नासिक शहर से करीब दस किलोमीटर दूर गंगापुर होते हुए करीब चार किलोमीटर आगे बनी देश की सबसे प्रसिद्ध वाइन फैक्ट्री जाने का रास्ता भी देश के सबसे हसीन रास्तों में से एक है। सह्याद्री हिल्स के बीच गंगापुर झील और चारों तरफ हरे-भरे खेत। इन सबके बीच सैकड़ों एकड़ की जमीन पर अंगूर की खेती। इन सबके बीच सांप की तरह शानदार सड़क और उस सड़क पर रफ्तार से भागती आधुनिकतम गाड़ियाँ। जाहिर है आधुनिक होते भारत की यह तस्वीर किसी भी शहरी को भा सकती है। खासकर जब यह रास्ता वाइन फैक्ट्री ले जाए।
यह तस्वीर दिसंबर 2009 में होने वाले विधानसभा चुनाव के पहले ही है, लेकिन इसी तस्वीर को अगर पाँच साल पीछे यानी 2004 में विधानसभा चुनाव के दौरान देखें तो नासिक शहर से दस किलोमीटर दूर गंगापुर जाना किसी जंगल में जाने जैसा था। टूटी-फूटी सड़कें। बैलगाड़ी और ट्रैक्टर ही सबसे ज्यादा दौड़ते नजर आते थे। और यहाँ से वाइन फैक्ट्री तक जाना धूल-मिट्टी उड़ाते हुए। उबड़-खाबड़ सड़क पर कीचड़ से बचते-बचाते हुए फैक्ट्रीनुमा एक शेड में पहुँचना होता था। जहाँ शेड की छांव में या अंगूर के झाड़ तले शराब की चुस्की ली जाती थी। पाँच साल में विकास की यह लकीर इतनी गाढ़ी हो गई कि 2004 में जहाँ कोई पुलिस-प्रशासन का अधिकारी इस तरफ झाँकने नहीं जाता था और नासिक पहुँचा कोई भी पर्यटक त्रयंबकेश्वर मंदिर और पांडव की गुफाओं को देखकर लौट जाता था। वही वाइन फैक्ट्रियाँ अब 2009 में पुलिस प्रशासन के अधिकारियों का अड्डा हैं। पर्यटक अब गंगापुर झील के किनारे वाइन फैक्टरी के हट्स में रात गुजारने यूरोप से भी आते हैं। शुक्रवार-शनिवार की रात रेव पार्टियाँ आयोजित की जाती हैं।
लेकिन पाँच साल के दौर में सिर्फ यही नजारा बदला, ऐसा भी नहीं है। इस बदली तस्वीर की कीमत किसे चुकानी पड़ी और बदली हुई इस तस्वीर का दूसरा रुख भी कैसे नासिक के इसी क्षेत्र में तैयार हुआ यह मनोहर बाबूराव पटोले के परिवार को देखकर भी समझा जा सकता है। 2004 में पटोले परिवार के पास 20 एकड़ जमीन थी। जहाँ अंगूर उगाकर यह परिवार जिंदगी बसर करता था। अंगूर का बाजार भाव नासिक में कभी बढ़ा नहीं, इसलिए बढ़ती महंगाई में परिवार का पेट पालने के लिए पटोले परिवार ने शराब बनाने वालों से संपर्क किया। शराब बनाने वालों ने समझौता किया कि अगर 20 एकड़ में वाइन के लिए पटोले परिवार अंगूर उगाएगा तो उसे वह खरीद लेंगे। वाइन का अंगूर सामान्य अंगूर से अलग होता है, इसलिए इस अंगूर को उगाने से लाभ भी था, क्योंकि वाइन फैक्ट्री से उसे तयशुदा अच्छी पूंजी मिल जाएगी। लेकिन खतरा भी था कि इससे अंगूर की पूरी फसल ही शराब बनाने वालों पर निर्भर हो जाएगी। पहले साल तो लाभ हुआ, लेकिन संकट 2006 से शुरू हुआ, जब वाइन फैक्ट्री वालों ने अपने हाल को खस्ताहाल करार देते हुए अंगूर लेने से मना कर दिया फिर औने-पौने दाम में पटोले परिवार को वाइन अंगूर बेचना पड़ा। यह हाल सिर्फ पटोले परिवार का नहीं हुआ, बल्कि शिवाजी पवार, भंधू मोहिते से लेकर मजाम पाटिल सरीखे दर्जनों बड़े किसानों की माली हालत बिगड़ी। तीस से ज्यादा छोटे किसान, जिनके पास पाँच एकड़ तक जमीन थी, उनके लिए मुसीबत यही आई कि साल दर साल अंगूर की फसल बोने-उगाने में जो खर्च हो, उसके भी लाले पड़ने लगे। बड़े किसानों को जमीन का टुकड़ा-दर-टुकड़ा बेचना पड़ा तो छोटे किसानों को जिंदा रहने के लिए जमीनें गिरवी रखनी पड़ी। विकास की अनूठी लकीर के गाढ़ेपन में 2004 के किसान 2009 में मजदूर से लेकर माल ढोने वाले तक हो गए। कुछ किसान तो जीते जी अपनी जमीन से पूरी तरह उजड़ गए। खासकर जिनकी जमीन गंगापुर झील केकिनारे थी और जो कई तरह की फसलों के जरिए जिंदगी की गाड़ी चलाते थे। जब उनकी फसल शराब पर टिकी और धीरे-धीरे फसल उगाने की पूंजी तक नहीं बची तो जमीन बेच दी।
