बीजेपी को कौन ठीक करेगा ? ये कुछ ऐसा ही है जैसे पीसा की झुकती मीनार को कौन सीधा कर देगा। यह टिप्पणी संघ के ही एक बुजुर्ग स्वयंसेवक की है, जो उन्होंने और किसी से नहीं बल्कि जम्मू में सरसंघचालक से कही । इसका जबाब भी सरसंघचालक की तरफ से तुरंत आया कि संघ सांस्कृतिक संगठन है, उसे राजनीतिक से क्या लेना देना। इस पर एक दूसरे स्वयंसेवक ने सवाल उठाया कि राजनीति करने वाले भी अगर स्वयंसेवक है और वह भटक गये हैं तो उन्हें कौन ठीक करेगा। इसपर सरसंघचालक का जबाब आया कि भटकाव की एक उम्र होती है, एक उम्र के बाद भटकाव नहीं निजी स्वार्थ होते हैं। उन्हे दुरस्त करने के लिये किसी भी स्वयंसेवक को पहले अपने आप से जूझना पड़ता है। यह शुद्दीकरण है।
जाहिर है यह संवाद लंबा भी चला होगा । लेकिन यह संवाद संघ के संस्थापक और पहले सरसंघचालक हेडगेवार की तरह का है । जब हेडगेवार ने हिन्दू राष्ट्र का सवाल काशी की एक सभा में उठाया तो वक्ताओ में से सवाल उछला कि कौन मूर्ख कहता है कि यह हिन्दू राष्ट्र है । इसपर हेडगेवार ने न सिर्फ हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को सामने रखा बल्कि हिन्दुओ को लेकर ही उस सवाल का भी जबाब दिया, जिसमें कहा गया कि चार हिन्दू भी कभी एक रास्ते नहीं चलते। जब तक शवयात्रा में शामिल न हों।
लेकिन यही सवाल बदले हुये रुप में संघ के सामने 84 साल बाद भी भाजपा को लेकर खड़ा हो गया है। संघ के भीतर भाजपा को लेकर चार हिन्दुओ की कथानुसार सवाल उठने लगे हैं कि सत्ता के मारे भाजपा के चार नेता भी एक दिशा में नहीं चल रहे । और अगर सत्ता होती तो सभी एक दिशा में चल पड़ते । सवाल जबाब के इस सिलसिले में अपने ही राजनीतिक संगठन और अपने ही स्वयंसेवकों को लेकर सरसंघचालक मोहनराव भागवत को भी आठ दशक पुराने उन तर्को को ही सामने रखना पड़ रहा है, जिसको कभी हेडगेवार ने सामने रखा था । भाजपा की उथल-पुथल ने संघ को अंदर से किस तरह हिला दिया है, इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि नागपुर के हेडगेवार भवन के परिसर में स्वयंसेवकों की सबसे बड़ी टोली जो हर सुबह शाम मिलती है, उसमें बीते रविवार इस बात को लेकर चर्चा शुरु हो गयी कि भाजपा की समूची कार्यप्रणाली सिर्फ राजनीतिक सत्ता की जोड़-तोड़ में ठीक उसी तरह चल रही है जैसे कांग्रेस में चला करती है। इसलिये भाजपा के स्वयंसेवक भी संघ से ज्यादा कांग्रेस से प्रभावित हैं। यानी कांग्रेसीकरण की दिशा को भाजपा ने आत्मसात कर लिया है ।
असल में चर्चा इतनी भर ही होती तो भी ठीक है । कुछ पुराने स्वयंसेवको ने भाजपा की त्रासदी का इलाज हेडग्वार की सीख से जोड़ा । चर्चा में बकायदा हेडगेवार के उस प्रकरण को सुनाया गया जो उन्होंने कांग्रेस छोडकर आरएसएस बनाने की दिशा में कदम बढ़ाये । स्वयंसेवकों को जो किस्सा वहां सुनाया गया उसके मुताबिक,
" कलकत्ता से मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर हेडगेवार तीन हजार रुपये की नौकरी छोड़ कर नागपुर आ गये । जहा वह कांग्रेस में भर्ती हो गये। 1920 में नागपुर में काग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, डा हेडगेवार उसकी व्यवस्था में लगे स्वयंसेवी दल के प्रमुख थे । दिन रात परिश्रम करके उन्होने अधिवेशन को सफल बनाया । नागपुर के युवकों की ओर से पूर्ण स्वतंत्रता प्रप्ति तक अविराम संघर्ष करते रहने का प्रस्ताव भी उन्होंने अधिवेशन में रखवाया । 1921 के असहयोग आंदोलन में वे एक साल के लिये जेल भी गये । वहां उन्होंने देखा कि अपने भाषणो में बड़े-बड़े आदर्शो की बात करने वाले कांग्रेसी नेता जेल में एक गुड के टुकड़ों के लिये कैसे लड़ते हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण,अनुशासनहीनता और निजी स्वार्थपरता जैसी कांग्रेस-चरित्र की विशेषताओ को देखकर उनका मन इस ओर से खट्टा हो गया । इसके बाद ही उन्होंने सोचा ही बिना हिन्दू संगठन के भारत का उत्थान संभव नहीं है, क्योकि हिन्दू समाज ही देश का एकमेव समाज है। इसी के बाद 1925 में विजयी दशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की स्थापना की।"
हेगडेवार की इस कथा के बाद स्वयसेवक इस सवाल से जूझते है कि भाजपा की वजह से क्या संघ को लेकर हेडगेवार की सोच मर जायेगी । चर्चा आगे बढ़ती है तो भाजपा से बेहतर संघ के स्वयंसेवकों को वही काग्रेस भी नजर आने लगती है, जिसके खिलाफ कभी हेडगेवार कडे हुये थे । अनुशासन को लेकर कांग्रेस और भाजपा की तुलना । फिर निजी स्वार्थ को लेकर भाजपा नेताओं पर अंगुली उठाते हुये गिनती कम पड़ना । और फिर सत्ता के लिये गठबंधन की राजनीति को मुस्लिम तुष्टीकरण से कहीं ज्यादा खतरनाक ठहराते हुये यह सवाल करना कि संघ को कहां तक भाजपा को फिर से मथने के लिये जुटना चाहिये।
संघ के स्वयसेवको के भाजपा को लेकर यह सवाल सिर्फ नागपुर तक सीमित हो ऐसा भी नहीं है । यह सवाल राजकोट में भी मौजूद हैं और असम में भी । लेकिन संघ के लिये बड़ा सवाल यही से शुरु होता है । क्योंकि इस दौर में संघ अगर भाजपा को देखकर कोई टीका-टिप्पणी ना करे तो संघ की मौजूदगी का एहसास संघ में ही नहीं होता । इसलिये महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सरसंघचालक भाजपा से जुडे हर सवाल का जबाब जहां जाते हैं, वहां पत्रकारों को देखकर या कहे कैमरो को देखकर देने लगते हैं। बल्कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन भी इसी तरह की प्रतिक्रिया देने लगे हैं । जैसा वह सरसंघचालक रहते हुये किया करते थे और सबसे अलोकप्रिय होते चले गये। स्थिति संघ के लिये इससे आगे बिगड़ रही है । पिछले दस वर्षो में वाजपेयी की अगुवायी में संघ के स्वयंसेवकों ने पांच साल देश जरुर चलाया। लेकिन इसी दौर में संघ अपनी जमीन पर ही परायी होती गयी और उसकी खुद की जमीन भी भाजपा की सत्ता महत्ता को बनाये रकने पर आ टिकी है। भाजपा के संकट ने संघ के सामने 84 साल में पहली बार ऐसी चुनौती रखी है, जहां से खुद का शुद्दीकरण पहले करना है। संघ का कोई संगठन पिछले दस वर्षो में सरोकार से नहीं जुटा। यानी जिस संगठन का जिस क्षेत्र में जो काम है, उसकी विसंगतियो से जूझते हुये हिन्दू समाज की व्यापकता को एकजुट करने की जो सोच हेडगेवार और गोलवरकर से होते हुये देवरस और रज्जू भैया तक फैली, उस पर भाजपा के उफान के दौर में कुछ इस तरह ब्रेक लगी कि संघ भी पिछडता चला गया ।
सवाल यह नहीं है कि जनसंघ और फिर भाजपा को संघ ने एक ठोस जमीन दी, इसीलिये उसे राजनीतिक सफलता मिली । महत्वपूर्ण है कि लोहिया से लेकर जेपी भी इस तथ्य को समझते रहे कि संघ के तमाम संगठन, जो अलग अलग क्षेत्रो में काम कर रहे हैं, अगर उन्हे साथ जोड़ा जाये तो राजनीतिक सफलता के लिये एक बडे समाजिक कार्य पर जाया होने वाले वक्त को बचाया जा सकता है। वनवासी कल्य़ाण आश्रम, भारतीय किसान संघ, विघा भारती, भारत विकास परिषद, संस्कार भारती, सेवा भारती, प्रज्ञा भारती, लधु उघोग भारती, सहकार भारती, विज्ञान भारती, ग्राहक पंचायत से लेकर हिन्दू जागरण मंच और विश्वहिन्दू परिषद जैसे दो दर्जन से ज्यादा संगठन संघ की छतरी तले देश के तीस करोड़ लोगो के बीच अगर काम रहे हैं तो उसका लाभ किसी भी राजनीतिक दल को मिल सकता है। इसका लाभ 1967 में गैर कांग्रेसवाद के नारे लगाते लोहिया ने भी उठाया और 1977 में जेपी ने जनता पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में भी उठाया । और यहां यह भी कहा जा सकता है कि 1990 में अयोध्या आंदोलन की अगुवायी करते लालकृष्ण आडवाणी उस मानसिकता के बीच नायक भी बनते चले गये जो चाहे अयोध्या आंदोलन का आडवाणी तरीका पंसद ना करता हो लेकिन संघ के तौर तरीके सो अलग अलग संगठनो के जरीये जुड़ा था।
1999 में वाजपेयी की जीत के पीछे महज कारगिल जीत का भावनात्मक प्रचार नहीं था, बल्कि सुदूर गांवो में भी संघ की शाखा इस बात का एहसास करा रही थी कि भाजपा कहीं अलग है । या कहे कांग्रेस से अलग राजनीतिक दल है, जो सरोकार को समझता है । लेकिन इसका एहसास कियी को नहीं था कि भाजपा की सत्ता संघ के लिये धीमे जहर का काम करेगी । यह ज़हर संघ के भीतर बीते दस साल में किस तरह फैलता चला गया इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1998 के बाद से सिवाय विश्व हिन्दू परिषद के किसी संघठन की सदस्य सख्या में इजाफा नहीं हुआ। उतना ही नहीं जिन संगठनो ने जो भी मुद्दे उठाये, उन सभी मुद्दों का आंकलन राजनीतिक तौर पर भाजपा के घेरे में पहले हुआ, उसके बाद संघ के सरोकार का सवाल उठा।
आदिवासी, मजदूर, किसान , शिक्षा व्यवस्था, स्वदेशी यानी कोई भी मुद्दा भाजपा के लिये घाटे का है या मुनाफे का, इसकी जांच परख पहले हुई । फिर सत्ता में भाजपा के साथ खड़े राजनीतिक दलों की भी अपनी अपनी राजनीतिक जरुरत थी, तो भाजपा की राजनीतिक प्रयोगसाला में आने के बाद किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, हिन्दू जागरण मंच सभी कुंद कर दिये गये। क्योंकि इनके मुद्दे सरकार को परेशानी में डाल सकते थे। और जो लकीर आर्थिक सुधार के भाजपा के दौर में भी खींची, उसको इतनी महत्ता दी गयी कि उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन ने अपने से बुजुर्ग और ज्यादा मान्यताप्राप्त दंतोपंत ठेंगडी को भी खामोश करा दिया।
नया सवाल इसलिये गहरा है क्योंकि भाजपा के पास सत्ता है नहीं। और संघ के संगठनों की सामाजिक पहल भी भाजपा सरीखी ही हो चुकी है। यानी संघ का कोई संगठन अपने ही मुद्दे को लेकर कोई आंदोलन तो दूर मुद्दों पर सहमति बनाकर अपने क्षेत्र में ही किसी प्रकार का दबाब बना नहीं सकता है। स्थिति कितनी बदतर हो चली है, यह पिछले हफ्ते संघ के संगठनो की पहल से ही समझ लें। संघ के संगठनों ने पिछले हफ्ते जो काम किये, उसमें पर्यावरण को लेकर भोपाल में गोष्ठी है। जिसमें पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन ने कहा कि पश्चिमी देशो के सिद्दांत से ही पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है । हिन्दु मंच ने दिल्ली में आतंकवाद मुक्त पखवाड़ा मनाया, सेवा भारती ने उदयपुर में 695 मरीजो को शिविरो में जांचा । विश्वहिन्दू परिषद ने तमिलनाडु में कोडईकनाल के घने जंगलो में 207 वन बंधुओ की स्वधर्म वापसी करायी । नारी रक्षा मंच ने संस्कार को लेकर इंदौर में एक सम्मेलन किया। लखनऊ में स्व अधीश कुमार स्मृति व्याख्यानमाला हुई । आदित्य वाहिनी ने उड़ीसा में सनातन धर्म को बनाया। दुर्गा वाहिनी ने भारत तिब्बत सीमा पर सैनिको को रक्षा सूत्र बांधे। कह सकते हैं कमोवेश हर संगठन की कुछ ऐसी ही पहल बीते हफ्ते रही या कहें भाजपा के राजनीतिक हितो को साधने वाले संघ के तौर तरीको ने तमाम संगठनो को इसी तरह की सामाजिक कार्यो में लगा दिया। जहां सिवाय संबंघ बनाने और सामाजिक समरसता का भाव समाज में फैलाते हुये भरे पेट के साथ आराम तलबी के अलावे कुछ नहीं बचा।
