किसी को इंदिरा गांधी का सिडिंकेट से लड़कर मजबूत नेता के तौर पर उभरना याद आ रहा है तो किसी को प्रफुल्ल महंत का असम में सिमटना और फूकन को बाहर का रास्ता दिखा कर एक क्षेत्रीय पार्टी के तौर पर सिमट कर रह जाना याद आ रहा है। किसी को दिल्ली का चुनावी बदशाह दिल्ली में जीत का ठग लग रहा है तो कोई दिल्ली सल्तनत को अपनी बौद्दिकता से ठगकर गिराने की साजिश देख रहा है। कोई लोकतंत्र की हत्या करार दे रहा है तो कोई जनतंत्र पर हावी सत्ताधारी राजनीति को आईना दिखाने वाली राजनीति का पटाक्षेप देख रहा है। एकतरफा निर्णय सुनाने की ताकत किसी में नहीं है। कोई इतिहास के पन्नों को पलटकर निर्णय सुनाने से बचना चाह रहा है तो कोई अपनी जरुरतों को पूरा करने के लिये राजनीति के बदलते मिजाज को देखना चाह रहा है। लेकिन सीधे सीधे यह कोई नहीं कह रहा है कि आम आदमी पार्टी का प्रयोग तो राजनीतिक विचारधाराओं को तिलांजलि देकर पनपा है। जहां राजनेता तो हैं ही नहीं। जहा समाजवादी-वामपंथी या राइट-लेफ्ट की सोच है ही नहीं। जहां राजनीतिक धाराओं को दिशा देने की सोच है ही नहीं। जहां सामाजिक-आर्थिक अंतर्रविरोध को लेकर पूंजीवाद से लड़ने या आवारा पूंजी को संभालने की कोई थ्योरी है ही नहीं। यहा तो शुद्द रुप से अपना घर ठीक करने की सोच है।
और संयोग से घर का मतलब दिल्ली है। जहां सवा करोड़ लोग नौकरी और मजदूरी के लिये अपनी जड़ों से पलायन कर निकले पहुंचे हैं। जिन्हें काम मिल गया वह अब जिन्दगी आसान करना चाहते हैं और जिन्हें काम नहीं मिला वह उस सियासत से दो दो हाथ करना चाहते हैं, जिस राजनीति ने उन्हे हाशिये पर ढकेल दिया।
इसलिये संघर्ष के लिये उठे हाथो को दिल्ली ने नहीं थामा बल्कि दिल्ली ही उठे हुये हाथ में बदल गई और उसने उस सत्ता को हरा दिया जो शुद्द राजनीतिक पार्टियां हैं। लेकिन सत्ता को हराने के बाद भी सत्ता का चरित्र बदलता नहीं है या जीत का सेहरा पहनते ही सत्ता चरित्र में उतरना पड़ता है। तो सवाल तीन हैं। पहला अगर केजरीवाल ने खुद को सत्ता माना है तो दिल्ली के सवालों को सुलझाते वक्त सत्ता चरित्र बदलेगा कैसे। दूसरा अगर दिल्ली के वोटरों की सत्ता को हराने की समझ ने केजरीवाल को सत्ता थमा दी तो केजरीवाल राजनीति के कीचड़ से सने हुये दिखायी क्यों नहीं देंगे। और तीसरा सवाल जिस तरीके से केजरीवाल की सत्ता उभरी क्या वह पारंपरिक राजनीतिक सत्ता चरित्र से आगे का एक नया चेहरा है। समझना इस तीसरे सवाल को ही । क्योंकि बाकी दो सवालों के जबाब पांच बरस बाद ही मिलेंगे। यानी बिजली,पानी, झोपडपट्टी, सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य को लेकर उठे चुनावी सवाल किस हद तक पूरे होते हैं और राजनीतिक लेकर केजरीवाल की समझ कैसे पूर्व की पारंपरिक सत्ता से अलग होती है, इसका इंतजार और फैसला तो वाकई अब 2020 में ही होना है। लेकिन तीसरा सवाल इस मायने में महत्वपूर्ण है कि सत्ता का नया चेहरा केजरीवाल गढ़ेंगे कैसे? योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण से लेकर लोकपाल एडमिरल रामदास के खिलाफ खुली और हंगामेदार कार्रवाई ने यह संकेत तो दे दिये कि केजरीवाल "निंदक नीयरे राखिये" को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है । लेकिन यह हालात तो वाकई इंदिरा से लेकर सोनिया और मायावती-मुलायम से लेकर नीतिश-लालू और जयललिता तक फिट हैं। तो फिर केजरीवाल का नया चेहरा होगा क्या।
केजरीवाल राजनेता नहीं है इसलिये वह 2013 में दिल्ली का सीएम बनकर भी सीएम की तरह नजर नहीं आते हैं। 2014 में लोकसभा चुनाव हारकर सामाजिक तानों को सह नहीं पाते और फिर दिल्ली की गद्दी तिकड़मों से पाने की जुगाड़ करते हैं। और 2015 में दिल्ली में एतिहासिक जीत हासिल करने के महीने भर के भीतर ही तानाशाह बनकर अपनी सत्ता को बिना अवरोध बनाने से हिचकते भी नहीं हैं। यानी राजनीतिक खेल का ऐसा खुलापन कभी कोई राजनेता करेगा, यह संभव नहीं है। और जो काम खामोशी से हो सकता हो उसे हंगामे के साथ गली मोहल्ले की तर्ज पर पूरा करने के रास्ते पर अगर केजरीवाल चल निकले हैं तो संकेत साफ हैं कि केजरीवाल राजनीतिक वर्ग से खुद को अलग करना-दिखना चाह रहे हैं। क्योंकि राजनेता कभी किसी को दुश्मन बनाता नहीं। और दुश्मन मानता है तो दिखाना नहीं चाहता। लेकिन केजरीवाल हर सियासी चाल को खुले तौर पर हंगामे के साथ दिखाना चाहते हैं। यानी केजरीवाल राजनीतिक सत्ता के उस चरित्र को अपने साथ खड़ा करना चाहते हैं, जहां वह गलत करार दिये जायें। क्योंकि सत्ता को लेकर जो गुस्सा और आक्रोश हाशिये पर ढकेल दिये गये लोगों में है, उस गुस्से और आक्रोश के साथ केजरीवाल तभी खड़े हो सकते हैं, जब सत्ता चरित्र ही उन्हें खारिज कर दे। ध्यान दें तो मौजूदा राजनीति में पीएम ही नहीं बल्कि बल्कि हर राज्य की सीएम और कमोवेश हर राजनीतिक दल के नेता किसानों से लेकर कारपोरेट और स्वदेशी से लेकर विदेशी निवेश तक किसी भी मुद्दे पर लंबा-चौडा बखान करने में वक्त नहीं लेंगे। लेकिन किसान को सब्सिडी कैसे मिलेगी, समर्थन मूल्य उत्पादन खर्च से ज्यादा कैसे मिलेगा और कारपोरेट की लूट कौन बंद करेगा । विकास का ढांचा ज्यादा उत्पादन या उत्पादन से ज्यादा लोगो के जुड़ाव से तय कैसे होगा इसपर भी हर सत्ता खामोश हो जायेगी। केजरीवाल का रास्ता किस दिशा में जायेगा यह कहना अभी जल्दबादी होगी लेकिन सीधे तौर पर कारपोरेट इक्नामी पर अंगुली उठाना ही नहीं बल्कि एफआईआर दर्ज कराना और सत्ता से हारे हुये तबकों के लिये सुविधाओं की पोटली खोलना एक नई राजनीति का आगाज है। या फिर जिस वैचारिक राजनीति की पीठ पर सवार होकर बोद्दिक तबका अक्सर हाशिये पर पड़े तबकों के लिये राजनीतिक लकीर खिंचना चाहता है, उसे सरेआम पीट कर केजरीवाल ने पहली बार यह संकेत दे दिये कि उनकी राजनीति उस मध्यम वर्ग की नहीं है जहां घर के भीतर झगड़े को पत्नी पति से पिटाई के बाद भी मेहमान के आते ही छुपा लेती है। बल्कि केजरीवाल की राजनीति उस झोपडपट्टी की है, जहां पति पत्नी का झगड़ा बस्ती में खुले तौर पर चलता है। और पत्नी भी पति को दो दो हाथ लगाती है । और छुपाया किसा ने नहीं जाता। बराबरी का हक । बराबरी का व्यवहार। क्योंकि कमाई में उसकी भी हिस्सेदारी होती है। जिन्दगी के संघर्ष में वह बराबर की हिस्सेदार होती है। दिल्ली की बस्तियों में रहने वाले लोगों को केजरीवाल ने ताकत नहीं दी बल्कि केजरीवाल को दिल्ली की बस्तियों में रहने वाले लाखों वोटरों ने ताकत दी। यह राजनीतिक प्रयोग दूसरे राज्य में हुआ नहीं है। सबसे बेहतर मिसाल तो महाराष्ट्र चुनाव में बारामती की है। जहां से अजित पवार चुनाव सबसे ज्यादा अंतर से उस हालत में जीत गये जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने बारामती जाकर उन्हें भ्रष्ट कहा । साठ हजार करोड़ के सिंचाई घोटाले में अजित पवार का नाम बीजेपी ने पूरे चुनाव प्रचार में लिया। लेकिन महीने भर पहले अजित पवार के साथ महाराष्ट्र के सीएम और पीएम तक उसी बारामती के एक प्रोजेक्ट में अजित पवार के साथ मंच पर बैठे। सत्ता इसे प्रोटोकोल कह सकती है। और आने वाले वक्त में सियासत की जरुरत उन्हें एक साथ भी कर सकती है।
लेकिन केजरीवाल क्या इनसे अलग चेहरा बना पायेंगे। या फिर केजरीवाल सत्ता के जिस नये चेहरे को गढ़ना चाह रहे हैं असल में वह मुखौटे से इतर कुछ भी नहीं। ध्यान दे तो जिस दिन योगेन्द्र प्रशांत को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा था उसी दिन केजरीवाल बिहार के सीएम नीतीश कुमार से मिल रहे थे। और नीतीश कुमार केजरीवाल से मिलने से पहले जेल जाकर चौटाला और केजरीवाल के मिलने के बाद लालूप्रसाद यादव से मिलने गये। तो नीतिश राजनीति साधने निकले थे और केजरीवाल आप के भीतर मची धमाचौकड़ी से ध्यान बंटाने के लिये नीतिश से मिलते बेहिचक दिखायी दिए। तो केजरीवाल को लेकर असल सवाल यहीं से शुरु होता है कि जब मनमोहन कैबिनेट के दागी मंत्रियों से लेकर तब के बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी को कटघरे में खड़ा करने निकले तब उन्हे प्रशांत-योगेन्द्र की जरुर थी । जब रिलायंस-वाड्रा को घेरा तब भी प्रशांत भूषण की जरुरत थी। और उसी वक्त आम आदमी पार्टी की छवि देश में गढ़ी जाने लगी थी। जिसे प्रचार प्रसार में वैचारिक तौर पर वहीं चेहरे मजबूती दे रहे थे, जो अब निकाले गये हैं। जब बनारस में मोदी को हराने के लिये केजरीवाल निकले तब वैचारिक आवाज योगेन्द्र और प्रशांत भूषण से लेकर प्रो आंनद कुमार और अजित सरीखे लोगों ने ही समाजवादी-वामपंथी चिंतन तले आवाज दी। केजरीवाल बनारस में हारेजरुर लेकिन केजरीवाल की छवि मौलाना मुलायम और लालू यादव ही नही बल्कि कांग्रेस से भी ज्यादा मजबूत बनी। केजरीवाल की छाती पर लोकपाल से आगे के कई वैसे तमगे खुद ब खुद लगते चले गये जिसे वामपंथी अपने संघर्ष में गंवा बैठे थे और समाजवादी अपनों से ही लड़-भिड़ कर कभी ले नही पाये। यानी 5 साल केजरीवाल के नारे तले बिजली पानी। शिक्षा-स्वास्थ्य। रोजगार-सुरक्षा । के दौर को अगर अलग कर दें और 2012 से 2014 तक के दौर को परखे तो आम आदमी पार्टी या केजरीवाल की पहचान देश की रगों में इसलिये दौड़ने लगी क्योंकि वैचारिक और राजनीतिक तौर पर मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से आम आदमी पार्टी के चेहरे सीधे टकरा रहे थे। देश में विकास के नाम पर ठगे जा रहे नागरिकों से लेकर ज्यादा कमाई के लिये रास्ते बनाने वाली उपभोक्ता नीति से कंज्यूमर क्लास भी भष्ट्रचार से परेशान था। उन्हें आवाज मिल रही थी। किसी को न्यूनतम सुविधाओं के लिये सरकारो से टकराना है तो किसी को खर्च करने के बाद भी सुविधा न मिलने का गुस्सा है। आप का हर चेहरा टोपी लगाते ही संघर्ष का परिचायक बन रहा था। क्योंकि उसके निशाने पर सत्ता थी और वह सत्ता के निशाने पर था। सिर्फ केजरीवाल ही नही बल्कि योगेन्द्र और प्रशांत भी जो कामयाबी अपने वैचारिकी के आसरे इससे पहले नही पा सके, उसे आप के संघर्ष ने सामूहिक तौर पर हर किसी को मान्यता दे दी। इसलिये जीत कभी आम आदमी पार्टी की नही हुई बल्कि आम जनता की हुई। जो हाशिये पर है । और हाशिये पर ढकेली जा चुकी जनता ने ही दिल्ली में मोदी के अहंकार को हरा कर केजरीवाल को ताकत दी। अब इसे कोई सत्ता मानकर चले तो फिर सत्ता चरित्र हर चेहरे को मुखौटा करार देने में कितना वक्त लगायेगा। इंतजार कीजिये क्योकि अग्निपरिक्षा तो चेहरे और मुखौटे की है।
Monday, March 30, 2015
Friday, March 20, 2015
सियासत तले दबे किसानों का दर्द कौन समझेगा ?
