Friday, January 10, 2020
जेएनयू की लहुलुहान पगडंडियो पर कभी कीट्स की प्रेम कविताये का जिक्र था...
Posted by
Punya Prasun Bajpai
at
1:05 PM
12
comments
Links to this post
Thursday, January 9, 2020
प्रधानमंत्री मोदी ने बटन दबाया लेकिन किसानो तक कुछ नहीं पहुंचा
ReplyReply allForward
|
Posted by
Punya Prasun Bajpai
at
9:26 PM
2
comments
Links to this post
Tuesday, August 20, 2019
दिल में हिलोरे हो और बाहर ठहराव तो समझ लिजिये ये ख्य्याम का संगीत है
ना तो सियासत में सुकुन । ना ही सिनेमा में सुकुन । ना तो संगीत में सुकुन । आपकी हथेलियों में घडकते मोबाइल और दिलो में कौघतें विचार ही जब जल्दबाजी में सबकुछ लुटा देने पर आमादा हो तब आप कौन सा गीत और किस संगीत को सुनना पसंद करेगें । यकीनन भागती दौडती जिन्दगी में आपको सुकुन गंगा, गांधी और गीत में ही मिलेगा । और इन तीनो के साथ एक इत्मिनान का संगीत ही आपको किसी दूसरी दुनिया में ले जायेगा । और इस कडी में नाम कई होगें लेकिन कोहूनूर तो मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम हाशमी उर्फ 'ख़य्याम' ही है । जिनका ताल्लुक संगीत की उस जमात से रहा है जहाँ इत्मीनान और सुकून के साये तले बैठकर संगीत रचने की रवायत रही है । ख़य्याम का नाम किसी फ़िल्म के साथ जुड़ने का मतलब ही यह समझा जाता था कि फ़िल्म में लीक से हटकर और शोर-शराबे से दूरी रखने वाले संगीत की जगह बनती है, इसलिए यह संगीतकार वहाँ मौजूद है । ख़य्याम का होना ही इस बात की शर्त व सीमा दोनों एक साथ तय कर देते थे कि उनके द्वारा रची जाने वाली फ़िल्म में स्तरीय ढंग का संगीत होने के साथ-साथ भावनाओं को तरजीह देने वाला रूहानी संगीत भी प्रभावी ढंग से मौजूद होगा । फेरहिस्त यकीनन लंबी है । लेकिन इस लंबी फेरहिस्त में से कोई भी चार लाइनें उठा कर पढना शुरु किजिये , चाहे अनचाहे आपके दिल-दिमाग में संगीत बजने लगेगा और यही संगीत ख्य्याम का होगा । और ख्य्याम यू ही ख्य्याम नहीं बन गये । सहगल के फैन । मुंबई जाकर हीरो बनने की चाहत । लाहौर में संगीत सीखने का जुनुन और फिर इश्क में सबकुछ गंवाकर संगीत पाने का नाम ही ख्य्याम है । ख्य्याम के इश्क में गोते लगाने से पहले सोचिये ख्ययाम संगत दे रहे है और पत्नी गीत गा रही है । और गीत के बोल है ......"तुम अपना रंज-ओ-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो , / तुम्हें ग़म की क़सम, इस दिल की वीरानी मुझे दे दो , / मैं देखूँ तो सही दुनिया तुम्हें कैसे सताती है , / कोई दिन के लिए अपनी निगहबानी मुझे दे दो" .ख़य्याम के जीवन में उनकी पत्नी जगजीत कौर का बहुत बड़ा योगदान रहा जिसका ज़िक्र करना वो किसी मंच पर नहीं भूलते थे.अच्छे ख़ासे अमीर सिख परिवार से आने वाली जगजीत कौर ने उस वक़्त ख़य्याम से शादी की जब वो संघर्ष कर रहे थे. मज़हब और पैसा कुछ भी दो प्रेमियों के बीच दीवार न बन सका । यहा ख्य्याम को याद करते करते जिक्र जगजीत कौर [ पत्नी ] का जरुरी है क्योकि संगीत में संयम और ठहराव का जो जिक्र आपने कानो में ख्य्याम के गूंज रहा है वह जगजीत के बगैर संभव नही नहीं पाता । क्यकि ख्य्याम साहेब की पत्नी जगजीत कौर ख़ुद भी बहुत उम्दा गायिका रही हैं। अगर आपने ना सुना हो ये नाम तो फिर उनकी आवाज में फिल्म बाजार का नगमा ...' देख लो हमको जी भरके देख लो...' या फिर फिल्म उमराव जान में ...."काहे को बयाहे बिदेस.." सुनते हुये आपी आंखो में आंसू टपक जायेगें और एक इंटरव्यू में ख्य्याम साहेब ने जिक्र भी किया संगीत देते वक्त वह भावुक नहीं हुये लेकिन पत्नी की आवाज ने जिस तरह शब्दो को जीवंत कर दिया उसे सुनने वक्त वह रिकार्डिंग के वक्त ही रो पडे । लेकिन ख्य्याम के पीछे संगीत में संगत देने के लिये हर वक्त मौजूद रहन वाली जगजीत ने फिल्मो के गीतो को गाने को लकर ना तो जलदबाजी की ना ही गीतकारो में अपनी शुमारी की । सिर्फ सुकुन भरे संगीत के लिये ख्यायम के साथ ही खडी रही । इसका बेहतरीन उदाहरण उमराव जान और कभी कभी का संगीत है । और कल्पना किजिये साहिर की कलम । मुकेश की आवाज । उसपर ख्य्याम का संगीत.... यहाँ याद आता है कभी कभी का गीत - "मैं पल दो पल का शायर हूँ"….."