संघ की जब यह हालात अपने संगठनो को लेकर है तब सवाल पैदा होता है कि उससे भाजपा को क्या राजनीतिक फायदा हो सकता है और भाजपा संघ को महत्ता क्यो दे। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि संघ के इन्ही संगठनों को जिलाये बगैर भाजपा का भी राजनीतिक भला नहीं हो सकता है क्योकि राजनीति चाहे सरोकार से नहीं सौदेबाजी से चलती है, लेकिन भाजपा के नेताओं को सौदेबाजी के टेबल तक पहुचने के लिये संघ का सरोकार चाहिये ही। नया सवाल है कि इन संगठनों में सरोकार की जान कैसे फूंकी जाये । खासकर जब संगठन से बड़े मुद्दे हो चले हैं और मुद्दो को लेकर कोई राजनीति इस देश में बची नहीं है। यानी एक तरफ जिन मुद्दो के आसरे हेडगेवार हिन्दु राष्ट्र का सपना संजोये थे, वही मुद्दे कही ज्यादा व्यापक हो कर राजनीति और संगठन को ही खत्म कर रहे हैं। तब संकट यह है कि इन मुद्दो को किस तरह उठाया जाये, जिससे संघ की पुरानी हैसियत भी लौटे और भाजपा भी महसूस करे कि उसका राजनातिक लाभ संघ के बगैर हो नहीं सकता । क्योंकि नये तरीके की राजनीति और सरोकार गुजरात की तर्ज पर उठ रहे हैं, जो आतंक की लकीर तले विकास और सत्ता को इस तरह रखता है। राजनीति सिमटती है और विकास से जुड़े मुद्दे धर्म का लेप चढ़ा लेते हैं। इन सब के बीच गठबंधन की सोच सर्व धर्म सम्माव की धज्जिया उड़ाती है और नरेन्द्र मोदी सरीखी मानसिकता संघ से भी बड़ी हो जाती है और सत्ता की सौदेबाजी भी मोदी के आगे छोटी होने लगती है।
इन नयी परिस्थितियो में अगर दिखायी देने वाला संकट विचारधारा के घेरे में संघ और भाजपा दोनों एक दूसरे के सामने खड़े हुये हैं । तो संघ परिवार की नयी बैचेनी एक-दूसरे के अंतर्विरोध को ठिकाने लगाकर खुद को खड़े करने की पैदा हो चली है। इसमें मुश्किल यह हो गयी है कि भाजपा के भीतर अगर आडवाणी को चुनौती देने के लिये एक अदना सा कार्यकर्त्ता भी खुद को सक्षम मान रहा है तो संघ में एक अदना सा स्वयंसेवक सरसंघचालक से बेहतर समाधान की बात कहने लगा है । यानी सत्ता की लड़ाई में सत्ताधारी ही महत्वहीन बन गये हैं।
Friday, August 28, 2009
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संघ या भाजपा में किसका ज़हर किसे डसेगा ? |
Tuesday, August 25, 2009
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रिंग में आडवाणी-भागवत आमने सामने |
संघ के इतिहास में यह पहला मौका है, जब आरएसएस को अपने ही किसी संगठन से सीधा संघर्ष करना पड़ रहा है। इस संघर्ष का महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि यह सीधा संघर्ष विचारधारा से इतर शीर्ष पर बने रहने की लड़ाई है । जिसमें एक तरफ अगर सरसंघचालक खड़े हैं तो दूसरी तरफ संघ की छांव में बड़े हुये लेकिन सत्ता की जोड़-तोड़ में तपे भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी।
सरसंघचालक मोहनराव भागवत अगर संघ परिवार के भीतर कुछ परिवर्तन करना चाहें और वह हो न पाये, ऐसा आरएसएस में कोई सोच नहीं सकता । लेकिन आरएसएस के बाहर अगर अब यब माना जाने लगा है कि आरएसएस का मतलब संघ परिवार नहीं बल्कि भाजपा हो चली है तो यह पहली बार हो रहा है। 1948 में जब तब के सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने देश के गृहमंत्री सरदार पटेल को लिख कर दिया था कि आरएसएस सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है, उस दौर में संघ ने चाहे सोच लिया होगा कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब देश को संघ के स्वयंसेवक ही चलाएंगे। लेकिन संघ ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि वहीं स्वयसेवक सत्ता में आने के बाद संघ को ही हाशिये पर ढकेलने लगेगा। वहीं स्वयंसेवक संघ के दर्द पर और नमक छिड़केगा।
वाजपेयी के दौर में सत्ता में बैठे स्वयंसेवकों से सबसे बडा झटका आरएसएस को तब लगा जब उत्तर-पूर्वी राज्य में चार स्वसंवकों की हत्या हो गयी और देश के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने नार्थ ब्लाक से सिर्फ पांच किलोमीटर दूर झडेवालान के संघ मुख्यालय जाकर मारे गये स्वयंसेवकों की तस्वीर पर फूल चढ़ा कर श्रद्धांजलि देना तक उचित नहीं समझा। बाकि कोई कार्रवाई की बात तो बेमानी है, चाहे उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन से लेकर भाजपा-संघ के बीच पुल का काम रहे मदनदास देवी ने गृहमंत्री आडवाणी से गुहार लगायी कि उन्हें जांच करानी चाहिये कि हत्या के पीछे कौन है।
माना जाता है आरएसएस ने इसका बदला कंघमाल के जरिये भाजपा से लिया । भाजपा उड़ीसा में संघ के नेता की हत्या के बाद नवीन पटनायक को सहलाती-पुचकारती, उससे पहले ही संघ ने कंधमाल को अंजाम दे दिया । जिससे भाजपा को गठबंधन की राजनीति का सबसे बड़ा झटका ऐन चुनाव से पहले लगा । यह संघर्ष बढ़ते-बढ़ते एक -दूसरे के आस्त्वि पर ही सवालिया निशान लगाने तक आ पहुंचा। यह किसी ने सोचा नहीं था , लेकिन अब खुलकर नजर आने लगा है ।
सवाल यह नहीं है कि भाजपा के चिंतन बैठक से 24 घंटे पहले सरसंघचालक भागवत ने कैमरे पर इटरव्यू दे कर चिंतन बैठक को एक ऐसी दिशा देने की कोशिश की जिसपर निर्णय का मतलब झटके में भाजपा को बीच मझधार में लाकर न सिर्फ खड़ा करना होता बल्कि भाजपा में भी नताओ के सामने संकट आ जाता कि वह राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर खुद की हैसियत को कैसे बरकरार रखते हैं । यह संकट ठीक वैसा ही है, जैसा मोहनराव भागवत के सामने सरसंघचालक बनने के बाद आया है । संयोग से सरसंघचालक भागवत की जितनी उम्र है, उससे ज्यादा उम्र लालकृष्ण आडवाणी ने आरएसएस और पार्टी को दिया है। यह समझा जा सकता है कि जब आडवाणी राजनीति में आये तब भागवत चन्द्रपुर में बच्चो के खेल में भविष्य के तार संजो रहे होंगे। लेकिन ज्यादा दूर न भी जायें तो लालकृष्ण आडवाणी जब देश के सूचना-प्रसारण मंत्री बने तब भागवत बतौर प्रचारक डंडा भांज रहे थे। यह संकट इससे पहले कभी सिर्फ सुदर्शन के सामने आया। क्योकि उम्र और स्वयंसेवक के तौर पर वाजपेयी-आडवाणी से सुदर्शन पांच साल छोटे थे।
लेकिन संघ के साथ जुड़ने का सिलसिला इनमें दो साल के फर्क के साथ था। लेकिन वाजपेयी की राजनीतिक समझ के साथ साथ सामाजिक-सांसकृतिक समझ के दायरे में सुदर्शन खासे पीछे थे । इसलिये कई मौके आये जब बतौर सरसंघचालक सुदर्शन ने वाजपेयी को आरएसएस का पाठ पढ़ाने की कोशिश की लेकिन हर पाठ का महापाठ, जो वाजपेयी के पास था, उसका असर यही हुआ कि सुदर्शन को हर सार्वजनिक मौके पर वाजपेयी को खुद से बड़ा मानना पड़ा । और हमेशा लगा कि संघ भाजपा के पीछे खड़ी है । इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि वाजपेयी के पास आडवाणी थे। जिसके जरिये वाजपेयी कभी संघ के लगे नहीं और आडवाणी कभी संघ से अलग दिखे नहीं। बदली परिस्थितियो में सुदर्शन और वाजपेयी मंच से उतर चुके हैं और आमने सामने और कोई नहीं वही भागवत और आडवाणी आ गये है, जो कभी सुदर्शन के सुर से परेशान रहते थे तो कभी वाजपेयी के सेक्यूलरवाद से।
लेकिन दोनो के सामने अपने अपने घेरे में ऐसी चुनौतियां है, जो संयोग से एक-दूसरे से टकरा भी रही हैं और दोनो ही अपनी अपनी जगह व्यक्ति से बड़े संगठन के तौर पर जगह बनाये हुये हैं। वाजपेयी के दौर में भाजपा के पीछे खड़ा संघ आज भी वैचारिक तौर पर इतना पीछे खड़ा है कि उसे खुद को स्थापित करने के लिये सबसे पहले भाजपा को ही खारिज करना होगा। इसके लिये सामने आडवाणी खड़े हैं जो खुद को संघ से ज्यादा करीब भाजपा के भीतर हर दौर में बताते भी आये और डिप्टी प्रधानमंत्री बनने का जो खेल खेला, उसमें दिखा भी दिया। ऐसे में भागवत अगर आडवाणी को संघ के नियम-कायदे बताकर बाहर का रास्ता दिखाना चाहते हैं, तो उन्हे हर बार मुंह की इसलिये खानी पड़ेगी क्योकि भागवत का तरीका राजनीति की वही चौसर है, जिसमें आडवाणी माहिर हैं। हिन्दु राष्ट्र की खुली वकालत करते भागवत एक अग्रेजी न्यूज चैनल और अंग्रेजी अखबार को इटरव्यू इसलिये देते हैं, क्योंकि एक तरफ वह देश के प्रभावी अंग्रेजी मिजाज में अपनी हैसियत दिखा सके और दूसरी तरफ दक्षिण में सक्रिय संघ के कार्यकर्ताओ में भाजपा से खुद को बड़ा दिखा सके या संघ की हैसियत का अंदाजा येदुरप्पा की कर्नाटक की सत्ता की मदहोशी में संघ को भुलाते स्वयंसेवकों में जतला सके।
वहीं भागवत को भागवत के ही जाल में बिना बोले उलझाना किसी भी राजनेता के लिये मुश्किल नहीं है और आडवाणी इसमें माहिर है, यह कोई भी उनके पचास साल की ससंदीय राजनीति की जोड-तोड से समझ सकता है । खासकर वाजपेयी की शागिर्दगी जिसने की हो, उसके लिये संघ का उग्र चेहरा क्यों मायने रखता है। जब देश की सामाजिक-सांसकृतिक लकीर ही संघ से इतर रास्ता पकड़ रही हो । इसलिये सवाल यह भी नहीं है कि आडवाणी की चाल में संघ फंसकर जसवंत पर सफायी देने में लगा या फिर चिंतन के बाद उन्हीं राजनाथ सिंह को आडवाणी के विपक्ष के नेता पर बने रहने का ऐलान करना पड़ा, जो खुद को संघ के सबसे करीबी मानते हैं, और अध्यक्ष की कुर्सी पाने के पीछे भी संघ का ही आशिर्वाद मानते हैं । बल्कि समझना यह भी होगा कि आडवाणी का भाषण भी उन्हीं सुषमा स्वराज ने पढ़ा, जिसे संघ आडवाणी की जगह लाना चाहता था। यानी जसंवत हटे तो लगे कि संघ नहीं चाहता। सुधीन्द्र कुलकर्णी हटे तो लगे संघ पसंद नहीं करता । तो फिर आडवाणी बने रहे यह कैसे बिना संघ की इजाजत के हो सकता है । असल में आडवाणी धीरे धीरे संघ को उस घेरे में ले आये हैं, जहा संघ की हर पहल उसी तरीके से कट्टर लगे, जैसे वाजपेयी का हर बुरा निर्णय संघ के दबाब वाला लगता था। यानी नरेन्द्र मोदी को लेकर निर्णय ना लेने के पिछे संघ का दबाब था । तो सवाल है जसंवत को हटाने के पीछे भी संघ का ही दबाब था। यानी राजनीतिक तौर पर भाजपा जिस मुहाने पर खड़ी है और संघ खुद को जिस जगह खड़ा पा रहा है, उसमें कोई अंतर बचा नहीं है । क्योकि संघ नियम-कायदे के तहत आडवाणी के हटने का मतलब है कंधमाल से ज्यादा बड़ी राजनीतिक त्रासदी के लिये तैयार रहना।
वहीं आडवाणी के ना हटने का मतलब है सरसंघचालक भागवत का अलोकप्रिय होना या कहे संघ का कमजोर दिखना। संघ का संकट यह है कि दोनों स्वयंसेवक संघ परिवार के रिंग में ही आमने सामने खड़े हो गये हैं। इसलिये नागपुर में संघ के मुखपत्र तरुण भारत में अगर एमजी वैघ सीधे आडवाणी को पद छोडने की हिदायत भी देते हैं और दिल्ली में मुखपत्र पांचजन्य में संपादकीय के जरीये पहले जसवंत सिंह के जिन्ना प्रेम पर निशाना साधता है और तीन पन्नो बाद देवेन्द्र स्वरुप के लेख के मार्फत कंधार अपहरण कांड का जिक्र कर जसवंत पर अंगुली उठाते हुये आडवाणी की घेराबंदी करता है। तो इसका मतलब यह भी है कि संघ अपने आस्तित्व के लिये अब भाजपा को खतरा मान रहा है क्योकि नागपुर से लेकर दिल्ली तक में हर पहल संघ को ही कमजोर कर रही है और राजनीति में हारे आडवाणी को कमजोर भाजपा से ज्यादा मजबूत मान रही है । माना जा रहा है सरसंघचालक भागवत संघ परिवार के इस रिंग में आखरी राउंड दिल्ली में ही खेलेंगे । 28-29 अगस्त को दिल्ली में वह कौन से तरकश के तीर निकालेंगे, नजर सभी की इसी पर हैं, और शायद आडवाणी भी इसी राउंड का इंतजार कर रहे हैं क्येकि इसके बाद भागवत अपने सरकार्यवाह भैयाजी जोशी के साथ संघ की जमीन टटोलना चाहते है और आडवाणी अपने उत्तराधिकारी के लिये रास्ता बनाना चाहते हैं।
Sunday, August 23, 2009
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जसवंत की किताब के बहाने माओवादियों के सवाल |