किसानों के हक में है कौन, यह सवाल चाहे अनचाहे भूमि अधिग्रहण अध्यादेश ने राजनीतिक दलों की सियासत तले खड़ा तो कर ही दिया है। लेकिन देश में किसान और खेती का जो सच है उस दायरे में सिर्फ किसानों को सोचना ही नहीं बल्कि किसानी छोड़ मजदूर बनना है और दो जून की रोटी के संघर्ष में जीवन खपाते हुये कभी खुदकुशी तो कभी यू ही मर जाना है। यह सच ना तो भूमि अध्ग्रहण अध्यादेश में कही लिखा हुआ है और ना ही संसद में चर्चा के दौरान कोई कहने की हिम्मत दिखा रहा है। और इसकी बडी वजह है कि 1991 के आर्थिक सुधार के बाद से कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में आयी हो किसी ने भी कभी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेकर कोई समझ दिखायी नहीं और हर सत्ताधारी विकास की चकाचौंध की उस धारा के साथ बह गया जहा खेती खत्म होनी ही है । फिर संयोग ऐसा है कि 91 के बाद से देश में कोई राजनीतिक दल बचा भी नहीं है, जिसने केन्द्र में सत्ता की मलाई ना खायी हो। वाजपेयी के दौर में चौबिस राजनीतिक दल थे तो मनमोहन सिंह के दौर में डेढ दर्जन राजनीतिक दलों के एक साथ आने के बाद यूपीए की सरकार बनी। लेकिन पहली बार कोई गैर कांग्रेस पार्टी अपने बूते सत्ता में आयी तो वह भी विकास के उसी दल दल में चकाचौंध देखने समझने लगी जिसकी लकीर आवारा पूंजी के आसरे कभी मनमोहन सिंह ने खींची थी। खेती को लेकर देश देश की अर्थव्यवस्था के पन्नों को अगर आजादी के बाद से ही पलटे तो 1947 में भारत कृषिप्रधान देश था । उस वक्त देश में 141 मिलियन हेक्टर जमीन पर खेती होती थी। देश में ग्यारह करोड़ किसान थे। साढे सात करोड खेत मजदूर । 1991 में खेती 143 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर होने लगी। लेकिन किसानो की तादाद ग्यारह करोड से घटकर दस करोड़ हो गयी और खेत मजदूर की तादाद बढकर साढे नौ करोड़ पहुंच गई। 1991 में आर्थिक सुधार की हवा बही और उसके बाद ट्रैक वन, ट्रैक टू और ट्रैक थ्री करते हुये हर राजनीतिक दल ने सर्विस सेक्टर और इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर उघोगों के लिये खेती की जमीन हथियाने के जो नायाब प्रयोग शुरु हुये उसका असर 2014 तक पहुंचते पहुंचते यह हो गया कि खेती की जमीन घटकर 139 मिलियन हेक्टेयर पर आ गई और किसान घटकर 9 करोड़ पर आ गये। जबकि खेत मजदूर की तादाद बढकर 11 करोड़ हो गयी । यह वह किसान और मजदूर है,जो सीधे खेती से जुड़े हैं।
इसके अलावे करीब आठ करोड किसान मजदूर परिवार ऐसे है, जिनके पास जमीन भी नहीं है और वह मजदूरी किसानों के लिये भी नहीं करते है बल्कि खेती की जमीन पर जो ठेकेदार खेती करवाता है इनके मातहत ये 8 करोड परिवार काम करते है और जिन्दगी चलाते हैं । इनकी तादाद आजादी के वक्त करीब 75 लाख थी। अब यहां से आगे का बडा सवाल यही पैदा होता है कि हर राज्य में औघोगिक विकास निगम बनाया गया । हर राज्य में औद्योगिक क्षेत्र की जमीन पर उघोग लगाने के लिये बैको से कर्ज लिये गये । इनमें से सिर्फ बीस फीसदी उद्योग ही उत्पादन दे पाये। बाकि बीमार होकर बैको के कर्ज को चुकाने से भी बच गये। और देश को बीस लाख करोड रुपये से ज्यादा का नुकसान हो गया। लेकिन किसी सरकार के कभी सवाल नहीं उठाया। जबकि इसी दौर में उन्हीं उद्योगों की जमीन पर रियल स्टेट का धंधा पनपना शुरु हुआ। जो उघोग बीमार हो चुके थे । रियल स्टेट के धंधे में पचास लाख करोड़ से ज्यादा की रकम सफेद और काले को मिलाकर लगी । लेकिन उसे रोकने के लिये कोई रास्ता किसी सरकार ने नहीं उठाया । ध्यान दें तो जिस सोशल इंडेक्स का जिक्र समाजवादी और वामपंथी हमेशा से करते रहे उनके सामने भी कोई दृष्टि है ही नहीं कि आखिर कैसे बाजार में बदल रहे भारत में उपभोक्ताओं की जेब देखकर विकास की बिसात ना बिछायी जाये या फिर उपभोक्ताओ की कमाई ज्यादा से
ज्यादा कैसे हो इसकी चिंता में कल्याणकारी राज्य को स्वाहा होने से रोका जाये। यानी सुप्रीम कोर्ट का वकील एक पेशी के लिये 20 से पचास लाख रुपये ले तो भी सरकार को फर्क नहीं पडता और बिना इंशोरेन्स इलाज कराने कोई निजी अस्पताल में जाये तो औसतन दो लाख से 10 लाख देने पड़ जाये तो भी फर्क नहीं पड़ता और शिक्षा के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरफ खुल रहे संस्थानों की ट्यूशन फीस औसतन 6 लाख रुपये सालाना हो तो भी फर्क नहीं पड़ता। यानी कोई शाइनिंग इंडिया में खोये। कोई एसआईजेड के नाम पर औघोगिक विकास का नारा लगाने लगे । कोई किसानों की सब्सिडी खत्म कर किसानो को मुख्यधारा से जोडने की थ्योरी दे दें। तो कोई कारपोरेट को टैक्स में राहत देकर अंतर्राष्ट्रीय कारपोरेट टैक्स के बराबर होने का नारा लगाये। तो कोई उद्योगों को कई तरीके से टैक्स में राहत देकर किसानो की सब्सीडी से तीन गुना ज्यादा सब्सिडी की लकीर खींच दे। तो कोई यह कहने से ना चुके की भारत के बाजार में निवेश कराने के लिये मेक-इन इंडिया जरुरी है और उससे निकले पैसे को आखिर में किसान-मजदूर-गरीबों में ही तो बांटना है। कोई इन सबका विरोध करते हुये सत्ता में आये और फिर वह भी उसी रास्ते पर चल पड़े तो जनता करेगी क्या। यह सवाल संयोग से कांग्रेस विरोधी हर सत्ता के दौर में उभरा है और हर सत्ता की दिशा भी ट्रैक टू के जरीये कांग्रेस के पीछे ही चल पड़ी है, इंकार इससे भी नहीं किया जा सकता । मनमोहन सिंह के दौर में सेज के लाइसेंस का बंदर बांट किसे याद नहीं होगा लेकिन जितनी जमीन सेज के नाम पर ली गई उसका साठ फिसदी हिस्सा बिना उपयोग आज भी जस का तस है लेकिन सरकार उस जमीन को मेक-इन इंडिया के लिये उपयोग में नहीं लाती है। बंजर जमीन का उपयोग कैसे हो कोई ब्लू प्रिट किसी सरकार के पास नहीं है। खेती की जमीन पर दिये जाने वाले चार गुना मुआवजा के बाद भी किसान की हालत औसतन आठ से दस बरस बाद मजदूर से भी बदतर क्यों हो जाती है। यह सवाल ऐसे है जिसके जबाब में कोई सरकार नहीं फंसती। जबकि 1947 के बाद से खेती की जमीन पर तीन गुना बोझ बढ चुका है लेकिन किसानी छोड़ किसी दूसरे रास्ते किसानो के बच्चे कैसे जाये इसके लिये कोई ब्लू प्रिट कभी किसी सरकार ने नहीं दिया। मौजूदा वक्त में भी किसानों के खातों तक सरकारी पैसा सीधे बिना बिचौलिये के कैसे पहुंच जाये इसे ही उपलब्धि मान कर हर कोई अपनी पीठ ठोंकने से नहीं चूक रहा जबकि सच यह है कि संसद के भीतर ही नोबल से सम्मानित बांग्लादेश के मोम्मद युनुस ने ग्रामीण बैंक का पूरा पाठ हर सांसद को समझाया। और बांग्लादेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पटरी पर भी ले आये। मोम्मद युनुस ने भारत के संसद में जब यह जानकारी दी कि अनुदान के जरिए गरीबी से नहीं निपटा जा सकता । दान से निर्भरता बढ़ती है और गरीबी का दुष्चक्र चलता रहता है । कर्ज से लोगों को आय प्राप्ति के नए जरिए मिलते हैं और खासकर गरीब,अशिक्षित और महिलाओं को माइक्रोफाइनेंस के जरिए मुख्यधारा में लाया जा सकता है । तो हर किसी ने तालिया पीटी थी ।
लेकिन अब यह जानते हुये भी राजनेताओ की आंख नहीं खुल रही है कि बांग्लादेश ने इन्हीं उपायों से बीते बीस बरस में बीपीएल परिवारों की तादाद बीस फीसदी तक कम कर दी। 91-92 में 60 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी वह अब 40 फीसदी तक आ गई। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि बांग्लादेश में 1990-91 में 3 करोड 60 लाख लोग भूख की मार झेलते थे, जो अब 2.62 करोड़ रह गए हैं। लेकिन भारत तो विकास के नाम पर चकाचौंध की बेफ्रिक्री में कुछ ऐसा खोया है कि उसे किसानों की खुदकुशी या फसल बर्बाद होने पर कोई राहत या मुआवजा दिया जाना चाहिये इसपर ठोस नीति बनाने के बदले चार दिन पहले संसद ने हवाई यात्रा करने वालो के लिये नीतिगत फैसला ले लिया कि अब हवाई यात्रा के दौरान मरने वालो को 75 लाख की जगह 90 लाख रुपये मिलेंगे।
इसके अलावे करीब आठ करोड किसान मजदूर परिवार ऐसे है, जिनके पास जमीन भी नहीं है और वह मजदूरी किसानों के लिये भी नहीं करते है बल्कि खेती की जमीन पर जो ठेकेदार खेती करवाता है इनके मातहत ये 8 करोड परिवार काम करते है और जिन्दगी चलाते हैं । इनकी तादाद आजादी के वक्त करीब 75 लाख थी। अब यहां से आगे का बडा सवाल यही पैदा होता है कि हर राज्य में औघोगिक विकास निगम बनाया गया । हर राज्य में औद्योगिक क्षेत्र की जमीन पर उघोग लगाने के लिये बैको से कर्ज लिये गये । इनमें से सिर्फ बीस फीसदी उद्योग ही उत्पादन दे पाये। बाकि बीमार होकर बैको के कर्ज को चुकाने से भी बच गये। और देश को बीस लाख करोड रुपये से ज्यादा का नुकसान हो गया। लेकिन किसी सरकार के कभी सवाल नहीं उठाया। जबकि इसी दौर में उन्हीं उद्योगों की जमीन पर रियल स्टेट का धंधा पनपना शुरु हुआ। जो उघोग बीमार हो चुके थे । रियल स्टेट के धंधे में पचास लाख करोड़ से ज्यादा की रकम सफेद और काले को मिलाकर लगी । लेकिन उसे रोकने के लिये कोई रास्ता किसी सरकार ने नहीं उठाया । ध्यान दें तो जिस सोशल इंडेक्स का जिक्र समाजवादी और वामपंथी हमेशा से करते रहे उनके सामने भी कोई दृष्टि है ही नहीं कि आखिर कैसे बाजार में बदल रहे भारत में उपभोक्ताओं की जेब देखकर विकास की बिसात ना बिछायी जाये या फिर उपभोक्ताओ की कमाई ज्यादा से
