जिनके खिलाफ आवाज उठी वे ही अंतिम संस्कार में क्यों थे
हमने शीला दीक्षित को जंतर-मंतर आने से रोका। शीला दीक्षित अंतिम संस्कार में चेहरा दिखा आयीं। हमने मनमोहन सिंह की चकाचौंध व्यवस्था में खोते मानवीय मूल्यों के खिलाफ आवाज उठायी। मनमोहन सिंह खुद सिंगापुर से आये कौफिन में बंद लडकी को रिसीव करने पहुंच गये। हमने सोनिया गांधी को अंधी होती व्यवस्था के खिलाफ जगाने की कोशिश की तो हमें 10 जनपथ के बाहर का रास्ता दिखा कर लड़की के शव पर चंद आंसू बहाने सोनिया गांधी ही हवाई अड्डे पहुंच गयीं। हम नेताओं के तौर तरीके, मंत्रियों के सलीके और पुलिस की ताकत के खिलाफ एकजुट हुये तो नेता, मंत्री और पुलिस ही रात के अंधेरे में मानवीयता का गला घोंट कर सरोकार को दरकिनार कर अपनी मौजूदगी में लड़की का अंतिम संस्कार कर शांति बनाये रखने की अपील कर खुश हो गये। हम क्यों शरीक नहीं हो पाये अंतिम संस्कार में। हम क्या करें। हमें लगा इस व्यवस्था में जो जो दोषी हैं, उन्हें आम लोग एकजुट होकर कठघरे में खड़ा कर सकते हैं। लेकिन जिस तरह कठघरे में खड़ी व्यवस्था चलाने वाले ही जब पीड़ित लड़की को सफदरजंग से सिंगापुर भेजने का निर्णय लेते हैं और सिंगापुर से ताबूत में बंद लडकी के दिल्ली लौटने पर उसे श्रद्यांजलि देकर अपने होने का एहसास हमे ही कराते हैं, जैसे वह ना हो तो देश रुक जायेगा यह कब तक चलेगा।
यह जंतर-मंतर पर बैटरी से चलने वाले माइक से खामोशी में गूंजती ऐसी आवाज है जिन्हें सुनने के बाद करीब पांच से सात सौ लोगों के सामने यह सवाल खुद ब खुद खड़ा हो जाता है कि उनके विरोध का अब तक का तरीका सरकार-व्यवस्था के सामने कितना अपाहिज सा है। जो देश भर में बन रहे इंडियागेट या मुनीरका या जंतरमंतर से आवाज उठती है, वह मीडिया के जरीये समूचा देश देख तो लेता है लेकिन वह सिवाय भीडतंत्र से आगे क्यों निकल नहीं पाती। बड़े-बुजुर्ग ही नहीं बल्कि स्कूल कॉलेजों में पढ़ने वाले लड़के लड़कियां भी जिस शिद्दत से अपने गुस्से का इजहार कागजों पर स्लोगन लिखते हुये और बीच बीच में नारे लगाकर करते हैं, वह किसके खिलाफ है। जो पुलिस नाकाबिल निकलती है, वही पुलिस लड़की के शव की सुरक्षा में लगती है। जो पुलिस सड़क पर अपराधियों को पकड़ नहीं सकती, वही पुलिस इंडिया गेट और लुटियन्स की दिल्ली की सुरक्षा में लग जाती है। जो पुलिस आम आदमी के खिलाफ अन्याय को एफआईआर नहीं मानती वही पुलिस अपनी एफआईआर में इंडियागेट से लेकर जंतरमंतर तक खड़े अपने विरोध के स्वर को अन्याय मान लेती है। जो सरकार चकाचौंध दिल्ली में लुटती अस्मत को संयोग मान कर आंकड़ों तले दिल्ली को सुरक्षित और विकासमय होना करार देती है, वही सरकार अपने विरोध को दबाने के लिये विकास के पायदान पर खड़ी मेट्रो को बंद कर देती है। सत्ता की तरफ जाती हर सड़क पर आवाजाही रोकने के लिये रविवार के दिन भी खाकी का आतंक खुले तौर पर तैनात करने से नही कतराती। यह सारे सवाल जंतर मंतर की सड़कों पर सौ-सौ मीटर तक पड़े उन सफेद कैनवास में दर्ज हैं, जिसे अपने आक्रोश से हर बच्चे ने रंग रखा है। सफेद कागज रंगते रंगते हाथ थकते हैं तो खड़ा होकर कुछ ऐसे ही सवालों को हवा में उछालता है और गुस्से में किसी बुजुर्ग से पूछता है कि क्या आजादी इसी का नाम है। क्या इसी भारत पर नाज है। और सवालो के बीच उसी गुस्से में कोई पिता की उम्र का व्यक्ति जवाब भी देता है, करें क्या जो कुछ नहीं कर सकते वही नेता बन कर सरकार चला रहे हैं। नेता को पढ़ाई-लिखाई कर नौकरी के लिये संघर्ष तो करना नही है। जिन्हे जिन्दगी जीने के लिये संघर्ष करना पडता है उनके लिये सरकार का मतलब सिर्फ वोट डालना है। आवाज तो वोट के खिलाफ भी उठानी होगी। नहीं तो हमारा वोट और हमारी सरकार। हमारी सरकार और हमारी पुलिस। हमारी पुलिस और हमारा कानून।
तो फिर अपराधी भी तो हमीं हैं। यह सब बदलेगा कैसे। सवाल सुधार का नहीं है। हर तरीके को बदलने का है। नौवीं कक्षा की छात्रा हो या मिरांडा हाउस में पीजी की छात्रा। वह यह समझने को तैयार नहीं हैं कि जो उनके सवाल है वह सवाल सरकार के मन में क्यों नहीं रेंगते। क्या देश इतना बदल गया है कि दिल्ली में रहते हुये भी मंत्री और जनता की समझ एक नहीं रही। सरकार सड़कों पर खाकी वर्दी का खौफ दिखाकर हमें कानून सिखाना चाहती है। लेकिन कानून देश और समाज की सोच को खत्म कर कैसे चल सकता है। सरकार किस पर राज करना चाहती है। राजनीतिकशास्त्र या समाजशास्त्र नहीं बल्कि कैमिस्ट्री की पढाई कर रही दिल्ली विश्वविघालय की छात्रा के सवाल समाज की जरुरत को लेकर है। माइक हाथ में थामकर वह सीधे सरकारी तंत्र पर अंगुली उठाती है। फांसी से समाधान नहीं होगा। जो बलात्कारी हैं, उन्हें थाने से लेकर अदालत और अदालत से लेकर जेल ले जाने के दौरान चेहरे ढके क्यों गये। क्यों नहीं उनके चेहरे पूरे देश को दिखाये गये। बलात्कारी की बहन, मां, बेटी के सामने यह सवाल आना चाहिये और बलात्कारी के सामने भी यह सवाल आना चाहिये कि बलात्कार करने के बाद उसके अपनो का समाज में जीना मुश्किल होगा। सामाजिक बहिष्कार की स्थिति हर बलात्कारी के सामने होनी चाहिये। फांसी तो अपराध की सजा है । लेकिन जिस दिमाग और माहौल की यह उपज है, उसें समाज की एकजुटता ही रोक सकती है। लेकिन सरकार या नेताओ का नजरिया समाज को महत्व देना ही नहीं चाहता। वह हर अपराध के लिये कानून को देखता है। ऐसे में यह सवाल बार बार आयेगा कि कानून लागू करने वाला और लागू करवाने वाला अगर अपराधी निकलेगा तो फिर समाधान का रास्ता निकलेगा कैसे। तो फिर संसद के विशेष सत्र का भी मजलब क्या है, जिसकी मांग विपक्ष कर रहा है। सही कह रहे हैं। संसद की महत्ता के आगे समाजिक दबाव बेमानी रहे यह हर नेता चाहता है।
कानून तोड़ने पर पुलिस और अदालत काम करती है। लेकिन कानून बरकरार रहे इसके लिये सामाजिक माहौल होना चाहिये। और फिलहाल समाज से कोई सरोकार सरकार का तो नहीं है। सही है सिर्फ सरकार ही नहीं उस राजनीति का भी नहीं है जो सत्ता के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। किसी हद तक ना कहिये, संसद के भीतर तो अब अपराध करने वालों की पूरी फेहरिस्त है। 162 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले किसी ना किसी थाने में दर्ज हैं। लेकिन राजनीति में सभी माफ है। क्योंकि राजनीतिक आरोपों की छांव हर अपराधी को बचा देती है। यह सवाल जवाब चकाचौंध तो नहीं लेकिन पेट भरे आधुनिक स्कूल कॉलेजों में पढ़ रहे लड़के लड़कियो के सवाल हैं, जो आपस में संवाद बना रहे हैं । जंतर-मंतर की सड़क के दोनों किनारे पुलिस के जमावडे के बीच गोल घेरा बना कर बैटरी के माइक या बिना माइक ही चिल्ला चिल्ला कर अपने होने का एहसास करा रहे हैं। इन्हें डर लग रहा है कल से लोगों की तादाद भी कम होती जाये। लोग फिर ना भुल जाये। वह मीडिया से गुहार लगाते हैं, आप तो बोलिये जिससे लोग आते रहे। विरोध करते रहें। नहीं तो सरकार फिर कहेगी यह पिकनिक मनाने आये थे और हमें अपने लोकतंत्र पर नाज है।
Monday, December 31, 2012
[+/-] |
जिन्हें नाज है हिन्द पर वह कठघरे में है |
Tuesday, December 25, 2012
[+/-] |
देश को पिता नहीं पीएम चाहिये |
जिस 72 घंटे इंडिया गेट पर युवाओं के आक्रोश को थामने के लिये पुलिस धारा 144 की दुहाई देकर लाठी भांजती रही, आंसू गैस के गोले दागती रही और पानी की धारा छोड़ती रही, उसी 72 घंटों के दौरान देश में करीब डेढ़ सौ बलात्कार की घटनाएं हुईं। जिस 12 घंटे जंतर मंतर पर युवा जुट कर बिखरता रहा। व्यवस्था से निराश होकर सरकार के तौर तरीके पर अंगुली उठाकर न्याय के हक का सवाल उठाता रहा, उसी 12 घंटो के दौरान भी देश में दो दर्जन से ज्यादा लड़कियो के साथ बलात्कार हुये। यह सरकार के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर घंटे दो बलात्कार होते ही हैं। तो फिर सवाल सिर्फ एक बलात्कार के दोषियों को सजा दे दिलाने का है या फेल होते सिस्टम में सरकारी व्यवस्था की हुकूमत दिखाकर पांच बरस की सत्ता को ही लोकतंत्र बताकर राज करने का है। ऐसे मोड़ पर अगर देश के प्रधानमंत्री यह कहे कि वह भी तीन बेटियों के पिता हैं तो यह देश भर के उन पिताओ का मखौल उड़ाने से हटकर और क्या हो सकता है जो बेटियों की असुरक्षा को लेकर गुस्से में हैं। देश को तो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री चाहिये। लेकिन प्रधानमंत्री ही नही गृहमंत्री भी जब तीन राष्ट्रीय न्यूज चैनलो पर बीस बीस मिनट के इंटरव्यूह में कई बार खुद को बेटियों का बाप बताते हुये युवाओं के आक्रोश के मर्म को अपनी निज भावनाओ के साथ जोड़कर समाधान करने लगे तो इससे ज्यादा बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है।
त्रासदी इसलिये क्योंकि रास्ता अंधेरे में ही गुम होने की दिशा में जा रहा है। सत्ता का सुकून व्यवस्था बनाने या चलाने के बदले खुद को सत्ता की मार तले पिता और परिवार की भावनाओ में तब्दील करने पर आमादा है। सत्ता के तौर तरीके सत्ता चलाने वालो से बड़े हो चुके हैं। इसलिये सत्ता पाने की होड़ में सत्ताधारियों की कतार आम आदमी के मन से ना जुड़ पा रही है और ना ही युवा के उस आक्रोश को समझ पा रही है जो बलात्कार
की एक घटना के जरीये बिखरते देश की अनकही कहानी इंडिया गेट से लेकर जंतरमंतर और विश्वविद्यालयों के सेमिनार हाल से लेकर नुक्कड तक पर लगातार कह रहा है। प्रधानमंत्री को चकाचौंध भारत चाहिये। गृहमंत्री को चकाचौंध भारत के रास्ते की हर रुकावट गैरकानूनी हरकत लगती है। और दिल्ली की सीएम के लिये दिल्ली का मतलब रपटीली सड़क। दौड़ती भागती जिन्दगी। और मदहोश रंगीनी में खोया समाज है। यानी किसी भी स्तर पर उस युवा मन की कोई जगह नहीं जो भविष्य के भारत में अपनी जगह अपने हुनर से देखे। अपने हुनर को देश के लिये संवारते हुये सुरक्षा और मान्यता की गुहार लगाने के रास्ते में भी जब आवारा सत्ता की चकाचौंध ही है, तो फिर वह इंडियागेट या जंतर-मंतर छोड कर लौटे कहा। यह सवाल जेएनयू और आईआईटी के छात्रों के ही नहीं बल्कि हर उस युवा के है जो पत्थर फेंक कर, प्लेकार्ड लहरा कर, नारों से माहौल गर्मा कर न्याय और हक के सवाल को अपनी जिन्दगी से जोड़ रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित तक के लिये गद्दी के बरकरार रखने की जमीन अगर समाज की असमानता, मुनाफे के धंधे की नीतियों और उपभोक्ता की चकाचौंध में सबकुछ झोंकने से बनेगी तो इसे बदलने की हिम्मत दिखायेगा कौन। और गद्दी का मतलब ही अगर ऐसे समाज को बनाये रखना हो जाये तो फिर सत्ता की दौड़ में शरीक राजनेताओ की फौज में अलग रंग दिखायी किसका देगा।
शायद सबसे बडी मुश्किल यही है जो राजनीतिक शून्यता के जरीये पहली बार हर उस युवा को भी अंदर से खोखला बना रही है कि उसके आक्रोश का जवाब किसी सत्ता के पास है क्यों नहीं। 2009 में सत्ता में मनमोहन सिंह के लौटने के पीछे साढ़े चार लाख करोड के भारत निर्माण की योजना थी। और 2014 के लिये मनमोहन सिंह के पास तीन लाख बीस हजार करोड़ के नकद ट्रांसफर की योजना है। यही लकीर दिल्ली की सत्ता के लिये रपटीली रास्तों को भी तैयार कर रही है। क्योंकि शीला दीक्षित के लिये भी 2013 के चुनाव में सत्ता बरकरार रखने का मतलब पांच हजार करोड़ की वह सड़क और चकाचौंध योजना है, जिसके बाद दिल्ली चमकेगी और चौथी बार शीला सरकार की दीवानी दिल्ली की जनता होगी। इस रास्ते देश का निर्माण किसके लिये कैसे होगा यह कोई दूर की गोटी नहीं है। दस बरस पहले भी दिल्ली में बलात्कार की तादाद देश में सबसे ज्यादा थी और दस बरस बाद भी यानी 2012 में भी दिल्ली महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार के मामले में टॉप पर है। 2003-04 में बलात्कार के 362 मामले दिल्ली में दर्ज किये गये और 2011-12 में 312 बलात्कार के मामले दिल्ली में दर्ज हुये। दिल्ली में प्रति लाख व्यक्तियो पर अपराध का ग्राफ अगर 385.8 है तो देश में यह महज 172.3 के औसत से है। दिल्ली में अगर 2001 में 143795 मामले महिलाओं के खिलाफ अपराध के तौर पर दर्ज हुये तो 2011-12 तक आते आते इसमे 12 फीसदी की बढोतरी ही हुई है। लेकिन इन रास्तों को नापने या थामने के जरुरत सत्ताधारियो के लिये अगर सत्ता में बने रहने के लिये ही हो जाये तो कोई क्या कहेगा। यह सवाल इसलिये क्योंकि जिन रास्तो को देश और समाज की जरुरत सत्ता मानती है उसमें अपराध विकास की जायज जरुरत बना दी गई है। जरा इसकी बारीकी को समझे । दिल्ली में दस बरस पहले जितने मामले पुलिस थानों में पहुंचते थे उसको निपटाने के लिये औसतन 18 फीसदी मामलों में सत्ताधारी या पावरफुल लोगों की
पैरवी आती थी। लेकिन 2012 में जितने मामले थानो में पहुंचते हैं, उसे निपटाने के लिये औसतन 65 फीसदी मामलों में किसी मंत्री, किसी नेता या किसी हुकूक वाले शख्स की पैरवी हर थाने में पहुंचती है। यानी सिर्फ 35 फीसदी मामले ही पुलिस अपने मुताबिक सुलझाती है। या यह कहें कि दिल्ली में अगर कोई अपराध किसी नेता, मंत्री या पैसे वाले के करीबी से हो जाता है तो न्याय पावरफुल पैरवी के आधार पर काम करता है। वहां कानून या ईमानदार पुलिस मायने नहीं रखती। यानी पुलिस अगर चाहे तो भी ईमानदारी से काम कर नहीं सकती क्योंकि पुलिस की सूंड और पूंछ दोनो सत्ता के गलियारे में गुलामी करती है। और इसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि जो दिल्ली पुलिस देश के गृह मंत्रालय के अधीन है और इंडिया गेट पर जिस पुलिसिया कार्रवाई को लेकर पुलिस आयुक्त के तबादले के कयास लगने लगे हैं। उस दिल्ली पुलिस में 29 फीसदी तबादले नेताओं या मंत्रियो की पैरवी के पक्ष या विरोध को लेकर होते हैं।
दिल्ली पुलिस पर गृह मंत्रालय के नौकरशाहों की फाइलें कहीं ज्यादा भारी है जो नेताओ के इशारे पर चिड़िया बैठाने का काम करती हैं। इस कतार में कास्टेबल से लेकर आईपीएस सभी नेताओ के इशारे पर कदमताल कैसे करते हैं यह पावरफुल पुलिसकर्मियों के मोबाइल काल्स की डिटेल भर से पता लग सकता है कि किसके पीछे कौन है। लेकिन युवाओं के आक्रोश की वजह सिर्फ लंगडी होती व्यवस्था भर नहीं है। बल्कि व्यवस्था के नाम पर विकास और चकाचौंध की आवारा इमारत को खड़ा करने की वह मानसिकता है, जिसमें जेब हर दिमाग पर भारी हो चला है। पास में पैसा है तो पढ़ाई से क्या होगा। साथ में पावरफुल लोगो की जमात है तो डिग्रियों से क्या होगा। और अगर सत्ता की हुकूक ही साथ खड़ी है तो फिर अपराध करने के बाद सजा कौन दिलायेगा। क्योंकि पिछले बरस ही दिल्ली के थानो में दर्ज महिलाओं से छेड़छाड़ से लेकर अपराध के 167 एफआईआर पर कार्रवाई के तरीके बताते हैं कि आरोपी इसलिये छूटे या मामला इसलिये रफा-दफा हो गया क्योंकि पैरवी वीवीआईपी की तरफ से हुई। और यह वीवीआईपी उसी कतार के लोग हैं, जिनकी सुरक्षा में दिल्ली पुलिस जी जान से लगी रहती है। और आम नागरिक सड़क पर लुटता रहता है। इस लूट की समझ का दायरा दि्ल्ली में कैसे लगातार व्यापक हो रहा है, यह इससे भी समझा जा सकता है दस बरस में जिन्दगी की न्यूनतम जरुरतो की परिभाषा तक बदल दी गई है। जो पानी, बिजली, सफर और पार्किंग कमाई के हिस्से में सबसे न्यूनतम हुआ करते थे। अब वह सबसे ज्यादा हो चले हैं। यानी दिल्ली में जीने का मतलब न्यूनतम जरुरतों के जुगाड़ की ऐसी भागमदौड़ है, जहां रुक कर सांस भी ली और इंडियागेट या जंतर मंतर पर नारे लगाने के लिये भी रुके थमे तो घाटा हो जायेगा। और मनमोहन सिंह से लेकर शीला दीक्षित तक की व्यवस्था मुनाफा बनाने की है। घाटा उठाने की नहीं है । तो सरकार पहली बार इसलिये भौचक्की है कि उसने तो ना ठहरने वाली ऐसी व्यवस्था बनायी है, जिसमें कोई दर्द का जिक्र ना करे। और अब युवा ठहर कर सड़क से सरकार को आवाज लगा रहा है तो देश के प्रधानमंत्री को कहना पड़ रहा है कि वह भी तीन बच्चियों के पिता हैं।