20 अगस्त की शाम मोबाइल पर एकदम अनजाना सा नंबर आया तो मैंने फोन को साइलेंट मोड में डाल दिया। लेकिन जब वही नंबर लगातार तीसरी बार मोबाइल पर उभरा तो मेरे हैलो कहने के साथ ही दूसरी तरफ से आवाज आई, अब आप दंगों का इंतजार करें। मैं चौंका...आप कौन बोल रहे हैं। हम बोल रहे हैं। हम कौन...मैंने आपको पहचाना नहीं। हम नक्सली....लालगढ वाले किशनजी । मैं चौका..तो क्या आप लालगढ में दंगों की बात कर रहे हैं। जी नहीं, हम जसवंत सिंह की बात कर रहे हैं। आप तो उसी खबर में लगे होंगे। इसीलिये कह रहा हूं, यह तो बीजेपी का पुराना स्टाइल है। जब कुछ ना बचे तो उग्र हिन्दुत्व की बात कर दो। अयोध्या भी तो इसी तरह उठा था और हाल में कंधमाल में भी आरएसएस ने ऐसा ही किया। कर्नाटक में भी ऐसा ही कुछ हुआ।
मुझे झटका लगा कि कोई नक्सली कैसे इस तरह अचानक एकदम अनजान से मुद्दे पर टिप्पणी कर सकता है। कुछ गुस्से में मैने टोका, क्या लालगढ में सीआरपीएफ ने कब्जा कर लिया है। मैने आपको लालगढ पर बात करने के लिये फोन नहीं किया है, लालगढ में तो हमारा कब्जा बरकरार है, आप आ कर देख सकते है। यह भी देख सकते हैं कि कितनी बडी तादाद में इस पूरे इलाके के आदिवासी ग्रामीण हमारे साथ कैडर के तौर पर जुड रहे हैं। सरकार के कहने पर मत जाइयेगा कि उसने लालगढ में कब्जा कर लिया है और माओवादी भाग गए हैं। पुलिस-सीआरपीएफ सिर्फ शहरों तक पहुंचती है, जहां दुकानें होती हैं। दुकानें खुल जाएं...धंधा चलने लगे तो सरकार मान लेती है कि सब पटरी पर आ गया। लेकिन आप गांव में अंदर आकर देखेंगे तो आप समझेंगे कि सरकारी नजरिया किस तरह आदिवासियों को, ग्रामीणो को देखता समझता ही नहीं। मैने फोन इसलिये किया कि जिस तरह लालगढ को आप समझना नहीं चाहते वैसे ही विभाजन के दौर को कोई राजनीतिक दल समझना नहीं चाहता।
बातों का सिलसिला बढने के साथ मेरी जिज्ञासा भी बढती गई। मैंने पूछ ही लिया, क्यों, आपने जसवंत सिंह की किताब पढ ली है? लगभग पढ ली है। तो क्या वह लालगढ तक पहुच गई। हम सिर्फ लालगढ तक सीमित नहीं हैं। और पढने-पढाने को हम छोड़ते भी नहीं हैं। हम आपसे कह रहे है कि विभाजन को लेकर सिर्फ जिन्ना-नेहरु-पटेल का खेल तो अब बंद करना चाहिये। देश की जो हालत है उसमें मीडिया को अपनी भूमिका तो समझनी चाहिये। आप तो लगातार उस किताब पर चैनल में प्रोग्राम कर रहे हो, आप ही बताइए कि किताब में 1919 से लेकर 1947 तक के दौर की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का कोई जिक्र है, जिसके आधार पर लीग और कांग्रेस की राजनीति का खांचा खिंचा जा रहा है। सच तो यह है कि इसमें सिर्फ उन राजनीतिक परिस्थितियों को ही अपने तरीके से या यूं कहें कि अभी के परिपेक्ष्य में टटोला गया है जिन्हें़ विभाजन से जोडी जा सके।
उसमें नेहरु-पटेल और जिन्ना के साथ साथ वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन को भी किसी फिल्मी कलाकार की तरह सामने रखा गया है। गांधी को भी एक भूमिका में फिट कर दिया गया है जिससे उन पर कोई अंगुली ना उठे। आपको यह समझना चाहिये कि जहां राजनीति पर से लोगों का भरोसा उठ रहा है, वहा राजनेता ही दूसरे माध्यमो में घुस रहे है। जिन्ना पर यह यह किताब ना तो स्कॉलर की लगती है ना ही पॉलिटिशियन की।
लेकिन राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में लिखी किताब में आप उस दौर के सामाजिक ढांचे पर बहस क्यो चाहते हैं।...क्योंकि बिना उसके सही संदर्भ गायब हो जाते है। आप ही बताइये, भारत लौटने पर गांधी ने समूचे देश की यात्रा कर क्या देखा। आप एक लाइन में कह सकते हैं कि देश को देखा। लेकिन सच यह नहीं है। गांधी ने उस जमीन को परखा जो भारत को जिलाये हुये है, जो उसकी धमनियों से होकर बहने वाला खून है, उसके फेफडों के अंदर जाने वाली हवा है। किसान मजदूर के बगैर भारत की कल्पऩा नहीं की जा सकती। इसलिये गांधी ने सबसे पहले उसी मर्म को छुआ।
जसवंत की किताब में एक जगह लिखा है कि नेहरु-जिन्ना और गांधी तीनो ने पश्चिमी तालीम हासिल की थी । नेहरु-जिन्ना तो पश्चिमी सोच में ही ढले रहे और उसी आधार पर भारत-पाकिस्तान के उत्तराधिकारी बन कर खुद को उबारते चले गये। लेकिन गांधी में भारतीय तत्व था। लेकिन जसवंत सिंह यह नहीं बताते कि यह भारतीय तत्व कौन सा था। वह गांधी ही थे जिन्होंने किसान आंदोलन को दबाया। गांधी शांति की वकालत करते हुये सीधे कहते थे कि ,
"यदि जमींदार आप पर उत्पीड़न करें तो आपको थोड़ा सह लेना चाहिये। यदि जमींदार आपको परेशान करें तो मै किसान भाई से कहूंगा कि वह लड़ें नहीं बल्कि मैत्रीपूर्ण रुख अपनायें।" गांधी की कथनी-करनी का फर्क जसवंत को रखना चाहिए जो अंग्रेजों के लिये मददगार साबित हो रहा था। चम्पारण, खेडा और बारडोली के किसान आंदोलन इस बात के सबूत हैं कि गांधी किसानों को बंधक बना रहे थे। क्योकि एक तरफ वह ग्राम स्वराज अर्थात परम्परागत हिन्दू ग्रामीण समाज के आत्मनिर्भर ढांचे को जिलाना चाहते थे पर उसके लिए बहुसंख्यक ग्रामीण समाज की आर्थिक और सामाजिक अस्मिता और नेतृत्वकारी शक्तियो को आगे बढाना उन्हे स्वीकार नहीं था। गांधी वाकई भारतीय मूल को ना समझते तो नेहरु-जिन्ना दोनों ही विभाजन के नायक भी ना हो पाते जैसा जसवंत लिख रहे है। लेकिन इस मूल को तो सामने लाना चाहिये...क्योकि गांधी परम्परागत ग्रामीण समाज को तोड़ कर उस पर थोपे गए जमीदांरों और साहूकारों के जरिये ही अपनी राजनीति कर रहे थे।
मिसाल के लिये बारडोली में चलाये गये गांधीवादी रचनात्मक कार्यक्रम को ही लें। 1929 तक बारह सौ चरखे बारडोली में चलाये जा रहे थे लेकिन सभी धनी पट्टीदार परिवारों में थे। गरीब किसानो के घर एक भी चरखा नहीं था, जबकि चरखा लाया ही गरीब परिवारो के लिए गया था। फिर अस्पृश्यता हटाने के सवाल पर तो इतना ही कहना काफी होगा कि 1936 तक एक भी अछूत छात्र बारडोली क्षेत्र के पट्टीदार मंडल द्रारा चलाये जा रहे आश्रमों और होस्टल में भर्त्ती नहीं हुआ था। गांधी जी का रचनात्मक कार्यक्रम तो पट्टीदारों और बंधुआ मजदूरों के बीच संबंधो में भी कोई अंतर नहीं ला पाया था।
लेकिन जसवंत की किताब में मूलत: नेहरु और पटेल पर चोट की गई है। सही कह रहे हैं। किताब में एक जगह लिखा गया है कि नेहरु और पटेल को समझ ही नहीं थी कि विभाजन के बाद देश कैसे चलाना है। हो सकता है बीजेपी इसी से रुठी हो। लेकिन किसान-मजदूर की बात करने वाली बीजेपी को समझना चाहिये कि लौह पुरुष पटेल भी किसानो के हक में खडे नहीं हुए। साहूकार और बंधुआ किसानों को लेकर गांधी के सबसे बडे प्रतिनिधि वल्लभ भाई पटेल ने गरीब किसानो को सलाह दी, "सरकार तुम्हें और साहूकार को अलग अलग करना चाहती है ....यह तो पतिव्रता नारी से अपने पति को छोड देने की मांग जैसा हुआ । " जसवंत को किताब में बताना चाहिये कि पटेल का लोहा किस तरह घनी पट्टीदार और बनियों के लिये बज रहा था।
जसवंत तो खुद राजस्थान से आते है। उन्होंने अपनी किताब में गांधी को कैसे क्लीन चीट दे दी। जबकि राजस्थान के राजपूताना इलाकों में मोतीलाल तेजावत ने रियासती जुल्म के खिलाफ जब किसानों को एकजुट किया तो रियासत ने अंग्रेजों के फौज की मदद से भीलों पर गोलियां बरसा दी थी। गांधी जी ने उस वक्त भी इस गोलीकांड की निंदा नहीं की। देखिये किताब इसलिये बेकार है क्योंकि इसमें जनता को जोडा ही नहीं गया है।
नेहरु के जरिये कांग्रेस पर अटैक करने से जसवंत को लगता होगा कि उन्होंने अपना राजनीतिक धंधा पूरा कर लिया, जबकि कांग्रेस पर अटैक करना था तो सहजानंद सस्वती का जिक्र करना चाहिये था। चर्चा किसान सभा के संगठन की होनी चाहिए थी। 2 अक्टूबर, 1937 को पटेल ने राजेन्द्र प्रसाद को पत्र लिख कर आगाह किया कि भविष्यि में किसान सभा बहुत बडी बाधा उत्पन्न करेगी, हमें इसके गठन के खिलाफ खड़े होना होगा। इसी के बाद से धीरे-धीरे कांग्रेसियों ने सहजानंद सरस्वती का बायकॉट करना शुरु किया। बंबई में तो गांधी, जमुनालाल बजाज, सरदार पटेल, राजगोपालाचारी और राजेन्द्र प्रसाद ने एक बैढक में सहजानंद को हिंसक , तोड़क और उपद्रवी तक घोषित कर दिया।
आपका यह तो नहीं कहना है कि स्थितियां अभी भी नहीं बदली हैं। आप यह माने या ना माने ...हम यह नहीं कहते कि किताब में हिसंक आंदोलन का जिक्र होना चाहिए। सवाल यह है कि नेहरु - जिन्ना सरीखे चरित्र किस तरह खडे हो रहे थे। उन सामाजिक परिस्थितियों का जिक्र अगर किताब में नहीं है तो मीडिया को तो करना चाहिए, क्योंकि आपने ही ठीक सवाल रखा...स्थिति बदली कहां है। सहजानंद सरस्वती किसान सभा में गरीब और मंझोले किसानों का ज्यादा प्रतिनिधित्व चाहते थे। यह मांग हर क्षेत्र में आज भी है। जसवंत सिंह को सिर्फ धर्म के नाम पर आरक्षण दिखाई देता है..वह किताब में लिखते भी हैं कि धार्मिक आरक्षण राजनीति का हथियार बन गया है। जसवंत तो इस्लामिक राष्ट्र को भी बकवास बताते हैं लेकिन हिन्दू राष्ट्र पर खामोश हो जाते हैं, जिसे सावरकर ने ही सबसे पहले उठाया। नेपाल में जब कम्युनिस्ट सत्ता में आये तो बीजेपी को लगा एकमात्र हिन्दू राष्ट्र ध्वस्त हो गया। तो वह लगे विरोध करने। और मीडिया भी उसे तूल देता है, क्योंकि बाकी वर्गों को छूने पर देश में आग लग सकती है।
जसवंत सिंह की किताब में विभाजन को लेकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले किरदार खत्म कहां हुए हैं।...वैसे ही किरदार तो अब भी राजनीति और समाज में मौजूद हैं। और उन्हे उसी तरह किताब लिखकर या मीडिया से प्रचारित कर के स्थापित किया जा रहा है। मेरा आपसे सिर्फ यही कहना है कि आप किताब को हर कैनवास में रखकर बताएं। चाहे किताब में कैनवास ना हो, नहीं तो भविष्य में यही बडे नेता हो जाएंगे जो किताब लिखने पर निकाले जा रहे हैं या जो निकाल रहे हैं।
तो आप लोग किताब क्यो नहीं लिखते। हम लिखते भी हैं और बताते भी हैं, लेकिन लेखन का धंधा नहीं करते। किस तरह बहुसंख्यक तबके को दरकिनार कर सबकुछ प्रचारित किया जाता है, यह तो आप लालगढ से भी समझ सकते हैं। लालगढ में हमारी ताकत बढी है तो सरकार कह रही है ऑपरेशन सफल हो गया। आप आईये ..देखिये, अंदर गांव में स्थिति क्या है। लेकिन इसी तरह जसवंत की किताब को भी देखिये। यह कह कर किशनजी ने फोन काट दिया।
किशन जी वही शख्सन हैं, जिसने लालगढ में आंदोलन खडा किया। असल में किशनजी माओवादी संगठन के पोलित ब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव हैं। यह तथ्य लालगढ में हिंसा के दौर में खुल कर उभरा था। लेकिन सवाल है कि जो तथ्य विभाजन को लेकर नक्सली खींच रहे है, उसपर कोई राजनेता कभी कलम चलायेगा।
Tuesday, August 18, 2009
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संघ के लिये तमाशा है बीजेपी की बैठक |
जब हेडगेवार और गुरु गोलवरकर के बगैर संघ अपना विस्तार कर सकता है तो वाजपेयी और आडवाणी के बगैर बीजेपी का विस्तार क्यो नहीं हो सकता ? यह सवाल 2005 में आरएसएस की बैठक में एक वरिष्ट्र स्वयंसेवक ने उठाया था । लेकिन चार साल बाद उसी बीजेपी के लिये उसी संघ परिवार का कोई प्रचारक कुछ कहने के लिये खड़ा नहीं हुआ। जब यह सवाल उठा कि बीजेपी को लेकर आरएसएस की दिशा क्या होनी चाहिये । तो क्या नागपुर से डेढ हजार किलोमीटर दूर शिमला में जब बीजेपी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर चिंतन मनन करेगी तो आरएसएस खामोश ही रहेगी।