ज्यादा कैसे हो इसकी चिंता में कल्याणकारी राज्य को स्वाहा होने से रोका जाये। यानी सुप्रीम कोर्ट का वकील एक पेशी के लिये 20 से पचास लाख रुपये ले तो भी सरकार को फर्क नहीं पडता और बिना इंशोरेन्स इलाज कराने कोई निजी अस्पताल में जाये तो औसतन दो लाख से 10 लाख देने पड़ जाये तो भी फर्क नहीं पड़ता और शिक्षा के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरफ खुल रहे संस्थानों की ट्यूशन फीस औसतन 6 लाख रुपये सालाना हो तो भी फर्क नहीं पड़ता। यानी कोई शाइनिंग इंडिया में खोये। कोई एसआईजेड के नाम पर औघोगिक विकास का नारा लगाने लगे । कोई किसानों की सब्सिडी खत्म कर किसानो को मुख्यधारा से जोडने की थ्योरी दे दें। तो कोई कारपोरेट को टैक्स में राहत देकर अंतर्राष्ट्रीय कारपोरेट टैक्स के बराबर होने का नारा लगाये। तो कोई उद्योगों को कई तरीके से टैक्स में राहत देकर किसानो की सब्सीडी से तीन गुना ज्यादा सब्सिडी की लकीर खींच दे। तो कोई यह कहने से ना चुके की भारत के बाजार में निवेश कराने के लिये मेक-इन इंडिया जरुरी है और उससे निकले पैसे को आखिर में किसान-मजदूर-गरीबों में ही तो बांटना है। कोई इन सबका विरोध करते हुये सत्ता में आये और फिर वह भी उसी रास्ते पर चल पड़े तो जनता करेगी क्या। यह सवाल संयोग से कांग्रेस विरोधी हर सत्ता के दौर में उभरा है और हर सत्ता की दिशा भी ट्रैक टू के जरीये कांग्रेस के पीछे ही चल पड़ी है, इंकार इससे भी नहीं किया जा सकता । मनमोहन सिंह के दौर में सेज के लाइसेंस का बंदर बांट किसे याद नहीं होगा लेकिन जितनी जमीन सेज के नाम पर ली गई उसका साठ फिसदी हिस्सा बिना उपयोग आज भी जस का तस है लेकिन सरकार उस जमीन को मेक-इन इंडिया के लिये उपयोग में नहीं लाती है। बंजर जमीन का उपयोग कैसे हो कोई ब्लू प्रिट किसी सरकार के पास नहीं है। खेती की जमीन पर दिये जाने वाले चार गुना मुआवजा के बाद भी किसान की हालत औसतन आठ से दस बरस बाद मजदूर से भी बदतर क्यों हो जाती है। यह सवाल ऐसे है जिसके जबाब में कोई सरकार नहीं फंसती। जबकि 1947 के बाद से खेती की जमीन पर तीन गुना बोझ बढ चुका है लेकिन किसानी छोड़ किसी दूसरे रास्ते किसानो के बच्चे कैसे जाये इसके लिये कोई ब्लू प्रिट कभी किसी सरकार ने नहीं दिया। मौजूदा वक्त में भी किसानों के खातों तक सरकारी पैसा सीधे बिना बिचौलिये के कैसे पहुंच जाये इसे ही उपलब्धि मान कर हर कोई अपनी पीठ ठोंकने से नहीं चूक रहा जबकि सच यह है कि संसद के भीतर ही नोबल से सम्मानित बांग्लादेश के मोम्मद युनुस ने ग्रामीण बैंक का पूरा पाठ हर सांसद को समझाया। और बांग्लादेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पटरी पर भी ले आये। मोम्मद युनुस ने भारत के संसद में जब यह जानकारी दी कि अनुदान के जरिए गरीबी से नहीं निपटा जा सकता । दान से निर्भरता बढ़ती है और गरीबी का दुष्चक्र चलता रहता है । कर्ज से लोगों को आय प्राप्ति के नए जरिए मिलते हैं और खासकर गरीब,अशिक्षित और महिलाओं को माइक्रोफाइनेंस के जरिए मुख्यधारा में लाया जा सकता है । तो हर किसी ने तालिया पीटी थी ।
लेकिन अब यह जानते हुये भी राजनेताओ की आंख नहीं खुल रही है कि बांग्लादेश ने इन्हीं उपायों से बीते बीस बरस में बीपीएल परिवारों की तादाद बीस फीसदी तक कम कर दी। 91-92 में 60 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी वह अब 40 फीसदी तक आ गई। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि बांग्लादेश में 1990-91 में 3 करोड 60 लाख लोग भूख की मार झेलते थे, जो अब 2.62 करोड़ रह गए हैं। लेकिन भारत तो विकास के नाम पर चकाचौंध की बेफ्रिक्री में कुछ ऐसा खोया है कि उसे किसानों की खुदकुशी या फसल बर्बाद होने पर कोई राहत या मुआवजा दिया जाना चाहिये इसपर ठोस नीति बनाने के बदले चार दिन पहले संसद ने हवाई यात्रा करने वालो के लिये नीतिगत फैसला ले लिया कि अब हवाई यात्रा के दौरान मरने वालो को 75 लाख की जगह 90 लाख रुपये मिलेंगे।
Thursday, March 12, 2015
नागपुर में तय होगा मोदी सरकार की उड़ान के पर कतरे जायें या नहीं?
अगर भैयाजी जोशी सरकार्यवाह पद से मुक्त हो गये तो मानकर चलिये की मोदी सरकार पर नजर रखने की तैयारी में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ सक्रिय हो चला है। और अगर संघ की कार्यकारिणी में कोई परिवर्तन हुआ ही नहीं तो मान कर चलिये कि प्रचारक से पीएम बने नरेन्द्र मोदी अपने रास्ते में फिलहाल कोई दखल नहीं चाहते हैं और संघ भी दखल देने के मूड में नहीं है। दरअसल राष्ट्रीय स्वंयसेवक की कल से नागपुर में शुरु हो रही अखिल भारतीय प्रतिनिधी सभा में चर्चा तो सरकार के कामकाज से लेकर संघ की राजनीतिक सक्रियता और इस दायरे में दिल्ली चुनाव से लेकर कश्मीर में मुफ्ती के साथ साझा सरकार बनाने तक के हालात पर चर्चा होगी। लेकिन सारी नजरें इसी पर टिकी हैं कि क्या कार्यकारिणी में कोई फेरबदल भी होगा। क्योंकि संघ के भीतर दो मत काम कर रहे हैं। मराठी लॉबी कोई बदलाव चाहती नहीं है। खुद बीजेपी भी संघ की सक्रियता ऐसी नहीं चाहती है जिससे बाहर यह दिखायी दे कि संघ की नजरों के इशारे पर बीजेपी और मोदी सरकार है। लेकिन संघ के भीतर संघ के विस्तार को लेकर यह सवाल जरुर है कि जब देश में अपनों की ही सरकार हो तब तालमेल बनाते हुये आगे बढना जरुरी होता है। और इस दायरे में सुरेश भैयाजी जोशी अगर दिल्ली में रहकर मोदी सरकार और संघ के बीच सेतू का काम करें तो फिर संघ के संगठन के विस्तार के लिये नये सरकार्यवाह की जरुरत पड़ेगी ही। ऐसे में दत्तात्रेय होसबोले ही आरएसएस संगठन में भैयाजी जोशी की जगह ले लें। यानी दत्तात्रेय नये सरकार्यवाह हो जायें। चूंकि दत्तात्रेय राजनीतिक सक्रियता से दूर हैं तो फिर संघ के संगठन पर वह पूरा ध्यान भी देंगे। यानी अभी तक जो सारे काम सामूहिक चर्चा के जरीये लिये जा रहे हैं, उसमें संघ अब बीजेपी से लेकर सरकार और तमाम संघ के संगठनों के भीतर के सवालो का जबाब देने के लिये नयी रणनीति अपना सकता है।
अगर ऐसा होता है तो समझना यह भी होगा कि 1977 के बाद पहला मौका होगा जब संघ सरकार के बीच सेतू के लिये आरएसएस का कोई वरिष्ठ नियुक्त होगा। याद कीजिये तो जनता पार्टी के दौर में सरसंघचालक देवरस सीधे चन्द्रशेखर से संवाद बनाये हुये थे। देवरस राजनीतिक सक्रियता को सामाजिक मुद्दों के दायरे में लाकर संवाद बनाते थे तो कई धाराओं का मिलन भी जनता पार्टी में हुआ। और कांग्रेस से निकले जयप्रकाश नारायण तक ने संघ को राजनीतिक तौर पर क्लीन चीट देनेमें कोई देरी नहीं की। क्योंकि तब मकसद बड़ा था। लेकिन मौजूदा वक्त में संघ और बीजेपी के बीच जटिलता बड़ी है। यानी विकास की जिस अवधारणा को मोदी सरकार कहीं ज्यादा बड़ा मकसद मान कर चल रही है, उसके सामानांतर राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ के भीतर ही कई स्तर पर असहमति भी है और आलोचना भी है। मसलन नागपुर में अगले सात दिनो में संघ से जुडे संगठन जिला, क्षेत्र और प्रांत स्तर पर ही जब अपनी रिपोर्ट रखेंगे तो अर्से बाद हर किसी की निगाहो में मोदी सरकार होगी। किसानों के बीच काम करने वाले भारतीय किसान संघ, मजदूरो के बीच काम करने वाले भारतीय मजदूर संघ और इसी लकीर को बड़ा करें तो स्वदेशी जागरम मंच, लघु उघोग भारती,सेवा भारती,भारत विकास परिषद और शौषणिका महासंघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक किन आधारो पर कहेंगे कि वह सरकार की बोली जा नीतियों के साथ खड़े है । क्योंकि विकास का जो ढांचा मोदी सरकार खड़ा कर रही है, उसमें और कहें जाने के तौर तरीकों में बड़ा अंतर है। माना यह भी जा रहा है कि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के विरोध में जिस तरह बीएमएस, स्वदेशी जागरम मंच और किसान संघ है, उसमें कोई टकराव सीधे तौर पर उभरे उससे पहले आरएसएस सरकार के साथ संघ का समन्वय बनाने के लिये ही भैयाजी को दिल्ली में रखना चाहता है। यूं समझना यह भी होगा कि यह सवाल वाजपेयी के दौर में वाजपेयी ने हमेशा संघ से बातचीत के लिये लालकृष्ण आडवाणी को ही सामने किया। खुद कभी संघ को महत्ता नहीं दी। असर इसी का हुआ कि तबके सरसंघचालक सुदर्शन ने एक टीवी इंटरव्यू में वाजपेयी आडवाणी को रिटायर्ड होने की सलाह देते हुये वाजपेयी सरकार को ही खारिज कर दिया। और संयोग से वाजपेयी की राह पर नरेन्द्र मोदी भी न चल पड़ें और संघ से बातचीत के लिये हमेशा बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह जाये यह भी संघ नगीं चाहेगा। ऐसे में संघ और सरकार के बीत समन्वय बनाने के एक तरीका गुरु गोलवरकर के दौर का भी है। गोलवरकर के वक्त भी दत्तोपंत ठेंगडी के विचार संघ से टकराते रहे।
लेकिन तब गुरु गोलवरकर जनसंघ और ठेंगडी के खड़े किये संगठन बीएमएस, स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ में खुद ही समन्वय बनाते थे। जनसंघ पर हिन्दुत्व का भार राजनीतिक तौर पर गोलवरकर डालते जिससे जनसंघ सियासी तौर पर फिसले नहीं और संघ की सोच के नजदीक ही खड़ा रहे वहीं ठेंगडी को कम्युनिस्ट पार्टी आफ आरएसएस कहकर शांत करते। यानी व्यंग्य से लेकर समझ का जो मिश्रण एक साथ गोलवरकर रखते और संगठन का विस्तार करते क्या वह मोहन भागवत के दौर में संभव है। यह सवाल इसलिये फिर से महत्वपूर्ण हो चला है क्योंकि मौजूदा वक्त में संघ और सरकार के सामानांतर कैसे संघ के थिंक टैक ही ठेंगडी के सवालों को नये सिरे से उठा रहे हैं, इसका नजारा नागपुर में प्रतिनिधी सभा की बैठक से पहले विचारों के संघर्ष से समझा जा सकता है। विहिप के थिक टैंक बालकृष्ण नाईक नागपुर में संघ के करीबी दिलीप देवधर से संघ को समझने वालो के साथ दो दिन पहले नागपुर में मिलते हैं। तो संवाद राम मंदिर या घर वापसी की जगह मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की दिशा में चला जाता है। और संघ को जानने समझने वाले ठेगडी की तर्ज पर वामपंथी सोच तो नहीं रखते लेकिन गांधीवादी सोच के जरिये यह सवाल जरुर उठा देते हैं कि नागपुर में मेट्रो की जरुरत क्या है। अहमदाबाद-मुबई के बीच बुलेट ट्रेन की जरुरत क्या है। और तो और संघ के थिंक टैक मोदी सरकार की नीतियों को पूंजीवाद के करीब या भारत के विदेशीकरण के तौर पर देखने से नहीं चूक रहे । यानी जो सवाल मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद तीक्ष्ण हो रहे है वह मोदी के विकास के नारे की जमीन है। यानी संघ के भीतर यह सवाल भी बड़ा हो चला है कि आने वाले वक्त में टकराव शुरु हो उससे पहले समन्वय बनाकर इसे रोकने की दिशा में कैसे ले जाया जाये । इस दिशा में कदम बढाना जरुरी है । ध्यान दे तो संघ ने दिल्ली चुनाव को लेकर अपनी खुली प्रतिक्रिया दी लेकिन कश्मीर के बवंडर पर वह खामोश रही । उसकी वजह टकराव रोकना था या गलती मानना । हो जो भी लेकिन सच यही है कि संघ से निकल कर बीजेपी में पहुंचे राम माधव ही कश्मीर में सत्ता की समूची बिसात बिछा रहे थे । सच यह भी है कि पहले उमर अब्दुल्ला का दरवाजा संघ ने खटखटाया । लेकिन वहां बीजेपी अपना सीएम बनाना चाहती थी और उमर अपने विधायकों की संख्या से ज्यादा की मांग कर रहे थे। उसी के बाद बातचीत मुफ्ती की तरफ बढ़ी लेकिन मुफ्ती के साथ मिलकर सरकार बनाने के विरोध की आवाज बीजेपी के ही मार्गदर्शक मंडल से निकली। बावजूद इसके सच यह भी है कि संघ को सारी जानकारी राम माधव दे रहे थे। तो फिर कश्मीर में उलझते हालात में संघ ने चुप्पी साधना ही ठीक समझा। ठीक इसी तर्ज पर किसान-मजदूर के जो सवाल संघ के संगठन उठा रहे हैं। घर वापसी और घर्मांतरण को लेकर जो सवाल विहिप और धर्मजागरण उठा रहे हैं। उसमें सरकार के निर्णयों से पहले बिना जिम्मेदारी सामूहिक चर्चा सही है या जिम्मेदारी के साथ निर्णय लेने में भागेदारी हो , आरएसएस को यह भी तय करना होगा । यानी पहली बार सरकार और संघ के बीच तालमेल बैठाने के लिये अगर भैयाजी जोशी सरकार्यवाह का पद छोड विशेष तौर पर नियुक्त हो जाते हैं तो फिर मोदी सरकार की उड़ान थमेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता। और अगर कोई बदलाव होता नहीं है तो मोदी की उड़ान परवान चढेगी और संघ ढील दिये हुये है संकेत यह भी साफ निकलेंगे।
