वह शुक्रवार की रात थी। यह शनिवार की रात है। वह पांच बरस पहले का वाक्या था। यह पांच दिन पहले का वाक्या है। वह सितंबर का महीना था। यह मई का महीना है। वह यूपीए-2 के पहले बरस के जश्न की रात थी। यह मोदी सरकार के एक साल पूरे होने से पहले पत्रकारों को साथ खड़ा करने की रात है। 18 सितंबर 2010 और 2 मई 2015 में अंतर सिर्फ इतना ही है कि उस वक्त मनमोहन सिंह के प्रधान सचिव ने दो दर्जन पत्रकारों को दिल्ली के हैबिटेट सेंटर के सिल्वर ओक में डिनर का आमंत्रण दिया था और इस बार सूचना प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने दो दर्जन पत्रकारो के लिये डिनर की व्यवस्था अशोक रोड स्थित अपने घर पर की थी। पांच बरस पहले प्रधाननमंत्री मनमोहन सिंह को छोड़ समूचा पीएमओ पत्रकारों की आवभगत में मौजूद था। हर के हाथ में जाम था। लेकिन पांच बरस बाद पीएमओ का कोई अधिकारी तो नहीं लेकिन पत्रकारों के बीच खुद प्रधानमंत्री मोदी जरुर पहुंचे। यानी जो प्रधानमंत्री बार बार मीडिया को न्यूज ट्रेडर बताने से नहीं चूक रहे हों। और लोकसभा चुनाव चुनाव प्रचार के दौरान इस संकेत को देने से भी नहीं चूके कि मनमोहन सिंह के दौर में कौन कौन से पत्रकार कैसे क्रोनी कैपटिलिज्म के हिस्से बने हुये थे। फिर सच भी है कि राडिया टेप कांड के दौरान कई पत्रकारों के नाम आये।
लेकिन इसका दूसरा सच यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी शनिवार की रात जिस डिनर पार्टी में पहुंचे उसमें राडिया टेप में आये एक पत्रकार की मौजूदगी भी थी। तो क्या सत्ता का धर्म एक सरीखा ही होता है। क्योंकि मौजूदा वक्त में विकास को लेकर मोदी जो भी ताना बाना देश के सामने रख रहे हों और खुद को आम जनता से जोड़ने का जिक्र लगातार कर रहे हैं तो ऐसे में पांच बरस पहले पीएमओ की कॉकटेल पार्टी में मनमोहन सिंह का जितना गुणगान जिस तरीके से किया जा रहा था, वह सब उन सभी को याद आयेगा ही जो उस पार्टी में मौजूद थे । क्योंकि इंडिया हैबिटेट सेंटर के दरवाजे पर ही पोस्टर चस्पा था कि पीएमओ की कॉकटेल पार्टी सिल्वर ओक में हो रही है। इस तरह से खुली कॉकटेल पार्टी इससे पहले कभी किसी पीएम ने देनी की हिम्मत दिखायी नही थी। लेकिन मनमोहन सिंह आर्थिक सुधार की जिस उड़ान पर थे, उसमें खुलापन ऐसा था कि हर हाथ में जाम था। पत्रकारों की आवाजाही हो रही थी। धीरे धीरे समूहों में पीएमओ का हर अधिकारी खुल रहा था। पीएमओ के तमाम डायरेक्टर यह बताने से नहीं चूक रहे थे कि कैसे पहली बार आम आदमी को भी अपने साथ जोड़ने की पहल पीएमओ कर रहा है। कैसे पीएमओ का मीडिया सेल अपनी पहल से मुल्क से जुड़े अहम मुद्दों को उठा रहा है। देश में पहली बार कोई प्रधानमंत्री इतना पारदर्शी है, इतना ईमानदार है और किस तरह विकास के काम को अंजाम देने में जुटा है। जाहिर है विकास के रास्ते प्रधानमंत्री मोदी भी चल पड़े हैं और उन्हें लगातार यह महसूस हो रहा है कि विकास के लिये खेती की जमीन अगर वह मांग रहे है तो गलत क्या कर रहे हैं। 19 अप्रैल को संसदीय पार्टी को संबोधित करते हुये वह गुस्से में भी आये कि जमीन वह किसी अंबानी -अडानी के लिये तो मांग नहीं रहे हैं। कहते कहते तो मोदी यहा तक कह गये कि पत्रकार या मीडिया हाउस के लिये तो जमीन नहीं मांग रहे हैं। जाहिर है मीडिया की भूमिका को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने पत्रकारों की डिनर पार्टी में जरुर अपना पक्ष रखा होगा। नाराज भी हुये होंगे कि कुछ पत्रकार या मीडिया हाउस क्यों भूमि अधिग्रहण के खिलाफ हैं। पता नहीं दो दर्जन पत्रकार जो जेटली साहेब की डिनर पार्टी में मेहमान थे, उनमें से कितनों ने क्या कहा लेकिन पांच बरस पहले मनमोहन के विकास एजेंडे को लेकर कुछ ऐसी ही बहस चल पड़ी थी। तब पीएमओ के एक युवा अधिकारी से अनौपचारिक गुफ्तगु में जैसे ही विकास की नीतियो को लेकर मुल्क से इतर महज 15-20 करोड़ को ही देश मानने का सवाल उठाया...तो जवाब भी झटके के साथ आया, "डोंट टांक लाइक अरुंधति" { अरुंधति राय की तरह बात मत कीजिये} समाधान बताइये...रास्ता बताइये ।