Monday, December 24, 2012
[+/-] |
बेमकसद देश के सामने मकसद खोजता राजपथ पर युवा |
कड़क ठंड, पानी की धार, आंसू गैस ,बरसती लाठियां और लहुलूहान युवा। यह नजारा राजपथ का है। वही राजपथ जिस पर 26 जनवरी को गणतंत्र देश की गाथा दिखाने की तैयारी शुरु हो चुकी थी। तिरंगा लहराने के लिये राजपथ की लाल बजरी के दोनों किनारे लकड़ी गाढ़ी जा चुकी थी। राजपथ के दोनो तरफ गणतंत्र दिवस पर गर्व के साथ देश के गुणगाण करने वाली झांकियों को देखने के लिये लोहे और लकड़ियों की सीटों को लाया जा चुका था। लेकिन युवाओं के हाथो में लहराते प्लेकार्ड और जुबान से निकलते नारो ने जैसे जैसे हक और न्याय के सवालों को खड़ा करना शुरु किया वैसे वैसे सत्ता ने लोकतंत्र की परिभाषा बदलनी शुरु की। जैसे जैसे मकसद खोजता युवा बेमकसद व्यवस्था को कठघरे में खड़ाकर हमलावर होने लगा वैसे वैसे पुलिस-प्रशासन और राजनेता खुद को अपाहिज महसूस करने लगे। पानी की धार ने युवाओ को भिगोया तो तिरंगा लहराने वाली लकड़ियों को आग के हवाले कर युवाओ ने खुद में गर्मी पैदा की। आंसू गैस और लाठियों ने युवाओं को घायल किया तो नारों और गीतों के आसरे अपने जख्मों को मकसद मान कर और कहीं ज्यादा तल्खी और तेजी से खुद को आगे के संघर्ष के लिये तैयार करने में हर युवा लगा।
हर नये चेहरे हर चेहरे को अपने लगने लगे। गाजियाबाद के लोनी की 21 साल की मीना से लेकर गुड़गांव के हुड्डा चौक का 22 वर्षीय राजीव और फरीदाबाद की सलोनी से लेकर दिल्ली के डिफेन्स कॉलोनी के राघव पहली बार मिले लेकिन सभी के सुर एक। हक के सवाल एक। और न्याय की गुहार एक। सभी के मकसद भी एक। तो फिर रास्ता राजपथ का हो या जनपथ का। एक तरफ इंडिया गेट हो या 180 डिग्री में दूसरी तरफ राष्ट्रपति भवन। आमने सामने देश को चलाने वाले नार्थ-साउथ ब्लाक की कतार हो या संसद पर लहराता तिरंगा। हर युवा को यह सभी देश के होकर भी अपने नहीं लग रहे। कम्यूटर साइंस की छात्रा मोहिनी इन लाल इमारतो में अगर दफन होते अपने भविष्य को देख रही है तो जेएनयू के राकेश को लग रहा है कि सभी इमारतें उसे चिढ़ा रही हैं। हर युवा मन में ढेरों सवाल हैं। कोई युवा मीडिया के कैमरों के सामने नपी-तुली भाषा में अपने सवालों को रखने के लिये प्रशिक्षित नहीं है तो उसके आक्रोश की भाषा भी अलग है। कहीं नारो में तो कहीं गुस्से में हक की मांग, न्याय की गुहार यह समझ नहीं पा रही है कि ऐसा उन्होंने क्या मांग लिया जो सरकार की बात की जगह बेबात का पुलिसिया रंग उन्हें अपने रंग में रंगने की बार बार तैयारी करता है। बीते 48 घंटो में 18 बार लाठियां चली। सौ से ज्यादा आंसू गैस के गोले छूटे। तीन सौ पुलिसकर्मियों ने हजारों युवाओ को बसों में उठा-उठा कर भरा। छह गाडियों ने कड़क ठंड में 21 बार पानी की धार मारी। लेकिन हर बार कुछ नये चेहरे हक के सवालों को नये अंदाज में लेकर राजपथ पर कदम-ताल करने के लिये जुड़ते चले गये। मकसद पाने की तालाश में घायल होने के लिये को तैयार दिखे। राजपथ के दोनो किनारे डीयू, जामिया और जेएनयू ही नहीं बल्कि यूपी और हरियाणा के अलग अलग कॉलेजों में पढ़ रहे छात्रों के जमगठ लगातार नारे और हंगामे के बीच जिन सवालों का जवाब पाने के लिये बैचेन दिखे, वह देश के बेमकसद भविष्य को आइना
दिखाने के लिये काफी हैं। दिल्ली की टी-3 हवाई अड्डे के कुल खर्चे के महज दस फीसदी से समूची दिल्ली कैमरे के जरीये सुरक्षा घेरे में लायी जा सकती है फिर यह संभव क्यों नहीं है। चाणक्यपुरी और लुटियन्स की दिल्ली की सुरक्षा के बराबर बाकि समूची दिल्ली जो वीवीआईपी दिल्ली से एक हजार गुना बड़ी है, उसकी सुरक्षा एक बराबर कैसे हो सकती है।
दिल्ली में हर दिन 20 हजार गाड़ियों का रजिस्ट्रेशन होता है और इस खर्चे के आधे में दिल्ली पुलिस हर तरह से सुरक्षा दायरा मजबूत कर सकती है। फिर यह क्यों नहीं हो पाता। जो बारह हजार पुलिस कर्मी वीवीआईपी सुरक्षा में लगे हैं, उनकी तादाद से महज 15 फीसदी ज्यादा सुरक्षाकर्मी समूची दिल्ली की सुरक्षा कैसे कर सकती है। जबकि वीवीआईपी सिर्फ 575 के करीब हैं और आम लोग सवा करोड़। दिल्ली पुलिस
के सामानांतर निजी सुरक्षा का खर्च सिर्फ दिल्ली में तीन सौ गुना ज्यादा है। जबकि निजी सुरक्षा के घरे में दिल्ली के सिर्फ 2 लाख लोग ही आते हैं । यह ऐसे सवाल हैं, जो बलात्कार के सवाल को कहीं ज्यादा तल्खी के साथ मौजूदा व्यवस्था के बेमकसद होने से जोड़ते है और इन सवालों के आसरे युवाओं की टोली अपने अपने घेरे में यह सवाल करने से नहीं चूकती कि आईएएस और आईपीएस होने के बाद क्या राजपथ पर मौजूद पुलिसकर्मियों और नार्थ-साउथ ब्लॉक में बैठे नौकरशाहों की तरह काम करना पड़ेगा। तो क्या हक और न्याय के सवाल राजनेताओं के गुलाम है। या सत्ता की सहुलियत ही लोकतंत्र है। बेचैन करने वाले यह सवाल उन्हीं युवाओं के हैं, जिनके हाथो में हक मांगते प्ले कार्ड हैं। नारो की गूंज के बीच खुद को घायल करने की तैयारी है। और भविष्य में किसी प्रोफेशनल की तर्ज पर काम करने की लगन के साथ साथ यूपीएससी की परीक्षा पास करने का जुनून भी है। लेकिन आईपीएस या आईएएस होने के बाद भी अगर राजपथ खड़े होकर सत्ता के गाल बजाना है तो फिर लाल इमारतों में बंद व्यवस्था को बदलने की दिशा में कदम क्यों ना बढ़ाये जायें। नवीन जेएनयू के एसआईएस का छात्र है। पांव घायल है। आंसू गैस का गोला पांव के पास फटा। लंगडाकर चल रहा है । लेकिन लौटने को तैयार नहीं है। लौट कर कहां जाये। यूपीएससी की पिछली परीक्षा में कैंपस के 32 लड़के पास हुये। 16 छात्र आईएएस तो 11 छात्र आईपीएस होंगे। वह नौकरी शुरु करेंगे तो उन्हें भी देश के किसी ना किसी हिस्से में ऐसी ही किसी राजपथ पर खड़े होकर सत्ताधारियों की व्यवस्था को चलाना होगा। मैं भी कल आईएएस हो गया तो मुझे भी यही करना होगा। तो क्यो ना इस बार सरकार की नीयत को परख लिया
जाये। शकील को तो सरकार की नीयत में ही खोट नजर आता है। युवाओं की उर्जा को खपाने का इससे बेहतर तरीका सरकार के पास है भी नहीं। जिन्दगी गुजारने या बिताने के लिये युवा के पास है ही क्या। तो ऐसे ही आंदोलनों के जरीये सरकार अपने होने और युवाओं के होने को आजमाती है। नहीं तो देश में कौन होगा जो बलात्कारी को तुरंत सजा दिलाने में देरी करे। कहीं ज्यादा गुस्से में डीयू की सुष्मिता है। सवाल सुरक्षा का नहीं,सवाल सुरक्षा को भी सत्ता के हंटर की गुलामी करके चलनी पड़ रही है। साथ में सत्ता ना हो तो कोई सुनता ही नहीं। कहीं मंत्री तो कहीं पैसा। यह ना हो तो कोई सुनता ही नहीं। अगर यही सत्ता है और सुरक्षा या कानून सिर्फ सत्ता के लिये है तो हम राजपथ का नाम बदल कर ही लौटेंगे। लेकिन राजपथ पर महीने भर बाद ही देश का गणतंत्र होने के सपने को जीना है तो पुलिस फिर उसी लाठी,आंसू गैस और पानी की धार के तले सफाई में लगी है। उसे राजपथ साफ चाहिये।
Sunday, December 23, 2012
[+/-] |
इस चुनावी जीत को क्या नाम दें |
भ्रष्टाचार, महंगाई, घोटाले, कालाधन से लेकर कारपोरेट, नौकरशाही और सत्ताधारियों के नैक्सस और इन सब के बीच कभी कोलगेट तो कभी राबर्ट वाड्रा, कभी अंबानी। यानी जिस कांग्रेस को लेकर यह माना गया कि वह देश को बेच रही है, गवर्नेंस फेल हो रही है, खनिज संसधानों के राजस्व तक की लूट हो रही है और यह सब कांग्रेस सरकार की नीतियों के तहत हो रहा है और इसे खुले तौर पर संसद से लेकर सड़क तक पर भाजपा चिल्ला चिल्ला कर रखती है। इतना ही नहीं देश के सामने यह आवाज लगाती है कि कांग्रेस ने सत्ता में रहने का हक खो दिया है। वही कांग्रेस हिमाचल प्रदेश चुनाव में ना सिर्फ जीतती है बल्कि सत्ताधारी भाजपा को बडे अंतर से हराती है। जनता का यह फैसला किसके लिये है। जबकि भाजपा के सबसे माहिर चुनावी खिलाडी अरुण जेटली हिमाचल प्रदेश के प्रभारी थे। लगातार वह राबर्ट वाड्रा से लेकर वीरभद्र सिंह के घोटालो की तह में जाकर ना सिर्फ दस्तावेजी सच को हिमाचल प्रदेश में ही मीडिया के जरीये रख रहे थे बल्कि केन्द्र सरकार की रसोई गैस की राशनिंग सरीखी जनविरोधी नीतियों को भी उठा रहे थे लेकिन फैसला फिर भी भाजपा के ही खिलाफ गया। तो फिर इसके संकेत कांग्रेस के हक के निकाले जाये या भाजपा के भीतर की शून्यता के समझे जाये। राजनीतिक तौर पर कांग्रेस और भाजपा यह कहते हुये अपने अपने तर्क गढ़ सकती है कि नीतियां सही थीं या फिर नीतियों के असर को भाजपा सही तरीके से रख नहीं पायी। भाजपा टिकटों के दावेदारों पर भी अंगुली उठा रही है और आपसी झगड़ों को भी हार की वजह मान रही है। लेकिन सच कहीं ना कहीं भाजपा और संघ परिवार के भीतर लगे घुन का है। क्योंकि घोटालों की फेहरिस्त भी जब बेअसर हो जाये। जनविरोधी नीतियां भी जब चुनावी हार के बदले जीत में बदल जाये तो पहली बार जनता के संकेत साफ है कि भाजपा के पास कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं है और आरएसएस के पास देश के लिये कोई एजेंडा नहीं है। यानी मौजूदा वक्त में सत्ता जिसकी रहेगी, वह घोटालों और भ्रष्टाचार या महंगाई या कारपोरेट लूट को रोक नहीं पायेगा। जरुरी है कि इन्हें रोकने की आवाज उठाने के साथ साथ देश की जरुरत बना दी गई इस व्यवस्था की बिसात को बदलने की सोच भी साथ चले। और भाजपा या संघ परिवार के पास यह सोच है नहीं तो पहला संकट तो संघ और भाजपा के संगठन का है।
सवाल यह नहीं है कि चुनावी जीत से कांग्रेस की नीतियों को मान्यता मिल जाती है या फिर जिस तरीके से समाज में मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों की वजह से असमानता बढ़ी है, उसे कांग्रेस की चुनावी जीत समाज और देश की जरुरत करार दें । सवाल यह है कि कांग्रेस जिस रास्ते देश को ले जा रही है, उसके विकल्प के तौर पर भाजपा के पास क्या है और विरोध के तौर तरीके से इतर संघ परिवार के पास भी अपने राजनीतिक स्वयंसेवक के शुद्दिकरण के रास्ते क्या है। यह सवाल अब इसलिये बड़ा है क्योंकि संसदीय राजनीति का मापक यंत्र अगर चुनाव है तो फिर चुनावी जीत को लोकतंत्र का सेहरा और जनहित का फैसला मानना ही होगा। क्योंकि कोई राजनीति इस बिसात को उलटने के लिये तैयार नहीं है कि सोशल इंजीनियरिंग का मतलब विकास और आर्थिक नीतियों के साथ साथ वोट बैंक की सियासत से ही नही बल्कि यह देश सामाजिक-आर्थिक वातावरण और जीने के तरीके से भी जुड़ा है। और इस दायरे में राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र से देश का घोषणपत्र यानी संविधान ही मटियामेट हो रहा है। सवाल यह नहीं है कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये समाजवादी पार्टी उसे सांप्रदायिक बताकर कांग्रेस के साथ खड़ी हो जाती है और जब बात नौकरी में प्रमोशन को लेकर आरक्षण की आती है तो समाजवादी पार्टी और भाजपा एक साथ खड़ी दिखती हैं लेकिन सत्ता कांग्रेस की ही बरकरार रहती है। सवाल यह है कि राजनीतिक सत्ता बरकरार रखने के लिये या फिर सत्ता पाने के लिये की जोड़तोड़ ही देश की तमाम नीतियों को जब परिभाषित कर रही हो तब चुनाव को लेकर एक आम आदमी क्या करें। अगर हर आम आदमी के सामने लोकतंत्र का मतलब चुनाव में जीत हार है और राजनीतिक दल सत्ता के लिये खुले तौर पर इसी लोकतंत्र को पारदर्शी बनाने के लिये सत्ता के लिये ही नीतियां या नीतियों का विरोध बताते हैं तो फिर देश का मतलब सत्ता से इतर क्या होगा। और अगर सत्ता ही देश है यानी सत्ता जो कहे, जो करे उसे देशहित करार देना ही है तो फिर विरोध का मतलब क्या होगा। अगर चुनावी तंत्र के लोकतंत्र तले सत्ता के विरोध का मतलब देखें तो यह राजनीतिक स्टंट भी है और खुद को सत्ता में लाने के लिये चुनी गई सरकार के विरोध की राजनीति करना। लेकिन नीतियों को लेकर कोई सत्ता के निर्णयो पर यह कहकर अंगुली उठाये कि वह चुनावी रास्ते के आसरे नहीं बल्कि आम जनता को इसके लिये तैयार करेगा कि सत्ता का हर निर्णय देशहित का नहीं होता बल्कि सत्ता के ज्यादातक निर्णय सत्ताधारी के खुद को सत्ता में बनाये रखने के तानेबाने का है।
जाहिर है संघ परिवार की यही ट्रेनिंग गायब हो चली है। यानी जो आरएसएस कल तक सामाजिक शुद्दिकरण पर जोर देती थी और उसी शुद्दिकरण के दायरे में उसके अपने राजनीतिक स्वयंसेवक तैयार होते थे जब वही स्वयंसेवक भी मान चुके है कि राजनीतिक ट्रेनिंग का मतलब संसदीय राजनीति की बिसात पर ही चलकर सत्ता तक पहुंचना है तो फिर सवाल कांग्रेस के विकल्प या मौजूदा वक्त में मनमोहन सिंह के आर्थिक नीतियों के विकल्प को बनाने की मशक्कत का कहां बचेगा। यानी विकल्प का रास्ता चुनावी तंत्र में शरीक होकर तभी बनाया जा सकता है, जब चुनाव लड़ने के तरीके बदल दिये जाये। क्योंकि तरीके बदले बगैर सत्ता की भाषा उसकी नीतियां सत्ताधारियों से हटकर हो नही सकती है और भाषा या नीतियां अगर सत्ता की एक सी है तो फिर सत्ता में राजनीतिक दलों के बदलने से आम आदमी पर असर भी कुछ नहीं पड़ेगा। असल में हिमाचल प्रदेश के चुनावी परिणामो के संकेत यही है कि सत्ता में कांग्रेस रहे या भाजपा । दिल्ली में सत्ता किसी की रहे लेकिन सामाजिक-आर्थिक वातारण पर असर बदलेगा नहीं। जीने के तौर तरीको में संघर्ष या आराम की परिभाषा आम आदमी और सत्ताधारियों के बीच जस की तस रहेगी । असल सवाल यही से खड़ा होता है कि चुनावी जीत-हार या सत्ता के तौर तरीकों पर चुनावी परिणाम से असर नहीं पड़ता है तो फिर राजनीतिक दलों के सत्ताधारियों के जीवन पर भी जीत हार का असर क्या पड़ता होगा। हिमाचल में भ्रष्टाचार में गोते लगाने वाले वीरभद्र सिंह जीते या फिर प्रेमकुमार धूमल की सत्ता तले भाजपा की युवा पौघ संभाले अनुराग ठाकुर का राग क्रिकेट के धंधे को संभालने वाला हो और वह हार जाये। केन्द्र में कांग्रेस के पास कारोबारियों का हित साघने वाले मनमोहन सिंह की इकनॉमिक्स हो या भाजपा के पास कारोबारी अध्यक्ष गडकरी हो । 10 जनपथ की कोटरी कांग्रेस और सत्ताधारी कांग्रेस के जरीये देश को चलाये या फिर भाजपा में दिल्ली की संसदीय दल की कोटरी अपने इशारों पर भाजपा के कैडर को कदमताल कराये या स्वयंसेवकों को राजनीति का पाठ पढ़ाये। दोनो में अंतर क्या है। खासकर आम आदमी के लिये अंतर क्या होगा, सत्ता में कोई रहे या जाये। या फिर सत्ताधारियों पर असर क्या पड़ेगा, उनकी सत्ता जाये या बनी रहे । मुश्किल यही है कि जिस आजादी के आसरे संविधान ने जीने के तरीके बताये उसी आजादी को सत्ता की गुलामी तले दबाकर संविधान की व्याख्या भी सत्ताधारियों के लिये की जा रही है। और उसे लोकतंत्र मान लिया गया है। इस परिभाषा को बदल वही सकता है, जिसके पास वाकई सामाजिक शुद्दिकरण का हुनर हो। जिसके पास सत्ता को जनता की जमीन पर ला पटकने का हुनर हो । जो चुनाव को जिन्दगी जीने की जद्दोजहद से जोड़ कर देखने की मजबूरी को बदल दें । जो राजनीतिक सत्ता की ताकत को आमआदमी की एकजुटता से चुनौती दे सके। यानी जो सत्ता पर टिके रहने की नीतियों से लेकर सत्ता पाने के लिये बनाने वाली नीतियों से इतर जनतंत्र को परिभाषित करें। यानी सत्ता की ताकत चुनावी जीत-हार के राजनीतिक मंच से हटकर विकसित हो तभी आम आदमी की महत्ता है। नहीं तो भ्रष्ट नौकरशाह हो या
राजनेता या फिर कारपोरेट समूह या इस धंधे को चौथी निगाह से देखना वाला मीडिया तंत्र। आरोप भी उसी पर लगेंगे और हर आरोप के बाद ताकत भी उसी की बढ़ेगी। आम आदमी के हाथ सिर्फ चुनावी जीत-हार ही आयेगी।