अगर ऐसा होता है तो समझना यह भी होगा कि 1977 के बाद पहला मौका होगा जब संघ सरकार के बीच सेतू के लिये आरएसएस का कोई वरिष्ठ नियुक्त होगा। याद कीजिये तो जनता पार्टी के दौर में सरसंघचालक देवरस सीधे चन्द्रशेखर से संवाद बनाये हुये थे। देवरस राजनीतिक सक्रियता को सामाजिक मुद्दों के दायरे में लाकर संवाद बनाते थे तो कई धाराओं का मिलन भी जनता पार्टी में हुआ। और कांग्रेस से निकले जयप्रकाश नारायण तक ने संघ को राजनीतिक तौर पर क्लीन चीट देनेमें कोई देरी नहीं की। क्योंकि तब मकसद बड़ा था। लेकिन मौजूदा वक्त में संघ और बीजेपी के बीच जटिलता बड़ी है। यानी विकास की जिस अवधारणा को मोदी सरकार कहीं ज्यादा बड़ा मकसद मान कर चल रही है, उसके सामानांतर राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ के भीतर ही कई स्तर पर असहमति भी है और आलोचना भी है। मसलन नागपुर में अगले सात दिनो में संघ से जुडे संगठन जिला, क्षेत्र और प्रांत स्तर पर ही जब अपनी रिपोर्ट रखेंगे तो अर्से बाद हर किसी की निगाहो में मोदी सरकार होगी। किसानों के बीच काम करने वाले भारतीय किसान संघ, मजदूरो के बीच काम करने वाले भारतीय मजदूर संघ और इसी लकीर को बड़ा करें तो स्वदेशी जागरम मंच, लघु उघोग भारती,सेवा भारती,भारत विकास परिषद और शौषणिका महासंघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक किन आधारो पर कहेंगे कि वह सरकार की बोली जा नीतियों के साथ खड़े है । क्योंकि विकास का जो ढांचा मोदी सरकार खड़ा कर रही है, उसमें और कहें जाने के तौर तरीकों में बड़ा अंतर है। माना यह भी जा रहा है कि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के विरोध में जिस तरह बीएमएस, स्वदेशी जागरम मंच और किसान संघ है, उसमें कोई टकराव सीधे तौर पर उभरे उससे पहले आरएसएस सरकार के साथ संघ का समन्वय बनाने के लिये ही भैयाजी को दिल्ली में रखना चाहता है। यूं समझना यह भी होगा कि यह सवाल वाजपेयी के दौर में वाजपेयी ने हमेशा संघ से बातचीत के लिये लालकृष्ण आडवाणी को ही सामने किया। खुद कभी संघ को महत्ता नहीं दी। असर इसी का हुआ कि तबके सरसंघचालक सुदर्शन ने एक टीवी इंटरव्यू में वाजपेयी आडवाणी को रिटायर्ड होने की सलाह देते हुये वाजपेयी सरकार को ही खारिज कर दिया। और संयोग से वाजपेयी की राह पर नरेन्द्र मोदी भी न चल पड़ें और संघ से बातचीत के लिये हमेशा बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह जाये यह भी संघ नगीं चाहेगा। ऐसे में संघ और सरकार के बीत समन्वय बनाने के एक तरीका गुरु गोलवरकर के दौर का भी है। गोलवरकर के वक्त भी दत्तोपंत ठेंगडी के विचार संघ से टकराते रहे।
लेकिन तब गुरु गोलवरकर जनसंघ और ठेंगडी के खड़े किये संगठन बीएमएस, स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ में खुद ही समन्वय बनाते थे। जनसंघ पर हिन्दुत्व का भार राजनीतिक तौर पर गोलवरकर डालते जिससे जनसंघ सियासी तौर पर फिसले नहीं और संघ की सोच के नजदीक ही खड़ा रहे वहीं ठेंगडी को कम्युनिस्ट पार्टी आफ आरएसएस कहकर शांत करते। यानी व्यंग्य से लेकर समझ का जो मिश्रण एक साथ गोलवरकर रखते और संगठन का विस्तार करते क्या वह मोहन भागवत के दौर में संभव है। यह सवाल इसलिये फिर से महत्वपूर्ण हो चला है क्योंकि मौजूदा वक्त में संघ और सरकार के सामानांतर कैसे संघ के थिंक टैक ही ठेंगडी के सवालों को नये सिरे से उठा रहे हैं, इसका नजारा नागपुर में प्रतिनिधी सभा की बैठक से पहले विचारों के संघर्ष से समझा जा सकता है। विहिप के थिक टैंक बालकृष्ण नाईक नागपुर में संघ के करीबी दिलीप देवधर से संघ को समझने वालो के साथ दो दिन पहले नागपुर में मिलते हैं। तो संवाद राम मंदिर या घर वापसी की जगह मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की दिशा में चला जाता है। और संघ को जानने समझने वाले ठेगडी की तर्ज पर वामपंथी सोच तो नहीं रखते लेकिन गांधीवादी सोच के जरिये यह सवाल जरुर उठा देते हैं कि नागपुर में मेट्रो की जरुरत क्या है। अहमदाबाद-मुबई के बीच बुलेट ट्रेन की जरुरत क्या है। और तो और संघ के थिंक टैक मोदी सरकार की नीतियों को पूंजीवाद के करीब या भारत के विदेशीकरण के तौर पर देखने से नहीं चूक रहे । यानी जो सवाल मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद तीक्ष्ण हो रहे है वह मोदी के विकास के नारे की जमीन है। यानी संघ के भीतर यह सवाल भी बड़ा हो चला है कि आने वाले वक्त में टकराव शुरु हो उससे पहले समन्वय बनाकर इसे रोकने की दिशा में कैसे ले जाया जाये । इस दिशा में कदम बढाना जरुरी है । ध्यान दे तो संघ ने दिल्ली चुनाव को लेकर अपनी खुली प्रतिक्रिया दी लेकिन कश्मीर के बवंडर पर वह खामोश रही । उसकी वजह टकराव रोकना था या गलती मानना । हो जो भी लेकिन सच यही है कि संघ से निकल कर बीजेपी में पहुंचे राम माधव ही कश्मीर में सत्ता की समूची बिसात बिछा रहे थे । सच यह भी है कि पहले उमर अब्दुल्ला का दरवाजा संघ ने खटखटाया । लेकिन वहां बीजेपी अपना सीएम बनाना चाहती थी और उमर अपने विधायकों की संख्या से ज्यादा की मांग कर रहे थे। उसी के बाद बातचीत मुफ्ती की तरफ बढ़ी लेकिन मुफ्ती के साथ मिलकर सरकार बनाने के विरोध की आवाज बीजेपी के ही मार्गदर्शक मंडल से निकली। बावजूद इसके सच यह भी है कि संघ को सारी जानकारी राम माधव दे रहे थे। तो फिर कश्मीर में उलझते हालात में संघ ने चुप्पी साधना ही ठीक समझा। ठीक इसी तर्ज पर किसान-मजदूर के जो सवाल संघ के संगठन उठा रहे हैं। घर वापसी और घर्मांतरण को लेकर जो सवाल विहिप और धर्मजागरण उठा रहे हैं। उसमें सरकार के निर्णयों से पहले बिना जिम्मेदारी सामूहिक चर्चा सही है या जिम्मेदारी के साथ निर्णय लेने में भागेदारी हो , आरएसएस को यह भी तय करना होगा । यानी पहली बार सरकार और संघ के बीच तालमेल बैठाने के लिये अगर भैयाजी जोशी सरकार्यवाह का पद छोड विशेष तौर पर नियुक्त हो जाते हैं तो फिर मोदी सरकार की उड़ान थमेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता। और अगर कोई बदलाव होता नहीं है तो मोदी की उड़ान परवान चढेगी और संघ ढील दिये हुये है संकेत यह भी साफ निकलेंगे।
Monday, March 9, 2015
निकाहनामा बीजेपी का मोहब्बत आंतकवादियों से
मसरत रिहा हो गया फक्तू रिहा होने के रास्ते पर है और बाकि 145 राजनीतिक कैदियों की फाइल जल्द ही खुलेगी। य़ानी कभी आंतकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन के साथ रहे मसरत। और कभी जमायत उल मुजाहिद्दीन के कमांडर रहे आशिक हसन फक्तू। और उसके बाद कश्मीर की जेलो में बेद 145 कैदियों की रिहाई भी आने वाले वक्त में हो जायेगी। क्योंकि राजनीतिक कैदियों की रिहाई होनी चाहिये यह मुद्दा बीजेपी के साथ सरकार बनाने के लिये चलने वाली बातचीत में उठी थी। दरअसल जम्मू कश्मीर की सरकार को लेकर जो नजरिया दिल्ली का है उसमें मउप्ती को केन्द्र के साथ हुये करार नामे पर चलना चाहिये। लेकिन मुफ्ती सरकार जिस जनरिये से चल रही है उसमें उसने निकाहनामा तो केन्द्र की बीजेपी सरकार के साथ पढ़ा है लेकिन मोहब्बत कश्मीरी आंतकवादियों के लेकर कर रहे हैं।
लेकिन निकाह और इश्क के बीच तलवार की जिस नोक पर मौजूदा जम्मू कश्मीर सरकार चल रही है उसका सच यह भी है कि मसरत के बाद जिन आशिक हसन फक्तू की रिहाई होने वाली है। वह मानवाधिकार कार्यकर्ताता वांचू की हत्या के आरोप में बीते 22 बरस से जेल में है। सुप्रीम कोर्ट में यह मामला चल रहा है।
यानी रिहाई की वजह सिर्फ न्याय में देरी को बनाया गया है। और फाइल में लिखा गया है कि 22 बरस से तो कश्मीर की जेल में कोई नही है। वहीं बाकि जिन 145 कैदियो की फाइल रिहाई को लेकर खुलने वाली है,उनमें 67 कैदी अलगाववादियो के साथ नारे लगाते हुये गिरफ्तार हुये हैं। आरोपों की फेहरिस्त कमोवेश हर किसी पर राष्ट्रविरोध और दंगा भडकाने से लेकर सार्वजिनक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की है। बाकि 78 कैदियो पर किसी ना किसी वक्त आतंकवादी होने का तमगा सेना लगा चुकी है। यानी कैदियों की रिहाई का रास्ता कामन मिनिनिम प्रोग्राम से आगे निकल रहा है क्योंकि श्रीनगर की नजर में जो राजनीतिक कैदी है वह दिल्ली की नजर में आतंकवादी।
