बाद डीटीसी बसों को रैन बसेरा में तब्दील किया। दो हजार से ज्यादा बेघरों के लिये छत की व्यवस्था ४९ दिनों की सत्ता के दौरान कर दी गयी। जिन बस्तियों में सिर्फ घर थे लेकिन घर बिजली -पानी से महरूम हुआ करते थे, वहां बिजली पानी व्यवस्था कराकर घरों को आबाद किया। बच्चों की किलकारियां घुप्प अंधेरे में समाये घरों में लौटी क्योंकि बल्ब जगमगाने लगे। मां-बाप खुश हुय़े कि उनकी जेब पर कोई डकैती नहीं डाल रहा है। रसोई में चूल्हा बंद कराने वाले बिजली के बिल कम हुये। कुछ के माफ हुये। बिलों के सौदागरो की दुकानें बंद हुई। लेकिन इसी केजरीवाल को कोई मकान देने को तैयार नहीं है।

तिलक लेन के सरकारी आवास को खाली कराने के लिये केजरीवाल के खिलाफ प्रदर्शन भी हुये और नारे भी लगे। लेकिन ना तो किसी नारे लगाने वाले को पता था ना ही तख्तियों पर केजरीवाल के खिलाफ घर खाली करो के शब्द लिखने वालों को कि घर के भीतर जो दर्द पसरा है, उसमें पत्नी परेशान है कि घर खाली कर कहां जाएं। बच्चों के दोस्त पहले स्कूल में अब अड़ोस-पड़ोस के खेलते वक्त पूछ लेते हैं। घर खाली कर कब जा रहे हो य़ा फिर क्या कोई घर मिला। पूर्वी दिल्ली के मयूर विहार में एक शख्स घर देने को तैयार हो गया तो केजरीवाल का पूरा परिवार ही सामाने की गठरी बांधने में लग गया कि दो दिन के भीतर घर खाली कर देंगे। शनिवार-रविवार को सामान चला जायेगा। और फिर सोमवार को मयूर विहार में मिलेंगे। शुक्रवार को टेलीफोन पर यही कुछ केजरीवाल ने कहा। और यह भी कहा कि अब मयूर विहार में मिलेंगे। वक्त हो तो आइयेगा। मैंने भी कहा चलिये जो लोग आपको सरकारी मकान छोडने के लिये नारे लगा रहे थे उन्हें अब सुकुन होगा। और जिक्र सरकारी मकान के ८४ हजार रुपये किराये का नहीं होगा। सुकुन की राजनीति का नहीं होगा। बात आयी-गयी हो गयी। मुझे भी लगा कि यह तो खबर है कि केजरीवाल सरकारी घर छोड़ कर किसी किराये के घर में जा रहे हैं। तो न्यूज चैनल के स्क्रीन पर खबर चल पडी-केजरीवाल घर खाली करेंगे । रविवार को झटके में मैंने सोचा कि केजरीवाल घर खाली कर रहे हैं तो आखिरी बार उन्हें सरकारी घर में मिल लिया जाये। भरी दोपहरी में तिलक लेन के सरकारी घर में पहुंचा। तो केजरीवाल अकेले घर में मिले। कुछ इधर उधर की बात होती रही। राजनीतिक तौर पर देश के हालात पर भी चर्चा हुई।

लेकिन कुछ देर बाद ही केजरीवाल की पत्नी पहुंची। और शांत बैठे केजरीवाल से कुछ गुफ्त-गू करने लगीं। फिर अचानक मेरी तरफ देख कर बोली हम किराये के घर के बारे में बात कर रहे हैं। लेकिन अब आप इसे खबर ना बनाइएगा। क्यों क्या हुआ। आपका सामान तो शिफ्ट हो रहा होगा। अरे नहीं। केजरीवाल बोले । आपने खबर दिखायी और मकान मालिक ने घर देने से ही मना कर दिया। क्यों। क्योंकि घर मालिक को लगा कि केजरीवाल को मकान देंगे तो फिर मीडिया भी आयेगा और नगर निगम को दिखाये नक्शे से इतर एक कमरा जो बना लिया है, उस पर सभी की नजरें जायेंगी। तो फिर बेवजह सफाई देते रहनी होगी। केजरीवाल की पत्नी दुखी थीं। चेहेरे पर हताशा थी। खुद दो महीने बाद प्रमोट होकर इनकम टैक्स कमीशनर के पद पर होंगी।  लेकिन आम आदमी के लिये संघर्ष करते केजरीवाल की फितरत ने पत्नी को भी उसी संघर्ष के बीच ला खड़ा किया, जहां राजनीति करते हुये एक चल रही व्यवस्था को चुनौती देते हुये सामान्य जिन्दगी जीना कितना मुश्किल हो सकता है, उसके जख्म हर क्षण पूरा परिवार खामोशी से आज सीने पर ले रहा है। पत्नी खुद आईआरएस अधिकारी हैं। एक महीने बाद प्रमोट भी हो जायेंगी। फिर इन्कम टैक्स कमिश्नर हो जायेंगी। यानी अभी भी कोई छोटा पद नहीं है। लेकिन ना कोई क्वार्टर है ना कोई विभाग। दिल्ली में सत्ता बदली है। केजरीवाल ने और किसी को मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को वाराणसी जाकर चुनौती दी थी तो क्या यह चुनौती लोकतंत्र के दायरे से इतर थी। कौन सा डर केजरीवाल परिवार को खामोश किये हुये है। जो केजरीवाल दिन में बैटरी रिक्शा वाले के हक के लिये दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग से तर्क करते हैं। शाम होते होते
मोहल्ला सभा में हर बस्ती हर कालोनी वालो के दर्द के निपटारे का रास्ता निकालने में भिडे रहते है। और शाम ढलने के बाद घर पर पहुंचने वाले हर दुखियारे की गुहार को सुन कर जल्द ही कुछ कर देने का आश्वासन देते हों।

वही शख्स एक अदद किराये के मकान को लेकर परिवार को भी भरोसा ना दे पा रहा है। और पत्नी बच्चों को अपने पति अपने पिता पर गर्व हो। सरकारी घर के एक कमरे में बूढे मां बाप भी हर आने जाने वाले को देखते हों। घर के बाहर कतारों में खड़े लोगों की बेटे केजरीवाल से काम कराने की तसल्ली पाकर ही लौट जाते हों। वह खुद किस मानसिकता में होगा इसका अहसास शायद खामोश कमरे में पत्नी के शब्दों से ही टूटता है या कहे कही ज्यादा खामोशी ओढ कर निकलने के हालात पैदा करता है। क्योंकि जिस दिल्ली के लिये सबकुछ छोड़ा उसी दिल्ली में घर किराये पर देने से पहले कोई पूछंता है , आपके यहा तो बहुत लोग आयेगें । तो कोई राजनीतिक नेताओ का खौफ दिखाता है । आपको घर दे दिया तो मोहल्ले के छुटमैया नेता ही सही लेकिन परेशान करेंगे । किसी को लगता है केजरीवाल को घर किराये पर दे दिया तो इलाके के नगर निगम अधिकारी से लेकर कांग्रेस-बीजेपी के नेताओ के भी निशाने पर वह आ जायेगा। आपने तो दिल्ली को ताकत दी। ल़डना सिखाया । तो क्या दिल्ली कमजोर और डरे हुये लोगो का शहर है। नहीं मै यह तो नहीं कह सकता। लेकिन फिलहाल तो एक अदद किराये का घर चाहिये। तो फिर केजरीवाल क्या करें । क्या दिल्ली छोड यूपी में डेरा डाल दें। जहा कानून -व्यवस्था चाहे चौपट हो लेकिन नोयडा या गाजियाबाद में तो घर मिल जायेगा। इन इलाको में घर मिल रहे हैं। नहीं नहीं दिल्ली की सियासत इतनी भी अंधेरी नहीं है। यहां राजनीति इतनी भी
जहरीली नहीं हुई है। सबकुछ है। इसलिये मैंने बार बार व्यवस्था बदलने का जिक्र किया था। डरे हुये लोगो को उनकी ताकत का एहसास कराना चाहता था। लेकिन आम आदमी को जबतक ताकत मिलती ताकतवर लोग ही डर के साथ एकजुट हो गये । और वही डराते हैं। शायद संघर्ष करने की राजनीति का क्या मोल होता है या क्या क्या चुकाना पडाता है यह सब हम देख रहे हैं। लेकिन हर कोई शामोश है । किसी को केजरीवाल में मसालेदार खबर चाहिये। किसी को केजरीवाल का संघर्ष में सबकुछ लुटाना ताकत देता है। किसी को केजरीवाल का अतीत सुकुन देता है। किसी राजनेता को खामोश केजरीवाल से राजनीतिक ताकत मिलती है । तो सत्तादारी को बिना मांगे केजरीवाल को सरक्षा दे कर सुरक्षा के कटघरे में अलग थलग खड़ा कर देना राहत देता है। क्योंकि कोई भी अवस्था केजरीवाल को आम आदमी नहीं मानती। और केजरीवाल भी हट किये हुये है कि वह संघर्ष आम आदमी को लेकर ही करेंगे। चाहे चारदीवारी के बाहर यह सवाल का आ पाये कि कौशांबी का क्वार्टर दिल्ली को संभालने के लिये छूटा । पत्नी के छत से सरकार क्वार्टर का हक दिल्ली के आम आदमी के हक के लिये छूटा। क्योंकि दिल्ली का सीएम बना तो कौशंबी का घर छोड दिल्ली आना ही पडा । अब बेटी की परीक्षा समाप्त हो चुकी है रिजल्ट निकल चुका है । तो सरकारी घर छोड तो दें लेकिन कमाल है कोई घर ही नहीं दे रहा । यह आखिरी लफ्ज केजरीवाल ने जिस सरलता घर से निकलते निकलते कह दिया, उतनी ही दुविधा थी इस सरल शब्दो को पचाने में लगे क्योकि जिस वक्त केजरीवाल ने राजनीति शुरु की कमोवेश हर मोहल्ले में महज एक रुपये की टोकन किराये पर दर्जन भर लोग घर देने को तैयार थे । और अब केजरीवाल मुस्कुराते हुये कहते है बंधु दिल्ली में हमें कोई किराये का मकान देने को तैयार नहीं है।