Thursday, December 13, 2012
[+/-] |
भाजपा का संकट |
एफडीआई ही नहीं हर उस मुद्दे पर संसद के भीतर भाजपा अकेले पड़ी है, जिस मुद्दे पर मनमोहन सरकार पर संकट आया है। महंगाई हो या भ्रष्टाचार,कालाधन हो या एफडीआई, ध्यान दें तो सड़क पर चाहे हर राजनीतिक दल भाजपा के साथ खड़ा नजर आता है लेकिन संसद के भीतर एनडीए के बाहर यूपीए का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की जुबान पर एक ही राग रहता है सांप्रदायिकता। यानी भाजपा सांप्रदायिक है और सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के लिये मौजूदा सरकार ही चलेगी। चाहे उसकी नीतियां जनविरोधी क्यों ना हो।
तो क्या भाजपा का सांप्रदायिक रंग एक ऐसा राजनीतिक नारा बन चुका है जो सीधे चुनाव में असर करता है और कोई राजनीतिक दल भाजपा के साथ खड़े होकर अपनी राजनीतिक जमीन में सेंघ लगाना नहीं चाहता है। सीधे कहें तो जवाब हां ही होगा। क्योंकि देश के 18 करोड़ मुस्लिमों को लेकर चुनावी जवाब सीधा है कि वह खुले मन से भाजपा के पक्ष में जा नहीं सकते और भाजपा के साथ खड़े होकर कोई दूसरा राजनीतिक दल अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बचा नहीं सकता । तो क्या वाकई भाजपा सांप्रदायिक है। या फिर इस राजनीतिक नारे को खत्म करने के लिये भाजपा तैयार नहीं है,क्योंकि उसकी जड़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है।
जाहिर है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा अलग हो नहीं सकती तो क्या सांप्रदायिकता के नाम पर कांग्रेस को हमेशा राजनीतिक लाभ मिलता रहेगा। या कहें भाजपा इस मिथ को तोड़ नहीं सकती कि वह भी राष्ट्रीय
राजनीतिक दल है, जिसे सांप्रदायिकता के आधार पर अछूत करार देना महज राजनीतिक चुनावी समीकरण है। जाहिर है यह मिथ टूट सकता है। लेकिन इसके लिये भाजपा को जो मशक्कत करनी होगी क्या वह इसके लिये तैयार है। यह सवाल इसलिये क्योंकि भाजपा का उदय विकल्प के तौर पर हुआ। हेडगेवार ने आरएसएस को 1923-24 में जब बनाने की सोची तब वह कांग्रेस छोड़ कर संघ को बनाने में जुटे। जनसंघ को बनाने का विचार श्यामाप्रसाद मुखर्जी के जेहन में कांग्रेस के विकल्प को तौर पर आया। जबकि आजादी के बाद 1947 में जवाहर लाल नेहरु की अगुवाई में जो 14 सदस्यीय कैबिनेट देश चला रही थी, उसमें श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी थे। यानी ध्यान दें तो आरएसएस हो या जनसंघ से भाजपा तक सभी विकल्प बनाने के लिये बने। फिर देश की आजादी के बाद 65 बरस में कुल जमा महज बीस बरस ही रहे होंगे, जब देश के किसी राज्य या दिल्ली की सत्ता में कोई स्वयंसेवक रहा। लेकिन बीते 65 बरस में शायद ही कोई चुनाव होगा जब सांप्रदायिकता का सवाल वोट बैंक को बांटने वाला ना रहा हो।
जाहिर है यहां यह सवाल खडा हो सकता है कि क्या सांप्रदायिकता संघ के रास्ते से निकलते हुये भाजपा की भी जरुरत बन चुकी है। क्योंकि उसके पास कोई विकल्प नहीं है । विकल्प सिर्फ राजनीतिक तौर पर ही नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक तौर पर भी भाजपा के पास वैकल्पिक सोच बची नहीं है। यह मुद्दा इसलिये बड़ा है क्योंकि राजनीतिक तौर पर भाजपा के तौर तरीके साफ बताते है देश के किसी भी ज्वलंत मुद्दों को लेकर देश को किस राह पर चलना चाहिये उसके लिये उसके राजनीतिक समीकरण अगर कांग्रेसी सोच से आगे बढ़ नहीं पाते तो हिन्दुत्व का ऐसा रंग अपने साथ ले लेते हैं कि उसे सांप्रदायिक करार देना सबसे आसान काम हो जाता
है। मसलन एफडीआई यानी विदेशी निवेश का विरोध भाजपा करती है। लेकिन जरा सोचिये अगर भाजपा एफडीआई से होने वाले नुकसान के सामानांतर उस अर्थव्यवस्था के खांके को रख पाती जो देश की मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों के लिये विदेशी निवेश का विकल्प बन जाता तो क्या कोई राजनीतिक दल यह कह सकता था कि सांप्रदायिक ताकत को सत्ता से बाहर रखने के लिये उसे जनविरोधी एफडीआई का समर्थन करने वाली मनमोहन सरकार के साथ खड़ा होना पड़ रहा है। भाजपा शासित राज्यों का ही हाल देख लें। भाजपा को जिन तीन राज्यों पर सबसे ज्यादा गुमान है वह गुजरात,छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश हैं। गुजरात की अर्थव्यवस्था की जमीन ही कॉरपोरेट और विदेशी पूंजी पर टिकी है। छत्तीसगढ़ तो दो रुपये चना और चावल देकर राजनीतिक अर्थव्यवस्था के जरिये सामाजिक राजनीति को मजबूती दिये हुये है। मध्यप्रदेश में तो न्यूनतम जरुरत की संरचना भी विकसित नहीं हो पायी है। पीने का पानी, इलाज के लिये स्वास्थ्य
केन्द्र और पढ़ाई-लिखाई के लिये शिक्षा का कोई ऐसा खाका मध्य प्रदेश में आज भी खड़ा नहीं हो पाया है, जहां लगे कि वाकई सरकार के सरोकार आम लोगों से है और अर्थव्यवस्था स्वावलंबन की दिशा दे सकती है। यहां कांग्रेस शासित राज्यों की बदहाली का सवाल भी खड़ा किया जा सकता है। लेकिन समझना यह भी होगा कि कांग्रेस और भाजपा के बीच एक मोटी लकीर मौजूदा परिस्थितयों के ताने बाने को चलाने और उसके विकल्प को देने का है। और भाजपा ने इस दिशा में ना तो कोई काम किया है और ना ही विकल्प की राजनीति की जमीन बनाने की कभी सोची भी। भाजपा के सामानांतर जिस विकल्प की बात आरएसएस करता है भाजपा ना तो उससे जुड़ पाती है और ना ही उससे कट पाती है। मसलन संघ परिवार के किसी संगठन पर भाजपा का बस नहीं है। विहिप हो या स्वदेशी जागरण मंच , भारतीय मजदूर संघ हो या विघार्थी परिषद इन पर भाजपा की नहीं आरएसएस की चलती है । ध्यान दें तो सत्ता में आने के बाद भाजपा राजनीतिक तौर पर संघ से ज्यादा वक्त रुठी हुई नजर आती है। उसे लगता है कि संसदीय राजनीति की जो जरुरतें हैं, उसे आरएसएस समझता नहीं है। लेकिन रुठने के सामानांतर क्या भाजपा ने कभी संघ से असहमति जताते हुये कोई रचनात्मक कार्यक्रम देश के सामने रखा है। क्या भाजपा में किसी नेतृत्व ने राजनीतिक तौर पर अपने कार्यक्रमों के जरिये भाजपा में ही सार्वजनिक सहमति बनायी है, जिससे संघ को भी लगे कि भाजपा के राजनीतिक दिशा को मथने की जरुरत नहीं है।
असल में भाजपा सांप्रदायिक होने के लिये तब तक अभिशप्त है, जब तक उसके पास देश चलाने का कोई वैकल्पिक नजरिया नहीं होगा । और संयोग से संघ के नजरिये से आगे विकल्प का सवाल राजनीतिक स्वयंसेवकों के सामने है ही नहीं। किसी भी मुद्दे को परख लें। आरक्षण सिर्फ राजनीतिक प्रभाव को बढाने का शस्त्र है , भाजपा सिर्फ यह कहकर कैसे बच सकती है कि जब तक आरक्षण के बदले सामाजिक और आर्थिक स्थितियों पर विचार ना हो कोई वैकल्पिक खाका देश के सामने ना रखा जाए। वही जो यह सोचते है कि भाजपा अगर विकल्प यह सोच कर नहीं दे सकती कि उसकी उत्पत्ति तो संघ से हुई है और संघ को ही विकल्प खड़ा करना होगा, भाजपा तो वैकल्पिक सोच को महज उसकी राजनीतिक परिणति तक पहुंचा सकती है। तो इस दौर में संघ परिवार के तमाम संगठनों की पहल को परखे तो हर संगठन ठिठक कर रह गया है। सोच सिमटी है और आरएसएस के भीतर भी सत्ता को परिभाषित करने का सिलसिला शुरु हो चुका है। यानी कल तक जो संगठन अपने कामकाज से सत्ता पर दवाब बनाते थे। जो आरएसएस राजनीतिक शुद्दिकरण की प्रक्रिया को आजमाते हुये सामाजिक बदलाव की दिशा में सत्ता को ले जाना चाहती थी। अब वही संगठन सत्ता के लिये काम करने को बेचैन हैं। आरएसएस सत्ता की परिभाषा गढने में मशगूल है। शिक्षा के तौर तरीके हो या स्वदेशी स्ववलंबन की सोच,हिन्दुत्व की व्यापक समझ हो ग्रमीण भारत की अर्थव्यवस्था को विकसित करने की सोच,सभी कुछ भाजपा की सत्ता समझ में जा सिमटे है। इसलिये मौजूदा वक्त में नौजवानों के लिये संघ का रास्ता भाजपा के जरीये समाज को गढने के बदले सत्ता के नजदीक पहुंचने की कवायद हो चला है। और दूसरे राजनीतिक दलों के लिये सत्ता तक पहुंचने का रास्ता भाजपा को सांप्रदायिक करार देना हो चला है। जाहिर है ऐसे में भाजपा के लिये राजनीतिक रास्ता उसे अपने विकल्प को खुद ही गढ़ने का हो सकता है। और यह
रास्ता भाजपा की टूट से ही निकल सकता है। क्योंकि भाजपा बैकल्पिक राजनीति का मुलम्मा ओढ़कर बरगद की तरह हो चुकी है और बरगद तले कोई नया पौधा पनप ही नहीं सकता है। ऐसे में भाजपा जबतक टूटेगी नहीं तबतक कोई क्रांतिकारी परिवर्तन भी नहीं होगा। और मौजूदा राजनीतिक चुनावी व्यवस्था में भाजपा के लिये जरुरी है कि वह टूटे जिससे राजनीतिक तौर पर जो सोच हेडगेवार ने 1925 में कांग्रेस से इतर वैकल्पिक राजनीति की सोच कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव डाल कर रखी उसे आने वाले वक्त में नये तरीके से संघ भी आत्मसात करे। क्योंकि राजनीतिक तौर पर जो रास्ता भाजपा अपना चुकी है सामाजिक तौर पर वही रास्ता आरएसएस का है।
Thursday, December 6, 2012
[+/-] |
संसदीय लोकतंत्र की जय हो ! |
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का तमगा लगाकर जीना आसान काम नहीं है। खासकर लोकतंत्र अगर संसदीय राजनीति का मोहताज हो। और संसदीय सत्ता की राजनीति समूचे देश को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाये। और सत्ता के प्रतीक संसद पर काबिज राजनीतिक दलों के नुमाइन्दे अगर सौ करोड़ लोगों के पेट से जुड़े सवालों को संसद की चौखट पर घाटे-मुनाफे में तौल कर लोकतंत्रिक होने का स्वांग करने लगे तो क्या होगा।
लोकतंत्र का मतलब है हर नागरिक को बराबर अधिकार और सत्ता में भागेदारी के लिये बराबर के अवसर। लेकिन बीते चार बरस में जिस तरह भ्रष्टाचार, महंगाई, काला धन और परमाणु समझौते को लेकर संसद के भीतर बहस हुई और जनता के हित-अहित को अपने अपने राजनीतिक जरुरत की परिभाषा में पिरोकर लोकतांत्रिक होने का मुखौटा दिखाया गया। उसी कड़ी में एफडीआई की बहस ने यह तो जतला दिया की लोकतंत्र का मतलब चुने हुये सत्ताधारियों के विशेषाधिकार है ना कि आम जनता को बराबरी का अधिकार। लोकतंत्र बरकरार रहे यह देश की संसद और राज्यों की विधानसभा के सदस्यों के कंधों पर सबसे ज्यादा है। जनता अपने जितने नुमाइन्दों को चुनकर संसद और विधानसभा में भेजती है, इनकी संख्या देश की समूची जनसंख्या का दशमलव शून्य शून्य शून्य एक फीसदी से भी कम है। लेकिन इस राजनीतिक लोकतंत्र का विस्तार पंचायत, गांव और जिला स्तर पर चुने जाने वाले करीब अड़तीस लाख सदस्यों तक भी है। संयोग से यह भी देश की जनसंख्या का एक फीसदी नहीं है। लेकिन सबसे बड़े लोकतंत्र के तमगे का खेल यहीं से शुरु होता है। चुने हुये नुमाइन्दे के घेरे में पहुंचते ही ऐसे विशेषाधिकार मिलते हैं, जो कानून और सुविधा का दायरा ना सिर्फ एकदम अलग बना देते हैं बल्कि उनके दायरे को ही लोकतंत्र मान लिया जाता है। इस दायरे में जो एक बार पहुंच गया, वह कैसे इस दायरे से अलग हो सकता है। इसकी कड़ियो को परखना बेहद जरुरी है। जाहिर है सत्ता के लोकतंत्र का पहला पाठ यहीं से शुरु होता है कि सत्ता मिले तो सत्ता को कैसे बरकरार रखा जाये और बरकरार रखने के हर हथकंडे को लोकतंत्र का कवच बता दिया जाये। यानी भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये कानून है। महंगाई को थामने के लिये राजनीतिक पैकेज है। कालेधन पर रोक के लिये अंतराष्ट्रीय समझोते हैं। और पेट की भूख मिटाने के लिये विदेशी निवेश हैं। यानी सबकुछ मौजूद है और उसे लागू करने के लिये सरकार है जो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई है। यानी लोकतंत्र की पहली सत्ताधारी परिभाषा पूंजी और मुनाफे की थ्योरी की गलियो से होकर निकलती है, जिसके जरीये सत्ता मिलती है तो समूची कवायद उसी को लेकर होती है।
असल में लोकतंत्र की जागरुकता मुनाफे के इर्द-गिर्द किस तरह जा टिकी है, यह बाजार के मुनाफे की समझ और जातियों की राजनीतिक जागरुकता से भी उभरा है। माना जाता था पहले गांव के लोगों में राजनीतिक जागरुकता नहीं थी तो वह अपना वोट बेच देते थे। लेकिन आधुनिक दौर में वोट नही सरकार और सत्ता बिकती है। देश में कौन सी नीति किस औघोगिक घराने को लाभ पहुंचा सकती है, शरुआती समझ यही से बढ़ी। लेकिन लोकतंत्र में हर किसी की बराबरी की भागेदारी ने हर तबके-जाति में अब उस सौदेबाजी के लंबे मुनाफे के तंत्र को विकसित कर दिया जिसमें मामला सिर्फ एक बार वोट बेचने से नही चलता बल्कि पांच साल तक सत्ता को दुहने का खेल चलता रहता है। यानी चुनावी लोकतंत्र का मतलब चंद लोगों के लिये नीतियों के जरीये मुनाफे का ब्लैंक चैक है तो एक बड़े वोट बैंक के लिये पांच साल तक का रोजगार है। यानी संसद में किसी भी मुद्दे को लेकर चर्चा-बहस हो उसका झुकाव खुद ब खुद सत्ता की तरफ इसलिये होगा क्योंकि संसद का मतलब सत्ता है। यानी सत्ता के अनुकुल बहस नहीं तो फिर सत्ता को बहस मंजूर भी नहीं। यानी लोकतंत्र को जीने के नाम पर पहली ठगी संसद की चौखट से ही निकलेगी। और उस पर अंगुली उठाने का मतलब है संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को खारिज करना जिसकी इजाजत संविधान देता नही। तो लोकतंत्र के रंग कैसे बदलते बदलते बदल गये, जरा यह भी समझें।
राजनीतिक चुनाव का एक ऐसा तंत्र समाज के मिजाज में ही बना दिया गया है जिसमें बिछी बिसात पर पांसे तो कोई भी फेंक सकता है, लेकिन पांसा उसी का चलता है, जिसके हाथ से ज्यादा आस्तिन में पांसे हों। लोकतंत्र के इस चुनावी खेल में सहमति- असहमति मायने नहीं रखती। हर स्तम्भ के लिये खुद को सत्ता की तर्ज पर बनाये और टिकाये रखते हुये अपनी जरुरत बताने का खेल सबसे ज्यादा होता है। आर्थिक नीतियों के फेल होने से लेकर देश की सुरक्षा में लगातार सेंध लगने पर आम जनता के निशाने पर राज्य और राजनीति आयी तो उसे बचाने के लिये न्यायपालिका और मीडिया ही सक्रिय हुआ। कड़े कानून के जरीये काम ना करने की मानसिकता का ढाप लिया गया। शहीदों के परिवारों को नेताओं के हाथों सम्मान दिलवाने के कार्यक्रम के जरीय जनता के आक्रोश को थामने का काम मीडिया ने ही किया। इसको सफल बनाने में औघोगिक घरानों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। विज्ञापन और प्रायोजक खूब नजर आये। आर्थिक नीतियों तले करीब दो करोड़ लोगों के रोजगार जा चुके है, लेकिन विधायिका और कार्यपालिका ने न्यायपालिका का आसरा लेकर बेलआउट की व्यूहरचना कुछ इस तरह की, जिससे बाजार व्यवस्था चाहे ढह रही हो लेकिन कमजोर ना दिखे। इसी के
प्रयास में कम होते मुनाफे को घाटा और घाटे को बेलआउट में बदलने की थ्योरी परोसी जा रही है। लेकिन जहां दो जून की रोटी रोजगार छिनने से जा जुड़ी है, उसे विश्वव्यापी मंदी से जोड़कर आंख फेरने की राज्यनीति भी बाखुबी चल रही है। इसलिये कोई एक स्तम्भ अगर जनता के निशाने पर आता है तो बाकी सक्रिय होकर उसे बचाते हैं, जिससे लोकतंत्र का खेल चलता रहे। इन परिस्थितियों में विकल्प का सवाल महज सवाल बनकर ही क्यों रहेगा, इसका जवाब इसी गोरखधंधे में छिपा है कि सभी के लिये एक बराबर खेलने का मैदान नहीं है। लोकतंत्र हर किसी के बराबरी का नारा तो लगाता है लेकिन गैरबराबरी का अनूठा चक्रव्यूह बनाकर। चक्रव्यू का मतलब लोकतंत्र के संसदीय विकल्प को खारिज करते हुये हर किसी को संसदीय राजनीति के घेरे में लाकर हमाम में खड़ा बतलाना कहीं ज्यादा है। इसीलिये संसद के जरीये सपना जगाने की राजनीति तो लोकतंत्र कर सकता है लेकिन कोई संसद इस चक्रव्यूह को तोड़ पाये इसकी इजाजत संसदीय राजनीति नहीं देती। इसीलिये संसद का मतलब या उसको परिभाषित करने का मंत्र सवा सौ करोड़ लोगों पर आ टिकता है। लेकिन लोकतंत्र की सत्ता का उपभोग करने के लिये अंगुलियों पर गिने जाने वाले नेता, कारपोरेट, नौकरशाह के इक्के ही नजर आते हैं। मौजूदा वक्त में देश के टॉप बीस राजनेताओं के परिवार, टॉप बीस कारपोरेट और टॉप छत्तीस सरकारी संस्थानों को संभाले नौकरशाहों को हटा दें तो यकीन जानिये जिस लोकतंत्र को हम-आप जी रहे हैं, वह ढह-ढहाकर गिर जायेगा। क्योंकि राजनीतिक दल इन्हीं के नाम पर चलते हैं। भारत ही नहीं दुनिया भर के 9 फीसदी धंधे यही करते हैं।
