छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में नक्सलियों ने 73 पुलिसकर्मियों को निशाना बनाया तो पहली बार ऑपरेशन ग्रीन हंट को करारा झटका लगा। लगा कि रेड कॉरीडोर में रेड हंट ही चलता है। इस घटना के बीच आपको एक गांव ले चल रहे हैं, जिसके हालात देखकर अंदाजा लग सकता है कि शायद कुछ इस तरह माओवादी रेड कॉरीडोर में अपनी समानांतर सरकार चलाते होंगे।
मेरी शादी 2004 में हुई। पटना में झारखंड के चतरा जिले के टटरा गांव से बारात आयी। शादी के अगले दिन सुबह 5 बजे ही विदाई हो गयी। रास्ते में पति से पूछा इतनी सुबह विदाई की जरुरत क्यों थी। 8 बजे भी निकल सकते थे। तब हमें रात बाहर ही बितानी पड़ती। क्यों ? क्योंकि हमारे गांव में शाम 4 बजे के बाद किसी भी नये व्यक्ति की इंट्री नहीं हो सकती। ऐसा क्यों ? बस यूं ही । पहुंचोगी तो समझ जाओगी। पटना से गया। गया से चतरा। और चतरा से करीब बीस-पच्चीस किलोमीटर अंदर जंगल के बीच टटरा। दोपहर करीब तीन बजे चतरा पहुंचे। और पौने चार बजे टटरा। गांव के बाहर ही आदिवासियों ने भाड़े की एम्बेसेडर गाड़ी रोक ली। शादी के जोड़े में ही घर की चौखट पर उतरने से पहले गांव के चौखट पर मुझे उतारा गया। उसके बाद पांच आदिवासी महिलाओं ने मुझे घेर लिया। पांचों महिलाओं के कंधे पर बंदूक लटक रही थी। पेट पर गोलियों की लड़ी बंधी थी। दो मेरे आगे, दो मेरे पीछे और एक साथ में खड़ी होकर मुझे चंद फर्लांग दूर एक पेड़ की ओट में ले गयी। मेरे सभी गहने उतारवाकर पहले मेरे शरीर में कुछ छुपा हुआ तो नहीं है...उसकी जांच की गयी और फिर सवाल-दर सवालों के जरीये मेरे पूरे खानदान के बारे में जानकारी ली गयी। पिता क्या काम करते हैं से लेकर घर में कौन कौन हैं और खुद मैं कितना पढ़ी हूं।
संतुष्ट होने के बाद एक बुजुर्ग सरीखे आदिवासी ने मेरे सारे गहने मुझे लौटाये और उसके बाद मैं अपने घर में घुस पायी। और मुझे जानकारी दी गयी कि अब मै इस गांव की नागरिक हूं। मैंने सोचा बिहार से झारखंड घुसने के दौरान भी किसी पुलिस ने हमारी गाड़ी नहीं रोकी लेकिन गांव में आदिवासियों ने जिस तरह सब कुछ खंगाल डाला, उसकी वजह की जानकारी मुझे अगले दिन से ही मिलने लगी। मायके आने की अगली सुबह ही 25 हजार रुपये वसूलने कुछ युवा आदिवासी लड़के आये । पता चला यह लेवी है। गांव की रक्षा करने वाले आदिवासियों का नियम है कि गांव में जिस लड़के की शादी बाहर होगी, उसे बतौर लेवी 25 हजार रुपये देने होंगे और लड़की की शादी होने पर 10 हजार रुपये देने होंगे। लेकिन आदिवासी हैं कौन और जिस तरह आदिवासी लड़कियां बंदूक टांगे घूमती हैं, इन्हें रोकने वाला कोई नहीं है।