Sunday, June 15, 2014

सामाजिक शुद्दिकरण और मुनाफाकरण का नायाब मोदी मॉडल

सरकार के गलियारे में प्रधानमंत्री मोदी की तूती पहली बार इंदिरा गांधी के दौर से ही ज्यादा डर के साथ गूंज रही है। हर मंत्री के निजी स्टाफ से लेकर फाइल उठाने वाले तक की नियुक्ति पर अगर पीएमओ की नजर है या फिर हर नियुक्ती से पहले प्रधानमंत्री का कलीरियेंस चाहिये तो संकेत साफ है। इंदिरा गांधी के दौर में काउंसिल आफ मिनिस्टर से ताकतवर किचन कैबिनेट थी। किचन कैबिनेट पर पीएमओ हावी था। और पीएमओ के भीतर सिर्फ इंदिरा गांधी। लेकिन मोदी के दौर में किचन कैबिनेट भी गायब हो चुका है। यानी प्रधानमंत्री मोदी के दौर में कोई शॉक ऑब्जरवर नहीं है। पहली बार केन्द्र में सामाजिक-सांस्कृतिक शॉक ट्रीटमेंट के साथ जनादेश को राजनीतिक अंजाम देने की दिशा में प्रधानमंत्री मोदी बढ़ चुके हैं। यह शॉक ट्रीटमेंट क्यों हर किसी को बर्दाश्त है कभी बीजेपी के महारथी रहे नेताओं का कद भी अदना सा क्यों हो चला है इसे समझने से पहले जाट राजा यानी चौधरी चरण सिंह का एक किस्सा सुन लीजिये। सत्तर के दशक में चौधरी चरण सिंह की दूसरी बार सरकार बनी। मंत्रियों को शपथ दिलायी गयी। शपथ लेकर एक मंत्री मुंशीलाल चमार अपने विधानसभा क्षेत्र करहल पहुंचे। चाहने वालो ने पूछा , मुंशीलाल जी कौन सा पोर्टफोलियो मिला है। सादगी जी भरे मुंशीलालजी बोले चौधरी जी ने हाथ में कुछ दिया तो नहीं। तब लोगों ने कहा मंत्री की शपथ लिये है तो कौन सा विभाग मिला है। मुंशीलाल ने कहा यह तो पता नहीं लेकिन चौधरी जी से पूछ लेते हैं। सभी लोगो के बीच ही लखनऊ फोन लगाया और कहा, चौधरी जी गांव लौटे है तो लोग पूछ रहे है कौन सा विभाग हमें मिला है। उधर से चौधरी जी कि आवाज फोन पर थी। कडकती आवाज हर बैठे शख्स को सुनायी दे रही थी। लेकिन बड़े प्यार से चौधरी चरण सिंह ने पूछा, मुंशीजी लाल बत्ती मिल गयी। जी । बंगला मिल गया है । जी । तो फिर विभाग कोई भी हो काम तो हमें ही करना है। आप निश्चित रहे। जी । और फोन तो रख दिया गया। लेकिन मुंशीलाल चमार के उस बैठकी में उस वक्त मौजूद भारत सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रालय से डेढ दशक पहले रिटायर हुये व्यक्ति ने यह किस्सा सुनाते हुये जब मुझसे पूछा कि क्या सारा काम प्रधानमंत्री मोदी ही करने वाले हैं तो मुझे कहना पड़ा कि तब मुंशीलाल चमार ने फोन तो कर लिया था।

लेकिन इस वक्त तो कोई फोन करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। बुजुर्ग शख्स जोर से ठहाका लगाकर हंसे जरुर। और बोले तब तो मोदी जी को संघ परिवार चन्द्रभानु गुप्ता की तरह देखती होगी। क्यों। क्योंकि चन्द्रभानु गुप्ता ने राजनीति कांग्रेस की की। १९२९ में लखनऊ शहर के कांग्रेस अध्यक्ष बने।  काकोरी डकैती के नायकों को कानूनी मदद की । लेकिन नेहरु के काम करने का खुला विरोध किया । चमचा राजनीति का खुला विरोध किया । और १९६७ में जब गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो चन्द्रभानु गुप्ता सीएम बने । जनसंघ ही नहीं आरएसएस को भी सीबी गुप्ता बहुत भाये क्योंकि वह अकेले थे । परिवार था नहीं। तो भ्रष्ट हो नहीं सकते हैं। और सच यही है कि सीबी गुप्ता का खर्च कुछ भी नहीं था। सरकारी खादी दुकान से धोती खरीदकर उसे पजामे बदलवाते। बाकी जीवन यायवरी में चलता। तो क्या नरेन्द्र मोदी को आप ऐसे ही देख रहे हैं। देख नही रहा, लग रहा है। क्योंकि अपने ही मंत्रियो को संपत्ति। परिजनो से दूर रहने की सलाह। जो संभव नहीं है। क्यों। क्योंकि समाज लोभी है और युवा पीढी नागरिक नहीं उपभोक्ता बनने को तैयार है। और दोनो एक साथ चल नहीं सकता। या तो गैर शादी शुदा या प्रचारको की जमात से ही सरकार चलाये य़ा फिर समाज ऐसा बनाये जिसमें नैतिक बल इमानदारी को लेकर हो। सादगी को लेकर हो। चलो देखते है, कहने के बाद बुजुर्ग पूर्व अधिकारी तो चले गये, लेकिन उस तार को छोड गये जिसे प्रधानमंत्री मोदी पकडेंगे कैसे और नहीं पकडेंगे तो मनमोहन सरकार की गड्डे वाली नीतियों से उबकाई जनता का जनादेश कबतक नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा रहेगा। असल इम्तिहान इसी का है। क्योंकि मनमोहन सरकार के दौर में जिन योजनाओं पर काम शुरु हुआ। लेकिन सत्ता के दो पावर सेंटर , सत्ता के राजनीतिक गलियारों के दलालों और खामोश नौकरशाही की वजह से पूरे नहीं हो पाये उसे ही पहली खेप में मोदी पूरा कराना चाहते हैं। इसीलिये सचिवों से रिपोर्ट बटोरी। और अंजाम में पहले कालेधन पर एसआईटी, फिर फ्राइट कारीडोर, आईआईटी , आईआईएम, दागी सांसदों पर नकेल जैसे मुद्दो को ही सामने रख दिया । लेकिन अब दो सवाल हर जहन में है । पहला जिन्हें मंत्री बनाया गया  प्रधानमंत्री मोदी उन्हें कर्मठता सीखा रहे है या फिर मंत्री पद का तमगा लगाकर देकर किसी कलर्क की तरह काम करने की सीख दे रहे है। और दूसरा सत्ता के राजनीतिक तौर तरीको को बदलकर नरेन्द्र मोदी लुटियन्स की दिल्ली
की उस आबो-हवा को बदलने में लगे है जिसने बीते बारह बारस उन्हे कटघरे में खड़ा कर रखा था। या फिर तीसरी परिस्थिति हो सकती है कि जनादेश से जिम्मेदारी का एहसास इस दौर में बड़ा हो चला हो जिसे पूरा करने के लिये सबकुछ अपने कंधे पर उठाना मजबूरी हो। पहली दो परिस्थितियों तो पीएम के कामकाज से जुड़ी हैं लेकिन जनादेश की जिम्मेदारी का भाव देश की उस जनता से जुडा है जिसमें एक तरफ राष्ट्रीयता का भाव जो संघ परिवार की सोच के नजदीक है और बुजुर्ग पीढ़ी में हिलोरे भी मारता है कि चीन के विस्तार को कौन रोकेगा। पाकिस्तान को पाठ कौन पढायेगा। भारत अपनी ताकत का एहसास सामरिक तौर पर कब करायेगा। तो दूसरी तरफ युवा भारत की समझ । उसके लिये ऱाष्ट्रीयता का शब्द उपबोक्ता बनकर देश की चौकाचौंध का लुत्फ उठाना कहीं ज्यादा जरुरी है बनिस्पत नागरिक बनकर संघर्ष और कठिनायी के हालातों से रुबरु होना। जिस युवा पीढी ने नरेन्द्र मोदी को कंधे पर बैठाया उसके सपनों की उम्र इतनी ज्यादा नहीं है कि वह मोदी सरकार के दो बजट तक भी इंतजार करें। फिर चुनाव के वक्त की मोदी ब्रिग्रेड के पांव इस वक्त आसमान पर है। जिस रवानगी के साथ उसने सड़क से लेकर सोशल मीडिया को मोदीमय बना दिया और शालीनों को डरा दिया उसके एहसास उसे अब कुछ करने देने की ताकत दे चुके है। उसे थामना भी है और दो करोड़ के करीब रजिस्ट्रड बेरोजगारों के रोजगार के सपनो को पूरा भी करना है। लेकिन जिस आदर्श रास्ते को
प्रधानमंत्री मोदी ने पकड़ा है उसमें गांव, पंचायत, जिला या राज्य स्तर पर राजनीतिक पदों को बांटना भी मुश्किल है क्योंकि संघ परिवार खुद के विस्तार के लिये जमीनी स्तर पर राजनीतिक काम कर रहा है । और पहली बार राजनीतिक सक्रियता चुनाव में जीत के बाद कही तेजी से दिखायी देने लगी है । यानी अयोध्या कांड के बाद वाजपेयी सरकार बनने के बाद जिस संघ परिवार ने वाजपेयी सरकार की नीतियों की तारफ ताकना शुरु किया था वही इस बार सरकार को ताकने की जगह खुद को सक्रिय रखकर सरकार पर लगातार दबाब बनाने की समझ है ।