कल और आएँगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले / मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले / कल कोई मुझको याद करे, क्यों कोई मुझको याद करे / मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यूँ वक़्त अपना बर्बाद करे / मैं पल दो पल का शायर हूँ.....70 के दशक के शायरो की पूरी पीढी ही इस गीत को गुनगुनाते ही बडी हो गयी । दरअसल ख़य्याम हर लिहाज़ से एक स्वतंत्र, विचारवान और स्वयं को सम्बोधित ऐसे आत्मकेंद्रित संगीतकार रहे हैं जिनकी शैली के अनूठेपन ने ही उनको सबसे अलग क़िस्म का कलाकार बनाया है । लेकिन ये सब इतनी आसानी से हुआ नहीं । क्योकि जिस परिवार का फिल्म या संगीत से कोई वास्ता ही नहीं था । उल्टे परिवार में कोई इमामको कोई मुअज्जिन । और 18 फ़रवरी 1927 को पंजाब में जन्मे ख़य्याम पर नशा के एल सहगल का । लेकिन असफलता ने पहुंचा लाहौर बाबा चिश्ती (संगीतकार ग़ुलाम अहमद चिश्ती) के पास ले गई जिनके फ़िल्मी घरानों में ख़ूब ताल्लुक़ात थे. लाहौर तब फ़िल्मों का गढ़ हुआ करता था । उस चौखट से जो सीखा उसकी परीक्षा की घडी भी भारत की आजादी के साथ जुडी है 1947 में हीर रांझा से ख्य्याम का सफर शुरु होता है । फिर रोमियो जूलियट जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया और गाना भी गाया. । लेकिन सबसे बेहतरीन वाकया है कि राजकपूर 1958 में जब फिल्म ' फिर सुबह होगी ' बनाते है तो वह ऐसे शख्स को खोजते है जिसने उपन्यास क्राइम एंड पनिशमेंट पढी हो । क्योकि फिल्म इसी उपन्यास से प्ररित या कहे आधारित थी । और ख्ययाम ने ये किताब पढ रखी थी तो राजकपूर उनसे ही संगीत निर्देशन करवाते है । ख़य्याम ने 70 और 80 के दशक में कभी-कभी, त्रिशूल, ख़ानदान, नूरी, थोड़ी सी बेवफ़ाई, दर्द, आहिस्ता आहिस्ता, दिल-ए-नादान, बाज़ार, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में एक से बढ़कर एक गाने दिए. ये शायद उनके करियर का गोल्डन पीरियड था.। याक किजिये इस गोल्डन दौर का एक गीत....."कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता / कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता / जिसे भी देखिए वो अपने आप में गुम है / ज़ुबां मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता"...1981 में इस गीत को संगीत ख्य्याम ने ही दिया । क्या कहे ख्य्याम की तरह का संगीत रचने वाला कोई दूसरा फ़नकार नहीं हुआ । या फिर उनकी शैली पर न तो किसी पूर्ववर्ती संगीतकार की कोई छाया पड़ती नज़र आती है न ही उनके बाद आने वाले किसी संगीतकार के यहाँ ख़य्याम की शैली का अनुसरण ही दिखाई पड़ता है । तो क्या अब सुकुन और ठहराव की मौत सिल्वर स्क्रिन पर हो चुकी है । पर आधुनिक तकनीक की दौर में गीत-संगीत कहां मरेगें....मौका मिले तो अकेले में कभी इस गीत को सनिये....ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है / हर हे निगाह तक जहां , गुबार ही गुबार है ये किसी मकां पर हयात , मुझको ले कर आ गई / न बस खुशी पे है जहां ना गम पे इख्तियार है ... फिर सोचिये कोई अकेला और स्वतंत्र संगीतकार अपने भीतर क्या कछ समेटे रहा है । जो अंदर तो हिलोरे मारता है लेकिन बाहर ठहराव देता है ।
Posted by
Punya Prasun Bajpai
at
12:14 PM
16
comments
Links to this post
Sunday, August 11, 2019
धारा 370 के हटने का पहला शिकार लोकतंत्र
" डायल किये गये नंबर पर इस समय इन-कमिंग काल की सुविधा नहीं है....'' इधर लोकतंत्र के मंदिर संसद में धारा 370 खत्म करने का एलान हुआ और उधर कशमीर से सारे तार काट दिये गये । धाटी के हर मोबाइल पर संवाद की जगह यही रिकार्डड जवाब 5 अगस्त की सुबह से जो शुरु हुआ वह 6 अगस्त को भी जारी रहा । यू भी जिस कश्मीरी जनता की जिन्दगी को संवारने का वादा लोकतंत्र के मंदिर में किया गया उसी जनता को घरों में कैद रहने का फरमान भी सुना दिया गया । तो लोकतंत्र का लाने के लिये लोकतंत्र का ही सबसे पहले गला जिस तरह दबाया गया उसके अक्स का सच तो ये भी है कि ना कशमीरी जनता से कोई संवाद या भरोसे में लेने की पहल । ना ही संसद के भीतर किसी तरह का संवाद । और सीधे जिस अंदाज में जम्मू कशमीर राज्य भी केन्द्र शासित राज्य में तब्दिल कर दिल्ली ने अपनी शासन व्यवस्था में ला खडा किया उसने पहली बार खुले तौर पर मैसेज दिया अब दिल्ली वह दिल्ली नहीं जो 1988 की तर्ज पर जम्मू कश्मीर चुनाव को चुरायेगी । दिल्ली 50 और 60 के दशक वाली भी नहीं जब संभल संभल कर लोकतंत्र को जिन्दा रखने का नाटक किया जाता था । अब तो खुले तौर पर संसद के भीतर बाहर कैसे सांसदो और राजनीतिक दलो को भी खरीद कर या डरा कर लोकतंत्र जिन्दा रखा जाता है , ये छुपाने की कोई जररत नहीं है । क्योकि लोकतंत्र की नाटकियता का पटाक्षेप किया जा चुका है । अब लोकतंत्र का मतलब खौफ में रहना है । अब लोकतंत्र का मतलब राष्ट्रवाद का ऐसा गान है जिसमें धर्म का भी ध्रुवीकरण होना है और किसी संकट को दबाने के लिये किसी बडे संकट को खडा कर लोकतंत्र का गान करना है ।