लेकिन हर सुबह और अगले दिन के साथ साथ मुझे नयी जानकारी मिलती। पहली बार देर शाम पटना यानी घर से मोबाइल पर फोन आया तो बात करने छत पर गयी और जोर जोर से बात कर रही थी तो अचानक फोन बंद करने का निर्देश हो गया। घर के बाहर से आदिवासियों ने इशारा किया और घर के लोगों ने फोन बंद करवा दिया। पता चला देर शाम इस तरह फोन पर बात भी नहीं की जा सकती है। क्योंकि खामोशी के बीच आवाज दूर तक गूंजती है और बाहरी किसी भी व्यक्ति को इसका एहसास हो सकता है कि यहां लोग रहते हैं, जिनके संबंध बाहर भी हैं। खासकर गोधूली बेला यानी करीब चार-साढे चार के वक्त न तो बात की जा सकती है न ही कोई घर से निकल सकता है। क्योंकि उस वक्त पुलिस पेट्रोलिंग की गाड़ियां गाहे-बगाहे गांव के करीब से निकलती हैं। फिर फसल अच्छी होने पर लेवी के लिये दो बोरा चावल लेने के तीन आदिवासी लड़के एक दिन फिर घर पर आये। पता चला चावल-गेंहू से लेकर सब्जी तक बतौर लेवी हर घर से लिया जाता है और यह सब आदिवासियों समेत गांव की रक्षा के लिये नियुक्त टीम के लिये होता है, जो सीधे माओवादियों के दिशा-निर्देश पर चलते हैं।
माओवादी शब्द भी मेरे लिये नया था। लेकिन धीरे धीरे पता चला कि चतरा से लेकर पांकी तक करीब सवा सौ गांव में इसी तरह माओवादियों की ही सरकार है और उन्हीं का दिशा निर्देश चलता है । हर घर से साल में दस हजार रुपये बतौर सुरक्षा लेवी लिये जाते हैं। टटरा में सिर्फ पच्चीस से तीस घर हैं और घने जंगल के बीचों बीच बसे इस गांव की हर जरुरत के लिये उन्हीं आदिवासियों को कहना पड़ता है जो माओवादियों के नियम कायदों को पूरा करने में जी जीन से लगे रहते हैं। उसकी एवज में गांव के लोग लेवी देते हैं। गाव में कुंआ खुदवाने से लेकर स्वास्थ्य केन्द्र और स्कूली शिक्षा की जरुरत, जो सरकार से पूरी होने चाहिये, उस पर भी इन्ही माओवादियो की निगरानी में काम होता है। गांववालों को कोई असुविधा ना हो इसकी जानकारी हमेशा यह आदिवासी लेते रहते हैं। मसलन मेरा भाई जब पटना से मिलने पहली बार गांव आया तो मेरे पति ने पहले ही उनके आने की जानकारी इस गांव रक्षक कमेटी को दे दी। चतरा से पांकी जाने वाली बस जब गांव के बस स्टैड पर रुकी और मेरा भाई बस से उतरा तो उसके साथ ही समूची बस के यात्रियो को बंदूकों से लैस आदिवासियो की एक पूरी टीम ने उतारा। सभी की जांच की गयी। बस के भीतर भी खोजबीन हुई। पुरुषों को आदिवासी लड़को ने तो महिलाओं को आदिवासी लड़कियों जांचा परखा और फिर बस को रवाना किया। उसके बाद मेरे भाई के समूचे सामान को खुलवाकर देखा गया और घर में आने से पहले मैंने घर के चौखट से ही देखा तो लगातार उनसे पूछताछ की जा रही थी और वह हाथ ऊपर किये हर सवाल का जबाब दे रहे थे। फिर सारी जानकारी जब पहले से दी गयी जानकारी से मेल खा गया तो ही भाई को घर जाने की इजाजत दी गयी। और भाई ने घुसते ही कहा-तुम्हारे घर तो आना बड़ा मुश्किल काम है। ऐसी जांच तो देश में कहीं नहीं होती। दो दिन भाई रहा। लेकिन उस दौरान उसे कोई परेशानी नहीं हुई सिवाय शाम के बाद घर में कैद हो जाने के।
