चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज की दीवार पर चिपके पुलिसिया पोस्टर ने झटके में माओवादियों को लेकर सरकार के नजरिये और सरकारी सिस्टम को लेकर एक पूरी बहस मेरी आंखों के सामने ला कर खड़ी कर दी । पोस्टर में काले घेरे में एक युवक की तस्वीर छपी थी । जिसके ऊपर मोटे काले अक्षर में लिखा था-यह माओवादी है। इसने बाईस पुलिसकर्मियों को बारुदी सुरंग से उड़ाया है, जो इसे पकड़वाने में मदद देगा उसे पचास हजार रुपये ईनाम में दिये जायेंगे। तस्वीर के नीचे लिखा था माओवादी कामरेड मिलिन्द। यह कब से कामरेड हो गया ? चेहरा वही लेकिन नाम कुछ और था। इस लडके का नाम तो मिलिन्द नहीं था। अठारह साल पहले की वह शाम याद आ गयी, जिसमें प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन विषय पर जबरदस्त बहस हुई थी।
दिसंबर 1991 । चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र महोत्सव में शामिल होने नागपुर से चन्द्रपुर पहुंचा था। सोच कर गया था कि नक्सलवाद तेजी से आंध्रप्रदेश से सटे विदर्भ के चन्द्रपुर जिले में भी घुस चुका है और चन्द्रपुर से सटे छत्तीसगढ़, जो उस वक्त मध्यप्रदेश का हिस्सा था, वहां भी दस्तक दे रहा था, तो उस पर अखबार के लिये रिपोर्ट भी तैयार हो जायेगी। साथ ही कालेज के छात्र नक्सलियों को लेकर क्या सोचते-समझते हैं, इस पर पर रिपोर्ट तैयार होगी। इंजीनियरिंग कॉलेज पहुचा तो खासा जोश छात्रों में था। गेट पर ही छात्रों का एक झुंड स्वागत में खड़ा मिल गया। अठारह से बाईस साल के बीच के ही सभी छात्र थे। सभी ने अपनी फैक्ल्टी बतायी। नाम बताया। फिर हम कार्यक्रम में शरीक होने कालेज के कान्फ्रेन्स हॉल में चल पड़े। कालेज के अंदर जाते वक्त अचानक एक छात्र पीछे से आया और मुझसे हाथ मिलाकर कर बोला भईया आप भी प्रोफेशनल नहीं हैं। छात्र महोत्सव में मैंने ही यह विषय रखवाया है, प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन। तुम्हारा नाम। वसंत तामतुम्डे। अच्छा विषय है। लेकिन कुछ उलझा हुआ सा लगता है क्योंकि एजुकेशन तो प्रोफेशनलिज्म की तरफ ही ले जाता है। चलिये भईया इसी पर तो चर्चा करनी है। मजा आयेगा। उसने मजा आयेगा कुछ इस तरह कहा जैसे उसे सब पता था कि क्या होगा।
छात्र महोत्सव के दौरान कालेज के प्रिंसिपल भी मौजूद थे और सभी शिक्षक भी। संयोग से चन्द्रपुर की डीएम को भी आमंत्रित किया गया था। लेकिन डीएम महोदय आखिर में पहुंचे जिसका मलाल उन्हें उस वक्त तो रहा ही मेरे ख्याल से आज भी होगा। खैर एजुकेशन के तौर तरीको को लेकर छात्रों के सवाल खुद ब खुद प्रोफेशनलिज्म से जुड़ते चले गये और जब समूची बहस इस दिशा में जा रही थी कि शिक्षा का मतलब ही छात्रों को प्रोफेशनली ढालना हो चुका है और जिसका मतलब अदद नौकरी पर जा टिका है तो मैंने देखा वसंत ताम्तुबडे ने मंच पर आकर सवाल किया कि प्रोफेशनलिज्म का जिन्दगी से कुछ भी लेना देना नहीं होता और शिक्षा का मतलब जिन्दगी है। और मुझे लगता है कि हम जीवन से अमानवीय परिस्थितियों की दिशा में बढ़ रहे है, जिसे प्रोफेशनलिज्म कह कर हम साथी बेहद खुश हो रहे हैं। फिर उसने सीधे प्रिंसिपल को संबोधित करते हुये कहा कि आपने कालेज के हर फैक्ल्टी में एक डिजार्टेशन तैयार करने का प्रावधान कर रखा है, और खास बात यह है कि इस डिजार्टेशन को लेकर सिलेबस में साफ लिखा गया है कि विषय और शोध अगर आम जिन्दगी से जुड़ा हो और उसमें बदलते समाज के बिंब भी हो तो ज्यादा अच्छा रहेगा। मैंने विषय लिया चेंजिंग लाइफस्टाइल आफ ट्राइबल्स, विद् स्पेशल रेफरेन्स आफ प्रोबलम आफ नक्सलाइट [ आदिवासियों के जीने के बदलते तरीके, नक्सल समस्या के मद्देनजर ]। लेकिन मुझे कहा गया कि आदिवासी और नक्सल को एक साथ ना जोड़ें। डीएम साहब यहां आये नहीं हैं, अगर होते तो उनसे पूछंता कि नक्सल शब्द में इतना आतंक क्यों भर दिया गया है। क्यों इस मुद्दे पर कोई चर्चा करने तक से प्रोफेसर घबराते हैं। ऐसे में आदिवासियो के सवाल भी हाशिये पर होते जा रहे हैं। कोई आदिवासियों के मुश्किल जीवन को लेकर चर्चा नहीं करना चाहता। उन्होंने इतना नक्सलाइट के नाम पर आतंक क्यो पैदा कर दिया है कि हमारे प्रोफेसर भी इस विषय पर खामोश रहना चाहते हैं जबकि वह जानते है कि उनके इर्द-गिर्द की परिस्थितियां बदल रही हैं। मेरे ख्याल से डीएम से लेकर प्रोफेसर तक प्रोफेशनल हो चुके हैं। मै जानना चाहता हूं कि मुझे भी इन विषयों को छोडकर प्रोफेशनल होना है या फिर जिस समाज में हमें कालेज से निकलकर काम करना है, उस समाज को जानना भी एजुकेशन है।
वसंत के इस सवाल ने अचानक कुछ छात्रों के तेवर बदल दिये । मैकनिकल फैकल्टी के आलोक आर्य ने चन्द्रपुर के औघोगिक विकास और ह्यूमन इंडेक्स के घेरे में प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन का सवाल खड़ा किया। चन्द्पुर के दस टाप उघोगों के बारे में सिलसिलेवार तरीके उसने जानकारी दी। संयोग से सभी उघोगपति देश के भी टॉप टेन में थे । फिर उसने उन गावों के बारे में जानकारी रखी जहां उघोग लगे थे। ग्रामीण आदिवासियों के सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों का जिक्र कर आलोक ने विकास को प्रोफेसनलिज्म से जोड़ते हुये आखिर में यह साबित किया कि अंधी दौड में विकास का मतलब मुनाफा है और समूचा तंत्र इसी विकास को प्रोफेशनलिज्म मान रहा है जबकि करीब चालीस हजार से ज्यादा मुफलिस-पिछडे ग्रामीण आदिवासियों का सवाल, जिनके पास दो जून की रोटी नहीं है वह शिक्षा के दायरे में भी नहीं हैं और उनके लिये कोई लकीर खिचने का मतलब है इंजीनियरिंग कालेज में तीन लाख रुपये फीस पर पानी फेरना। क्योंकि इससे कैंपस इंटरव्यू में नौकरी नहीं मिलेगी ।