मीडिया में कहा जाता है पीएमओ संपर्क नहीं बनाता। तो लीजिये पहली बार पूरा पीएमओ ही मौजूद है। जाहिर है पांच बरस बाद मोदी सरकार की धड़कने भी बढ़ी होगी की कही साठ महिने माइनस बारह महिने और बचे अडतालिस महीने। इस ख्याल से तो मोदी सरकार का पहला बरस नहीं आंका जायेगा। क्योंकि मौजूद
पत्रकारों की फेरहिस्त में देश के सामने संजय गांधी के मारुति इंडस्ट्री का भंडाफोड़ करने वाले पत्रकार से लेकर हर दिन न्यूज चैनल पर देश के नाम संबोघन करने वाले पत्रकार भी थे। और देश के सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबार के संपादक भी थे। जेटली साहेब के उन पंसदीदा रिपोर्टरों की फौज भी मौजूद थी, जिन पर कभी सुषमा स्वराज नाराज रहती थी कि वह मनगढंत स्टोरी करने में माहिर है। विपक्ष में रहते हुये कई बार सुषमा स्वराज ने जेटली पर यह कहकर निशाना साधा था कि वह अपने खास पत्रकारो को ब्रिफिग कर रिपोर्ट छपवाते हैं। लेकिन अब तो सत्ता है। खुद ही सरकार है। तो पत्रकारों के लिये सरकार की कोई भी जानकारी तो स्कूप हो सकता है। तो स्कूप की तलाश भी पत्रकारों को सरकारों के करीब ले जाती है। और सरकार के साथ खड़े होकर पीठ खुजलाने का अपना ही मजा है। वैसे कमोवेश यह हालात सोनिया गांधी के सलाहकारों की टीम में भी पांच बरस पहले देखा जा सकता था। लेकिन तब विरोध को चुप कराने के लिये डपटा जाता था। पांच बरस पहले पीएमओ रोजगार और देश की श्रमिक उर्जा को खपाने के लिये मनरेगा का गुणगाण हमेशा करता था और सिल्वर ओक में भी मीडिया के बीच उसकी आवाज आ रही थी। हालाकि मनरेगा भी लश्क्ष्यविहिन है और देश की कोई परियोजना मनरेगा के तहत पूरी नहीं हुई ,इस पर अंगुली उठाने का मतलब था....डोंट टाक लाईक अरुंधति का जबाव सुनना। हो सकता है मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छता अभियान को लेकर जो सोचा हो या जनधन योजना से अगर वह गरीबी खत्म होने का सपना पाल चुके हो। और कोई पत्रकार उस पर सवाल पूछे तो मोदी सरकार को बुरा लग सकता है । लेकिन अपने खास करीबी पत्रकार ऐसा सवाल सामान्य तौर पर पूछते नहीं हैं। कांग्रेस में यह तो हुनर था कि वह दो मोर्चे पर लगातार काम कर जनता को ठग भी लेती और कोई समझता उस समय तक चुनाव दस्तक दे देता। क्योंकि पांच बरस पहले मीडिया को डील करने वाले पीएमओ के अधिकारियों से मिलने-सुनने से यह एहसास जरुर हुआ कि मानवीय सोच की मोटी लकीर हर मुद्दे पर ठीक उसी तरह खिंची जाती है जैसे सोनिया गांधी की अगुवाई वाली नेशनल एडवाइजरी काउंसिल यानी एनएसी में वाम सोच की मोटी लकीर हर मुद्दे पर निकलती रही । यानि देश की नीतियो का चेहरा चाहे विकास की अत्याधुनिक धारा में बहने को तैयार हो लेकिन उसपर मानवीय पहलुओ की पैकेजिंग पीएमओ कर ही देता है । फिर मौजूदा वक्त में लौटे तो मोदी सरकार का संकट यह है कि सबकुछ मोदी है । और मानवीय चेहरे के तौर पर विकास की अनसुलझी पहेली से आगे कोई सवाल टकराता है तो वह संघ परिवार का हिन्दुत्व है । जो बार बार भारतीय मन को विदेशी निवेश पर टिके विकास की चकाचौंध से डिगाता है । लेकिन हर बार जीत उपभोक्ता समाज की होती है । मनमोहन सिंह के दौर में भी नागरिको के लिये कल्याण पैकेज था और उपभोक्ताओ के लिये नीतिया । तो मोदी के दौर में विकास की लकीर खिंचने से बनने वाली पूंजी से हाशिये पर पडे तबके के कल्याण का राग आलापा जा रहा है । यानी विकास की मोटी लकीर जस की तस है अंतर सिर्फ इतना है कि मोदी ने मनमोहन की चकाचौंध को गोटाले से जोडकर अपना सवाल हाशिये पर पडे तबके के लिये उठाया है तो जश्न सिल्वर ओक सरीखे खुली जगह किया नहीं जा सकता । लेकिन अंतर यह भी है कि तब पीएम खुली जगह में पत्रकारो के बीच नहीं गये लेकिन उस डिनर पार्टी में मौजूद कई पत्रकार बाद में राडिया टेप में फंसे । और पांच बरस बाद पत्रकारो के बीच पहुंच कर पीएम ने जरुर एहसास कराया कि जो जेटली की डिनर पार्टी में है वह न्यूज ट्रेडर नहीं है ।
Tuesday, May 5, 2015
सिल्वर ओक से अशोक रोड के डिनर पार्टी का फर्क
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:32 PM
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1 comment:
दादा ये लेख अच्छा था और बहुत बड़ा भी नहीं था पूरा पढ़ा और दो बार पढ़ा
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