Tuesday, January 29, 2019

जिन्हे जार्ज ने खडा किया उन्होने ही जार्ज को धोखा दिया....

तारिख 2 अप्रेल 2009 । नीतीश कुमार ने रामविलास पासवान का साथ छोड़कर आये
गुलाम रसूल बलियावी का हाथ आपने हाथ में लेकर जैसे ही उन्हें जनतादल
यूनाईटेड में शामिल करने का ऐलान किया वैसे ही दीवार पर टंगे तीन बोर्ड
में से एक नीचे आ गिरा। गिरे बोर्ड में तीर के निशान के साथ जनतादल
यूनाइटेड लिखा था। बाकी दो बोर्ड दीवार पर ही टंगे थे, जिसमें बांयी तरफ
के बोर्ड में शरद यादव की तस्वीर थी तो दांयी तरफ वाले में नीतीश कुमार
की तस्वीर थी। जैसे ही एक कार्यकर्ता ने गिरे हुये बोर्ड को उठाकर शरद
यादव और नीतीश कुमार के बीच दुबारा टांगा, वैसे ही कैमरापर्सन के हुजूम
की हरकत से वह बोर्ड एकबार फिर गिर गया। इस बार उस बोर्ड को टांगने की
जल्दबाजी किसी कार्यकर्ता ने नहीं दिखायी। पता चला इस बोर्ड को 2 अप्रैल
की सुबह ही टांगा गया था। इससे पहले वर्षों से दीवार पर शरद यादव और
नीतीश कुमार की तस्वीर के बीच जॉर्ज फर्नांडिस की तस्वीर लगी हुई थी। और
तीन दिन पहले ही शरद यादव की प्रेस कॉन्फ्रेन्स के दौरान पत्रकारों ने जब
शरद यादव से पूछा था कि जॉर्ज की तस्वीर लगी रहेगी या हट जायेगी तो शरद
यादव खामोश रह गये थे।

लेकिन 30 मार्च को शरद यादव के बाद 2 अप्रैल को नीतीश की मौजूदगी में
जॉर्ज की जगह लगाया गया यह बोर्ड तीसरी बार तब गिरा, जब प्रेस
कॉन्फ्रेन्स के बाद नीतीश कुमार जदयू मुख्यालय छोड़ कर निकल रहे थे ।
मुख्यालय में यह तीनों तस्वीरें नीतीश के पहली बार मुख्यमंत्री बनने के
दौरान लगायी गयी थीं। उस दिन गुलाल और फूलों से नीतीश के साथ साथ जॉर्ज
और शरद यादव भी सराबोर थे। उस वक्त तीनों नेताओ को देखकर ना तो कोई सोच
सकता था कि कोई अलग कर दिया जायेगा या तीनों तस्वीरों को देख कर कभी किसी
ने सोचा नहीं था की जॉर्ज की तस्वीर ही दीवार से गायब हो जायेगी। और इसके
पीछे वही तस्वीर होगी, जिन्हें राजनीति के फ्रेम में मढ़ने का काम जॉर्ज
फर्नांडिस ने किया।

जार्ज फर्नांडिस कितने भी अस्वस्थ क्यों ना हों, लेकिन जो राजनीति देश
में चल रही है उससे ज्यादा स्वस्थ्य जॉर्ज हैं, यह कोई भी ताल ठोंक कर कह
सकता है। शरद यादव को जबलपुर के कॉलेज से राजनीति की मुख्यधारा में लाने
से लेकर लालू यादव की राजनीति को काटने के लिये नीतीश कुमार में पैनापन
लाने के पीछे जॉर्ज ही हैं। लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस की जगह नीतीश कुमार को
वह जय नारायण निषाद मंजूर हैं, जो लालू यादव का साथ छोड़ टिकट के लिये
नीतीश के साथ आ खड़े हुये हैं।

सवाल जॉर्ज की सिर्फ एक सीट का नहीं है, सवाल उस राजनीतिक सोच का है
जिसमें खुद का कद बढ़ाने के लिये हर बड़ी लकीर को नेस्तानाबूद करना शुरु
हुआ है। और यह खेल संयोग से उन नेताओं में शुरु हुआ है, जो इमरजेन्सी के
खिलाफ जेपी आंदोलन से निकले हैं। हांलाकि सत्ता की राजनीतिक लकीर में
जॉर्ज ज्यादा बदनाम हो गये क्योंकि अयोध्या से लेकर गुजरात दंगो के दौरान
जॉर्ज बीजेपी को अपनी राजनीति विश्वनियता के ढाल से बचाने की कोशिश करते
रहे। लेकिन गुजरात दंगो के दौरान नीतीश और शरद यादव में भी हिम्मत नहीं
थी कि वह जॉर्ज से झगडा कर एनडीए गठबंधन से अलग होने के लिये कहते। दोनो
ही सत्ता में मंत्रीपद की मलाई खाते रहे।

असल में जार्ज अगर ढाल बने तो उसके पीछे उनकी वह राजनीतिक यात्रा भी है,
जो बेंगलूर के कैथोलिक सेमीनरी को छोड़ कर मुंबई के फुटपाथ से राजनीति का
आगाज करती है। मजदूरों के हक के लिये होटल-ढाबा के मालिकों से लेकर मिल
मालिकों के खिलाफ आवाज उठाकर मुंबई में हड़ताल-बंद और अपने आंदोलन से शहर
को ठहरा देने की हिम्मत जॉर्ज ने ही इस शहर को दी। 1949 में मुंबई पहुंचे
जॉर्ज ने दस साल में ही मजदूरों की गोलबंदी कर अगर 1959 में अपनी ताकत का
एहसास हडताल और बंद के जरीये महाराष्ट्र की राजनीति को कराया तो 1967 में
कांग्रेस के कद्दावर एस के पाटिल को चुनाव में हराकर संसदीय राजनीति में
नेहरु काल के बाद पहली लकीर खिंची, जहां आंदोलन राजनीति की जान होती है,
इसे भी देश समझे। जॉर्ज उस दौर के युवाओं के हीरो थे । क्योंकि वह रेल
यूनियन के जरीये दुनिया की सबसे बड़ी हडताल करते हैं। सरकार उनसे डरकर
उनपर सरकारी प्रतिष्ठानों को डायनामाइट से उड़ाने का आरोप लगाती है।
इसीलिये इमरजेन्सी के बाद 1977 के चुनाव में जब हाथों में हथकडी लगाये
जॉर्ज की तस्वीर पोस्टर के रुप में आती है, तो मुज्जफरपुर के लोगों के
घरों के पूजाघर में यह पोस्टर दीवार पर चस्पा होती है। जिस पर छपा था, यह
हथकड़ी हाथों में नही लोकतंत्र पर है। और नीचे छपा था- जेल का ताला
टूटेगा जॉर्ज फर्नाडिस छूटेगा।

जाहिर है बाईस साल पहले के चुनाव और अब के चुनाव में एक नयी पीढ़ी आ चुकी
है, जिसे न तो जेपी आंदोलन से मतलब है, न इमरजेन्सी उसने देखी है। और
जॉर्ज सरीखा व्यक्ति उसके लिये हीरो से ज्यादा उस गंदी राजनीति का प्रतीक
है, जिस राजनीति को जनता से नही सत्ता से सरोकार होते है। इस पीढी ने
बिहार में लालू का शासन देखा है और नीतीश को अब देख रहा है। नीतीश उसके
लिये नये हीरो हो सकते हैं क्योकि लालू तंत्र ने बिहार को ही पटरी से
उतार दिया था। लेकिन लालू के खिलाफ नीतीश को हिम्मत जॉर्ज फर्नाडिस से ही
मिली चाहे वह समता पार्टी से हो या जनतादल यूनाईटेड से। लेकिन केन्द्र
में एनडीए की सत्ता जाने के बाद बिहार में लालू सत्ता के आक्रोष को
भुनाने के लिये जो रणनीति नीतीश ने बनायी, उसमें अपने कद को बढाने के
लिये जॉर्ज को ही दरकिनार करने की पहली ताकत उन्होने 12 अप्रैल 2006 में
दिखा दी। लेकिन सियासत की बिसात कैसे महाभारत की चौसर पर भी भारी हो चुकी
है इसका एहसास तो तब शरद यादव को भी हो चुका होगा । जो 13 बरस पहले नीतिश
की बिसात पर वजीर बन कर जार्ज को मात देने के लिये तैयार हो गये । और बरस
भर पहले नीतिश ने सत्ता के लिये मोदी प्रेम तले शरद यादव को भी दरकिनार
कर दिया । तो 2006 को याद किजिये जार्ज के खिलाफ जब पार्टी अध्यक्ष चुनाव
में शरद यादव और जॉर्ज आमने सामने खड़े थे । बिलकुल गुरु और चेले की
भिंडत । मगर बिसात नीतिश की थी । जार्ज को 25 वोट मिले और शरद यादव को
413 । लेकिन चुनाव के तरीके ने यह संकेत तो दे दिये की नीतीश की बिसात पर
जॉर्ज का कोई पांसा नहीं चलेगा और जॉर्ज को खारिज करने के लिये नीतीश
अपने हर पांसे को जार्ज की राजनीतिक लकीर मिटाकर अपनी लकीर को बड़ा
दिखाने के लिये ही करेंगे ।

लेकिन, इसका अंदाजा किसी को नहीं था कि इस तिगडी की काट वही राजनीति
होगी, जिस राजनीति के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने की बात तीनों ने ही अपने
राजनीतिक कैरियर की शुरुआत में की थी । इसीलिये जॉर्ज को अस्वस्थ बताकर
मुज्जफरपुर से टिकट काटने के बाद नीतीश ठहाका लगा रहे थे कि बिना उनके
समर्थन के जॉर्ज चुनाव मैदान में कूदकर अपनी भद ही करायेंगे । वहीं,
जॉर्ज अपना राजनीतिक निर्वाण लोकसभा चुनाव लड़कर ही चाहते हैं। इसीलिये
जॉर्ज ने पर्चा भरने के बाद अपने मतदाताओं से जिताने की तीन पन्नो की जो
अपील की है, उसका सार यही है कि जिस तरह गौतम बुद्द के दो शिष्यों में एक
देवदत्त था, जो बुद्ध को मुश्किलों में ही डालता रहा, वहीं उनके दोनों
शिष्य ही देवदत्त निकले । आनंद जैसा कोई शिष्य जार्ज को तब मिला नहीं और
अनथक विद्रोही नेता उसके बाद धीरे धीरे भूलने वाली बिमारी की चपेट में आ
गये । अल्जाइमर ने गिरफ्त में लिया तो जार्ज भूल गये नीतिश कौन है । शद
यादव कौन है । इंदिरा गांधी कौन थी । बाल ठाकरे कौन थे । अच्छा है इस दौर
में उनकी यादश्त नहीं थी वर्ना प्रधानमंत्री मोदी को देख गुजरात दंगो के
दौर में वाजपेयी के राजधर्म को याद करते और अब के राजधर्म को नकारने के
लिये निकल पडते । लंबी खामोशी के बाद जार्ज के निधन की खबर भी जिस खामोशी
के साथ आई उसने निद्रा में समायी मौजूदा सियासत को सिर्फ मौत की सूचना भर
से जगाया । अच्छा है एनडीए के पांच सारथियो में से वाजपेयी और जार्ज का
निधन हो चुका है । दोनो ही आखरी दिनो में सबकुछ भूल चुके थे ।  जसवंत
सिन्हा भी सबकुछ भूल चुके है  [ अल्जाइमर से ग्रसित ]  । आडवाणी और मुरली
मनोहर जोशी को खामोश किया जा चुका है ।  तो अस्वस्थ जार्ज के निधन की खबर
भी अस्वस्थ सियासत तले दब गई ।

Sunday, January 27, 2019

स्वंयसेवक की कडक चाय : कैप्टन के हाथों जहाज गडमगाने लगा है ...तो हलचल शुरु हो गई !


कडक चाय कितना मायने रखेगी जब चाय पिलाने वाला स्वयसेवक हो और झटके में कह दें अब तो जेटली भी चुनाव के बाद के हालात में अपनी जगह बनाने में जा जुटे है । तो क्या मोदी का जादू खत्म । सवाल खत्म या जारी रहने का नहीं है , जरा समझने की कोशिश किजिये जेटली हर उस कार्य से पल्ला झाड रहे है जो उन्ही के देखरेख में शुरु हुआ । सिर्फ सीबीआई या ईडी या इनकमटैक्स भर का नहीं है जो कि चंदा कोचर के मामले में उनका दर्द सामने आ गया । तो ये दर्द है ऐसा माना जाये......हा हा , बिलकुल नहीं , बल्कि खुद को चुनाव बाद के हालात में फिट करने की कोशिश है ।