उस दिन बहस में कुछ ज्यादा ही तीखे-तल्ख कमेंट प्रिंसिपल की तरफ से भी आये । जिन्होंने कालेज की बंदिशों को इशारों में समझाया । यह कालेज कांग्रेस के नेता का है। लेकिन छात्रों के सवालो ने इस दिशा में अंगुली उठा दी कि मुद्दों को ना प्रोफेशनल चादर से ढका जा सकता है और ना ही प्रशासन-पुलिस की मुश्किलों को आतंक का जामा पहना कर खामोश रहने से मुद्दे दब जाते हैं।
लेकिन इस छात्र महोत्सव के करीब सवा साल बाद यानी 1993 में एक दिन अचानक एक छात्र नागपुर में मेरे अखबार के दफ्तर में पहुंचा और मिलते ही कहा आपने मुझसे पहचाना नहीं, मैं चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज का छात्र हूं। लेकिन उसे देखते ही मैंने कहा, मुझे आपके सवाल याद हैं, जो आपने उस महोत्सव के दौरान उठाये थे । हा भईया , मैकनिकल का आलोक आर्य। बताइये नागपुर में क्या काम है। मुझे आपसे कोई काम नहीं है। मैं सिर्फ एंटी नक्सल कमीश्नर से मिलना चाहता हूं। मुझे भी याद आया कि करीब एक साल पहले ही नागपुर में कमीश्नर रैंक के आईएएस अधिकारी की नियुक्ति नक्सल गतिविधियों को रोकने और इस मुद्दे के सामाजिक-आर्थिक तरीके से समझते हुये रिपोर्ट तैयार करने के लिये हुई है। मैंने पूछा काम क्या है। उसने कहा आज ही मिलवा दिजिये तो अच्छा होगा। नहीं तो कल कालेज में क्लास छूट जायेगा। अगले महीने फाइनल भी है । लेकिन मुझे भी जानकारी होनी चाहिये, मैं उन्हें क्या कहूंगा। मैं उन्हें चन्द्रपुर की परिस्थितियों से वाकिफ कराना चाहता हूं। हम कालेज के थर्ड ईयर के छात्रो ने चन्द्रपुर की तीन तहसीलों के सामाजिक-आर्थिक परिवेश का जो आंकलन अपने रिसर्च के लिये किया है, उसमें आदिवासियों की कल्याण योजनाओं की हकीकत मै बताना चाहता हूं। क्यों कल्याण योजनाओ को लेकर आपकी रिसर्च में क्या है। कुछ नहीं हमेशा की तरह कोई योजना लागू नहीं हुई है। करीब एक हजार करोड बीते छह साल में पुलिस-प्रशासन के पास चले गये। लेकिन नयी परिस्थितियां इसलिये ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि पचास से ज्यादा वह आदिवासी पुलिस फाइल में नक्सली करार दिये जा चुके हैं, जिनके गांव में हमने बकायदा दस दिनो तक काम किया। उनकी पूरी प्रोफाइल हमारे पास है। सवाल है जो हमारे डिजार्टेशन में ग्रामीण आदिवासी हैं, वह पुलिस फाइल में नक्सली हैं। मै कमीश्नर को बताना चाहता हूं कि यह परिस्थितियां किस खतरनाक समाज का निर्णाण कर रही हैं।
मुझे याद है सारी जानकारी एंटी नक्सल कमीश्नर को आलोक आर्य ने बतायी थी करीब तीन घंटे तक। आलोक ने अपना रिसर्च पेपर भी अधिकारियो को सौपा था। जिसके कुछ हिस्से और नक्सल बताकर बंद किये गये आदिवासियो की फेरहिस्त भी हमने अखबार में छापी। लेकिन ठीक 18 साल बाद जब उसी लडके की तस्वीर बतौर माओवादी उसी कालेज के दीवार पर चस्पां देखी तो इस बारे में और जानकारी के लिये स्थानीय अखबार देशोन्नती की फाइलों को देखा और आदिवासी और नक्सलियो की स्टोरी करने वाले रिपोर्टर सुरेश से बातचीत की। मिलिन्द के बारे जानकारी मिली कि फिलहाल वहीं एरिया कमांडर है और चन्द्रपुर से लेकर दांतेवाडा तक के दो दर्जन से ज्यादा दलम उसके साथ काम करते हैं। मिलिन्द के बारे में और जानकारी तो रिपोर्टर से नहीं मिली लेकिन चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर ने इसकी जानकारी जरुर दी कि मिलिन्द और कोई नहीं आलोक ही है। 1994-95 में कैपंस इंटरव्यू में ही उसे लार्सन एंड ट्रूब्रो में नौकरी मिल गयी थी। लेकिन मिलिन्द ने यह नौकरी एक साल में ही छोड़ दी। उसके बाद चन्द्रपुर में होने वाली माईनिंग को लेकर उसने उस दौर में मजदूरों के सवालों को उठाया। उसी दौर में नक्सली संगठन पीपुल्सवार के संपर्क में आया और मजदूरों को लेकर महाराष्ट्र कामगार किसान-मजदूर संगठन के बैनर तले काम करना भी शुरु किया। लेकिन 1997 से लेकर 2007 तक यानी करीब दस साल तक आलोक क्या करता रहा इसकी जानकारी कभी किसी को मिली नहीं लेकिन आलोक से मिलिन्द बनने को लेकर चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज के परिसर में किस्सागोई जरुर जारी रही। जिस दौर में नंदीग्राम में माओवादियों की गतिविधियां सामने आयीं, उसी दौर में कई बडी बारुदी सुरंग से पुलिस पर हमले भी हुये और उनके पीछे मिलिन्द का नाम ही आया लेकिन सितंबर 2009 में जब 22 पुलिसकर्मियों की मौत चन्द्रपुर-गढचिरोली की सीमा पर हुई तो पहली बार पुलिस ने पोस्टर निकाला और मिलिन्द को पकड़ने वाले को 50 हजार रुपये ईनाम देने का एलान किया। जानकारी यह भी मिली कि आलोक के बैच के दो और छात्र भी मिलिन्द के साथ हैं। मेरे दिमाग में वसंत ताम्तुमडे का चेहरा रेंग गया । हालांकि उसकी किसी ने पुष्टी नहीं की लेकिन 1990-94 के बैच को लेकर कालेज के प्रोफेसरो ने भी माना उस वक्त छात्रो ने जो सवाल खडे किये थे, उसके जवाब तो आजतक नहीं मिले लेकिन वह समस्या इस रुप में बड़ी हो सकती है, इसका अंदेशा छात्रो ने जरुर दिया था। यह अलग सवाल है कि किसी ने यह नहीं सोचा था कि कालेज के छात्र ही निकल कर इस धारा में बह जायेंगे।