महत्वपूर्ण है कि झील के किनारे की जमीन को शहरीकरण के दायरे में लाने की बात अधिकारियों ने की और मुआवजा लेकर जमीन बेचने का सुझाव भी नासिक विकास प्रधिकरण से ही निकला। इस जमीन को भी पर्यटन के लिए वाइन फैक्ट्री वालों ने ही हथियाया यानी पांच साल पहले जो अपनी जमीन पर मेहनत कर जिंदगी की गाड़ी को खींचता था, वह 2009 में तेज रफ्तार से सांप सरीखी सड़कों पर दौड़ती गाडि़यों के रुकने का इंतजार कर उनके सामानों को ढोकर अपनी ही जमीन पर बने हट्स यानी रईसी की झोपडि़यों में पहंुचाता है। जहां एक रात गुजारने की कीमत उसके साल भर की कमाई पर भी भारी पड़ती है। इन पांच सालों में कितना फर्क बाजार और खेती में आ गया, इसका अंदाज इससे भी लग सकता है कि बाजार ने वाइन की प्रति बोतल में औसतन तीन सौ फीसदी की बढ़ोतरी की और खेती में जुटे किसान की फसल में दस फीसदी की बढ़ोतरी भी नही हो पाई। पांच साल पहले भी नासिक शहर में अंगूर आठ से दस रुपये किलोग्राम मिलता था, वहीं 2009 में भी अंगूर की कीमत बारह रुपये प्रति किलो नहीं हो पाई है। नासिक से सटे इलाको में नांदगांव, चांदवाड़ा से लेकर येवला और मालेगांव तक केकरीब बीस लाख किसानों के सामने इन पांच सालों में सबसे बड़ा संकट यही आया है कि उनकी खेती में लगने वाले बीज, खाद और बांस जिस पर अंगूर की झाड़ को टिकाया जाता है, उसकी कीमत में पचास फीसदी तक की बढ़ोतरी हो चुकी है, लेकिन अंगूर की कीमत पांच साल में पच्चीस रुपये पेटी से तीस रुपये पेटी तक ही पहुंची है। ऐसे में किसान मजदूर बनने से भी नही कतराता, लेकिन जब बर्बाद होकर मजदूर बनने वाले किसानों की तादाद मजदूरों से कई गुना हो तो मजदूरों को भी कौन पूछता है।
नासिक में एक दर्जन से ज्यादा वाइन की फैक्टि्रयों में करीब पांच हजार कर्मचारी हैं। इन कर्मचारियों को औसतन सौ रुपये रोज के मिलते है, जो खेत मजदूर से पैंतीस रुपये ज्यादा है और नरेगा में मिलने वाले काम केबराबर है। स्थाई मजदूर कोई नहीं है चाहे वह बरसों बरस से काम कर रहा हो। दूसरी तरफ बडे़ किसान और वाइन फैक्ट्री मालिक का अंतर जमीन आसमान का है। जिसमें पटोले परिवार 20 एकड़ जमीन का मालिक होकर भी सालाना तीन लाख से ज्यादा 2004 तक कभी नहीं कमा पाया। और अब सालाना एक लाख भी नहीं जुगाड़ पाता। वहीं 2004 में जिस वाइन फैक्ट्री की लागत बीस लाख थी, वह 2009 में 200 करोड़ पार कर चुकी है। विकास की यह मोटी, लेकिन अंधी लकीर नेताओं को कितनी भाती है, इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि नासिक के भाजपा नेता और डिप्टी मेयर अजय बोरस्ते ने इसी दौर में वाइन फैक्ट्री खोल ली। एनसीपी नेता वंसत पवार निफाड में वाइन फैक्ट्री चलाते हैं तो राज्य के पूर्व गृह मंत्री और अभी के गृहमंत्री यानी आरआर पाटील और जयंत पाटील दोनों सांगली में वाइन फैक्ट्री खोल रहे हैं। और तो और कृर्षि मंत्री शरद पवार भी बारामती में वाइन फैक्ट्री खोलने की दिशा में कदम उठा चुके हैं।
11 comments:
पुण्यजी आपने नासिक के आस-पास का विकास-परक इतिहास इस आलेख में लिख कर पाठकों को उस क्षेत्र की अछूती तस्वीर दी है ......लेकिन ये तो इस देश के चप्पे-चप्पे की सच्चाई है कि जब किसान मेहनत बोता है...तो रोटी भी नहीं मिलती और उसी ज़मीन को अगर नेता बंजर भी रखे तो उससे करोड रुपये साल की टैक्स मुक्त आमदनी हुई दिखाता है.....