असल में आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर जख्म कितने गहरे हो चले हैं, इसका अंदाज इस बात से लग सकता है कि बीजेपी के चिंतन बैठक को लेकर संघ के भीतर एक सहमति बन चुकी है कि यह एक तमाशा है । और अब तमाशे पर आरएसएस अपनी ऊर्जा नहीं खपायेगी । लेकिन तमाशे तक स्थिति पहुंची कैसे और आगे का रास्ता किधर जाता है, इसे लेकर संघ ने पहली बार बीजेपी को लेकर कोई लकीर खिंचने से साफ इंकार कर दिया है। इसलिये यह सवाल जब आरएसएस में कोई मायने नहीं रखता कि लालकृष्ण आडवाणी को सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने क्या कहा । तो मोहनराव भागवत के लिये यह कितना महत्वपूर्ण होगा कि वह आडवाणी को कुछ कहें। या कोई निर्देश दें। असल में सरसंघचालक मोहनराव भागवत की पहली जरुरत संघ परिवार का ऐसा विस्तार करना है, जिसमें हर तबके के लोग आरएसएस में अपनी जगह देखें। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि यह रास्ता हिन्दुत्व की जमीन पर रेंगेगा । लेकिन हिन्दुत्व को लेकर मोहनराव भागवत जिस जमीन को बनाना चाहते हैं, उसमें बीजेपी फिट नहीं बैठती।
संघ मान रहा है कि हिन्दुत्व की राजनीतिक परिभाषा जिस तरह बीजेपी ने अपने राजनीतिक फायदे के लिये गढ़ी, उससे सबसे ज्यादा नुकसान संघ परिवार का ही हुआ है । बीजेपी ने हिन्दुत्व को एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा बना दिया, जिसमें हर तबके के सामने हिन्दुत्व का मतलब बीजेपी के साथ खड़ा होना या ना होना हो गया । यानी जिस हिन्दुत्व को संघ ने सामाजिक जीवन के तौर पर सत्तर साल में बनाया और खुद को स्थापित किया, वहीं हिन्दुत्व अयोध्या आंदोलन के बाद से सत्ता का एक ऐसा केन्द्र बनता चला गया, जिसके आयने में बीजेपी ने संघ को ही उतारने की कोशिश की। बीजेपी की इस राजनीतिक पहल को विश्व हिन्दू परिषद ने भी जमकर हवा दी । विहिप ने झटके में बीजेपी के खिलाफ खड़े होकर संघ परिवार को दोहरा झटका दिया । क्योंकि अयोध्या आंदोलन को लेकर आरएसएस ने ही विहिप को आगे किया लेकिन विहिप के कर्ताधर्ता मोरोपंत ठेंगडी ने पहले आंदोलन को हड़पा फिर राजनीतिक तौर पर बीजेपी और विहिप कुछ उस तरह आमने सामने खड़े हुये, जिससे देश भर में संकेत यही गया कि विहिप की लाइन संघ की लाइन है और बीजेपी संघ के खिलाफ सेक्यूलरइज्म का राग अटल बिहारी वाजपेयी के जरीये गा रही है।
उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन थे । जो बीजेपी-विहिप के बीच पुल बनना भी चाहते थे और बीजेपी को राजनीतिक पाठ पढाना भी चाहते थे । इसी पाठ के पहले अध्याय में ही वह वाजपेयी - आडवाणी को रिटायर होने की सलाह दे बैठे । यह तरीका आरएसएस का कभी रहा नहीं है, इसलिये सुदर्शन संघ के इतिहास में सबसे अलोकप्रिय सरसंघचालक साबित हुये । वहीं उस दौर में इन सारी स्थितियों को बारीकी से देख समझ रहे सरकार्यवाह मोहनराव भागवत की हर पहल नागपुर से दिल्ली पहुंचते पहुंचते बीजेपी की गोद में बैठने वाली होती रही, क्योंकि यही वह दौर था जब संघ के स्वयंसेवक देश चला रहे थे। और सरकार चलाते चलाते महसूस करने लगे कि देश आरएसएस से नही बीजेपी से चलेगी। संघ का एक तबका बीजेपी के इस गुरुर के आगे नतमस्तक भी हुआ और संघ-बीजेपी के बीच पुल का काम करने वाले स्वयसेवको को विचारधारा से ज्यादा राजनीतिक सत्ता भाने लगी। ऐसे में हिन्दुत्व का नया पाठ संघ की जगह बीजेपी-विहिप में बंट गया। इसीलिये सरसंघचालक बनने के बाद मोहनराव भागवत ने अपने पहले-दूसरे-तीसरे या कहे अभी तक के एक दर्जन से ज्यादा सार्वजनिक भाषणो में पहली और आखिरी लाईन हिन्दु राष्ट्र को लेकर ही कही।
भागवत इस हकीकत को समझ रहे है कि सुदर्शन के दौर में संघ को बीजेपी केन्द्रीयकृत बना दिया गया । इसलिये मोहन भागवत की पहली लड़ाई बीजेपी के राजनीतिक हिन्दुत्व से है, जिसके आइने में पहली बार वह बीजेपी को उतरता हुआ देखना नहीं चाहते है । भागवत हिन्दुत्व का जो पाठ पढाना चाहते हैं उसमें देवरस की समझ भी है और गुरु गोलवरकर का कैनवास भी । हिन्दुत्व के बैनर तले ही देवरस ने वनवासी कल्याण आश्रम की शुरुआत की थी । सही मायने में कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैक आदिवासियो में पहली सेंध देवरस की इसी पहल से लगी थी । लेकिन सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने कभी जरुरत नहीं समझी कि वह आदिवासियो तो दूर वनवासी कल्याण आश्रम की सुध भी ले। इसी तरीके से हिन्दुत्व के बैनर तले ही 1972 में गुरु गोलवरकर ने ठाणे चितंक बैठक में अन्य पिछडे तबके यानी ओबीसी को संघ के साथ जोड़ने की पहल की। जिसका परिणाम हुआ कि गोपीनाथ मुंडे से लेकर शेवाणकर तक महाराष्ट्र में संघ परिवार से जुडे । और बाद में बीजेपी में । केरल के रंगाहरि को संघपरिवार में कौन नहीं जानता जो केरल से आने वाले ओबीसी ही है । जिन्होने बौघिक प्रमुख की भूमिका को बाखूबी लंबे समय तक निभाया। लेकिन बीजेपी ने राजनीतिक तौर पर ऐसी किसी सोशल इंजिनियरिंग की आहट कभी नहीं दी जिससे यह महसूस हो कि बीजेपी का कैनवास बढ रहा है ।
दत्तोपंत ठेंगडी ने किसान मंच और स्वदेशी को जिस आंदोलन के साथ खड़ा करने की सोच संघ परिवार के भीतर रखी , संयोग से जब उसमें धार देने का वक्त आया तो बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की सरकार सत्ता में आ गयी, जिसने ठेंगडी की समझ को आगे बढाने के बदले आर्थिक सुधार का ट्रैक -2 पकड़ लिया । यशंवत सिन्हा के खिलाफ जब दत्तोपंत खुल कर सामने आए तो सुदर्शन ने ही उन्हे शांत कर दिया। इसी दौर में ट्रेड यूनियन बीएमएस के आर्थिक सुधार के खिलाफ खड़े होने के फैसले को भी संघ ने ही हाशिये पर ढकेल दिया । और सबकुछ पटरी पर लाने की बात कहने वाली बीजेपी ने गठबंधन की मजबूरी दिखा कर खुद को संघ से अलग कर लिया । इसलिये मोहनराव भागवत एक साथ दोहरी चाल चलने से भी नहीं कतरा रहे है ।
यह पहला मौका है कि सरसंघचालक और सरकार्यवाह दोनो नागपुर से निकले हुये है । दोनो को नागपुर में ही बैठना है । और दोनो की कोई राजनीतिक जरुरत नहीं है । मोहनराव भागवत और भैयाजी जोशी ने संघ परिवार के भीतर अपनी नयी पहल से इसके संकेत दे दिया है कि उनके लिये हिन्दुत्व मायने रखता है लेकिन हिन्दुत्व के आसरे कद बढाने वाली बीजेपी और विहिप मायने नहीं रखती । इसकी पहली पहल नये संगठन हिन्दु धर्म जागरण के जरीये मोहन भागवत ने शुरु की है । असल में धर्म जागरण को खड़ा कर विहिप को ठिकाने लगाने या कहे हाशिये पर ढकेलने का काम आरएसएस ने शुरु किया है । देश के हर हिस्से में संघ के प्रचारको को ही धर्म जागरण का काम आगे बढाने के लिये लगाया गया है । खास बात है कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन को भी जो नया काम सौपा गया है उसे भी धर्म जागरण के ही इर्द - गिर्द मथा गया है । मसलन भोपाल में सुदर्शन की नयी जगह निर्धारित की गयी है, जहां से वह देश भर का भ्रमण कर धर्माचार्यो और धर्मावलंबियो से मिलकर आरएसएस के हिन्दुत्व की दिशा में मजबूती देगै और धर्म जागरण के कार्यो में सीधा योगदान देकर इस नये संगठन को सामाजिक मान्यता दिलायेगे ।
खास बात यह भी है कि संघ धर्म जागरण के जरीये अयोध्या आंदोलन को नये तरीके से परिभाषित करना चाहता है । जिसका पहला निशाना अगर विहिप बनेगा तो दूसरा निशाना बीजेपी की हिन्दुत्व राजनीति पर होगा । क्यो कि संघ का मानना है कि अयोध्या के जरीये विहिप ने उसी उग्र सोच को आगे बढा दिया जिस लकीर पर कभी हिन्दु महासभा चला थी । जबकि बीजेपी ने अयोध्या के जरीये वोट बैंक की ऐसी राजनीति को आगे बढाया जिसमें अयोध्या हिन्दुत्व से ज्यादा सत्ता का प्रतीक बन गया । असल में मोहन भागवत की रणनीति हिन्दुत्व को लेकर एक ऐसी बड़ी लकीर खींचने वाली है, जिसे राजनीतिक तौर पर बीजेपी कभी हथियार ना बना सके । क्योंकि चुनाव से ऐन पहले भी अयोध्या जिस तरह बीजेपी के चुनावी मैनिफेस्टो का हिस्सा बन गया उसके बाद कोई ठोस समझ पूरे चुनाव में आडवाणी के जरीये नहीं उभरी उससे संघ के भीतर इस बात को लेकर ज्यादा कसमसाहट है कि सत्ता का प्यादा बने अयोध्या ने बीजेपी के भीतर संघ के स्वयसेवको को भी सत्ता का केन्द्र बना दिया है । यानी आडवाणी इसीलिये मान्य है क्योकि वह सबसे बुजुर्ग स्वयसेवक है । राजनाथ सिंह इसीलिये अध्यक्ष के तौर पर मान्य है क्योकि वह आडवाणी के खिलाफ संघ के प्यादे के तौर पर खडे है । यानी संघ भी बीजेपी के भीतर सत्ता का केन्द्र बना दिया गया है ।
ऐसी स्थिति में बीजेपी को लेकर कोई भी सवाल अगर आरएसएस करती है तो उसका लाभ - घाटा भी उन्ही नेताओ के इर्द-गिर्द सिमट जायेगा जो प्रभावी है , लेकिन संघ का नाम जपने के अलावे यह प्रभावी स्वयसेवक कुछ करते नहीं है । बीजेपी को लेकर संघ के भीतर किस तरह की खटास है इसका एहसास इससे भी किया जा सकता है कि नागपुर में स्वयसेवक गुरु गोलवरकर की जनसंघ को लेकर की गयी टिप्पणी को दोहराने लगे है । जनसंघ बनने के बाद जब गोलवरकर के सामने यह सवाल उभारा गया था कि राजनीतिक तौर पर मजबूत जनसंघ के स्वयसेवक के सामने आरएसएस के मुखिया का प्रभाव कितना मायने रखेगा तो गोलवरकर ने सीधा जबाब दिया था कि जनसंघ हमारे लिये गाजर की पूंगी है, बज गयी तो बज गयी..नहीं तो इसे खा जायेगे । नयी परिस्थितियों में यह आवाज संघ के भीतर बीजेपी को लेकर हो सकती है लेकिन सरसंघचालक और सरकार्यवाह यानी मोहन भागवत और भैयाजी का रुख बीजेपी को लेकर बिलकुल अलग है । दोनों के ही करीबी स्वयसेवकों की मानें तो जिन परिस्थितयों में पिछले दस साल के दौर में संघ कमजोर हुआ, वहीं स्थितियां बीजेपी के साथ भी रहीं । पार्टी और संगठन की मजबूती का आधार उसी कमजोर होते संघ को बनाया गया जिसे राजनीतिक सत्ता के लिये स्वयसेवकों ने ही दफन करने की कोशिश की।
ऐसे में अगर आरएसएस यह सोच भी ले कि वह पद ना छोडने वाले लालकृष्ण आडवाणी को हटाने में भिड जाये तो आडवाणी के हटने के बाद भी बीजेपी को कौन ढोएगा । तब संघ की समूची ऊर्जा तो बीजेपी को संभालने में ही लग जायेगी । क्योंकि वहा सत्ता महत्वपूर्ण हो गयी है । विचारधारा या संगठन का विस्तार नहीं । इसका असर किस रुप में बीजेपी के भीतर पड़ रहा है, यह बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के जरीये समझा जा सकता है । स्वयसेवकों का मानना है कि संघ के आशिर्वाद से ही राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने , यह सच है। लेकिन बतौर अध्यक्ष अगर उनकी मौजूदगी पार्टी में रही ही नहीं , या कहे वे बे-असर हो गये, तो इसमें संघ क्या कर सकता है । लेकिन यही परिस्थितयां बताती हैं कि बीजेपी की अंदरुनी हालत क्या है, इसलिये बीजेपी का चितंन शिविर बीजेपी के लिये नही बल्कि नेताओ को स्थापित करने के लिये है, जो पटरी से फिसल रहे है ।
चूंकि आलम यह है कि सभी अपनी अपनी राह पकडे हुये है । बीजेपी अध्यक्ष को जो चुनौती दे देता है वह मजबूत लगने लगता है । जो प्रभावी और नीतिगत फैसले लेने वाले है वह अपनी भूमिका पार्टी से हटकर, पार्टी को सत्ता में लाने की जोड-तोड में अगुवा नेता के तौर पर देखते है । यानी एक तरफ जोड-तोड़ की राजनीतिक सत्ता के लिये विचारधारा और पार्टी संगठन को भी सौदेबाजी में लगाते हैं, और दूसरी तरफ परिणाम अनुकूल नहीं होता तो हर जिम्मदारी से बच निकलना भी चाहते है । ऐसे में संघ ने अब बीजेपी को पार्किग जोन में खड़ा कर खुद को मथने का रास्ता अपनी शर्तो पर चुना है, इसलिये शिमला से बीजेपी चाहे कोई भी नारा लेकर निकले लेकिन पहली बार आरएसएस के लिये बीजेपी का चिंतन बैठक तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं है।