मैकनिकल का छात्र बतौर माओवादी किस तरह का आदिवासियों के मुद्दो को लेकर प्रयोग या हिंसा को अंजाम दे रहा है, यह भी स्थानीय लोगों से बातचीत में सामने आया । खासकर आदिवासी युवक-युवतियों को बडी तादाद में इस पूरे इलाके में अपने साथ माओवादियो ने जोड़ा है। उसमें भी युवतियों को हाथ में अधिकतर दलम की कमान है। महाराष्ट्र पुलिस के मुताबिक महिलाओं की भूमिका महाराष्ट्र - छत्तीसगढ़ सीमा के दलमो में सबसे ज्यादा बढ़ी है । करीब अस्सी फीसदी दलम की कमान महिलाओं के हाथ में है। क्योंकि यहां धारणा यही है कि आदिवासी समुदायों में महिलाओ की जो स्थिति है उसमें उनके सामने संकट गांव में रहने के दौरान ज्यादा है क्योंकि नयी आदिवासी पीढी से लेकर क्षेत्र में तैनात पुलिस कास्टेबल से लेकर बडे अधिकारियो की हवस का शिकार आदिवासी लडकियां होती हैं। और माओवादियो ने उनके हाथ में बंदूक थमा दी है। ऐसे में करीब नौ सौ से लेकर दो हजार तक ऐसी लडकियां माओवादियों के साथ बंदूक थामे हुये हैं, जो अपनी सुरक्षा के साथ साथ अपने बुजुर्ग मां-बाप की सुरक्षा भी बंदूक तले देख रही हैं। इससे इन क्षेत्रों में अपराध भी कम हुए हैं । आदिवासी लडके भी माओवादियो ते साथ इसलिये जुड़ रहे हैं क्योकि उनके सामने जीने का कोई दूसरा चेहरा नहीं है। समूचे इलाके में रोजगार है नहीं। जो उघोग काम रहे हैं, चाहे वह पेपर मिल हो या सीमेंट फैक्टरी या कोयला खनन, सभी में मजदूरो को दूसरे क्षेत्रो से लाने की परंपरा शुरु हो चुकी है। क्योंकि अकुशल मजदूरों का काम ठेके पर नीलाम होता है। कमोवेश सारे ठेकेदार दूसरे प्रांतो के हैं तो मजदूर भी दूसरे प्रांतो से लाये जाते हैं। जिससे किसी तरह से मजदूरी को लेकर कोई कानूनी अड़चन ना आये या किसी तरह का कोई आंदोलन ना खड़ा हो जाये। हर नौ-दस महिनो के बाद मजदूरों को भी बदल दिया जाता है।
ऐसे वातावरण में आदिवासी युवकों को अपने साथ जोडने की पहल दो-तरफा हुई है । एक तो सीधे बंदूक उठाकर जंगल जाने को तैयार है और दूसरे गांव में रहकर ही स्वावलंबन की परिस्थितियों को आगे बढ़ाने में लगे हैं। खास कर खेती और बंबू के जरीये कुटीर उघोग का चलन इन क्षेत्रो में शुरु किया गया है। जिसका पैसा बैंको से नहीं तेंदू पत्ता को खरीदने वाले ठेकेदार देता है। क्योकि इन ठेकेदारो पर दलम की बंदूक सटी होती है। इसी तरह से आदिवासी जंगल पदार्थो से जो कुछ भी बाजार में बिकने लायक बनाते हैं, उसके लिये धन का मुहैया इसी स्तर पर उघोगों से लेकर ठेकेदारों तक से माओवादी ही करते हैं। चन्द्रपुर कालेज के प्रो रानाडे और एडवोकेट सालवे के मुताबिक करीब चलीस हजार अदिवासी ग्रामीणों की रोजी रोटी इसे से चलती है। चन्द्पुर के एडवोकेट सालवे के मुताबिक माओवादियों को लेकर पुलिस और अर्द्दसैनिक बलो की नयी पहल ने एक मुश्किल जरुर खडी कर दी है कि माओवादी अपने साथ किसी भी आदिवासी को साथ लेने से पहले जो स्थानीय मुद्दो से दो-चार करवाते थे और एक लंबी ट्रेनिग होती थी, उस पर रोक लग गयी है क्योंकि पुलिस ऐसे किसी भी संगठन को अब काम करने की ना तो इजाजत देती है और कोई किसी भी स्तर पर मानवाधिकार से लेकर मजदूरी या रोजगार का सवाल उठाता भी है तो पहले ही राउंड में वह माओवादी करार देकर जेल में बंद कर दिया जाता है। ऐसे में बिना कोई ट्रेनिंग ही बंदूक उठाने की आदिवासी पहल ने बड़ी तादाद में हिंसा को भी बढ़ावा दिया है और खासे आदिवासी मारे भी जा रहे हैं। और यह पूरा इलाके उसी माओवादी कामरेड मिलिन्द के इलाके में आता है जहां उसे पकड़वाने का इनाम पचास हजार रुपये है।
34 comments:
aazad desh me apneee vyavastha bhrasht hai. yah spsht hai. lekin iska matalab yah nahi ki ham naksali ban jae aue hinsa kare. gandhi ka rasta hi sahi rasta hai. us raste par chl kar bhi lokjagaran ki koshish ho sakati hai. naksali hatyae kar rae hai. kabhi pulis ki to kabhi aadivasiyon ki. hinsa koi samadhan nahi. milind-filind jo bhi ho, nhe yah samajhanaa chahiye ki jangalon me chhip kar hinsa karne se rantikari parivartan nahi ho sakata. parivartan lana hai, yo gandhi, vinobaa, lohiya, jp, aur aamte aadi ki tarah samaaj me hi rahana hoga. jail jae, lathiyaan khaye. anshan kare. ye hi areeke hai. inke baare me likhe. koi injeeniyar naksali ban gaya to koi badee baat nahi ho gai, dukh ki aat hai, sharm i baat hai. is par afasos hona caahiye. lekin kai baar am lok utsaah me aakar aisa likh dete hai, jisaka dusharinaam bhi ho sakataa hai. mai bhi media me 30 saal se hoo, lekin naksali hinsaa ka ardam virodh kiya hai, kyon ki hinsaa hamaara rasta nahi hai. mai har hinsa ka virodhi hoo. sarkaari hinsa ka bhi.."सवालों ने बेचैन किया तो जिंदगी की तंग गलियां छोड़ जवाब खोजने मओवादी बना एक इंजीनियर" kee jagah aash aisa hota ki ''savalo ne bechain kiya to anashan par baith gaya इंजीनियर" ham aisa samaaj chahate hai.