यानी सरकार पर ही संघ परिवार का दबाब काम कर रहा है,जो कई मायने में मोदी के लिये लाभदायक भी साबित हो रहा है। क्योंकि कांग्रेसी मनरेगा को मोदी के मनरेगा में कैसे बदला जाये इसके लिये गांव गांव की रिपोर्ट स्वयंसेवक से बेहतर कोई दे नहीं सकता। तो मनरेगा को मशीन से जोड़कर गांव की सीमारेखा को मिटाने की नीति पर काम शुरु हो गया है। मनमोहन सरकार के दौर में शिक्षा को बाजार से जोडकर जिस तरह शैक्षणिक बंटाधार किया गया उसे कोई मंत्री या कोई नौकरशाह कैसे और कितना समझ कर किस तेजी से बदल पायेगा इसके लिये संघ परिवार के शिक्षा बचाओ आंदोलन चलाने वाले दीनानाथ बतरा से ज्यादा कौन समझ सकता है, जो देश भर में आरएसएस के विधा भारती स्कूलों को चला रहे हैं। इसी तर्ज पर ग्रामीण भारत के लिये नीतियों को बनाने का इंतजार आदिवासी कल्याण मंत्री या नौकरशाहों के आसरे हो नहीं सकता । जबकि तमाम आंकडो से लेकर हालातों को तेजी से बताने के लिये आरएसएस का वनवासी कल्याण
आश्रम सक्षम हैं। क्योंकि देश के छह सौ जिले में से सवा तीन सौ जिलों में आदिवासी कल्याण आश्रम स्वास्थय , शिक्षा,आदिवासी खेल, संस्कृति पर १९५२ से काम कर रहा है। तो पहली बार संघ का नजरिया आदिवासी बहुल इलाकों में ही ग्रामीण भारत में भी नजर आयेगा। अधिकतर मंत्रालयों के कामकाज को लेकर अब यह बहस बहुत छुपी हुई नहीं है कि मंत्री और नौकरशाह के जरीये प्रधानमंत्री को क्या काम कराना है और संघ परिवार कैसे हर काम को अंजाम में कितनी शिरकत करेगा। असल सवाल यह है कि भारत को देखने का नजरिया युवा ,शहरी और उपभोक्ता समाज के नजरिये से होगा या ग्रामीण और पारंपरिक सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजते हुये आर्थिक स्वावलंबन के नजरिये से । क्योंकि दोनो रास्ते दो अलग अलग मॉडल हैं। जैसे उमा भारती चाहती हैं गंगा को स्वच्छ करने के लिये आंदोलन हों और मेधा पाटकर चाहती हैं कि नर्मदा बांध की उंचाई रोकने के लिये आंदोलन हो। सरकार चाहती है नदिया बची भी रहें और नदियों को दोहन भी करे। दोनो हालात विकास के किसी एक मॉडल का हिस्सा हो नहीं सकते। जैसे गंगा पर बांध भी बने और गंगा अविरल भी बहे। यह संभव नहीं है । जैसे शिक्षा सामाजिक मूल्यों की भी हो और युवा पीढी विकास की चकाचौंध में उपभोक्ता भी बने रहें। जैसे समाज लोभी भी रहे और पद मिलते ही लोभ छोड़ भी दें। तो फिर प्रधानमंत्री मोदी किस नाव पर सवार हैं। या फिर दो नाव पर सवार हैं। एक नाव संघ परिवार के सामाजिक शुद्दिकरण की है और दूसरी गुजारात मॉडल के मुनाफाकरण की। वैसे यह खेल प्रिंसिपल सेक्रेटरी के सामानांतर एडिशनल प्रिंसिपल सेक्रेटरी की नियुक्ती से भी समझा जा सकता है । और कद्दावरों को मंत्री बनाकर क्लर्की करवाने से भी। क्योंकि इस दौर की रवायत यही है।

Saturday, June 14, 2014

दागियों पर नकेल कसने का मोदी फरमान

बीहड़ में तो बागी रहते हैं। डकैत तो पार्लियामेंट में होते है। याद कीजिये फिल्म पान सिंह तोमर के इस डायलाग पर खूब तालियां बजी थीं। और उसी दौर में जनलोकपाल को लेकर चले आंदोलन में सड़क पर ही संसद की साख को लेकर भी सवाल उठे । दागी सांसदो को लेकर बार बार सवाल उठे कि संसद की गरिमा बचेगी कैसे। हर अपराधी और भ्रटाचार में लिप्ट राजनेता अगर संसद पहुंच जायेगा तो उसके विशेषाधिकार के दायरे को तो़ड़ेगा कौन। खासतौर से बीते दो दशकों में जिस तेजी के साथ आपराधिक मामलों में फंसे राजनेताओं की तादाद लोकसभा में बढ़ती चली जा रही थी और उसी तेजी से गठबंधन सरकारों के आसरे हर कोई सत्ता की मलाई खाने के लिये विचारधारा से लेकर अपने आस्तित्व की राजनीति तक छोड रहे थे वैसे में कौन सा प्रधानमंत्री अपनी गद्दी की कीमत पर दागी सांसदो पर नकेल कसने का सवाल उठाता। यह अपने आप में देश केसामने अनसुलझा सवाल भी था और जबाब ना मिल पाने का सच भी था। लेकिन तीस बरस बाद जनादेश की ताकत ने कायाकल्प किया है। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले भाषण में ही दागी सांसदों को लेकर जैसे ही यह सवाल छेड़ा कि फास्ट ट्रैक अदालतो के जरीये साल भर में दागी सांसदों के
मामले निपटाये जायें। वैसे ही पहला सवाल यही उठा कि कही मोदी ने बर्रे के छत्ते में हाथ तो नहीं डाल दिया। क्योंकि बीते दस बरस में संसद के भीतर एक चौथाई सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज है लेकिन सुध किसी ने नहीं ली।

ऐसे में आजादी के बाद पहली बार कोई गैर कांग्रेस पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आयी तो अपने पहले ही भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने राजनीति के अपराधीकरण पर नकेल कसने के खुले संकेत दे दिये। यानी जो सवाल बीते दो दशक से संसद अपनी ही लाल-हरे कारपेट तले दबाता रहा उसे खुले तौर पर प्रधानमंत्री मोदी ने एक ऐसे सिक्के की तरह उछाल दिया जिसमें अब चित या पट होनी ही है। क्योंकि मौजूदा लोकसभा में 186 सांसद दागदार हैं। और यह तादाद बीते दस बरस में सबसे ज्यादा है। याद कीजिये तो 2004 में यानी १४वी लोकसभा में 150 सांसद दागी थे। तो १५ वी लोकसभा यानी 2009 में 158 सांसद दागी थे । लेकिन बीते दस बरस में यानी मनमोहन सिंह सरकार के वक्त दागी सांसदों का मामला उठा जरुर लेकिन सरकार गिरे नहीं इसलिये चैक एंड बैलेसं तले हर बार दागी सांसदो की बात संसद में ही आयी गयी हो गयी । और तो और आपराधी राजनेता आसानी से चुनाव जीत सकते है इसलिये खुले तौर पर टिकट बांटने में किसी भी राजनीतिक दल ने कोताही नहीं बरती और चुनाव आयोग के बार बार यह कहने को भी नजर्अंदाज कर दिया गया कि आपराधिक मामलों में फंसे राजनेताओ को टिकट ही ना दें । यहा तक की मनमोहन सिंह के 10 बरस के कार्यकाल में लोकसभा में तीन बार और राज्यसभा में 5 बार दागी सांसदों को लेकर मामला उठा। लेकिन हुआ कुछ भी नहीं । वजह यही मानी गई कि सरकार गठबंधन की है तो कार्वाई करने पर सरकार ही ना गिर जाये ।

लेकिन अब पहली बार पूर्ण जनादेश के साथ जब प्रधानमंत्री मोदी को बिना किसी दबाव में निर्णय लेने की ताकत मिली है तो दागी सांसदो के खिलाफ कार्रवाई करने या कहे दागी सांसदों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की दिशा में सरकार कदम उटायेगी इसके संकेत दे दिये गये। वैसे हकीकत यह भी है कि महीने भर पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने ही सरकार को इसकी जानकारी भेजी थी कि दागी सांसदों को लेकर अब यह व्यवस्था की जा रही है कि जिन सांसदों के मामले जिस भी अदालत में चल रहे है वह सभी एक टाइम फ्रेम में मामले को निपटाये। अगर सेशन कोर्ट मामले को निपटाने में देरी करेगें तो मामला खुद ब खुद हाईकोर्ट के पास चला जायेगा । और हाई कोर्ट में देरी होगी तो सुप्रीम कोर्ट मामले को निपटायेगा। और यह पूरी प्रक्रिया बरस भर में पूरी कर ली जायेगी । यानी प्रधानमंत्री ने जो कहा उसकी जमीन सुप्रीम कोर्ट पहले ही बना चुका है । फर्क सिर्फ इतना है कि इससे पहले किसी प्रधानमंत्री ने इससे पहले हिम्मत दिखायी नहीं और मोदी ने यह जानते-समझते हुये हिम्मत दिखायी कि मौजूदा लोकसभा में सबसे ज्यादा दागी सांसद बीजेपी के ही हैं। और सभी फंस गये तो सरकार अल्पमत में आ जायेगी। क्योंकि १८६ दागी सांसदों में से बीजेपी के ९८ सांसद दागी हैं। जबकि दूसरे नंबर पर बीजेपी की ही सहयोगी सिवसेना के १५ सांसद दागी हैं। फिर काग्रेस के ८, टीएमसी के ७ और एआईएडीएमके के ६ सांसद दागी हैं। बीजेपी की मुश्किल तो यह भी है कि ९८ सांसदों में से ६६ सांसदों
के खिलाफ गंभीर किस्म के अपराध दर्ज हैं।  क्या मोदी सरकार यह कदम उठायेगी। असल में सवाल सिर्फ कदम उठाने का नहीं है। सवाल संसद की साख को लौटाने का भी है। क्योंकि सांसदों के खिलाफ जिस तरह के मामले दर्ज है उसमें हत्या का आरोप,हत्या के प्रयास का आरोप,अपहरण का अरोप,चोरी -डकैती का आरोप,सांप्रदायिकता फैलाने का आरोप,महिलाओ के खिलाफ अपराध का आरोप यानी ऐसे आरोप सांसदों के खिलाफ है जो सिर्फ राजनीतिक तौर पर लगाये गये हो या राजनीतिक तौर पर सत्ताधारियो ने आरोप लगाकर राजनेताओ को फांसा हो ऐसा भी हर मामले में नही हो सकता । वैसे बीजेपी के भीतर से बार बार आपराधिक मामलो में फंसे राजनेताओ को टिकट ना देने की बात कही गयी । लेकिन हर बार यह कहकर मामला दबा दिया गया कि राजनीति में आने पर नेताओ को मुकदमों का सामना करना ही पडता है । ऐसे में अब मोदी सरकार के लिये यह पहला और शायद सबसे बडा एसिड टेस्ट होगा कि वह दागी सांसदों के मामले के लिये सुप्रिम कोर्ट की पहल पर तुरंत कारवाई शुरु करें । जिससे संसद की साख लौटे और राजनेताओ को लेकर जनता में भरोसा जागे । क्योकि लोकसभा में तो चुन कर दागी पहुच गये लेकिन राज्यसभा में तो लोकसभा सदस्यो ने ही दागियो को चुन लिया । मौजूदा राज्यसभा के २३२ सदस्यों में से ३८ के खिलाफ मामले चल रहे हैं। जिसमें से १६ राज्यसभा सदस्यो के खिलाफ गंभीर मामले दर्ज हैं। देश के लिये यह सवाल इसलिये भी सबसे बडा है क्योकि संसद के बाद का रास्ता विधानसभाओ की तरफ जायेगा । और अगर संसद की सफाई हो गयी तो हर राज्य सरकार पर भी यह दबाब होगा कि दागी विधायकों के खिलाफ जल्द से जल्द फाइल निपटायी जाये। क्योंकि दागी विधायको की तादाद तो देश को ही हैरान करने करने वाली है । देश के चार हजार से बत्तीस विधायकों में से एक हजार दो सौ अंठावन विधायक दागी है । यानी ३१ फिसदी विधायकों के खिखाफ देश भर की अलग अलग अदालतो में मामले चल रहे है । इसमें से ७० विधायकों के खिलाफ खासे गंभीर मामले दर्ज है।