Thursday, August 13, 2009
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लालू की खामोशी..नीतीश की सादगी और 77 की याद |
एयर इंडिया का आईसी 407 विमान जैसे ही पटना के जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डे पर उतरा, मेरी नजर बिजनेस क्लास में उतरने के लिये सबसे आगे खड़े सासंद लालू प्रसाद यादव पर पडी । बिना किसी हंसी-ठहाके के खामोश लालू प्रसाद सीढ़ियों के लगते ही सबसे पहले जहाज से नीचे उतरे । नीचे उतरते ही एक प्राइवेट इनोवा गाड़ी जहाज के करीब आकर लगी । लालू प्रसाद यादव एयर इंडिया के अधिकारियो से चंद सेकेंड में औपचारिक सलाम-दुआ कर इनोवा में बैठे और गाड़ी हवाई अड्डे के एक किनारे बाहर निकलने के गेट से चंद मिनटो में ही ओझल हो गयी ।
यह सब जिस तेजी से हुआ, उसमें जहाज से उतरते दसवें यात्री को भी इसका एहसास नहीं हुआ होगा कि लालू प्रसाद यादव पटना उसी जहाज से पहुंचे होंगे, जिसमें वह खुद सफर कर रहा होगा। मेरी नजर इसलिये गयी क्योंकि मैं इकनॉमी क्लास की पहली कतार में बैठा यात्री था। लेकिन जिस खामोशी से लालू प्रसाद हवाई अड्डे से बाहर निकले. उसने मेरे जहन में तीन साल पहले के उस माहौल को आखों के सामने ला खड़ा कर दिया, जब बिहार में विधान सभा चुनाव से पहले लालू प्रसाद इसी जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डे पर एयर इंडिया के ही जहाज से उतर रहे थे और लालू प्रसाद को लेकर जुनुन कुछ इस तरह का था कि हार पहनाने के लिये कुछ कार्यकर्त्ता जहाज में लगी सीढ़ियो तक पहुंच गये थे। गुलाल और फूल मालायें हवाई अड्डे के अंदर इस तरह बिखर चुकी थीं कि यात्रियों में खुसर-फुसर रेंगने लगी थी कि लालू इस बार भी बिहार में चुनाव जीत सकते हैं।
वहीं शनिवाल 8 अगस्त को लालू जिस खामोशी से निकले उसपर एक बुजुर्ग यात्री की त्वरित टिप्पणी जरुर आयी कि लालू प्रसाद यादव की हालत 1977 वाली हो चुकी है। उन्हें राजनीति में ऊपरी पायदान तक पहुंचने के लिये 77 की तर्ज पर संघर्ष करना होगा । इस पर पटना के मशहूर डॉक्टर, जो हवाई जहाज में साथ ही यात्रा कर रहे थे , उन्होने रिटायर नौकरशाह की टिप्पणी पर अपना फुनगा बैठाते हुये कहा कि .....लेकिन 77 में जेपी का संघर्ष था । अब जेपी के नाम पर हवाई अड्डे का नाम है । फिर तीन साल पहले बनारस में लालू ने तो यहा तक कहा कि उन्होंने ही जेपी को जेपी बनाया। फिर जेपी आंदोलन से नीतीश कुमार भी निकले है । 77 में तो सभी एकसाथ थे । इसलिये अब 77 के नहीं 2009 के नये हालात हैं, जिसमें लालू को खामोशी से निकलना ही पड़ेगा।
आप इस खामोशी में कोई आहट ना खोजिये । बात करते करते हम हवाई अड्डे से बाहर निकलने लगे तो हमें नारो की गूंज और गुलाल से नहाये लड़के और फूलों की मालाओं को लेकर खड़े लोगो के हुजुम ने बरबस रोक दिया। मुझे झटके में लगा कि कहीं लालू यादव इसी से बचने के लिये तो पिछले दरवाजे से नहीं निकल गये । लेकिन हवा में गूंजते नारो को सुना तो किसी रामजीवन सिंह का नाम सुनायी दिया । बाहर लगे बैनर को देखा तो पता चला जदयू के किन्हीं राम जीवन सिंह को नीतीश कुमार ने कोई पद दे दिया है। यह पद स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़ा है। साथ चल रहे मशहूर डाक्टर ने बताया कि राम जीवन महाशय नाराज चल रहे थे तो नीतीश ने उन्हें पद देकर मना लिया होगा। उसी का हंगामा है । लेकिन निकलते निकलते यह टिप्पणी भी कर गये कि लालू यादव हंगामे की जो राजनीति खड़ी कर गये हैं, उसके अंश आपको इसी तरह छुटभैये नेताओं में नजर जरुर आयेंगे।
लेकिन, यही से नीतीश खुद को लेकर एक अलग लकीर खींच रहे है । वह ताहते हैं कि लालू की तर्ज पर उनके नेता पहल करें, जिससे वह खुद को अलग खड़ा कर सके । फिर 77 में नीतीश कुमार जमीन बेच कर चुनाव लड़े थे । अब वह सत्ता में हैं । इसलिये लालू का मामला 77 वाला हो नहीं सकता । चूंकि एक सार्वजिक समारोह में मुझे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलना ही था। मैंने डाक्टर साहब से यह कहते हुये विदाई ली कि मुख्यमंत्री से जरुर इन सवालो को पूछूंगा । समारोह में जब मैंने 77 का जिक्र कर नीतीश कुमार को लेकर यह कहा कि पहला चुनाव घर की जमीन बेच कर वह लड़े थे तो मैने देखा नीतीश कुमार कुछ इस तरह झेंपे जैसे यह उनकी निजी सोच थी, जिसे वह जीते है इसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिये।
77 के आंदोलन से जुड़े एक प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद भी सभा में मिले। जब मैंने उनसे 77 के दौर और अब के राजनीतिक हालात को लेकर लालू यादव की खामोशी का जिक्र किया । तो प्रोफेसर साहब ने बिना रुके ही कहा, नीतीश की जगह लालू होते और अगर उन्होंने जमीन बेचकर चुनाव लड़ा होता तो आपके सवाल को ही लालू यादव इस सभा में अपनी राजनीति का केन्द्र बना लेते। लेकिन नीतीश इस पर झेंप रहे हैं। लालू तत्काल को ही जीते है और नीतीश जेपी दौर से बाहर निकल नहीं सकते क्योंकि उनकी राजनीतिक ट्रेनिग जेपी और कहीं ज्यादा कर्पूरी ठाकुर के इर्द-गिर्द हुई है। इसलिये मामला 77 सरीखी स्थिति का नहीं है। सवाल है अभी के राजनीतिक हालात में पहली बार कोई नेता ऐसा नहीं उभरा है जो 77 को चैलेज कर सके। यानी स्थितियां बदल चुकी है मगर नेताओ की व्यूह रचना 77 वाली ही है। इसकी बड़ी वजह 77 से लेकर 2009 तक के दौर में सामाजिक संबंधो में कोई बडा अंतर बिहार में नहीं आया है। इसलिये लालू कल की जरुरत थे और नीतीश आज की जरुरत हैं । लेकिन बिहार में राजनीतिक जमीन के लिये जब कांग्रेस भी दरवाजा खटखटा रही है तो इसका मतलब दिल्ली में लालू विरोध और बिहार में नीतीश की विकास योजनायें कांग्रेस को रोक सकती हैं।
इस सवाल के जबाब के लिये नीतीश कुमार से मैंने निजी तौर पर जब यह सवाल किया कि बुंदेलखंड को लेकर कांग्रेस जिस तरह दो राज्यों की नीतियों से इतर प्राधिकरण बनाकर विकास की बात कर रही है तो सवाल के बीच में ही नीतीश कुमार ने सीधे टोका देश में फेडरल सिस्टम है कहां । कांग्रेस सिर्फ परसेप्शन की लड़ाई लड़ती है। परसेप्शन से विकास हो नहीं सकता और राज्यों से टकराव के जरीये केन्द्र -राज्य संबंध कभी विकसित हो नहीं सकते। बिहार को ही ले तो राहत राशि तो दूर गरीबी की रेखा से नीचे कितने लोग हैं, इसकी संख्या भी केन्द्र खुद तय करना चाहता है। हम कहते है बीपीएल परिवार सवा करोड हैं तो केन्द्र अपनी गिनती बताकर साठ लाख बताता है। फिर बीपीएल के लिये जो अन्न आना होता है, वह उसकी निर्धरित तारीख तक आता नहीं । यानी तारीख बीत जाने पर खाद्यान्न आता है तो केन्द्र कहता है आपने तो माल तक नहीं उठाया। किस तरह जमीनी हकीकत से दूर कांग्रेस या कहे केन्द्र परसेप्शन की लड़ाई में ही मशगूल रहता है, इसका अंदाज इस बात से समझ सकते है कि सूखे पर बातचीत के लिये प्रधानमंत्री राज्यों के मुख्य सचिवो का सम्मेलन बुलाते हैं। अब सूखे से कैसे लड़ना है, इसपर मुख्य सचिवों को बुलाकर राज्यों को किसी नीतिगत निर्णय लेने पर कैसे अमल में लाया जा सकता है ।
पांच दिन बाद मुख्यमंत्रियो की बैठक दिल्ली में प्रधानमंत्री ने बुलायी ही है तो उसी में सूखे पर भी बात होनी चाहिये। निर्णय तो किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री ही लेगा । अब मुख्य सचिव महज केन्द्र की बात को ड्राफ्ट कर सीएम को दिखा ही सकता है।
[संयोग से मुख्य सचिवो का सम्मेलन 8 अगस्त को ही दिल्ली में था, जिस दिन मै नीतीश कुमार से यह सवाल कर रहा था।] कांग्रेस जिस परसेप्शन को बनाना चाहती है उससे विकास नहीं हो सकता । हां, लोगो के बीच यह धारणा बन सकती है कि कांग्रेस भिड़ी हुई है । लेकिन बिहार में यह सब संभव नहीं है क्योकि जो हालात बिहार में बने हुये हैं, उसके लिये कांग्रेस भी दोषी है।
लेकिन कांग्रेस बिहार में पार्टी का अलख जगाने के लिये मशक्कत कर रही है । इसका अंदाज मुझे शहर में घुसने के साथ ही जगह जगह जगदीश टाइटलर के स्वागत मे लगे बैनरो से लग गया । क्या कांग्रेस वाकई बिहार में अपनी जमीन नही बना पायेगी, यह सवाल जब मैंने प्रेफेसर साहब से किया तो वह तपाक से बोले ....आप यह तो देखो कि कांग्रेस ने जगदीश टाइटलर को क्यों भेजा । जबाब सीधा है किसी और को भेजते तो जातीय लड़ाई में ही बिहार कांग्रेस के भीतर दुकान चलती । टाइटलर के साथ यह सब है नहीं तो कांग्रेस खुश है, लेकिन उसका बिंब आपको कांग्रेसियो के चेहरे पर दिखायी नहीं देगा।
नीतीश कुमार इसीलिये निश्चिंत हैं । लेकिन इसी दौर में मुलाकात बिहार इंडिस्ट्रयल एसोशियशन के अध्यक्ष केपी झुनझनवाला से हो गयी । उनके दुख में मुझे बिहार में रोशनी दिखायी दी । क्योकि झुनझुनवाला साहब ने माना कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना 2007-2012 के दौरान अनुमानित विकास दर 8.5 से 2 फीसदी ज्यादा पाने के लिये राज्य सार्वजनिक क्षेत्र में 58,318 करोड निवेश करने की दिशा में तो बढ़ रही है लेकिन निजी क्षेत्र में 1.08 लाख करोड रुपये निवेश करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठा रही है। झुनझनवाला के साथ मौजूद एक बडे बिल्डर ने बात बात में यह जानकारी दी कि पिछले दिनो सीतामढ़ी के एक किसान ने 85 लाख डाउन पेमेंट कर उससे एक फ्लैट खरीद लिया । वह किसान तंबाकू की खेती करता है। उस शख्स ने माना बिहार को किसी बाहरी निवेशक का इंतजार नहीं है बल्कि बिहार की पूंजी बिहार में लग जाये तो साठ फीसदी स्थिति उसी से सुधर जायेगी।
सवाल है नीतिश सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश कर उसी स्थिति को सुधार रहे हैं, जहां पंजाब से महज किसान-मजदूर ही बिहार न लौटे बल्कि पूंजी लगाने वाले भी गंगा किनारे बिहार की परिस्थितियो के अनुकूल पूंजी लगा सके । मुझे पटना से लौटना उसी दिन था तो लौटते वक्त हवाई अड्डे के बाहर बड़े अक्षरो में लिखे जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा को देखते ही सुबह शुरु हुई 77 की बात और लालू यादव याद आ गये। मुझे लगा अगर लालू की जगह नीतिश होते तो क्या वह इनोवा में बैठ कर अलग दरवाजे से जाने की जगह मेन गेट से ही पैदल निकलते, जहां चाहे किसी भी नेता की जयजयकार हो रही होती क्योकि जेपी इसी जय-जयकार को दरकिनार कर संघर्ष करने निकले थे ।
Friday, August 7, 2009
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राजपथ से संसद की तस्वीर उतारते चेहरों का सच |
चना-चबेना यहां नही बेचेंगे तो कहां बेचेंगे । क्यों, पूरी दिल्ली में और कहीं जगह नहीं बची है। लेकिन सर, और कहीं कहां कोई खरीदता है। लेकिन यह वीआईपी इलाका है । यहां खड़े भी नहीं हो सकते। अपना टोकरी-डंडा उठाओ और सीधे इंडिया गेट के पास चले जाओ। दिखायी दे रहा है न इंडिया गेट। लेकिन सर, वहां तो कई हैं बेचने वाले । यहां तो हम अकेले हैं। एक घंटा खड़े रहने दीजिये। फिर चले जायेंगे। अच्छा देख सड़क छोड़कर वह दूर पेड़ के नीचे चला जा...जहां कुछ गोरे लोग फोटो खींच रहे हैं और एक घंटे बाद नजर न आना।