देश की नीतियों को लागू कराने से लेकर कानूनों की आड़ में गलत-सही बताने के अधिकार इन्हीं के पास हैं। यानी यह कहा जा सकता है कि देश के सौ से कम परिवारों के जरीये देश का लोकतंत्र चल रहा है। तो ऐसे में संसद की बिसात क्या और संसदीय लोकतंत्र का मतलब क्या है, जिसके जरिये जवाहरलाल नेहरु से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी के दौर को याद कर लोकतांत्रिक देश होने का तमगा लगाया जाता है। और विरासत के जरिये पीढ़ियो को सहजने और घर की चारदीवारी में सुरक्षा-सुविधा का ऐसा ताना बाना बुना जाता है, जो इस एहसास को खत्म करता है कि सत्ता का मतलब देश और सवा सौ करोड़ लोग हैं। लोकसभा के 545 सदस्यों में से मौजूदा वक्त में पन्द्रह फीसदी सदस्य यानी करीब 80 सदस्य ऐसे हैं, जिनकी पहचान किसी बड़े नेता के बेटे-बेटी या पत्नी-बहु के तौर पर है। नाम तो अब हर किसी के जुबान पर हैं। महत्वपूर्ण है कि पहली बार देश के छह हजार गांवों में भी सत्ताधारी की राजनीति और उसके परिवार की अहमियत ने एक नया तबका पैदा कर दिया है जो राजनीतिक जाति का है। और यह राजनीतिक जाति हर जाति पर भारी भी है और सत्ताधारी बनाकर लोकतंत्र की लूट का आधार भी है।
दरअसल देश में चार स्तरीय संसदीय राजनीति में पंचायत स्तर पर अड़तीस लाख सात सौ के करीब नुमाइन्दे चुने जाते हैं। फिर इसमें नगर निकाय,विधानसभा और लोकसभा के तमाम नुमाइन्दों को जोड़ दे तो तादाद उनचालिस लाख के करीब पहुंचेगी। और इन नुमाइन्दों के कोटरी में अगर औसतन 10 लोगों को रखें और फिर कोटरी के हर सदस्य की कोटरी में 10 लोगों को रखे। इसी तरह कॉरपोरेट और नौकरशाहो की फेरहिस्त को भी अगर सत्ताधारी मान लिया जाये तो इसी आधार पर इनकी कोटरी को भी सत्ताधारी या विशेषाधिकार वाला मान कर गिनती की जाये तो देश में यह तादाद पांच करोड से ज्यादा होती नहीं है। और सरकार खुद ही अपने आंकडो से बताती है कि देश के 28 हजार 650 परिवारों के पास जो संपत्ति है, देश की कुल तादाद का 42 फीसदी है और इन पर देश का जो संसादन खर्च होता है वह 19 फीसदी से ज्यादा है। जबकि देश के 65 करोड़ लोगों पर 19 फीसदी संसाधन खर्च होता है। और देश के 110 करोड़ लोगों के हिस्से में 42 फीसदी संपत्ति आती है। यानी असमानता का चरम सत्ता की छांव में ही नहीं बल्कि सत्ता के भागेदारी से जिस देश में हो, वहां संसद के भीतर की बहस चाहे सौ करोड़ लोगो के पेट से जुड़ी हो उस पर संसदीय राजनीति का फैसला तो शून्य दशमलव एक फीसदी के लिये ही होगा। ऐसे में एफडीआई की गिरफ्त में रोजगार गंवाने वाला खुदरा क्षेत्र के 6 करोड़ व्यापारी मजदूर हो या महंगाई से परेशान का सबसे व्यापक चालीस करोड़ का मध्यवर्ग हो। फैसला इनके हित में कैसे जा सकता है। जबकि संसद में बनती नीतियों के आसरे ही देश में एक करोड साठ लाख युवाओं की रोजी रोटी छिनी हो। 6 करोड़ किसान जमीन से बेदखल हुये हों। 9 करोड़ मनरेगा पर टिके हों। 42 करोड का जीवन राशन कार्ड पर टिका हो। साढ़े छह करोड़ सरकारी कैश का इंतजार करने लगे हों। और सत्ता में आने के लिये महज साढे ग्यारह करोड वोट चाहिये हों।और देश में सत्ताधारियों का समाज महज सौ परिवारों में टिक जाये तो क्या लोकतंत्र की जय कहा जाये। और संसदीय बहस के जरिये लोकतांत्रिक जय पर ठप्पा लगा दिया जाये।
Friday, November 30, 2012
[+/-] |
जो ज़िंदगी के लिए मौत को चुनते हैं... |
तालिबान के हाशिये पर जाने के बाद या कहे पाकिस्तान सरकार के तालिबान को लेकर कड़े रुख के बाद जब अफगानिस्तान से पाकिस्तान लौटते बच्चों को पकड़ा गया तो पूछताछ में पता यही चला कि सभी जेहाद में शामिल होने के लिये फिदायीन बनकर निकले थे। पाकिस्तान के हरीपुर और पेशावर जेल में बंद ऐसे ही जेहादियों में 517 फिदायीन बच्चों का इंटरव्यूह सोहेल अब्बास ने लिया। और जो जवाब फिदायीन बच्चों ने दिये उसने ना सिर्फ पाकिस्तान के सामाजिक आर्थिक हालात की त्रासदी बता दी बल्कि दुनिया के सामने भी आतंक के लिये इस्लाम और जेहाद का इस्तेमाल कर कैसे बच्चो की भूख और अच्छी जिन्दगी पाने की तड़प को फिदायीन बनाकर उभारा, यही सच सामने आता है। फिदायीन बनने का मतलब तो मौत है। इससे क्या मिलेगा। और अगर 21 बरस का फिदायीन जवाब दे कि मौत के बाद बेहतर जिन्दगी मिलेगी तो यह आतंक की जीत है या मानवियता की हार। तय जो भी कीजिये लेकिन सोहेल अब्बास की किताब "प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट " में पन्ने दर पन्ने पढ़ते हुये अजमल कसाब सरीके बच्चो का सच ही सामने रेंगने लगता है। यह सवाल बहुत छोटा हो जाता है कि बेहद खामोशी से अजमल को फांसी देकर मुंबई हमले की किताब बंद कर दी गई। जाहिर है कसाब इस कडी में सिर्फ एक है। जो पांच भाई-बहनों में तीसरे नंबर का होकर ना तो घर का प्यारा रहा और घर में पिता की कमाई में भी जिन्दगी को कोई सुकुन ना पा सका। कसाब के पिता पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के ओकारा जिले के फरीदकोट में रहते हुये शहरी रिहाइश इलाके में दही पूरी का ठेला लगाकर ही कमाई करते। कसाब ही नहीं पाकिस्तान के सबसे गरीब इलाको में से पंजाब प्रांत के इस इलाके का सच यही है कि जिस बच्चे के हाथ पांव मजबूत होते वह पढ़ाई के लिये खड़े होने से पहले काम करने के लिये सड़क पर खुद को खड़ा पाता।
कसाब की भी यही कहानी रही और कसाब जैसे सैकड़ों बच्चो की भी यही कहानी है। और काम ना मिले तो फेट भरने के लिये फिदायीन बनना ही जिन्दगी का सबसे खूबसूरत तोहफा माना जाता। यह सच किताब में जलाल, उस्मान, हाशिम या इमरान सरीखे सैकड़ों बच्चों का है। फिदायीन बनने के जो हालात बताये गये हैं, वह कसाब के जीवन से मेल खाते हैं। जरा कसाब का सच देखिये। लश्कर-ए-तोएबा के राजनीतिक विंग जमात-उल-दावा के जरीये कसाब ने जाना कि इस्लाम खतरे में है। सवाल मुजाहिदो का है। मौत हुई तो भी जिन्दगी बेहतर होगी। और इसी जुनून में रावलपिंडी से लेकर मुजफ्फराबाद में दौरा-ए-आम और दौरा-ए-खास की ट्रेनिंग के बाद फिदायीन का तमगा लगा। और फिदायीन युवाओ की टोली में कसाब का नाम फ़क्र से लिया जाने लगा यानी मौत के लिये जीने की मान्यता क्या होती है, इसे सोहेल अब्बास ने "प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट" में बार बार उभारा है।
सोहेल अब्बास की किताब बताती है कि आतंकवाद को जेहाद से जोड़ना आतंक का पहला पड़ाव है। गरीब परिवारों के बच्चो को खुदा के नाम पर जेहाद के लिये इस्तेमाल करना आतंक का दूसरा पड़ाव है। और हर हमले में मारे जाने वाले फिदायीन को सीधे खुदा के पास जाने वाले शहीद के तौर पर बताना तीसरा पड़ाव होता है। यानी कसाब की तर्ज पर तालिबान के रास्ते पर फिदायीन बनकर निकले 500 से ज्यादा बच्चो के दिमाग को पढ़ने के बाद सोहेल अब्बास ने पाया कि गरीबी और अशिक्षा पाकिस्तान में आतंकवाद के लिये खाद का काम करती है। फिर धर्म के नाम पर आतंक को परिभाषित करना आधुनिक बीज बनकर फैलता है। कराची में रहने वाले 7 वीं पास जलाल को इस्लाम की रक्षा करने के उद्देश्य से फिदायीन बनना मंजूर होता है। स्वात का 29 बरस का हाशिम तो 4 बरस की बेटी और 2 बरस के बेटे का पिता है। लेकिन जो पाठ उसे मौलवी पढ़ाते हैं, उसके मुताबिक खुदा के आदेश पर वह जेहाद के लिये निकलता है। और उसके ना रहने पर खुदा ही उसके बच्चों की देखभाल करते हैं। सरगोदा में 5वी का छात्र 11 वर्षीय उस्मान को तो तालिबान इस्लाम के लिये लड़ते हुये खत्म होते दिखायी देते हैं। जिनकी मदद करने पर खुदा से सीधे राफ्ता हर बच्चे का बनता है तो पूर्वी काबूल पहुंचकर उस्मान तालिबानी बैरक में ही छूट जाता है और बच जाता है। लेकिन मौत को गले ना लगा पाने का गम उसे पाकिस्तान की जेल में भी सालता रहता है। 14 बरस का जमील तो धार्मिक पिता की छाव में ही अच्छा जीवन व्यतीत करते हुये जेहाद की दिशा में इसलिये चल पड़ता है क्योंकि अफगानिस्तान में तालिबान के साथ जो बर्ताव अमेरिकी सेना करती है उनकी तस्वीरे उसे अंदर से हिला देती है। और झटके में अंग्रेजी स्कूल की पढ़ाई, तेज संगीत में रुचि, अच्छे कपड़े पहनने की सोच सब कुछ बदल जाती है। और जमील तालिबान के रास्ते चल पड़ता है। दूध बेचने वाले का बेटे 13 बरस के अकबर को तो अपने स्कूल में ही पहला पाठ यही मिलता है कि अगर घर की खुली खिडकी से आजान की आवाज जरुर आनी चाहिये और अगर उस खिड़की से साफ हवा भी आती है तो वह बोनस है। और धीरे धीरे जिन्दगी पर मौत हावी होती है और रास्ता जेहाद की दिशा में चल निकलता है। इमरान तो जेहाद के लिये सिर्फ 20 हजार रुपये में अपने हिस्से की जमीन बेच कर फिदायीन बनने का फैसला लेता है। और तालिबान को ही इस्लाम का रक्षक मानते हैं और फिदायिन बनकर मौत को जिन्दगी मानने से नहीं चूकते।"प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट " में जेहाद के नाम पर फिदायीन बनने वाले लड़कों से जेहाद का मतलब पूछा जाता है तो 73 फीसदी इसे ग्लोरी आफ इस्लाम से जोड़ते हैं। और जेहाद से मिलेगा क्या इस सवाल के जवाब में अधिकतर यही कहते है कि मौत के बाद बेहतर जिंदगी मिलेगी। यानी बेहतर जिन्दगी के लिये मौत। मुश्किल यह भी है कि जिस उम्र के लड़के फिदायीन बनने के लिये सबसे ज्यादा उतावले होते हैं, उनकी उम्र 18 से 25 है। और आतंकवादी संगठनों में इसी उम्र के लडके कमांडर से लेकर फिदायीन हमलावर के तौर पर मौजूद हैं। "प्रोबिंग द जेहादी माइडसेट "के जरीये सोहेल अब्बास आंतक के उस मर्म को भी पकड़ते हैं, जहां मां-बाप का प्यार भी इस्लाम और जेहाद के नाम पर अपने बच्चों को फिदायिन बनाने में गर्व महसूस करता है। क्योंकि गरीबी के बीच सबसे गरीब परिवारो के जीवन में आतंक की तकरीर देने के लिये लश्कर-ए-तोयबा से लेकर जेहादी काउंसिल के आधे दर्जन आतंकवादी संगठनों को चलाने वाले फिदायीन बनाने को तैयार होने वाले परिवारों को सार्वजनिक तौर पर मान्यता देने पहुंचते हैं। और मौत की खबर आ जाये तो बेहतर जिन्दगी पाने की दलील देते हैं। कसाब की फांसी के बाद लशकर चीफ हाफिज सईद की लाहौर में तकरीर इसका एक उदाहरण है। जो खुले तौर पर फिदायीन कसाब की मौत को उसे जन्नत और खुदा के दरवाजे पर ले जाने वाला बताती है और कहीं किसी स्तर पर इसका विरोध नहीं होता ।
जाहिर है "प्रोबिंग द जेहादी माइडसेट "पाकिस्तान के आतंक विरोधी तरीकों पर भी बिना कहे अंगुली उठाता है, क्योंकि तालिबान के असफल होने के बाद जब बच्चे समर्पण करते हैं और पाकिस्तान की उदार राजनीति से उनका पाला पडता है और फिदायीन बनने के बाद के अनुभवों को याद करते हुये जब इन युवा फिदायीनों से यह पूछा जाता है कि अब आगे उनका मकसद क्या है तो करीब 80 फिसदी लडके रोजमर्रा की जिन्दगी को बंहतर बनाना ही अपना लक्ष्य बताते हैं। यानी जिन्दगी को मौत में नहीं जिन्दगी में टटोलते हैं। और यह सवाल भी खड़ा करते हैं कि फिदायीन बनने के रास्ते के बाद जब जिन्दगी उनके साथ है तो वह मौत को अब गले लगाना नहीं चाहते हैं या फिदायीन बनकर मौत को जिस नजरीये से वह देख रहे थे वह गलत था। यानी सही वातावरण मिले तो फिदायीन के रास्ते पर भटकने से पहले ही बच्चे संभल सकते हैं । सोहेल अब्बास की किताब "प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट " जेहादी बच्चों के बारे जो तथ्य बताते हैं, वह भी पाकिस्तान में पनपते आतंक की पीछे की सोच को साफ कर देता है। क्योंकि सिर्फ 4 फीसदी फिदायीन बच्चे ही इस्लाम के इतिहास को पढ़े हैं। 69 फीसदी मानते है कि इस्लाम खतरे में हैं। किताब "प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट "संकेत में ही पाकिस्तान के उस अंधेरे पर सवाल करती है, जहां अशिक्षा है। मुफलिसी है। तो सवाल यह भी है कि अजमल कसाब की फांसी के बाद पाकिस्तान की सरकार या वहां के राजनेता कितना समझेंगे कि पाकिस्तान की सामाजिक-आर्थिक परिस्थतियों को ठीक करना जरुरी है। अन्यथा सियासी बातो से ना तो आतंकवाद खत्म होगा और ना ही फांसी या मौत का डर फिदायिन बनने वालो को डरायेगा। क्योंकि गरीबी-मुफलिसी में जीते परिवारों के लिये खुदा का रास्ता ही सबसे बड़ा बताकर जब पहली दस्तक आतंकवाद देता है तो मौत का खौफ टिकेगा कहां।
Saturday, November 24, 2012
[+/-] |
ऐसे बन रही है आम आदमी की पार्टी |
राजनीतिक संघर्ष की नयी परिभाषा गढ़ते केजरीवाल
दफ्तर-एआईसी यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत। पता-ए-119 कौशांबी। पहचान-बंद गली का आखिरी मकान। उद्देश्य-राजनीतिक व्यवस्था बदलने का आखिरी मुकाम अरविन्द केजरीवाल। कुछ यही तासीर...कुछ इसी मिजाज के साथ इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले अन्ना हजारे से अलग होकर सड़क पर गुरिल्ला युद्द करते अरविन्द केजरीवाल। किसी पुराने समाजवादी या वामपंथी दफ्तरों की तरह बहस-मुहासिब का दौर। आधुनिक कम्प्यूटर और लैपटाप से लेकर एडिटिंग मशीन पर लगातार काम करते युवा। और इन सब के बीच लगातार फटेहाल-मुफलिस लोगों से लेकर आईआईटी और बिजनेस मैनेजमेंट के छात्रों के साथ डाक्टरों और एडवोकेट की जमात की लगातार आवाजाही। अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते समाजसेवी से लेकर ट्रेड यूनियन और बाबुओं से लेकर कारपोरेट के युवाओं की आवाजाही। कोई वालेन्टियर बनने को तैयार है तो किसी के पास लूटने वालों के दस्तावेज हैं। कोई अपने इलाके की लूट बताने को बेताब हैं। तो कोई केजरीवाल के नाम पर मर मिटने को तैयार है। और इन सबके बीच लगातार दिल्ली से लेकर अलग अलग प्रदेशों से आता कार्यकर्ताओं का जमावड़ा, जो संगठन बनाने में लगे हैं। जिले स्तर से लेकर ब्लाक स्तर तक। एकदम युवा चेहरे।
मौजूदा राजनीतिक चेहरों से बेमेल खाते इन चेहरों के पास सिर्फ मुद्दों की पोटली है। मुद्दों को उठाने और संघर्ष करने का जज्बा है। कोई अपने इलाके मे अपनी दुकान बंद कर पार्टी का दफ्तर खोल कर राजनीति करने को तैयार है। तो कोई अपने घर में केजरीवाल के नाम की पट्टी लगा कर संघर्ष का बिगुल फूंकने को तैयार है। और यही सब भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत[एआईसी] के दफ्तर में आक्सीजन भी भर रहा है और अरविन्द केजरीवाल का लगातार मुद्दों को टटोलना। संघर्ष करने के लिये खुद को तैयार रखना और सीधे राजनीति व्यवस्था के धुरंधरों पर हमला करने को तैयार रहने के तेवर हर आने वालों को भी हिम्मत दे रहा है।
संघर्ष का आक्सीजन और गुरिल्ला हमले की हिम्मत यह अलख भी जगा रहा है कि 26 नवंबर को पार्टी के नाम के ऐलान के साथ 28 राज्यों में संघर्ष की मशाल एक नयी रोशनी जगायेगी। और एआईसी की जगह आम
आदमी की पहचान लिये आम आदमी की पार्टी ही खास राजनीति करेगी। जिसके पास गंवाने को सिर्फ आम लोगो का भरोसा होगा और करने के लिये समूची राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव। दिल्ली से निकल कर 28 राज्यों में जाने वाली मशाल की रोशनी धीमी ना हो इसके लिये तेल नहीं बल्कि संघर्ष का जज्बा चाहिये और अरविन्द केजरीवाल की पूरी रणनीति उसे ही जगाने में लगी है। तो रोशनी जगाने से पहले मौजूदा राजनीति की सत्ताधारी परतों को कैसे उघाड़ा जाये, जिससे रोशनी बासी ना लगे। पारंपरिक ना लगे और सिर्फ विकल्प ही नहीं बल्कि परिवर्तन की लहर मचलने लगे। अरविन्द केजरीवाल लकीर उसी की खींचना चाहते हैं। इसीलिये राजनीतिक तौर तरीके प्रतीकों को ढहा रहे हैं।