यह पूरा मामला इस मायने में भी खासा गंभीर है कि दागी सांसद या विधायको की संपत्ति में सबसे ज्यादा इजाफा उनके सांसद या विधायक बनने के बाद होता है । देश के कुल ४१८१ चुने हुये नुमाइंदों में से ३१७३ नुमाइंदो की संपत्ति संसद या विघानसबा पहुंचने के बाद बढ जाती है । और सिर्फ दागियों की बात हो तो ९८ फिसदी दागियों की संपत्ति में सौ से दो हजार गुना तक की वृद्दी उसके चुने जाने के बाद होती रही है । यानी दागी की संपत्ति क्यो बढती है । दागी चुनाव में कैसे जीत जाते है । दागी को ही टिकट देते समय क्यो प्राथमिकात दी जाती है । और दागियों की वजह से ही चुनाव सबसे मंहगा और सत्ता मलाई का प्रतीक तो नहीं बनी है। यह सब आने वाला वक्त तय करेगा लेकिन शर्त यही है कि प्रधानमंत्री मोदी दागियो को लेकर अब कोई समझौता ना करें ।

Thursday, June 12, 2014

पीएम पद की ताकत से टकरा रहा है प्रचारक का आदर्शवाद

आजादी के बाद पहली बार प्रचारक का आदर्शवाद प्रधानमंत्री की ताकत से टकरा रहा है। देखना यही होगा कि प्रचारक का राष्ट्वाद प्रधानमंत्री की ताकत के सामने घुटने टेकता है या फिर प्रधानमंत्री की ताकत का इस्तेमाल प्रचारक के राष्ट्रवाद को ही लागू कराने की दिशा में बढता है । नेहरु के दौर से राजनीति को देकते आये संघ के एक सक्रिय बुजुर्ग स्वयंसेवक की यह राय यह समझने के लिये काफी है कि आखिर क्यों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संसद में दिया गया पहला भाषण राजनीतिज्ञो को लफ्फाजी और आरएसएस को अच्छा लगा होगा। संघ के भीतर इस सच को लेकर उत्साह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने प्रचारक के संघर्ष और समझ के कवच को उतारा नहीं है । और यह भी गजब का संयोग है कि संघ का कोई भी प्रचारक जब किसी भी क्षेत्र में काम के लिये भेजा जाता है तो वह उस क्षेत्र में पहली और आखरी आवाज होता है । और मौजूदा सरकार की अगुवाई कर रहे नरेन्द्र मोदी को भी जनादेश ऐसा मिला है कि प्रधानमंत्री मोदी के शब्द पहले और आखरी होंगे ही। शायद इसीलिये राज्यों को भी राष्ट्रवाद का पाठ प्रधानमंत्री मोदी ने पढाया और संसद में बैठे दागी सांसदों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का रास्ता भी खोलने की खुला जिक्र किया । जाहिर है राजनीतिक विज्ञान का कोई छात्र हो या कोई छुटभैया नेता या फिर बड़ा राजनेता, हर किसी को लग सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी संसद में सियासत को नयी परिभाषा से गढ़ना चाह रहे हो या फिर राष्ट्रवाद के नाम पर राजनीतिक मिजाज को ही बदलने पर उतारु हो।

लेकिन संघ के स्वयंसेवक मान रहे हैं कि पहली बार देश को समझने का सही नजरिया संसद भवन से प्रधानमंत्री रख रहे हैं। और इसमें कोई लाग लपेट नहीं है कि बीजेपी के दागी सांसदों के खिलाफ अगर कानूनी कार्रवाई हो जाये मौजूदा वक्त बीजेपी अल्पमत में आ जायेगी। क्योंकि 16 वीं लोकसभा में 186 सांसद दागी है जिसमें सिर्फ बीजेपी के 98 सांसद दागी हैं। और दूसरे नंबर पर बीजेपी की सहयोगी शिवसेना के 15 सांसद दागी हैं। बीजेपी की मुश्किल तो यह भी है कि 98 सांसदों में से 66 सासंदो के खिलाफ गंभीर किस्म के अपराध दर्ज है। बावजूद इसके राज्यसभा में प्रधानमंत्री मोदी ने साल भर के भीतर दागियों के मामले निपटाने का जिक्र किया। तो हर जहन में यही सवाल उठा कि क्या मोदी सरकार यह कदम उठायेगी। वहीं संघ के बुजुर्ग स्वयंसेवकों की मानें तो असल में सवाल सिर्फ कदम उठाने का नहीं है। सवाल संसद की साख को लौटाने का भी है। क्योंकि सांसदों के खिलाफ जिस तरह के मामले दर्ज है उसमें हत्या का आरोप,हत्या के प्रयास का आरोप,अपहरण का अरोप,चोरी -डकैती का आरोप, सांप्रदायिकता फैलाने का आरोप,महिलाओं के खिलाफ अपराध का आरोप यानी ऐसे आरोप सांसदों के खिलाफ है जो सिर्फ राजनीतिक तौर पर लगाये गये हो या राजनीतिक तौर पर सत्ताधारियो ने आरोप लगाकर राजनेताओ को फांसा हो ऐसा भी हर मामले में नही हो सकता। और जनादेश की ताकत जब नरेन्द्र मोदी को मिली है तो फिर इससे अच्छा मौका मिल नहीं सकता।

खास बात यह भी है कि आरएसएस इस नजरिये को भी सामाजिक शुद्दिकरण के दायरे में देखता है। मोहल्ले मोहल्ले एक बार फिर हर सुबह संघ की शाखा दिल्ली-एनसीआर ही नहीं देश के तमाम शहरों में लगनी शुरु हुई है और खास बात यह है कि पहली बार प्रधानमंत्री के आदर्श होने की परिस्थितियों को नरेन्द्र मोदी के पीएम बनने से जोड़कर ना सिर्फ देखा जा रहा है बल्कि शाखाओं में यह चर्चा भी आम है कि प्रचारक का संघर्ष कैसे देश की तकदीर बदल सकता है इसके लिये मोदी सरकार के कामकाज को देखे। राजनीतिक तौर पर यह कहा जा सकता है कि मोदी सरकार के लिये यह पहला और शायद सबसे बडा एसिड टेस्ट होगा कि वह दागी सांसदों के मामले के लिये सुप्रीम कोर्ट की पहल पर तुरंत कार्रवाई शुरु करें। सुप्रीम कोर्ट की पहल इसलिये क्योंकि दागी सांसदों को लेकर मामले निपटाने का पत्र कानून मंत्रालय को महीने भर पहले ही मिला था । लेकिन बड़ी बात यह है कि 1993 में राजनीति के अपराधीकरण पर वोहरा कमेटी की रिपोर्ट को ही जब तमाम प्रधानमंत्रियों ने कारपेट तले दबा दिया और मनमोहन सरकार के दौर में दागी सांसदों के जिक्र भर से ही मान लिया गया कि सरकार गिर जायेगी । तो फिर नरेन्द्र मोदी ने कार्रावाई का निर्णय बतौर प्रचारक लिया है या फिर जनादेश ने उन्हे निर्णय लेने की ताकत दी है। हो जो भी लेकिन संघ के स्वयंसेवकों में अब प्रचारको का रुतबा बढ़ा है। और अर्से बाद प्रचारक किस सादगी के साथ संघर्ष करते हुये देश के लिये जीता है, इसकी चर्चा शाखाओ में खुले तौर पर होने लगी है। यूं भी मौजूदा वक्त में संघ के करीब साढे चार हजार प्रचारक देश भर में हैं। सबसे ज्यादा वनवासी कल्याण क्षेत्र में लगे है क्योंकि वहां सवाल शिक्षा, धर्म सस्कृंति और घर वापसी यानी ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों को वापस हिन्दु बनाने का है। ध्यान दें तो राष्ट्रपति के अभिभाषण में वनबंधु कार्यक्रम का जिक्र भी था। फिर संघ में प्रचारक ही होता है जिसका जीवन सामाजिक दान से चलता है। यानी गुरु पूर्णिमा के दिन स्वयंसेवकों के दान से जमा होने वाली पूंजी में से प्रचारकों को हर महीने व्यय पत्रक दिया जाता है। और चूंकि नरेन्द्र मोदी बतौर प्रचारक हर संघर्ष या कहे हर सादगी को जी चूके है तो तमाम राजनीतिक दल ही नहीं उनके अपने मंत्रियो को यह अजीबोगरीब लग सकता है कि आखिर क्यों प्रधानमंत्री ने संपत्ति का ब्यौरा देने को कहा है। क्यों परिजनो की नियुक्ति ना करने को कहा है।