एक शीर्ष स्तर पर बैठे एक पत्रकार से इस तरह की एकतरफ़ा पोस्ट की उम्मीद नहीं थी .
यही हमारे देश की कमजोरी है...पूरी व्यवस्था ही भ्रष्ट है!हर कोई एक आवरण में कैद है,वो उससे निकल कर कुछ सोचना,करना नहीं चाहता!बहुत बार ऐसे कितने ही युवक समाज के लिए बने तंत्र के दायरे में रह कर कुछ करना चाहते है..परन्तु पुलिस,नेता..कोई भी उन्हें महत्त्व नहीं देता...अंत में वे भी बगावत पर उतर आते है!सरकार और पुलिस अपने तरीके से ही चलना चाहते है...
आलोक आर्य से मिलिन्द बनने तक की यात्रा में न जाने कितने ऐसे अवसर आए होंगे जब आलोक के आदर्शवाद, नेतृत्व की प्रतिभा, उसकी सामाजिक चेतना, उसके तेज मस्तिष्क को कानून के दायरे में रहते हुए सामाजिक कामों में लगाया जा सकता था या फिर कानून के दायरे को सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल बड़ा किया जाता। जो भी हो हानि केवल आलोक की ही नहीं सारे समाज की हुई है। हमने आदर्श युवाओं को हाशिए से बाहर करने का काम बखूबी किया है।
घुघूती बासूती
राष्ट्रीय संपत्ति को आग के हवाले करके कौन सी क्रांति आ रही है
यहाँ भी देखें
इंजीनियर सिर्फ माओवादी ही नहीं बनते, इंजीनियर हत्यारे, उठाईगीरे, बलात्कारी भी बन जाते हैं,
एक दशक पहले चम्बल में उतरने वाले डाकू भी यही राग अलापते थे जो आप इन हत्यारे नक्सलावादियों के पक्ष में अलाप रहे हैं, यदि उनका बन्दूक उठाना सही था तो इन हत्यारों का भी है...
क्या कहते हैं आप मानसिंह और पानसिंह के बारे में?
हैरानी नहीं होती है। गुस्सा आता है। जब भी इस प्रकार की बातूनी कमेंटबाजी पढ़ता हूं अथवा सुनता हूं। सबसे पहले मेरा संबोधन तो इन कमेंटबाजों पर है, जिन्हें ये महसूस करना चाहिए कि जनता के बिना राष्ट्र की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती है और जहां पर जनता का शोषण किया जाता हो, उनकी सुविधाओं को हथियाकर दुरुपयोग किया जा रहा हो। अधिकारों के हाथ काट कर बहु-बेटियों की अस्मिताओं को तार-तार किया जाता हों। वो स्टेट नहीं होसकता । वो राष्ट्र नहीं हो सकता । वहां सिर्फ अलोकतांत्रिक शासक हो सकता है। वाजपेयी जी ये वो लोग हैं जिनको इस महंगाई में भी सुबह के नाश्ते में ब्रेड बटर और दूध मिलता है और रात के खाने में शाही पनीर के साथ पोलाव नसीब होता है।
साहब लोकतांत्रिक ढांचा सिर्फ बड़े नौकरशाहों...नेताओं और पूजिपतियों का है। आदिवासियों को कौन पूछता है। आपके न्यूज- चैनल भी अंध-दौड़ में भाग रहे हैं। और नक्सलाइट को टेररिस्ट की तरह प्रोजेक्ट कर रहे हैं। मैं खुले तौर पर कहता हूं। अभी फिलहाल मैं भी मीडिया में हूं। मेरे सिनियर ( बॉस नहीं कहूंगा) मुझे नक्सली कहते हैं। क्योंकि जो मैने तर्क रखे उसके लिहाज से उनकी नज़र में मैं नक्सली हूं।
देश का एक हिस्सा तरक्की कर रहा है। अगर दूसरे हिस्से की आवाज उठाने पर लोग प्रो-नक्सल कह दे तो इससे बड़ा चुतियाप कुछ और नहीं हो सकता है।
मैं आपका ई-मेल चाहता हूं। चाहें तो मेरे ई मेल पर प्रेषित कर सकते हैं। मेरा ई मेल- amrit.writeme@gmail.com
होल्ड...होल्ड... ई-मेल की गुजारिश वापस लेता हूं। वरना ये मसला भी कुछ और रुख इख्तियार कर लेगा। शायद आप भी कुछ उटपटांग सोचें इससे पहले नीचे की लाइनें दिमाग से ड़िलीट कर दिजिए।
आभार------
@अमृत कुमार तिवारी जी
पता नहीं आप कहाँ से हैं
जिस नक्सलवाद की धारणा की बात आप कह रहे हैं वो कब का दम तोड़ चुका अब जो हो रहा है विदेशी ताकतों के इसारे पर राष्ट्र द्रोह है. और जिनसे आप ईमेल आईडी माँग रहे हैं वो तो पोस्ट लिख के आपको कृतार्थ कर रहे हैं आपकी टिप्पणी हम जैसे लोग पढ़ते हैं वो नहीं .
@ अमृत कुमार तिवारी
न जाने क्यों आपने इतने जल्दी कदम वापस ले लिए ?