पर इसकी जररत अभी ही क्यों पडी या फिर बीते दस दिनो में ऐसा क्या हुआ जिसने मोदी सत्ता को भीतर से बैचेन कर दिया कि वह किसी से कोई संवाद बनाये बगैर ही ऐसे निर्णय ले लें जो भारत के भीतर और बाहर के हालातो के केन्द्र में देश को ला खडा करें । तो संकट आर्थिक है और उसे किस हद तक उभरने से रोका जा सकता है इस सवाल का जवाब मोदी सत्ता के पास नहीं है । क्योकि खस्ता इक्नामी के हालात पहली बार कारपोरेट को भी सरकार विरोधी जुबा दे चुके है । और कारपोरेट प्रेम भी जब सेलेक्टिव हो चुका है तो फिर संलेक्टिव को सत्ता लाभ तो दिला सकती है लेकिन सेलेक्टिव कारपोरेट के जरीये देश की इक्नामी पटरी पर ला नहीं सकती । और किसान-मजदूर-गरीबो को लेकर जो वादे लगातार किये है उससे हाथ पिछे भी नहीं खिंच सकते । यानी बीजेपी का पारंपरिक साथ जिस व्यापारी-कारपोरेट का रहा है उस पर टैक्स की मार मोदी सत्ता में सबसे भयावह तरीके से उभरी है । तो आर्थिक संकट से ध्यान कैसे भटकेगा । क्योकि अगर कोई ये सोचता है कि अब कश्मीर में पूंजीपति जमीन खरीदेगा तो ये भी भ्रम है । क्योकि पूंजी कभी वहा कोई नहीं लगाता जहा संकट हो । लेकिन कशमीर की नई स्थिति रेडिकल हिन्दुओ को घाटी जरर ले जायेगी । यानी लकीर बारिक है लेकिन समजना होगा कि नये हालात में हिन्दु समाज के भीतर उत्साह है और मुस्लिम समाज के भीतर डर है । यानी 1989-90 के दौर में जिस तरह कशमीरी पंडितो का पलायन घाटी से हुआ अब उनके लिये घाटी लौटने से ज्यादा बडा रास्ता उन कट्टर हिन्दुओ के लिये बनाने काी तैयारी है जिससे घाटी में अभी तक बहुसंख्यक मुसलमान अल्संख्यक भी हो जाये । दूसरी तरफ आर्थिक विषमता भी बढ जाये । और सबसे बडी बात तो ये है कि अब कशमीर के मुद्दो या मश्किल हालात का समाधान भी राज्य के नेता करने की स्थिति में नहीं होगें । क्योकि सारी ताकत लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास होगी । जो सीएम की सुनेगा नहीं । यानी सेकेंड ग्रेड सीटीजन के तौर पर कश्मीर में भी मुस्लिमो को रहना होगा । अन्यथा कट्टर हिन्दओ की बहुतायत सिविल वार वाले हालात पैदा होगें । दरअसल कश्मीरी की नई नीति ने आरएसएस को भी अब बीजेपी में तब्दिल होने के लिये मजबूर कर दिया । यानी अब मोदी सत्ता को कोई भय आर्थिक नीतियों को लेकर या गवर्नेंस को लेकर संघ से तो कतई नहीं होगा क्योकि संघ के एंजेडे को ही मोदी सत्ता ने आत्मसात कर लिया है । याद किजिये 1948 में महातामा गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध ने संघ की साख खत्म कर दी थी और जब संघ पर से बैन खत्म हआ तो सामने मुद्दो का संकट था । ऐसे में 21 अक्टूबर 1951 में जब जंनसघ का पहला राष्टीय अधिवेशन हआ तब पहले घोषणापत्र में जिन चार मुद्दो पर जोर दिया गया उसमें धारा 370 का विरोध यानी जम्मूकश्मीर का भारतीय संघ में पूर्ण एकीकरण औऱ अल्संख्यको को किसी भी तरह के विशेषाधिकार का विरोध मुख्य था । औऱ ध्यान दें तो जून 2002 में कुरुक्षेत्र में हुई संघ के कार्यकारी मंडल की बैठक में जम्मू कश्मीर के समाधान के जिस रास्ते को बताया गया और बकायदा प्रस्ताव पास किया गया । संसद में गृहमंत्री अमित शाह ने शब्दश उसी प्रस्ताव का पाठ किया । सिवाय जम्मू को राज्य का दर्जा देने की जगह केन्द्र शासित राज्य के दायरे में ला खडा किया ।
तो आखरी सवाल यही है कि क्या कश्मीर के भीतर अब भारत के किसी भी प्रांत से किसी भी जाति धर्म के लोग देश के किसी भी दूसरे राज्य की तरह जाकर रह सकते है । बस ससे है । तो क्या कश्मीरी मुसलमानो को भी देश के किसी भी हिस्से में जाने-बसने या सुकुन की जिन्दगी जीने का वातावरण मिल जायेगा । क्योकि कश्मीर में अब सत्ता हर दूरे राज्य के व्यक्तियो के लिये राह बनाने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल को भेज चुकी है । लेकिन कश्मीर के बाहर कश्मीरियो के लिये जब शिक्षा-रोजगार तक को लेकर संकट है तो फिर उसका रास्ता कौन बनायेगा ।
Posted by
Punya Prasun Bajpai
at
5:34 PM
10
comments
Links to this post
Monday, July 22, 2019
लोकतंत्र की लिंचिग मत किजिये......