जरा सिलसिले को समझें। 2 अक्टूबर को राजनीतिक पार्टी बनाने का एलान होता है। 5 अक्तूबर को देश के सबसे ताकतवर दामाद राबर्ट वाड्रा को भ्रष्टाचार के कठघरे में खड़ा करते हैं। 17 अक्तूबर को भाजपा अध्यक्ष
नितिन गडकरी के जमीन हड़पने के खेल को बताते हैं। 31 अक्तूबर को देश के सबसे रईस शख्स मुकेश अंबानी के धंधे पर अंगुली रखते हैं और नौ नवंबर को हवाला-मनी लैंडरिंग के जरीये स्विस बैक में जमा 10 खाताधारकों का नाम बताते हुये मनमोहन सरकार पर इन्हें बचाने का आरोप लगाते हैं। ध्यान दें तो राजनीति की पारंपरिक मर्यादा से आगे निकल कर भ्रष्टाचार के राजनीतिकरण पर ना सिर्फ निशाना साधते हैं बल्कि एक नयी राजनीति का आगाज यह कहकर करते है कि , "हमें तो राजनीति करनी नहीं आती"। यानी उस आदमी को जुबान देते हैं जो राजनेताओं के सामने अभी तक तुतलाने लगता था। राजनीति का ककहरा राजनेताओं जैसे ही सीखना चाहता था। पहली बार वह राजनीति का नया पाठ पढ़ रहा है। जहां स्लेट और खड़िया उसकी अपनी है। लेकिन स्लेट पर उभरते शब्द सत्ता को आइना दिखाने से नहीं चूक रहे। तो क्या यह बदलाव का पहला पाठ है। तो क्या अरविन्द केजरीवाल संसदीय सत्ता की राजनीति के तौर तरीके बदल कर
जन-राजनीति से राजनीतिक दलों पर गुरिल्ला हमला कर रहे हैं। क्योंकि आरोपों की फेरहिस्त दस्तावेजों को थामने के बावजूद अदालत का दरवाजा खटखटाने को तैयार नहीं है। केजरीवाल चाहें तो हर दस्तावेज को अदालत में ले जाकर न्याय की गुहार लगा सकते हैं। लेकिन न्यायपालिका की जगह जन-अदालत में जा कर आरोपी की पोटली खोलने का मतलब है राजनीति जमीन पर उस आम आदमी को खड़ा करना जो अभी तक यह सोचकर घबराता रहा कि जिसकी सत्ता है अदालत भी उसी की है। और इससे हटकर कोई रास्ता भी नहीं है। लेकिन केजरीवाल ने राजनीतिक न्याय को सड़क पर करने का नया रास्ता निकाला। वह सिर्फ सत्ताधारी कांग्रेस ही नहीं बल्कि विपक्षी भाजपा और बाजार अर्थव्यवस्था के नायक अंबानी पर भी हमला करते हैं। यानी निशाने पर सत्ता के वह धुरंधर हैं, जिनका संघर्ष संसदीय लोकतंत्र का मंत्र जपते हुये सत्ता के लिये होता है। तो क्या संसदीय राजनीति के तौर तरीकों को अपनी बिसात पर खारिज करने का अनूठा तरीका अरविन्द केजरीवाल ने निकाला है। यानी जो सवाल कभी अरुंधति राय उठाती रहीं और राजनेताओं की नीतियों को जन-विरोधी करार देती रहीं। जिस कारपोरेट पर वह आदिवासी ग्रामीण इलाकों में सत्ता से लाइसेंस पा कर लूटने का आरोप लगाती रहीं । लेकिन राजनीतिक दलों ने उन्हें बंदूकधारी माओवादियों के साथ खड़ा कर अपने विकास को कानूनी और शांतिपूर्ण राजनीतिक कारपोरेट लूट के धंधे से मजे में जोड़ लिया। ध्यान दें तो अरविन्द केजरीवाल ने उन्हीं मु्द्दों को शहरी मिजाज में परोस कर जनता से जोड़ कर संसदीय राजनीति को ही
कटघरे में खड़ा कर दिया। तरीकों पर गौर करें तो जांच और न्याय की उस धारणा को ही तोड़ा है, जिसके आधार पर संसदीय सत्ता अपने होने को लोकतंत्र के पैमाने से जोड़ती रही। और लगातार आर्थिक सुधार के तौर तरीकों को देश के विकास के लिये जरुरी बताती रही। यानी जिस आर्थिक सुधार ने झटके में कारपोरेट से लेकर सर्विस सेक्टर को सबसे महत्वपूर्ण करार देकर सरकार को ही उस पर टिका दिया उसी नब्ज को बेहद बारिकी से केजरीवाल की टीम पकड़ रही है। एफडीआई के सीधे विरोध का मतलब है विकास के खिलाफ होना। लेकिन एफडीआई का मतलब है देश के कालेधन को ही धंधे में लगाकर सफेद बनाना तो फिर सवाल विकास का नहीं होगा बल्कि कालेधन या हवाला-मनीलैडरिंग के जरीये बहुराष्ट्रीय कंपनी बन कर दुनिया पर राज करने के सपने पालने वालों को कटघरे में खड़ा करना। स्विस बैंक खातों और एचएसबीसी बैकिंग के कामकाज पर अंगुली उठी है तो सवाल सिर्फ भ्रष्टाचार पर सरकार के फेल होने भर का नहीं है। बल्कि जिस तरह सरकार की आर्थिक नीति विदेशी बैंको को बढ़ावा दे रही हैं और आने वाले वक्त में दर्जनों विदेशी बैंक को सुविधाओं के साथ लाने की तैयारी वित्त मंत्री चिदबरंम कर रहे हैं, बहस में वह भी आयेगी ही। और बहस का मतलब सिर्फ राजनीतिक निर्णय या नीतियां भर नहीं हैं या विकास की परिभाषा में लपेट कर सरकार के परोसने भर से काम नहीं चलेगा। क्योंकि पहली बार राजनीतिक गुरिल्ला युद्द के तौर तरीके सड़क से सरकार को चेता भी रहे हैं और राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के लिये तैयार भी हो रहे हैं।
यह अपने आप में गुरिल्ला युद्द का नायाब तरीका है कि दिल्ली में बिजली बिलों के जरीये निजी कंपनियो की लूट पर नकेल कसने के लिये सड़क पर ही सीधी कार्रवाई भुक्तभोगी जनता के साथ मिलकर की जाये। और कानूनी तरीकों से लेकर पुलिसिया सुरक्षा को भी घता बताते हुये खुद ही बिजली बिल आग के हवाले भी किया जाये और बिजली बिल ना जमा कराने पर काटी गई बिजली को भी जन-चेतना के आसरे खुद ही खम्बो पर चढ़ कर जोड़ दिया जाये। और सरकार को इतना नैतिक साहस भी ना हो कि वह इसे गैर कानूनी करार दे। जिस सड़क पर पुलिस राज होता है वहां जन-संघर्ष का सैलाब जमा हो जाये तो नैतिक साहस पुलिस में भी रहता। और यह नजारा केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट की लूट के बाद सड़क पर उतरे केजरीवाल और उनके समर्थकों के विरोध से भी नजर आ गया। तो क्या भ्रष्टाचार के जो सवाल अपने तरीके से जनता के साथ मिलकर केजरीवाल ने उठाये उसने पहली बार पुलिस से लेकर सरकारी बाबुओं के बीच भी यही धारणा आम
कर दी है कि राजनेताओं के साथ या उनकी व्यवस्था को बनाये-चलाये रखना अब जरुरी नहीं है। या फिर सरकार के संस्थानों की नैतिकता डगमगाने लगी है। या वाकई व्यवस्था फेल होने के खतरे की दिशा में अरविन्द केजरीवाल की राजनीति समूचे देश को ले जा रही है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योकि दिल्ली में सवाल चाहे बिजली बिल की बढ़ी कीमतो का हो या सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट का विकलांगों के पैसे को हड़पने का। दोनों के ही दस्तावेज मौजूद थे कि किस तरह लूट हुई है। पारंपरिक तौर-तरीके के रास्ते पर राजनीति चले तो अदालत का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। जहां से सरकार को नोटिस मिलता। लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने इस मुद्दे पर जनता के बीच जाना ही उचित समझा। यानी जिस जनता ने सरकार को चुना है या जिस जनता के आधार पर संसदीय लोकतंत्र का राग सत्ता गाती है,उसी ने जब सरकार के कामकाज को कटघरे में खड़ा कर दिया तो इसका निराकरण भी अदालत या पुलिस नहीं कर सकती है। समाधान राजनीतिक ही होगा। जिसके लिये चुनाव है तो चुनावी आधार तैयार करते केजलीवाल ने बिजली और विकलांग दोनों ही मुद्दे पर जब यह एलान किया कि वह जेल जाने को तैयार हैं लेकिन जमानत नहीं लेंगे तो पुलिस के सामने भी कोई
चारा नहीं बचा कि वह गिरफ्तारी भी ना दिखायी और जेल से बिना शर्त सभी को छोड़ दे।
जाहिर है अरविन्द केजरीवाल ने जनता की इसी ताकत की राजनीति को भी समझा और इस ताकत के सामने कमजोर होती सत्ता के मर्म को भी पकड़ा। इसीलिये मुकेश अंबानी के स्विस बैंक से जुडते तार को प्रेस कॉन्फ्रेन्स के जरीये उठाने के बाद मुकेश अंबानी के स्विस बैक खातों के नंबर को बताने के लिये जन-संघर्ष [राजनीतिक-रैली] का सहारा लिया। और रैली के जरीये ही सरकार को जांच की चुनौती दे कर अगले 15 दिनो तक जनता के सामने यह सवाल छोड़ दिया कि वह सरकारी जांच पर टकटकी लगाये रहे।
साफ है राजनीतिक दल अगर इसे "हिट एंड रन "या "शूट एंड स्कूट" के तौर पर देख रही हैं या फिर भाजपा का कमल संदेश इसे भारतीय लोकतंत्र को खत्म करने की साजिश मान रहा है तो फिर नया संकट यह भी है कि अगर जनता ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को चुनाव में खारिज कर दिया तो क्या आने वाले वक्त में चुनावी
प्रक्रिया पर सवाल लग जायेंगे। और संसदीय राजनीति लोकतंत्र की नयी परिभाषा टटोलेगी जहा उसे सत्ता सुख मिलता रहे। या फिर यह आने वाले वक्त में सपन्न और गरीब के बीच संघर्ष की बिसात बिछने के प्रतीक है। क्योंकि अरविन्द केजरीवाल को लेकर काग्रेस हो या भाजपा या राष्ट्रीय राजनीति को गठबंधन के जरीये सौदेबाजी करने वाले क्षत्रपो की फौज, जो सत्ता की मलाई भी लगातार खा रही है सभी एकसाथ आ खड़े हो रहे हैं। साथ ही कारपोरेट से लेकर निजी संस्थानों को भी लगने लगा है राजनीतिक सुधार का केजरीवाल उन्हें बाजार अर्थवयवस्था से बाहर कर समाजवाद के दायरे में समेट देगा। तो विरोध वह भी कर रहा है।
तो बड़ा सवाल यह भी है कि चौमुखी एकजुटता के बीच भी अरविन्द केजरीवाल लगातार आगे कैसे बढ़ रहे हैं। न्यूज चैनल बाइट या इंटरव्यू से आगे बढ़कर घंटों लाइव क्यों दिखा रहा है। अखबारों के पन्नो में केजरीवाल का संघर्ष सुर्खिया क्यों समेटे है। जबकि कारपोरेट का पैसा ही न्यूज चैनलो में है। मीडिया घरानों के राजनीतिक समीकरण भी हैं। कई संपादक और मालिक उन्हीं राजनीतिक दलों के समर्थन से राज्यसभा में हैं, जिनके खिलाफ केजरीवाल लगातार दस्तावेज के साथ हमले कर रहे हैं। फिर भी ऐसे समाचार पत्रों के पन्नों पर वह खबर के तौर पर मौजूद हैं। न्यूज चैनलो की बहस में हैं। विशेष कार्यक्रम हो रहे हैं। जाहिर है इसके कई तर्क हो सकते हैं। मसलन मीडिया की पहचान उसकी विश्वसनीयता से होती है। तो कोई अपनी साख गंवाना नहीं चाहता। दूसरा तर्क है आम आदमी जिस तरह सडक पर केजरीवाल के साथ खड़ा है उसमें साख बनाये रखने की पहली जरुरत ही हो गई है कि मीडिया केजरीवाल को भी जगह देते रहें। तीसरा तर्क है इस दौर में मीडिया की साख ही नहीं बच पा रही है तो वह साख बचाने या बनाने के लिये केजरीवाल का सहारा ले रहा है । और चौथा तर्क है कि केजरीवाल भ्रष्टाचार तले ढहते सस्थानों या लोगों का राजनीतिक व्यवस्था पर उठते भरोसे को बचाने के प्रतीक बनकर उभरे हैं तो राजनीतिक सत्ता भी उनके खिलाफ हैं, वह भी अपनी महत्ता को बनाये रखने में सक्षम हो पा रहा है। और केजरीवाल के गुरिल्ला खुलासे युद्द को लोकतंत्र के कैनवास का ही एक हिस्सा मानकर राजनीतिक स्वीकृति दी जा रही है। क्योंकि जो काम मीडिया को करना था, वह केजरीवाल कर रहे हैं। जिस व्यवस्था पर विपक्ष को अंगुली रखनी चाहिये थी, उसपर केजरीवाल को अंगुली उठानी पड़ रही है। लोकतंत्र की जिस साख को सरकार को नागरिकों के जरीये बचाना है, वह उपभोक्ताओं में मशगूल हो चली है और केजरीवाल ही नागरिकों के हक का सवाल खड़ा कर रहे हैं। ध्यान दें तो हमारी राजनीतिक व्यवस्था में यह सब तो खुद ब खुद होना था जिससे चैक एंड बैलेंस बना रहे। लेकिन लूट या भ्रष्टाचार को लेकर जो सहमति अपने अपने घेरे के सत्ताधारियों में बनी उसके बाद ही सवाल केजरीवाल का उठा है। क्योंकि आम आदमी का भरोसा राजनीतिक व्यवस्था से उठा है, राजनेताओं से टूटा है। जाहिर है यहां यह सवाल भी खड़ा हो सकता है कि केजरीवाल के खुलासों ने अभी तक ना तो कोई राजनीतिक क्षति पहुंचायी है ना ही उस बाजार व्यवस्था पर अंकुश लगाया है जो सरकारों को चला रही हैं। और आम आदमी ठगा सा अपने चुने हुये नुमाइन्दों की तरफ अब भी आस लगाये बैठा है। फिर केजरीवाल ने झटके में व्यवसायिक-राजनीति हितों के साथ खड़े होने वाले संपादकों की सौदेबाजी के दायरे को बढ़ाया है। क्योंकि केजरीवाल के खुलासों का बडा हथियार मीडिया भी है और मीडिया हर खुलासे में फंसने वालों के लिये तर्क गढ भी सकता है और केजरीवाल के हमले की धार भोथरी बनाने की सौदेबाजी भी कर सकता है। यानी अंतर्विरोध के दौर में लाभ उठाने के रास्ते हर किसी के पास है और अंतरविरोध से लाभ राजनेता से लेकर कारपोरेट और विपक्ष से लेकर सामाजिक संगठनों को भी मिल सकता है। यह सभी को लगने लगा है। लेकिन सियासत और व्यवस्था की इसी अंतर्विरोध से पहली बार संघर्ष करने वालों को कैसे लाभ मिल रहा है, यह दिल्ली से सटे एनसीआर के कौशाबी में बंद गली के आखिरी मकान में चल रहे आईएसी के दफ्तर से समझा जा सकता है। जहां ऊपर नीचे मिलाकर पांच कमरों और दो हाल में व्यवस्था परिवर्तन के सपने पनप रहे हैं। सुबह से देर रात तक जागते इन कमरों में कम्प्यूटर और लैपटॉप पर थिरकती अंगुलियां। कैमरे में उतरी गई हर रैली और हर संघर्ष के वीडियो को एडिटिंग मशीन पर परखती आंखें। हर प्रांत से आये भ्रष्टाचार की लूट में शामिल नेताओं के दस्तावेजो को परखते चेहरे। और इन सब के बीच दो-दो चार के झुंड में बहस मुहासिबो का दौर। बीच बीच में एकमात्र रसोई में बनती चाय और बाहर ढाबे ये आती दाल रोटी। यह राजनीतिक संघर्ष की नयी परिभाषा गढ़ने का केजरीवाल मंत्र है। इसमें जो भी शामिल हो सकता है हो जाये..दरवाजा हमेशा खुला है।
Wednesday, November 21, 2012
[+/-] |
ममता के पीछे कौन है ? |
अविश्वास प्रस्ताव पर अविश्वास क्यों
ठीक दो महीने पहले 20 सितंबर को रिटेल सेक्टर में एफडीआई के खिलाफ भारत बंद में सभी राजनीतिक दल एकजुट थे। मनमोहन सरकार को समर्थन करने वाले मुलायम से लेकर करुणानिधि और खांटी विरोधी लेफ्ट और भाजपा सभी एकजुट हो एक साथ भारत बंद करने में जुटे थे। लेकिन महज दो महीने बाद ही एफडीआई मुद्दे पर मनमोहन सरकार का विरोध संसद में कैसे हो सड़क के सारे साथी बिखर गये हैं। भाजपा को लगता है कि धारा 184 ठीक है तो लेफ्ट को 2008 याद आने लगा है, जब परमाणु संधि के खिलाफ समर्थन वापस लेकर वह अविश्वास प्रस्ताव लाया लेकिन सरकार ने मुलायम की व्यवस्था कर सरकार बचा ली। जाहिर है ऐसे में सबकि नजरे छोटे दलों पर जा टिकी है क्योंकि यह पहला मौका है जब मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर कोई राजनीतिक दल सहमत नहीं है। लेकिन मनमोहन सरकार खुले तौर पर यह कहने से नहीं चूक रही कि सरकार रहे या जाये लेकिन आर्थिक नीतियों के जरीये सुधार तो जारी रहेंगे। और दूसरी तरफ सरकार चली जाये इस पर आपसी अविश्वास तमाम राजनीतिक दलों में इस हद तक है कि संसद में ममता बनर्जी के अविश्वास प्रस्ताव पर ही सहमति नहीं बन पा रही है। तो क्या सरकार को कोई खतरा नहीं है और ममता
बनर्जी का अविश्वास प्रस्ताव हवा में उछाला गया एक दांव भर है।
अगर राजनीतिक घटनाक्रम को देखें तो सच कुछ और भी है और ममता बनर्जी का प्रस्ताव सिर्फ ममता के अकेले का गुस्सा भर नहीं है। यह सही है कि ममता के 19 सांसदों के जरिये मनमोहन सरकार पर ना तो कोई खतरा मंडरा सकता है और ना ही अविश्वास प्रस्ताव पर संसद बहस और वोट करा सकती है। अविश्वास प्रस्ताव के लिये पचास सांसदों के हस्ताक्षर जरुरी है। यह बात ममता बनर्जी जानती नहीं है ऐसा भी नहीं है। फिर इसी क्रम में जरा मुलायम सिंह यादव,मायवती,करुणानिधि,ठाकरे परिवार और शरद पवार के समीकरण को समझने की भी जरुरत है और इन तमाम राजनेताओं की पहल कैसे किस रुप में हो रही है, यह भी देखना जरुरी है। जिस समाजवादी पार्टी में चुनाव के महीने भर पहले टिकटों की मारामारी खुल कर होती रही है और परिवारवाद से लेकर समाजवाद और अपराध से लेकर भ्रष्टाचार के गठजोड़ पर मुलायम को टिकट बांटते बांटते हांफना पड़ता रहा है। वहीं मुलायम सिंह 18 महीने पहले ना सिर्फ 63 उम्मीदवारों का ऐलान दो खेप में कर देते हैं बल्कि कुछ सीट पर उम्मीदवारों में फेरबदल भी इस तरीके से करते हैं, जैसे चुनाव का ऐलान हो चुका है। वहीं मायावती के तमाम सिपहसलार सांसदों की हस्ती दिल्ली में सरकार के बीच लगातार बढ़ती है। चाहे मुकदमे हो या सुरक्षा व्यवस्था।