तो क्या जेटली को लग चुका है कि बीजेपी दुबारा सत्ता में नहीं लौटगी । प्रोफेसर साहेब ने घुमा कर पूछा तो स्वयसेवक महोदय ने भी घुमा कर कहा राजनीति में कुछ भी संभव है लेकिन ये समझने की कोशिश किजिये कि जो सबसे ताकतवर है उसी से पल्ला झाडने का अंदाज विकसित क्यो हो रहा है । मसलन, मुझे पूछना पडा ।
मसलन क्या वाजपेयी साहेब , गडकरी ने तब उस कारपोरेट के हक में कहा जब मोदी सत्ता माल्या और नीरव मोदी को चोर कहने से नहीं चुक रही थी । पर गडकरी ने चोर शब्द पर ही एतराज कर दिया । फिर आपने कल परेड क वक्त राहुल गांधी के बगल में बैठे नीतिन गडकरी की बाडी लैक्वेज नहीं पढी ।
तो आप बाडी लेग्वेज पढने लगे है .....प्रोफेसर की इस चुटकी पर स्वयसेवक महोदय बोल पडे....ना ना यारी नहीं समझी । दरसल गडकरी काग्रेस के हिमायती या राहुल गांधी के प्रशसंक नहीं है । लेकिन गडकरी किसी से वैसी दुशमनी नहीं करते जैसी मोदी सत्ता कर रही है । और ध्यान दिजिये राहुल से बातचीत कर गडकरी राहुल को कम मोदी को ज्यादा देख रहे होगें ।
अब ये तो मन की बात है ...इसे आप कैसे पढ सकते है । मेरे टोकते ही अब प्रोफेसर साहब बोल पडे...इसमें पढना क्या है  हालात समझे । हर कोई अपनी अपनी पोसचरिंग ही तो कर रहा है । लेकिन हर के निशाने पर सत्ता का कैप्टन है ।
वाह कमाल है प्रोफेसर साहेब आप बाहर सs कैसे सब पढ ले रहेहै ।
पढ नही रहा हूं बल्कि नंगी आंखो से देख रहा हूं ।
कैसे ...मुझे ही टोकना ।
देखिये मोदी सत्ता के तीन पीलर में से एक तो जेटली है ....और बजट से एन पहले उनके ब्लाग जो बयान कर रहे है वह क्या दर्शाता है । राजनीति टाइमिंग का खेल है । इसे स्वयसेवक साहेब शायद ना समझे लकिन हम बाखूबी समझते है । क्यो स्वयसेवक महोदय जरा आप ही इसे डि-कोड किजिये ।
क्या .. अचानक स्वयसेवक महोदय अब चौक पडे ।
यही की न्यूयार्क से जेटली सत्ता के रोमान्टिज्म पर सवाल खडा करते है । इधर , बीजेपी के पोस्टर ब्याय योगी आदित्यनाथ संदेश देते है कि राम मंदिर तो चौबिस घंटे में वो बनवा सकते है । फिर सुब्रहमण्यम स्वामी लिखते है , राम मंदिर बनाने में क्या है एक बार वीएचपी को खुला छोड दिजिये बन जायेगा राम मंदिर । और उससे पहले याद कर लिजिये विएचपी के कोचर महोदय कह गये राममंदिर को काग्रेस ही बनायेगी । और फिर संघ मेंदूसरे नंबर के भैयाजी जोशी ये कहने से नहीं चुकते कि लगता है राम मंदिर 2025 में ही बनेगा । तो इसका क्या मतलब निकाला जाये ।
स्वयसेवक महोदय ने बिना देर किये प्रोफेसर साहेब की नजरो से नजर मिलायी और बोल पडे ..डिकोड क्या करना है ...बीजपी में सभी को समझ में आ रहा है कि कैप्टन अब जहाज को आगे ले जाने की स्थिति में नहीं है तो हाबसियन स्टेट की हालात बन रही है ।
यानी
यानी यही कि प्रोफेसर साहेब जिसे मौका मिल रहा है वह कैप्टन पर हमला कर खुद को भविष्य का कैप्टन बनाने की दिशा में जाना चाह रहा है । सुब्हमण्य स्वामीबता रहे है कि रहे है कि जेटली ही सबसे बडे अपराधी है । योगी कह रहे है कि मोदी तो कभी राम मंदिर बनाना ही नहीं चाहते है । गडकरी इशारा कर रहे है कारपोरेट उनके पीछे खडा हो जाये तो मोदी माइनस बीजेपी को सत्ता में वह ला सकते है । फिर संघ भी समझ रहा है कि जहाज डूबेगा तो उनकी साख कैसे बची रहे । लेकिन इस हालात को बनाते वक्त हर कोई ये भुल रहा है कि जिस कटघरे को सभी मिल कर राहुल गांधी के लिये बना रहे थे वह अब उन्ही के लिये गले की हड्डी बन रही है ।
वह कैसे ...
वाजपेयी जी आप हालात परखे । मोदी ने शुरु से चाहा कि देश प्रेजिडेन्शियल इलेक्शन की तरफ बढ जाये जिससे एक तरफ लोकप्रिय मोदी होगें तो दूसरी तरफ पप्पू समझे जाने वाले राहुल गांधी । लेकिन धीरे धीरे कैसे हालात पलट रहे है ये समझे ।
वह कैसे अब प्रोफेसर साहेब मुखातिब हुये ....
वह ऐसे प्रोफेसर साहब ...बेहद प्यार से स्वयसेवक महोदय जिस तरह बोले उससे हर कोई ठहाका लगाने लगा....
समझे...जो प्रेसिडिनेशियल इलेक्शन का चेहरा था अब वही बीजेपी के नेताओ या कहे जेटली तक के निशाने पर है । और बीजेपी जो सांगठनिक पार्टी है । जिसका संगठन हर जगह है । फिर संघ की भी जमीन बीजेपी को मजबूती देती है । लेकिन मोदी-शाह ने जिस तरह खुद को लारजर दैन लाइफ बनाने की कोशिश की उसमें अब अगर वह हारेगें तो सिर्फ वह नहीं ढहेगें बल्कि बीजेपी संघ दोनो की जमीन भी खत्म होगी । वही दूसरी तरफ काग्रेस का संगठन सभी जगह नहीं है , लेकिन धीरे धीरे जिस तरह राहुल गांधी का कद साख के साथ बढ रहा है वह चाहे अनचाहे प्रसिडेन्शियल उम्मीदवार बन रहे है । और इसका लाभ सीधे काग्रेस को मिलेगा । या कहे मिल रहा है ।
तो क्या ये मान लिया जाये कि चुनाव मोदी बनाम राहुल गांधी होने से लाभ काग्रेस को है ।
जी वाजपयी जी ......और उसपर प्रियका गांधी के मैदान में उतरने से प्रसेडेशियल इलेक्शन में काग्रेस को एक नया आयाम मिल जायेगा ।
 वह कैसे...अब प्रोफेसर साहेब बोले...
वह दक्षिण भारत में नजर आयेगा ...जहा इंदिरा गांधी खासी लोकप्रिय थी । वहा इंदिरा का अक्स लिये जब प्रियका गांधी पहुंचेगी तो बीजेपी का संगठन या संघ का शाखा भी कुछ कर नही पायेगी ।
तो बीजेपी को अपनी रणनीति बदल लेनी चाहिये...
प्रोफेसर साहेब ....जब बीजेपी का मतलब ही मोदी हो तब रणनीति कौन बदलेगा । तब तो सिर फुट्ववल ही होगा । जिसकी शुरुआत हो चुकी है । और फरवरी शुर तो होने दिजिये तब आप समझ पायेगें कि कैसे धीरे धीरे टिकट की मारामारी भी बीजेपी को उसी के चक्रव्यू में फंसा कर खत्म कर देगी ।
पर टिकट की ये मारामारी तो सपा-बसपा में भी होगी ।
बिलकुल होगी क्या है ....मायावती को ही अब भी टिकट के बदले करोडो चाहिये । तो रुपये-पैसे वाले ही बसपा का टिकट पायेगें । फिर उसके काउंटर में सपा की जो सीटे बसपा के पास चली गई है वहा सपा का उम्मीदवार क्या करेगा । और क्या वहा गठबंधन के बावजूद वो ट्रासभर नहं होगा । इसका लाभ बीजेपी को मिल जायेगा कयोकि चाहे अनचाहे मुकाबला हर जगह त्रिरोणिय हो जायेगा । दरअसल यही वह फिलास्फी है जिसके आधार पर शाह की सियासी गोटिया चल रही है । लेकिन काग्रेस कैसे डार्क हार्स हो चली है ये किसी को समझ नहीं आ रहा है । और चुनाव का समूचा मिजाज ही अगर मोदी का चेहरा देखते देखते अब ताजा-नये चेहरे को खोज कर राहुल-प्रियका को देख रहा है तो फिर सवाल जातिय समीकरण या गठबंधन का कहा बचेगा ।
स्वयसेवक महोदय आप तो काग्रेसी हो चले है ।
क्यो प्रोफेसर साहेब
क्योकि आप राहुल गांधी को खडा किये जा रहे है
ना ना प्रोपेसर साहेब सिर्फ लकीर खिंच रहे है ...मुझे बीच में कूदना पडा ।  क्योकि पप्पू से करीशमाई नेता के तौर पर मान्यता पाते राहुल के पिछे उनकी कार्यशौली की सीधी लकीर है । जो कही जुमला या तिरछी नहीं होती है । याद किजिये भूमि अधिकग्रहण , सूट बूट की सरकार , किसान संकट , नोटबंदी , जीएसटी की जल्दबाजी और फिर राज्यो में जीत के साथ ही किसान कर्ज माफी ।
वाजपयी जी इसमें एक बात जोडनी होगी कि मोदी सत्ता को सच बताने वाला कोई बचा ही नहीं ।
हा हा हा हा ....आप इशारा क्या है ।
मै आपकी तरफ इशारा नहीं कर रहा हूं ..बल्कि हकीकत समझे...मै दो दिन पहले  ही एक अग्रेजी के राष्ट्रीय चैनल पर चुनावी सर्वे को देख रहा था । उस सर्व में यूपी का सर्वे खासा महत्वपूर्ण था । बकायदा एससी-एसटी , ओबीसी और उच्च जाति में काग्रेस को 19 से 26 फिसदी के बीच वोट दिखाये गये । लेकिन आखिर में बताया गया कि काग्रेस के हिस्से में सिर्फ 12 फिसदी वोट है । यानी एडिटर चवाइस पर रिजल्ट निकाला जा रहा है कि आका खुश हो जाये । और आका को सिर्फ रिजल्ट देखने की फुरसत है क्योकि वह शुशी देता है तो जमीनी सच है क्या ...इसे प्रधान सेवक भी कैसे समझेगें ।
तो क्या साहेब हवा में है ....
ना ना ...जो उन्हे बताया जा रहा है वह उसे ही सच मान रहे है । और बताने वाले झूठ क्यो बोले जब साहेब को सिर्फ जीत ही सुननी है । फिर ध्यान दिजिये उनके तमाम भाषणो में अब सपने नहीं दिखाये जाते बल्कि काग्रेस-विपक्ष गठबंधन को कोसा जाा है ।
और कोसने का अंदाज भी एसा है जिससे सहानुभूति के वोट उन्हे मिल जाये ....
वाह प्रोफेसर साहेब..बडी पैनी नजर है आपकी साहेब पर....

 

Saturday, January 26, 2019

रौशन है लोकतंत्र....क्योकि जगमग है रायसिना हिल्स की इमारते !




तो 70वें गणतंत्र दिवस को भी देश ने मना लिया । और 26 जनवरी की पूर्व संध्या पर भारत को तीन " भारत रत्न " भी मिल गये । फिर राजपथ से लेकर जनपथ और देश भर के राज्यो में राज्यपालो के तिरगा फहराने के सिलसिले तले देश के विकास और सत्ता की चकाचौंध को बिखराने के अलावे कुछ हुआ नहीं तो गणतंत्र दिवस भी सत्ता के उन्ही सरमायदारो में सिमट गया जिनकी ताकत के आगे लोकतंत्र भी नतमस्तक हो चुका है । संविधान लागू हुआ तो 1952 में आम चुनाव संपन्न हुआ । तब चुनाव आयोग का कुल दस करोड रुपया खर्च हुआ । और गणतंत्र बनने के 70वें बरस जब देश चुनाव की दिशा में बढ चुका है तो हर उममीदवार अपनी ही सफेद-काली अंटी को टटोल रहा है कि चुनाव लडने के लिये उसके पास कितने सौ करोड रुपये है । पर आज इस बात को दोहराने का कोई मतलब नहीं है लोकतंत्र कहलाने के लिये देश का चुनावी तंत्र पूंजी तले दब चुका है । जहा वोटो की किमत लगा दी जाती है । और हर नुमाइन्दे के जूते तले आम लोगो की न्यूनतम जरुरते रेंगती दिखायी देती है । और जब नुमाइन्दे समूह में आ जाये तो पार्टी बन कर देश की न्यूनतम जरुरतो को भी सत्ता अपनी अंटी में दबा लेती है । यानी रोजगार हो या फसल की किमत । शिक्षा अच्छी मिल जाय या हेल्थ सर्विस ठीक ठाक हो जाये । पुलिस ठीक तरह काम करें या संवैधानिक संस्थान भी अपना काम सही तरीके से करें । पर ऐसा तभी संभव है जब सत्ता माने । सत्ताधारी समझे । और नुमाइन्दो का जीत का गणित ठीक बैठता हो । यानी देश किस तरह नुमाइन्दो की गुलामी अपनी ही जरुरतो को लेकर करता है ये किसी से छुपा नहीं है । हां, इसके लिये लोकतंत्र के मंदिर का डंका बार बार पीटा जाता है । कभी संसद भवन में तो कभी विधानसभाओ में । और नुमाइन्दो की ताकत का एहसास इससे भी हो सकता है मेहुल चोकसी देश को अरबो का चूना लगाकर जिस तरह एंटीगुआ के नागरिक बन बैठे वैसे बाईस एंटीगुआ का मालिक भारत में एक सासंद बन जाता है । यानी संसद में तीन सौ पार सासंदो की यारी या ठेंगा दिखाकर माल्या , चौकसी या नीरव मोदी समेत दो दर्जन से ज्यादा रईस भाग चुक है और संसद इसलिये बेफिक्र है क्योकि अपने अपने दायरे में हर सांसद कई माल्या और कई चौकसी को पालता है और अपने तहत आने वाले 22 लाख से ज्यादा वोटरो का रहनुमा बनकर संविधान की आड में रईसी करता है ।  जी, एंटिगुआ की कुल जनसंख्सया एक लाख है और भारत में ेक सांसद के तहत आने वाे वोटरो क तादाद 22 लाख । सच यही है कि दुनिया में भारत नंबर एक का देश है जहा सबसे ज्यादा वोटर एक नुमाइन्दे के तहत रहता है । 545 सासंदो वाली लोकसभा में हर एक सासंद के अधिन औसतन  बाईस लाख बीस हजार 538 जनता आती है । और चीन जहा की जनसंख्या भारत से ज्यादा वहां नुमाइन्दो की तादाद भारतसे करीब छह गुना ज्यादा है । यानी चीन के एक सांसद के तहत 4 लाख 48 हजार 518 जनसंख्या आती है क्योकि वहा सांसदो की तादाद 2987 है । और अमेरिका में एक सांसद के उपर 7 लाख 22 हजार 636 जनसंख्या का भार होता है तो रुस में तीन लाख 18 हजार जनसंख्या एक नुमाइन्दे के अधिन होती है । तो पहला सवाल तो यही है कि क्या छोटे राज्यो के साथ साथ अब देश में सासंदो की तादाद भी बढाने की जरुरत है । लेकिन जिन हालातो में दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश की लूट में लोकतंत्र के प्रतिक बने नुमाइंदे ही शामिल है उसमें तो लूट की भागीदारी ही बढेगी । यानी चोरो और अपराधियो की टोली ज्यादा बडी हो जायेगी । मसलन अभी 545 सासंदो मेंसे 182 ऐसे दागी है जो भ्रष्ट्रचार और कानून को ताक पर रख अपना हित साधने के आरोपी है । तो फिर जनता के लिये कितना मायने रखता है लोकतंत्र का मंदिर । और लोकतंत्र के मंदिर के सबसे बडे मंहत की आवाज भी जब उनके अपने ही पंडे दरकिनार कर दे तो क्या माना जाये । मसलन , देश के प्रधानसेवक लालकिले के प्रचीर से आहवान करते है कि एक गांव हर सासंद को गोद ले ले । क्योकि उसे हर बरस पांच करोड रुपये मिलते है तो भारत में औसतन एक गांव का सालाना बजट विकास के लिये सिर्फ 10 लाख का होता है तो कम से कम वह तो विकास की पटरी पर दौडने लगे । पहले बरस होड लग जाती है । लोकसभा-राज्यसभा के 796 सांसदो में से 703 गांव गोद भी ले लेते है । अगले बरस ये घटकर 461 परआता है । 2017 में ये घटकर 150 पर पहुंच जाता है और 2018 में ये सौ के भी नीचे आ जाता है । लेकिन सवाल सिर्फ ये नहीं ह कि गांव तक गोद लेने मेंसांसदो की रुची नहीं रही । सवाल तो ये है कि 2015 में ही जिन 703 गांव को गोद लिया गया उसके 80 फिसदी गांव की हालत यानी करीब 550 गांव की हालात गोद लेने के बाद और ही जर्जर हो गई । ये सोच है पर देश के सामने तो लूट तले चलती गवर्नेस  का सवाल ज्यादा बडा है । और इसके लिये रिजर्व बैक के आंकडे देखने समझने के लिये काफी है । जहा जनता का पैसा कर्ज के तौर पर  कोई कारपोरेट या उहोगपति बैक से लेता है । उसके बाद देश के हालात ऐसे बने है कि ना तो उघोग पनप सके । ना ही कोई धंधा या कोई प्रजोक्ट उडान भर सके । लेकिन इकनामी का रास्ता लूट का है तो फिर बैकिंग सिस्टम को ही लूट में कैसे तब्दिल किया जा सकता है ये भी आंकडो से देखना कम रोचक नहीं है । मसलन 2014-15 में कर्ज वसूली सिर्फ 4561 करोड की हुई और कर्ज माफी 49,018 करोड की हो गई । 2015-16 में 8,096 करोड रुपय कर्ज की वसूल की गई तो 57,585 करोड रुपये की कर्ज माफी हो गई । इसी तरह 2016-17 में कर्ज वसूली सिर्फ 8,680 करोड रुपये की हुई तो 81,683 करोड की कर्ज माफी कर दी गई । और 2017-18 में बैको ने 7106 करोड रुपये की कर्ज वसूली की तो 84,272 करोड रुपये कर्ज माफी हो गये । यानी एक तरफ अगर किसानो की कर्ज माफी को परखे तो सत्ता के पसीने छूट जाते है कर्ज माफी करने में । लेकिन दूसरी तरफ 2014 से 2018 के बीच बिना हंगामे क 2,72,558 करोड रुपये राइटिग आफ कर दिये गये । यानी बैको के दस्तावेजो से उसे हटा दिया गया जिससे बैक घाटे में ना दिखे । कमाल की लूट प्रणाली है । लेकिन लोकतंत्र का तकाजा यह है कि सत्ता ही संविधान है तो फिर गणतंत्र दिवस भी सत्ता के लिये । इसीलिये लोकतंत्र की पहरीदारी करने वाले सेवक, स्वयसेवक, प्रधानसेवक सभी खुश है कि रायसीना हिल्स की तमाम इमारते रौशनी में नहायी हुई है । तो लोकतंत्र इमारतो में बसता है और उसकी पहचान अब उसका काम या संविधान की रक्षा नहीं बल्कि एलईडी की चमक है ।     

Thursday, January 24, 2019

एक परिवार काग्रेस को पुनर्जिवित करेगा तो दूसरा परिवार अपने ही स्वयंसेवक को हाथो खत्म हो चला है.....