अगर कर्नाटक विधानसभा में सोमवार को भी स्पीकर बहुमत साबित करने की प्रक्रिया टाल देते है । यानी राज्यपाल और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को कुमारस्वामी सरकार अनदेखा कर देती है तो होगा कया ? जाहिर है सामान्य स्थितिया रहती तो स्पीकर के कार्य संविधान के खिलाफ करार दे दिये जाते । लेकिन टकराव की बात कर हालात को टाला जा रहा है । लेकिन नया सवाल से है कि आखिर हफ्ते भर से कौन सी ताकत कुमारस्वामी सरकार को मिल गई है जिसमें उसका बहुमत खिसकने बाद भी वह सत्ता में है । असल में लोकतंत्र का संकट यही है कि राजनीतिक सत्ता ही जब खुद को सबकुछ मानने लगे और संवैधानिक तौर पर स्वयत्त संस्थाये भी जब राजनीतिक सत्ता के लिय काम करती हुई दिखायी देने लगे तो फिर लोकतंत्र की लिचिंग शुरु हो जाती है । और रोकने वाला कोई नहीं होता । यहा तक की लोकतंत्र की परिभाषा भी बदलने लगती है । और ये असर सडक पर सत्ता की कार्यप्रणली से उभरता है । यानी सडक पर भीडतंत्र को ही अगर न्यायतंत्र की मान्यता मिलने लगे । हत्यारो की भीड के सामने राज्य की कानून व्यवस्था नतमस्तक होने लगे । तो असर तो लोकतंत्र क मंदिर तक भी पहुंचगा । तो आईये जरा सिलसिलेवार तरीके से हालात को परखे । कर्नाटक में बागी विधायको [ काग्रेस और जेडीएस ] ने विधायिका के सामने अपने सवाल नहीं उठाये बल्कि न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाया । और सुप्रीम कोर्ट ने भी बिना देर किये ये निर्देश दे दिया कि कि बागी विधायको पर व्हिप लागू नहीं होता । तो झटके में पहला सवाल यही उठा कि , ' क्या सुप्रीम कोर्ट ने विधायिका के विशेष क्षेत्र में हस्तक्षेप करके अपनी सीमा पार की है । ' क्योकि संविधान जानने वाला हर शख्स जानता है कि , ''संविधान में शक्तियों के विभाजन पर बहुत सावधानी बरती गई है. विधायिका और संसद अपने क्षेत्र में काम करते हैं और न्यायपालिका अपने क्षेत्र में. आमतौर पर दोनों के बीच टकराव नहीं होता. ब्रिटिश संसद के समय से बने क़ानून के मुताबिक़ अदालत विधायिका के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करती.'' तो फिर सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश का मतलब क्या होगा जब वह कहता है कि ,स्पीकर को विधायकों के इस्तीफ़े स्वीकार करने या न करने या उन्हें अयोग्य क़रार देने का अधिकार है. लेकिन 15 बाग़ी विधायकों विधानसभा की प्रक्रिया से अनुपस्थित रहने की स्वतंत्रता दे दी। " यानी झटके में राजनीतिक पार्टी का कोई मतलब ही नहीं बचा । सवाल सिर्फ व्हिप भर का नहीं है बलकि राजनीतिक पार्टी के अधिकारों के हनन का भी है ।'' फिर सुप्रीम कोर्ट के तीन जजो की बेंच का फैसला ढाई दशक पहले 1994 में पांच न्यायधीशो वाली पीठ के फैसले के भी उलट है । क्योकि तब राजनीतिक दलो के विधायको के बागी होने पर ये व्यवस्था करने की बात थी कि विधायक जब जनता के बीच अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह के साथ गया । लडा और जीत कर विधायक बन गया तो फिर जनता ने उम्मीदवार के साथ राजनीतिक दल को भी देखा । ऐसे में बागी विधायक कैसे पार्टी नियम ' व्हिप ' से अलग हो सकता है । यानी अगर ऐसा होने लगे तो फिर किसी भी राज्य भी बहुमत की सरकार में मंत्री पद ना पाने वाले विधायक या फिर अपने हाईकमान से नाराज विधायक या मंत्री भी झटके में विपक्ष के साथ मिलकर चुनी हुई सत्ता भी गिरा देगें । फिर कर्नाटक में खुले तौर पर जिस तरह विधायको की खरीद फरोख्त या लाभालाभ देने के हालात है उसमें कोई भी कह सकता है कि जिसकी सत्ता है उसी का संविधान है उसी का लोकतंत्र है । और जब ये सोच सर्वव्यापी हो चली है तो फिर आखरी सवाल य भी है कि अगर कुमारस्वामी सरकार विधानसभा में बहुमत साबित करने को टालते रहे तो होगा क्या । लोकतंत्र की धज्जियां पहले भी उडी और बाद भी उडेगी । यानी झटके में ये सवाल उठने लगेगा कि सरकार गिराना अगर सही है तो फिर सरकार बचाना भी सही है । चाहे कोई भी हथकंडा अपनाया जाये । फिर ध्यान दिजिये तो विधानसभा में लोकतंत्र की इस लिचिंग के पीछे सडक पर होने वाली लिचिग का असर भी कही ना कही नजर आयेगा ही । क्यकि बीते पांच बरस में 104 लिचिंग की घटनाय देश भर में हुई । 