साल दर साल बीतते गये तो मैं भी पूरी तरह गांव की हो चुकी थी तो एक दिन मैंने स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का जिक्र पति से किया। उसके बाद गांव के उन बच्चों को पढ़ाने लगी जो दिनभर यूं ही भटकते। फिर उन आदिवासियों के बच्चो को पढ़ाया जिनके मां-बाप बंदूक लटकाये घूमते थे। एक दिन मुझे पता चला कि गांव की तरफ से मेरा नाम ग्राम शिक्षक के लिये भेजा गया है। जैसे ही सरकार की तरफ से शिक्षकों की नियुक्ती होगी, वैसे ही मेरी नियुक्ति भी ग्राम शिक्षक के तौर पर हो जायेगी। उसकी एवज में मुझे साढ़े तीन-चार हजार मिलेंगे । लेकिन सरकारी नियुक्ति के बाद पैसे तो सरकार देती है, ऐसे में माओवादी कैसे मेरी तनख्वाह देंगे। तो पति ने बताया कि गांव के लिये जो भी पैसा आता है, बीडीओ का काम है कि समूचा पैसा वह हर गांव की रक्षा में लगे इन माओवादियों को दे दे। उसके बाद जरुरत मुताबिक सरकारी रकम को ग्रामीणो में बांटा जाता है। ऐसे में ग्राम शिक्षक के तौर पर अगर मेरी तनख्वाह करीब चार हजार साढ़े तीन सौ रुपये तक आयेगी तो हर महिने उसमें से पांच सौ से सात सौ रुपये बच्चो की किताब और सलेट और बाकि जरुरतों पर खर्च किया जायेगा।
जो आदिवासी पहले दिन मेरी जांच कर रहे थे, अब उन्हीं आदिवासी महिलाओं ने मुझसे आ कर कहा कि बच्चों को पढ़ाने के बाद मैं उन्हे भी हफ्ते में एक दिन पढ़ा दूं। गांव से करीब आधे किलोमीटर दूर उन आदिवासियों की क्लास लगती जो दिन भर कंधे पर बंदूक उठाये गांव-दर गांव रक्षा में जुटी रहती। और लेवी वसूली से लेकर समूची व्यवस्था में जुटी रहती। इन सब से मैं भी खुश हुई कि कुछ दिनो बाद से मैं भी घर के खर्चो में हाथ बंटा सकूंगी। गांव की ही कुछ महिलाएं प्रौढ शिक्षा कार्यक्रम के तहत कई वर्षो से पढ़ाती रही है । देर रात प्रौढ शिक्षा कार्यक्रम के तहत चलने वाली पढ़ाई में अक्सर हथियारों को छोड कापी-कलम लेकर वही आदिवासी पढ़ने पहुंचते, जो दिन के उजाले में हथियारों के साथ गांव में घूमते नजर आते।
लेकिन पिछले साल गांव की दो घटनाओ ने मुझे अंदर से हिला दिया। पहली घटना यह कि गांव के एक लड़के की शादी तय हुई तो उसने 25 हजार लेवी देने से मना कर दिया। चूकि गांव में कभी कोई बारात नहीं आती तो लड़के ने इसका विरोध कर कहा कि अगर बारात को आने नहीं दिया जायेगा तो तो वह लेवी भी नहीं देगा। माओवादी गांव में बारात आने नहीं देते क्योंकि उनका मानना है कि पुलिस बारात के बहाने गांव में घुस सकती है। ऐसे में शादी करके जिस दिन वह लड़का अपनी पत्नी के साथ घर पर आया वैसे ही उस लड़के की हत्या माओवादियों ने कर दी। लडकी पहले दिन ही विधवा हो गयी। वहीं उस लडकी को लेने जब उसके घरवाले अपनी गाड़ी से आ रहे थे तो अचानक गाड़ी गांव की उस सड़क पर चली गयी जिस पर माओवादियों ने विस्फोटक बिछा रखा था। चूंकि लड़की ने अपने घर वालों के बारे में पूरी जानकारी उनके आने से पहले माओवादियो को दे दी थी तो गाड़ी को बचाने के लिये विस्फोटक को उठाने एक आदिवासी लड़का गाड़ी के आगे खड़ा हो गया और दूसरा जैसे ही विस्फोटक के करीब से गाड़ी को निकलवाने का प्रयास कर रहा था तो विस्फोटक पर उस माओवादी आदिवासी लड़के का ही पांव पडा और उसकी जान चली गयी। लेकिन गाडी को आंच भी नहीं आयी। सब कुछ समूचे गांव के सामने हुआ। और उस लड़की ने भी अपने घर की चौखट से देखा कि उसके परिवार वाले कैसे बाल बाल बचे और आदिवासी लड़को ने कैसे बचाया।