काग्रेस की पहचान नेहरु-गांधी परिवार से जुडी है । बीजेपी की पहचान संघ परिवार से जुडी है । बिना नेहरु-गांधी परिवार के काग्रेस हो ही नहीं सकती तो काग्रेस की कमजोरी-ताकत दोनो ही नेहरु-गांधी परिवार में सिमटी है । और बिना संघ परिवार के बीजेपी का आस्त्तिव ही नहीं है तो वैचारिक तौर पर संघ की सोच हो या हिन्दुत्व की छतरी तले बीजेपी के राजनीतिक भविष्य को आक्सीजन देने का काम यह संघ परिवार पर ही टिका है । काग्रेस अभी तक नेहरु गांधी परिवार के करिष्माई नेतृत्व के आसरे सत्ता पर काबिज रही है चाहे वह नेहरु का काल हो या इंदिरा गांधी का या फिर राजीव गांधी या परदे के पीछे सोनिया गांधी की सियासत का । और इस दौर में जनसंघ से जनता पार्टी होते हुये बीजेपी में उभरी स्वयसेवको की टोली की ये पहचान रही कि वह काग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध के आसरे धीरे धीरे आगे बढती रही । और सत्ता के जरीये काग्रेस विरोध के दायरे को बढाती भी रही और काग्रेस विरोध के आसरे अपनी सत्ता गढती भी रही । लेकिन सौ बरस की उम्र पार कर चुकी काग्रेस में ये पहला मौका है कि नेहरु गांधी परिवार की पांचवी पीढी के दो सदस्य काग्रेस को संभालने के लिये एक साथ चलने को तैयार है । और दूसरी तरफ 2025 में सौ बरस की होने जा रहे संघ परिवार से निकले स्वयसेवको का सत्ताकरण ही कुछ इस तरह हुआ कि वह संघ परिवार को ही कमजोर कर सत्ता की ताकत तले संघ परिवार को ले आये । तो ये वाकई दिलचस्प हो चला है कि एक तरफ करिष्माई नेतृत्व के आसरे सत्ता की चौखट पर पहुंचने वाली काग्रेस में धीरे धीरे राहुल गांधी ने चुनावी जीत के आसरे खुद को करिष्माई तौर पर स्थापित करने की दिशा में कदम बढाये है तो प्रियकां गांधी की राजनीतिक झलकियो ने ही उन्हे पहले से करिष्माई मान लिया है । तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने पूंरव स्वयसेवको की लीक छोड 2014 मेंखुद को करिष्माई तौर पर स्थापित तो किया लेकिन इसी स्थापना को अपनी ताकत मान कर संघ परिवार की सोच तक को खारिज कर दिया । या कहे मोदी सत्ता के दौर में संघ परिवर के मुद्दे भी सरोकार खो कर मोदी के करिष्माई नेतृत्व में ही हिन्दुत्व से लेकर स्वदेशी और भारतीयकरण से लेकर स्वयसेवक होने के पीछे के संघर्ष को ही खत्म कर बैठे । तो नेहरु-गांधी परिवार और संघ परिवार की इसी बिसात पर 2019 का आम चुनाव होना है । तो पांसे कैसे और किस तरह फेंके जायेगें ये वाकई रोचक है । और सवाल कई है ।
मसलन, क्या मोदी का करिष्माई नेतृत्व बीजेपी-संघ परिवार की सत्ता को बरकरार रख पायेगा । क्या राहुल गांधी के साथ खडी प्रियंका का करिष्मा मोदी सत्ता की जडे हिला देगा । क्या मोदी-शाह में सिमट चुकी बीजेपी के पास कोई नेता ही नहीं है जो काग्रेस के करिष्माई नेतृत्व को चुनाव मैदान में पटकनी दे दें । या फिर बीजेपी में हर नेता के सामने ये चुनौती है कि वह कैसे मोदी-शाह को पहले पटकनी दें फिर खडा हो सके । क्या राहुल प्रियंका की जोडी अब मोदी विरोध के गठबंधन के सामने ही चुनौती बन रह है । यानी एक वक्त के बाद क्षत्रपो के सामने संकट होगा कि वह बीजेपी विरोध के साथ काग्रेस विरोध की दिशा में भी बढ जाये । जाहिर है ये सारे सवाल है । लेकिन इन सवालों के आसरे ही चुनावी राजनीति के परखे तो तीन सच सामने उभरगें । पहला , प्रियकां के जरीये महिलाये और युवाओ का वोट सिर्फ बीजेपी ही नहीं बल्कि अखिलेश-मायावती से भी खिसकेगा । दूसरा , यूपी में चेहरा खोज रही काग्रेस को पियंका का एक ऐसा चेहरा मिल चुका है जो लोकसभा चुनाव के बाद आखिलेश-मायावती के उस सौदबाजी में सेंघ लगाने के लिये काफी है कि राज्य कौन संभाले और केन्द्र कौन संभाले [ अगर लोकसभा चुनाव के बाद मायावती पीएम उम्मीदवार के तौर पर उभरती है  ] । क्योकि काग्रेस ने अभी प्रियंका गांधी को पूर्वी यूपी की कमान सौपी है । अगला कदम रायबरेली से चुनाव मैदान में उतारना होगा । और फिर 2022 में यूपी विधानसभा के वक्त प्रिंयका गांधी को ही सीएम उम्मीदवार पद के लिये उतरना । तीसरा, क्षत्रपो को अब समझ में आने लगा है कि गठबंधन का मतलब तभी है जब उसमें काग्रेस शामिल हो । यानी सिर्फ क्षत्रपो का मिलना गठबंधन तो है लेकिन वह सिर्फ सत्ता के लिये सौदेबाजी का दायरा बढना है । और इन तीन हालातो के दौर को और किसी ने नहीं बल्कि मोदी के करिष्माई नेतृत्व ने ही पैदा किया है । और मोदी के करिष्माई नेतृत्व के पीछे संघ परिवार को ही कमोजरी करना रहा । क्योकि संघ परिवार का हर वह संगठन जो काग्रेस की सत्ता को चुनौती देने के लिये संघर्ष करते हुये बीजेपी का रास्ता अभी तक बनाता रहा उसे ही मोदी के करिष्माई नेतृत्व  ने खत्म कर दिया । विहिप के पास प्रवीण तोगडिया नहीं है तो विहिप को प्रवीण तोगडिया के हर कदम से लडना पडा रहा है । किसान संघ के सक्षम नेतृत्व को कैसे मोदी सत्ता के काल में खत्म किया गया ये मध्यप्रदेश में क्काजी के जरीये उभरा । फिर भारतीय मजदूर संघ हो या स्वदेशी जागरण मंच या फिर आदिवासी कल्याण संघ , हर संघठन को कमजोर किया गया । या कहे संघ के हर संगठन का काम ही जब करिष्माई नेतृत्व मोदी के लिये ताली बजाना हो गया तो फिर वह नीतिया भी बेमानी हो गई जो किसान को खुदखुशी की तरफ धकेल रही थी । युवाओ को बेरोजगारी की तरफ । उत्पादन ठप पडा है तो उघोगपतियो के पास काम नहीं । व्यापरियो के सामने जीएसटी से लेकर विदेशी निवेश और ई-मारकेटिंग का खतरा है । मजदूर को नोटबंदी ने तबाह कर दिया । यानी संकट काल स्वयसेवक की सत्ता के वक्त संघ की सोच के विपरीत है ।
तो आखरी सवाल यही हो चला है कि काग्रेस की राजनीति ने संघ या पुरानी बीजेपी की कार्यशौली को अपना लिया है । और मोदी के करिष्माई नेतृत्व ने काग्रेस के करिष्माई सोच को अपना लिया है ।       

Tuesday, January 22, 2019

.....और सत्ता कहती है जय हिद !


मेहुल चोकसी ने भारतीय नागरिकता छोड दी। उससे पहले जांच के लिये भारत लौटने से ये कह कर इंकार कर दिया था कि भारत में उनकी लिचिंग हो सकती है । विजय माल्या ने पहले भारतीय जेल को अमानवीय बताया और अब स्विस बैक से कहा आप मेरे अकाउंट की जानकरी भारतीय जांच एंजेसी सीबीआई  को कैसे दे सकते है जो खुद ही दागदार है । जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रही है । भारत के राष्ट्रीयकृत बैको से जनता के पैसे को कर्ज ले कर ना लौटाने वाले कारपोरेट व उघोगपतियो की कतार करीब 900 तक पहुंच चुकी है । और आंकडा बारह हजार करोड रुपये पार कर चुका है । इसी दौर में देश पर बढता कर्ज 80 लाख करोड का हो चुका है । और आक्सफाम की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत के टापमोस्ट सिर्फ नौ लोगो की आमदानी - कमाई या संपत्ति का कुल आंकडा देश के 65 करोड लोगो की आय संपत्ति या आमदनी के बराबर है । दुनिया में भारत को लेकर तमाम चकाचौंध बिखराने के बावजूद दुनिया भर से भारत के बाजार में डालर झौकने वाले बढ क्यो नहीं रह है ये सवाल अब भी अनसुलझा सा बना दिया गया है । 2017 में 40 बिलियन डालर का निवेश हुआ तो 2018 में 43 बिलियन जालर का निवेश भारत में हुआ । जबकि ब्राजिल सरीखे देश में 59 बिलियन डालर का विदेशी निवेश 2018 में हो गया । जहा की सत्ता ने दुनिया घूमने पर सबसे कम खर्च किया । और चीन में 142 बिलियन डालर का निवेश 2018 में हो गया । तो भारत की दौड में किस देश से हो सकती है ये सोचने समझने स पहले इस हकीकत को भी जान लें कि यूपी में निवेश को लेकर जब योगी-मोदी ने बाइब्रेट गुजरात की तर्ज पर सम्मेलन किया तो निवेश का भरोसा देने वाले एक विदेशी कारपोरेट ने पिछले दिनो अध्ययन कर पाया कि कृर्षि अर्थव्यवस्था पर टिके यूपी में किसानो को अब अपनी फसल बचाने के लिये गाय के लिये बाड बनाने से जुझना पड रह है । और बाड लगाने क लिये किसानो के पास पैसे नहीं है और राज्य सरकार गायो की बढती तादाद के लिये गौ चारण की जमीन तक की व्यवस्था तो दूर कोई व्यवस्था तक करने में सक्षम नहीं है । दिल्ली की एक संस्था से मदद लेकर भारत के मेडिकल क्षेत्र में निवेश की योजना बनाने वाली विदेशी कंपनी ने पाया कि भारत में प्राइवेट अस्पताल खोलना सबसे फायदे का धंधा है । और सरकारी अस्पताल में न्यूनतम जरुरते तो दूर 70 फिसदी बिमार और ज्यादा बिमारी लेकर अस्पताल से लौटते है । यानी अस्पताल साफ सुधरे रहे सिर्फ ये काबिलियत ही प्राइवेट अस्पताल को लायक होने का तमगा दे देती है । फिर भारत का अनूठा सच शिक्षा से भी जुडा है जहां स्कूल जाने वाले 50 फिसदी से ज्यादा बच्चे जोड-घटाव तक नहीं कर सकते । अग्रेजी तो दूर की गोटी है हिन्दी भी पढ नहीं पाते । यानी सामने वाला जो बोल रहा है उसे सुन कर जो सही गलत समझ में आये उसे ही सच मान कर देश की आधी आबादी जिन्दगी जी रही है । और इस जिन्दगी को चलाने वाले नेताओ की कतार सिर्फ बोलती है क्योकि बोल कर वोट पाने का लाइसेंस उन्ही के पास हो और लोकतंत्र का तकाजा यही कहता है कि जो खूब शानदार बोल सकता है वहीं देश की सत्ता को संभाल सकता है । यानी सारे सवाल उस दायरे में आकर सिमट जाते है जहा 2014 में 10 जनपथ तक जीरो जीरो लगाते हुये करोडो के घोटाले-घपले का आरोप नेहरु गांधी परिवार पर नरेन्द्र मोदी लगाकर सत्ता पाते है और 2019 में नरेन्द्र मोदी को चौकीदार चोर है कि उपमा दे कर राहुल गांधी अब परिपक्व नजर आने लगते है क्योकि उनकी अगुवाई में काग्रेस कई राज्यो में लौट आती है ।
तो सवाल कई है । मसलन , क्या भारत को बनाना रिपब्लिक बनाकर सत्ता पाना ही लोकतंत्र हो चुका है । क्या भारतीय ही भारत को लूट कर गणतंत्र होने का तमगा सीने से लगाये हुये है । क्या भारतीय राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता का मोल भाव सत्ता बनाने या बिगाडने में जा सिमटा है । क्या संविधान को भी सत्ता का औार बनाकर सत्ताधारी देश से खेलने में हिचक नहीं रह है । क्या देश में खुली लूट कर देश छोडकर भागना बेहद आसान है क्यो कि सत्ता पाने की तिकडम [ चुनाव के तौर तरीके  ] ही एक ऐसी पूंजी पर जा टिकी है जो इमानदारी से बटोरी नहीं जा सकती और बेइमानी किये बगैर लौटायी नहीं जा सकती । क्या दुनिया में भारत इसलिये आकर्षण का केन्द्र है क्योकि भारतीय बाजार से कमाई सबसे ज्यादा है । या फिर जिस तरह दो जून की रोटी तले आस्था के समंदर में देश के 80 करोड लोग गोते लगाते है उसमें दुनिया की कोई भी फिलास्फी फेल होने के बाद भारत आकर आंनद ले सकती है । या फिर भारत धीरे धीरे खुद को उस पुरातन अवस्था में ले जा रहा है जहा विकसित या विकासशील होने-कहलाने का मार्ग नहीं जाता बल्कि अतीत के गौरवमयी हालातो को धर्म की चादर में लपेट कर सत्ता सुला देना चाहती है । यानी मिजाज लेकतंत्र का हो या परिभाषा आजादी की गढी जाये या फिर आस्था के आसरे राष्ट्रवाद और देश भक्ति के नारे लगाये जाये , भारत कैसे सत्ता की लूट और विज्ञान के आसरे विकसित होने की तरफ ध्यान ही ना दें इसके उपाय भी लगातार खोजे जा रहे है । क्योकि शिक्षा-प्रोफेशनल्स-रोजगार को लेकर दुनिया में फैले विदेशियो की तादाद में भारत का नंबर चीन - जापान के बाद आता है ।  चीनी और जापानी देश लौटते है । नागरिकता छोडते नहीं । अपने देश के लिये काम करते है । पर दुनिया में फैले भारतीयो की तादाद लगातार बढ रही है और ये तादाद ना लौटने के लिये बढ रही है । तो क्या लोकतंत्र के नाम पर भारत खुद को ही नये तरीके से गढ रहा है जहा गांव से रास्ता छोटे शहर । छोटे शहर से बडे शहर । बडे शहर से महानगर । और महानगर से देश छोड कर जाने का रास्ता ही भारत की पहचान हो चुकी है । और जो राजनीति सत्ता देश को चलाने के लिये बैचेन रहती है वह भी अब विदेशी जमीन पर अपने होने का राग गा रही है क्योकि देश के भीतर का सिस्टम या तो पूंजी पर जा टिका है या पूंजीपतियो पर जो सत्ता को भी गढते है और सत्ता के जरीये खुद को भी । फिर सियासत डगमगाने लगे तो देश की नागरिकता छोड भारतीय व्सवस्था पर ही सवाल उठाने से नहीं चुकते । और सत्ता कहती है जय हिन्द !     