किसी शायर ने कहा है, "सच कहना बगावत है तो समझो हम भी बागी हैं।" महानगरों और नगरों से आगे बढ़कर देश की बात करने वालों के लिए मिलिन्द हो जाना सहज मानवीय है। उसमें साहस था। हम में नही है। बस इतनी सी बात है। मैं दिल्ली में रहकर आराम से यह सब लिख सकता हूँ। अपने इस आराम को बनाए रखने के लिए मेरा नक्सली हिंसा का विरोध करना जरूरी हो जाता है। वरना कोई तार्किक कारण नहीं कि इसे गलत माना जाय। मिलिन्द भी हम जैसा सुविधाभोगी मध्यवर्गीय बन सकता था। लेकिन नहीं बना। नैतिक रूप से मैं उसे अपने जैसे लोगों से बेहतर मानता हूँ।
महेश सिन्हा जी..आपकी बातों से बहुत हद तक इत्तेफाक रखता हूं। लेकिन जो कुछ सरकार की तरफ से चल रहा है वो डेमोक्रेटिक सेट-अप का लक्षण नहीं है। अब ये बताइए कि सलवा जुडूम का क्या औचित्य है? एक तरफ सरकार कानून हाथ में नहीं लेने को कहती है और दूसरी तरफ नागरिकों के हाथ में बंदूक थमाती है। क्यों? पुलिस तंत्र तो तब खतम कर दिया जाना चाहिए। नागरिक स्वयं की रक्षा करे। ऐसे में नक्सलियों को अगर बंदूक कहीं और से मिल रही है तो बात बराबर है। एक शख्स संविधान की बातों से इत्तेफाक रखकर कानून हाथ में ले रहा है। दूसरा संविधान से इत्तेफाक नहीं रखते हुए हथियार उठाए हुए हैं। इसे क्या कहेंगे।
सरकार भी उसी गाय को संरक्षण दे रही है जो दुधारू है। सिस्टम भी उसी को बढ़ावा दे रहा है, जिसके पास पहले से ही गतिशीलता बनी है। बाकी सब दूसरी जमातों को गति प्रदान करने के नाम पर अपनी स्पीड में बढ़ोत्तरी की जा रही है।
"मिलिन्द भी हम जैसा सुविधाभोगी मध्यवर्गीय बन सकता था। लेकिन नहीं बना। नैतिक रूप से मैं उसे अपने जैसे लोगों से बेहतर मानता हूँ।"
रंगनाथ जी आपने बिल्कुल सही कहा है।
आपसे ये उम्मीद न थी।आपसे अनुरोध है आईये एक बार बस्तर मे रूकिये कुछ दिन और फ़िर बताईये सच क्या है तो बहुत अच्छा लगेगा।
@अमृत कुमार तिवारी
जमीनी हालत देखने हैं तो उस जमीन को छूना पड़ेगा .
मीडिया आज सबसे बड़े कटघरे में खड़ा है अपनी वास्तविकता साबित करने के लिए
अगर पुण्य प्रसून बजपायी ब्लॉग में पोस्ट कर के ही अपनी जिम्मेदारी को विराम देते हैं तो ये उनकी सोच है .
यहाँ लोगों को उनका जवाब भी चाहिए .
ये पारंपरिक मीडिया जगत नहीं है जहाँ आप सिर्फ अपनी बात करके आगे बढ़ जायें .
mudda samvedansheel hai, isliye ise kripya do log hi (sinha jee aur tiwari jee) tippanibajee na karein. aap apne vichar dein, bajpayee jee kya kahte hain, unka jawab aane deejiye. vaise unhonne naxalvad kee pairavi nahin kee hai, iske peechhe ke karan apni yaddasht ke aadhar par bataye hain. anil jee ne unhe bastar bulaya hai, main aap sabhi ko kashmir jane ke liye kahta hoon, vahan bhi bteh, mteh engeneer atankvadiyon ke saath hain. naxalvadi to haq chahte hain, desh ke tukde karna nahin. bavjood unke andolan ko jayaj nahin thaharaya ja sakta hai. is vishay par kuchh sujhav bhi aate to baat banti.
thanx
www.bolaeto.blogspot
prasoonji aap is desh ke sarvashretha patrakaron me se ek hain aur na jane kitne patrakaron ke aadarsh bhi aapki kai baton se hum bhi sahmat hote hain. par aaj har aam bharatvashi me milind basa hua hai par kinhin samasyaon aur majbooriyon ki vajah se vah ubhar kar bahar nahin aa pa raha hai. ummed karta hun ki jald hi ye milind sabke andar se bahar aaye aur loktantra ka asli chehra aur uski anubhooti hum kar paye. please write more such articles. padh kar achha lagta hai ki hum akele nahin hain.
प्रसूनजी आपने तो सात साल पहले की याद दिला दी. 2003 में छत्तीसगढ़ के गठन के बाद पहले विधानसभा चुनावों के दौरान मैं जगदलपुर पंहुचा. जब अगले दिन सुबह टीम रवाना हो रही थी तो पता चला कि टीम के सदस्य शहर से बाहर जाने को तैयार नही हैं, पूछने पर पता चला कि शहर जगदलपुर जो कि जो कि बस्तर जिले का मुख्यालय है के बाहर जाना खतरे से खाली नहीं है, पता नहीं आप शाम को लौटे या नहीं, नक्सल प्रभावित क्षेत्र का इतना भय मैं जहानाबाद के बाद दूसरी बार देख रहा था, मैने निर्णय लिया कि कोई जाए न जाए मैं तो अवश्य जाउंगा. कुछ साथी और साथ हो गए. शहर के बाहर निकलते ही क्षेत्र की कहानी ही बदल जाती है, जगदलपुर में जहां स्कूटर पर र्स्काफ बांध धुआं उडाती बाला के दर्शन होगें वहीं शहर को छोडते ही एक धोती में लिपटी जंगल की बेटी भी मिल जाएगी. जगदलपुर को राजधानी रायपुर से जोडने के लिए जहां टपाटप सडक है वहीं नारायणपुर, दंतेवाडा के कई इलाकों जिसका दौरा हमने अगले तीन दिनों में किया, आप कब पक्की से कच्ची पर आ जाते हैं पता ही नहीं चलता. उन्हीं पगडंडियों पर एक युवक से मुलाकात हुई जो एमए करने के बाद यह जानना चाह रहा था कि वह क्या करे. रामशरण जोशी की पुस्तक का वह अंश भी मुझे याद आया कि कैसे एक 'बिस्कूट' के पैकेट के लिए एक जवान अपना पूरा दिन टूरिस्ट के पीछे बीता देता है. उन तीन दिनों में जब इलाके को करीब से देखा तो समझ में आया कि गरीबी कैसे आपको मजबूर कर देती है जब वहां एक साप्ताहिक बाजार में एक बूढा दंपति मात्र 20 रूपये में अपनी पूरी दूकान मुझे देने को तैयार हो गया क्योंकि उसे उससे ज्यादा की गिनती नहीं आती थी... ... ...
जब पत्रकार भी अपनी जमीन छोड़ दें तो आम इंसान का सहारा क्या होगा ?