माओवादियो की वजह से विधवा हुई लड़की अगले दिन जाने के बजाये उस आदिवासी लड़के के अंतिम संस्कार के लिये गांव में ही रुकी। और तीन दिन बाद ही अपने घरवालो के साथ अपने मायके रांची रवाना हुई। माओवादियो की तरफ से उस लड़की को आश्वासन दिया गया कि अगर वह गांव वापस अपने पति के घर पर रहने आयेगी तो उसके लिये भी कोई नौकरी गांव के स्तर पर ही ग्राम पंचायत के जरीये वह कराने का प्रयास करेंगे। बीते छह महिनो से वह लड़की गांव नहीं लौटी लेकिन इस दौर में उस लडके के घर से पहली बार सालाना 10 हजार की लेवी के अलावा और कोई लेवी नहीं ली गयी।
मैं ग्रेजुएट हूं और पटना जैसे शहर में पली बढी हूं। लेकिन पहली बार टटरा गांव में रहते हुये मैं यह महसूस ही नहीं कर पाती कि देश में ऐसी जगह भी है, जहां पुलिस प्रशासन , व्यवस्था सबकुछ अलग है। लेकिन गांव में कभी बिजली नहीं जाती। पीने के पानी के लिये हैड पंप और कुंआ तो पहले से था लेकिन बीते दो साल से गांव में नल भी लग गया। और जो पाइप लाइन बिछी, उसे बीडीओ ने उन्हीं आदिवासियो के सहयोग से बिछवाया, जो पूरे गांव में बंदूक उठाये घूमते हैं और लेवी लेते हैं। नरेगा का पैसा भी माओवादियो के पास बीडीओ के जरीये आ जाता है। माओवादी सिर्फ गांववालों के नाम या उन आदिवासियो का नाम, अंगूठे के निशान के साथ बीडीओ को दे देते हैं, जिससे लगे कि नरेगा का काम हो रहा है। माओवादी जो भी काम कराते हैं, उसके एवज में इसी पैसे से रकम बांट देते हैं। नरेगा में सौ रुपया मिलता है तो माओवादी 45 रुपये देते हैं। लेकिन गांव में जो भी काम होता है, उसे वहीं के लोग काम करते है। काम सभी के पास है। गांव में भूखों मरने जैसा स्थिति नही है। छह साल से रहते हुये मेरी सोच इतनी ही बदली है कि 2004 में जब शादी होके टटरा पहुंची थी,तब लगता था कि गांववालो के बीच माओवादी है, अब लगता है कि माओवादियो के बीच हम हैं।
18 comments:
कोई भी संगठन हो.. सरकार हो.. अपने बनाए कानून के प्रति इमानदार व नैतिकतावादी होनी चाहिए इसके अभाव में वे मिट जाते हैं।
--अच्छी ग्यानवर्धक पोस्ट के लिए आभार।
कोई भी संगठन हो.. सरकार हो.. अपने बनाए कानून के प्रति इमानदार व नैतिकतावादी होनी चाहिए इसके अभाव में वे मिट जाते हैं।
--अच्छी ग्यानवर्धक पोस्ट के लिए आभार।
हत्यारों को पहचान पाना अब बड़ा मुश्किल है/ अक्सर वह विचारधारा की खाल ओढ़े मंडराते रहते है राजधानियों में या फिर गाँव-खेड़े या कहीं और../ लेते है सभाएं कि बदलनी है यह व्यवस्था दिलाना है इन्साफ.../ हत्यारे बड़े चालाक होते है/खादी के मैले-कुचैले कपडे पहन कर वे/ कुछ इस मसीहाई अंदाज से आते है/ कि लगता है महात्मा गांधी के बाद सीधे/ये ही अवतरित हुए है इस धरा पर/ कि अब ये बदल कर रख देंगे सिस्टम को/ कि अब हो जायेगी क्रान्ति/ कि अब होने वाला ही है समाजवाद का आगाज़/ ये तो बहुत दिनों के बाद पता चलता है कि/ वे जो खादी के फटे कुरते-पायजामे में टहल रहे थे/और जो किसी पंचतारा होटल में रुके थे हत्यारे थे./ ये वे ही लोग हैं जो दो-चार दिन बाद / किसी का बहता हुआ लहू न देखे/ साम्यवाद पर कविता ही नहीं लिख पते/ समलैंगिकता के समर्थन में भी खड़े होने के पहले ये एकाध 'ब्लास्ट'' मंगाते ही माँगते है/ कहीं भी..