Sunday, January 20, 2019

महाभारत की चौसर छोटी है 2019 के महासमर के सामने ...

महासमर या महाभारत । 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक दल जिस लकीर को खिंच रहे है वह सिर्फ राजनीति भर नहीं है । सत्ता हो या विपक्ष दोनो के पांसे जिस तरह फेंके जा रहे है वह जनादेश के लिये समर्थन जुटाने का मंत्र भी नहीं है । बल्कि महासमर या महाभारत की गाथा एक ऐसे दस्तावेज को रच रही है जिसमें संविधान और लोकतंत्र की परिभाषा आने वाले वक्त में सत्ता के चरणो में नतमस्तक रहेगी इंकार इससे भी किया नहीं जा सकता है । और जो रचा जा रहा है उसके तीन चेहरे है । पहला , चुनावी तंत्र का चेहरा । दूसरा  कारपोरेट लूट की पालेटिकल इक्नामी । तीसरा जन सरोकार या जन अधिकार को भी सत्ता की मर्जी पर टिकाना । रोचक तीनो है , पर देश के लिये घातक भी तीनो है । और देश के  सामाजिक-आर्थिक हालातो के बीच लोकतंत्र की त्रासदी के तौर पर तीनो ही अपनी अपनी सत्ता को संभाले भी हुये है । कोलकत्ता में ममता की रैली   [ रैली पर खर्च किया गया रुपया जनता का ही है ] में गठबंधन की छतरी तले विपक्ष का हुजुम पहली नजर में साफ साफ दिखा देता है कि बीजेपी से किसी की दुश्मनी नहीं है । टारगेट पर नरेन्द्र मोदी  है जिन्होने अपनी कार्यशैली से देश मेंउस लोकतंत्र को ही खत्म कर दिया जो संसदीय राजनीति के नारे तले हर राजनीतिक दल के  जीने का हक [ जन अधिकार की बात करने वाले भी और जन की पूंजी की लूट करने वाले भी ] देती है । या फिर संविधान की परिभाषा सत्तानुकुल कर चुनी हुई सत्ता को संविधान के भी उपर बैठा दिया । और कानूनी या संवैधानिक तौर अगर ये काम इंदिरा गांधी ने इमरजेन्सी ला कर किया तो नरेन्द्र मोदी ने बिना इमरजेन्सी के उस सच को उभार दिया जिसे कहने या उभारने से हर सत्ता अपने अपने दायरे में इससे पहले बचती रही है । यानी 2019 के महाभारत का पहला सच ममता की रैली से यही उभरा कि अगर सत्ता 2019 में पलट गई तो फिर मोदी को कोई बख्शेगा नहीं । और इसका खुला इजहार भी हुआ कि मोदी सत्ता ने सोनिया से लेकर ममता । अखिलश से लेकर मायावती । तेजस्वी से लेकर हार्दिक पटेल तक को नहीं बख्शा तो फिर सत्ता पलटने पर मोदी को भी बख्शा नहीं जायेगा  ।  लेकिन  राजनीतिक मंत्र सिर्फ राजनीतिक दुश्मनी के तहत ही सभी को एक छतरी तले लेते आया , सच ये भी नहीं है । हकीकत तो ये है कि अक बडी छतरी तले छोटी छोटी छतरियों को थामे विपक्ष है । जो 2019 के जनादेश के बाद तीन परिस्थियो को परख रहा है । जिसमें एक तरफ बीजपी या काग्रेस को समर्थन देने की स्थिति है । यानी तमाम क्षत्रप सत्ता की मलाई खाने के लिये काग्रेस के साथ जायेगें । या फिर मोदी माइनस बीजेपी को भी समर्थन देने की स्थिति में आ जायगें । दूसरी परिस्थिति ज्यादा रोचक है जिसमें क्षत्रपो का गठबंधन की अपने में से किसी नेता को चुन लें और काग्रेस या बीजेपी उस समर्थन दे दें । लेकिन सबसे ज्यादा रोचक तीसरी परिस्थिती है जिसके केन्द्र में मायावती है । जो अपनी सीटो की संख्या तले खुद ही पीएम का दावेदार बन कर काग्रेस या बीजेपी से कहे कि उसके पीछ वह अपनी ताकत [ सासंदो की संख्या ] झोंक दें । दरअसल इस तीसरी परिस्थति में कई परते है । पहला तो यही कि अखिलेश यादव भी सीटो की संख्या में मायावती से जा से कम रहेगें तो फिर पहला समझौता माया-अखिलेश में होगा । कौन राज्य सभाले और कौन केन्द्र संभाले । इस समझौते के तहत अखिलेश का झुकाव काग्रेस के पक्ष में होगा । लेकिन इस गणित की दूसरी परत ये भी कहती है कि मायावती के सामानातंर अगर ममता भी बंगाल में कमाल कर देती है तो फिर ममता खुद को उन क्षत्रपो के साथ जोडकर पीएम उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट करेगी जिनके सबंध ममता से करीब है । उसमें केजरीवाल भी है और फारुख अब्दुल्ला भी । चन्द्रबाबू भी हामी भर सकते है और केसीआर भी । यानी बडी छतरी तले कई छतरिया ही नहीं बल्कि छतरियो के भीतर भी छतरियो का ऐसा समझौता जो महाभारत की चौसर को भी मात कर दें । लेकिन इस राजनीतिक मंत्र का सियासी मिजाज साफ है 2019 में ऐसा परिवर्तन जिसमें बीजपी और मोदी की सत्ता को एक साथ ना देखा जाये ।   
पर राजनीतिक महासमर के इस खेल में कारपोरेट लूट की पालेटिकल इकनामी का चेहरा भी कम रोचक नहीं है । क्योकि जिस दौर में सरकारी खजाने को रिजर्व बैक से तीन लाख करोड की जरुरत पड गई उस दौर में अंबानी की कंपनी को आखरी क्वाटर में 10 हजार करोड का शुद्द मुनाफा हो जाता है । इंटरकाम के क्षेत्र में एयरटेल समेत तमाम कंपनिया रिस रह है लेकिन जियो को 28 फिसदी का लाभ हो जाता है । और कोलकत्ता में ममता की रैली से ये आवाज भी खुले तौर पर निकलती है कि सत्ता अंबानी का पाल पोस रही है । यानी देश की एवज में पंसदीा कारपोरेट को लाभ पहुंचाने के तमाम रास्ते खोल रही है । और फिर 2013 के हालातो में जब नरेन्द्र मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाया जाये या नहीं या फिर आडवाणी के विरोध के स्वर को भी कारपोरेट की पूंजी तले तौलने का काम 2019 में ये कहकर शुरु हो गया कि तब बीजेपी-संघ के भीतर से आवाज यही थी कि जो पूंजी लगायेगा वहीं पीएम उम्मीदवार होगा । और तब कारपोरेट ने ही नरेन्द्र मोदी का नाम लेना शुरु कर दिया । गुजरात माडल को राजनीतिक माडल बनाया गया । और आडवाणी सवाय विरोध के तब कुछ कर ना सके । और देश ने 2014 के चुनाव की चकाचौंध का मिजाज नरेन्द्र मोदी की प्रचार शैली [ तकनीकी प्रचार  ] से लेकर सैकडो हवाई रैली करते हुये भी हर रात वापस गांधीनगर पहुंचने की देखी । और उसके बाद सत्ता की तरफ से चुनाव में मदद करने वाले कारपोरेट को लाभालाभ देने की देश की नीतियो को भी खनन से लेकर पोर्ट और पावर सेक्टर से लेकर टेलीकाम तक में देखा । तो क्या 2019 के महाभारत के लिये बिछती चौसर पर कारपोरेट को अपने अनुकुल करने या मोदी सत्ता से लाभ लेने वाले कारपोरेट को सत्ता बदलने पर ना बख्शने का पांसा फेका जा रहा है । या फिर जिन कारपोरेट को लूट का मौका मोदी सत्ता में नहीं मिला उन्हे सत्ता परिवर्तन के बाद लाभ के हालात से जोडने के लिये पैसे फेके जा रहे है ।
लेकिन 2019 के महाभारत में सबसे परेशान वाला तीसरा चेहरा है जो जन-सरोकार या जन अधिकार की बात को ही सत्ता की दौड तले खत्म कर देता है । यानी सत्ता कैसे संविधान है । सत्ता ही कैसे लोकतंत्र की परिभषा है । और सत्ता ही कैसे हिन्दुस्तान है । ये संवैधानिक पद पर बैठे नरेन्द्र मोदी की कार्यशौली भर का नतीजा नहीं है बल्कि सत्ता केन्द्रित लोकतंत्र में कैसे राजनीतिक दलो की कार्यशैली भी सिर्फ सत्ता के भरोसे ही लोगो को जिन्दा रहने या जिन्दा रहने की सुविधा/नीतियो को टिकाती है ये भी काबिलेगौर है । और ये वाकई बेहद त्रासदी पूर्ण है कि मान्यता तभी मिलती है जब सत्ता का हाथ सर पर हो । यानी जो मोदी की सत्ता में मोदी के साथ खडे है और कल जब मोदी की सत्ता नहीं होगी तब की सत्ता में जो सत्ता के साथ खडे होगें , मान्यता उन्ही की होगी । बाकि सभी कीडे-मकौड की तरह रहे , जीये या खत्म हो जाये कोई फर्क नहीं पडता । इसका नजारा कई दृश्टी से हो सकता है । पर उदाहरण के लिये लगातार किसानो के बीच काम कर रहे लोगो को ही ले लिजिये । दो महीने पहले दिल्ली में किसानो का जमघट मोदी सत्ता की किसान विरोधी नीतियो को लेकर हुआ । दिल्ली में किसानो के तमाम संगठन जुटे इसके लिये तमाम समाजसेवी से लेकर पत्रकार पी साईनाथ ने खासी मेहनत की । पर दिल्ली में सजा मंच इंतजार करता रहा कि तमाम राजनीतिक दलो के चेहरे कैसे मंच पर पहुंच जाये । और जब संसद के अंदर बाहर चमकते चेहरे मंच पर पहुंचे और किसानो के हितो की बात कहकर हाथो में हाथ डाल कर अपनी एकता दिखाते रहे तो इसे ही सफल मान लिया गया । और कोलकत्ता में ममता की रैली में जब नेताओ का जमावडा जुटा तो किसानो के बीच काम कर रहे योगेन्द्र यादव कोलकत्ता से दो सौ किलोमिटर दूर एक सामान्य सी सभा को बंगाल में ही संबोधिक तर रहे थे । पर उनका कोई अर्थ नहीं क्योकि सत्ता के सितारे तो कोलकत्ता में जुटे थे । यानी महत्ता तभी होगी जब आप सत्ता केन्द्रित सियासत के साझीदार बन जाये । वरना आप हो कर भी कही नहीं है । तो कया देश के सारे रास्ते सत्ता में जा सिमटे है और पत्रकार कहलाने के लिये । अच्छा शिक्षक , वकील , डाक्टर , लेखक , सामजसेवी होने के लिये या तो सत्ता से सट जाये या फिर चुनाव मैदान में कूद जाये । और देश का मतलब राजनीति सत्ता ही है । ध्यान दिजिये हो तो यही रही है ।
और जो सत्ताधारी है उनके लिये आखरी मंत्र....अटलबिहारी वाजपेयी के दौर में प्रमोद महाजन बेहद ताकतवर हो गये थे । नरेन्द्र मोदी के दौर में अमित शाह बेहद ताकतवर है । तो ताकत का मतलब क्या है ये भी समझे ।     

Thursday, January 17, 2019

जेटली एक फरवरी तक न्यूयार्क से नहीं लौटे तो कौन पेश करेगा बजट ?