सच यह भी है कि बीजेपी को सांगठनिक तौर पर अब भी आरएसएस ही चलाती है। करीब चालीस प्रचारक बीजेपी में हैं। एक वक्त नानजी देशमुख थे तो एक वक्त गोविन्दाचार्य रहे। लेकिन अभी रामलाल हों या
रामप्यारे पांडे। ह्रदयनाथ सिंह , सौदान सिंह, वी सतीश , कप्तान सिंह सोलंकी, राकेश जैन, अजय जमुआर,सुरेश भट्ट जैसे प्रचारकों के नाम को हर कोई जानता है लेकिन बीजेपी में दर्जनो प्रचारक ऐसे हैं, जिनका नाम कोई नहीं जानता लेकिन सांगठनिक मंत्री के तौर पर सभी काम कर रहे हैं। और आज भी चाय पीने तक के खर्चे को व्यय पत्रक के तौर पर जमा कराते हैं। और उन्हें पैसे मिलते हैं। और इसे नरेन्द्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री भी बाखूबी समझते हैं। इसलिये सैफुद्दीन सौज सरीखे कांग्रेस या तमाम विपक्षी दलो के नेता जब यह कहते हैं कि सत्ता में बीजेपी नहीं मोदी आये है और तो फिर समझना यह भी होगा कि आरएसएस ने गडकरी को बीजेपी अध्यक्ष बनाते वक्त ही मान लिया था कि बीजेपी का कांग्रेसीकरण हो रहा है, जिसे रोकना जरुरी है। और नरेन्द्र मोदी के पीछे खड़े होकर आरएसएस ने साफ संकेत दे दिये कि राजनीति को लेकर उसका नजरिया पारंपरिक राजनीति वाला तो कतई नहीं है। और प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने पहले भाषण में ही नरेन्द्र मोदी ने भी संकेत दे दिये कि प्रधानमंत्री पद की ताकत ने उन्हें इतना मदहोश नहीं किया है कि वह संघ के सामाजिक शुद्दिकरण और राष्ट्रीयता के भाव को ही भूल जायें। इसीलिये बुजुर्ग स्वयंसेवक यह कहने से नहीं कतरा रहे हैं कि पहली बार प्रचारक का आदर्शवाद और प्रधानमंत्री पद की ताकत टकरा रही है।

Monday, June 9, 2014

भारत को सोने की चिड़िया बनाने वाले सपने की खोज

हिमालय का संरक्षण, अविरल स्वच्छ गंगा और वन बंधु कार्यक्रम। संघ परिवार के यह तीन नारे आज के नहीं है पहली बार पूर्व सरसंघचालक गुरु गोलवरकर के दौर में ही सवाल आरएसएस ने उठाये थे। लेकिन पहली बार किसी सरकार के एजेंडे के प्रतीक यह मुद्दे उसी तरह बने है जैसे 15 बरस पहले अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौर में अय़ोध्या, कामन सिविल कोड और धारा 370 को ठंडे बस्ते में डालकर सत्ता संभालने की जरुरत प्रचारक से पीएम बनने जा रहे अटल बिहार वाजपेयी को महसूस हुई थी। और उस वक्त संघ परिवार ने भी वाजपेयी की मजबूरी को समझा था। लेकिन संघ परिवार के लिये वक्त 180 डिग्री में घूम चुका है तो अब प्रचारक से पीएम बने नरेन्द्र मोदी बेखौफ है तो फिर अयोध्या, धारा 370 और कामन सिविल कोड को कहने की जरुरत नहीं है बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक घरोहर को संभालने की जरुरत है। क्योंकि संघ परिवार यह मानता आया है कि किसी भी देश को खत्म करना हो तो वहा की संस्कृति को ही खत्म कर दो। तो पहली बार खुले तौर पर प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के जरीये इसके संकेत दे दिये कि अब जो दिखाना है। जो कहना है, जो पूरा करना है उसे लेकर मनमाफिक लकीर सरकार खिंच सकती है । तो फिर अयोध्या की जगह हर घर शौचालय। सीमापार विस्तार की जगह हिमालय का संरक्षण। धारा 370 की जगह कश्मीर का विकास। कामन सिविल कोड की जगह अल्पसंख्यकों को विकास के समान अवसर। धर्मांतरण की जगह वनबंधु कार्यक्रम । बांग्लादेशी घुसपैठ की जगह कश्मीरी पंडितों को बसाने का जिक्र।\

पाकिस्तानी आंततकवाद की जगह पडौसी से बेहतर संबंध। चीनी घुसपैठ या उसकी विस्तारवादी नीतियों का जिक्र करने की जगह चीन के साथ सामरिक-रणनीतिक संबंध। तो जनादेश की ताकत में कैसे कुछ बदल गया और जो भारत मनमोहन सिंह की इक्नामी तले बाजार में बदल गया था उसे दोबारा जीवित करने की सोच अभिभाषण में है तो यह संघ परिवार का ही दबाब है या फिर प्रचारक को मिली ट्रेनिंग ही है कि आरएसएस की सोच सरकार के रोड मैप का हिस्सा है। इसलिये पहली बार मोदी सरकार ने राष्ट्रपति के अभिभाषण को बेहिचक सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने तले लाने का प्रयास किया ना कि 21 वी सदी की चकाचौंध में भारत को खड़ा करने की सोची। लेकिन इस सच ने उस इंडिया को भी आइना दिखा दिया जो विकसित कहलाने के लिये बीते दो दशक से छटपटा रही थी । याद कीजिये तो 1991 में आर्थिक सुधार के बाद से ही भारत को विकसित देशों की कतार में खडा करने की सोच हर प्रधानमंत्री की रही। लेकिन यह कल्पना के परे है कि 1915 में भारत लौटने के बाद पहली बार महात्मा गांधी ने चंपारण से भारत भ्रमण करने के बाद जिन मुद्दों को उठाया था उसमें जंगल-गांव, किसान-मजदूर, जल सुरक्षा-स्वास्थ्य सेवा से लेकर शौचालय और आदिवासियों के जीवन की जरुरतो का जिक्र किया था।

और आजादी के 67 बरस बाद नरेन्द्र मोदी सरकार ने जब महात्मा गांधी के भारत लौटने के सौ बरस पूरे को 2015 में प्रवासी दिवस बनाने का जिक्र किया और उसी अभिभाषण में हर घर शौचालय, जल सुरक्षा, नई स्वास्थ्य नीति, जनजातियों के लिये वन बंधु कार्यक्रम और शहर - गाव के बीच खाई दूर करने का जिक्र किया तो पहला सवाल यही उभरा कि देश अब भी न्यूनतम की लड़ाई ही लड़ रहा है। ध्यान दें तो पीएम पद संभालने से पहले सेन्ट्रल हाल में भी मोदी ने गरीब-गुरबो की ही बात कही। और सेन्ट्रल हाल में राष्ट्रपति ने अभिभाषण में हाशिये पर पड़े तबके पर जोर दिया। लेकिन यह जनादेश की ही ताकत रही कि जिस पाकिस्तान को लेकर बीजेपी बात बात पर तलवार खिंचने से नहीं कतराती थी और आरएसएस के अखंड भारत के सपने भी सियासी हिलोरे मारने लगते। उसका कोई जिक्र सत्ता संभालने के बाद बतौर एजेंडा अभिभाषण के जरीये नहीं किया गया। इतना ही नहीं चीन पर पीठ में छुरा भोकने का आरोप लगाने वाले जनसंघ से बीजेपी और आरएसएस से संघ परिवार का चितन चीन को लेकर कैसे अभिभाषण में बदला यह ' चीन के साथ सामरिक और रणनीतिक संबंध' के शब्दों के साथ ही खामोशी बरतने से छलका। लेकिन आजादी के बाद पहली बार अभिभाषण में सांप्रदायिक सौहार्द की जगह सांप्रदायिक दंगो को लेकर जीरो टोलरेन्स का जिक्र हुआ। अल्पसंख्यक समुदाय को सीधे संकेत दिये गये कि बतौर अल्पसंख्यक वह कुछ खास ना चाहे। बल्कि विकास में समान अवसर से आगे जाने की जरुरत मुस्लिम तबके को नहीं होनी चाहिये। यानी जनादेश की ताकत ने मोदी सरकार को मनमाफिक लकीर खींच कर एक आदर्श भारत की कल्पना देश के सामने रखने देने की हिम्मत तो दी है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन बिना कारपोरेट और मुनाफा बनाकर देश का चेहरा बदलने वाली कंपनियो के सपने से आगे कोई सपना सरकार के पास है जो दुबारा भारत को सोने की चिडिया बना दें इस पर हर कोई मौन है।