राहत और सुविधा बहुजन समाज पार्टी के सांसदो को बाखूबी मिलती हुई लुटियन्स की दिल्ली में देखी जा सकती है। और सरकार से यह करीबी सरकार चलती रहे की तर्ज पर ही दिखायी देती है। वहीं करुणानिधि की खामोशी सरकार को समर्थन देने के नाम पर आने वाले वक्त के इंतजार का एहसास भी कराती है और जयललिता को लेकर अपनी बिसात मजबूत करने की दिशा को भी टटोलती सी दिखती है। यह हालात प्रधानमंत्री के भोज में डीएमके सांसद का एफडीआई पर खामोशी बरतने से भी समझा जा सकता है और संसद सत्र के शुरु होने पर ही पत्ते खोलने के हथकंडे अपनाने से भी जाना जा सकता है। वहीं बालासाहेब ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना को लेकर उठते सवाल दिल्ली की गद्दी से ज्यादा उद्दव और राज ठाकरे के बीच बनने वाले समीकरण और शिवसेना के भविष्य को लेकर महाराष्ट्र की राजनीति को प्रभावित करने वाले ही ज्यादा है। शिवसेना के सामने अब सवाल हिन्दु सम्राट ठाकरे की जगह उद्दव ठाकरे का नरम पंथी विस्तार और राज का गरम पंथी संकीर्णता वाली राजनीति है। यानी हिन्दुत्व का वह चेहरा अब शिवसेना की जरुरत नहीं है, जिसे बाला साहेब के जरीये देखा-परखा जाता रहा और भाजपा की विचारधारा के करीब शिवसेना दिखायी देती रही। शिवसेना की यह बदली हुई परिस्थितियां शरद पवार के अनुकूल हैं। और शरद पवार जिस तरह मनमोहन सरकार से पिछले दिनों बार बार रुठे लेकिन कांग्रेस से कोई उन्हे मनाने आना तो दूर सरकार की तरफ से भी खामोशी बरती गई और यह माना गया कि गांधी परिवार से शरद पवार की दूरी अब भी बरकरार है। यानी हर राजनीतिक दल के नेताओं की पहलकदमी के केन्द्र में कही ना कही मनमोहन सरकार का रहना या ना रहना ही है, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। इसलिये ममता बनर्जी के अविश्वास प्रस्ताव पर पैदा हुये अविश्वास को अगर राजनीतिक रणनीति मान लें । तो संसद सत्र शुरु होने के बाद क्या क्या हो सकता है, इसकी शुरुआत मुलायम सिंह यादव से ही करनी होगी।
यह तो तय है कि मनमोहन सरकार के गिरने से सबसे ज्यादा लाभालाभ मुलायम को ही होना है। क्योंकि उत्तर प्रदेश के हालात बताते हैं कि जैसे जैसे वक्त बीतता जायेगा वैसे वैसे समाजवादी पार्टी का जनाधार भी खिसकता जायेगा। क्योंकि बिगड़ी कानून व्यवस्था से लेकर फेल होते गवर्नेंस के बाद युवा अखिलेश सरकार के दौर में ही यूपी को मायावती का दौर याद आयेगा ही और आना शुरु भी हो गया है। तो मुलायम का लाभ मायावती के लिये सबसे बड़ा घाटा है। क्योंकि मुलायम के आगे बढ़ने का मतलब है भाजपा के लिये रास्ता बनना। और जिस तरह छह जिलों में सांप्रदायिक दंगे हुये हैं, वह मुलायम की मायावती को हाशिये पर ले जाने वाली राजनीति की पहली चाल है। जिसके अक्स में भाजपा को अपना लाभ भी दिखायी दे सकता है। तो ममता अविश्वास प्रस्ताव को लेकर यू ही तो नहीं चहकी है। पीछे मुलायम की बिसात तो होगी है। वहीं यह हालात करुणानिधि को भी उकसा सकते हैं। क्योंकि करुणानिधि के पास अब मनमोहन सरकार के सत्ता में बने रहने पर भी पाने के लिये कुछ भी नहीं है। लेकिन विरोध के स्वर या ममता के अविश्वास प्रस्ताव पर विश्वास जताने का वक्त तभी आयेगा जब विरोध करने पर सरकार गिरना तय हो जाये और तमिलनाडु की राजनीति में डीएमके यह बात पहुंचने में सफल हो जाये कि वह ना तो 2 जी स्पेक्ट्रम और ना ही सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर मनमोहन सरकार के साथ खड़ी है। यानी विरोध में खड़ी जयललिता को मिलने वाले राजनीति लाभ के सामानांतर करुणानिधि खुद को भी मनमोहन सरकार के खिलाफ खड़ा कर लें। तो ममता के अविश्वास प्रस्ताव के संसद के पटल तक पहुंचने के बाद करुणानिधि की चाल सरकार के पक्ष में जा नहीं सकती हैं। लेकिन अविश्वास प्रस्ताव स्वीकार हो जाये इसके पीछे 9 सांसदों वाले शरद पवार खासे मायने रखते हैं। शरद पवार इस सच को समझते हैं कि महाराष्ट्र में बीते 13 बरस से एनसीपी-कांग्रेस की सत्ता से अब मोहभंग की स्थिति भी बन रही है। और मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों से लेकर भ्रष्टाचार के जो सवाल केन्द्र सरकार के कामकाज से जुड़ते हुये दाग लगा चुके हैं, उसका असर आने वाले चुनाव पर पड़ेगा ही। फिर केन्द्र और राज्य में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चलाने के बावजूद एनसीपी के हाथ खाली ही हैं। और निजी तौर पर शरद पवार के तमाम प्रोजेक्ट को केन्द्र सरकार ने रोके ही रखा है। यानी शरद पवार की जो पहचान सत्ता में रहते हुये अपने प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिलाकर अपनों के लिये वारे-न्यारे करने के रहे है पहली बार केन्द्र से लेकर मुंबई तक में इसी पर ब्रेक लगी हुई है। राज्य में पृथ्वीराज चौहाण एनसीपी के भ्रष्टाचार की पोल पट्टी खोलने में लगे हुये हैं तो दिल्ली में 10 जनपथ को कोटरी पवार के लवासा प्रोजेक्ट से लेकर सिंचाई और एसईजेड पर भी सवालिया निशान लगाने के लिये लगातार हरकत में है। एनसीपी के भीतर यह चर्चा आम है कि पवार को और कोई नहीं बल्कि सोनिया गांधी के सलाहकार अहमद पटेल ही निशाने पर रखे हुये हैं। और पवार का संकट यह है कि महाराष्ट्र में जिस तरह एनसीपी चल रही है या एकजूट है उसके पीछे पवार के सत्ता समीकरण ही है।
यानी जिस दिन पवार की सत्ता गई उस दिन एनसीपी के नेताओं में भगदड़ मची और कांग्रेस के दरवाजे पवार माइनस एनसीपी नेताओं के लिये खुले। तो पवार की पहली और आखिरी मजबूरी सत्ता के साथ बने रहने का ही है। लेकिन मनमोहन सरकार के खिलाफ बनते राजनीतिक माहौल की टोह अब पवार भी ले रहे हैं। और इसका एक नजारा बाबासाहेब ठाकरे की अंतिम यात्रा के वक्त शरद पवार की पहल में नजर आया। जो उद्दव और राज दोनों के करीब खुद को खड़ा करने से लेकर लालकृष्ण आडवाणी को सहारा देकर उठाने के तरीके तक ने जता दिया कि आने वाले वक्त में पवार महाराष्ट्र में नये समीकरण बनाने की दिशा में बढ़ सकते हैं। तो ममता बनर्जी के अविश्वास पर सरकार का गिरना अगर तय होगा तो शरद पवार महाराष्ट्र सरकार को गिराने के लिये भी कदम बढ़ा सकते हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि तब शिवसेना और पवार के समीकरण सत्ता बनाने की नयी गुंजाईश भी महाराष्ट्र में पैदा कर सकते हैं। और ऐसे मौके पर उद्दव और राज ठाकरे के साथ आने के रास्ते भी सत्ता के जरीये खुलेंगे जो शिवसैनिकों और एमएनएस के युवाओं को साथ खड़ा होने के रास्ते भी बनायेगें। जाहिर है ऐसे में यह सवाल जायज है कि क्या ममता बनर्जी ने एफडीआई के मुद्दे पर मनमोहन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव सिर्फ सभी समीकरणों को राजनीतिक जमीन देने के लिये रखा है या फिर मुलायम, करुणानिधि और शरद पवार की खामोश रणनीति के तहत ममता बनर्जी ने यह पहल की है। क्योंकि भाजपा का चिंतन और सीपीएम का खुला विरोधभी बताता है कि अविश्वास प्रस्ताव पर हर रास्ता अभी भी खुला है जो मनमोहन सरकार के लिये खतरे की घंटी है।
Sunday, November 18, 2012
[+/-] |
लोकतंत्र थांबा ! |
जिस दौर में नेताओ की छवि नेहरु युग के नेताओं जैसी चमकदार, आम तौर पर ईमानदार, विवादों से परे और राजनीति से उपर उठ राष्ट्र-निर्माण की चितांओं के प्रतीक के तौर पर रही हो। उसी दौर में कोई अपनी छवि विवादों में ढालकर कर समाज में कड़वाहट भरते हुये लोकतंत्र के प्रति अविशवास कर संसदीय राजनीति का ही उपहास करें और बावजूद सबके लोगों के दिलो में राज करने लगे । तो उसे कौन से नाम से पुकारेंगे। जी, यह नाम बाल केशव ठाकरे है।
बाला साहेब ठाकरे ने बेहद महीन तरीके से उस राजनीति को साठ के दशक में अपनी राजनीति का केन्द्र बना दिया जो नेहरु के कास्मोपोलिटन शैली के खिलाफ आजादी के तुरंत बाद महाराष्ट्र में जागी थी। नेहरु क्षेत्रीयता और भाषाई संघवाद के खिलाफ थे। लेकिन क्षेत्रीयता का भाव महाराष्ट्र में तेलुलूभाषी आंध्र, पंजाबीभाषी पंजाब और गुजरातीभाषी गुजरात से कहीं ज्यादा था। और इसकी सबसे बड़ी वजह मराठीभाषियों की स्मृति में दो बाते बार बारह हिचकोले मारती। पहली, शिवाजी का शानदार मराठा साम्राज्य, जिसने मुगलों और अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लडने वाले पराक्रमी जाति के रुप में मराठों को गौरान्वित किया और दूसरा तिलक, गोखले और जस्टिस रानाडे की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका जो आजादी के लाभों में मराठी को अपने हिस्से का दावा करने का हक देती थी। इन स्थितियों को बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरीये जमकर उभारा। इसे संयुक्त महाराष्ट्र आदोलन और साठ के दशक में नेहरु की अर्थनीति की नाकामी से बल मिला। जो राजनीतिक सोच उस दौर में महाराष्ट् में जगह बना रही थी उसमें लोकतंत्र के प्रति अविश्वास,संसदीय राजनीति के प्रति उपहास,राजनीतिक प्रणाली के प्रति घृणा,प्रांतीय संकीर्णता,प्रांतिय सांप्रदायिकता,शिवाजी के मराठपन,हिन्दु पदपादशाही और हिटलर के प्रति लगाव। बाल ठाकरे ने इस मिजाज को समझा और अपनाया। ठाकरे ने लोकतंत्र को कभी तरजीह नहीं दी और तरीका हिटलर के अंदाज में रखा। दरअसल, मुंबई के उस सच को ही अपनी राजनीति का आधार बाल ठाकरे ने बना लिया जो उनके खिलाफ था। साठ के दशक मे मुंबई की हकीकत यही थी कि कि व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे। दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगों का कब्जा था। टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियों का कब्जा था। लिखायी-पढायी के पेशो में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी। भोजनालयों में उड्डपी यानी कन्नडवासी और ईरानियों का रुतबा था। भवन निर्माण में सिंधियों का बोलबाला था और इमारती काम में ज्यादातर लोग कम्मा यानी आंध्र के थे। ऐसे में मुंबई का मूल निवासी दावा तो करता था "आमची मुंबई आहे 'लेकिन मुंबई में वह कहीं नहीं था। इस वजह से मुंबई के बाहर से आने वाले गुजराती,पारसी, दक्षिण भारतीयों और उत्तर भारतीयों के लिये मराठी सिखना जरुरी नही था। हिन्दी-अंग्रेजी से काम चल सकता था। उनके लिये मुबंई के धरती पुत्रों के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत में कोई रिश्ता जोड़ना भी जरुरी नहीं था।
फिर 60 के दशक में मुंबई में अधिकांश निवेश पूंजी प्रधान क्षेत्रों में हुआ जिससे रोजगार के मौके कम हुये। फिर साक्षरता बढ़ने की सबसे धीमी दर महाराष्ट्रीयनों की ही थी। इन परिस्थितयों में नौकरियों में पिछड़ना महाराष्ट्रियनों के लिये एक बडा सामाजिक और आर्थिक आघात था। बालासाहेब ठाकरे ने इसी मर्म को छुआ और अपनी पत्रिका मार्मिक के जरीये महाराष्ट्र और मुंबई के किन रोजगार में कितने मराठी हैं, इसका आंकड़ा रखना शुरु किया। ठाकरे ने इसके खिलाफ जो राजनीतिक जमीन बनानी शुरु कि उसमें मुसलमान और दक्षिण भारतीय सबसे पहले टारगेट हुये। अपनी पत्रिका मार्मिक में कार्टून और लेख के जरीये मराठियों में किस तरीके बैचेनी ठाकरे ने अपने विलक्षण अंदाज में पेश की--"सभी लुंगी वाले अपराधी, जुआरी,अवैध शराब खींचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट हैं.......मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्टीयन हो और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो। " इस भाषा और तेवर ने 1967 में संसदीय निर्वाचन में एक प्रेशर गुट के रुप में ठाकरे ने अपनी उपयोगिता साबित कर दी। और 1968 में नगर निगम चुनाव में लगभग अकेले दम पर सबसे ज्यादा वोट पा कर दिखाये। ठाकरे की ठसक का ही कमाल था कि महाराष्ट्र और देश के प्रतीकों पर उन्होने सीधा हमला बोला और खुद को तलवार की उस धार पर ला खड़ा किया, जहां खारिज करने वालों के केन्द्र में भी ठाकरे और खारिज करने वालों के खिलाफ खड़े मराठी मानुष के केन्द्र में भी ठाकरे।
मराठी मानुस की महक हुतात्मा चौक से भी समझी जा सकती है, जो कभी फ्लोरा फाउन्टेन के नाम से जाना जाता था लेकिन इस चौक को संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से जोड़ दिया गया। वहीं गेटवे आफ इंडिया पर शिवाजी की घोड़े पर सवार प्रतिमा के मुकाबले पूरे महाराष्ट्र में गांधी की कोई प्रतिमा नहीं मिलेगी। गांधी जी के बारे में मराठी मानुस की समझ निजी बातचीत में समझी जा सकती है, गांधी मराठियों की एकजुटता से घबराते थे कि कहीं फिर मराठे सूरत को ना लूट लें। एक तरह से गांधी को सिर्फ गुजराती बनिये के तौर पर सीमित कर मराठी मानुस आज भी मराठों के विगत साम्राज्य को याद कर लेता है। असल में शिवसेना ने जब 60 के दशक में मराठी मानुस का आंदोलन थामा और जिस मराठी मिथक का निर्माण किया, वह कुछ इस तरह का था, जिसमें साजिश की बू आती। यानी मुंबई में मराठी लोगों की हैसियत अगर सिर्फ क्लर्क, मजदूर, अध्यापक और घरेलू नौकर से ज्यादा की नहीं थी तो वह साजिश के तहत की गयी। बालासाहेब की राजनीति के दौर में गुजराती,पारसी,पंजाबी, दक्षिण भारतीयों का प्रभाव मुंबई में था और शिवसेना इसे साजिश बताते हुये दुश्मन भी बना रही थी और उनसे लड़ने के लिये मराठियों को एकजुट कर अपनी सेना भी बना रही थी।
बाल ठाकरे को नब्बे के दशक में लगने लगा था कि महाराष्ट्र के बाहर चाहे उनकी पैठ ना हो लेकिन केन्द्र की सत्ता जिस तरह गठबंधन के आसरे लूली–लंगडी हो चली, उसमें महाराष्ट्र में केन्द्रित रहते हुये भी वह दखल दे सकते हैं। एनडीए की सरकार में दिया भी। उस राजनीति को राज ठाकरे भी समझते हैं। सांसदों के लिहाज से उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र दूसरा बड़ा राज्य है। किसी भी राष्ट्रीय दल की नजर महाराष्ट्र पर होगी ही। ऐसे में कोई भी ऐसी राजनीति जो जितने के लिये नहीं दूसरों को हराने के लिये की जा रही हो तो राजनीतिक सौदेबाजी में उससे बड़ा सौदागर कोई हो नहीं सकता है। इसे राज ठाकरे भी समझ रहे हैं और कांग्रेस-एनसीपी की सत्ता भी और भाजपा-शिवसेना गठबंधन भी। महाराष्ट् की यह त्रासदी भी रही है कि यहां आंदोलनों की भूमिका अगर सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक रही है तो उसी आंदोलन की पीठ पर सवार हो कर संसदीय राजनीति नकारात्मक रही है। बालासाहेब ठाकरे तो हद तक नकारात्मक हुये। बाल ठाकरे यह कहने से नही घबराये कि "मतपेठी के माध्यम से हमेशा जनतंत्र का सही रुप प्रगट नहीं हो पाता।...मैं अपने विचार तब तक नहीं बदलूंगा जब तक एक नई, हर तरह से सुरक्षित जनतांत्रिक पद्दति के परिणाम नहीं मिलते, जो मैं स्वीकार कर सकूं। हमारे देश में जनतंत्र जड़े नही जमा सका है और जब तक यह नहीं हो जाता, मेरी राय में इस देश में उदार तानाशाही की जरुरत है।" बालासाहेब ठाकरे का यह बयान 1967 के चुनाव के वक्त का है, जिसे 19 अगस्त 1967 को नवकाल ने छापा था। लेकिन बाल ठाकरे यहीं नहीं रुके थे,उन्होंने कहा , " हां मै तानाशाह हूं, इतने शासकों की हमें क्या जरुरत है? आज भारत को तो हिटलर की आवश्यकता है।..भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहां तो हमें हिटलर चाहिये। " नकारात्मक तरीके से राजनीति पकड़ने में माहिर बाल ठाकरे ने आपातकाल में इंदिरा गांधी का साथ दिया। बीते चालीस साल में इसी राजनीति को करते हुये बाल ठाकरे सत्ता तक भी पहुंचे और लोकतांत्रिक संसदीय जुबान बोलने पर सत्ता हाथ से गयी भी। जो राजनीतिक जमीन बाल ठाकरे ने शिवसेना के जरीय बनायी संयोग से वह जमीन और मुद्दे तो वहीं रह गये...शिवसेना और बाल ठाकरे उससे इतना आगे निकल गये कि उनका लौटना मुश्किल है। लेकिन याद किजिये 1995 में शिवसेना के महाराष्ट्र में सत्ता में आने से पहले की राजनीति। शिवसेना के मुखपत्र में विधानसभा अध्यक्ष का अपमानजनक कार्टून छपा। विधानसभा में हंगामा हुआ। विशेषाधिकार समिति के अध्यक्ष शंकर राव जगताप ने ठाकरे को सात दिन का कारावास देने की सिफारिश की। मुख्यमंत्री शरद पवार ने मामला टालने के लिये और ज्यादा कड़ी सजा देने की सिफारिश कर दी। पवार के सुझाव पर पुनर्विचार की बात उठी और माना गया कि टेबल के नीचे पवार और सेना ने हाथ मिला लिया। लेकिन 1995 के चुनाव में बालासाहेब ने पवार को अपना दुश्मन बना लिया और सेना के गढ़ को मजबूत करने में जुटे। विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ ही बालासाहेब ने पवार को झटका दिया और दाउद इब्राहिम के ओल्गा टेलिस को दिये उस इटरव्यू को खूब उछाला जिसमें दाउद ने पवार से पारिवारिक रिश्ते होने का दावा किया था। फिर खैरनार के आरोपों को भी पवार के मत्थे सेना ने जमकर फोड़ा। परिणाम यही हुआ मुंबई के मंत्रालय पर भगवा लहराने का बालासाहेब ठाकरे का सपना साकार हो गया। और शपथ समारोह में मंच पर और कोई नहीं, वही खैरनार अतिथि के तौर पर आंमत्रित थे जिन्होंने पवार के खिलाफ भ्रष्टाचार की मुहिम चलायी थी।