60 से ज्यादा हत्याये हो गई । दो दिन पहले ही बिहार के छपरा में भी लिचंग हुई और लिचिंग से जयादा विभत्स स्थिति उत्तरप्रदेश के सोनभद्र में नजर आई । छपरा में तो चोर कहकर तीन लोगो की सरेराह हत्या कर दी गई । लेकिन सोनभद्र में सामूहिक तौर पर नंरसंहार की खूनी होली को अंजाम दिया गया । लेकिन इस कडी में कही ज्यादा महत्वपूर्ण है कि लिचिग करने वाले या हत्यारो को राजनीतिक संरक्षण खुलेतौर पर दिया गया । यानी हजारीबाग या नवादा में कैबिनट मंत्रियो के लिचिंग करने वालो की पीठ छोकना भर नहीं है बल्कि 2019 के चुनाव में लिचिंग के आरोपी चुनावी प्रचार में खुले तौर पर उभरे । जिला स्तर पर कई नेता भी बन गये । यानी 1994 में सुप्रीम कोर्ट जब राजनीतिक दल के साथ विधायक का जुडाव वैचारिक तौर पर देख रही थी और बागी विधायक को स्वतंत्र नहीं मान रही थी । 2019 में आते आते सुप्रीम कोर्ट विधायक को उसकी अपनी पार्टी से ही स्वतंत्र भी मान रही है और खुले तौर लिचिंग करने वाले भी अपनी वैचारिक समझ को सत्ता के साथ जोड कर कानून व्यवस्था को ठेंगा दिखाने से भी नही हिचक रहे है । और राजनीति भी सत्ता के लिये हर उस अपराधी को साथ लेने से हिचक नहीं रह है जो चुनाव जीत सकता है । जीता सकता है । या सत्ता का खेल बिगाड कर विपक्ष को सत्ता में बैठा सकता है । यानी मौजूदा लोकतंत्र का त्रासदीदायक सच यही है कि जनता सिर्फ लोकतंत्र के लिये टूल बना दी गयी है । विधानसभा में जनता ने जिसे हराया लोकतंत्र की लिचिंग का खेल उसे हारे हुये को मौका देता है कि जीते को खरीदकर खुद सत्ता में बैठ जाओ । और सडक पर लिचिंग करने वाले को मौका है कि हत्या के बाद वह अपनी धारदार पहचान बनाकर सत्ता में शामिल हो जायें ।
Posted by
Punya Prasun Bajpai
at
11:05 AM
13
comments
Links to this post
Wednesday, July 17, 2019
" भागी हुई लडकियां "
घर की जंजीरे / कितना ज्यादा दिखायी पडती है / जब घर से कोई लडकी भागती है.... बीस बरस पहले कवि आलोक धन्वा ने " भागी हुई लडकियां " कविता लिखी तो उन्हे भी ये एहसास नही होगा कि बीत बरस बाद भी उनकी कविता की पंक्तियो की ही तरह घर से भागी हुई साक्षी भी जिन सवालो को अपने ताकतवर विधायक पिता की चारहदिवारी से बाहर निकल कर उठायेगी वह भारतीय समाज के उस खोखलेपन को उभार देगी जो मुनाफे-ताकत-पूंजी तले समा चुका है । ये कोई अजिबोगरीब हालात नहीं है कि न्यूचैनल की स्क्रिन पर रेगते खुशनुमा लडकियो के चेहरे खुद को प्रोडक्ट मान कर हर एहसास , भावनाये , और रिश्तो को भी तार तार करने पर आमादा भी है और टीआरपी के जरीये पूंजी बटोरने की चाहत में अपने होने का एहसास कराने पर भी आमादा है । दरअसल बरेली के विधायक की बेटी साक्षी अपने प्रेमी पति से विवाह रचाकर घर से क्या भागी वह सोशल मीडिया से लेकर टीवी स्क्रिन पर तमाशा बना दिया गया । भावनाओ और रिश्तो को टीआरपी के जरीये कमाई का जरीये बना दिया गया । तो कानून व्यवस्था से लेकर न्यायापालिका के सामने सिवाय एक घटना से दोनो रेंग ना सके । जबकि देश का सच तो ये भी कि हर दिन 1200 भागे हुये बच्चो की शिकायत पुलिस थानो तक पहुंचती है । हर महीन ये तादाद 3600 है और हर बरस चार लाख से ज्यादा । और तो और भागे हुये बच्चो में 52 फिसदी लडकिया ही होती है । लेकिन हमेशा ऐसा होता नहीं है कि लडका -लडकी एक साथ भागे । और पुलिस फाइल में जांच का