Saturday, June 7, 2014

विद्रोह की मशाल जलाने वालों ने पाला है मोदी का सपना


संथाल परगना : आजादी के बाद से जहां एक भी योजना पूरी नहीं हुई


चुनाव में मोदी विकास की डुगडुगी बजाकर हाशिये पर पड़े समाज में सपना तो जगा गये लेकिन सरकार बनने के बाद जो रास्ता सरकार ने पकड़ा है, उसमें चुनावी डुगडुगी की आवाज गायब क्यों हो गयी है। प्रधानमंत्री मोदी को कश्मीर की धारा ३७० की फिक्र है तो फिर संथाल परगना टेनेन्सी एक्ट की फ्रिक क्यों नहीं है। मोदी को विकास की इतनी ही फिक्र है तो एक बार संथाल परगना में झांक लें। क्योंकि १८५५ के जिस संथाल विद्रोह ने अंग्रेजों को गुलामी की जंजीरें तोड़ने का पहला पाठ पढ़ाया था, उसी संथाल परगना में आजादी के ६७ बरस बाद भी ना राष्ट्रीय राजमार्ग है ना रेलगाड़ी पहुंची है और ना ही हवाई अड्डा। जिस भ्रष्टाचार और कोयला खादान
लूट की किस्सागोई संसद से सडक तक सत्ता में आने से पहले बीजेपी करती रही उसका उसका असल केन्द्र तो संथालपरगना है। ३६ कोयला ब्लाक हैं। राजमहल कोयला क्षेत्र एशिया का सबसे बड़ा कोयला खादान केन्द्र है लेकिन संथाल परगना के छह जिलों की हथेली तले लूट का लाईसेंस दिल्ली ही दे रही है। दुनिया का बेहतरीन आयरन ओर और बाक्साइट संथालपरगना में होता है लेकिन दुनिया के बाजार में बेचकर करोड़ों कमाने वाले संथाल परगना को कुछ भी पहुंचने देना चाहते ही नहीं हैं। आजादी के बाद से सैकड़ों योजनाओ का उदघाटन नेहरु से लेकर मनमनोहन सिंह तक ने किया। सैकडो योजनाओं का शिलान्यास देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद से लेकर मौजूदा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तक ने किया। लेकिन पूरा कोई नहीं हुआ।

इन सबके बीच २०१४ के चुनाव ने दस्तक दी तो नरेन्द्र मोदी ने किसानो का रोना रोया। १८ से २८ बरस के युवाओ का रोना रोया। विकास के नाम पर आजादी के बाद से लूट का जिक्र कर भारत के गांव को जगाने का ख्याल जगाया। लगा कुछ होगा लेकिन संथाल परगना के छह जिलो में से किसी भी जिले के किसी भी गांव के भीतर झांक कर देख लें तब समझ में आयेगा कि नेपाल में बदलाव लाने वाले माओवादी प्रचंड भी कई महीनो तक क्यो और कैसे संथाल परगना में छुपे रह गये। दरअसल पहली बार या कहें अर्से बाद संथाल परगना में विद्रोह की लौ विकास को लेकर सुलग रही है । गोड्डा, दुमका, पाकुड, साहेबगंड, जामताडा और देवघर में
विकास नहीं पहुंचा तो माओवाद पहुंचा। माओवाद पहुंचा तो एनजीओ पहुंचे। एनजीओ पहुंचे तो कारपोरेट पहुंचे। कारपोरेट की लूट पहुंची तो राजनीति महंगी और मुनाफे वाली हो गयी। मुनाफा राजनीति की सोच बनी तो फिर दिल्ली की सत्ता को भी लूट में मजा आने लगा। संथाल परगना से लेकर रांची और रांची से लेकर दिल्ली तक की इस लूट में झारखंड मुक्ति मोर्चा आदिवासियों के नाम पर वजीर बना । कभी काग्रेस ने साधा कभी बीजेपी ने। देश के टॉप दस कारपोरेट ने भी लूट में हिस्सदारी के लिये दिल्ली और रांची की सियासत को खरीदने में सबकुछ लूटाया। बीजे दस बरस में झारखंड के खनीज संपदा से करीब दस लाख करोड रुपये का खुला खेल हुआ। एनओसी और खादानो के लाइसेंस झपटने से लेकर हर योजना को ठंडे बस्ते में डालकर संथाल परगना को १८ वी सदी में रखने का प्रयास जी जान से सियासत और कारपोरेट ने मिलकर किया । सभी सफल भी हुये। क्योंकि झारखंड के छह जिलो को लेकर मिले संथाल परगना का सच यही है कि यहा आज भी पीने का पानी पहाड़ों से बहते सोते और कुंओं से ही जुगाडा जाता है । सिंचाई की कोई व्यवस्था कही नहीं है। बीते २५० बरस का सच है कि एक बरस बरसात को दो बरस सूखा पडता है। १९५१ में दुमका में मसानजोर डैम की नींव देश के पहले राष्ट्रपति ने रखी लेकिन आजतक झांरखड को एक बूंद पानी इस डैम से नहीं मिलता । जनता पार्टी की सरकार के दौर में देवघर में २६ करोड के उन्नासी डैम का कामकाज शुरु हुआ । आज इसकी कीमत ६५० करोड पार कर गयी लेकिन हालात जस के तस। मधुलिमये साहब ने १९७७ में मधुपुर में बुढई डैम का शिलान्यास किया । लेकिन हालात अब भी १९७७ वाले । दिल्ली में सेन्द्रल वाटर कमीशन भी फाइल पर बैठ गयी तो ४००० मेगावाट का अल्ट्रा पावर प्रोजेक्ट भी बैठ गया ।

इसी वक्त गोड्डा में सुग्गा बथान डैम २ करोड १२ लाख रुपये के बजट के साथ शुरु किया गया लेकिन आज यह ११० करोड खर्च कर भी जस का तस है। हां, एनजीओ को आदिवासी दिखायी दिये और झामुमो को आदिवासी
आस्मिता । विकास में लूट का नारा लगाते हुये बंदूक लटकाये माओवादियों ने भी दस्तक दे दी । संयोग से माओवाद पर नकेल के नाम पर इसी दौर में दो हजार करोड़ से ज्यादा का बजट भी पुलिस प्रसासन डकार गये। अटका सबकुछ । संथाल परगना और बिहार की सिचाई के लिये १९७९ की बटेश्वर पंप नहर योजना हो या गोमानी बराज योजना सबकुछ लूट के लिये विकास के नाम पर स्वाहा हुआ । आजादी के बाद १९९५ में पहली बार सोचा गया कि संथाल परगना के जिलों के भीतर रेलगाड़ी पहुंच जाये । नब्बे के दशक में ही संथानपरगना को राष्ट्रीय राजमार्ग से जोड़ने का कौतूहल भी दिल्ली में दिखा। लेकिन एनएच १३३ ए [ डुमरीपुर से रामपुर हाट ] , एनएच १३३ [देवघर से साहेबगंड वाया गोड्डा ],और एनएच ३३३ [वरियापुर से देवघर ] सिर्फ सोच के स्तर पर ही रहा । नेहरु ने साहेबगंज में गंगा पर पुल का सपना देखा । अंग्रेजों के दौर में सबसे विकसित कलकत्ता बंदरगाह को विकास की धारा से जोडने का सपना संजोया । लेकिन पुल बना नहीं। अंग्रेजों का विकसित पोर्ट भी बंद हो गया। तो क्या संथाल परगना । उल्टे उडीसा और बंगाल का रास्ता भी बंद हो गया। कोई मेडिकल कॉलेज हास्पीटल है नहीं । देश के टाप ५० टूरिस्ट प्लैस में देवधर भी एक है क्योंकि हर बरस यहां पांच करोड भक्त देवघर में बाबाधाम के दर्शन के लिये पहुंचते है तो पिछले बरस राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी पहुंचे और २५ हजार पर्यटकों के ठहरने के लिये ४० करोड की योजना का उद्घटान कर आये । लेकिन जब आजादी के बाद से कोई योजना पूरी नहीं हुई तो फिर संथाल परगना में नया क्या होता ।

दो बरस पहले देवघर में हवाई अड्डे का शिलान्यास भी हो गया । लेकिन सडक,रेल, हवाई जहाज सबसे कटे संथाल परगना में पहली बार नरेन्द्र मोदी की चुनावी डुगडुगी पर लोग लट्टू हो गये और आस जगी कि इस बार विकास होगा । लेकिन जैसे ही कश्मीर घाटी में लागू धारा ३७० की आवाज मोदी सरकार से उठी बैसे ही संथाल परगना में यह सवाल उठने लगा कि कश्मीर में तो बाहरी कश्मीरियों पर रोक है। लेकिन संथाल परगना में तो भाई भाई भी जमीन एक दूसरे को नहीं दे सकता। क्योकि संथाल परगना टेनेन्सी एक्ट १९३७ में ही रोक है।  तो फिर किसी भी परियोजना का शिलान्यास यहां कर लीजिये। जमीन मिलेगी नहीं तो लूट होगी ही। और खादान-खनिज तो राष्ट्रीय संपदा है तो उसपर लूट का हक तो दिल्ली को है। तो मोदी की डुगडुगी ने पहली बार संथल परगना में उम्मीद जगायी तो अब गुस्सा भी जगाया है। सवाल सिर्फ इतना है कि पहले यहां सरकार की योजना पहुंचती हैं। या कारपोरेट का तंत्र । माओवादी बंदूक गूंजती है या फिर इन सभी का मिलाजुला बजट जो बीते दस बरस में आदिवासी विकास से लेकर खनिज संपदा का उपयोग और पावर प्लांट से लेकर माओवादी बजट के तहत सिर्फ बारह लाख करोड का चूना इस इलाके को लगा चुका है । और राजनीतिक ताकते अपने वारे न्यारे कर चुकी है । मुश्किल यह है कि मोदी के गरीब-गुरबो के पाठ को विकास का ककहरा हर कोई मान चुका है। डर सिर्फ इतना है कि विकास हुआ नहीं लूट रुकी नहीं तो क्या संथाल विद्रोह होगा। जिसे दबाने का भी बजट होगा और लूट उसपर भी मचेगी।