लेकिन इस राजनीति का दूसरा सच कहीं ज्यादा बड़ा है। रोजगार और क्षेत्रीयता का जो संकट अलग अलग साठ के दशक में था, दरअसल 2012 में वही क्षेत्रीयता अब रोजगार को भी साथ जोड़ चुकी है। शिवेसना की लुंपन राजनीति ने सत्ता सुकुन पाते ही जैसे ही साथ छोड़ा वैसे ही उस रोजगार पर भी संकट आ गया जो शिवसैनिको को भष्ट होते तंत्र में लाभ के बंदरबांट में मिल जाती थी। चूंकि इस दौर में महाराष्ट्र का खासा आर्थिक विकास हुआ लेकिन सत्ता और एक वर्ग विशेष के गठजोड़ ने सबकुछ समेटा इसलिये वह तबका जिसे न्यूनतम के जुगाड़ के लिये रोजगार चाहिये था वह ना तो बाजार या तंत्र से मिला और शिवसेना जो इस गठजोड़ के मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लगातार राजनीति कर रही थी, जब उसने भी लीक बदली तो शिवसैनिको के सामने कुछ नहीं था। मिलों के बंद होने और जिले दर जिले महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगमों में लगे उघोगों के बंद होने से जहां रोजगार गायब होते गये वही भू-माफिया राजनीति के नये औजार के तौर पर उभरा। इस नये धंधे में कांग्रेस-बीजेपी-शिवसेना और राजठाकरे की भी हिस्सेदारी थी तो इसका मुनाफा भी उस बहुसंख्यक मराठी तबके के पास नहीं पहुंचा, जिसकी ट्रेनिग शिवसेना के जरीये हुई थी। इस बड़े तबके
को कैसे सड़क पर उतार कर उसकी भावनाओं को हथियार बनाना है, यह राजठाकरे ने अपने चाचा बाल ठाकरे की छत्रछाया में गुजारे चालीस साल में बखूबी सीखा । लेकिन ठाकरे परिवार की राजनीति के समानांतर दो सवाल थांबा लोकतंत्र के नाम पर खड़े होते हैं कि ऐसे में जनता की चुनी सरकार कहां है। जहां किसान सबसे ज्यादा खुदकुशी कर रहा है। जहां सबसे ज्यादा बिजली संकट हो चला है। जहां किसी भी राज्य से ज्यादा विकास की विसंगतियां हैं। जहां का प्रभु वर्ग सात सितारा जीवन जी रहा है तो बहुसंख्य तबका न्यूनतम की जद्दोजहद में जान गंवा रहा है।
लेकिन ठाकरे ने मुंबई की चकाचौंध को भी अपनी राजनीति तले ला खड़ा किया। बाल ठाकरे राजनीति करते हुये स्टार वेल्यू के महत्व को भी बाखूबी समझते थे। बालासाहेब ने युसुफ भाई यानी दिलीप कुमार पर पहला निशाना साधा था। बाला साहेब से समझौता करने एक वक्त शत्रुघ्न सिन्हा को ठाकरे के घर मातोश्री जाना पड़ा था। यानी दुश्मन हर वक्त ठाकरे ने बनाया और सेना को मजबूत किया। बालासाहेब ने तो बकायदा चित्रपट शाखा खोली। जहां शुरुआती दौर में मराठी कलाकारों को आगे बढ़ाने की बात कही गयी लेकिन बाद में यह बालठाकरे की स्टार वेल्यू से जुड़ गया। यानी महाराष्ट्र की जमीन पर पड़े सियासी सिक्कों को उठाने के बदले सिक्कों को ढालने वाली टकसाल लगाने में ठाकरे की राजनीति चली।
इस राजनीति को आगे बढ़ाने में आर्थिक उदारीकरण की भूमिका को भी पहले शिवसेना और अब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बाखूबी अपनी राजनीति का हिस्सा बनाये हुये है। नब्बे के दशक में जो काम शिवसेना कर रही थी अब उसी लकीर पर राज ठाकरे चल पड़े हैं। औघोगिक घरानों के कारखानों में कोई यूनियन मजदूरों को एकजुट ना कर पाये यह काम शिवसेना की कामगार सेना ने बखूबी किया। विदेशी निवेश रोजगार पूरक है, इसे एनरान के जरीये ठाकरे बता चुके हैं। खास बात है कि बीजेपी की यूनियन भारतीय मजदूर संघ को पूजीपतियों का एजेंट दिखना गंवारा नहीं था लेकिन कामगार सेना को इससे कोइ गुरेज नही थी। लेकिन नयी आर्थिक स्थितियो में राजठाकरे के सामने भू-माफिया का खासा बड़ा काम है । महाराष्ट्र के हर जिले में एमआईडीसी की जमीन बिल्डरों के पास पहुंच रही है। जमीन पर कब्जे का मतलब बडी तादाद में बोरोजगार युवकों को कैडर के लिये जुगाड़ने की जद्दोजहद से बच जाना। असल में सभी राजनीतिक दल इसमे जुटे हुये हैं लेकिन हालात दुबारा साठ के दशक के ही लौट रहे हैं लेकिन अब बाल केशवराव ठाकरे नहीं है। तो सवाल यह भी है कि आखिर 19 अगस्त 1967 को जो बात कही थी अब उसे कोई कहने की हिम्मत नहीं रखता या फिर हालात बदल चुके हैं क्योंकि ठाकरे एक ही था जो कहता था उस पर मराठी मानुष भरोसा रखता, -- " हां मै तानाशाह हूं, इतने शासकों की हमें क्या जरुरत है ? आज भारत को तो हिटलर की आवश्कता है। ....भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहा तो हमें हिटलर चाहिये।" तो कौन कहेगा लोकतंत्र थांबा।
Monday, November 12, 2012
[+/-] |
क्योंकि देश गुस्से में है... |
बेचैनी हर किसी में है। आम आदमी की बैचेनी परेशानी से जुझते हुये है। खास लोगों की बैचेनी सत्ता सुख गंवाने के डर की है। विरोध में उठे हाथ गुस्से में हैं। गुस्सा जीने का हक मांग रहा है। सत्ता को यह बर्दाश्त नहीं है तो वह गुस्से में उठे हाथों को चिढ़ाने के लिये और ज्यादा गुस्सा दिलाने पर आमादा है। तो गुस्सा सत्ता में भी है और सत्ता पाने के लिये बैचेन विपक्ष में भी। तो गुस्सा ही सत्ता है और गुस्सा ही प्यादा है। गुस्सा दिखाना भय की मार सहते सहते निर्भय होकर सत्ता को डराना भी है और सत्ता का गुस्सा भ्रष्टाचार और महंगाई में डूबी साख बनाने का खेल भी है। केजरीवाल जान हथेली पर रख फर्रुखाबाद से सत्ता को चुनौती देते हैं। सत्ता की पीठ पर सवार राहुल गांधी राजनीति के बंद दरवाजों को आम आदमी और कमजोर के लिये खोलने की गुहार लगाते हैं। नीतिन गडकरी मुस्कुराते हुये नागपुर से सत्ता का हु तू तू दिखलाते हैं। मनमोहन सिंह के इंडिया पर खामोशी बरतते हुये सोनिया गांधी को कांग्रेस में भारत नजर आता है। और मनमोहन सिंह हर कर्म-धत् कर्म के लिये सोनिया गांधी के नेतृत्व का जिक्र कर अपने होने ना होने की परिभाषा गढ़ते हैं। हर के सामने आम आदमी ही है और हर के पीछे खास सत्ता ही है। खास सत्ता उसी पूंजी पर टिकी है, जिसे विदेशी निवेश के नाम पर कांग्रेस लाना चाहती है। और वह विदेशी पूंजी ही है जो एनजीओ के जरीये देश के गुस्से को बदलाव के मंत्र में बदल व्यवस्था परिवर्तन का सपना संजो रही है। बिना पूंजी ना सत्ता चल पा रही है और ना ही विरोध के स्वर पूंजी बिना गूंजने की स्थिति में हैं। और विदेशी पूंजी से छटपटाता मीडिया भी इसी गुस्से में व्यवसाय की पत्रकारिता का नया पाठ याद कर रहा है। तो फिर आम आदमी की बैचेनी और उसके गुस्से रास्ता जाता किधर है।
आदिवासी, किसान, मजदूर और ग्रामीणो के संघर्ष का रास्ता इसी दौर में हाशिये पर है, जब बदलाव और संघर्ष का सबसे तीखा माहौल देश में बन रहा है। वही आवाज इस दौर में सत्ता को चेता पाने में गैर जरुरी सी लग रही है जो सीधे उत्पादन से जुड़ी थी। देश की भूख से जुड़ी थी। बहुसंख्यक समाज से जुड़ी थी। और वही आवाज सबसे तेज सुनायी दे रही है जो महानगरों से जुड़ी है। सर्विस सेक्टर से जुड़ी है। शिक्षा पाने के बाद बेरोजगारी से जुड़ी है। या रोजगार पाने के बाद हर जरुरत को जुगाड़ने के लिये भ्रष्टाचार के कटोरे में कुछ ना कुछ डाल कर ही जिये जा रही है। गुस्से का सवाल का सवाल पहली बार तिभागा से नक्सबाडी और सिंगूर से लालगढ या बस्तर के संघर्ष से नहीं जुड़ रहा बल्कि शहरी और खाये-पीये अघाये लोगों को संघर्ष के लिये खड़ा करने से जुड़ रहा है। इसलिये संघर्ष का रास्ता जमा-भाग हथेली पर समाने वाले चंद रुपयों की संपत्ति समेटे अन्ना हजारे से निकल कर इसी व्यवस्था में करोड़ों की सफेद संपत्ति बटोरे लोगों का भी हो चला है। शहरी चमक-दमक से निकला संघर्ष चमक-दमक की दुनिया में सेंध लगाकर व्यवस्था बदलाव का सपना जगा रहा है। पत्रकार,शिक्षक, बाबू, वकील जैसे हुनर मंद मान चुके है कि अगर चोरों की व्यवस्था में हर किसी को दस्तावेज पर चोर बता दिया जाये तो चोर व्यवस्था बदल जायेगी। व्यवस्था बदलने की होड़ में शहरी गुस्सा इतना ज्यादा है कि राबर्ट वाड्रा हो या मुकेश अंबानी या फिर नीतिन गडकरी हो या शरद पवार इनके भ्रष्टाचार की कहानी के खिलाफ खुलासे की शुरुआत या अंत की कहानी में उस आम आदमी की भागेदारी कहा कैसे
होगी, जहां उसका गुस्सा पेट से निकल कर पेट में ही समा रहा है। यह किसी को नहीं पता। सिर्फ आस है कि आज गुस्सा सड़क पर निकला तो कल पेट भी भरेगा। और सियासी घमाचौकड़ी का गुस्सा विकास के खिंची गई भ्रष्ट लकीर को भ्रष्ट ठहरा रहा कर नियम-कायदों को ठीक करने के लिये आम आदमी के गुस्से को सड़क पर दिखला कर वापस अपने घर लौट रहा है। दूरियां पट रही हैं या दूरिया बढ़ रही हैं। क्योंकि सवाल उस जमीन को खड़े आम लोगो के गुस्से का नहीं है, जिस जमीन को हड़पने या उसे बचाने का शहरी खेल जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक में हर कोई बार बार खेल रहा है। सवाल उन लोगों का है जिनकी जमीन उनका
जीवन है। और पीढि़यो से खिलाती आई उसी जमीन को अब देश की संपत्ति बता कर खोखला बनाने की विकास नीति चौमुखी तौर पर स्वीकार कर ली गई है।
सवाल उन लोगों का है, जिनके लिये संस्थानों का होना लोकतंत्र का होना बताया गया। लेकिन आधुनिक धारा में वहीं संस्थान लोकतंत्र को भी खरीद-बेच कर धनतंत्र में बदल गये। सवाल उन लोगों का है, जिनके लिये संसदीय धारा आजाद होने का नारा रहा। और अब वही संसदीय धारा गुलाम बना कर मुंह के कौर को भी छीनने पर आमादा है। क्या पेट में समाये इस गुस्से को भूमि-सुधार, खाद्य सुरक्षा बिल और राजनीतिक व्यवस्था के बंद दरवाजों के खोलने से खत्म किया जा सकता है। क्या वाकई देश के गुस्से को सही राह वही शहरी मिजाज देगा जिसने स्वदेशी का राजनीतिक पाठ किया और बाजार व्यवस्था में गंवाने या पाने की तिकड़मो को समझने के बाद व्यवस्था बदलने का सवाल उठा दिया। क्यों वाकई देश के गुस्से को राह वही शहरी देगा, जिसने कानवेन्ट में पढ़ाई की और अब महात्मा गांधी के स्वराज को याद कर व्यवस्था बदलने का नारा लगाना शुरु कर दिया। या फिर लुटियन्स की दिल्ली की वह सियासी मशक्कत देश के गुस्से को शांत करेगी, जिसे राजनीतिक पैकेज में ही हर पेट के भीतर की कुबुलाहट और भूख को बेच कर कॉरपोरेट के कमीशन से विकास दर का चढ़ता हुआ तीर चमकते हुये सूरज सरीखा दिखायी देता है। गुस्से और आक्रोश को भुनाने या शांत करने के उपाय तो शहरी मिजाज इस रास्ते देख सकता है। लेकिन गुस्सा और आक्रोश है क्यों। क्या शहरी संघर्ष का रास्ता इसे समझ पा रहा है या फिर जो गुस्सा दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान पर हर कोई दिखाने को आमादा है वह अपने बचने के उपाय तो नहीं खोज रहा। कही अपराध करने के बाद खुद को अपराधी कहलाने से बचने के लिये गुस्सा पालने का नाटक तो नहीं हो रहा। और गुस्से गुस्से के खेल में व्यवस्था परिवर्तन का नारा लगा कर असल गुस्से से बचने का ढाल ही गुस्से को तो नहीं बनाया जा रहा है। क्योंकि वह कौन सी वजहे हैं, जिसमें सफेद कमाई और काली कमाई के बीच आम आदमी अंतर समझ नहीं पा रहा है। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के वकीलों की जमात जो संघर्ष करते हुये सड़क पर दिखायी देने लगी है, वह सफेद कमाई से ही औसतन पचास करोड़ से ज्यादा की संपत्ति की मालिक है। जो शिक्षक गुस्से में हों, उसकी संपत्ति औसतन पांच करोड़ की है। जो पत्रकार गुस्से में है और स्क्रीन पर चिल्लम पौ करते हुये व्यवस्था बदलाव के नारे में हक का सवाल जोड़ रहा है। संवैधानिक कायदों को बता रहा है, उसकी संपत्ति करोडो में है। जो बाबू , जो डाक्टर, जो इंजीनियर और जो सामाजिक संस्था चलाते हुये संघर्ष के रास्ते निकले है उसकी दस्तावेजी कमाई चाहे करोड़पति वाली ना हो लेकिन उनके पीछे करोड़ों रुपये का ऐसा रास्ता है, जो उनकी सहुलियतों और उनके संघर्ष से उपजती सत्ता के पीछे सबकुछ झौकने के लिये तैयार है। यानी सुविधाओ की पोटली बांध कर संघर्ष करते हुये पेट के गुस्से को अपने अनुकुल परिभाषित करने को क्या व्यवस्था परिवर्तन माना जा सकता है। कहीं व्यवस्था की परिभाषा भी तो इस दौर में नहीं बदल दी गई। क्योंकि देश का बजट, देश की विकासमय नीतियां और देश के बाजार या विकास दर अब देश के नागरिकों पर नहीं बल्कि उपभोक्ताओं पर टिके हैं। उपभोक्ताओं के लिये जल, जंगल, जमीन, रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा से लेकर सघर्ष का पाठ ही देश का सच मान लिया गया है। पानी के नीतिकरण में लूट, शिक्षा के भौतिकरण में लूट, स्वास्थय सेवा को बीमाकरण और रोजगार से जोड़ने में लूट। जंगल, जमीन और खनिज संपदा के खनन में लूट।
यानी व्यवस्था के उस खांचे में ही लूट जिसे एक खास तबके के लिये एक खास तबके के जरीये ही बनाया-लूटा जा रहा है। तो फिर इस लूट को सामने लाने का संघर्ष भी लूट के उपभोग को करने या ना कर पाने की मशक्कत से ही जुड़ा होगा। यानी कहीं संघर्ष और गुस्से को उपभोक्ता संस्कृति के जरीये नागरिकों से छीन कर उपभोक्तोओं के हाथ में तो नहीं दिया जा रहा है। जिस उपभोक्ता की जेब उपभोग करने में रोड़ा अटका रही है, जो उपभोक्ता हैरान परेशान हैं, वो सडक पर अपने गुस्से का इजहार करने के लिये जमा है। जिस उपभोक्ता की जेब उपभोग करने के साधन अब भी जुटा सकने में सक्षम है वह बेखौफ है। वह सत्ता के संघर्ष में अपने गुस्से का इजहार करने से नहीं चूक रहा। उसका सघर्ष या उसका गुस्सा सीधे सत्ता पर काबिज ना हो पाने का है। उसे संसदीय लोकतंत्र में उपभोक्ता तंत्र ही दिखायी दे रहा है। कॉरपोरेट हो या नौकरशाही। कांग्रेस हो या बीजेपी। पावर-खनन से जुड़े घराने हों या मीडिया घराना इनके बीचे संघर्ष या गुस्सा इसी बात को लेकर है कि सत्ता पाने चलाने में तो वह भी सक्षंम है फिर वह बाहर क्यों हैं। और सत्ता का मतलब ही जब उपभोक्ताओं का देश चलाना हो गया है, तब संघर्ष भी उपभोक्ताओं का ही होगा। और व्यवस्था परिवर्तन के ऐसे मोड़ पर उस आम आदमी के गुस्से उसके संघर्ष का देखेगा समझेगा कौन जहां रोटी-कपडा, बिजली-पानी, शिक्षा-स्वास्थ्य पहुंचता ही नहीं है। यह तादाद उपभोक्ताओं के संघर्ष से चार गुना ज्यादा है। और गुस्सा उसके पेट से बारुद में समाने को तैयार है। बस सवाल संस्थानों के ढहने का है। संयोग से उपभोक्ताओं का संघर्ष पहली बार इसमें मददगार है, क्योंकि अब न्याय अदालतों की जगह सड़क पर होगा, यह नारे शहरों में लगने लगे हैं। राबर्ट वाड्रा को बिना जांच क्लीन चीट दे दी गई। गडकरी की जांच हुई नहीं। अंजलि दमानिया की जांच रिपोर्ट भी जनलोकपाल दे नहीं पायी है। सलमान खुर्शीद पर लगे आरोपों की जांच के बीच ही राजनीतिक दोन्नति प्रधानमंत्री ने ही दे दी। संघर्ष करते केजरीवाल भी खुला ऐलान करने लगे है कि अदालत जाने का कोई मतलब नहीं है। न्याय जनता करे। यानी अगर अदालतें या कानून इसी तरह ढहेंगी तो फिर संघर्ष के तौर तरीको में कोई गैरकानूनी या गुनहगार होगा नहीं। सब कुछ राजनीतिक फैसले पर टिकेगा। तो इंतजार इसी का करें या अब भी संभल जायें। सोचिएगा जरा क्योंकि देश गुस्से में है।