2003 और 2010
में दुनिया बहुत बदल गयी है
बड़ा वह होता है जो अपने द्वार खुले रखता है
संभावनाओ के लिए
न की वो जो अपने को स्वमभू समझता है
सवाल खङा करना और उस ओर विचार करना लोकतन्त्र को मजबुती देता है..यहॉ किसी एक पक्ष का साथ देना किसी मकसद की ओर नही ले जाता है..हिन्सा कही से वाजिब नही है..हमारा मकसद होना चाहिए कि वर्त्तमान अर्थव्यवस्था का कोई विकल्प है भी या नहीं..क्या हमें टपकन सिध्दांत के अनुरूप ही चलना है या जमीन से जुङे व्यक्ति का पहला हक हो...वर्तमान आर्थिक सन्कट ने पून्जीवादियो को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या सिर्फ मूनाफा कमाना ही उनका मकसद हो या उपभोक्ता को मजबुत बनाया जाए..
सवाल खङा करना और उस ओर विचार करना लोकतन्त्र को मजबुती देता है..यहॉ किसी एक पक्ष का साथ देना किसी मकसद की ओर नही ले जाता है..हिन्सा कही से वाजिब नही है..हमारा मकसद होना चाहिए कि वर्त्तमान अर्थव्यवस्था का कोई विकल्प है भी या नहीं..क्या हमें टपकन सिध्दांत के अनुरूप ही चलना है या जमीन से जुङे व्यक्ति का पहला हक हो...वर्तमान आर्थिक सन्कट ने पून्जीवादियो को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या सिर्फ मूनाफा कमाना ही उनका मकसद हो या उपभोक्ता को मजबुत बनाया जाए..
इंजिनियर अगर माओवादी हो जाये तो खतरा सभ्य समाज पर तो है ?
इंजिनियर बनने के बाद देश के लिये एक उपभोक्तावादी नागरिक हो कर जीने की जगह अगर कोई माओवादी बन कर हथियार उठा लें तो वह सभ्य समाज का संकेत नहीं है । लेकिन इस देश की त्रासदी यही है कि हम सभ्य समाज है क्या और बाकि के देश की हालत जो पढे-लिखे युवको को परेशान कर देती है उस पर चर्चा करने की जगह माओवाद और नक्सलवाद पर चर्चा करने लगते है । फिर यह शब्द आते ही यह भी लगने लगता है कि कही बात आंतक के दायरे में ना जाये । अगर इस बहस में से माओवादी और नक्सलवाद शब्द निकाल दिजिये तो आप बेहद राहत महसूस करेंगे । चूकिं माओवाद को आंतक की पर्याय उसी राज्य ने बनाया है जिसकी नीतियो की वजह से देश के 40 करोड लोग आज गरीबी की रेखा से नीचे है । हैरत ना किजिये यह आंकडा आजाद भारत की जनसंख्या से भी 4 करोड ज्यादा का है । 1947 में भारत की जनसंख्या 36 करोड थी । यानी विकसित होते इंडिया में एक पूरा भारत गरीबी की रेखा से नीचे है । और करीब इतने ही लोग यानी 43 करोड की आय आज भी बीस रुपये प्रतिदिन से ज्यादा नहीं हो पायी है । यानी देश के बाकि बचे 40-45 करोड जनसंख्या के लिये ही सरकार है उसकी नीतिया है और लोकतंत्र है । और इस लोकतंत्र के घेरे में आने वाले लोग उस 75-80 करोड के भारत की तरफ देखने से डरे इसके लिये माओवाद और नक्सलवाद का आंतक है । जिस देश की आर्थिक नीतिया ही विदेशी पूंजी को लाभ पहुचाने के लिये बनती है वहा आदिवासियो के बीच किस विदेशी शक्ति के इशारे पर राष्ट्रद्रोह रचा जा रहा होगा...यह सोचने वाला आरोप है । करीब सौ बरस पहले गांधीजी ने हिन्द स्वराज लिखते वक्त उस भूमंडलीकरण का जिक्र किया था । जो यूरोपिय देश अलग अलग जगह पर साम्राज्य स्थापित करके वहा के संसधानो का उपयोग कर अपने देश में औघोगिक क्रांति कर रहे थे । लेकिन सौ बरस बाद ाज हम जिस भूमंडलीकरण का सामना कर रहे है वह बाजार है । जो आर्थिक सुधार देश में चल रहे है और उसके घेरे में जो पूंजी देश में आ रही है उसमें 80 पिसदी तो सट्टा बाजार में लगी है । यानी पूंजी से पूंजी बनाने का व्यापार । पूंजी से कुछ उत्पादित करने का व्यापार नहीं है । उत्पादन तो विकसित देसो में हो रहा है और सस्ता हो रहा है । इसलिये सरकार भी किसानो को भी उस राह पर ले जाना चाहती है जहा वह खेती ना करें , मजदूरी चाहे कर लें । क्योकि विकसित देश तो कह ही रहे है कि आपको खेती करने की क्या जरुरत है , हम आपको कम पैसे में अनाज दे देगें । इसी तरह वह कल कारखाने भी बंद करवाना चाहते है । और आर्थिक सुधार के दौर में बारत ने इस राह को पकडा भी है । छह लाख से ज्यादा कामगार इसलिये बोरोजगार हो गये है कि फैक्ट्रियो में ताला पड गया है । और किसान तो करोडो में है, जो सरकार की नीति की वजह से मजदूर हो गये । इसलिये अब बात गुड गवनेंस की हो रही है । और माना जाने लगा है कि लोकतंत्र से बेहतर तो गुड गवनेंस होता है । तो लोकतंत्र का सवाल तो सरकार ने नीति के तहत ही हाशिये पर ला दिया है । ऐसे में कोई इंजिनियरिंग का छात्र लोकतंत्र के तहत मिलने वाले अधिकारो का सवाल उठाकर खुद को बैचेन करेगा तो बेवकूफ तो कहलायेगा ही । क्योकि ग्रामिण आदिवासियो की बोली सरकार तो क्या शहर के उपभोक्ता नागरिक भी समझ नहीं पाते है और अपनी सभ्य जीवनचर्या में खलल मानते है । तो जिस समाज में खून बहाये बगैर ही हर महिने दस हजार से ज्यादा किसान-ग्रामिण-आदिवासी खुदकुशी कर लेते हो वहा इंजिनियर का बंधूक उठाना और माओवादी हिंसा में हर महिने सौ से ज्यादा लोगो का मारा जाना सभ्य समाज के लिये खतरा तो है ।
जी प्रसून, शायद यही कहते कहते मै भी रूक गया था कि इंजिनियर अगर माओवादी हो जाये तो खतरा सभ्य समाज पर तो है ? मैं जिस बूढे दंपति की बात कर था वह उस वर्ग का प्रतिनिधि है जिसे एक वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं होती. मेरे हिसाब से वह ज्यादा सभ्य है क्योंकि वह अभी भी हथियार उठाने के बजाय भूखा सोना ज्यादा पसंद करता है और अगले दिन फिर लग जाता है अपने काम पर... अपनी उन्हीं बूढें कांपते हाथों से... अपनी रोजी रोटी के लिए... मैं उस दंपति को नमन करना पसंद करूंगा बजाय उस माओवादी बने इंजिनियर के.