Monday, June 2, 2014

मोदी के जनादेश तले संघ परिवार का संकट

ठीक तेरह बरस पहले जिन आर्थिक नीतियों को लेकर संघ परिवार बीजेपी को कटघरे में खड़ा करता था। तेरह बरस बाद उन्ही आर्थिक नीतियों को लेकर संघ हरी झंडी दिखाने से नहीं कतरा रहा है। तेरह बरस पहले भी संघ के प्रचारक रहे अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर थे और तेरह बरस बाद यानी आज भी संघ के प्रचारक रहे नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री हैं। तो फिर इन तेरह बरस में ऐसा क्या बदला कि संघ परिवार को अपनी ही विचारधारा छोडनी पड़ रही है। ध्यान दें तो पहली बार मोदी को मिले जनादेश ने संघ परिवार की बौद्दिकता पर सवालिया निशान लगा दिया है। जनादेश का अपनी मान्यता इतनी बड़ी है कि संघ परिवार सरीखा देश का सबसे बडा परिवार भी जनादेश के आगे छोटा हो गया है । इसलिये बीते तेरह बरस में संघ जहा अपने विस्तार करने या विस्तार ना हो पाने के संकट से गुजरता रहा वही २०१४ के जनादेश ने उसके
सामने एक नया संकट खडा कर दिया है कि वह जनादेश को अपनी बौध्दिक क्षमता से प्रभावित करे और मोदी सरकार को अपने रास्ते ले चले । या फिर जनादेश के नाम पर मोदी जो भी रास्ता पकड़े उसके साथ वह खड़ा नजर आये। यानी प्रधानमंत्री मोदी जो भी निर्णय लें उसपर बिना चर्चा। बिना मंथन आरएसएस अपनी सहमति जता दें। और सिर्फ एक ही लफ्ज़ कहें। देख लीजियेगा , जहां जरुरी हो वहीं लागू करें। ३० मई २०१४ को नागपुर में संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक डां कृष्ण गोपाल ने रक्षा उत्पादन के क्षेत्र सौ फीसदी एफडीआई के सवाल पर ना सिर्फ संघ की तरफ से हरी झंडी दे दी। बल्कि हथियारों को लेकर रुस या यूरोपीय देशों पर जो आत्मनिर्भरता की बात सरकार के तमाम मंत्री दिल्ली में कर रहे है उसी को दोहराते हुये संघ ने नागपुर से सिर्फ इतना ही कहा कि एफडीआई होना चाहिये। और सिर्फ रक्षा ही नहीं बल्कि जिस भी क्षेत्र में इसकी जरुरत हो सरकार को पहल करनी चाहिये।

तो क्या तेरह बरस में संघ की सोच बदल गयी। क्योंकि मई २००१ में दिल्ली के रामलीला मैदान में रक्षा के क्षेत्र में २६ फीसदी एफडीआई का विरोध और किसी ने नहीं संघ परिवार ने ही किया था। उस वक्त भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय महासचिव हंसमुख भाई दवे ने तमाम ट्रेड यूनियनों की मौजूदगी में रक्षा क्षेत्र में २६ फीसदी एफडीआई को देश की सुरक्षा से खतरे के तौर पर देखा था। इतना ही नहीं देश में काम कर रहे ३९ डिफेन्स कारखानो में काम कर रहे एक लाख चालीस हजार कामगारों के सामने रोजगार के संकट से भी वाजपेयी सरकार के एफडीआई पर लिये निर्णय को देखा था। याद कीजिये तो जून २००१ से देश भर में एफडीआई के खिलाफ आंदोलन की अगुवाई भी स्वदेसी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ कर रहा था । तो फिर ऐसा क्या हो गया कि मौजूदा वक्त में एफडीआई को लेकर संघ बदल गया । दरअसल बीते तेरह बरस में संघ परिवार वैचारिक या कहें बौद्दिक तौर भी कितना सिमटा है या फिर मोदी को मिली जनादेश के सामने वह इतना बौना हो गया है कि वह अपने ही मूल प्रश्न राष्ट्रीयता को भी परिभाषित नहीं कर पा रहे है । तो क्या संघ अब बदल रहा है । या पिर संघ का ट्रांसफारमेशन हो रहा है । या आने वाले वक्त में संघ की उपयोगिता ही नहीं बचेगी। यह सारे सवाल संयोग से संघ की उसी राजनीतिक सक्रियता तो चिढ़ा रहे हैं, जिस सक्रियता के जरीये पहली बार चुनाव में संघ ने ना सिर्फ प्रचार की बागेदारी निभायी बल्कि खुले तौर पर माना कि हिन्दुओं में राजनीतिक चेतना जगाने के लिये संघ को चुनाव के लिये सक्रिय होना पड़ा। तो क्या आरएसएस राजनीतिक तौर पर २०१४ के चुनाव प्रचार में राजनीतिक तौर पर अपने चरम पर था । या फिर संघ को जिस भूमिका के लिये हेडगेवार ने बनाया संघ उससे भटक चुका है और वह अपने सौ बरस पूरे करने से पहले ही देश के राजनीतिक मिजाज में विलीन हो जायेगा।

यह सवाल इसलिये क्योंकि जिस जनादेश को लेकर संघ परिवार उलझन में है, बीते रविवार यानी १ जून २०१४ को ही पानीपत में जब भाजपा के महासचिव मुरलीघर राव की अगुवाई में स्वदेशी अर्थव्यवस्था पर चिंतन मनन हुआ तो राष्ट्रीय विकास की समूची धारा ही नरेन्द्र मोदी को मिले जनादेश और मोदी की अगुवाई में लिये जाने वाले निर्णय पर ही अटक गये । अगर इन्हीं मुरलीघर राव को तेरह चौदह बरस पहले के स्वदेसी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ की अगुवाई करने वाले दत्तोपंत ठेंगडी के दौर में ले चलें, तो हर किसी को याद होगा आगरा और हरिद्वार की बैठक में दत्तोपंत ठेगडी ने मुरलीधर राव को अपने सबसे
बेहतरीन शिष्य ऐसे बयान को देते वक्त करार दिया था, जब उन्होंने वाजपेयी सरकार की आर्थिक नीतियों को कटघरे में ही खड़ा नहीं किया था बल्कि वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा की नीतियों को जनविरोधी, मजदूर विरोधी , राष्ट्र विरोधी करार देते हुये वित्त मंत्री के लिये अपराधी शब्द का इस्तेमाल किया था। २००१ में ही सरकार की सांख्य वाहिनी योजना को भी सीआईए से प्रभावित करार दिया था। तो सवाल है कि उस वक्त ऐसा क्या था जो वैक्लपिक अर्थव्यवस्था की बात संघ परिवार ना सिर्फ करता था बल्कि तर्को के आसरे सरकार के मंत्रियो की खिंचाई भी करता था। और अब ऐसा क्या है कि राष्ट्रपति भवन में प्रधानमंत्री के शपथग्रहण का आमंत्रण मिलने को लेकर ही संघ परिवार के सदस्य अभिभूत हैं। सितंबर १९९८ में पूर्व सरसंघचालक कुप्प सी सुदर्शन ने पीएमओ में पूर्व वित्त सचिव एनके सिंह को लाने का खुला विरोध अमेरिकी परस्त नीतियों की मुखालफत करते हुये किया था । और याद कीजिये तो पहली बार वाजपेयी सरकार को पेट्रोल की कीमत बढ़ाकर दो दिनो में संघ के हस्तक्षेप और आंदोलन की धमकी के बाद वापस लेने पड़े थे।

अब क्या यह संभव है। तब संघ अपनी धारा के पक्ष में बोलने वाले जगदीश शेट्टीकर और जय दुबाशी के हक में खड़ा था।  क्या आज यह संभव है। दरअसल संघ परिवार के भीतर कैसे कैसे स्वयंसेवक उस वक्त सरकार को राष्ट्रीय हित साधने के लिये पाठ पढ़ाने से नहीं चूकते थे और बकायदा तर्को के आसरे आर्थिक सुधार को कठघरे में खड़ा करने से नहीं चुकते थे। यह नजारा २००१ में आगरा में स्वदेशी जागरण मंच की सभा का है। दत्तोपंत ठेंगडी ने बाजारवाद के खिलाफ आवाज उठायी । गोविन्दाचार्य ने सरकार को किस रास्ते पर चलना चाहिये उसका बखान किया । एस गुरुमूर्ति ने भरोसा जताया कि वह सरकार से बात करेंगे। और तब संघ की तरफ से भाजपा या कहें सरकार के बीच सेतु का काम कर रहे मदनदास देवी भी हाथ में पत्रिका ' इकनॉमिस्ट' लिये हुये पहुंचे और खुली चर्चा में यह कहने से नहीं चूके कि वित्तमंत्री को 'इकनॉमिस्ट' तो पढ़ लेना चाहिये, जिससे वह समझ पाये कि आर्थिक सुधार का अंधा रास्ता कैसे ब्राजील से भी ज्यादा दुर्गत हालात में देश को ला खड़ा करेगा। क्या यह स्थिति संघ परिवार के भीतर आज आ सकती है। यकीनन नहीं । क्योंकि जिस मोदी के बारे में यह सोच कर संघ पीछे खडा हो गया कि दिल्ली की चौकडी भाजपा का कांग्रेसीकरण कर रही है उसे रोकना जरुरी है। वही संघ पहली बार कांग्रेस की तर्ज पर भाजपा को भी सरकार के अधीन लाने वाले हालात पर भी खामोश है । क्योंकि याद कीजिये तो नेहरु के दौर से ही कांग्रेस बदली । १९४७ तक की कांग्रेस में सबसे ताकतवर सीडब्लूसी होती थी।

उसके सदस्य अपने बयानों को देने के लिये स्वतंत्र हुआ करते थे। इसलिये सरदार पटेल हों या कृपलानी या फिर नेहरु या महात्मा गांधी। हर कोई एक ही मुद्दे पर अलग अलग सोच सकता था । सार्वजनिक बयान दे सकता था। लेकिन नेहरु सत्ता में आये तो काग्रेस नेहरु के हिसाब चलने लगी। और मौजूदा वक्त में भाजपा भी मोदी के हिसाब से चल रही है। अध्यक्ष पद तक को लेकर कोई बहस की स्वतंत्रता तक नहीं है । और वही आरएसएस जो एक वक्त आडवाणी की जगह गडकरी को अध्यक्ष बनाने में बैचेनी दिखा रहा था । वही संघ परिवार पहली बार भाजपा अध्यक्ष पद को लेकर भी मोदी को मिले जनादेश के सामने नतमस्तक है। शायद यह वो हालात हैं जो पहली बार बता रहे है कि जनादेश की धारा आरएसएस को भी उसके १०० बरस [ २०२५  ]पूरा होने से पहले अपने में ही समाहित ना कर लें।