इस बार एक फरवरी को बजट पेश कौन करेगा । जब वित्त मंत्री कैंसर के इलाज के लिये न्यूयार्क जा चुक है ।  क्या 31 जनवरी को पेश होने वाले आर्थिक समीक्षा के आंकडे मैनेज होगें । जिसके संकेत आर्थिक सलाहकार के पद से इस्तिफा दे चुके अरविंद सुब्रहमण्यम ने दिये थे । क्या बजटीय भाषण इस बार प्रधानमंत्री ही देगें । और आर्थिक आंकडे स्वर्णिम काल की तर्ज पर सामने रख जायेगें । क्योकि आम चुनाव से पहले संसद के भीतर मोदी सत्ता की तरफ से पेश देश के आर्थिक हालातो को लेकर दिया गया भाषण आखरी होगा । इसके बाद देश उस चुनावी महासमर में उतर जायेगा जिस महासमर का इंतजार तो हर पांच बरस बाद होता है लेकिन इस महासमर की रोचकता 1977 के चुनाव सरीखी हो चली है । याद किजिये 42 बरस पहले कैसे जेपी की अगुवाई में बिना पीएम उम्मीदवार के समूचा विपक्ष एकजूट हुआ था । और तब के सबसे चमकदार और लोकप्रिय नेतृत्व को लेकर सवाल इतने थे कि जगजीवन राम जो की आजाद भारत में नेहरु की अगुवाई में बनी पहली राष्ट्रीय सरकार में सबसे युवा मंत्री थे वो भी काग्रेस छोड जनता पार्टी में शामिल हो गये । और 1977 में काग्रेस से कही ज्यादा  इन्दिरा गांधी की सत्ता की हार का जश्न ही देश में मनाया गया था । और संयोग ऐसा है कि 42 बरस बाद 2019 के लिये तैयार होते के सामने बीजेपी की सत्ता नहीं बल्कि मोदी की सत्ता है । यानी जीत हार बीजेपी की नहीं मोदी सत्ता की होनी है । इसीलिये तमाम खटास और तल्खी के माहौल में भी राहुल गांधी स्वस्थ्य लाभ के लिये न्यूयार्क रवाना होते अरुण जटली के लिये ट्विट कर रहे है । तो क्या मोदी सत्ता को लेकर ही देश की राजनीतिक बिसात हर असंभव राजनीति को नंगी आंखो से देख रही है । और इस राजनीति में इतना पैनापन आ गया है कि यूपी में सपा-बसपा के गंठबंधन में काग्रेस शामिल ना हो इसके लिये तीनो दलो ने मिल कर महागंठबंधन को दो हिस्सो में बांट दिया । जिससे बीजेपी के पास कोई राजनीतिक जमीन भी ही नहीं । यानी काग्रेस गंठबधन से बाहर होकर ना सिर्फ बीजेपी के अगडी जाति की पहचान को खत्म करेगी बल्कि जो छोटे दल सपा-बसपा-आरएलडी के साथ नहीं है , उन्हे काग्रेस अपने साथ समेट कर मोदी-शाह के किसी भी सोशल इंजिनियरिंग के फार्मूले को चुनावी जीत तक पहुंचने ही नहीं देगी । फिर ध्यान दें तो 2014 में सत्ता बीजेपी को मिलनी ही थी तो बीजेपी  के साथ गठंबधन के हर फार्मूले पर छोटे दल तैयार थे । लेकिन 2019 की बिसात में कश्मीर से कन्याकुमारी तक के हालात बताते है कि गठबंधन के धर्म तले मोदी-शाह अलग थलग पड गये है । सबसे पुराने साथी अकाली- शिवसेना से पटका पटकी के बोल के बीच रास्ता कैसे निकलेगा इसकी धार विपक्ष के राजनीतिक गठबंधन पर जा टिकी है । तो दूसरी तरफ गठबंधन बीजेपी को देक कर नहीं बल्कि मोदी सत्ता के तौर तरीको को देख कर बन रहा है । और इस मोदी सत्ता का मतलब बीजेपी सत्ता से अलग क्यो है इसे समझने से पहले गठबंधन का देशव्यापी चेहा परखना जरुरी है । टीडीपी काग्रेस का गठबंधन उस आध्रप्रदेश और तेलगाना में हो रहा है जहा कभी काग्रेस और चन्द्रबाबू में छत्तिस का आंकडा था । झारखंड में बीजेपी के साथ जाने के आसू भी तैयार नहीं है और झामुमो-आरजेडी-काग्रेस गठबंधन बन रहा है । बिहार-यूपी में मांझी, राजभर , कुशवाहा , अपना दल , आजेडी और काग्रेस की व्यूह रचना मोदी सत्ता के इनकाउंटर की बन रही है । और यही हालात महराष्ट्र और गुजरात में है जहा छोटे छोटे दल अलग अलग मुद्दो के आसरे 2014 में बीजेपी के साथ थे वह मोदी सत्ता को ही सबसे बडा मुद्दा मानकर अब अलग व्यूहरचना कर रह है । जिसेक केन्द्र में काग्रेस की बिसात है । जो पहली बार लोकसभा चुनाव और राज्यो क चुनाव में अलग अलग राजनीति करने और करवाने के लिये तैयार है । यानी लोकसभा चुनाव में काग्रेस राज्य चुनाव के अपने ही दुश्मनो से हाथ मिला रही है और काग्रेस विरोधी क्षत्रप भी अपने आस्त्तित्व के लिये काग्रेस से हाथ मिलाने को तैयार है । मोदी सत्ता के सामने ये हालात क्यो हो गये इसके उदाहरण तो कई दिये जा सकते है लेकिन ताजा मिसाल सीबीआई हो तो उसी के पन्नो को उघाड कर हालात परखे । आलोक वर्मा को जब सीबीआई प्रमुख बनाया गया तो वह मोदी सत्ता के आदमी के थे । और तब काग्रेस विरोध कर रही थी । उस दौर में सीबीआई ने मोदी सत्ता के लिये हर किसी की जासूसी की । ना सिर्फ विपक्ष के नेताओ की बल्कि बीजेपी के कद्दावर नेताओ की भी जासूसी सीबीआई ने ही । और सच तो यही है कि बीजेपी के ही हर नेता-मंत्री की फाइल जिसे सियासी शब्दो में नब्ज कहा जाता है वह पीएमओ के टेबल पर रही । जिससे एक वक्त के कद्दावर राजनाथ सिंह भी रेगते दिखायी पडे । और किसी भी दूसरे नेता की हिम्मत नहीं पडी कि वह कुछ भी बोल सके । यानी यशंवत सिन्हा यू ही सडक-चौराहे पर बोलते नहीं रहे कि बीजेपी में कोई है नहीं जो मोदी सत्ता पर कुछ बोल पाये । दरअसल इसका सच दोहरा है । पहला , हर की नब्ज मोदी सत्ता ने पकडी । और दूसरा राजनीतिक सत्ता किसी भी नेता में इतनी नैतिक हिम्मत छोडती नहीं कि वह सत्ता से टकराने की हिम्मत दिखा सके । और इसमें मदद सीबीआई की जाससी ने ही की । और सीबीआई की जासूसी करने कराने वाले कताकतवर ना हो जाये तो आलोक वर्मा के सामानांतर राकेश आस्थाना को ला खडा कर दिया गया । फिर इन दोनो पर नजर रखे देश के सुरक्षा सलाहकार की भी जासूसी हो गई । और एक को आगे बढाकर दूसरे से उसे काटने की इस थ्योरी में सीवीसी को भी हिस्सेदार बना दिया गया । यानी सत्ता के चक्रव्यू में हर वह ताकतवर संस्थान को संभाले ताकतवर शख्स फंसा जिसे गुमान था कि वह सत्ता के करीब है और वह ताकतवर है । जाहिर है इस खेल से विपक्ष साढे चार बरस डरा -सहमा रहा । सत्ताधारी भी अपने अपने खोल में सिमटे रहे । लेकिन विधानसभा चुनाव के जनादेश ने जब बीजेपी का बोरिया बिस्तर तीन राज्यो में बांध दिया तो फिर सीबीआई जांच के बावजूद अखिलेश यादव का डर सीबीआई से काफूर हो गया । केन्द्रीय मंत्री गडकरी उस राजनीति को साधने लगे जिस राजनीति के तहत उन्हे अध्यक्ष पद की कुर्सी अपनो के द्वारा ही छापा मरवाकर छुडवा दी गई थी । और धीरे धीरे इमानदारी के वह सारे एलान बेमानी से लगने लगे जो 2014 में नैतिकता का पाठ पढाकर खुद को आसमान पर बैठाने से नहीं चुके थे । क्योकि राफेल की लूट नये सिरे से सामने ये कहते हुये आई कि डिसाल्ट कंपनी जेनरेशन टू राफेल की किमत जेनेरेशन थ्री से कम में फ्रांस सरकार को जब बेच रही है तो फिर भारत ज्यादा किमत में जेनरेशन थरी राफेल कैसे करीद रहा है । इसीलिये 2019 में बजट को लेकर संसद का आखरी भाषण जिसे देश सुनना चाहेगा वह इकनामी को पटरी पर लाने वाला होगा या सत्ता की गाडी पटरी पर दौडती रहे इसके लिये इक्नामी को पटरी से उतार देगा । और वह भाषण कौन देगा ये अभी सस्पेंस है ? जेटली अगर न्यूयार्क से नहीं लौटते तो वित्त राज्य मंत्री शिवप्रताप शुक्ला या पी राधाकृष्णन में इतनी ताकत नहीं कि वह भाषण से सियासत साध लें । फिर सिर्फ भाषण के लिये पियूष गोयल वित्त मंत्री प्रभारी हो जायेगें ऐसा संभव नहीं है । तो क्या बजट प्रधानमंत्री मोदी ही रखेगें । ये सवाल तो है ?     

Tuesday, January 15, 2019

दिल्ली की बर्फिली हवा में स्वंयसेवक का कहवा....रास्ते पर चलते चलते साहेब ने खुद को ही रास्ता मान लिया तो भटका कौन ?


जिस रास्ते निकले थे उसी रास्ते ने रास्ता बदल लिया .....अब क्या करेगें ? ये सवाल किसी स्वयसेवक के मुख से किसी दूसरे स्वयसेवक को लेकर निकलेगा ये संघ में शायद ही किसी ने सोच हो । लेकिन दिल्ली की बर्फिली हवा के बीच गर्म गर्म कहवा की चुस्की के बीच स्वयसेवक की इस सोच ने कई सवालो को भी खडा किया और प्रोफेसर साहेब क साथ साथ मुझे भी हतप्रभ कर दिया ।  बिना लाग लपेट मैने भी सवाल दागा..स्वयसेवक से प्रचारक और प्रचारक से राजनीतिक कार्यकत्ता । फिर राजनीतिक कार्यकत्ता से सीएम होते हुये पीएम की यात्रा .... ये तो अटल बिहार वाजपेयी जी को भी नसीब नहीं हुआ । लेकिन जब रास्ता बदलने  का जिक्र आप कर रहे है तो इसका मतलब क्या है । मतलब क्या बिग़डते हालात को समझ कर ही महोदय कह रहे होगें । प्रोफेसर की टिप्पणी को लगभग काटते हुये स्वयसेवक महोदय गुस्से में बोल पडे । आपको पता है ना कहवा कहां का पेय है । कश्मीर का । जी कश्मीर का और वहां राज्यपाल के भरोसे सत्ता चला रह है । जवानो का जि्क्र आते ही पंजाब याद आता है ना वहां काग्रेस की सत्ता है । हरियाणा किस दिन फिसल जाये कोई नहीं जानता । हिमाचल प्रदेश में सीएम के पोस्टर पन्ना प्रमुख के सम्मेलन के लिये आज भी समूचे राज्य में चस्पां है । यानी कद सीएम का कहां पहुंचा दिया गया । यूपी के सीएम की गवर्नेंस समूचे यूपी में कहीं नजर आयेगी नहीं । अब तो 12 फरवरी से सुप्रीम कोर्ट में यूपी के इनकाउंटर की फाइल भी खुलने वाली है । पर यूपी के सीएम संघ/बीजेपी के नायाब पोस्टर ब्याय है ।यानी राम मंदिर बनायेगें नहीं लेकिन राम नाम का जाप करने वाले योगी को चेहरा बनायेगें ।बिहार में नीतिश कुमारके चेहरे के पीछे खडे है । ओडिसा और बंगाल में जीत नहीं सकते । झारखंड में रधुवर दास के पीछे मोदी-शाह ना हो तो अगले दिन ही इनकी छुट्ी हो जाये । अपने बूते अपनी सीट भी अब जीत पाना इनके लिये मुश्किल हो चला है ।  राजस्थान, मद्यप्रदेश, छत्तिसगढ अपनी ही अगुवाई में गंवा भी दिया । और जो पहचान यहा के बीजेपी कद्दावरो की थी उसे मिट्टी में मिलाकर उस संगठन के काम में लगा दिया जिस संगठन का स भी शाह है और न भी शाह । यानी राज्यो में भी विपक्ष के नेता के तौर पर शिवराज, वसुंधरा या रमन सिंह को कोई जगब नहीं दी बल्कि सभी को दिल्ली लाकर अपनी चपेट में ले लिया तो दूसरी कतार के नेता यहा कैसे खडे होगें जब दांव पर खुद अपने ही सागठनिक कार्य हो चले हो ।
यानी आप कह रहे है कि अमित शाह ने जान बूझकर तीनो राज्यो के पूर्व सीएम को दिल्ली बुला लिया । अरे छोडिये प्रोफेसर साहेब ...इतना तो आप भी समझ रहे है कि जब कोई कमजोर या फेल होता है तो अपने से ज्यादा कमजोर या फेल लोगो को ही तरजीह देता है । खैर मै तो आपको देश घुमा रहा हूं । महाराष्ट्र में शिवसेना बगैर सत्ता मिल नहीं सकती । गुजरात में मार्जिन पर सत्ता संभाले हुये है और कर्नाटक में मार्जिन से सत्ता से बाहर है । तमिलनाडु या केरल में सत्ता में आने की सोच नहीं सकते । नार्थ इस्ट में कब्जा जरुर है लेकिन उसका असर ना तो दिल्ली में है ना ही उनके अपने प्रदेश में । तो कौन सी सत्ता की कौन सी लकीर ये खिंच रहे है । क्या आप ही बता सकते है । अब सवाल की लकीर  स्वयसेवक महोदय ने ही खिंची और प्रोफेसर साहेब भी बिना देर किये बोल पडे । ....आपने ठीक कहां....लेकिन हम तो उस लकीर की बात को समझना चाह रहे है जो दिल्ली में दिल्ली के जरीये ही नजर आ रही है ।
तो आप बात सीबीआई की कर रहे है ।
हा हा सिर्फ सीबीआई की नहीं । लेकिन प्रचारक से पीएम बने संघ के स्वयसेवक का सच किसी स्वयसेवक से सुनने की बात ही कुछ और है । ...
और कहवा लिजिये....दिल्ली में कश्मीर इंपोरियम से मंगांये है ।
पी लेगें ...पर आप बात टालिये मत..सही सही बताइये...भीतर चल क्या रहा है या सोचा क्या जा रहा है ....
प्रोफेसर साहेब से इस तरह सीधे सवाल .... वह भी कटघरे में खडा करते हुये सवाल की बात तो मैने भी नहीं सोची थी..लेकिन ये हो सकता है कि कहवा की गर्माहट माहौल को गर्म किये जा रही हो....तो स्वयसेवक महोदय भी उसी अंदाज में बोले ... क्या सुनना चाहता है प्रोफेसर साहेब....राजनीति या गवर्नेंस...
दोनो
तो पहले गवर्नेंस ही समझ लें .... राफेल की फाइल पर 2015-16 के बीच कोई नोटिंग आपको नहीं मिलगी । फिर एकाएक दो देसो के प्रमुखो के बीच राफेल समझौता । क्या समझे...
क्या समझे ...यानी
प्रोफेसर साहेब...ना तो कही रक्षा मंत्री है ना ही रक्षा मंत्रालय के नौकरशाह....तो हुआ क्या या आगे होगा क्या ...
फिर सीबीआई और सीवीसी के खेल ने आपको क्या समझाया
और उस बीच सुप्रीम कोर्ट ने आपको कौन सा पाठ पढाया ।
आप ही बताइये ...हम तो समझे नहीं...
अरे वाजपेयी जी आप सब समझते है ....बसआप चाहते है कि मै ही सब कह दूं ... तो समझने की कोशिश किजिये नौकरशाही कोई काम कर नहीं रही । जस्टिस सीकरी के हां-ना ने तमाम जजो को भी संदेश दे दिया....अब कोई बडा फैसला ना लें या कहे कोई समझौता ना करं ....या फिर सीबीआई की तरह सुप्रीम कोर्ट को भी सिर्फ संस्थान मान कर खत्म ना करें ।
मतलब.....अब प्रोफेसर साहेब बोले ...
मतलब क्या सबसेंसटियल इविडेन्स समझते है प्रोफेसर साहेब...
हा क्यो नहीं
तो सुप्रीम कोर्ट के राफेल से लेकर आलोक वर्मा और  सीकरी से लेकर आस्थाना या नागेश्वर राव को लेकर जो हुआ उसका सबसेंसटियल इविडेन्स क्या बताने की जरुरत है कि लोगो ने क्या समझा ।
दरअसल दिल्ली में सत्ताधारी जो समझे ....लकिन इस सच को तो आप भी गांठ बांध लिजिये कि शहरी मिजाज चाहे सरल हो लकिन ग्रमिण भारत में जिन्दगी जीने की जटिलता तमाम जटिल सियासत को बाखूबी समझती है । इसीलिये सेवक की सियासत की गांठे हर गांव की हर चौपाल पर साफ समझी जा सकती है .... और असल ललक उसी वोट बैक को लेकर है । तो आप किसी को मूर्ख बना नहीं सकते ।  और इस गवर्नेंस की राजनीति को समझना है तो यूपी और महाराष्ट्र को समझ लिजिये...यूपी में चुनाव से पहले काम कर रहे थे केशव प्रसाद मौर्य ...जिसने अगडो-व्यापारी की पार्टी के लिये दलित-पिछडो के बीच जमीन बनायी । लेकिन सत्ता मिली तो सीएम हो गये उंची जाति के योगी..जो राम मंदिर के पोस्टर ब्याय थे । और जातिय समीकरण में फंसे मौर्य को सीएम देखने वाला तबका अब किधर जायगा .... जह उसे ताकत मिले... और मौर्य का पद सिर्फ सुविधाओ की पोटली या इनाम में मिलने वाला डिप्टी सीएम का ऐसा पद था जिसके सामानातंर राजनीतिक जमीन पर काम किये बिना दिनेश शर्मा भी बैठ गये...क्योकि उनकी यारी गुजरात के जमाने से साहेब के साथ की थी । तो यूपी में अब सपा-बसपा के मिलने के बाद बीजेपी दोहरे संकट मेंजा फंसी है कि वह खुद को अगडी जाती का माने ये सोशल इंजिनियरिंग का कोई नया प्रयोग करें .....नये प्रयोग के लिये उसके पास कोई आयेगा नहीं । और बीजेपी के भीतर ही ये सवाल तबाही मचाये हुये है कि बीजपी की सियासी जमीन यूपी में है कौन सी । और बीजेपी गठबंधन से लडे या काग्रेस से । यानी राहुल बनाम मोदी की चाह यूपी में चलेगी नहं क्यो वहा तो मोदी बनाम मायावती या मोदी बनाम अखिलेश हो जायेगा । इसी तरह बिहार में मोदी बनाम तेजस्वी हो जायेगा । और महाराष्ट्र में पहले मोदी बनाम उद्दव ठाकरे से निजात मिले तो मोदी बनाम पवार वाले हालात सामने आ खडे होगें ।
तो क्या स्वयसेवक निराश हो चले है .....
अरे वाजपेयी जी .... स्वयसेवक निराश नहीं होता ....वह तो नये रास्ते बनाता है ।
तो क्या संघ का रास्ता अपने ही स्वयसेवक को छोड चला है .... जी नहीं स्वयसेवक अपने रास्ते पर है । फिर रास्ता तो अपनी जगह है...भटकी सत्ता है जिसे एहसास ही नहीं कि रास्ता ही उसका साथ छोड रहा है और संघ हमेशा रास्ते पर चलता है...
तो क्या प्रचारक भटक कर खुद को ही रास्ता मान बैठा है....
हा हा .....साहेब ही रास्ता है...क्या बात है....कभी इन्दिरा गांधी ने भी खुद को ही इंडिया माना था....और दो दिन पहले रामलीला मैदान में शाह ... साहेब को दुनिया का सबसे लोकप्रिय शख्स बता रहे थे .....भटके कई है । या कहे मात से पहले सत्ता का भटकना फितरत है ..क्योकि सत्ता का सुरुर तो यही है । और संघ कभी सत्ताधारी नहीं होता वह तो सत्ता को गढता है । तो भटका कौन.....   