पुन्यजी, इस पोस्ट की आपकी बातोसे संपूर्ण सम्मत हु. यहाँ हम सभ्य समाज जिसे कहते हे वो सबसे घटिया समाज हे. यहाँ पूंजीपतिओ की अगली १० प्रायोरिटी में समाज के पिछड़े तबके को साथ ले आगे बढ़ने की बात नहीं हे. तमाम सुविधाए पा लेने के बाद पूंजी को ज्यादा उपभोग में लगाते हे. गांधीजी से किसीने उसके मन में चल रही कोई एक चिंता के बारे में प्रश्न किया था, गाँधी का जवाब था, 'देश के शिक्षित लोगो में संवेदनशीलता कम होती जा रही हे ये परिवर्तन मुझे सबसे ज्यादा चिंताजनक लगता हे.'
कुछ टिप्पणीकार इस पोस्ट का विरोध कर रहे हे इसमें कुछ सोच या विवेक नहीं दिखता हे, वो शब्दों से रंडीबाजी का काम करवा रहे हे.
प्रसूनजी अपने बेटे की गेंद के लिए दूसरे का सर फोड़ देने वाले ये वो शहरी लोग हैं... जो सड़कों पर कुत्तों को घुमाने के बहाने ट्टी कराते हैं... ये वो शहरी हैं... जो पानी बर्बाद करने का एड बनाकर लाखों कमाते हैं... लेकिन घर में बाथ टब में घुसे रहते हैं... इन दो मुहों लोगों का कोई चरित्र नहीं है... इन्हें क्या पता अपना जमीन, आबरू का लूट जाना क्या होता है... वैसे आत्म सम्मान इनके अंदर भी नहीं होता... रोज नौकरी पेशा बॉस की बेवजह गाली सुनता है... दलाल बड़े दलालों का तलवा चाटता है... और लुटेरे को बाप व्यापारी वर्ग अपने से उपर वालों से लूटता है... लेकिन इनके आत्म सम्मान को चोट नहीं लगती... ये गटर में इतना गिर चुके हैं... कि इनकी गंदगी को आईना भी अब दिखाने से हिचकता है... इनमें कहा दम है कि अपनी लड़ाई के लिए जंगल में चले जाएंगे... वो तो हिम्मत वाले होते हैं... जो जलालत की जिंदगी छोड़ आत्म सम्मान की लड़ाई लड़ने जंगल चले जाते हैं... नक्सली कहने वालों इन साहबों को पता है कि नहीं की कितने लोग हर साल देश में पुलिस अत्याचार से मर जाते हैं... कितने करोड़ों की वसूली नेता, पुलिस दलाल और व्यापारी करते हैं... कितने ईमानदार गरीब बगैर गलती जेल में जमानत के बगैर सड़ रहे हैं.. इन्हें पता है इन लोगों ने कितने जगह झूठ बोलें होंगे... अगर कुछ चंद लोग इमानदार बचे हैं इस देश में तो उनके लिए जंगल या पत्रकारिता ही बचा है... या फिर गरीबी में जीते हुए सोशल एक्टविज्म... ये वो आत्म सम्मान बेच चुके लोग हैं... जिनकी गैरत मर चुकी है... सिर्फ ईमानदारी का ढोंग कर ये जीते रहते हैं... क्या इनमें से कोई बताएगा... कि जंगल में जमीन जोतने वाले किसी आदिवासी ने किसी को लूटा होगा... तो फिर उनके साथ अन्याय क्यों... फिर उनके अधिकार का हनन क्यों... चंद टुकड़ों के लालच में जीने वाले इन शहरी को कौन समझाए... की गाली चाहे इज्जत से दी जाए या बेइज्जत करके... गाली गाली होता है... अगर शहरी इतने ही समझदार हैं तो फिर इनके लिए इतने पुलिस की जरूरत क्या है... कोर्ट कचहरी की जरूरत क्या है... सबसे बड़ा नक्सली इस देश का शहरी है... जिसका लुटना ही कर्म और धर्म है... शायद इन शहरियों के लिए नक्सली विशेषण भी ठीक नहीं होगा... ये तो नक्सली का अपमान है...
NA NA SHAMBHOO JI, BAAT KO RAKHNE KA YE TARIKA TO BILKUL BHI UCHIT NAHI, AISE SHABDO KA PRAYOG KARKE AAP MUDDE KO SATHI BANA RAHE HAI.
sir aap ne jo likha sayad us bat ko log sahi tarike samaj nahi paye lagte hai sayad isi liye naxlvad par manthan ki jagah bahas suru ho gai hai aapne to ye bata ki koshis ki hai ki jis ladke ko aap kaabhi chatra ke ro me dekah tha aaj vo es rup me aur eske piche ka karan bataye aapne ye to nahi kaha ki ham naxli ban jaye y unke smrthk to kyo na vichar kiya jay un savalo ka hal dhundha jay ki koi aalok fir milind na ban paye
पुण्यप्रसून जी सबसे पहले तो एक अच्छी पोस्ट लिखने के लिये आपको साधुवाद! मध्य प्रदेश से हूँ, इसलिये आदिवासी समाज को नज़दीक से देखा और समझा है! ये बात सौ फीसदी सच है कि आदिवसियोँ के साथ लँबे समय से अन्याय होता आया है! आदिवासी समाज बहुत ही भोला और सीधा होता है! लेकिन पूँजीपतियोँ ने इनके इस भोलेपन का फायदा उठाया है! मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के आदिवासी गाँवोँ की दुर्दशा देख कर कोई भी इस बात का सहज ही अँदाजा लगा सकता है कि आदिवासियोँ के साथ किस हद तक छ्ल हुआ है! आदिवासियोँ के कल्याण के लिये सरकार की तरफ से अरबोँ रुपयोँ की योजनायेँ सिर्फ कागज़ोँ पर ही कार्याँवित हुई हैँ! यानि गरीब आदिवासियोँ का हक भ्रष्ट व्यवस्था की बलि चढ गया! यहाँ तक कि उनकी ज़मीनेँ भी हडॅप ली गई! जँगल पर उनहेँ अधिकार की बात आज़ादी के पाँच दशकोँ तक नहीँ हुई! इसी व्यवस्था के प्रति आक्रोश ने ही नक्सलवाद को जन्म दिया है! दरअसल हम हर चीज़ का इलाज एलोपौथी से करना चाहते हैँ! हम बीमारी को मिटाना चाहते हैँ उसके कारण तक पहुँचने की कोशिश ही नहीँ करते! नक्सलवाद का इलाज एलोपैथी नहीँ होम्योपैथी है! इस समस्या के कारण को समझ कर उन कारणोँ का इलाज करना होगा जो इस समस्या को बढावा दे रहे हैँ! सतही बातेँ करने से कुछ नहीँ होगा! ना दोषारोपण करने से कुछ होने वाला है! हम कश्मीर मेँ होम्योपैथिक इलाज कर रहे हैँ! जहाँ एलोपैथिक ट्रीतमेँट की ज़रुरत है! आदिवासी हमारे अपने हैँ! हमेँ नहीँ भूलना चाहिये “आदिवासी विद्रोह” जिसने उस वक्त अँग्रेजोँ को चुनौती दी थी जब सारा देश उनकी ताकत के आगे हथियार डाल चुका था!