Sunday, June 1, 2014

क्या मोदी विकास का ककहरा झारखंड के टटरा से पढ़ेंगे

गांव टटरा । ब्लॉक कान्हाचट्टी। पंचायत केन्द्रीयनगर। जिला चतरा । राज्य झारखंड। देश के सबसे पिछडे राज्य का सबसे पिछड़ा इलाका। लेकिन सड़क पर आपको कोई गड्डा नहीं मिलेगा। पीने का पानी मिनरल वाटर से साफ। बिजली चौबीस घंटे। हर घर के बच्चे के लिये पढ़ना जरुरी है। आठवी तक की शिक्षा गांव में ही मिल जायेगी।  इलाज के लिये प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। और इन सब की एवज में हर बरस दस हजार रुपये सरकार को देने पड़ते हैं। इसके अलावा किसी घर में कोई विवाह उत्सव है तो उसके लिये अलग कीमत निर्धारित है । यह रकम १० हजार से शुरु होकर ५० हजार तक जा सकती है। रुपया ना हो तो फसल या सब्जी से भी काम चल जाता है । गांव के किसी घर की कोई बहु-बेटी अगर गर्मियों की छुट्टी में घर लौटती है और वह पढ़ी -लिखी है तो वह गांव के बच्चों को पढाकर कुछ कमा भी सकती है। गांव के किसी परिवार में किसी को नौकरी नहीं मिली है या कोई महिला अगर पढ़ी लिखी है और उसके लिये गांव से बाहर काम के लिये निकलना मुश्किल है तो वह गांव के बच्चों को अपना हुनर सिखा सकती है। उसकी एवज में सालाना वसूली या तो कुछ कम हो जाती है या फिर अन्ना या सब्जी के जरीये उस परिवार को राहत दी जाती है। यह सारी नीतियां कानून की तरह काम करती है। और कानून टूटा तो सजा पंचायत में खुले आसमान तले सार्वजनिक तौर पर होता है। सजा कुछ भी हो सकती है। मुफ्त शिक्षा देने से लेकर। मुफ्त गांव के लिये काम करना। या हाथ-पांव तोड़ने
से लेकर मौत तक। सब सरकार तय करती है। और यह सिर्फ टटरा के हालात नहीं बाजरा, विदौली, करणी, काड सरीखे चतरा जिले के सैकड़ों गांव की है। लेकिन यहा सरकार का मतलब ना तो झारखंड की सोरेन सरकार है ना ही दिल्ली की मोदी सरकार। यह माओवादियों की सामानांतर सरकार है। जिस दिल्ली में आंतरिक सुरक्षा के नाम से जाना जाता है। और मौजूदा गृह मंत्री राजनाथ सिंह मान रहे है कि उनके सामने सबसे बडी चुनौती इसी आंतरिक सुरक्षा से निपटने की है। और नार्थ ब्लाक से निकलती जानकारी की माने तो गृह मंत्रालय में बैठे बाबू मोदी सरकार की अगुवाई में अपने सौ दिनो के एजेंडा में इसी आंतरिक सुरक्षा से निपटने की योजना बना रहे हैं। दरअसल यह सवाल मनमोहन सरकार के दौर में भी था। और चिदबंरम अपनी सत्ता के दौर में बतौर गृहमंत्री लगातार माओवाद के सवाल पर घिरते भी रहे और आंतरिक सुरक्षा कटघरे में खडा होती भी रही । लेकिन वह कांग्रेस की उलझन थी । क्योंकि चिदंबरम कानून के तहत माओवाद को देखते तो दिग्विजय सिंह सरीखे नेता माओवाद को सामाजिक-आर्थिक हालात से जोड़ देते । लेकिन भाजपा के साथ ऐसा नहीं होगा। क्योंकि भाजपा माओवाद को सीधे कानून व्यवस्था के खिलाफ मानती
है और छत्तीसगढ में रमन सिंह ने जिस तरह माओवाद पर नकेल कसने की पहल की है उसमें सामाजिक-आर्थिक हालात मायने रखते नहीं है।

तो पहला सवाल है कि सरकार का नजरिया पिछली सरकार से अलग होगा तो कार्रवाई किस स्तर पर होगी इसका इंतजार करना पडेगा। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने सरकार के गठन के तीसरे दिन अपनी दूसरी कैबिनेट में ही देश के लिये जो जरुरी बताया उसमें सड़क, बिजली पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा है । और इसे ही विकास का पहला चेहरा माना गया है। तो दूसरा सवाल माओवादी प्रभावित जिन इलाकों में यह समूची व्यवस्था है यानी जैसा टटरा गांव में है तो वहां के हालातों को लेकर मोदी सरकार का नया नजरिया क्या होगा। और अगर आजादी के ६७ बरस बाद भी इसी न्यूनतम को पाने की लड़ाई में ही देश की सत्ता बनती बिगडती है तो माओवादी प्रभावित जिन इलाको में यह सुविधा नहीं है वहां इन सुविधाओं को देकर क्या माओवादी सामानांतर सरकार की सोच विकसित कर सकते है। या फिर मोदी सरकार माओवाद के खिलाफ छत्तीसगढ की तर्ज पर नकेल कसने के लिये निकलगी और उसके बाद इन इलाको को मुख्यधारा से जोड़ने की पहल शुरु होगी। असल में आजादी के बाद पहली बार विचारधाराओं को खत्म कर सत्ता पाने की राजनीति ने भी जन्म
लिया है और सत्ता की खातिर विचारधारा छोडने के हालात भी बने है। वामपंथी के सामने भविष्य की दृष्टि नहीं है तो जनता से उसे नकारा । कांग्रेस आजादी के संघर्ष के मोहपाश में ही जनता को बांधे रखना चाहती थी तो जनता ने उसे भी नकारा। केजरीवाल ने मौजूदा व्यवस्था की खामियो पर अंगुली उठा कर उसे सही करने की बात की। तो दिल्ली को कॉमन-सेन्स की बात लगी । लेकिन कोई विचारधारा केजरीवाल के पास भी नहीं थी तो जनता ने उसे भी खारिज करने में बहुत देर नहीं लगायी। लेकिन संघ परिवार के पास एक विचारधारा है । जिसके आसरे देश को कैसे मथना है या राष्ट्रवाद के किस मर्म को किस तरह उठाना है । इसका खाका हेडगेवार और गोलवरकर के दौर से आरएसएस मथ रहा है । लेकिन मौजूदा वक्त की सबसे बडी त्रासदी यह है कि संसदीय राजनीति का सबसे बड़ा दिवालियापन खुले तौर पर सबके सामने आ चुका है । राष्ट्रवाद का पैमाना सीमा सुरक्षा से मापा जा रहा है । आंतरिक सुरक्षा सबसे बडी चुनौती है ।

और विकास का मतलब न्यूतम का जुगाड़ है । यानी देश की सामाजिक-सांस्कृतिक अवस्था को सहेजना बेमानी लगने लगा है। भाषा, संबंध, सरोकार, परंपरायें और इतिहास को ही बाजार की चकाचौंध में खोकर मुनाफा बनाना सबसे बडा हुनर माना जाना लगा है । यानी जिस सामाजिक -सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की कोई कल्पना हेडगेवार या गोलवरकर ने की भी होगी वह भी प्रचारक से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सत्ता तले संघ परिवार भूल चुका है। वजह भी यही है कि विदेशी निवेश हो या कारपोरेट या औगोगिक घरानो के मुनाफे तले विकास का खाका । पहली बार आरएसएस की सहमती सत्ता के हर निर्णय पर है । क्योकि सत्ता के बगैर संघ परिवार राष्ट्रीयता का प्रचार प्रसार कर नहीं पा रहा था इसका एहसास भाजपा के सत्ता में आने के बाद आजादी सरीखे जश्न में खोये आरएसएस ही नहीं तमाम हिन्दु संगठनों का सक्रियता से समझा जा सकता है । यानी सत्ता के दायरे में संघ परिवार की विचारधारा भी सत्ता के आगे नतमस्तक हो चली है या कहे गायब होती जा रही है यह संघ परिवार के बाहर का नयापन है। बाहर का इसलिये क्योंकि संघ की जड़ें खासी गडरी है और भीतर क्या उतल-पुथल चल रही होगी यह सामने आते आते युग समाप्त होने लगते है। जैसे मनमोहन युग खत्म हुआ। तो असल सवाल यही से निकल रहा है कि क्या आने वाले वक्त में विचारधारा का नया संघर्ष दिल्ली और टटरा सरीके दो छोर का है । क्योंकि विकास का पैमाना अगर सडक पानी बिजली शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से आगे  जा नहीं रहा या फिर यह पैमाना भी राज्य मुनाफा बनाने वाली कंपनियो के आसरे पर पूरा करने की ही स्थिति में है तो भी राज्य की भूमिका है क्या या जनता और राज्यसत्ता के बीच संवाद सीधा होगा कैसे यह अपने आप में सबसे बडा संकट है। क्योंकि अगर सार्वजनिक उपक्रम अब खत्म होंगे। निजी पूंजी विकास का रास्ता बनायेगी तो फिर झ्रांरखंड में टटरा के गाववालो को सडक,बिजली पानी , शिक्षा, इलाज से आगे क्या चाहिये इसे दिल्ली को कौन बतायेगा । क्योकि दिल्ली के नार्थ ब्लाक में गृह मंत्रालय की चिंता तो आंतरिक सुरक्षा है जो चतरा के १२ ब्लाक, में १५४ पंचायतों के १४७४ गांव में सबसे ज्यादा है । और संयोग से इन १४७४ गांव में ९८० गांव में वह सबकुछ है जो विकास के दायरे में होना चाहिये या कहे जिसका नारा लगाते हुये नरेन्द्र मोदी सरकार सत्ता में आ गयी । तो फिर यहा विकास का मतलब वही खनन । खनिज संपदा की लूट । पावर प्लांट । और चकाचौंध के उन सपनों के उडान का ही होगा। जहा गांव बाजार में बदल जाते है । और उन्हे शहर करार दिया जाता है । फिर यह सवाल भी बेमानी हो जायेगा कि सडक, पानी, बिजली , शिक्षा, इलाज, रोजगार से परिपूर्ण टटरा  के आदिवासी । खेतीहर किसान । ग्रामिण मजदूर कहां जायेंगे । यह किसी को नहीं पता ।