संसद के ठीक सामने विजय चौक के किनारे पत्थर पर लिखे 'राजपथ' की ओट में ही पुलिस और चना बेचने वाले के बीच चल रही इस बहस को सुनते हुये मुझे भी आश्चर्य लग रहा था कि संसद के ठीक सामने यह एक ऐसी जगह है, जहां वाकई कोई सड़क पर कुछ भी बेचेने वाला जब खड़ा भी नहीं हो सकता है तो चना वाला अपना सामान बेचने की जिद भी कर रहा है और पुलिस वाला भी पुलिसिया अंदाज के बदले समझाते हुये उसे पेड़ की ओट में चना बेचने की जगह भी दे रहा है। क्योंकि राजपथ लिखे पत्थर के तीर के निशान पर सीधे इंडिया गेट है तो बांयी तरफ संसद भवन का गेट है । वहीं सडक के ठीक दुसरी तरफ राष्ट्रपति भवन है, जिसके दांये बाये नार्थ और साऊथ ब्लॉक है। जिसके बीच में बेहतरीन रायसीना हिल्स। और इस पूरे इलाके की तस्वीर लेने के लिये जनपथ का यही मुहाना सबसे बेहतरीन स्पॉट है।
जाहिर है ऐसे में पर्यटकों का हुजूम इसी किनारे जमा होकर कैमरे में खुद के साथ लुटियन की इस विरासत को कैमरे में कैद करता है । लेकिन संसद जब चल रही होती है तो यहां भी आवाजाही बेहद कम कर दी जाती है। ऐसे में चने वाले को देख कर पहली बात मेरे जेहन में यही आयी कि शायद यह यहां हाल फिलहाल में आया है इसलिये इसे इस वीआईपी इलाके के बारे में कोई जानकारी नहीं होगी। उससे बात करने के ख्याल से पेड़ के नीचे जाते चने वाले को मैंने कहा, मेरे लिये दस रुपये के चने बनाओ मैं वहीं आ रहा हूं।
फिर पुलिस वाले से न चाहते हुये भी मैंने पूछा कि, उसे वहां क्यो भेज दिया । यहां तो चाय वाले को आप लोग टिकने नहीं देते हैं। आप सही कह रहे हैं। लेकिन किसे कहां भगाये। बेचारा कुछ बेच लेगा तो रोजी-रोटी का इंतजाम हो जायेगा। मैं हैरत में था कि कोई पुलिस वाला इस तरह बोल रहा है। मैंने पूछा...आप कहां के हो । मैं बुलंदशहर का हूं। वहां खेती है क्या । हां...गांव में खेती है । अपनी काफी जमीन है । लेकिन इसबार जमीन खाली है । कौन देखता है खेती। आप यह सब क्यों पूछ रहे हो । ऐसे ही जानना चाह रहा हूं कि आप जमीन से जुड़े होंगे तभी आपने चने वाले को भी नहीं मारा और उसे भी धंधा करने की जगह बता दी । बस इसीलिये । पत्रकार तो नहीं हो। पत्रकार ही हूं। लेकिन मुझे अच्छा लगा जो आपने उसे थप्पड़-लप्पड़ नही मारा। मैं क्या मारु उसे ..इसबार तो उपर वाला ही सबको मार रहा है। पिछले शनिवार ही बुलंदशहर गया था । ताऊजी खेती देखते हैं, और बता रहे थे कि इस बार सारे बीज ही जल गये। दोबारा बीज बोये हैं लेकिन एक चौथाई फसल भी हो जाये तो घरवालों का पेट भरेगा। नहीं तो सरकारी राहत की आस देखनी होगी। आपका इलाका भी तो मायावती ने सूखा करार दिया है। क्या वही राहत गांव गांव पहुंचेगी । अब गांव में जो पहुंचे लेकिन वहा अगर तो आप दलित या पिछड़े हो तब तो आपकी बात अधिकारी सुनते हैं। नहीं तो राहत लेने के लिये इतने कागज-दस्तावेज मांगे जाते हैं, जिन्हें जुगाडने का मतलब है साल बीत जाना। आप पुलिस में हो, तो क्या आपकी भी नहीं चलती। गांव में तैनात पुलिस वालो की ही जब नहीं चलती तो मेरी क्या चलेगी। जाति पर चलता है । पिछडी जाति से तो एसपी भी घबराता है। कोई दलित रपट लिखाने थाने पहुंच जाये तो उसे कुर्सी पर बैठाया जाता है और कोई दूसरा पहुंचे तो उसी के खिलाफ हरिजन एक्ट में मामला दर्ज करने की धमकी देकर सब बात अनसुनी कर दी जाती है।
बात आगे बढ़ती, लेकिन उसी बीच चना वाला आवाज देता हुआ आता दिखायी दिया। मैंने पुलिसवाले से फिर मिलने के इरादे से कहा, आपकी बात तो संसद में भी उठनी चाहिये । कोई उठायेगा तो आपको बताऊंगा । वह भी सड़क पार करते करते बोला, लिख लो खेती और गरीबी पर संसद में मामला उठ ही नहीं सकता है। फिर यूपी में तो मायावती और राहुल गांधी में दो दो हाथ हो रहा है । राजनीति हम समझते नहीं...चलते हैं कह कर वह पुलिस कांस्टेबल सड़क पार कर गया। मुड़ा तो चना वाला चना लेकर हाजिर था। मैंने उसे टोकते हुये कहा। वहीं चलो नहीं तो पुलिस वाला तुमको यहां से भी भगा देगा । यह कहकर मैं पेड़ की ओट में रखी उसकी टोकरी की तरफ उसके साथ ही बढ़ चला । सर, दस रुपये दीजिये । अरे जल्दी क्या है ...दे रहा हूं । नाम क्या है तुम्हारा । अशोक । पूरा नाम । अशोक शांडिल्य । अरे वाह...बढ़िया नाम है, कहां से आये हो । बिहार से । बिहार में कहां से । गया से । पुलिस वाला चाहता तो तुम्हे बंद भी कर सकता था, लेकिन वह अच्छा व्यक्ति था। बेटा, इसलिये बच गया तू । अशोक तेवर में बोला..आप इंतजार करो सभी अच्छे हो जायेंगे। मैंने कहा मतलब । मतलब कुछ नहीं । मै एमए पास हूं । मैं जब यहां चने बेच सकता हूं तो दूसरा कोई बुरा होकर भी मेरा क्या बिगाड़ लेगा । पुलिसवला मुझे बंद कर देता तो थाने या जेल में कुछ तो मिलता। मुझे झटके में लगा कि एमए पास एक लड़के में इतना आक्रोष क्यों है। गया में क्या करते थे, मैं कुछ गुस्से में ही उससे पूछ बैठा । आप बिहार कभी गये हो । मैंने कहा, वहीं का हूं । गया तो कई कई बार गया हूं। यह बताओ वहां करते क्या थे। क्या करता था ...सर पढ़ता था । फिर दिल्ली क्यों आ गये। क्या करता घरवालों को मरते हुये देखता । खाने के लाले पड़े हुये हैं वहां पर । पानी है नहीं। खेत में तो दूर पीने का पानी तक नहीं है। बिजली की कोई व्यवस्था नहीं है। रोजगार है नहीं। अब आप ही बताओ गया में रहूं या घर छोड़कर कहीं भागना अच्छा है। तो दिल्ली आ गया हूं । वहां पीने का पानी भी नहीं है।
फिर, अशोक ने बिना सोचे सीधा सौदा किया। अगर दस रुपये का चना और लोगे तो रुक कर बताऊंगा नही तो मैं चला। मैंने तुरंत हामी भरी। और अशोक ने जो कहा उससे मैं अंदर से हिल गया। गया के टेकरी थाना में मेरा घर है। मेरे परिवार के खिलाफ थाने में पुलिस ने मामला दर्ज कर खेत में पड़े पंप को इसलिये जब्त कर लिया क्योंकि खेत में पंप चलाने से जमीन के नीचे का पानी और नीचे चला जाता है। जिससे पूरे इलाके में हैंडपंप ने काम करना बंद कर दिया है । जिनके पास खेत नहीं है , उन्होंने थाने में शिकायत की । और जिनके पास खेत हैं यानी रोजी-रोटी खेत पर ही टिकी है, वह क्या करें । करीब 25 लोगो के खेत पंप जब्त कर लिये गये और मामला पानी सोकने का दर्ज कर लिया गया । अशोक के मुताबिक उसने थाने में जाकर माना कि पहली जरुरत पीने के पानी की है लेकिन कोई रास्ता तो बताये कि वह लोग खेती कैसे करें। एमए पास अशोक के मुताबिक पहले जमीन के नीचे 50 फीट में पानी निकल जाता था । लेकिन जिस तरह क्रंक्रीट के मकान बने हैं और पेड़-हरियाली खत्म की गयी है, उससे जमीन के नीचे पानी 200 फीट तक चला गया गया है। वहीं सरकार ने पानी बचाने की पुरानी सारी व्यवस्था घ्वस्त कर दी है । या कहें कोई नयी व्यवस्था वाटर कन्जरवेशन की है नहीं । इसलिये पानी नालों में ही बहता है । ताल-तलाब-पोखर सरीखे पानी रोकने के पारंपरिक तरीके ध्वस्त हो चुके है । खेती होगी कैसे इसका एकमात्र तरीका पंप से जमीन के नीचे का पानी खिंचना भर है। और पंप चलाने के लिये डीजल चाहिये । जिसके लिये पूंजी होनी चाहिये। लेकिन नीतिश कुमार तो शहरो की बिजली काट कर गांव में सप्लायी कर रहे हैं। तो पंप तो उससे भी चल सकते हैं। आप क्या बोल रहे हैं। आपने खेत में कहीं बिजली का खंभा देखा है क्या। खेत तक बिजली पहुंचेगी कैसे । और जिनके खेत गांव से एकदम सटे हुये हैं, वहां भी सिंगल फेस ही है। जिसमें मोटर पंप चल ही नहीं सकता। नीतिश कुमार के गांव प्रेम से जरुर हुआ है कि गांव में कुछ देऱ पंखे की हवा मिलने लगी है। लेकिन इससे खेती का कोई भला नहीं हो रहा है। फिर खेती की हर योजना तो फेल है। डीजल महंगा है । यहा सब्सिडी का डीजल लेने के लिये जो दस्तावेज बाबूओं को चाहिये, उसमें सभी का कमीशन ही कुछ इस तरह जुड़ा रहता है कि सस्ते में डीजल मिल ही नही सकता इसलिये सरकार का आंकडा आप चेक कर लिजिये गया में डीजल की सब्सिडी का नब्बे फिसदी वापस हो गया। सरकार ने एक मिलियन सेलो ट्यूबवेल स्कीम निकाली । जिसमें ट्यूबवेल किरासन से चलता । लेकिन किरासन तेल तो सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे वालों को ही मिलता है। तो यह भी गांव में पहुंचते पहुंचते फेल हो गया। क्योंकि बीपीएल होने के लिये जो कमीशन देने पहंचा और उसके बाद किरासन तेल मिलता तो उसकी किमत डीजल से महंगी पडने लगी। ऐसे में लोग लोन लेकर डीजल से पंप चलाने लगे तो मामला सरकारी हैडपंप को बर्बाद करने का और पीने का पानी खत्म करने का आरोप लगने लगा।
अब आप ही बचाइये गया में रहकर क्या करता । मैं खामोश रह कर संसद की तरफ बढ़ने लगा । लेकिन विजय चौक पर खडे पत्रकार साथी ने बता दिया कि अंबानी भाइयों के गैस मामले में महंगाई का मुद्दा रफूचक्कर हो चुका है और अब सीधे शर्म-अल-शेख में जारी साझा बयान पर चर्चा होगी, जिसमें बलूचिस्तान का जिक्र है । मुझे लगा राजपथ पर खड़े होकर संसद की तस्वीर उतारते किसी भी पर्यटक की आंखों में जब बुलंदशहर या गया का दर्द दिखायी नही देता है तो संसद के भीतर खेत-किसान-महंगाई का दर्द कौन देखेगा। संसद को तो गैस का बिजनेस और बलूचिस्तान का खौफ ही डरा रहा है। ऐसे में, राजपथ पर मानवीय पुलिसवाले और एमए पास चने वाले की क्या औकात कि वह संसद को आइना दिखा दे ।
Wednesday, August 5, 2009
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रेड कॉरिडोर में लाल क्रांति का सपना (पार्ट 2) |
चार राज्यों का रेड कॉरीडोर मध्य प्रदेश से निकले छत्तीसगढ से होते हुये झारखंड, बिहार और बंगाल को भी अपने में समेट लिया । हालांकि इन राज्यों में रेड कॉरीडोर ने उस तरह पांव नही पसारे जैसे पुराने चार राज्यों में हुआ । लेकिन आर्थिक सुधार की असल आधुनिक मार के निशान योजनाओं के जरीये या फिर समाज में बढ़ती खाई के जरीये जमकर उभरे । कह सकते हैं कि राजनीतिक शून्यता ने योजनाओं के सामानांतर विरोध की एक ऐसी लकीर भी खींची, जिसे कोई राजनीतिक मंच नहीं मिला तो वह कानून व्यवस्था के दायरे में लाकर माओवादी सोच तले ढाल दिया गया ।
बिहार में यह मिजाज सामाजिक तौर पर उभरा, जहां जातीय राजनीति ने दो दशक में अपना चक्र पूरा किया तो उसके सामने राजनीतिक पहचान का संकट आया । वहीं बाजार में मुनाफे की थ्योरी ने वर्ग भाव इस तरह जगाया जो वर्ग संघर्ष से हटकर भारत और इंडिया में खो गया । लेकिन 2008-09 का सामाजिक सच रेडकॉरीडोर को लेकर महज इतना नहीं है, माओवाद ने पैर पसारे और सरकार ने उन्हें आतंकवादी करार दिया। असल में वह पीढी, जिसने 1991 के बाद सुनहरे भारत में खुद को सुविधाओ से लैस करने के लिये सरकार की नीतियों का खुला समर्थन किया था और बैंकों से कर्ज लेकर या जमीन गिरवी रखकर ऊंची डिग्रिया हासिल की...वहीं 2009 में अपने गांव लौटकर सरकार की नीतियों का विकल्प विकास के लिये तलाशने पर भिड़ा है।
उड़ीसा, छत्तीसगढ, झारखंड और विदर्भ के रेडकॉरीडोर मे तीन दर्जन से ज्यादा स्वतंत्र एनजीओ सरीखे संगठन उन ग्रामिण आदिवासियों के बीच जाकर खेती से लेकर पानी संग्रहण और फसल को बाजार से जोडने की विधा पर भी काम कर रहे है । साथ ही जिन इलाको में एसईजेड लाने का प्रस्ताव है , वहां के जमीन मालिकों को एकजुट कर मुआवजे के बदले जमीन पर जोत के जरीये ज्यादा बेहतर मुनाफे की बात खड़ा कर रहा है। अपने बूते काम करने की यह हिम्मत अधिकतर उन लडको के जरिये तैयार की गयी हैं, जो मंदी की मार में बेरोजगार हो गये । इनमें कंम्प्यूटर साइंस , इंजीनियर से लेकर प्रबंधन की डिग्री पाये उन युवको की जमात है, जो देश विदेश में कई बरस तक नौकरी कर चुके हैं । अमेरिका से लौटे कंम्प्यूटर इंजीनियर मनीष देव के मुताबिक आर्थिक मंदी में नौकरी जाने के बाद उसने अमेरिका में जो देखा, उसे देखकर पहली समझ उसके भीतर यही आयी कि भारत में भी विकास की जो लकीर खिंची जी रही है, वह उसकी जमीन के प्रतिकूल है । इसलिये उडीसा के जिन इलाकों में खनन का काम तेजी से चल रहा है, वहां आदिवासियों के हक को जुबान देते हुये प्राकृतिक अवस्था कैसे बैलेंस रखी जा सकती है, इस पर मनीष कटक के अपने दोस्त माइनिंग इंजीनियर पुष्पेन्द्र के साथ मिल कर काम कर रहा है।
