2013 के चुनाव वोटरों के लिये पहली बार उम्मीदवारों को बाकायदा बटन दबाकर खारिज करने वाला भी चुनाव होगा। यानी ईवीएम की मशीन में वोटरों को यह विकल्प भी मिलेगा कि वह किसी भी उम्मीदवार को चुनना नहीं चाहते है। लेकिन राइट टू रिजेक्ट से इतर इनमें से कोई नहीं वाला बटन क्या वाकई राजनीतिक दलों पर नैतिक दबाव बना पायेगा कि वह दागियो को टिकट ना दें। या फिर दागियों के लिये जीतने का यह स्वर्णिम अवसर हो जायेगा। क्योंकि इस चुनाव में इसकी कोई व्यवस्था ही नहीं है कि कितने वोटरों ने इनमें से कोई नहीं का बटन दबाया उनकी गिनती हो। और दूसरा अगर कुल पड़े वोट की तादाद में सबसे ज्यादा वोटरों ने इनमें से कोई नहीं वाला बटन दबा भी दिया तो भी कोई ना कोई उम्मीदवार तो हर हाल में जीतेगा ही। यानी दागी उम्मीदवार की जो सबसे बड़ी ताकत वोट को मैनेज करना होता है उसमें उसे कम मशक्कत करनी पड़ेगी। क्योंकि आदर्श स्थिति की बात करने वाले वोटर तो इनमे से कोई नहीं वाला बटन दबाएंगे।
और जीत हार तय करने निकले वह वोटर जो जातीय या धर्म या समुदाय के आधार पर बंटे होते हैं वह उम्मीदवार के दागी होने से पहले अपने आधारों को देखते हैं। तो तीन सवाल असबार सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एवीएम में नोटा यानी इनमें से कोई नहीं वाले बटन के घाटे पर बड़ी तादाद में वोटरों के वोट बिना गिने रह जायेंगे। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने एक उदाहरण संसद का यह कहकर दिया था कि वहां भी वोटिंग के हालात में एबसेंट की संख्या भी बतायी जाती है। लेकिन चुनाव आयोग ने कोई व्यवस्था नहीं की है कि नोटा बटन दबाने वालो की गिनती हो। दूसरा सवाल वोट मैनेज करने वालो के लिये आसानी होनी। क्योकि साफ छवि वाले नेता वोटरो के सामने यह आवाज जरुर उठायेगे कि वो नोटा बटन भी दबा सकते हैं। और तीसरा रिप्ररजेन्टेशन आफ पीपुल्स एक्ट की धारा 49 को खत्म करने का कोई महत्व नहीं बचेगा। क्योंकि इस नियम के तहत वोटर पहले प्रिजाइडिंग अफसर को जानकारी देता था कि वह किसी भी उम्मीदवार को वोट देना नहीं चाहता है। तो उसकी संख्या पता चल जाती थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रवधान को इसलिये बदला क्योंकि इससे धारा 19(1) के तहत फ्रीडम आफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन का वॉयलेशन होता क्योकि वोटिग को सिक्रेट बैलेट माना जाता है।
लेकिन यहीं से सवाल बड़ा होता है कि संविधान चुनाव के अधिकार को अगर बराबरी के तराजू में रखता है तो वोट का मतलब अपने नुमाइन्दे को चुनने या दूसरे को खारिज करने के लिये होता है। इसकी कोई व्यवस्था संविधान में भी नहीं है कि वोटर वोट डाल दें और उसके वोट को कही दिखाया ही ना जाये। यानी गिनती में कही नजर ही ना आये। इसे बारिकी से समझें तो 2009 में देश में कुल 70 करोड़ वोटर थे। लेकिन वोटिंग महज 29 करोड़ हुई। और इसमें से 11.5 करोड़ वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिया और 8.5 करोड वोटरों ने बीजेपी को वोट दिया। कमोवेश इसी तरह करीब एक करोड़ वोट सपा या बीएसपी के पक्ष में पड़े। यानी हर पार्टी को कितने वोट मिले यह चुनाव आयोग के दस्तावेज में दर्ज है और इसे कोई भी कभी भी देख सकता है। लेकिन 2013 के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कुल 11 करोड़ वोटर हैं। मान लीजिये 50 फीसदी वोटिंग होती है। यानी 5.5 करोड़ वोटर वोट डालते है ।
लेकिन इस बार यह तो जिक्र होगा कि कि किस राज्य में राजनीतिक दल को कितने वोट मिले या फिर किस उम्मीदवार को कितने वोट मिले और वह कितने अंतर से जीत गया। लेकिन इसका कोई जिक्र ही नहीं होगा कि कितने वोटरो ने अपने क्षेत्र में किसी भी उम्मीदवार को वोट देना पंसद नहीं किया और अगर 5.5 करोड़ में से तीन करोड़ वोटर इनमे से कोई नहीं वाला बटन भी दबा दें तो भी हर क्षेत्र में कोई ना कोई जीतेगा या किसी ना किसी राजनीतिक दल की सरकार बनेगी। और सैकड़ों, हजारों, लाखों या करोड़ वोट इसबार बिना मतलब के साबित होंगे। और चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट खुश हो सकता है कि वोटरों को एक नया विकल्प मिल गया । लेकिन वोटर यह सोच कर कतई खुश नहीं हो सकता कि उसे विक्लप मिल गया और हो सकता है यह तौर तरीका या कहे चुनाव परिणाम तब एक बडी त्रासदी बन जायेगा जब कोई दागी इस बिला पर चुन कर आ जायेगा कि उसे नोटा की तुलना में कम वोट मिले लेकिन उम्मीदवारो की पेरहिस्त में सबसे ज्यादा वोट मिले। और यह हर कोई जानता है कि कोई भी राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिये उम्मीदवार को मैदान में उतारता है। तो अधूरी तैयारी के साथ चुनाव आयोग का उठाया गया कदम कहीं ज्यादा घातक ना हो इसका इंतजार करना होगा। क्योंकि राइट टू रिजेक्ट का सीधा मतलब होता है वोट के प्रतिशत की तुलना में रिजेक्ट किये गये वोट का आंकलन या फिर वोट के रिजेक्ट फीसदी की एक लकीर खींच कर रिजेक्ट को भी बतौर उम्मीदवार के तौर पर मानना जिससे वोटर को दुबारा वोट डालने का मौका उसी चुनाव में नये सिरे से मिल सके। लेकिन इसकी कोई व्यवस्था नहीं है ।
Friday, October 4, 2013
"राइट दू रिजेक्ट" के नाम पर वोटर धोखा तो नहीं खायेगा
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:58 PM
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2 comments:
Thank you Poonya Prasoonji for sharing such a insightful story on Right to Reject.
It is high time for all of us to put pressure about bringing desirable change or due impact of NOTA option exercised by the Votors.
I request you and your team to contineously raise this issue in your channel repeatedly and sensitilize people to give a pro-active demand and put pressure on policy makers to bring desirable change to strengthen and cleanse our Democracy.
Thank you for regularly sharing your insights and analysis on various burning issues of the country.
warm regards
Pramod
In our city there is abig fraud with people and government but all are sleep please see for information http://cctvcamerafraud.blogspot.in/
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