दायरा अक्सर लडकियो को वैश्यावृति में ढकेले जाने से लेकर बच्चो के अंगो को बेचने या भीख मंगवाने पर जा टिकता है । लेकिन समाज कभी इस पर चिंतन कर ही नहीं पाती कि आखिर वह कौन से हालात होते है जो बच्चो को घर से भागने को मजबूर कर देते है । यहा बात भूख और गरीबी में पलने वाले बच्चो का जिक्र नहीं है बल्कि खाते पीते परिवारो के बच्च को जिक्र है । और इस अक्स में जब आप पश्चमी दुनिया के भीतर भागने वाले बच्चो पर नजर डालेगें तो आपको आश्चर्य होगा कि जिस गंभीर परिस्थियों पर बच्चो के भागने के बाद भी हमारा समाज चर्चा करने को तैयार नहीं है । उसकी संवेदनशीलता को समझने के लिये टीवी स्क्रिन पर खुशनुमा लडकिया ही समझने को तैयार नहीं है । वही इस एहसास को पश्चमी देशो ने साठ-सत्तर के दशक में बाखुबी चर्चा की । बहस की । सुधार के उपाय खोजे और माना कि पूंजी या कहे रुपया हर खुश को खरीद नहीं सकता है । यानी एक तरफ ब्रिटेन-अमेरीका में साठ के दशक में बच्चो के घर से भागने पर ये चर्चा हो रही थी कि क्या पैसे से खुशी खरीदी जा सकती है । क्या पैसे से सुकून खरीदा जा सकता है । क्या पैसे से दिली मोहब्बत खरीदी जा सकती है । यानी भारतीय समाज के भीतर का मौजूदा सच साक्षी के जरीये उस दिसा में सोचने ही नहीं दे रहा है कि बहत से मा बाप जो अपनी ज़िंदगी में पैसे कमाने में मशगूल होते हैं. वो अपने बच्चों को ढेर सारे खिलौने दिला देते हैं. तमाम तरह की सुख-सुविधाओं का इंतज़ाम कर देते हैं. नए-नए गैजेट्स, मोबाइल, शानदार गाड़ियां वग़ैरह...सामान की उनके बच्चों की कोई कमी नहीं होती. ऐसे बच्चों को कमी खलती है, मां-बाप की. उनकी मोहब्बत की. । बकायादा बीबीसी ने तो 1967 में घर से भागी उस लडकी के जीवन को पचास बरस बाद जब परखा तो ये सवाल कई संदर्भो में बडा हो गया कि क्या पचास बरस में वह चक्र पूरा हो चुका है जब हम जिन्दगी और रिश्तो के एहसास को खत्म कर चुके है । और दुनिया के सबसे बडे बाजार के तौर पर खुद को बनाने में लगा भारत भी हर खुशी को सिर्फ मुनाफे, पूंजी, रुपये में भी देख-मान रहा है । लेखक बेंजामिन ने तो अपनी रिपोर्ट में बताया कि ऐसे बहुत से बच्चे होते हैं, जो उकताकर घर छोड़कर भाग जाते हैं । और पिछली सदी के साठ के दशक में एक दौर ऐसा आया था जब पश्चिमी देशों में बच्चे ही अपनी दुनिया से उकताए, घबराए और परेशान थे. उन्हें सुकून नहीं था. उन्हें अपनी भी फ़िक्र हो रही थी और दूसरों की भी.। भारत में चाहे गढे जा रहे उपभोक्ता समाज को यह तमीज अभ भी नहीं है लेकिन 50 बर पहले लंदन से भागी एक लडकी की कहानी को ब्रिटिश मीडिया ने पूंजीवाद के संकट और बच्चो की दुनिया के एहसास तले उठाया था । और मीडिया की कहानी पढ़कर मशहूर रॉक बैंड द बीटल्स ने मेलानी की कहानी पर एक गाना तैयार किया था, जिसका नाम था- "शी इज लिविंग होम । " इस गाने को सर पॉल मैकार्टिनी और जॉन लेनन ने मिलकर तैयार किया था. गाने में मेलानी को और उस जैसे घर छोड़कर भागने वाले तमाम बच्चों का दर्द भी था, तो उनके मां-बाप की तकलीफ़ भी बयां की गई थी ।
और बकायदा गाने के बोलों के ज़रिए कहा गया था कि मां-बाप अपने भागने वाले बच्चों के बारे में सोचते हैं कि उन्होंने तो उसे सब सुविधाएं दीं, फिर भी बच्चे उन्हें छोड़कर चले गए. । वहीं घर छोड़कर भागने वाले बच्चों की तरफ से भी गाने में कहा गया था कि वो अपने भीतर कुछ खोया सा, कुछ टूटा सा महसूस करते हैं. उन्हें लगता है कि बरसों से उनका हक़, उनके हिस्से की मोहब्बत छीनी जाती रही है । ऐसा ही गाना 1966 में साइमन और गारफंकेल ने" रिचर्ड कोरी " के नाम से तैयार किया था. इसमें भी पैसे और ख़ुशी के बीच की खाई को बयां किया गया था। भारत में तो सालाना चार लाख 30 हजार का आंकडा घर छोड बच्चो के भागने का है लेकिन तब अमेरिका में एक वक्त ये आंकडा पांच लाख पार कर गया था । 