कभी भी..../ हत्यारे विचारधारा के जुमलों को/ कुछ इस तरह रट चुकते है कि/ दो साल के बच्चे का गला काटते हुए भी वे कह सकते है / माओ जिंदाबाद.../ चाओ जिंदाबाद.../ फाओ जिंदाबाद.../ या कोई और जिंदाबाद./ हत्यारे बड़े कमाल के होते हैं/ कि वे हत्यारे तो लगते ही नहीं/ कि वे कभी-कभी किसी विश्वविद्यालय से पढ़कर निकले/ छात्र लगते है या फिर/ तथाकथित ''फेक'' या कहें कि निष्प्राण-सी कविता के / बिम्ब में समाये हुए अर्थो के ब्रह्माण्ड में/ विचरने वाले किसी अज्ञातलोक के प्राणी./ हत्यारे हिन्दी बोलते हैं/ हत्यारे अंगरेजी बोल सकते हैं/ हत्यारे तेलुगु या ओडिया या कोई भी भाषा बोल सकते है/ लेकिन हर भाषा में क्रांति का एक ही अर्थ होता है/ हत्या...हत्या...और सिर्फ ह्त्या.../ हत्यारे को पहचानना बड़ा कठिन है/ जैसे पहचान में नहीं आती सरकारें/ समझ में नहीं आती पुलिस/उसी तरह पहचान में नहीं आते हत्यारे/ आज़ाद देश में दीमक की तरह इंसानियत को चाट रहे/ लोगों को पहचान पाना इस दौर का सबसे बड़ा संकट है/ बस यही सोच कर हम गांधी को याद करते है कि/ वह एक लंगोटीधारी नया संत/ कब घुसेगा हत्यारों के दिमागों में/ कि क्रान्ति ख़ून फैलाने से नहीं आती/ कि क्रान्ति जंगल-जंगल अपराधियों-सा भटकने से नहीं आती / क्रांति आती है तो खुद की जान देने से/ क्रांति करुणा की कोख से पैदा होती है/ क्रांति प्यार के आँगन में बड़ी होती है/ क्रांति सहयोग के सहारे खड़ी होती है/ लेकिन सवाल यही है कि दुर्बुद्धि की गर्त में गिरे/ बुद्धिजीवियों को कोई समझाये तो कैसे/ कि भाई मेरे क्रान्ति का रंग अब लाल नहीं सफ़ेद होता है/ अपनी जान देने से बड़ी क्रांति हो नहीं सकती/ और दूसरो की जान लेकर क्रांति करने से भी बड़ी/ कोई भ्रान्ति हो नहीं सकती./ लेकिन जब खून का रंग ही बौद्धिकता को रस देने लगे तो/ कोई क्या कर सकता है/ सिवाय आँसू बहाने के/ सिवाय अफसोस जाहिर करने कि कितने बदचलन हो गए है क्रांति के ये ढाई आखर जो अकसर बलि माँगते हैं/ अपने ही लोगों की/ कुल मिला कर अगर यही है नक्सलवाद/ तो कहना ही पड़ेगा-/ नक्सलवाद...हो बर्बाद/ नक्सलवाद...हो बर्बाद/ प्यार मोहब्बत हो आबाद/ नक्सलवाद...हो बर्बाद
jo mere desh ka kanoon nahi manta wo chahe kitna hi achcha kaam kar raha ho, govt se shaandar kaam kar raha ho, hai wo 'dushman' hai...prasoonji band kijiye in maovadiyon ko samajhna, jaroorat ab mitane ki aa gayi hai...mera bhai ya behan is operation green hunt me marey jayein koi fikra nahi...