जमीन का विषय जमीन से उठाया है सर आपने....
बेहतरीन लेख! आँखे भी नाम हो गयी
bahut achha lekh.
Lekin in sabka kya hal hai.
sundar aur marmik lekh k liye aapko dhanyvaad.....apke is lekh se ham jaise naye patrkaaron ko sikhne ka mauka mila....
यह विकास की यात्रा तो कतई नहीं है। हां दमनचक्र दिखाई देता है। एक दिन राज्य और सरकार समझ नहीं पाएंगे कि विद्रोह क्यों हो रहा है।
अब भी यही बात है कि शिक्षा सबसे अहम पहलु है। शिक्षित होते तो दूरदृष्टि भी होती।
दुखद है... यह विकास या जो भी है...
आपकी ये रिपोर्ट दैनिक जागरण में पढ़ चुका हूं ....नासिक की जमीनी हकीकत से अब तक बहुत लोग अपरिचित थें....
जमीनी हकीकत को बताने के लिये शुक्रिया। आजकल इस तरह की पत्रकारिता कम ही देखने में आती है।
इन किसान से मजदूर होते लोगों में प्रेमचंद की कहानी 'पूस की रात' के किसान हल्कू की छवि है।
पूस की रात कहानी में भी हल्कू की पत्नी मुन्नी कहती है कि किसानी छोड कर मजदूरी क्यों नहीं करते..क्या मिलता है किसानी में...कम से कम ठीक से तो रहेंगे....लगान तो न देना पडेगा...हाड तोड मेहनत हम करें और सब कर्जा चुकाने में लगा दें।
वहीं रात में फसल नीलगायों द्वारा बर्बाद हो जाने पर हल्कू अगली सुबह खुश हो मन ही मन कहता है - चलो, अब इतनी ठंड रात में रखवाली से तो जान छूटी। मजदूरी ही सही।
आपका आलेख पढ़कर मन और आंखे दोनों भीग गये |विकृत विकास की यही तस्वीर होनी थी |रक्त बीज जैसे नेता उत्पन्न होते जा रहे है | और किसान निरीह देवता जैसे |आज जरूरत है काली माँ की |जो रक्त बीजो के अंश को समाप्त कर सके |
पुण्यजी ये ही तो विडम्बना है इस देश में जब तक कोई भी चीज किसान के पास रहती है उस का कोई मोल नहीं होता जेसे ही वो उस के हाथ से निकलती है वो अनमोल हो जाती है चाहे फसल हो या जमीन ये पुरे ही देश में हो रहा है जिस गन्ने की फसल के भुगतान के लिए मिल मालिक किसानो के जूते घिसवा देते है उसी चीनी के वेय्परियो के गोदाम में पहुचने के बाद कीमत असमान छुने लगती है ये ही हॉल सभी फसलो का है इस देश की गरीबी का ये ही कारण है किसान मजदुर बन के महानगरो में स्लम बस्तियों में रहने को मजबूर है
धरमेंदर यादव फरीदाबाद
आपका ये बयान पढ़कर आपकी तरह में अन्दर अन्दर रो रहा हु. और गुस्सा भी आ रहा हे.
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