Thursday, November 8, 2012
[+/-] |
विसर्जन के फूल हो चुके हैं गडकरी |
क्या भाजपा एक बार फिर 360 डिग्री में घूम कर लालकृष्ण आडवाणी के ही दरवाजे पर आ खड़ी हुई है। क्या आरएसएस एक बार फिर भाजपा अध्यक्ष पर फैसले के लिये आडवाणी को ही जिम्मदारी सौप आरोपमुक्त होना चाहता है। और इस घटनाक्रम में गुरुमूर्ति के शामिल होने का मतलब है कि इस बार आडवाणी के हर फैसले पर संघ की तरफ से मुहर गुरुमूर्ति ही लगायेंगे। यानी संकेत आरएसएस का, फैसला आडवाणी का और मुहर गुरुमूर्ति की। क्योंकि जिस तेजी से भाजपा के भीतर नीतिन गडकरी को अध्यक्ष पद से हटाने को लेकर चौसर बिछी और उसी तेजी से गडकरी के पीछे दिल्ली की चौकडी ही खड़ी हो गई तो समझना यह भी होगा कि संघ अब फूलों के निर्वाल्य के लिये तैयार है। यानी जिन फूलों को उसने सम्मान में चढ़ाया अब उसे विसर्जित करने को वह तैयार है।
लेकिन विसर्जन के फूल का भी सम्मान होता है तो गडकरी एक सम्मानित नेता के तौर पर ही अध्यक्ष पद छोड़ें तो ज्यादा अछ्छा होगा। यानी गडकरी को लेकर जो बहस गुजरात चुनाव तक थमनी थी, उसे 40 दिन [ 21 दिसबंर को दूसरा टर्न शुरु होगा ] पहले ही हवा देकर संकेत दे दिये गये कि नीतिन गडकरी की उल्टी गिनती
शुरु हो चुकी है। जाहिर है यह बात ना तो भाजपा के भीतर कोई कहेगा और ना ही संघ इसे कह पायेगा। लेकिन संघ की परंपरा बताती है कि वह भार लेकर साथ चलना नहीं चाहता है। यह आरएसएस की परंपरा ही है कि संघ ने एक वक्त कुप्प सी सुदर्शन तक को किनारे लगाया। यानी पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन को लेकर संघ परिवार के भीतर ही सवाल उठे और संघ में सरसंघचालक बदल गये। विहिप के प्रवीण तोगडिया और मनमोहन वैघ को नरेन्द्र मोदी के लिये किनारे किया गया । जिन्ना मुद्दे पर आडवाणी के खिलाफ सबसे सक्रिय प्रवीण तोगडिया को मोदी के आड़े आने पर संघ ने ही खामोश किया और मनमोहन वैघ को गुजरात से हटाकर नागपुर लाया गया। गडकरी नगपुर से ही आने वाले संजय जोशी को भाजपा में लाने के लिये भिड़े रहे लेकिन संघ कभी संजय जोशी के मुद्दे पर गडकरी के साथ खड़ा नहीं हुआ। तो परंपरा के लिहाज से संघ के लिये कॉरपोरेट फिलास्फी मायने रखती है, उसके लिये व्यक्ति का महत्व नहीं है। इसी परंपरा को निभाते हुये ही संघ के सामने उसी नीतिन गडकरी का सवाल आया, जिसे नागपुर के रास्ते दिल्ली भेजा। और दिल्ली में भाजपा की राजनीति करने वालो ने माना कि गडकरी भाजपा के नहीं आरएसएस की पंसद है। और संघ से पंगा कौन ले। इसलिये गडकरी अध्यक्ष पद पर भी रहे और भाजप के पारंपरिक राजनीति से अलग भी दिखायी देते रहे। यह अलग दिखायी देने को नीतिन गडकरी ने संघ की परंपरा से खुद को जोड़ने के लिये इस्तेमाल किया।
लेकिन उस दौर को भी याद करें तो सरसंघचालक मोहन भागवत ने बार बार यही कहा कि नीतिन गडकरी का नाम लालकृष्ण आडवाणी ने ही सुझाया था। संघ ने सिर्फ इतना ही कहा था कि अब कोई बुजुर्ग अध्यक्ष नहीं चलेगा। और इस कडी में लालकृष्ण आडवाणी ने एक एक कर कई नाम सुझाये। और चौथा नाम गडकरी का था, जिस पर संघ ने मुहर ला दी। तीन बरस पहले की इस गाथा के पन्नो को दोबारा टटोलना इसलिये जरुरी हो गया है क्योंकि एक बार फिर संघ और भाजपा दोनो ही उसी मुहाने पर आ खड़े हुये हुये हैं, जहां तीन बरस पहले खड़े थे। अंतर सिर्फ इतना है कि इस बार अध्यक्ष को 2014 के चुनाव में अगुवाई करने वाले चेहरे के साथ जोड़कर देखना है। तो संघ ने लालकृष्ण आडवाणी को ही भाजपा में फैसले की जिम्मेदारी सौपी है। क्योंकि संघ भाजपा के भीतर मच रहे घमासान में फंसना नहीं चाहता है। और दूसरी बड़ी बात यह है कि भाजपा के फैसले पर संघ का कोई असर ना पड़े इसलिये नीतिन गडकरी से आरएसएस ने खुद को बाजू यानी अलग कर लिया है। संघ के भीतर सरसंघचालक मोहन भागवत का गडकरी से सिर्फ इतना ही प्रेम बचा है कि वह गडकरी को लेकर "चलेगा" शब्द का इस्तेमाल इसलिये कर रहे हैं क्योंकि वह गडकरी के हटने के बाद भाजपा में होने वाले घमासान से बचना चाहते हैं। लेकिन भैयाजी जोशी , दत्तात्रेय होसबोले , सुरेश सोनी और मनमोहन वैद्य दोबारा नीतिन गडकरी को भाजपा अध्यक्ष पद पर बैठाने के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन भाजपा में गडकरी जैसा कोई प्रिय स्वयंसेवक मौजूदा वक्त में हैं भी नहीं तो गडकरी के मूल को बचाने के लिये ही गुरुमूर्ति को लगाया गया। क्योंकि नागपुर में स्वयंसेवकों के बीच नीतिन गडकरी को लेकर एक मान्यता यह भी बनी है कि अध्यक्ष पद हडकरी को बोनस के तौर पर मिला। क्योंकि गडकरी अपने धंधे को बढ़ाने में ही लगे थे। यानी एक बिजनेस-मैन की तरह गडकरी का राजनीतिक व्यक्तित्व भी नागपुर में बना और पूर्ति उघोग का मामला सामने आने के बाद राष्ट्रीय छवि भी राजनेता से ज्यादा बिजनेस-मैन वाली ही रही। सच यह भी है कि भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद भी पूर्ति इंडस्ट्री के चैयरमैन के पद पर गडकरी बने हुये थे। और दो बरस पहले गडकरी ने शरद पवार के इस सुझाव के बाद ही पूर्ति इंडस्ट्री के चैयरमैन पद से इस्तीफा दिया, जब पवार ने राजकाज करते हुये धंधे को ना करने का सुझाव दिया। यानी नागपुर में यह मान्यता आम है कि गडकरी ने खुद को राजनीतिक तौर पर तैयार सिर्फ इस रुप में किया, जहां पार्टी और संगठन चलाने का मतलब पैसो का जुगाड़ हो जाये। समूचा ध्यान हर सभा सम्मेलन को लेकर पूंजी से खुद को सफल बनाने में ही लगाया। संघ के भीतर भी इस सवाल की गूंज हुई कि राजनीतिक तौर पर कोई स्वयंसेवक भाजपा के अध्यक्ष पद पर रह कर कैसी सोच वाला होना चाहिये। आरएसएस के भीतर गडकरी को लेकर मचे इसी घमासान में संघ के संकेत के बाद ही नरेन्द्र मोदी को 2014 के लिये तैयार कर रहे एस गुरुमूर्ति दिल्ली पहुंचे । और लालकृष्ण आडवाणी की बिसात बिछनी भी शुरु हुई। तीन दिन पहले रविवार यानी 4 नंवबंर को यशंवत सिन्हा ने जब आडवाणी से मुलाकात की और बाद में शत्रुघ्न सिन्हा भी आडवाणी से मिलने पहुंचे और भाजपा अध्यक्ष गडकरी को लेकर
अपनी नाखुशी जाहिर की तो आडवाणी ने खुद कुछ कहने के बदले इस मुद्दे पर गुरुमूर्ति से मुलाकात का सुझाव यशंवत सिन्हा को दिया। जहां गुरुमूर्ति ने सिर्फ विरोध और नाखुशी की थाह ली। जबकि इससे पहले नीतिन गडकरी ने आडवाणी से मुलाकात की थी। तब आडवाणी को लगा कि गडकरी इस्तीफे की बात कहेंगे लेकिन गडकरी ना सिर्फ पूर्ति इंडस्ट्री के तमाम दस्तावेज बल्कि पूर्ति के तीन डायरेक्टरों को साथ लेकर लालकृष्ण आडवाणी से मिले और खुद को पाक साफ करार दिया। जाहिर है उस बैठक में गडकरी को लेकर भाजपा के भीतर बनते माहौल पर आडवाणी भी कुछ नहीं बोले। क्योंकि पूर्ति के डायरेक्टर भी मौजूद थे। कुछ ऐसा ही सुषमा स्वराज के साथ अनौपचारिक बैठक में हुआ। सुषमा ने कुछ भी नहीं कहा। जेटली ने भी इस मुद्दे पर खामोशी बरती। क्योंकि गडकरी की जगह भाजपा का अध्यक्ष होगा कौन इसपर ना तो आडवाणी अभी तक सहमति बना पाये है और ना ही गुरुमूर्ति समझ पाये हैं कि आखिर किस नाम पर सहमति होगी।
असल में दिल्ली की चकडी अगर गडकरी के पीछे खड़ी हो गई दिख रही है तो उसकी वजह संघ का अनुशासन भी है और खुद अध्यक्ष बनने की लालसा भी। और विरोध करने वाली चौकड़ी [जेठमलानी, जसवंत, यशवंत, शत्रुघ्न] में कोई नमस्ते सदा वतस्ले...कहकर भाजपा में आया नहीं है। इसीलिये ना संघ को इनकी परवाह है ना ही भाजपा में बैठे स्वयंसेवकों को। यह महज हथियार बने हैं गडकरी के खिलाफ नाखुशी को सतह पर लाकर गुरुमूर्ति को दिल्ली लाने के लिये। अब इनका काम खत्म हुआ। तो इंतजार किजिये 17 दिसंबर तक। जब गुजरात चुनाव में वोटिंग खत्म होते ही कोई नया युवा चेहरा मनोहर पारिकर की तर्ज वाला भाजपा अध्यक्ष होगा।
Friday, November 2, 2012
[+/-] |
गडकरी हटे तो कौन और मोदी आये तो कौन? |
बीजेपी को लेकर चारों दिशाओं को टटोलते दस स्वयंसेवक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहली बार अपनों को लेकर ही उलझा है। सरसंघचालक मोहन भागवत समेत दस टॉप स्वयंसेवकों की राय ना तो बीजेपी अध्यक्ष को लेकर एक है और ना ही 2014 के लिये अगुवाई करने वाले चेहरे को लेकर। गडकरी को दूसरा मौका ना दिया जाये तो दूसरा गडकरी कहां से लायें। और गडकरी के बदले अगर अरुण जेटली या मुरली मनोहर जोशी को अध्यक्ष बना दिया जाये तो फिर बीजेपी के भीतर सहमति कैसे बनायी जाये। क्या बुजुर्ग लाल कृष्ण आडवाणी के भरोसे बीजेपी को चलाया जाये। या फिर नरेन्द्र मोदी के अनुकूल ही बीजेपी के भीतर सबकुछ तय कर दिया जाये। इन्हीं सवालों के लेकर चेन्नई में हुई संघ की बैठक में जिस तरह स्वयंसेवकों की अलग अलग दिशाओ में जाती राय उभरी, उसने इसके संकेत तो दे ही दिये की बीजेपी से कम फसाद आरएसएस में भी नहीं है।
हालांकि यह संयोग भी हो सकता है। लेकिन जिस तरह बीजेपी अध्यक्ष और 2014 के लिये अगुवाई करने वाले चेहरे को लेकर संघ में घमासान है, उसके पीछे विचार से ज्यादा प्रांतवाद ही उभर रहा है। यानी पहली बार प्रांतवाद भी संघ में विचार के तौर पर उभर रहा है और बीजेपी नेताओं के नामों की फेरहिस्त में पुराने विचार ही खारिज हो रहे हैं। सरसंघचालक और सरकार्यवाह यानी मोहन भागवत और भैयाजी जोशी दोनों नागपुर से आते हैं तो दोनो ही गडकरी को हटाने के पक्ष में नहीं हैं। गडकरी भी नागपुर के हैं। इनके सुर में सुर मनमोहन वैघ का भी है। जो खुद भी नागपुर से आते हैं। वहीं आरएसएस और बीजेपी में पुल का काम कर रहे सुरेश सोनी का मानना है कि 2014 के लिये नरेन्द्र मोदी के नाम पर तो ठप्पा अब लगा ही देना चाहिये। और मोदी के साथ जिस नेता का तालमेल बैठे उसे अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाना चाहिये। सुरेश सोनी को नीतिन गडकरी को अध्यक्ष पद से हटाने या उनकी जगह किसी दूसरे को बैठाने में कोई परेशानी नहीं है।
सुरेश सोनी की रुचि सिर्फ नरेन्द्र मोदी को लेकर है। महत्वपूर्ण है कि सुरेश सोनी खुद गुजरात से ही आते हैं। और उन्हें लगता है कि मोदी के अनुकूल अध्यक्ष पद पर गडकरी के हटने के बाद अरुण जेटली फिट बैठ सकते हैं। यानी फ्रंट रनर के तौर पर अरुण जेटली का नाम है। लेकिन जेटली के नाम पर सुषमा स्वराज से लेकर राजनाथ और मुरली मनमोहर जोशी से लेकर वैकेया नायडू तक को एतराज है, जिसकी जानकारी इन सभी नेताओं ने पिछले दिनो दिल्ली के झंडेवालान जा कर भैयाजी जोशी और सुरेश सोनी को दे दी थी। सुरेश सोनी के बाद संघ में चौथे नंबर पर डा कृष्ण गोपाल आते हैं। डॉ गोपाल का मानना है कि अब वैचारिक तौर पर बीजेपी को खड़ा करने का वक्त आ गया है। यानी सियासी जोड़-तोड़ से इतर संघ की विचारधारा के अनुरुप बीजेपी का अध्यक्ष भी होना चाहिये। इस पद के लिये मुरली मनोहर जोशी सबसे फिट बैठेंगे। महत्वपूर्ण है कि डॉ गोपाल यूपी के ही हैं। संघ में पांचवा महत्वपूर्ण नाम दत्तात्रेय होसबोले का है। जिनके पीछे मदनदास देवी का हाथ है। स्वयंसेवक मदनदास देवी की राजनीतिक पहचान वाजपेयी सरकार के दौर में बीजेपी और संघ के बीच तालमेल बैठाने वाले स्वयंसेवक की है। और उस दौर में मदनदास देवी की करीबी लालकृष्णा आडवाणी से थी तो दत्तात्रेय होसबोले की राय लालकृष्ण आडवाणी पर जा टिकती है। होसबोले का तर्क है कि आडवाणी के अनुभव के आसरे बीजेपी को चलाना चाहिये। होसबोले कर्नाटक से आते हैं इसलिये गडकरी को हटाना चाहिये या नहीं इस पर इनकी राय फिफ्टी फिप्टी वाली है। लेकिन इन्हें लगता है कि आडवाणी ही एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिनकी छतरी तले बीजेपी में कोई हंगामा नहीं होगा। लेकिन आडवाणी के रास्ते बीजेपी को लेकर चले तो राजनीतिक तौर पर बीजेपी का बंटाधार ही होगा और संघ के युवा स्वयंसेवकों में निराशा ही छायेगी। यह सोच छठे स्तर पर संघ में कद्दावर स्वसेवक मधुभाई कुलकर्णी का है। जिनका मानना है कि मौदूदा वक्त में बीजेपी को संघ का वैचारिक आधार चाहिये और भ्रष्टाचार को कोई दाग साथ ले कर चलना ठीक नहीं होगा। और इसी राय को सातवे नंबर के स्वंयसेवक बंजरंग लाल गुप्ता भी मानते हैं। यानी अध्यक्ष पद पर नीतिन गडकरी के बदले भी किसी ऐसे स्वसंसेवक को लाना चाहिये जो राजनीतिक तौर पर परिस्थितियों को समझे जरुर लेकिन संघ की विचारधारा से इतर राजनीतिक जरुरतों को ना मान लें। बंजरग लाल गुप्ता का मानना है कि मुरली मनोहर जोशी अध्यक्ष पद के लिये सटीक हैं। यूं मुरली मनोहर जोशी के अध्यक्ष पद के पुराने अनुभव और संघ के दरबार में बार बार नतमस्तक होकर वैचारिक महत्व बनाये रखने के प्रयास भी उन्हें संघ के लगातार करीब बनाये हुये है। वहीं आठवे और नौवे नंबर पर स्वयंसेवक श्रीकांत जोशी और अरुण कुमार हैं, जो बीजेपी से ज्यादा छेड़छाड़ करने के बदले सहमति बनाने की दिशा में ही कदम उठाना चाहते हैं। यानी बीजेपी के बदले संघ को ही लकीर खिंचनी चाहिये और बीजेपी के अनुरुप संघ को कदम नहीं उठाना चाहिये क्योंकि इससे नेताओं और स्वयंसेवकों के टकराव ही सामने आयेंगे। और इसे सुलझाने में ही संघ का वक्त निकलेगा।
और दसवें स्वयंसेवक के तौर पर वीहिप के अशोक सिंघल का मानना है कि पहले बीजेपी में अयोध्या में राम मंदिर निर्णाण और पंचकोशी में मस्जिद ना बनने पर सहमति होनी चाहिये उसी के बाद बीजेपी के अध्यक्ष पद और 2014 की अगुवाई करने वाले नेता के नाम पर सहमति होनी चाहिये। लेकिन खास बात यह भी है कि सिंघल पहली बार नरेन्द्र मोदी का विरोध नहीं कर रहे हैं। और यह संकेत बताते है कि सुरेश सोनी की इस बात को महत्व दिया जा रहा है कि 2014 के लिये तो नरेन्द्र मोदी ही सबसे उपयुक्त हैं और बीजेपी में जो भी फेरबदल होना है वह मोदी को ही ध्यान में रखकर होना चाहिये। इसलिये पहली बार मोदी से रुठा विहिप भी अब मोदी को लेकर खामोश है। जाहिर है इन सभी दस स्वयंसेवकों का अपना अपना कद भी है और अनुभव भी है। ऐसे में सरसंघचालक और सरकार्यवाह का मानना है कि विचारों के आदान प्रदान से ही कोहरा छंटेगा। इसलिये तत्काल कोई निर्णय लेना सही नहीं होगा। लेकिन बीजेपी के भविष्य को लेकर मंथन में जुटे संघ को भी अब यह समझ में आ रहा है कि जिन मुद्दों के आसरे बीजेपी को राजनीतिक तौर पर अब तक खड़ा हो जाना चाहिये था वह ना तो उस पर खड़ी हो पायी बल्कि उसके उलट सियासी तामझाम में फंसी। लेकिन संघ के भीतर से यह साफ होने लगा है कि जिस दिल्ली की चौकड़ी को कभी मोहन भागवत ने खारिज किया था अब उसी पर उनकी निगाहे टिकी हैं । क्योंकि पहली बार ही उनकी पसंद यानी नीतिन गडकरी को लेकर सवाल उठने लगे हैं। और यह सवाल लगातार बड़ा होता जा रहा है कि राजनीतिक तौप पर संघ की भूमिका सिर्फ राय देने वाली रहे तो ठीक या फिर चलाने वाली हो तो ठीक। लेकिन गडकरी के सवाल ने सरसंघचालक के सामने भी यह सवाल खड़ा कर दिया है कि कि गडकरी को अगर दूसरा मौका नहीं मिला तो भी जवाब देना होगा और अगर दूसरा मौका दे दिया तो भी जवाब मांगा जायेगा। यानी दांव पर साख संघ की ही लगी है।