जिला प्रशासन के अधिकारियों के साथ लगातार उसकी पहल ने अभी तक पुलिस को मौका नहीं दिया है कि वह उन्हें माओवादी करार दे । लेकिन पुलिस के भीतर भी माओवादी प्रभावित इलाकों में सामाजिक -आर्थिक स्थितियों को लेकर कैसी बैचेनी रहती है, यह छत्तीसगढ के एक पुलिस अधीक्षक के जरीये भी समझा जा सकता है । राजनांदगांव के एसपी वीके चौबे ने तीन महिने पहले मुलाकात में ऑफ-द-रिकॉर्ड यह बात कही थी कि जो हालात छत्तीसगढ के सीमावर्ती जिलों के हैं, उनमें आजादी के साठ साल बाद भी आजादी शब्द से नफरत हो सकती है। गांव में शिक्षा, स्वास्थय केन्द्र तो दूर हर दिन गांववाले खाना क्या खायेंगे, जब इस तकलीफ को आप देखेंगे तो कानून व्यवस्था के जरीये किसे पकडेंगे या किसे छोड़ेंगे।
बातचीत में इस पुलिस अधिक्षक ने माना था कि माओवाद प्रभावित इलाकों में सफलता दिखाना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल सफलता पाना है। क्योंकि सफलता कागज पर दिखायी जाती है, ऐसे में माओवादी किसी को भी ठहरा देना कोई मुश्किल काम इन इलाको में होता नहीं है। लेकिन सफलता-असफलता सीधे राजनीति से जुड़े होते हैं, इसलिये हर पुलिसवाला टारगेट सफलता से भी आगे बढ़कर सफल हो जाता है। क्योंकि इससे राजनीति खुश हो जाती है। लेकिन संयोग है कि 12 जुलाई को वीके चौबे माओवादियो के हमले में मारे गये। पुलिस कोई चेहरा लिये रेडकॉरीडोर में तैनात नहीं रहती है। चेहरा सिर्फ नेता या राजनीति का होता है । यह बात विदर्भ के गढचिरोली में तैनात एसपी राजवर्धन ने लेखक से उस वक्त कही थी, जब नक्सली गतिविधियां इस पूरे उलाके में चरम पर थीं। एसपी का तबादला अब मुबंई हो चुका है लेकिन उन्होंने खुले तौर पर माना था कि इन आदिवासी बहुल इलाकों को लेकर सामाजिक आर्थिक दायरे में लाना जरुरी है। सिर्फ कानून व्यवस्था के जरीये सफलता दिखायी तो जा सकती है लेकिन इलाज नहीं किया जा सकता।
इस एसपी की जीप को माओवादियों ने बारुदी सुरंग से उड़ा दिया था । जीप बीस फिट तक उछली...लेकिन एसपी बच गये । और बचाने वाला भी एक आदिवासी हवलदार ही था । लेकिन एसपी के सामाजिक प्रयोग को कभी चेहरा नहीं मिला जबकि राजनीति और नेताओं के चेहरे ने माओवादियों पर नकेल कसने के लिये अपना चेहरा भी दिखाया और राजनीतिक कद भी बढाया। इसी जिले से सटे नक्सल प्रभावित चन्द्रपुर जिले में तैनात पुणे के एक सब-इस्पेक्टर ने बातचीत में बताया कि राजनीति ने नक्सलप्रभावित इलाकों में पुलिस तैनाती को यातनागृह में तब्दील कर रखा है। किसी भी उलाके में कोई भी राजनीतिज्ञ किसी भी पुलिस वाले को कभी भी धमकाता है कि अगर उसकी ना मानी गयी तो नक्सली इलाके में भेज देगे या भिजवा देंगे। उस सब इंस्पेक्टर के मुताबिक जब तक बीस पच्चीस पुलिस वाले किसी नक्सली हमले में मारे नहीं जाते, तब तक राजनेता भी घटनास्थल पर जाते नहीं और मारे गये पुलिसकर्मियो के परिवार तक कोई राहत पहुंचती नहीं। अब पुलिस की इस भावना को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि रेडकॉरीडोर की समस्या को राजनीति तौर पर नजरअंदाज करने से ज्यादा राजनीतिक तौर पर बढ़ाया और विकसित किया गया है। क्योकि कानून व्यवस्था के दायरे में पुलिस और माओवादियों की स्थिति कमोवेश देश की सीमा सरीखी ही मान ली गयी है। यानि पहले जिसने जिसको मार दिया उसी का वर्चस्व।
वहीं, ग्रामिण आदिवासियो की सामाजिक-आर्थिक समस्या राजनीति की जरुरत है । क्योंकि इसके बगैर विकास की मोटी लकीर पतली हो जा सकती है । लेकिन 2009 में इस पूरी समझ को बंगाल से एक नयी दिशा मिली है, इसे नकारा भी नहीं जा सकता । पहली बार शहर और गांव की दूरी वामपंथी राज्य में ना सिर्फ दूर हुई बल्कि राजनीतिक तौर पर जो मुद्दे पहवे नक्सली और फिर माओवादियों का प्रभाव कह कर दबा दिये जाते थे। उन्हें राजनीतिक जुबान उसी संसदीय राजनीतिक चुनाव में मिली जिसे रेडकॉरीडोर में बहिष्कार के तौर पर देखा समझा जाता रहा । बंगाल के जिन इलाकों में जमीन और जंगल का मुद्दा उछला वहा वामपंथी राजनीति चालीस साल से हैं। जबकि पहली बार मुद्दा 1995-96 में उछला । और यहां माओवादी 2005 में पहुंचे। कह सकते है कि अगर यह इलाका भी लेफ्ट नहीं राइट की राजनीतिक सत्ता का होता तो डेढ दशक पहले ही इस पूरे इलाके को रेड कॉरीडोर से जोड़ते हुये कानून व्यवस्था के दायरे में ले जाने से सत्ता नहीं चूकती और यह सवाल अनसुलझा रहता कि जमीन और जंगल से बहुतायत को बेदखल करके चंद हाथो में मुनाफा और सुविधा जुटाने का मतलब विकास कैसे हो सकता है।
संयोग यह भी है कि वामपंथी राजनीति जिन वजहो से सिमटी, उसकी बड़ी वजह वही आर्थिक नीतियां हैं, जिसे राइट ने उभारा और सत्ता की खातिर लेफ्ट भी हामी भरता चला गया। माओवादियों ने अगर नंदीग्राम और लालगढ़ को लेकर वाम राजनीति की परिस्थितियों पर जिस तरह से सवाल उठाये उससे गांव के सवाल को शहर से जोड़ने का एक रास्ता भी निकला। क्योंकि रेडकॉरीडोर के दूसरे राज्यो में शहर और जंगल-गांव को बिलकुल दो अलग ध्रुव पर रखा गया है। लालगढ में माओवादियों ने समूचे बंगाल से जोड़कर जमीन का सवाल आदिवासियो से आगे बढ़ते हुये किसान और मजदूरो से जोड़ा। बंगाल को लेकर सवाल उठा कि जिन हालातो में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी। चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे है बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है। क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाममोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खड़ा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसका आक्रेष कहां निकलेगा। क्योकि इन तीस सालो में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनो में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी । लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फिसदी कौन डकार गया, इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा । छोटी जोत के कारण 90 फीसदी पट्टेदार और 83 फीसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हुये । इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारो की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालो से भी बदतर है । इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते । लेकिन नया सवाल कहीं ज्यादा गहरा है, क्योकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिस पर खेती हो नहीं सकती। और कंगाल होकर बंद हो चुके उगोगो की 40 हजार एकड़ जमीन फालतू पड़ी है। वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाला छिनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही हैं।
अगर इस परिस्थिति को देश के दूसरे इलाको से जोड़कर देखा जाये तो हर राज्य में इस तरह के सवाल खड़े हो सकते हैं। आधुनिक स्थिति में सबसे विकसित शहरों में एक पुणे के किसानो ने सरकार के एसईजेड के विकल्प के तौर पर अपना एसईजेड रखा। जो कागज पर कही ज्यादा समझदारी वाला और भारतीय परिस्थियों में को-ओपरेटिव को आगे बढ़ाने वाला लगता है। लेकिन राजनीतिक तंत्र बाजार के मुनाफे के आधार को ही खारिज नही कर सकते, यह हर जनादेश के बाद सत्ता 1991 के बाद से खुलकर कहने से कतरा भी नही रही है । इसीलिये रेडकारीडोर पहली बार देश की राजनीति में बहस की गुंजाइश पैदा कर रहा है । क्योंकि जंगल में नया सवाल ग्रामीण आदिवासियों से आगे बढ़ते हुये उस नब्ज को पकड़ना चाह रहा है, जो देश में गांव-शहर की लकीर को ठीक उसी तरह मिटा रही है, जिस तरह विकास की लकीर शहर-गांव को बंट रही है।
इस दौर में नये अक्स वही चुनावी राजनीत भी उभार रही है, जिसे माओवादी समाधान नहीं मानते। खासकर संसदीय राजनीति को लेकर आम वोटर जब सवाल कर रहा है और राजनेताओ को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है तब माओवादियो की पहल किस तरह होनी चाहिये। क्योंकि बढ़ते आंतकवादी हिंसा के दौरान हर तरह की हिंसा को जब एक ही दायरे में रखा जा रहा है, तब कौन से तरीके होने चाहिये जो विकल्प का सवाल भी उठाये और विचारधारा के साथ राजनीति को भी जोड़े । माओवादियो के सामने वैचारिक तौर पर आर्थिक नीतियो को भी लेकर संकट उभरा है । पिछले डेढ दशक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर सरकार पर हमला करने की रणनीति लगातार माओवादियों ने अपनायी । वामपंथी जब यूपीए सरकार में शामिल हुये तो बंगाल में ही माओवादियों ने अपनी जमीन मजबूत की । निशाना आर्थिक नीतियों को लेकर ही रहा । लेकिन आर्थिक नीतियो को लेकर जो फुग्गा या कहे जो सपना दिखाया गया, बाजार व्यवस्था के ढहने से वह तो फूटा लेकिन माओवादियों के सामने बडा सवाल यही है कि आर्थिक नीतियों ने उन्हे आम जनता के बीच पहुंचने के लिये एक हथियार तो दिया... लेकिन अब विकल्प की नीतियों को सामने लाना सबसे बडी चुनौती है। और इसका कोई मजमून माओवादियों के पास नहीं है। खासकर जिन इलाको में माओवादियों ने अपना प्रभाव बनाया भी है, वहां किसी तरह का कोई आर्थिक प्रयोग ऐसा नहीं उभरा है, जिससे बाजार अर्थव्यवस्था के सामानांतर देसी अर्थव्यवस्था अपनाने का सवाल उठा हो। यानी खुद पर निर्भर होकर किसी एक क्षेत्र को कैसे चलाया जा सकता है, इसका कोई प्रयोग सामने नहीं आया है।
नया संकट यह भी है कि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर माओवादी आंदोलनों की कोई रुपरेखा ऐसी बची नही है जो कोई नया कॉरिडोर बनाये । नेपाल में माओवादियों के राजनीतिक प्रयोग को लेकर असहमति की एक बडी रेखा भी माओवादियों के बीच उभरी है। लेकिन सामाजिक तौर पर माओवादियों के सामने बड़ा संकट उन परिस्थितियों में अपनी पैठ बरकरार है, जहां राजनीतिक तौर उन्हें खारिज किया जा रहा है। संसदीय राजनीति से इतर किस तरह की व्यवस्था बहुसंख्यक तबके के लिये अनुकुल होगी माओवादियों के सामने यह भी अनसुलझा सवाल ही बना हुआ है। इसीलिये जो चुनौती सामने है, उसमें बड़ा सवाल यह भी उभर रहा है कि दो दशक पहले जिस आर्थिक सुधार ने देश को सपना दिखाया 2009 में अगर वह टूटता दिख रहा है तो शहरो को भी गांव से कैसे जोड़ा जाये । इसलिये पहली बार इस असफलता को भी माना जा रहा है , कि राजनीतिक क्षेत्र में ट्रेड यूनियन के खत्म होने ने बाजार व्यवस्था के ढहने के बाद शून्यता पैदा हो गयी है।
मजदूरो को लेकर एक समूची व्यवस्था जो वामपंथी मिजाज के साथ बरकरार रहती और राज्य व्यवस्था को चुनौती देकर बहुसंख्य्क जनता को साथ जोड़ती इस बार उसी की अभाव है । पहली बार ग्रामीण और शहरी दोनो स्तर पर राज्य को लेकर आक्रोष है । पहली बार अशिक्षित समाज और उच्च शिक्षित वर्ग भी विकल्प खोज रहा है । खास कर अपनी परिस्थितियों में उसके अनुकूल नौकरी से लेकर आर्थिक सहूलियत का कोई माहौल नहीं बच पा रहा तो भी वामपंथी और माओवादियों दोनो इसका लाभ उठाने में चूक रहे हैं। माओवादियों के भीतर पहली बार इस बात को लेकर कसमसाहट कहीं ज्यादा है कि देश का बहुसंख्यक तबका विकल्प तलाश रहा है और दशकों से विकल्प का सवाल उठाने वालो के पास ही मौका पड़ने पर कोई विकल्प देने के लिये नहीं है । सिवाय इसके की शहर जंगल से ज्यादा बदतर हो चले हैं और मरने के लिये जंगल अब भी शहरो से ज्यादा हसीन है ।