Sunday, January 13, 2019

जब देश की नीतिया ही वोटर को लुभाने के लिये बनने लगे तो संभल जाईये ....



जैसे जैसे लोकसभा चुनाव की तारिख नजदीक आती जा रही है वैसे वैसे बिसात पर चली जा रही हर चालो से तस्वीर साफ हो होती जा रही है । मोदी सत्ता की हर पालेसी अब बिखरे या कहे रुठे वोटरो को साथ लेने के लिये है । तो विपक्ष अब उस गणित के आसरे वोटरो को सीधा संकेत दे रहा है जहा 2014 की गलतीऔर 2018 तक मोदी की असफलता को महागठंबंधन के धागे में पिरो दिया जाये । गरीब अगडो के लिय दस फिसदी आरक्षण के बाद देशभर में नीतियो के जरीये वोटरो को लुभाने के लिय तीन कदम उठाने की तैयारी बजट सत्र के वक्त मोदी सत्ता ने कर ली है । चूकि बजट अंतरिम पेश होगा तो बडा खेल नीतियो को लेकर होगा। पहला निर्णय, तेलगना के केसीआर की तर्ज पर चा चार हजार रुपये किसान मजदूरो को बांटने की दिशा में जायेगें । क्योकि मोदी सत्ता को लग चुका है कि जब रुपयो को पालेसी के तहत केसीआर बांट कर चुनाव जीत सकते है तो फिर वह सफल क्यो नहीं हो सकते । और इसी को ध्यान में रखकर रिजर्व बैक से तीन लाखकरोड रुपये निकाले जा रहे है । दूसरा निर्णय , काग्रेस जब राज्य में बेरोजगारी भत्ता बांटने की बात कर बेरोजगार युवाओ को लुभा सकती है तो फिर देश में रोजगार ना होने के सिर पर फुटते ठिकरे के बीच समूचे देश में ही रोजगार भत्ते का एलान कर दिया जाये । तीसरा, पेंशन योजना के पुराने चेहरे को ही फिर स जिन्दा कर दिया जाये । जिससे साठ बरस पार व्यक्ति को पेंश न का लाभ मिल सके । जाहिर है तीनो कदम उस राहत को उभारते है जो गवर्नेंस या कामकाज से नीतियो के आसरे देश को मिल ना सका । यानी इकनामी डगमगायी या फिर एलानो की फेरहिस्त ही देश में इतनी लंबी हो गई कि चुनावी महीनो के बीच से गुजरती सत्ता के पास सिवाय सुविधा की पोटली खोलने के अलावे कोई दूसरा आधार ही नहीं बचा । इस कडी में एक फैसला इनकमटैक्स में रियायत का भी हो सकता है । क्योकि सु्ब्रमण्यम स्वामी की थ्योरी तो इनमटैक्स को ही खत्म करने  कीरही है । लेकिन मोदी सत्ता अभी इतनी बडी लकीर तो नहीं खिंचेगी लेकिन पांच लाख तक की आय़ पर टैक्स खत्म करने  का एलान करने से परहेज भी नहीं करेगी । लेकिन इन एलानो क साथ जो सबस बडा सवाल मोदी सत्ता को परेशान कर रहा ह वो है कि एलानो का असर सत्ता बरकरार रखेगा या फिर जाती हुई सत्ता में सत्ता के लिय एलान की महत्ता सिर्फ एलान भर है क्योकि साठ दिनो में इन एलानो को लागू कैसे किया सकता है ये असंभव है ?
तो दूसरी तरफ विपक्ष की बिसात है । जिसमें सबसे बडा दांव सपा-बसपा गठबंधन का चला जा चुका है । और इस दांव ने तीन संकेत साफ तौर पर मोदी सत्ता को दे दिये है । पहला, बीजेपी यूपी में चुनावी जीत का दांव पन्ना प्रमख या बूथ मैनेजमेंट से खेलगी या फिर टिकटो के वितरण से । दूसरा , टिकट वितरण सपा-बसपा गठबंधन के जातिय समीकरण को ध्यान में रखकर बांटेगी या फिर ओबीसी-अगडी जाति के अपने पारंपरिक वोटर को ध्यान में रख कर करेगी । तीसरा, जब 24बरस पहले नारा लगा था , मिले मुलायम काशीराम , हवा में उड गये जय श्री राम । तो 24 बरस बाद अखिलेश - मायावती के मिलने के बाद राम मंदि के अलावे कौन सा मुद्दा है जो 2014 के मैन आफ द मैच रहे अमित शाह को महज दस सीट भी दिलवा दें । और इन्ही तीन संकेतो के आसरे हालातो को परखे तो मोदी-शाह की जोडी के सामने काग्रेस की रणनीति बीजेपी के राजनीतिक भविष्य पर ग्रहण लगाने को तैयार है । क्योकि सपा-बसपा के उम्मीदवारो की फेरहिस्त जातिय समीकरण पर टिकेगी।और उनके सामानातंर यूपी में अगर बीजेपी सिर्फ सवर्णो पर दाव खेलती है । तो पहले से ही हार मान लेने वाली स्थिति होगी । तोदूसरी तरफ काग्रेस ज्यादा से ज्यादा सर्वोणो को टिकट देने की स्थितिमें होगी । यानी बीजेपी का संकट ये है कि अगर दलित वोट बैक मेंगै जायव मायावती के पास नहीं जाता है तो फिर काग्रेस और बीजेपी में वह बंटेगा । इसी तरह ओबीसी का संकट ये है क मोदी सत्ता के दौर में नोटबंदी और जीएसटी ने बीजेपी से मोहभंग कर दिया है । तो ओबीसी वोट भी बंटेगा । और ब्रहमण,राजपूत या बनिया तबके में बीजेपी को लेकर ये मैसेज लगाातर बढ रही है कि वह सिर्फ जीत के लिये पारंपरिक वो बैक के तौर पर इनका इस्तेमाल करती है । और तीन तलाक के मुद्दे पर ही मुस्लिम वोट बैक में सेंध लगाने की जो सोच बीजेपी ने पैदा की है और उसे अपने अनुकुल हालात लग रह है उसके समानातंर  रोजगार या पेट की भूख का सवाल समूचे समाज के भीतर है । तो उसकी काट बीजेपी योगी आदित्यनाथ के जरीये भी पैदा कर नहीं पायी । बुनकर हो या पसंमादा समाज । हालात जब समूचे तबके के बुरे है और बीजेपी ने खुले एलान के साथ मोदी-शाह की उस राजनीति पर खामोशी बरती जो मुस्लिम को अपना वोट बैंक मानने से ही इंकार कर रही थी । यानी चाहे अनचाहे मोदी-शाह की राजनीतिक समझ ने क्षत्रपो के सामने सारे बैर भूलाकर खुद को मोदी सत्ता के खिलाफ एकजूट करने की सोच पैदा की । तो मुस्लिम-दलित -ओबीसी और सर्वणो में भी रणनीतिक तौर पर खुद को तैयार रहने  भी संकेत दे दिये । यानी 2019 की लोकसभा चुनाव की तरफ बढते कदम देश को उस न्यूनतम हालातो की तरफ खिंच कर ले जा रहे है जहा चुनाव में जीत के लिये ही नीतिया बन रही है । चुनावी जीत के लिये आरक्षण और जातिय बंधनो में ही देश का विकास देखा जा रहा है । चुनावी जीत की जटिलताओ को ही जिन्दगी की जटिलताओ से जोडा जा रहा है । यानी जो सवाल 2014 में थे वह कहीं ज्यादा बिगडी अवसथा में 2019 में सामने आ खडे हुये है ।

Friday, January 11, 2019

आरक्षण के नाम पर बेवकूफ ना बनाये.....खाली पडे पदो पर नियुक्ति करें ....




रोजगार ना होने का संकट या बेरोजगारी की त्रासदी से जुझते देश का असल संकट ये भी है केन्द्र और राज्य सरकारों ने स्वीकृत पदो पर भी नियुक्ति नहीं की हैं। एक जानकारी के मुताबिक करीब एक करोड़ से ज्यादा पद देश में खाली पड़े हैं। जी ये सरकारी पद हैं। जो देश के अलग अलग विभागों से जुड़े हैं ।  1साल पहले ही जब राज्यसभा में सवाल उठा तो कैबिनेट राज्य मंत्री जितेन्द्र प्रसाद ने जवाब दिया। केन्द्र सरकार के कुल 4,20,547 पद खाली पड़े हैं। और महत्वपूर्ण ये भी है केन्द्र के जिन विभागो में पद खाली पड़े हैं, उनमें 55,000 पद सेना से जुड़े हैं। जिसमें करीब 10 हजार पद आफिसर्स कैटेगरी के हैं। इसी तरह सीबीआई में 22 फीसदी पद खाली हैं। तो प्रत्यर्पण विभाग यानी ईडी में 64 फीसदी पद खाली हैं। इतना ही नहीं शिक्षा और स्वास्थ्य सरीखे आम लोगो की जरुरतों से जुडे विभागों में 20 ले 50 फीसदी तक पद खाली हैं। तो क्या सरकार पद खाली इसलिये रखे हुये हैं कि काबिल लोग नहीं मिल रहे। या फिर वेतन देने की दिक्कत है । या फिर नियुक्ति का सिस्टम फेल है । हो जो भी लेकिन जब सवाल रोजगार ना होने का देश में उठ रहा है तो केन्द्र सरकार ही नहीं बल्कि राज्य सरकारों के तहत आने वाले लाखों पद खाली पडे हैं। आलम ये है कि देश भर में 10 लाख प्राइमरी-अपर प्राइमरी स्कूल में टीचर के पद खाली पड़े हैं। 5,49,025 पद पुलिस विभाग में खाली पडे हैं। और जिस राज्य में कानून व्यवस्था सबसे चौपट है यानी यूपी। वहां पर आधे से ज्यादा पुलिस के पद खाली पड़े हैं। यूपी में 3,63,000 पुलिस के स्वीकृत पदो में से 1,82,000 पद खाली पड़े हैं। जाहिर है सरकारों के पास खाली पदो पर नियुक्ति करने का कोई सिस्टम ही नहीं है। इसीलिये मुश्किल इतनी भर नहीं कि देश में एजुकेशन के प्रीमियर इंस्टीट्यूशन तक में पद खाली पड़े हैं। मसलन 1,22,000 पद इंजीनियरिंग कालेजो में खाली पडे है। 6,000 पद आईआईटी, आईआईएम और एनआईटी में खाली पड़े हैं। 

6,000 पद देश के 47 सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी में खाली पड़े हैं। यानी कितना ध्यान सरकारों को शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर हो सकता है, ये इससे भी समझा जा सकता है कि दुनिया में भारत अपनी तरह का अकेला देश है जहा स्कूल-कालेजों से लेकर अस्पतालो तक में स्वीकृत पद आधे से ज्यादा खाली पड़े है । आलम ये है कि 63,000 पद देश के 363 राज्य विश्वविघालय में खाली पडे हैं। 2 लाख से ज्यादा पद देश के 36 हजार सरकारी अस्पतालों में खाली पडे हैं। बुधवार को ही यूपी के स्वास्थ्य मंत्री सिद्दार्थ नाथ सिंह ने माना कि यूपी के सरकारी अस्पतालों में 7328 खाली पड़े पदो में से 2 हजार पदों पर जल्द भर्ती करेंगे। लेकिन खाली पदो से आगे की गंभीरता तो इस सच के साथ जुडी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि कम से कम एक हजार मरीज पर एक डाक्टर होना ही चाहिये । लेकिन भारत में 1560 मरीज पर एक डाक्टर है । इस लिहाज से 5 लाख डाक्टर तो देश में तुरंत चाहिये । लेकिन इस दिशा में सरकारे जाये तब तो बात ही अलग है । पहली प्रथमिकता तो यही है कि जो पद स्वीकृत है । इनको ही भर लिया जाये । अन्यथा समझना ये भी होगा कि स्वास्थय व कल्याण मंत्रालय का ही कहना है कि फिलहाल देश में 3500 मनोचिकित्सक हैं जबकि 11,500 मनोचिकित्सक और चाहिये ।

और जब सेना के लिये जब सरकार देश में ही हथियार बनाने के लिये नीतियां बना रही है और विदेशी निवेश के लिये हथियार सेक्टर भी खोल रही है तो सच ये भी है कि आर्डिनेंस फैक्ट्री में 14 फीसदी टैक्निकल पद तो 44 फिसदी नॉन-टेक्नीकल पद खाली पडे हैं।

यानी सवाल ये नहीं है कि रोजगार पैदा होंगे कैसे । सवाल तो ये है कि जिन जगहो पर पहले से पद स्वीकृत हैं, सरकार उन्हीं पदों को भरने की स्थिति में क्यों नहीं है। ये हालात देश के लिये खतरे की घंटी इसलिये है क्योंकि एक तरफ खाली पदों को भरने की स्थिति में सरकार नहीं है तो दूसरी तरफ बेरोजगारी का आलम ये है कि यूनाइटेड नेशन की रिपोर्ट कहती है कि 2016 में भारत में 1 करोड 77 लाख बेरोजगार थे । जो 2017 में एक करोड 78 लाख हो चुके हैं और 2018 में 2 करोड 87 लाख पार कर गये। लेकिन भारत सरकार की सांख्यिकी मंत्रालय की ही रिपोर्ट को परखे तो देश में 15 से 29 बरस के युवाओ करी तादाद 33,33,65,000 है । और ओईसीडी यानी आरगनाइजेशन फार इक्नामिक को-ओपरेशन एंड डेवलेपंमेंट की रिपोरट कहती है कि इन युवा तादाद के तीस पिसदी ने तो किसी नौकरी को कर रहे है ना ही पढाई कर रहे है । यानी करीब देश के 10 करोड युवा मुफलिसी में है । जो हालात किसी भी देश के लिये विस्पोटक है । लेकिन जब शिक्षा के क्षेत्र में भी केन्द्र और राज्य सरकारे खाली पद को भर नहीं रही है तो समझना ये भी होगा कि देश में 18 से 23 बरस के युवाओं की तादाद 14 करोड से ज्यादा है । इसमें 3,42,11,000 छात्र कालेजों में पढ़ाई कर रहे हैं। और ये सभी ये देख समझ रहे है कि दुनिया की बेहतरीन यूनिवर्सिटी की कतार में भारतीय विश्वविधालय पिछड चुके है । रोजगार ना पाने के हालात ये है कि 80 फीसदी इंजीनियर और 90 फिसदी मैनेजमेंट ग्रेजुएट नौकरी लायक नही है । आईटी सेक्टर में रोजगार की मंदी के साथ आटोमेशन के बाद बेरोजगारी की स्थिति से छात्र डरे हुये हैं। यानी कहीं ना कहीं छात्रों के सामने ये संकेट तो है कि युवा भारत के सपने राजनीति की उसी चौखट पर दम तोड रहे है जो राजनीति भारत के युवा होने पर गर्व कर रही है । और एक करोड़ खाली सरकारी पदों को भरने का कोई सिस्टम या राजनीतिक जिम्मेदारी किसी सत्ता ने अपने ऊपर ली नहीं है।

Thursday, January 10, 2019

संसद में तार तार होते संविधान की फिक्र किसे है....