कोई भी वाद आदर्श ओर नैतिकता के झंडे तले शुरू होता है ....फिर गुजरते वक़्त के साथ .सत्ता ओर ताक़त का स्वाद जीभ से लगते ही ...भटकने लगता है .लोग इस्तेमाल होते है ....कोई भी सरकार बुरी नहीं होती .उसको चलाने वाले लोग बुरे होते है ....जो हम आप जैसे लोग है .....तो बदलाव की कहाँ जरुरत है .....उसे लाने के लिए एक नया सामान्तर सिस्टम खड़ा करना जो गुजरते वक़्त के साथ इसी इन्फेक्शन का शिकार होने वाला है .खतरे को ओर बढा देना है
सरकार से बेहतेर व्यस्त यही चला रहे हैं...फल्तुं में सरकार इनका सफाया करने का दंभ भर्ती है...अपनी व्यवस्ता ठीक से चला तो पाहि नहीं उलटे धनकुबेरों के धन में बढ़ोतरी के लिए मासूम आदिवासीय की जान ले रही है...हमारी सरकार बिकाऊ है...जिसे कोई भी खरीदने की हासियत रखने वाला खरीद लेता है फिर गरीबों के शरीर को निचोड़ निचोड़ के खता है.......
सर क्या ये लेख या ये कमेन्ट इसलिए आया है क्यों की नक्सलियों ने हमारे ७५ जवान मार दिए. पिलिज़ सर आप जैंसे मीडिया वाले लोग जिनकी बात सब मानते है अब ये लो आपलोग बुझने न देना. पर कही सर आप लोग फिर से कही सानिया की शादी का लाइफ टेलेकास्ट न करने लगे, या फिर कही कोई कांग्रेस का नेता अमिताब के पास बैठने से मना न कर दे और आप आगे के sehedule में busy न हो जाओ की कब अमिताब की कांग्रेस के नेता के साथ मीटिंग हो सकती है. कही सचिन फिर से २०० रन न बना ले. सर plz कुछ न कुछ करो.
Itani badi chuk ke liye ye lekh kaphi nahi.
prasun ji, kya yah lekh aise hi samay ke liye bacha kar rakha gaya tha naxali desh ke itihas ka sabse bada hamla karein aur unki vyavastha ki tareef wala lekh aaye...........
yah baat jag-jahir hai ki aap vam samarthak hain fir bhi aap se yah ummeed nahi thi.
aur han clear kar du ki na to mai RSS wala hu na hi BJP ya congress ka
मतलब और मकसद क्या है आपका। ये तो एक आदर्श गांव की सुंदर सी कहानी है। कक्षा एक से लेकर छह तक की हिंदी किताबों वाली।...और सभी खुशी-खुशी रहने लगे टाइप। बहरहाल लगता है इसमें आधी हकीकत और आधा 'फंसाना' है...लोग पढ़ेंग फंसेंगे...अब मैं ये सोच रहा हूं कि इस मौके पर आपने ये ही अच्छी वाली कहानी क्यों चुनी...