1967 से 1971 के बीच अमरीका में क़रीब पांच लाख लोग अपना घर छोड़कर भागे थे. ये लोग ऐसे समुदाय बनाकर रह रहे थे, जो बाक़ी समाज से अलग था. इसे नए तजुर्बे वाले समुदाय कहा जाता था. हर शहर में ऐसे समुदाय बन गए थे. जैसे सैन फ्रांसिस्को में डिगर्स के नाम से एक ऐसी कम्युनिटी बसी हुई थी । उस दौर में बच्चों के घर से भागने का आलम ये था मामला अमरीकी संसद तक जा पहुंचा था. संसद ने इस बारे में रनअवे यूथ एक्ट के नाम से 1974 में एक क़ानून भी बनाया था । और तब बच्चे समाजवादी और वामपंथी सोच से प्रभावित हुये । बहस ने राजनीतिक तौर पर चिंतन शुरु किया और साथ ही समाज में कैसे बदलाव लाया जाये उसे भी महसूसकिया । लेकिन इस समझ के अक्स में हम मौजूदा भारतीय समाज के उस खोखलेपन को बाखूबी महसूस कर सकते है जहा बेटी की पंसद के पति के साथ पिता के रिशतो के बीच जातिय संघर्ष है । हत्या का डरावना चेहरा है । कानून व्यवस्था का लचरपन है । मीडिया का सनसनीखेज बनाने के तरीके है । और कुछ नहीं है तो वह है भावनाओ की संवेदनशीलता या फिर गढे जा रहे भारतीय समाज का वह चेहरा जिसमें हिसंक होते समाज में बच्चो के लिये कोई जगह है ही नहीं । तभी तो बीस बरस पहले आलाक धन्वा की कविता की ये पंक्तिया कई सवाल खडा करती है , जब वह लिखते है , " उसे मिटाओगे / एक भाग हुई लडकी को मिटाओगे / उसके ही घर की हवा से / उसे वहा से भी मिटाओगे / उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर / वहा से भी / मै जानता हूं, कुलिनता की हिंसा । "
Posted by
Punya Prasun Bajpai
at
6:59 PM
3
comments
Links to this post
Thursday, July 11, 2019
भारत नहीं हारा ...... क्रिकेट हार गया
क्रिकेट विश्व कप से भारत बाहर हो गया । दोष किसका है , किसी का नहीं । सेमीफाइनल में न्यूजीलैंड ने अपनी फिल्डिंग और गेदबाजी के दम पर भारत को हरा दिया , गलती किसकी है किसी की नहीं । तो क्या वाकई हम एक ऐसे दौर में आ चुके है जहां अपने अपने क्षेत्र के नाकाबिल कप्तान हार के बावजूद दोषी नहीं होते है । कप्तान विराट कोहली ने शुरुआती पैतालिस मिनट के खेल को दोषी करार देकर दो दिन तक चले न्यूजीलैंड के मुकाबले में हार को महज इत्तेफाक कहकर खामोशी बरत ली और भारत के तमामलोगो ने मान लिया इससे बेहत भारतीय टीम हो नहीं सकती तो फिर 'वेलडन ब्याज' के आसरे जश्नमें कोई कमी रहनी नहीं चाहिये इसे भी दिखा दिया । सिवाय देश के मुख्य न्यायधिश के अलावे पीएम से लकर सीएम तक और कैबिनेट मंत्रियो से लेकर धराशायी विपक्ष के नेतओ ने भी सोशल मीडिया पर टीम इंडिया की हौसलाअफजाही करते हुये हार से कुछ इस तरह मुंह मोडा जैसे क्रिकेट के जश्न में कोई खलल पडनी नहीं चाहिये । आखिर बीसीसीआई दुनिया के सबसे ताकतवर खेल संगठन के तौर पर है । जिसका टर्नओवर बाकि नौ देशो के क्रिकेट संगठनो के कुल टर्नओवर से ज्यादा है तो फिर गम काहे का । और आईपीएल में तो सभी को कमाने-खाने भारत ही आना है । फिर भारत फाइनल में नहीं होगा तो लाड्स के फाइनल को देखने कौन पहुंचेगा । और विज्ञापन से कमाई भी थम जायेगी । टीवी राइंटस से भी आईसीसी की कमाई में पचास फिसदी तक की कमी आ जायगी । तो गम काहे का । और अब भारतीय क्रिक्रेट प्रेमी रविवार को लाडस का फाइनल देखने की जगह बिबलडन का फाइनल देखेगें जिसमें नडाल या फेडरर में से कोई तो पहुंचेगा ही । क्योकि शुक्रवार यानी 12 जलाई को सेमीफाइनल में यही दोनो टकरा रहे है । यानी टीवी पर विज्ञापनो का हुजुम क्रिकेट से निकल कर टेनिस में समा जायगा । क्योकि भारतीय कंजूयमर या कहे भारतीय बाजार क्रिकेट विश्व कप नहीं बल्कि विम्बलडन देख रहा होगा । तो पूंजी ,बाजार, जश्न ,जोश जब चरम पर हो और उसपर राष्ट्रवाद चस्पा हो तब क्रिकेट का मतलब सिर्फ खेल नहीं बल्कि देश को जीना होता है और देश कभी हारता नहीं । तो हार कर भी भारतीय टीम हारी नहीं है ये सोच जगाकर जरा सोचना शुरु किजिये आखिर हुआ क्या जो भारतीय टीम हार गई ।