फिर यह भी अजब संयोग है कि आंतकवाद की दस्तक जब कश्मीर में रुबिया सईद के अपहरण के साथ होती है और केन्द्र सरकार पांच आतंकवादियों की रिहाई का आदेश देती है तो वीपी सरकार को बीजेपी ही उस वक्त समर्थन दे रही थी। और ठीक दस बरस बाद 1999 जब एयर इंडिया का विमान अपहरण कर कंधार ले जाया जाता है तो तीन आंतकवादियों की रिहाई का आदेश उस वक्त एनडीए सरकार देती है, जो बीजेपी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में चल रही थी। और 15 बरस बाद 2015 में जब जम्मू कश्मीर के सीएम उन आतंकवादियों की रिहाई के आदेश देते हैं, जिन पर देशद्रोह से लेकर आंतकवाद की कई धारायें लगी हैं तो संयोग से कश्मीर की सरकार में बीजेपी बराबर की साझीदार होती है। यानी कश्मीर को लेकर जो सवाल बीजेपी जनसंघ के जन्म से धारा 370 के जरीये उठाती रही वही बीजेपी सत्ता में आने के बाद या सत्ता में सहयोग के दौर में कश्मीर को लेकर हमेशा उलझ जाती है। और संयोग देखिये जो मुफ्ती मोहम्मद सईद सीएम बनने के बाद 2015 में एकतरफा निर्णय लेकर अपनी सियासी जमीन पुख्ता बनाने की दिशा में जा रहे है। वहीं मुफ्ती 1999 के कंघार कांड के वक्त पीडीपी बनाते है । और वही मुफ्ती रुबिया अपहरण के वक्त सिर्फ एक बाप ही नहीं बोते बल्कि देश के गृहमंत्री भी होते हैं। यानी बीजेपी और मुफ्ती । कश्मीर में आंतकवाद को लेकर दोनों के रास्ते बिलकुल जुदा रहे हैं। आतंक के घाव को मुफ्ती ने सहा है और आतंकवाद को खत्म करने के लिये मुफ्ती मानवाधिकार की बात करते हुये आंतकियो को भटका हुआ मान मुख्यधारा से जोड़ने की बात खुले तौर पर करते रहे हैं। वही बीजेपी कश्मीर के आतंकवाद के पीछे पाकिस्तान को मानती रही है। इसलिये कश्मीर के आतंकवादियों की निशानदेही हमेशा पाकि्स्तानी आंतकवादी संगठनो से जोड़ कर ही होती रही है। ऐसे में सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि मुफ्ती को निर्णय लेने की ताकत बीजेपी के समर्थन से मिली है और बीजेपी चाहे तो मुफ्ती से समर्थन वापस लेकर उनके निर्णय. पर ब्रेक लगा सकती है। सवाल यह भी नहीं है कि मुफ्ती अपनी राजनीतिक जमीन बीजेपी के समर्थन से बना रहे हैं। सवाल सिर्फ इतना है कि कश्मीर को लेकर अभी भी दिल्ली और श्रीनगर का नजरिया ना सिर्फ अलग है बल्कि एकसाथ खड़े होकर भी निर्णय इतने जुदा है कि केन्द्र सरकार को कहना पडता है कि उन्हें मुफ्ती ने जानकारी नहीं दी और मुफ्ती कहते हैं कानूनन रिहाई के अलावे कोई रास्ता था ही नहीं।
ऐसे में अब बड़ा सवाल यही हो चला है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का रास्ता कश्मीर होते हुये पाकिस्तान जायेगा या पाकिस्तान से बातचीत का दरवाजा खोलने के लिये कश्मीर पर समझौता का रास्ता दिखायेगा। क्योंकि मुश्किल सिर्फ यह नही है कि कश्मीर में मुफ्ती ने मसरत आलम को रिहा कर दिया। और दिल्ली में पाकिस्तान के हाई कमिश्नर बस्सी ने गिलानी से मुलाकात की। मुश्किल यह है कि सिर्फ छह महीने
पहले ही अलगाववादियों के साथ पाकिस्तान के हाई कमिश्नर की मुलाकात भर से फर्धानमंत्री मोदी ने विदेश सचिव की वार्ता को ही रद्द कर दिया था और अब दिल्ली से लेकर इस्लामाबाद और इस्लामाबाद से लेकर श्रीनगर तक में अलगाववादियों से पाकिस्तान हाई कमिश्नर मिल रहे हैं। विदेश सचिव पाकिस्तान में बातचीत कर रहे है और जम्मू कश्मीर के सीएम पाकिस्तान परस्त अलगाववादी को जेल से रिहा कर रहे हैं। और इन सबके बीच बीसीसीआई भी पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने की बिसात बिछा रही है। तो सवाल तीन हैं। पहला क्या पाकिस्तान को लेकर सरकार यू टर्न मूड में है ।दूसरा,क्या कश्मीर पर कोई बडे फैसले की राह पर सरकार है । तीसरा क्या अमेरिका दबाब काम कर रहा है । हो जो भी लेकिन जिस तरह पाकिस्तान के हाईकमीश्नर दिल्ली में कशमीरी अलगाववादी नेता गिलानी से मुलाकात करते है और मुलाकात के बाद
गिलानी यह कहने से नहीं चूकते कि आखिर कश्मीर को लेकर दिल्ली कबतक आंखे मूंदे रह सकता है। तो संकेत साफ है कि केन्द्र सरकार की हरी झंडी के बगैर यह मुलाकात संभव हो नहीं सकती है। तो क्या पाकिस्तान के साथ बातचीत का रास्ता खोलने के लिये मोदी सरकार के रुख में नरमी आयी है। या फिर कश्मीर के सवाल को सरकार तबतक उछालना चाहती है जबतक यह राष्ट्रीय भावना से सीधे न जुड़ जाये। यानी मुफ्ती हो हुर्रियत दोनो की जमीन अगर एक है औऱ उसी जमीन का लाभ पाकिस्तान भी उठा रहा है तो फिर मोदी सरकार जरुर चाहेगी कि कश्मीर को लेकर देशभक्ति की भावना उन्हीं के साथ देश की भी वैसे ही जुड़
जाये जिसका जिक्रमोदी ने संसद में यह कहकर किया कि उन्हें राष्ट्रभक्ति न सिखाये । यानी मुफ्ती के साथ मिलकर दो महीने की मशक्कत के बाद जब साझा सरकार बनायी गयी है फिर सिर्फ देश भक्ति के दायरे में कश्मीर को तौला भी नहीं जा सकता है और सरकार गिरायी भी नहीं जा सकती । क्योंकि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान अपनी सियासी जमीन देखता है । शायद इसीलिये पहली बार प्रधानमंत्री मोदी के सामने कश्मीर का सवाल गले की हड्डी बन रहा है ।
Saturday, March 7, 2015
तख्त-ताज उछालने का सपना अधूरा ही रह जायेगा ?
“आप” से कोई बड़ा होकर नहीं निकला। जो बड़े दिखायी दे रहे थे वह सभी अपना और अपनों का रास्ता बनाने में कुछ ऐसे फंसे कि हर किसी की हथेली खाली ही नजर आ रही है। हालांकि टकराव ऐसा भी नहीं था कि कोई बड़े कैनवास में आप को खड़ा कर खुद को खामोश नहीं रख सकता था। लेकिन टकराव ऐसा जरुर था जो दिल्ली जनादेश की व्याख्या करते हुये हर आम नेता को खास बनने की होड़ में छोटा कर गया। दिल्ली जनादेश के दायरे में राजनीति को पहली बार जीतने की राजनीति से ज्य़ादा हारे हुये की राजनीति पर खुली चर्चा हुई। यानी आम आदमी पार्टी क्या कर सकती है इससे ज्यादा मोदी की अगुवाई में बीजेपी के बढ़ते कदम को रोका कैसे जा सकता है, इसकी खुली व्याख्या जब न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर शुरु हुई तो जीत की डोर को थामे “आप”का हर प्रवक्ता आर्थिक नीति से लेकर एफडीआई और हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना से लेकर संघ के एजेंडे को रोका कैसे जा सकता है, इसका पाठ पढाने से नहीं चूका। इतना ही नहीं बिहार, बंगाल और यूपी के होने वाले विधानसभा चुनाव में “आप” की राजनीति को भी क्षत्रपो से बडा कर आंका गया। किसान-मजदूर का सवाल भी बजट के वक्त जब उभरा तो “आप” के प्रवक्ता खुल कर न्यूज चैनलों में यह बहस करते नजर आये कि रास्ता कैसे सही नहीं है और रास्ता कैसे सही हो सकता है । जाहिर है लोकसभा चुनाव के वक्त 90 फिसदी की जमानत जब्त और दिल्ली चुनाव में 96 फीसदी की जीत ने “आप” के भीतर इस सवाल को तो हमेशा से बड़ा बनाया कि जो राजनीति वह करना चाह रहे है उसमें जीत हार से आगे की राजनीति मायने रखती है। और इसी बडे कैनवास को समझने के लिये दिल्ली के जनादेश का कैनवास जब सामने आया तो वह उस बडे कैनवास को भी पीछे छोड़ गया, जिसे आम आदमी पार्टी के भीतर राजनीतिक तौर पर हर कोई जी रहा था। किसानों को कैसे हक दिलाये जा सकते हैं। कैसे भूमि अधिग्रहण के नये तरीके इजाद किये जा सकते हैं। कैसे देश में गांव से पलायन रोका जा सकता है। कैसे विकास की समानता को मिटाया जा सकता है। कैसे कारपोरेट की राजनीति के साथ संगत को खत्म किया जा सकता है। कैसे आम आदमी की भागेदारी सत्ता के साथ हो सकती है। पुलिस सुधार, न्याय में सुधार से लेकर बजट बनाने की रुपरेखा भी बदलने की जरुरत देश में क्यों पड़ी है।
यह तमाम बाते ऐसी है जिसकी चर्चा “आप” के बनने के दिन से होती रही। जरा कल्पना किजिये सिर्फ दिल्ली ही नहीं देश के किसी भी हिस्से के “आप” के दफ्तर में कोई पहुंचे और चुनावी राजनीति से इतर देश के हालात पर ही बात हो। इतना ही नहीं चुनाव लड़ने के वक्त भी चुनावी राजनीतिक मशक्कत पर बात करने से ज्यादा क्षेत्र के हालात और उन हालातों से लोगो को सामूहिक तौर पर गोलबंद करते हुये हालातों से परिचित कराने के तौर तरीको पर बात हो। स्वराज के लागू होने की मुश्किलों पर बात हो। राजनीतिक सत्ता पर कुंडली पारे राजनीतिक दलो को हराने पर खामोशी बरती जाये और “आप” के भीतर चर्चा इस बात को लेकर हो कि कैसे
संसदीय राजनीति को लोकतंत्र का तमगा देकर तमाम दागी और अपराधी चुनावी जीत के साथ सफेदपोश हो जाते हैं। लोकतंत्र के विशेषाधिकार को पा जाते है। और इनके सामने संवैधानिक परिपाटी भी छोटी पड़ जाती है। इस सच को किस राजनीति से सामने लाया जाये। इतना ही नहीं मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के लिये खुद को चुनावी राजनीति में इस तरह सामने लाया जाये जिससे चुनाव में पूंजी या कहे कारपोरेट की दखल बंद हो। और कोई भी सत्ता चुनावी जीत के हिस्सेदारो को हिस्सा देने में ही पांच बरस ना गुजार दें। यानी जो “आप” अपने जन्म काल से जिन बातो को सोच रही थी और लगातार समाज में विषमता पैदा करने वाले की सत्ता के तख्त और ताज को उछालने का खुल्लमखुल्ला ऐलान करने से नहीं चूक रही थी अगर वही आप दिल्ली जनादेश की आगोश में खोने लगे तो होगा क्या। असल में केजरीवाल दिल्ली में सिमटेंगे तो नेतृत्व की डोर थामगे कौन। यानी जिस आप में नेतृत्व का सवाल 2012 से 2014 तक कभी उभरा नहीं, वहां अगर पार्टी की डोर और सीरा नजर आने लगे तो “आप” में टकराव का रास्ता आयेगा ही क्योकि हर कोई आईने के सामने खुद की तस्वीर देखेगा ही ।
“आप” के भीतर से आवाज आ रही है कि केजरीवाल दिल्ली दायरे में रहना चाहते है । मयंक गांधी बीएमसी चुनाव लड़ना चाहते हैं। आशीष खेतान अपने कद को बड़ा करना चाहते हैं। योगेन्द्र यादव हरियाणा का प्रभारी बनना चाहते हैं। संजय सिंह संगठन पर घाक जमाये रखना चाहते हैं। शालिनी भूषण सगंठन सचिव सलाहकार बनना चाहती हैं। कुमार विश्वास इधर-उधर में ना बंटकर सेतु बनकर उभरना चाहते हैं जिससे उन्हें “आप” में नंबर दो मान लिया जाये। यानी हर किसी का अपना नजरिया “आप” को लेकर खुद को कहा फिट करना है इसपर ही हो चला है। तो फिर बडे सपनों को देखकर पूरा करने का सपना किस दिल में हो सकता है। अगर हर दिल ही तंगदिल है। दरअसल सतहीपन सिर्फ पद को लेकर नहीं उभरा बल्कि जिन मुद्दो को बडा बताया गया वह मुद्दे भी छींटाकशी से आगे जाते नहीं। एक कहता है पचास पचास लाख के चार चेक की जांच लोकपाल से हो । दूसरा कहता है जब चेक आये थे तो आप ही ने पीएसी में बैठकर दस लाख से ज्यादा के चेक की जांच करने के नियम भी बनाये और खुद ही चेक पास भी किये । और अब चेक जांच का जिक्र भी कर रहे हो। एक कहता है कि बीजेपी/कांग्रेस छोड़कर आये नेताओं को “आप” का टिकट देकर आपने पार्टी लाइन त्याग दी । तो दूसरी तरफ से आवाज ती है कि 2013 में तो आपने सवाल नहीं उठाया । खुद ही उस वक्त टिकट दिये और 2015 में आपत्ति का मतलब क्या है। जबकि 2013 में 16 उम्मीदवार बीजेपी/कांग्रेस से निकल कर “आप” में शामिल होकर टिकट पा गये थे। और 2015 में यह आंकडा 13 उम्मीदवारों का रहा । फिर सवाल उठाने का मतलब क्या है। असल में “आप” के भीतर जो सवाल टकराव की वजह रहे वह पद , पावर और अधिकार