मोदी सत्ता के दस फिसदी आरक्षण ने दसियो सवाल खडे कर दिये । कुछ को दिखायी दे रहा है कि बीजेपी-संघ का पिछडी जातियो के खिलाफ अगडी जातियो के गोलबंदी का तरीका है । तो कुछ मान रहे है कि  जातिय आरक्षण के पक्ष में तो कभी बीजेपी रही ही नहीं तो संघ की पाठशाला जो हमेशा से आर्थिक तौर पर कमजोर तबके को आरक्षण देने के पक्ष में थी उसका श्रीगणेश हो गया । तो किसी को लग रहा है कि तीन राज्यो के चुनाव में बीजेपी के दलित प्रेम से जो अगडे रुठ गये थे उन्हे मनाने के लिये आरक्षण का पांसा फेंक दिया गया । तो किसी को लग रहा है आंबेडकर की थ्योरी को ही बीजेपी ने पलट दिया ।  जो आरक्षण के व्यवस्था इस सोच के साथ कर गये थे कि हाशिये पर पडे कमजोर तबके को मुख्यधारा से जोडने के लिये आरक्षण जरुरी है । तो कोई मान रहा है कि शुद्द राजनीतिक लाभ का पांसा बीजेपी ने अगडो के आरक्षण के जरीये फेंका है । तो किसी को लग रहा है बीजेपी को अपने ही आरक्षण पांसे से ना खुदा मिलेगा ना विलासे सनम । और कोई मान रहा है कि बीजेपी का बंटाधार तय है क्योकि आरक्षण जब सीधे सीधे नौकरी से जोड दिया गया है तो फिर नौकरी के लिये बंद रास्तो को बीजेपी कैसे खोलेगी । यानी युवा आक्रोष में आरक्षण घी का काम करेगा । और कोई तो इतिहास के पन्नो को पलट कर साफ कह रहा है जब वीपी सिंह को मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने वाले हालात में भी सत्ता नहीं मिली तो ओबीसी मोदी की हथेली पर क्या रेगेंगा । इन तमाम लकीरो के सामानांतर नौकरी से ज्यादा राजनीतिक सत्ता के लिये कैसे आरक्षण लाया जा रहा है और बिछी बिसात पर कैसी कैसी चाले चली जा रही है ये भी कम दिलचस्प नहीं है । क्योकि आरक्षण का समर्थन करती काग्रेस के पक्ष में जो दो दल खुल कर साथ है उनकी पहचान ही जातिय आरक्षण से जुडी रही है पर उन्ही दो दल [ आरजेडी और डीएमके  ]  ने मोदी सत्ता के आरक्षण का विरोध किया । फिर जिस तरह आठवले और पासवान मोदी के गुणगान में मायावती को याद करते रहे और मायावती मोदी सत्ता के खिलाफ लकीरो को गढा करती रही उसने अभी से संकेत देने शुरु कर दिये है कि इस बार का लोकसभा चुनाव वोटरो को भरमाने के लिये ऐसी बिसात बिछाने पर उतारु है जिसमें पार्टियो के भीतर उम्मीदवार दर उम्मीदवार का रुख अलग अलग होगा ।
तो क्या देश का सच आरक्षण में छिपे नौकरियो के लाभ का है । पर सवाल तो इसपर भी उठ चुके है । क्योकि एक तरफ नौकरिया हैा नहीं और दूसरी तरफ मोदी सत्ता के आरक्षण ने अगडे तबके में भी दरार कुछ ऐसी डाल दी कि जिसने दस फिसदी आरक्षण का लाभ उठाया वह भविष्य में फंस जायेगा । क्योकि 10 फिसदी आरक्षण के दाय.रे में आने का मतलब है सामन्य कोटे के 40 फिसदी से अलग हो जाना । तो 10 फिसदी आरक्षण का लाभ भविष्य में दस फिसदी के दायरे  में ही सिमटा देगा । पर मोदी सत्ता के आरक्षण के फार्मूले ने पहली बार देश के उस सच को भी उजागर कर दिया है जिसे अक्सर सत्ता छुपा लेती थी । यानी देश में जो रोजगार है उसे भी क्यो भर पाने की स्थिति में कोई भी सत्ता क्यो नहीं आ पाती है ये सवाल इससे पहले गवर्नेस की काबिलियत पर सवाल उठाती थी । लेकिन इस बार आरक्षण कैसे एक खुला सियासी छल है ये भी खुले तौर पर ही उभरा है । यानी सवाल सिर्फ इतना भर नहीं है कि देश की कमजोर होती अर्थवयवस्था या विकास दर के बीच नौकरिया पैदा कहा से होगी । बल्कि नया सवाल तो भी है कि सरकार के खजाने में इतनी पूंजी ही नहीं है कि वह खाली पडे पदो को भर कर उन्हे वेटन तक देने की स्थिति में आ जाय़े । यूं ये अलग मसला है कि सत्ता उसी खजाने से अपनी विलासिता में कोई कसर छोडती नहीं है ।
तो ऐसे में आखरी सवाल उन युवाओ का है जो पाई पाई जोड कर सरकारी नौकरियो के फार्म भरने और लिखित परिक्षा दे रहे है । और इसके बाद भी वही सुवा भारत गुस्से में हो जिस युवा भारत को अपना वोटर बनाने के लिये वही सत्ता लालालियत है जो पूरे सिस्टम को हडप कर आरक्षण को ही सिस्टम बनाने तक के हालात बनाने की दिसा में बढ चुकी है । यानी जिन्दगी जीने की जद्दोजहद में राजनीतिक सत्ता से करीब आये बगैर कोई काम हो नहीं सकता । और राजनीतिक सत्ता खुद को सत्ता में बनाये रखने के लिये बेरोजगार युवाओ को राजनीतिक कार्यकर्ता बनाकर रोजगार देने से नहीं हिचक रही है । बीजेपी के दस करोड कार्यकत्ताओ की फौज में चार करोड युवा है । जिसके लिये राजनीतिक दल से जुडना ही रोजगार है । राजनीतिक सत्ता की दौड में लगे देश भर में हजारो नेताओ के साथ देश के सैकडो पढे-लिखे नौजवान इसलिये जुड चुके है क्योकि नेताओ की प्रोफाइल वह शानदार तरीके से बना सकते है । और नेता को उसके क्षेत्र से रुबरु कराकर नेता को कहा क्या कहना है इसे भी पढे लिखे युवा बताते है , और सोशल मीडिया पर नेता के लिये शब्दो को न्यौछावर यही पढे लिके नौजवान करते है । क्योकि नौकरी तो सत्ता ने अपनी विलासिता तले हडप लिया और सत्ता की विलासिता बरकरार रहे इसके लिये पढे लिखे बेरोजगारो ने इन्ही नेताओ के दरवाजे पर नौकरी कर ली । शर्मिदा होने की जरुरत किसी को नहीं है क्योकि बीते चार बरस में दिल्ली में सात सौ से ज्यादा पत्रकार भी किसी नेता , किसी सांसद , किसी विधायक , किसी मंत्री या फिर पीएमओ में ही बेरोजगारी के डर तले उन्ही की तिमारदारी करने को ही नौकरी मान चुके है । यानी सवाल ये नहीं है कि आरक्षण का एलान किया ही क्यो गया जब कुछ लाभ नहीं है बल्कि सवाल तो अब ये है कि वह कौन सा बडा एलान आने वाले दो महीने में होने वाला है जो भारत का तकदीर बदलने के लिये होगा । और उससे डूबती सत्ता संभल जायेगी । क्या ये संभव है । अगर है तो इंतजार किजिये और अगर संभव नहीं है तो फिर सत्ता को संविधान मान लिजिये जिसका हर शब्द अब संसद में ही तार तार होता है ।   

Tuesday, January 8, 2019

स्वयसेवक की चाय का तूफान :.....तो क्या फरवरी में बीजेपी के भीतर खुली बगावत हो जायेगी ?