वोट बैँक की राजनीति मेँ आदिवासी वर्ग कहीँ पीछे रह गया! आज झूठे एसटी सर्टिफिकेट के दम पर कईँ लोग उउँचे सरकारी ओहदोँ पर बैठे हैँ! इससे अँदाज़ा लगायाअ जा सकता है कि हमारी व्यवस्था ने आदिवासियोँ को किस हद तक छ्ला है! कोयँकि सच्चे आदिवासी तो दो वक्त की रोटी को मोहताज हैँ! वो अपने जँगलोँ से और अपनी ज़मीनोँ से बेदखल कर दिये गये हैँ!
आप रेलवे की पटरियोँ की मरमत्त का काम करते आदिवासी परिवारोँ को अकसर देखते होँगे! पिताजी की पोस्टिँग आदिवासी इलाकोँ मेँ होने के कारण उन लोगोँ की दुख तकलीफोँ को नज़दीक से देखा है मैँने! इसके बाद जब टीवी पत्रकारिता की शुरुआत की तो आँध्र प्रदेश मेँ काम करने का मौका मिला! जो आदिवासी बहुल इलाका है! हैदराबाद मेँ रह कर छत्तीसगढ के लिये जब बुलेटिन बनाये तो समझ आया छत्तीसगढ मेँ क्योँ पनप रहा है नक्सलवाद ? सलवा-जुडुम के नाम पर गरीब आदिवासियोँ का लहू बहते देखा! तो दिमाग मेँ बिजली सी कौँध गई! जब नक्सलियोँ से निपटने मेँ राज्य की पुलिस ने हाथ खडे कर दिये तो सरकार ने भोले-भाले आदिवासियोँ के हाथोँ मेँ ही बँदूक थमा दी! इसके बाद आये दिन आदिवासियोँ के साथ खूनी सँगर्ष की खबरेँ आने लगी! सलवा जुडुम कार्यकर्ताओँ को नक्सली चुन-चुन कर निशाना बना रहे थे! किसी को हाथ पैर बाँध कर गोली मार दी जाती थी, तो किसी को गाँव की चौपाल पर लटका दिया जाता था! सरकार और पुलिस मूक दर्शक बनी सब देख रही थी! आदिवासियोँ की सुरक्षा करने के बजाये उसने आदिवासियोँ के हाथोँ मेँ बँदूकेँ थमा दी थीँ! हमारे चैनल यानि ईटीवी के सिवाय कोई मीडिया इसकी रिपोर्टिँग नहीँ कर रहा था! क्योँकि दँतेवाडा, बस्तर, के ये इलाके नक्सलियोँ का गढ थे! और इतने इँटीरियर मेँ थे कि किसी भी राष्ट्रीय चैनल का नेटॅवर्क वहाँ तक नहीँ था! आपको ये जान कर हैरानी होगी कि बहुसँख्यक आदिवासी नक्सलियोँ के खिलाफ थे! इसीलिये वे सलवाजुडुम का समर्थन कर रहे थे! जबकि इस आँदोलन मेँ निर्दोष आदिवासी अकारण ही मारे जा रहे थे! अब भी वो विज़वल आँखोँ के सामने घूम रहे हैँ जब आये दिन दँतेवाडा और बस्तर के जँगलोँ मेँ हज़ारोँ आदिवासी स्वप्रेरणा से जुटते थे और नक्सलवाद के खिलाफ एकजुट होने का सँकल्प लेते थे! इनमेँ बच्चे बूढे और जवान सभी लोग थे! सलवा जुडुम और छत्तीसगढ के विकास को लेकर जब मैँने छत्तीसगढ के मुख्यमँत्री रमन सिँह से सवाल किये थे तो मुख्यमँत्री नहीँ बता पाये कि आदिवासियोँ के कल्याण के नाम पर बना आदिवासी राज्य छत्तीसगढ नक्सलवाद का गढ क्योँ बन गया? कमोबेश यही स्थिति झारखँड की भी है! आदिवासियोँ के कल्याण के नाम पर अलग राज्य बना कर भी अगर आप उनहेँ मूलभूत सुविधायेँ भी नहीँ दे सकते तो इसका सीधा सा मतलब ये है कि आपकी मँशा सही नहीँ है! शोषण से ही आक्रोष पांपता है आप शोषण रोक दीजिये आक्रोष खत्म हो जायेगा! सलवाजुडुम का समर्थन करने वाला आदिवासी समाज कभी व्यवस्था का विरोधी था ही नहीँ! लेकिन व्यवस्था ने कभी उसकी मदद करने की इमानदार कोशिश नहीँ की! अब यदि उससे नाराज़ होकर कुछ लोगोँ ने हथियार उठा लिये तो उनसे मुकाबला करने के लिये गरीब आदिवासियोँ को हथियार देकर किनारा कर लेना और फिर उनकी मौत का तमाशा देखना क्या सही ठहराया जा सकता है? क्योँ नहीँ हमारी सरकारेँ आदिवासी इलाकोँ मेँ विकास कार्योँ पर ज़ोर देती है? क्योँ नहीँ वहाँ बिजली, पानी, सडक, स्कूल, अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधायेँ मुहैया करवाती है? क्योँ नहीँ वहाँ ग्राम न्यायालय स्थापित किये जाते और आदिवासियोँ का शोषण करने वालोँ को कडे दण्ड दिये जांते ? सच है आज लोकतँत्र से ज्यादा जरुरत गुड गवर्नेँस की है!
लीजिये सुबह हो गई लेकिन उनकी सुबह कब आयेगी?
bajpeyee ji apka yeh lekh padhkar bahut achha laga ki apne adiwasio ke bhavnao ke behtar samjha hai...maine adiwasion jiwan sanghars ko bahut karib se dekha hai.....aur main ye bhi janta hoon aj ke humare budhijiwi samaj aur desh ke leadaro ko is se kuch pari nahi hai...
lekin jo bhi yeh lekh ek bar padhega sayad unke soch main kuch badlao aye..
adiwasion ke bare main to bus itna kahung wo dil ke bahut achhe hote hai...
aur unko bhatkana muskil nahi hai..
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