क्षेत्र के साथ साथ अपने अपने दायरे में अपनो के बीच अपने कद की मान्यता पाने का भी है। तो सवाल तीन है पहला “आप” जैसे ही केजरीवाल केन्द्रित हुई वैसे ही हर कद्दावर कार्यकर्ता ने अपने दायरे में अपना केन्द्र बनाकर खुद को घुरी बनाने की कोशिश शुरु की । दूसरा, दिल्ली जनादेश ने हर कद्दावर को जीत के मायने अपने अपने तरीके से समझा दिये और हर किसी की महत्वाकांक्षा बढ गयी । तीसरा, “आप” को केजरीवाल की छांव से मुक्त कैसे किया जा सकता है इसके लिये “आप” के भीतर ही “आप” को मिलने वाली मदद के दायरे को तोड़ने की भी पहल हुई । यानी टकराव सिर्फ पद-कद-पावर भर का नहीं रहा बल्कि “आप” जिस रास्ते खड़ा हुआ है, उन रास्तों को कैसे बंद किया जा सकता है मशक्कत इसपर भी शुरु हुई । यानी “आप” में शामिल तमाम लोग अपने अपने घेरे में चाहे बडे हो लेकिन “आप” को संभालने या झुक कर “आप” के कैनवास को ही बढाने की दिशा में कोई हाथ उठा नहीं। दिल्ली जनादेश ने केजरीवाल को अगर जनादेस के बोझ तले दबा दिया तो दिल्ली से बाहर विस्तार देखने वालो की उडान “आप” को अपने पंखों पर लेकर उड़ने के लिये इस तरह मचलने लगी कि जिस उम्मीद को जगाये “आप” उड़ान भर रहा था ब्रेक उसी पर लग गयी ।क्योंकि सत्ता तो आम आदमी की होनी थी। सत्ता में बैठे सेवक का जुड़ाव सड़क पर खड़े होकर तय होना था । संघर्ष के रास्ते जो बड़ा होता वही बड़ा बनता। मुद्दों को पारंपरिक राजनीति के दायरे से बाहर निकाल कर जिन्दगी से जोड़ कर लोगों के राजनीतिक सपनो को उडान देने ही तो केजरीवाल निकले थे । फिर अपने भरोसे उडान देने का सपना कैसे नेताओ ने पाला और इस भरोसे को कैसे तोड़ दिया कि राजनीतिक सफलता सत्ता पाने भर से नहीं होगी बल्कि सत्ता पाने को तौर तरीको से लेकर सत्ता को आखरी व्यक्ति से जोड़ने से होगी। तो सबसे बड़ा सवाल हर जहन में यही होगा कि अब “आप” का विस्तार होगा कैसे । और केजरीवाल जब 15 मार्च को इलाज के बाद दिल्ली लौटेंगे तो वह कहेंगे क्या या करेंगे क्या । और उनके करने-कहने पर ही “आप” इसलिये टिकी है क्योंकि “आप” का मतलब अब ना तो योगेन्द्र यादव की बहुमुखी छवि है और ना ही भूषण परिवार का अब कोई कथन । योगेन्द्र यादव वापस समाजवादी जन-परिषद में लौटेंगे नही। समाजवादी जन परिषद के उनके साथ जो राजनीतिक बदलाव का सपना पाले योगेन्द्र की ताकत तले “आप” में शामिल हो गये वह अपने बूते पार्टी
बनाकर चलाने की ताकत कऱते नहीं है। तो योगेन्द्र के लिये “आप” से बाहर का रास्ता अभी है भी नहीं। तो अपनी स्वतंत्रता से वह किसानों के बीच काम करें या इंतजार करें कि “आप” को लेकर आगे कौन सा नया रास्ता केजरीवाल बनाते हैं।
क्योंकि केजरीवाल के सामने अब सिर्फ दिल्ली चुनौती नहीं है । बल्कि पहली बार केजरीवाल को 2012 की उस भूमिका में फिर से आना है जिस भूमिका को जीते हुये वह स्वराज से लेकर देश भर में राजनीतिक व्यवस्था के बदलाव का सपना पाले हुये थे। दिल्ली में भ्रष्टाचार पर नकेल, महिला सुरक्षा के लिये तकनीकी एलान और क्रोनी कैपटलिज्म की नब्ज दबाने का काम तो केजरीवाल दिल्ली की सत्ता से भी कर सकते है। लेकिन सिर्फ दिल्ली के जरीये राष्ट्रीय संवाद बन पाये यह भी संभव नहीं है और राष्ट्रीय संवाद नहीं बनायेगें तो वही कारपोरेट और वही मीडिया उसी राजनीति के चंगुल में “आप”को मसलने में देर भी नहीं लगायेगा। यानी केजरीवाल अगर अब सामाजिक-आर्थिक विषमता से मुनाफा बनाते पूंजीपतियों और उनके साथ खड़े राजनीतिक दलों को सीधे राजनीतिक निसाने पर लेकर नये संघर्ष की दिशा में बढ़ते है तो फिर दुबारा देश भर के जन-आंदोलन से जुडे समाजसेवी और कार्यतकर्त्ओ का समूह भी संघर्ष के लिये तैयार होगा। क्योंकि मौजूदा वक्त में कोई राजनीतिक दल ऐसा है ही नहीं जो मुनाफे की पूंजी तले राज्य के विकास को देखने से हटकर कोई नयी
सोच रख सके । और दिल्ली प्रयोग दूसरे राज्यो में हुबहु चल नहीं सकता । तो आने वाले वक्त पर “आप” के निशाने पर चाहे बिहार हो या निगाहो में चाहे पंजाब हो । स्वराज या आम आदमी की सत्ता से इतर जहा भी देखने की कोशिश होगी वहा टकराव खुद से होगा ही । क्जयोकि तख्त और ताज उछालने का मिजाज सत्ता पाने के बाद के बदलाव को तखत् पर बैठकर या ताज पहनकर नहीं किया जा सकता । और खुद के बदलाव के तौर तरीके ही अब पार्टी के भीतर के संघर्ष को खत्म कर सकते है । क्योंकि योगेन्द्र-प्रशांत अगर यह ना समझ पाये कि केजरीवाल चाहे दिल्ली में केन्द्रित होकर काम करना चाह रहे है लेकिन वह उनके लिये कठपुतली नहीं हो सकते तो फिर केजरीवाल को समझना होगा कि दिल्ली में “आप” को खपा कर वह खर्च कर सकते हैं। लेकिन राजनीतिक व्यवस्था बदलने के लिये तख्त-ताज को उछालने की नयी मुनादी ही “आप” को जिन्दा भी रखेगी और विस्तार के साथ सत्ता भी दिलायेगी। क्योंकि तब सत्ता योगेन्द्र या प्रशांत या केजरीवाल की ना होगी । आम आदमी के उम्मीद की होगी।
Wednesday, March 4, 2015
आम आदमी के सामने अंधेरा घना है !
विचार आप रोक नहीं सकते और संघर्ष बिना विचार बड़ी सफलता पा नहीं सकते। तो क्या आम आदमी पार्टी पहली बार संघर्ष और विचार के टकराव से गुजर रही है। क्योंकि योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण की पहचान विचारधारा के साथ रही है। वहीं केजरीवाल की पहचान संघर्ष करने वाले नेता के तौर पर रही है । और दिल्ली में आम आदमी पार्टी का सच यही है कि केजरीवाल के संघर्ष पर बौद्दिक नेता विचारधारा का मुल्लमा चढ़ा कर अपने विचारों की सफलता-असफलता भी आंकते रहे हैं। और केजरीवाल विचारधाराओं की राजनीति में संघर्ष करते हुये खुद को आम आदमी ही बनाये रहे। यानी योगेन्द्र और प्रशांत भूषण अवामी पहचान होने के बाद भी क्राउड-पुलर नहीं है। और केजरीवाल के क्राउड-पुलर तत्व ने उन्हें अवामी पहचान दे दी। लेकिन सवाल तो आम आदमी पार्टी के जरीये देश की उस आम जनता का ही है जो पहली बार राजनीतिक व्यवस्था से रुठ कर बदलाव के लिये कसमसा रही है। और चुनावी जनादेश की अंगड़ाई बताती है कि पहले मोदी लहर और फिर केजरीवालकी आंधी सिर्फ सत्ता के प्रतीकात्मक बदलाव है। क्योकि समाज के भीतर की विषमता लगातार बढ़ रही है । और चुनावी नारे हो या राजनीतिक सत्ता के कामकाज का तरीका उसमें कोई बदलाव आया नही है। आप सिर्फ एक आस के तौर पर जागी। क्योंकि कांग्रेस का विकल्प बीजेपी है और बीजेपी का विकल्प कांग्रेस है। यह मिथ दिल्ली चुनाव में टूटता दिखा। क्योंकि दिल्ली एक ऐसी प्रयोगशाला के तौर पर उभरी जहां
वामपंथियों के बौद्दिक कैडर को भी आम आदमी पार्टी में जगह मिली और संघ परिवार की तर्ज पर सड़क पर जुझने वाले कार्यकर्ताओं का जमावड़ा भी केजरीवाल के साथ खड़ा हो गया। सोनिया गांधी के एलिट राष्ट्रीय सलाहकार कमेटी के तर्ज पर राईट विंग के बोद्दिक सलाहकार भी जुड़े। जिन्हें मोदी सरकार में सांप्रदायिकता दिखायी दे रही थी। और झटके में आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र के एलान ने भी बीजेपी को हराने वाली ताकत के पीछे मुस्लिमों को भी एकजुट कर दिया। यानी शिवजी की ऐसी बरात राजनीतिक तौर पर केजरीवाल के इर्द गिर्द खड़ी हो गयी जो बिना कैडर, बिना विचारधारा , बिना लंबे अनुभव के थी लेकिन वह बीजेपी और काग्रेस पर भारी इसलिये पड़ने लगी क्योंकि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों की नीतियां लगातार जन विरोधी रास्ते को पकड़े रही। सत्ता के दायरे में पूंजीपतियों और कारपोरेट का बोलबाला हुआ। घोटालों की फेरहिस्त कांग्रेस के दौर में खुली किताब की तरह उभरी तो बीजेपी के सत्ता में आने के बाद भारत को दुनिया के लिये बाजार बनाने की खुली वकालत नीतियों से लेकर कूटनीति तक के जरीये शुरु हुई।
यानी एक दूसरे को राजनीतिक विकल्प मानने वाली कांग्रेस-बीजेपी के विक्लप के तौर पर ना चाहते हुये देश की राजनीति में दिल्ली एक प्रयोगशाला इसीलिये बनी क्योंकि पहली बार जातीय और संप्रदाय का जिक्र नहीं था। पहली बार कारपोरेट और क्रोनी कैपटलिज्म के खिलाफ खुला एलान था । पहली बार जनता की न्यूनतम जरुरतो पर भी कुंडली मारे कारपोरेट और राजनीतिक भ्रष्टतंत्र का खुला प्रचार था। यानी सत्ता बदलने के बाद भी देश के हालात क्यों नहीं बदल पाते है या सत्ता के करीबियों को ही सत्ता बदलने का लाभ क्यों मिलता है। बाकि देश के हालात में कोई परिवर्तन क्यों नहीं हो पाता, यह सवाल चाहे अनचाहे दिल्ली चुनाव में उभर गया । असर इसी का हुआ कि दिल्ली का एतिहासिक जनादेश समूचे देश को अंदर से राजनीतिक तौर पर इस तरह झकझोर गया कि हिन्दी पट्टी के क्षत्रपों को तो लगने ही लगा कि केजरीवाल का रास्ता अपना कर वह भी बीजेपी को रोक सकते हैं। झटके में जो मोदी सरकार लोकसभा के जनादेश के बाद उडान पर थी वह जमीन पर आ गयी।
कांग्रेस के भीतर भी अल्पसंख्यक प्रेम को लेकर सवाल उठे। साफ्ट हिन्दूत्व की पुरानी कांग्रेस लकीर दुबारा खिंचने की कोशिश शुरु हुई। जाहिर है चुनावी संघर्ष के दौर की आम आदमी पार्टी के खुले कैनवास पर पहली बार रंग भरने की केजरीवाल ने सोची। यानी चुनाव के दौर में कार्यकत्ता से लेकर बोद्दिक जगत और समाजसेवियों से लेकर एक्टीविस्टों की जो बरसात केजरीवाल के नाम पर हो रही थी। जीत के बाद उसे कैसे समेटा जाये। समर्थन की बरसात को किस कटोरे में जमा किया जाये। केजरीवाल के सामने यह सवाल ठीक उसी तरह का था जैसे वीपी सिंह के दौर में जब जन समर्थन बोफोर्स घोटाले के खिलाफ सड़क पर उठा तो देश ने पहली बार कांग्रेस को फड़फड़ाते हुये भी देखा और उसके बाद मंडल-कमंडल तले खत्म होते भी देखा। इतिहास में और पीछे लौटे तो जनादेश की पीठ पर सवाल 1977 में जनता पार्टी का कलह भी रास्ते बनाने की जगह रास्ते उलझा गया । यानी आपातकाल के अंधेरे से उजाला तो निकला लेकिन कैनवास पर कोई रंग जनता पार्टी भी ना छोड़ पायी। दिल्ली के ऐतिहासिक जनादेश को उठाये केजरीवाल भी आम आदमी पार्टी के खुले कैनवास पर कोई रंग भरते उससे पहले ही दिल्ली चुनाव प्रचार में कमान संभालने वालों ने अपना
रंग भरना शुरु कर दिया। जो कैनवास खामोशी से रंगा जा सकता था उसपर रंग कीचड़ की तर्ज पर उछाले जाने लगे। प्रशांत भूषण की शागिर्दगी में केजरीवाल के दरवाजे तक पहुंचे आशीष खेतान ने आप के कैनवास पर ऐसा रंग डाला कि झटके में अन्ना आंदोलन के दौर से संगठन संभाले नायक प्रशांत को खलनायक बना दिया गया। 2013 में जब आम आदमी पार्टी का संविधान बन रहा था । और राजनीतिक परिभाषा तय हो रही थी तब रात रात भर जाग के जिन्होंने कलम चलायी। तर्क किये। विचारवान संविधान बनाया। उस समूह में एक नाम योगेन्द्र यादव का भी था।