ऐसी सत्ता -व्यवस्था का विकल्प क्या है ?
mujhe to yah lekh maovadiyon ke paksh men nahi balki khilaap laga. ..kaalpnik ki sahi lekin rochak tha
Bahut sahee taraf dhyaan kheenchaa hai aapne. 'Delhi ke log' vyvasthaa me kadam bhee naheen rakhte aur nirnaya bhee le lete hain. Besak aadiwasi ek saamaajik vyavastha hai. ise mahaj raajneetik chasme se dekhnaa ek eemaandar kadam nahee hoga.
ये सब इस सेकुलर गिरोह के देशविरोधी -मानवता विरोधी कुकर्मों का परिणाम है विस्वास नहीं होता तो जानें इस गिरोह की हकीकत हमारे बलाग http://samrastamunch.spaces.live.com
वाजपेयी जी एक वक्त ता कि हम आपकी आबाज के लिए सरसते थे क्योंकि उस आबाज में दशहित की आबाज दिकती थी लेकिन जैसे-सेकुर गिरोह का भारतविरोधी साया सामने आया पने भी भारत की आबाज को अपशब्द कपने में कोई कसर न छोड़ी।
आज फिर उस आबाज की झलक दिखी है उमीद है अब ये आबाज ऐसी ही रहेगी देशहित की आबाज।
प्रसून जी, बिहार बोर्ड की तीसरी कक्षा की किताब में एक कहानी पढ़ी थी. शायद आपने भी पढ़ी होगी. उसमें एक लाइन थी - 'गुलामी की हलवा-पूरी से आजादी का हवा पानी ज्यादा स्वादिष्ट होता है'
जैसी व्यवस्था का आपने वर्णन किया है उसकी (क्षद्म प्रगतिशील)लोग जितनी भी तारीफ कर लें पर शायद ही हममें से कोइ ऐसे माहौल में रहना चाहेगा.
阿彌陀佛 無相佈施
不要吃五辛(葷菜,在古代宗教指的是一些食用後會影響性情、慾望的植
物,主要有五種葷菜,合稱五葷,佛家與道家所指有異。
近代則訛稱含有動物性成分的餐飲食物為「葷菜」,事實上這在古代是稱
之為腥。所謂「葷腥」即這兩類的合稱。 葷菜
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(重定向自五辛) 佛家五葷
在佛家另稱為五辛,五種辛味之菜。根據《楞嚴經》記載,佛家五葷為大
蒜、小蒜、興渠、慈蔥、茖蔥;五葷生啖增恚,使人易怒;熟食發淫,令
人多慾。[1]
《本草備要》註解云:「慈蔥,冬蔥也;茖蔥,山蔥也;興渠,西域菜,云
即中國之荽。」
興渠另說為洋蔥。) 肉 蛋 奶?!
念楞嚴經 *∞窮盡相關 消去無關 證據 時效 念阿彌陀佛往生西方極樂世界
我想製造自己的行為反作用力
不婚 不生子女 生生世世不當老師
log 二0.3010 三0.47710.48 五0.6990 七0.8451 .85
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हमारे कुछ बंधुओं ने कहा की इन मवादिओं को समझान छोड़िये. इनका सफाया जरुरी है. भाई कितनो का सफाया करेंगे. और किनके सफाए की बात आप कर रहे हैं. अरे ये आपने लोग हैं. उसी जंगल के उसी गाँव के. उनसे बात करने की जरुरत है. उनकी समस्या समझने की जरुर है. ये जन जंगल और जमीन की लड़ाई है. बंधू कोई यूँ ही बन्दुक नहीं उठता कुछ तो majburi hogi.
salaana levy ke taur par hajaron rupaye dene waale, shaadi me 25 hajar dene waale.. waaah ji... apane liye to bachchce ke liye li iklauti LIC policy ki salaana kisht chukana hi bhari padta hai...nahi? to phir garib aur bechare kaun hai? aadivaasi ya hum...?
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