Monday, August 3, 2009
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रेडकॉरिडोर में लाल क्रांति का सपना |
कामरेड अब आगे आप क्या करेगे । वापस जंगल लौट जाऊंगा । कम से कम मरुंगा तो अपनों के बीच । मां के इलाज के लिये भूमिगत जीवन छोड़ कर शहर पहुंचे कामरेड की मां की मौत के बाद कामरेड के इस जबाब ने मुझे अंदर से हिला दिया । क्या वाकई जंगल इतना हसीन है कि उसकी आगोश में मौत भी आ जाये तो वह शहरी जिन्दगी से बेहतर है । फिर जंगल का मतलब है क्या । क्या यह माओवादियों की भाषा में दण्डकारण्य और सरकार की नजर में वही रेड कॉरीडोर है, जो आतंक का पर्याय बना हुआ है।
एक-दो नही बल्कि तेरह राज्यों यानी तमिलनाडु से लेकर बंगाल तक के बीच खींची इस लाल लकीर के भीतर का सच क्या महज इतना ही है कि यहां विकास की कोई लकीर नहीं पहुंची और इसीलिए माओवाद यहां पहुंच गया। या फिर प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इन इलाकों में विकास के नाम पर ही लूट मची है, इसलिये मुनाफे की थ्योरी में बाजार का आतंक ही राज्य के आतंक में तब्दील होकर ग्रामीण-आदिवासियों को भी आतंकवादी करार देने से नहीं कतरा रहा। और ऐसे में समूचे रेड कॉरीडोर का जीवन चक्र सिवाय संघर्ष के बचा नही है, और माओवाद इसी में क्राति के सपने बुनने को तैयार है।
सपने कहां किस रुप में मौजूद हैं, जिसे अमली जामा पहनाने के लिये जंगल जिन्दगी की हकीकत बनी हुई है, यह महज बंदूक उठाये पांच से सात हजार माओवादियों के जरीये नहीं समझा जा सकता है । किसके सपने किस रुप में एक बेहतर जीवन के लिये हर संघर्ष के लिये तैयार हैं, इसके दो चेहरे पिछले दो अलग अलग दौर में उभरे हैं। पहला दौर 1991 का है जब आर्थिक सुधार ने प्रकृतिक संपदा से भरपूर जमीन हथिया कर विकास की लकीर खिंचने का रोमांच फैलाना शुरु किया। इस दौर ने शहरी जीवन की समझ में सीधी लकीर खींच कर समझदारो को बांट दिया। एक रास्ता विकास के बाजार में मुनाफा कमाने के घेरे में आने को बेताब हुआ तो दूसरा रास्ता मानवाधिकार के सवालों को लेकर जंगल-जमीन और शहरी जीवन में तारतम्य बैठाने की जद्दोजहद में आर्थिक सुधार को खारिज करने के लिये खड़ा हुआ।
वहीं दूसरा दौर उस मंदी का है, जो 2008 में आया और वही तबका जंगल-जमीन के सवाल को उठाने के लिये बैचेन हुआ, जिसने 1991 की लहर में मुनाफा कमाने के घेरे में जाने के लिये हर तरह की जद्दोजहद शुरु की थी। नब्बे के दौर में रेड कॉरीडोर के चार राज्य आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उडीसा के सीमान्त पर स्थित पर्वतीय औरजंगलात का इलाका सरकार और नक्सली आंदोलन के विकास और राजनीतिक प्रयोग का आखाडा बना। इस क्षेत्र में महाराष्ट्र के गढचिरोली, चन्द्रपुर, और भण्डारा जिले, आन्ध्र प्रदेश के आदिलाबाद, खम्मम, पूर्व गोदावरी, विसाखापत्तनम जिले , उडीसा का मलकानगिरी जो पुराने कोरापुट के नाम से भी जाना जाता है और मध्य प्रदेश का बस्तर, राजानांदगांव, बालाधाट और मण्डला जिला आते है । असल में 1991 से पहले इस क्षेत्र में अंधेरा जरुर था लेकिन प्रकृतिक संपदा और सौन्दर्य ने ग्रामीण आदिवासियो को जिलाये रखा था। लेकिन 1991 के बाद से देशी-विदेशी कंपनियों की सांठगांठ में विकास का जो चेहरा खड़ा करने की कोशिश इस इलाके में शुरु हुई उसने उन्हीं आदिवासियों को उसी जंगल-जमीन से बेदखल करना शुरु किया, जिनकी जिन्दगी का आधार ही वही था। प्रकृतिक संपदा की लूट या ग्रामीण आदिवासियों के सवाल से इतर इन चारों राज्यो में सरकारो की पहल ने ही शहरी जीवन में एक नयी बहस शुरु की, जिसमें राज्य की भूमिका को लेकर सवाल उठने लगे।
क्योंकि संपदा की लूट को संरक्षण देते हुये राज्य व्यवस्था का एक ऐसा खाका खड़ा हुआ, जिसके खिलाफ जाने का मतलब लोकतांत्रिक मूल्यो के खिलाफ जाना था । संविधान को ना मानने वाला यानी कानून-व्यवस्था के खिलाफ पहल करने वाला होना था । यानी 1991 से पहले किसी भी राज्य में संविधान और कानून के दायरे में मानवाधिकार के सवाल शहरो में उठते थे तो कल्याणकारी राज्य की भूमिका को राजनीतिक दल भी आड़े ले लेते थे । जिससे राज्य की गलत पहल के खिलाफ आवाज उठाने का एक वातावरण बना रहता था । जिससे राज्य सत्ता पर एक तरह से दबाब बना रहता कि वह मनमर्जी न करे । लेकिन आर्थिक सुधार ने इसे नये तरीके से परिभाषित किया। जिसमें पुलिस प्रशासन और सत्ताधारी की भूमिका बदल गयी। क्योंकि विकास का जो खाका खड़ा किया गया, वह उस राजनीति पर भी भारी पड़ा जिसके जरिये लोकतांत्रिक मूल्यों का सवाल चुनावी राजानीति में किसी को सत्ता पर बैठाता था तो किसी को बेदखल कर देता था।
1991 के आम चुनाव में देश का करीब आठ सौ करोड खर्च हुआ और रेड कॉरीडोर के इन चारों राज्यो के विधानसभा चुनाव में करीब साढे तीन सौ करोड रुपये का सरकारी आंकड़ा दिया गया । अगर सरकार की बतायी रकम से ज्यादा भी रकम मान ली जाये तो दुगुनी राशि यानी लोकसभा में सोलह सौ करोड़ और राज्यों में सात सौ करोड़ से ज्यादा का खर्च नही हुआ होगा । लेकिन 1991 से लेकर 1996 तक के दौर में आर्थिक सुधार की लकीर खींचने के लिये इन चार राज्यो के नक्सल प्रभावित इलाको में पचास हजार करोड से ज्यादा की रकम राजनीति के खाते में गयी । जिसमें सत्ता और विपक्ष दोनो की राजनीति और राजनेता शामिल थे। जिस संपत्ति की लूट इन इलाको में शुरु हुई, उसकी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत पचास लाख करोड़ से ज्यादा की थी । देस के दस टॉप उघोगपतियो का डेरा उसी दौर में लगा, जो अब प्राकृतिक संपदा का भरपूर लाभ उठाते हुये बदस्तूर जारी है। जंगल में उघोगपतियो के लाभ को महज इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है कि उस वक्त एक पेड़ की कीमत उघोगपती के लिये तीन पैसे थी, जो अब बढ़ते बढ़ते नौ पैसे हो गयी है।
वहीं बाजार में उस वक्त उस कटे हुये पेड़ की कीमत एक हजार थी, जो अब बढ़कर नौ हजार हो चुकी है । यह स्थित कमोवेश हर संपदा और मजदूरी से जुड़ा है या कहें लूट और मुनाफे का यह अर्थशास्त्र हर वस्तु के साथ जुड़ा था और है , लेकिन विकास से इतर बड़ा सवाल उस राज्य का था जिसकी भूमिका को लेकर जंगल नही शहर परेशान था । पुलिस-प्रशासन के जरीये विकास की इस लकीर को अंजाम देने के लिये जो बजट राज्यो द्रारा बनाया गया वह राज्य के समूचे बजट से बडा हुआ । महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में तो नक्सल प्रभावित इलाको के लिये राज्य बजट से इतर एक दूसरा बजट बनाया गया । जो करीब ढाई गुना ज्यादा था । वहीं उडीसा के जिस बस्तर के आदिवासियों की न्यूनतम जरुरतों को लेकर भी पानी,शिक्षा, स्वास्थ्य और खाने को लेकर कोई योजना आजादी के बाद भी नहीं पहुची, वही संपदा की लूट को संरक्षण देती हुई पुलिस और अधिकारी इस इलाके में लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर बकायदी योजनाओ के साथ जरुर पहुंचे। इनके पीछे भी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में माल पहुंचाने की एवज में राज्य का पैसा ही था जो कमीशन से मिला था । उडीसा में बतौर कमीशन सबसे ज्यादा धन गया। करीब पांच हजार करोड तक । लेकिन इस दौर में नया सवाल राजनीतिक शून्यता का उभरा और लोकतांत्रिक मूल्यों के तहत मानवाधिकार को नये तरीके से परिभाषित करने की राजनीतिक थ्योरी का उभरा । इस प्रक्रिया के विरोध का मतलब व्यवस्था का विरोध था । जिसे राज्य बर्दाश्त नहीं करता । इसका असर प्रभावित राज्यो में दोतरफा दिखा । एक तरफ कॉलेज से निकल रहे छात्रों के सामने फैलते बाजार का हिस्सा बनकर हर सुविधा को भोगना था तो दूसरी तरफ कॉलेज से काफी पहले निकल कर नौकरी करता हुआ वह तबका था जो अर्थव्यव्स्था के इस बाजारी चक्र में मानवीयता और राज्य के कल्याणकारी होने के सबब को जगाना चाहता था।
इन चारो राज्यो में राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनो से जुड़े करीब साढ़े तीन लाख से ज्यादा शहरी व्यक्तियों को सरकारी तंत्र ने उन मामलो में घेरा जो जंगल जमीन के मद्देनजर सरकार की नीतियों का विरोध करने अलग अलग जगहों पर सडक पर उतरे । मसलन नागपुर से करीब सवा सौ किलोमीटर दूर तोतलाडोह के मेलघाट में टाइगर प्रोजेक्ट 1993 में लाया गया । पूरा इलाका रिजर्व फारेस्ट में ले आया गया । जहा पेड़ की एक डाली काटने का मतलब था पचास रुपये का चालान और नदी में एक मछली पकडने का मतलब था सौ रुपये का जुर्माना । संकट जंगल में रहने वाले आदिवासियो और मधुआरो पर आया । करीब बीस हजार ग्रामीण आदिवासी जाये कहा और उनकी रोजी रोटी कैसे चलेगी इसपर जब महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ शहर के सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनो से जुडे लोग सडको पर उतरे तो उनपर नकेल कसने के लिये प्रशासन ने पहले इलाके को नक्सली प्रभावित वाला करार दिया। फिर सभी पर उस दौर में आतंकवादी निरोधक कानून टाडा लगाने की प्रक्रिया शुरु कर दी । इसके साथ ही जब टाइगर प्रोजेक्ट से नक्सल शब्द जुड़ा तो नक्सल उन्मूलन के बजट का बडा हिस्सा भी यहां पहुंचा। 1995 में पहुंचे बीस करोड का क्या हुआ, इसकी जानकारी राजनीति ने ही ठंडे बस्ते में डाल दी। यह इलाका अब के कांग्रेसी सांसद मुकुल वासनिक के इलाके में आता है । लेकिन उस दौर में शहर के करीब तीन हजार लोगो पर पुलिस ने अलग अलग अलग धाराये लगायी और 75 आदिवासियों पर टाडा की धारायें लगाकर जेल में बंद कर दिया । शहर के आंदोलनकारियों को समझ नही आया कि वह आदिवासियों के हक का सवाल कैसे उठायें।
वहीं आदिवासियो को समझ नहीं आया कि अपने हक के लिये खड़े होते ही उन्हे नक्सली मान कर जेल में ठूंस दिया गया तो उनके सामने रास्ता क्या है । लेकिन टाइगर प्रोजेक्ट पर सरकार की इस नायाब पहल ने प्रोजेक्ट को कितना आगे बढाया यह 2009 में केन्द्र सरकार की रिपोर्ट से समझा जा सकता है कि मेलघाट टाइगर परियोजना में एक भी टाइगर नहीं है। वहीं इस क्षेत्र के दस आदिवासी अभी भी टाडा के तहत जेल में बंद है और 25 आदिवासी टाडा की धाराओं का जबाब देने के लिये हर महीने अदालत की चक्कर लगाते रहते है । दरअसल, यह स्थिति अलग अलग परियोजनाओं के तहत हर इलाके में आयी। पावर प्रोजेक्ट से लेकर सीमेंट-स्टील फैक्टरी और कागज फैक्टी से लेकर खनन परियोजनाओ के तहत भी आदिवासियों पर बंदिशे लगायी गयीं। ऐसे में आदिवासियो के विरोध को आदिवासियो तक ही सिमटाया जाता तो मानवाधिकार के मामले के तहत सरकारें फंस सकती थी । लेकिन इनके हक में सांसकृतिक संगठन दलित रंगभूमि से लेकर आह्वान नाट्य मंच तक के कलाकारो को पहले इन इलाको में आदिवासियो की आवाज उठाने के लिये उसी राजनीति ने प्रेरित किया, जिसने बाद में आपसी गठबंधन कर सभी को नक्सली मान कर पुलिसिया कार्रवाई को उचित ठहराया।
यानी एक पूरा तंत्र इस बात को साबित करने में लगा कि हर वह जगह जहां योजनाये पहुंच रही हैं, वहां नक्सली पहले पहुंचते है और योजनाओ को रोक देते हैं । इसलिये लड़ाई विकास और विकास विरोधी सोच की है । लोकिन 1991 में खींची यह लकीर 2008 में मंदी के साथ कैसे बदली यह भी इन इलाको के विस्तार के साथ समझा जा सकता है ।
(जारी............)