कही कप्तान की कप्तानी का अंदाज कुछ ऐसा तो नहीं हो चला था जहा वह जो करें वही ठीक । क्योकि पहले चालिस मीनट में रोहित और विजय के साथ विराट भी पैवेलियन वापस लट आये थे । और यही से शुरु होता है कि आखिर कप्तान का मतलब होता क्या है । और जीतने वाली न्यूजीलैंड टीम के कप्तान की पीठ हर कोई क्यो ठोंक रहा है । जबकि उसके दो धुरंधर गेदबाज बोल्ट और हेनरी ने कमाल किया । लेकिन विश्वकप के फाइनल मोड पर टीम के संयम और सटीक फिल्डिंग का जो अनुशासन न्यूलीलैंड के कप्तान विलिम्सन ने दिया वह अद्भूत था । लेकिन दूसरी तरफ तीन विकेट गिरने के बाद कार्तिक की जगह धोनी क्यों नहीं मैदान में उतारे गये कोई नहीं जानता । फिर रिषभ पंत पर भरोसा विश्वकप के बीच में क्यो जागा और भारतीय क्रकेट टीम के इतिहास में तीन विकेटकिपर टीम इलेवन में खेल रहे है ये भी अपनी तरह का नायाब दौर रहा । जडेजा को इंगेलैड के खिलाफ क्यों मैदान में नहीं थे । और शमी झटके में कैसे बाहर हो गये । कोई नहीं जानता । यानी चालिस मिनट में ढहढहायी टीम इडिया के कप्तान के पास प्लान बी क्या था । ये सबकुछ जानते हुये भी कोई नहीं जानता क्योकि हर किसी को याद होगा विश्वकप से पहले जब तमाम टीम आपसे में वार्म-अप मैच खेल रही थी तब भी न्यूजीलैंड के खिलाफ भारतीय टीम ऐसी ही ढहढहायी थी । कुला जमा 179 रन भारत ने बनाये थे और तब भी जडेजा ही एकमात्र खिलाडी थे जिन्होने पचास रन ठोंके थे । यानी न्यूलीजैड के तेवर को प्रेक्टिस मैच में भारत देख चुकी थी । और याद किजियेगा तो उस प्रेकटिस मैच में भी मौसम बिगडा हुआ था ।तब कोहली ने ' ओवरकास्ट ' यानी मौसम को दोष दिया था और उसके बाद कोहली ने टीम इलेवन को लेकर जो सोचा वह किया । और फिर कोच रवि शास्त्री की नियुक्ति तक पर जब कप्तान कोहली की चलने लगी हो तब मान लिजिये भारतीय क्रिकेट अपने अंहकार के चरम पर है । और हुआ यही है कप्तान की मनमर्जी या भारतीय क्रिकेट फैन्स का दीवानापन या बीसीसीआई की रईसी या फिर क्रिकेट को धर्म मानते हुये सचिन को भगवान मानने की पुरानी रीत के आगे अब क्रिकेट का जुनुन छद्म राष्ट्रवाद में समा चुका है । जिसे कई खोना नहीं चाहता है तो अठारह राज्यो के सीएम । देश के सोलह कैबिनेट मंत्री और विपक्ष में गांधी परिवार से लेकर क्षत्रपो की एक कतार भारतीय टीम का ढांढस इसलिये बंधाती है क्योकि उसे पता चल चुका है अब कप्तान के होने का मतलब क्या है । और खेल भावना सिर्फ कप्तान के साथ खडे होने में ही क्यों है । क्योकि लोकतंत्र की परिभाषा भी जब सत्तानुकुल हो चुकी होगी तो फिर कर्नाटक या गोवा में पाले बदलने से लेकर पाला बदलने से रोकने वालो को ही मुबंई के होटल के बाहर पुलिस गिर्फतार करने से चुके गी नहीं । यानी विकल्प हर किसी के पास कम हो चले है । राजनीति कहती है या तो सत्ता के साथ आ जाओ तमाम सुविधा मिलगी । नहीं आओगे तो जांच एंजेसी आपके दरवाजे पर खडी है । खेल कहता है , कप्तान के साथ खडे हो जाओ तो सभी खेलते रहगें । नहीं तो अंबाती रायडू की तरह सन्यास लेना पडेगा । और फैन्स कहते है , इंडिया , इंडिया । बाकि आप जो सोचते है उसका कोई मतलब नहीं है कि क्योकि देश मान चुका है भारत हारा नहीं है क्रिकेट हारा है । क्योकि बिना भारत विश्वकप क्रिकेट का क्या महत्व है । कोई देखने वाला ना होगा । कोई सट्टा लगाने वाला ना होगा । कोई विज्ञापन देने वाला ना होगा । तो क्रिकेट ने बाजार गंवाया और हम क्रिकेट में हार कर भी क्रिकेट के बाजार में सबसे ज्सयादा मुनाफा पाने वालो में है ।
Posted by
Punya Prasun Bajpai
at
10:39 AM
13
comments
Links to this post