ना ना फरवरी में टूटेगी नहीं लेकिन बिखर जायेगी । बिखर जायेगी से मतलब....मतलब यही कि कोई कल तक जो कहता था वह पत्थर की लकीर मान ली जाती थी । पर अब वही जो कहता है उसे कागज पर खिंची गई लकीर के तौर पर भी कोई मान नहीं रहा है । तो होगा क्या ? कुछ नहीं कहने वाला कहता रहेगा क्योकि कहना उसकी ताकत है । और खारिज करने वाला भविष्य के ताने बाने को बुनना शुरु करेगा । जिसमें कहने वाला कोई मायने रखेगा ही नहीं । तब तो सिरफुटव्वल शुरु हो जायेगा । टकराव कह सकते है । और इसे रोकेगा कौन सा बडा निर्णय ये सबसे बडे नेता पर ही जा टिका है ।
स्वयंसेवक महोदय की ऐसी टिप्पणी गले से नीचे उतर नहीं रही थी क्योकि भविष्य की बीजेपी और 2019 के चुनाव की तरफ बढते कदम के मद्देनजर मोदी सत्ता के एक के बाद एक निर्णय को लेकर बात शुरु हुई थी । दिल्ली में बारिश के बीच बढी ठंड के एहसास में गर्माती राजनीति का सुकुन पाने के लिये स्वयसेवक महोदय के घर पर जुटान हुआ था । प्रोफेसर साहेब तो जिस तरह एलान कर चुके थे कि मोदी अब इतनी गलतियां करेगें कि बीजेपी के भीतर से ही उफान फरवरी में शुरु हो जायेगा । पर उसपर मलहम लगाते स्वयसेवक महोदय पहली बार किसी मंझे हुये राजनीतिज्ञ की तर्ज पर समझा रहे थे कि भारत की राजनीति को किसी ने समझा ही नहीं है । आपको लग सकता है कि 2014 में काग्रेस ने खुद ही सत्ता मोदी के हाथो में सौप दी । क्योकि एक के बाद दूसरी गलती कैसे 2012-13 में काग्रेस कर रही थी इसके लिये इतिहास के पन्नो को पलटने की जरुरत नहीं है । सिर्फ दिमाग पर जोर डाल कर सबकुछ याद कर लेना है । और अब ..मेरे ये कहते ही स्वयसेवक महोदय किसी इमानदार व्यापारी की तरह बोल पडे ...अभी क्या । हमलोग तो कोई कर्ज रखते नहीं है । तो मोदी खुद ही काग्रेस को सत्ता देने पर उतारु है । यानी प्रोफेसर साहेब गलत नहीं कह रहे है कि मोदी अभी और गलती करेगें । जी, ठीक कहा आपने । लेकिन इसमें थोडाी सुधार करना होगा । क्योकि मोदी की साख जो 2017 तक थी , उस दौर में यही बाते इसी तरह कही जाती तो आप इसे गलती नहीं मानते ।
अब प्रोफेसर साहेब ही बोल पडे ...मतलब ।
मतलब यही कि 2014 से 2017 का काल भारत के इतिहास में मोदी काल के तौर पर जाना जायेगा । पर उसके बाद 2018-19 संक्रमण काल है । जहा मोदी है ही नहीं । बल्कि मोदी विरोध के बोल और निर्णय थिसीस के उलट एंटी थीसीस रख रहे है । और ये तो होता ही या होना ही है ।
तब तो बीजेपी के भीतर भी एंटी थीसीस की थ्योरी होगी । वाह वाजपेयी जी । आपने नब्ज पर अंगुली  रख दी । मेरे कहने से स्वयसेवक महोदय जिस तरह उचक कर बोले उसमें चाय की चुस्की या उसकी गर्माहट तो दूर , पहली बार मैने तमाम चर्चाओ के दौर में महसूस किया कि डूबते जहाज में अब संघ भी सवार होने से कतरा रहा है । क्योकि जिस तरह का जवाब स्वयसेवक महोदय ने इसके बाद दिया वह खतरे की घंटी से ज्यादा आस्तितव के संघर्ष का प्रतिक था ।
आपको क्या लगता है राजनाथ सिंह संकल्प पत्र तैयार करेगें । या फिर गडकरी सामाजिक संगठनो को जोडने के लिये निकलेगें । या जिन भी जमीनी नेताओ को 2019 के चुनाव के मद्देनजर जो काम सौपा गया है वह उस काम में जुट जायेगें । या फिर ये नेता खुश होगें कि उन्हे पूछा गया कि आप फंला फंला काम कर लें । मान्यवर इसे हर कोई समझ रहा है कि लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी का भविष्य कैसा है । और 2014 में जब जीत पक्की थी जब संकल्प पत्र किसने तैयार किया था । बेहद मशक्कत से तैयार किया गया था । पर संकल्प पत्र पर अमल तो दूर संकल्प पत्र तैयार करने वाले हो ही दरकिनार कर दिया गया ।
 किसकी बात कर रहे है आप....अरे प्रोफेसर साहेब मुरली मनोहर जोशी जी की ।  और उस संकल्प पत्र में क्या कुछ नही था । किसान हो या गंगा । आर्थिक नीतिया हो या वैदेशिक नीतिया । बकायदा शोध करने सरीखे तरीके से बीजेपी सत्ता की राह को जोशी जी ने मेहनत से बनाया । पर हुआ क्या । मोदी जी ने जितनी लकीरे खिंची । जितने निर्णय लिये उसका रिजल्ट क्या निकला । राजनीतिक तौर पर समझना चाहते है तो तमाम सहयोगियो को परख लिजिये । हर कोई मोदी-शाह  का साथ छोडना चाहता है । बिहार - यूपी में  कुल सीट 120 है । और यहा के हालात बीजेपी के लिये ऐेसे बन रहे है कि अपने बूते 20 सीट भी जीत नहीं पायेगी । जातिय आधार पर टिकी राजनीति को सोशल इंजिनियरिंग कहने से क्या होगा । कोई वैकल्पिक समझ तो दूर उल्टे पारंपरिक वोट बैक जो बीजेपी के साथ रहा पहली बार मोदी काल में उसपर भी ग्रहण लग रहा है । तो बीजेपी में ही कल तक के तमाम कद्दावर नेता अब क्या करेगं । क्या कोई कल्पना कर सकता है कि राफेल का सवाल आने पर प्रधानमंत्री इंटरव्यू में कहते है कि , पहली बात तो ये उनपर कोई आरोप लगी है । दूसरा ये निर्णय सरकार का था ।यानी वह संकेत दे रहे है कि दोषी रक्षा मंत्री हो सकते है । वह नहीं । और इस आवाज को सुन कर पूर्व रक्षा मंत्री पार्रिकर संकेत देते है कि राफेल फाइल तो उनके कमरे में पडी है । जिसमें निर्णय तो खुद प्रधानमंत्री का है । फिर इसी तरह सवर्णो को दस फिसदी आरक्षण देने के एलान के तुरंत बाद नितिन गडकरी ये कहने से नहीं चूकते कि इससे क्या होगा । यानी ये तो बुलबुले है । लेकिन कल्पना किजिये फरवरी तक आते आते जब टिकट किसे दिया जायेगा और कौन से मुद्दे पर किस तरह चुनाव लडा जायेगा तब ये सोचने वाले मोदी-शाह के साथ कौन सा बीजेपी का जमीनी नेता खडा होगा । और खडा होना तो दूर बीजेपी के भीतर से क्या वाकई कोई आवाज नहीं आयेगी ।
आप गलतियो का जिक्र कर रहे थे....मेरे ये पूछते ही स्वयसेवक महोदय कुर्सी से खडे हो गये . बकायदा चाय की प्याली हाथ में लेकर खडे हुये और एक ही सांस में बोलने लगे....अब आप ही बताइये आरक्षण के खिलाफ रहनी वाली बीजेपी ने सर्वर्णो को राहत देने के बदले बांट दिया । बारिकी से परखा आपने सर्वोणो में जो गरीब होगा उसके माप दंड क्या क्या है । यानी जमीन से लेकर कमाई के जो मापदंड शहर और गांव के लिये तय किये गये है उसमें झूठ फरेब घूस सबकपछ चलेगा । क्योकि 8 लाख से कम सालाना कमाई । 5 एकड से कम कृर्षि जमीन । एक हजार स्कावयर फीट से कम की जमीन पर घर और म्यूनिस्पलटी इलाके में सौ यार्ड से कम का रिहाइशी प्लाट होने पर ही आरक्षण मिलेगा । और भारत में आरक्षण का मतलब नौकरी होती है । जो है नहीं ये तो देश का सच है । लेकिन कल्पना किजिये जब पटेल से लेकर मराठा और गुर्जर से लेकर जाट तक देश भर में नौकरी के लिये आरक्षण की गुहार लगा रहा है तो आपने कितनो को नाराज किया या कितनो को लालीपाप दिया । असल में अभी तो मोदी-शाह की हालत ये है कि जो चाटुकार दरबारी कह दें और इस आस से कह दे कि इससे जीत मिल जायेगी ...बस वह निर्णय लेने में देर नहीं होगी । पर बंटाधार तो इसी से हो जायेगा ।
तो रास्ता क्या है । अब प्रोफेसर साहेब बोले ......और ये सुन कर वापस कुर्सी पर बैठते हुये स्वयसेवक महोदय बोल पडे रास्ता सत्ता का नहीं बल्कि सत्ता गंवाने का ठिकरा सिर पर ना फुटे इस रास्ते को बनाने के चक्कर में समूचा खेल हो रहा है ।
तो क्या अखिलेश के बाद अब मायावती पर भी सीबीआई डोरे डालेगी ।
नही प्रोफेसर साहेब ये गलती तो कोई नहीं करेगा । लेकिन आपने अच्छा किया जो मायावती का जिक्र कर दिया । क्योकि राजनीति की समझ वही से पैदा भी होगी और डूबेगी भी । क्यों ऐसा क्यो ....मेरे सवाल करते ही स्वयसेवक महोदय बोल पडे...वाजपेयी जी समझिये ...मायावती दो नाव की सवारी कर रही है । और मायावती को लेकर हर कोई दो नाव पर सवार है । पर घाटा मायावती को ही होने वाला है ।
वह कैसे...
प्रोफेसर साहेब जरा समझे .मायावती चुनाव के बाद किसी के भी साथ जा सकती है । काग्रेस के साथ भी और बीजेपी के साथ भी । और ये दोनो भी जानते है कि मायावती उनके साथ आ सकती है । और मायावती ये भी जानती है कि अखिलेश यादव के साथ चुनाव से पहले गठबंधन करना उसकी मजबूरी है या कहे दोनो की मजबूरी है । क्योकि दोनो ही अपनी सीट बढाना चाहते है । पर अखिलेश और मायावती दोनो समझते है कि राज्य के चुनाव में दोनो साथ रहेगें तो सीएम का पद किसे मिलेगा लडाई इसी को लेकर शुरु होगी तो वोट ट्रांसफर तब नहीं होगें । लेकिन लोकसभा चुनाव में वोट ट्रासफर होगें । क्योकि इससे चुनाव परिणामो के बाद सत्ता में आने की ताकत बढेगी । पर मायावती के सामने मुश्किल यह है कि जब चुनाव के बाद मायावती कही भी जा सकती है तो उसके अपने वोटबैक में ये उलझन होगी कि वह मायावती को वोट किसके खिलाफ दे रही है । और जिस तरह मुस्लिम-दलित ने बीजेपी से दूरी बनायी है । और अब आरक्षण के सवाल ने टकराव के नये संकेत भी दे दिये है तो फिर मायावती का अखिलेश को फोन कर सीबीआई से ना घबराने की बात कहना अपने स्टेंड का साफ करने के लिये उठाया गया कदम है । पर सत्ता से सौदेबाजी में अभी सबसे कमजोर मायावती के सामने मुश्किल ये भी है कि काग्रेस का विरोध उसे मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तिसगढ में  और कमजोर कर देगा ।
चाय खत्म करने से पहले एक सवाल का जवाब तो आप ही दे सकते है ....जैसे ही प्रोफेसर साहेब ने स्वयसेवक से कहा ...वह क्या है ....संघ क्या सोच रहा है ।
हा हा हा ...ठहाका लगाते हुये स्वयसेवक महोदय बोल पडे । संघ सोच नहीं रहा देख रहा है ।
तो क्या संघ कुछ बोलेगा भी नहीं ....
संघ बोलता नहीं बुलवाता है । और कौन बोल रहा है और आने वाले वक्त में कौन कौन बोलेगा....इंतजार किजिये फरवरी तक बहुत कुछ होगा । 

Monday, January 7, 2019

खनन लूट में जांच हो तो हर सीएम जेल में होगा .....




राजनीति साधने वाले मान रहे है और कह रहे है कि अखिलेश यादव पर सीबीआई शिकंजा सपा-बसपा गंठबंधन की देन है । यानी गठंबधन मोदी सत्ता की खिलाफ है तो मोदी सत्ता ने सीबीआई का फंदा अखिलेश यादव के गले में डाल दिया । और राजनीति साधने वाले ये भी कह रहे है कि आखिर खनन की लूट में सीएम कैसे शामिल हो सकता है । जो अखिलेश पर सीबीआई जांच के खिलाफ है वह साफ कह रहे है कि दस्तावेजो पर तो नौकरशाहो के हस्तख्त होते है । लूट खनन माफिया करते है तो सीएम बीच में कहां से आ गये । तो सीबीआई जांच के हक में खडे राजनीति साधने वाले ये कहने से नहीं चूक रहे है कि सीएम ही तो राज्य का मुखिया होता है तो खनन लूट उसकी जानकारी के बगैर कैसे हो सकती है । चाहे अनचाहे सीबीआई जांच के हक में खडे बीजेपी के नेता-मंत्री की बातो को सही मानना चाहिये । और विपक्ष को तो इसे ठहरा कर बीजेपी से भी कही ज्यादा जोर से कहना चाहिये कि किसी भी राज्य में खनन की लूट हो रही होगी तो तात्कालिन सीएम को गुनहगार मानना ही चाहिये । और इस कडी में और कोई नहीं बल्कि मोदी सत्ता में ही खनन मंत्रालय की फाइलो को खोल देना चाहिये । और उसके बाद राज्य दर राज्य खनन लूट के आंकडो के आसरे हर राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ सीबीआई जांच की मांग शुरु कर देनी चाहिये । इसके लिये बहुत विपक्ष को बहुत मेहनत करने की भी जरुरत नहीं है । क्योकि मोदी सत्ता के दौर में भी राज्यो में खनन लूट के जरीये राजस्व को लगते चूने को परखे तो गुजरात के सीएम विजय रुपानी तो जेल पहुंच जायेगें और चुनाव हार कर सत्ता से बाहर हुये मद्यप्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे के खिलाफ भी सीबीआई जांच के आदेश आज नहीं तो कल शुरु हो ही जायेगें । क्योकि जिस दौर में यूपी में खनन की ळूट हो रही थी उसी दौर में मद्यप्रदेश , राजस्थान और गुजरात में सबसे ज्यादा खनन की लूट हुई । 2013-14 से लेकर 2016-17 के दौर में यूपी में जितनी खनन की लूट हुई या राजस्व का जितना चूना लगाया गया । या फिर जितने मामले खनन लूट के एफआईआर के तौर पर दर्ज किये गये उस तुलना में उसी दौर में मद्यप्रदेश ने तो देश का ही रिकार्ड तोड दिया । क्योकि 2013-14 में गैरकानूनी खनन के 6725 मामले मद्यप्रदेश में दर्ज किये गये थे । जो 2016-17 में बढकर 13,880 मामलो तक पहुंच गये । यानी चार बरस के दौर में खनन लूट के मामलो में सिर्फ मद्यप्रदेश में 52.8 फिसदी की बढतरी हो गई । इसी कडी में गुजरात के सीएम के तौर पर जब मोदी 2013-14 में थे तब 5447 अवैध या कहे गैर कानूनी खनन के मामले दर्ज किये गया । और मोदी दिल्ली में पीएम बने तो रुपानी गुजरात के सीएम बने और गैर कानूनी खननके जरीये राज्सव की लूट बढ गई । 2016-17 में गुजरात में अवैध खनन की लूट के 8325 मामले दर्ज किये गये । यानी यूपी में अकिलेश की नाक के नीचे अवैध खनन जारी था तो सीबीआई जांच करेगी तो फिर शिवराज सिंह चौहान हो या रुपानी उनके नाक भी तो सीएम वाली ही थी तो उनके खिलाफ भी सीबीआई जांच की शुरउात का इंतजार करना चाहिये ।
वैसे देश में खनन की लूट ही राजनीति को आक्सीजन देती है या कहे खनन लूट के जरीये राजनीति कैसे साधी जाती है ये बेल्लारी में खनन लूट से लेकर गोवा में खनन लूट पर जांच कमीशन की रिपोर्ट से भी सामने आ चुका है । लेकिन धीरे धीरे खनन लूट को सत्ता की ताकत के तौर पर मान्यता दे दी गई । और खनन लूट को सियासी हक मान लिया गया । तभी तो राज्यवार अगर खनन लूट के मामलो को परखे और परखने के लिये मोदी सत्ता की ही फाइलो को टटोले तो कौन सा राज्य या कौन से राज्य का कौन सा सीएम सीबीआई जांच से बचेगा ये भी अपने आप में देश का नायाब सच है । क्योकि राजस्थान में वसुंधरा राज में 2013-14 में खनन लूट के 2953 मामले दर्ज हुये तो 2016-17 में ये बढकर 3945 हो गये । पर खनन लूट का सच इतना भर नहीं है कि एफआईआर दर्ज हुई । बल्कि लूट करने वालो से फाइन वसूल कर सीएम अपनी छाती भी ठोकतें है कि उन्होने इमानदारी से काम किया और जो अवैध लूट कर रहे थे उनसे वसली कर ली । पर इसके एवज में कौन कितना हडप ले गया इसपर सत्ता हमेशा चुप्पी साध लेता है । मसलन मद्यप्रदेश जहा सूसे ज्यादा खनन लूटे के मामले दर्ज हुये वहा राज्य सरकार ने अपनी सफलता 1132.06 करोड रुपये वसूली की तहत दिखाये । लेकिन इसकी एवज में खनन लूट से राज्य को एक लाख करोड से ज्यादा का नुकसान हो गया इसपर किसी ने कुछ कहा ही नहीं । इसी तरह बीजेपी शासित दूसरे राज्यो का हाल है । क्योकि महाराष्ट्र सरकार ने 281.78 करोड की वसूली अवैध खनन करने वालो से दिखला दी । लेकिन इससे सौ गुना ज्यादा राजस्व के घाटे को बताने में कोताही बरती । गुजरात में भी 156.67 करोड रुपये की वसूली अवैध खनन करने वालो से हुई इसे बताया गया । पर राज्सव की लूट जो एक हजार करोड से ज्यादा की हो गई । इ पर खामोशी बरती गई । यही हाल छत्तिसगढ का है जहा अवैध वसूली के नाम पर 33.38 करोड की वसूली दिखायी गई लेकिन इससे एक हजा गुना ज्यादा के राजस्व की लूट पर खामोशी बरती गई । पर ये खेल सिर्फ बीजेपी शासित राज्यो भर का नहीं है बल्कि कर्नाटक जहा काग्रेस की सरकार रही वहा पर भी 111.63 करोड की वसूली अवैध खनन से हुई इसे दिखलाया गया । लेकिन 60 हजार करोड के राजस्व लूट को बताया ही नहीं गया । काग्रे बीजेपी ही क्यो आध्रप्रदेश में भी क्षत्रप की नाक तले 143.23 करोड की वसली दिखाकर ये कहा गया कि अवैध खनन वालो पर शिकंजा कसा गया है लेकिन इसकी एवज में जो 50 हजार करोड के राजस्व का नुकसान कहां गया या कौन हडप ले गया इसपर किसी ने कुछ कहा ही नहीं । और इस खेल में इंडियन ब्यूरो आफ माइन्स की ही रिपोर्ट कहती है कि खनन लूट का खेल एक राज्य से दुसरे राज्य को मदद मिलती है । तो दूसरी राज्य से तीसरे राज्य को । क्योकि खनन कर अवैध तरीके से राजय की सीमा पार करने और दूसरे राज्य की सीमा में प्रवेश के लिये बकायदा ट्राजिट पास दे दिया जाते है । और जिस तरीके से देश में खनन की लूट बीस राज्यो में जारी है अगर उस खनन की कितम अंतर्ष्ट्रीय बाजार की किमत से लगायी जाये तो औसतन हर बरस बीस लाख करोड से ज्यादा का चूना खनन माफिया देश को लगाते है ।
तो वाकई अच्छी बात है कि खनन की लूट के लिये मुख्यमंत्री को भी कटघरे में खडा किया जा रहा है । तो मनाईये अखिलेश यादव के खिलाफ सीबीआई जांच हर राज्य के सीएम के खिलाफ सीबीआई जांच का रास्ता बना दें । और सिर्फ नौकरशाह को ही कटघरे में खडा ना किया जाये । और ये हो गया तो फिर सीएम की कतार कहां थमेगी कोई नहीं जानता और जो बात प्रधानमंत्री ने बरस के पहले दिन इंटरव्यू में ये कहकर  अपनी कमीज को साफ बतायी कि राफेल का दाग उनपर नहीं सरकार पर है तो जैसे सीएम की नाक वैसे ही पीएम की नाक । बचेगा कौन । पर देश का संकट तो ये भी है कि सीबीआई भी दागदार है । यानी लूट खनन भर की नहीं बल्कि सत्ता के नाम पर लोकतंत्र की ही लूट है । जिसकी जांच जनता को करनी है ।