लेकिन कैनवास पर रंग भरते वक्त झटके में योगेन्द्र यादव को भी जनादेश के नशे में नायक से खलनायक बना दिया गया। तो क्या एक दौर में जनता पार्टी और दूसरे दौर में जो सवाल जनमोर्चा से लेकर तमाम लोहियावादी-समाजवादियों की फेहरिस्त ने जिस तरह जनता दल को बंटा उसी तर्ज पर आम आदमी पार्टी को भी साबित करने वाले हालात पैदा हो गये । या फिर आप के सफेद कैनवास को अपने अनुकुल रंग भरने की होड़ में केजरीवाल भी कहीं पीछे छूट गये । क्योंकि राष्ट्रीय संयोजक पद से इस्तीफा देकर जिस राह पर आप की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को केजरीवाल ने दिल्ली के जनादेश के नाम पर छोड़ा । उस दिल्ली को सियासी राजनीति की सफल प्रयोगशाला बनाने के लिये कौन सा रास्ता अख्तियार करना है इसे लेकर अब भी अंधेरा ही है । और संसदीय राजनीति का अंधेरा इतना घना है कि आजादी के बाद अपनायी गई नीतियों में आजतक ऐसा कोई परिवर्तन आया ही नहीं कि जो सवाल आजादी के तुरंत बाद थे, वह 67 बरस बाद सुलझ गये। गरीबी हटाओ का नारा हमेशा से लगता रहा। बिजली सड़क पानी का नारा 1962 के बाद से हर चुनाव में गूंजता रहा। जय जवान जय किसान का नारा 50 बरस पहले भी मौजूं था आज भी मौजूं है। रोजगार के संकट से निपटने में देश के तेरह पीएम बदल गये। संविधान से हक के लिये संघर्ष करता आम आदमी कल भी सड़क पर था आज भी सड़क पर है। इस मोड़ पर आम आदमी पार्टी अगर आम आदमी की जरुरतों की जिम्मेदारी उठाने को तैयार है तो मानिये यह नई राजनीति का उदघोष है। जहां नेता नहीं आम आदमी ही मायने रखता है।
Monday, March 2, 2015
"आप" का संकट , नई राजनीति बनाम वैकल्पिक राजनीति
पहली लड़ाई संघर्षशील कार्यकर्ता और वैचारिक राजनीति के बीच हुई। जिसमें कार्यकर्ताओं की जीत हुई क्योंकि सड़क पर संघर्ष कर आमआदमी पार्टी को खड़ा उन्होंने ही किया था। तो उन्हें आप में ज्यादा तवोज्जो मिली। दूसरी लड़ाई समाजसेवी संगठनों के कार्यकर्ताओ और राजनीतिक तौर पर दिल्ली में संघर्ष करते कार्यकर्त्ताओं के बीच हुई । जिसमें आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय तौर पर चुनाव में हार मिली । क्योंकि सिर्फ दिल्ली के संघर्ष के आसरे समूचे देश को जीतने का ख्वाब लोकसभा में उन सामाजिक संगठन या कहें जन आंदोलनों से जुड़े समाजसेवियों ने पाला, जिनके पास मुद्दे तो थे लेकिन राजनीतिक जीत के लिये आम जन तक पहुंचने के राजनीतिक संघर्ष का माद्दा नहीं था । इस संघर्ष में केजरीवाल को भी दिल्ली छोड़ बनारस जाने पर हार मिली। क्योंकि बनारस में वह दिल्ली के संघर्ष के आसरे सिर्फ विचार ले कर गये थे। और अब तीसरी लडाई जन-आंदोलनों के जरीये राजनीति पर दबाब बनाने वाले कार्यकत्ताओं के राजनीति विस्तार की लड़ाई है। इसमें एक तरफ फिर वहीं दिल्ली के संघर्ष में खोया कार्यकर्ता है तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्तर पर फैले तमाम समाजसेवियो को बटोर कर वैकल्पिक राजनीति दिशा बनाने की सोच है । यानी दिल्ली में राजनीतिक जीत ही नहीं बल्कि इतिहास रचने वाले जनादेश की पीठ पर सवार होकर राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक सक्रियता को पैदाकरने कीकुलबुलाहट है तो दूसरी तरफ दिल्ली को राजनीति का माडल राज्य बनाकर राष्ट्रीय विस्तार की सोच है। टकराव जल्दबाजी का है । टकराव तमाम जनआंदोलनों से जुडे समाजसेवियो को दिल्ली के जनादेश पर सवार कर राष्ट्रीय राजनीति में कूदने और दिल्ली में चुनावी जीत के लिये किये गये वायदों को पूरा कर दिल्ली से ही राष्ट्रीय विस्तार देने की सोच का है। इसलिये जो संघर्ष आम आदमी पार्टी के भीतर बाहर चंद नाम और पद के जरीये आ रहा है
दरअसल वह वैकल्पिक राजनीति या नई राजनीति के बीच के टकराव का है। दिल्ली की राजनीति में कूदे अंरविन्द केजरीवाल हो या अन्ना आंदोलन से संघर्ष में उतरे आप के तमाम कार्यकर्ता। ध्यान दें तो पारंपरिक राजनीति से गुस्साये एनजीओ की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को संभालने वाले या मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से रुठे युवाओ का समूह ही दिल्ली की राजनीति में कूदा। राजनीति की कोई वैचारिक समझ इनमें नहीं थी। कांग्रेस या बीजेपी के बीच भेद कैसे करना है समझ यह भी नहीं थी। लेफ्ट–राइट में किसी चुनना है यह भी तर्क दिल्ली की राजनीति में बेमानी रही। दिल्ली की राजनीति का एक ही मंत्र था संघर्ष की जमीन बनाकर सिर्फ भ्रष्ट्राचार के खिलाफ खड़े होना। इसलिये 2013 में मनमोहन सरकार के भ्रष्ट्र कैबिनेट मंत्री हो या तब के बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी। राजनीति के मैदान में निशाने पर सभी को लिया गया । यहा तक की लालू-मुलायम को भी बख्शा नहीं गया। यह नई राजनीति धीरे धीरे दिल्ली चुनाव में जनता की जरुरत पर कब्जा जमाये भ्रष्ट व्यवस्था पर निशाना साधती है, जो वोटरो को भाता है। उन्हें नई राजनीति अपनी राजनीति लगती है क्योंकि पहली बार राजनीति में मुद्दा हर घर के रसोई, पानी, बिजली, सड़क का था। लेकिन लोकसभा चुनाव में नई राजनीति के सामानांतर वैकल्पिक राजनीति की आस जगायी जाती है। ध्यान दे दिसंबर 2013 यानी दिल्ली के पहले चुनाव के बाद ही देश भर के समाजसेवियों को यह लगने लगता है कि दिल्ली में
केजरीवाल की जीत ने वैकल्पिक राजनीति का बीज डाल दिया है और उसे राष्ट्रीय विस्तार में ले जाया जा सकता है। तो जो सोशल एक्टिविस्ट राजनीति के मैदान में आने से अभी तक कतराते रहे वह झटके में समूह के समूह केजरीवाल के समर्थन में खड़े होते हैं। नेशनल एलायंस आफ पीपुल्स मुवमेंट यानी एनएपीएम से लेकर समाजवादी जन परिषद और तमिलनाडु में परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे समाजसेवियो से लेकर गोवा में आदिवासियों के हक का सवाल उठा रहे संगठन भी आप में शामिल हो जाते है । लोकसभा के चुनाव में तमाम जनांदोलन से जुड़े आप के बैनर तले चुनाव मैदान में कूदते भी है और जमानत जब्त भी कराते है। और झटके में यह सवाल हवा हवाई हो जाता है कि आम आदमी पार्टी कोई वैकल्पिक राजनीति का संदेश देश में दे रही है। तमाम सामाजिक संघठन चुप्पी साधते है।
जन-आंदोलन से निकले समाजसेवी अपने अपने खोल में सिमट जाते हैं। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की जीत तमाम वैकल्पिक राजनीति की सोच रखने वालो को वापस उनके दड़बो में समेट देती है । आंदोलनों की आवाज देश भर में सुनायी देनी बंद हो जाती है। लेकिन केजरीवाल फिर से राजनीति से दूर युवाओ को समेटते है । राजनीति के घरातल पर वैचारिक समझ रखने वालो से दूर नौसिखिया युवा फिर से दिल्ली चुनाव के लिये जमा होता है । केजरीवाल सत्ता छोडने की माफी मांग मांग वोट मांगते हैं। ध्यान दें तो दिल्ली चुनाव में केजरीवाल की जीत से पहले कोई कुछ नहीं कहता । जो आवाज निकलती भी है तो वह किरण बेदी के बीजेपी में शामिल होने पर उन्हीं शांति भूषण की आवाज होती है, जो कांग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी के प्रयोग को आज भी सबसे बड़ा मानते हैं और राजनीति की बिसात पर आज भी नेहरु के दौर के कांग्रेस को सबसे उम्दा राजनीति मानते समझते हैं। और यह चाहते भी रहे कि देश में फिर उसी दौर की राजनीति सियासी पटल पर आ जाये। लेकिन यहां सवाल शांति भूषण का नहीं है बल्कि उस बिसात को समझने का है कि जो शांति भूषण , अन्ना आंदोलन से लेकर आम आदमी पार्टी के हक में दिखायी देते है वही दिल्ली चुनाव के एन बीच में बीजेपी के सीएम उम्मीदवार किरण बेदी को केजरीवाल से बेहतर क्यों बताते है और केजरीवाल या आम आदमी पार्टी के भीतर से कोई आवाज शांति भूषण के खिलाफ क्यो नहीं निकलती । वैसे जनता पार्टी के दौर के राजनेताओं से आज भी शांति भूषण के बारे में पूछे तो हर कोई यही बतायेगा कि शांति भूषण वैकल्पिक राजनीति की सोच को ही जनता पार्टी में भी चाहते थे। फिर इस लकीर को कुछ बडा करे तो प्रशांत भूषण हो या योगेन्द्र यादव दोनों ही पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ हमेशा से रहे है। जन-आंदोलनों के साथ खड़े रहे हैं। जनवादी मुद्दों को लेकर दोनो का संघर्ष खासा पुराना है । एनएपीएम की संयोजक मेधा पाटकर के संघर्ष के मुद्दो को भी प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव अपने अपने स्तर पर उठाते रहे हैं। और समाजवादी जन परिषद से तो योगेन्द्र यादव का साथ रहा है। और ध्यान दें तो वैकल्पिक राजनीति को लेकर सिर्फ योगेन्द्र यादव या प्रशांत भूषण ही नहीं बल्कि मेधा पाटकर, केरल की सारा जोसेफ , गोवा के आस्कर रिबोलो , उडीसा के
लिंगराज प्रधान, महाराष्ट्र के सुभाष लोमटे,गजानन खटाउ की तरह सैकडों समाजसेवी आप में शामिल भी हुये । फिर खामोश भी हुये और दिल्ली जनादेश के बाद फिर सक्रिय हो रहे है या होना चाह रहे हैं। जो तमाम समाजसेवी उससे पहले राजनीति सत्ता के लिये दबाब का काम करते रहे वह राजनीति में सक्रिय दबाब बनाने के लिये ब प्रयासरत है इससे कार नहीं किया जा सकता । फिर आप से पहले के हालात को परखे तो वाम राजनीति की समझ कमोवेश हर समाजसेवी के साथ जुडी रही है। प्रशांत भूषण वाम सोच के करीब रहे है तो योगेन्द्र यादव समाजवादी सोच से ही निकले हैं।
लेकिन केजरीवाल की राजनीतिक समझ वैचारिक घरातल पर बिलकुल नई है । केजरीवाल लेफ्ट-राइट ही नहीं बल्कि काग्रेस-बीजेपी या संघ परिवार में भी खुद को बांटना नहीं चाहते है । केजरीवाल की चुनावी जीत की बडी वजह भी राजनीति से घृणा करने वालो के भीतर नई राजनीतिक समझ को पैदा करना है। और यहीं पर योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण से केजरीवाल अलग हो जाते हैं। क्योंकि दिल्ली संघर्ष के दौर से केजरीवाल ने पार्टी संगठन के बीच में दिल्ली की सड़कों पर संघर्ष करने वालों को राजनीतिक मामलों की कमेटी से लेकर कार्यकारिणी तक में जगह दी। वहीं लोकसभा चुनाव के वक्त राष्ट्रीय विस्तार में फंसी आप के दूसरे राज्यों के संगठन में वाम या समाजवादी राजनीति की समझ रखने वाले वही चेहरे समाते गये जो जन-आंदोलनो से जुडे रहे। दरअसल केजरीवाल इसी घेरे को तोड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ योगेन्द्र यादव दिल्ली से बाहर अपने उसी घेरे को मजबूत करना चाहते हैं जो देश भर के जनआंदोलनो से जुड़े समाजसेवियो को साथ खड़ा करे। केजरीवाल की राजनीति दिल्ली को माडल राज्य बनाकर राष्ट्रीय विस्तार देने की है। दूसरी तरफ की सोच केजरीवाल के दिल्ली सरकार चलाने के दौर में ही राष्ट्रीय संगठन को बनाने की है । केजरीवाल दिल्ली की तर्ज पर हर राज्य के उन युवाओ को राजनीति से जोड़ना चाहते है जो अपने राज्य की समस्या से वाकिफ हो और उन्हे राजनीति वैचारिक सत्ता प्रेम के दायरे में दिखायी न दे बल्कि राजनीतिक सत्ता न्यूनतम की जरुरतो को पूरा करने का हो । यानी सुशासन को लेकर भी काम कैसे होना चाहिये यह वोटर ही तय करें जिससे आम
जनता की नुमाइन्दगी करते हुये आम जन ही दिखायी दे । जिससे चुनावी लडाई खुद ब खुद जनता के मोर्चे पर लडा जाये । जाहिर है ऐसे में वह वैकल्पिक राजनीति पीछे छुटती है जो आदिवासियो के लेकर कही कारपोरेट से लडती है तो कही जल-जंगल जमीन के सवाल पर वाम या समाजवाद को सामने रखती है । नई राजनीति के दायरे में जन-आंदोलन से जुडे वह समाजसेवियो का कद भी महत्वपूर्ण नहीं रहता । असल टकराव यही है । जिसमें संयोग से संयोजक पद भी अहम बना दिया गया । क्योकि आखरी निर्णय लेने की ताकत संयोजक पद से जुडी है । लेकिन सिर्फ दो बरस में दिल्ली को दोबारा जीतने या नरेन्द्र मोदी के रथ को रोकने की ताकत दिल्ली में आप ने पैदा कैसे की और देश में बिना दिल्ली को तैयार किये आगे बढना घाटे की सियासत कैसे हो सकती है अगर इसे वैकल्पिक राजनीति करने वाले अब भी नहीं समझ रहे है । तो दूसरी तरफ नई राजनीति करने वालो को भी इस हकीकत को समझना होगा कि उनकी अपनी टूट भी उसी पारंपरिक सत्ता को आक्सीजन देगी जो दिल्ली जनादेश से भयभीत है। और आम आदमी से डरी हुई है ।
दरअसल वह वैकल्पिक राजनीति या नई राजनीति के बीच के टकराव का है। दिल्ली की राजनीति में कूदे अंरविन्द केजरीवाल हो या अन्ना आंदोलन से संघर्ष में उतरे आप के तमाम कार्यकर्ता। ध्यान दें तो पारंपरिक राजनीति से गुस्साये एनजीओ की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को संभालने वाले या मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से रुठे युवाओ का समूह ही दिल्ली की राजनीति में कूदा। राजनीति की कोई वैचारिक समझ इनमें नहीं थी। कांग्रेस या बीजेपी के बीच भेद कैसे करना है समझ यह भी नहीं थी। लेफ्ट–राइट में किसी चुनना है यह भी तर्क दिल्ली की राजनीति में बेमानी रही। दिल्ली की राजनीति का एक ही मंत्र था संघर्ष की जमीन बनाकर सिर्फ भ्रष्ट्राचार के खिलाफ खड़े होना। इसलिये 2013 में मनमोहन सरकार के भ्रष्ट्र कैबिनेट मंत्री हो या तब के बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी। राजनीति के मैदान में निशाने पर सभी को लिया गया । यहा तक की लालू-मुलायम को भी बख्शा नहीं गया। यह नई राजनीति धीरे धीरे दिल्ली चुनाव में जनता की जरुरत पर कब्जा जमाये भ्रष्ट व्यवस्था पर निशाना साधती है, जो वोटरो को भाता है। उन्हें नई राजनीति अपनी राजनीति लगती है क्योंकि पहली बार राजनीति में मुद्दा हर घर के रसोई, पानी, बिजली, सड़क का था। लेकिन लोकसभा चुनाव में नई राजनीति के सामानांतर वैकल्पिक राजनीति की आस जगायी जाती है। ध्यान दे दिसंबर 2013 यानी दिल्ली के पहले चुनाव के बाद ही देश भर के समाजसेवियों को यह लगने लगता है कि दिल्ली में
केजरीवाल की जीत ने वैकल्पिक राजनीति का बीज डाल दिया है और उसे राष्ट्रीय विस्तार में ले जाया जा सकता है। तो जो सोशल एक्टिविस्ट राजनीति के मैदान में आने से अभी तक कतराते रहे वह झटके में समूह के समूह केजरीवाल के समर्थन में खड़े होते हैं। नेशनल एलायंस आफ पीपुल्स मुवमेंट यानी एनएपीएम से लेकर समाजवादी जन परिषद और तमिलनाडु में परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे समाजसेवियो से लेकर गोवा में आदिवासियों के हक का सवाल उठा रहे संगठन भी आप में शामिल हो जाते है । लोकसभा के चुनाव में तमाम जनांदोलन से जुड़े आप के बैनर तले चुनाव मैदान में कूदते भी है और जमानत जब्त भी कराते है। और झटके में यह सवाल हवा हवाई हो जाता है कि आम आदमी पार्टी कोई वैकल्पिक राजनीति का संदेश देश में दे रही है। तमाम सामाजिक संघठन चुप्पी साधते है।
जन-आंदोलन से निकले समाजसेवी अपने अपने खोल में सिमट जाते हैं। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की जीत तमाम वैकल्पिक राजनीति की सोच रखने वालो को वापस उनके दड़बो में समेट देती है । आंदोलनों की आवाज देश भर में सुनायी देनी बंद हो जाती है। लेकिन केजरीवाल फिर से राजनीति से दूर युवाओ को समेटते है । राजनीति के घरातल पर वैचारिक समझ रखने वालो से दूर नौसिखिया युवा फिर से दिल्ली चुनाव के लिये जमा होता है । केजरीवाल सत्ता छोडने की माफी मांग मांग वोट मांगते हैं। ध्यान दें तो दिल्ली चुनाव में केजरीवाल की जीत से पहले कोई कुछ नहीं कहता । जो आवाज निकलती भी है तो वह किरण बेदी के बीजेपी में शामिल होने पर उन्हीं शांति भूषण की आवाज होती है, जो कांग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी के प्रयोग को आज भी सबसे बड़ा मानते हैं और राजनीति की बिसात पर आज भी नेहरु के दौर के कांग्रेस को सबसे उम्दा राजनीति मानते समझते हैं। और यह चाहते भी रहे कि देश में फिर उसी दौर की राजनीति सियासी पटल पर आ जाये। लेकिन यहां सवाल शांति भूषण का नहीं है बल्कि उस बिसात को समझने का है कि जो शांति भूषण , अन्ना आंदोलन से लेकर आम आदमी पार्टी के हक में दिखायी देते है वही दिल्ली चुनाव के एन बीच में बीजेपी के सीएम उम्मीदवार किरण बेदी को केजरीवाल से बेहतर क्यों बताते है और केजरीवाल या आम आदमी पार्टी के भीतर से कोई आवाज शांति भूषण के खिलाफ क्यो नहीं निकलती । वैसे जनता पार्टी के दौर के राजनेताओं से आज भी शांति भूषण के बारे में पूछे तो हर कोई यही बतायेगा कि शांति भूषण वैकल्पिक राजनीति की सोच को ही जनता पार्टी में भी चाहते थे। फिर इस लकीर को कुछ बडा करे तो प्रशांत भूषण हो या योगेन्द्र यादव दोनों ही पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ हमेशा से रहे है। जन-आंदोलनों के साथ खड़े रहे हैं। जनवादी मुद्दों को लेकर दोनो का संघर्ष खासा पुराना है । एनएपीएम की संयोजक मेधा पाटकर के संघर्ष के मुद्दो को भी प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव अपने अपने स्तर पर उठाते रहे हैं। और समाजवादी जन परिषद से तो योगेन्द्र यादव का साथ रहा है। और ध्यान दें तो वैकल्पिक राजनीति को लेकर सिर्फ योगेन्द्र यादव या प्रशांत भूषण ही नहीं बल्कि मेधा पाटकर, केरल की सारा जोसेफ , गोवा के आस्कर रिबोलो , उडीसा के
लिंगराज प्रधान, महाराष्ट्र के सुभाष लोमटे,गजानन खटाउ की तरह सैकडों समाजसेवी आप में शामिल भी हुये । फिर खामोश भी हुये और दिल्ली जनादेश के बाद फिर सक्रिय हो रहे है या होना चाह रहे हैं। जो तमाम समाजसेवी उससे पहले राजनीति सत्ता के लिये दबाब का काम करते रहे वह राजनीति में सक्रिय दबाब बनाने के लिये ब प्रयासरत है इससे कार नहीं किया जा सकता । फिर आप से पहले के हालात को परखे तो वाम राजनीति की समझ कमोवेश हर समाजसेवी के साथ जुडी रही है। प्रशांत भूषण वाम सोच के करीब रहे है तो योगेन्द्र यादव समाजवादी सोच से ही निकले हैं।
लेकिन केजरीवाल की राजनीतिक समझ वैचारिक घरातल पर बिलकुल नई है । केजरीवाल लेफ्ट-राइट ही नहीं बल्कि काग्रेस-बीजेपी या संघ परिवार में भी खुद को बांटना नहीं चाहते है । केजरीवाल की चुनावी जीत की बडी वजह भी राजनीति से घृणा करने वालो के भीतर नई राजनीतिक समझ को पैदा करना है। और यहीं पर योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण से केजरीवाल अलग हो जाते हैं। क्योंकि दिल्ली संघर्ष के दौर से केजरीवाल ने पार्टी संगठन के बीच में दिल्ली की सड़कों पर संघर्ष करने वालों को राजनीतिक मामलों की कमेटी से लेकर कार्यकारिणी तक में जगह दी। वहीं लोकसभा चुनाव के वक्त राष्ट्रीय विस्तार में फंसी आप के दूसरे राज्यों के संगठन में वाम या समाजवादी राजनीति की समझ रखने वाले वही चेहरे समाते गये जो जन-आंदोलनो से जुडे रहे। दरअसल केजरीवाल इसी घेरे को तोड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ योगेन्द्र यादव दिल्ली से बाहर अपने उसी घेरे को मजबूत करना चाहते हैं जो देश भर के जनआंदोलनो से जुड़े समाजसेवियो को साथ खड़ा करे। केजरीवाल की राजनीति दिल्ली को माडल राज्य बनाकर राष्ट्रीय विस्तार देने की है। दूसरी तरफ की सोच केजरीवाल के दिल्ली सरकार चलाने के दौर में ही राष्ट्रीय संगठन को बनाने की है । केजरीवाल दिल्ली की तर्ज पर हर राज्य के उन युवाओ को राजनीति से जोड़ना चाहते है जो अपने राज्य की समस्या से वाकिफ हो और उन्हे राजनीति वैचारिक सत्ता प्रेम के दायरे में दिखायी न दे बल्कि राजनीतिक सत्ता न्यूनतम की जरुरतो को पूरा करने का हो । यानी सुशासन को लेकर भी काम कैसे होना चाहिये यह वोटर ही तय करें जिससे आम
जनता की नुमाइन्दगी करते हुये आम जन ही दिखायी दे । जिससे चुनावी लडाई खुद ब खुद जनता के मोर्चे पर लडा जाये । जाहिर है ऐसे में वह वैकल्पिक राजनीति पीछे छुटती है जो आदिवासियो के लेकर कही कारपोरेट से लडती है तो कही जल-जंगल जमीन के सवाल पर वाम या समाजवाद को सामने रखती है । नई राजनीति के दायरे में जन-आंदोलन से जुडे वह समाजसेवियो का कद भी महत्वपूर्ण नहीं रहता । असल टकराव यही है । जिसमें संयोग से संयोजक पद भी अहम बना दिया गया । क्योकि आखरी निर्णय लेने की ताकत संयोजक पद से जुडी है । लेकिन सिर्फ दो बरस में दिल्ली को दोबारा जीतने या नरेन्द्र मोदी के रथ को रोकने की ताकत दिल्ली में आप ने पैदा कैसे की और देश में बिना दिल्ली को तैयार किये आगे बढना घाटे की सियासत कैसे हो सकती है अगर इसे वैकल्पिक राजनीति करने वाले अब भी नहीं समझ रहे है । तो दूसरी तरफ नई राजनीति करने वालो को भी इस हकीकत को समझना होगा कि उनकी अपनी टूट भी उसी पारंपरिक सत्ता को आक्सीजन देगी जो दिल्ली जनादेश से भयभीत है। और आम आदमी से डरी हुई है ।