लाठी खालि,गुली खालि/ तेबू नाहि सोराज पालि / घरे नाथे अन किरे / कैसे बांची प्राण... है यह जिन्दगी का संघर्ष लेकिन अंधेरे में गूंजती महिलाओं की यह आवाज एकदम छोटे बच्चों के लिये लोरी का काम करती है और धीरे धीरे महिलायें जब आश्वस्त हो जाती हैं कि बच्चे सो गये तो वह अंधेरे में ही जंगल में निकलती हैं। गोंद, महुआ, मीठा जड़ और लकड़ी की छालों को बटोर रात के आखिरी पहर बीतने से पहले ही अपनी झोपडी में पहुंच जाती हैं। दर्द के जिस गीत को लोरी मान कर सोये बच्चे भी पौ फटते ही जागते हैं तो रात भर अगले दिन के भोजन का जुगाड़ कर लौटी यह आदिवासी महिलायें बच्चो को चावल-माड़ या फिर चावल-इमली का झोर खिलाती है। बूढ़े मां-बाप भी यही कुछ खाते हैं। और यह महिलायें सूरज चढ़ने से पहले ही रात में जंगल से बटोरे गये सामान को टोकरी में बांधकर बाजार जा कर गोंद, महुआ, मीठा जड के बदले चावल लेकर घर पहुंच जाती हैं।
समूचे दोपहर आराम करने के बाद गोधूली में गांव रक्षा दल की बैठक में शरीक हो कर गांव में तैनाती और लेवी वसूली के लिये निकलती हैं। साथ ही अगले दिन गांव या जंगल में कहां किस जगह पर पहरा करना है, उसके बारे में रक्षा दल की बैठक में जानकारी मिलते ही अपने घर के कामकाज की रूटिन तय करती हैं। हमला कभी भी हो सकता है और दिन में कभी भी जंगल में कुछ भी बटोरने नहीं जाना है, यह आदेश गांव रक्षा दल प्रमुख का है। छत्तीसगढ़-उड़ीसा की सीमावर्ती के जंगल गांवों में रहने वाली महिला आदिवासियो का नया सच यही है। दिन के उजाले में वर्दीधारी हमला कर सकते हैं इसलिये गांव के गांव जो जंगलो के बीच हैं या फिर जंगलो से सटे हैं, वहां सूरज की रौशनी दिन के उजाले में कर्फ्यू है। गांव में कोई पुरुष आदिवासी नजर नहीं आता है। अधिकतर आदिवासी शहरों की तरफ चले गये हैं। शहर में काम भी है और जंगल गांव से दूर भी है। शहर का मतलब जिला मुख्यालय। क्योंकि जिला मुख्यालय में वर्दीधारी ट्रक में सामान बंद रखते हैं। उसके बाद जैसे ही वह जंगल और गांव की दिशा में कदम बढ़ाते हैं, वैसे ही उनके कंधों पर बड़े बड़े हथियार नजर आने लगते हैं। हर गांव रक्षा दल के प्रमुख ने निर्देश दिया है कि अगले आदेश तक महिलायें ही गांव को संभालेंगी। आदिवासी पुरुष और लड़के शहरो में बिना परिवार अकेले हैं। हाट-बाजार में माल ढुलायी से लेकर रिक्शा-ढेला खिंचने से लेकर किसी भी वैसे कामकाज में जहां शरीर काम दें...उन सभी कामो में अचानक आदिवासियों के नये चेहरे बढ़ गये हैं। गांव में क्या हो रहा है। या फिर गांव में घर वाले कैसे हैं। या अन्न का कोई थैला अगर गांव में घर पर भिजवाना है तो यह काम बस-ट्रक के वह ड्राइवर-कंडक्टर कर देते हैं, जिनका गांव की तरफ से गुजरना लगा रहा है।
समूचे दिन में एक ही सरकारी बस आती है जो इसीलिये सुरक्षित है क्योकि वहीं गांव के बाहर से गांव को जोडने का आसरा है। ऐसे में आदिवासी महिलाओ ने गांव से लेकर घर तक को संभाला है । जंगलों में भी महिलाओं की ही आवाज गूंजेगी। रात के अंधेरे में अपनी अपनी बोली में आदिवासी महिलाओं के बीच संवाद में एक ही ऐसा शब्द है जो बार बार दोहराया जाता है। वह है छेरेनी संग्राम यानी वर्ग संग्राम। गांव रक्षा प्रमुख ने आदिवासी महिलाओं को बताया है कि छेरनी संग्राम छिड चुका है। इसलिये जंगल में हर दूसरे गांव की महिलाओं से जब रात के अंधेरे में किसी दूसरे गांव की महिलायें मिलती हैं तो बातचीत में छेरनी संग्राम किसी कोड-वर्ड सरीखा होता है। और सारी बातचीत चाहे वह घर में अन्न के एक दाने के ना होने की हो या फिर बच्चो की बिगड़ती तबीयत की हो। या शहर की बस से अन्न की झोली के आने की खबर हो या फिर हर रविवार को लगने वाले हाट में महुआ या गोंद के बदले कितने कटोरी चावल मिलने के सौदे की बात हो। हर बात से पहले छेरनी संग्राम का जिक्र कर बात यहीं से शुरु होती है कि गांव रक्षा दल के सामने अब क्या मुश्किल है। हालात देखने पर साफ लगता कि गांव की रक्षा करते हुये अन्न का जुगाड़ करना ही पूरे इलाके का जीवन है।
गरीबों को चाहे छत्तीसगढ़ सरकार दो रुपये चावल देने की बात कहे और उड़ीसा में यह तीन रुपये मिले। लेकिन जंगल गांव में एक गिलास महुये का मतलब दो कटोरी चावल और एक गिलास गोंद का मतलब एक कटोरी चावल है। जबकि मीठे जड़ और लकड़ी की झाल अगर गठ्ठर भर है तो ढाई कटोरी चावल मिल सकता है। एक कटोरी चावल का मतलब एक वक्त में दो लोगो का खाना। जो बस से झोली भर अन्न आता है उससे दो-तीन दिन ही खाना चलता है। शहर में मजदूरी करता आदिवासी नोट या चिल्लर नहीं गिनता बल्कि बस के ड्राइवर-कंडक्टर को ही कमाई की रकम दे कर छोली भर अन्न ले जाने को कहता है। जो हमेशा झोली के अन्न से ज्यादा होती है लेकिन आदिवासी जानता है कि बस वाला सबसे ईमानदार है क्योकि छेरनी संग्राम छिड़ने पर उसकी जान तो कभी भी जा सकती है। वर्दीधारी उसे माओवादी मान कर मारेगा और माओवादी पर अगर हमला उसके गांव में हो गया तो माओवादी उसे पुलिस का जासूस समझ कर मारेगा। इसलिये गांव तो तभी खाली होने लगे जब सीआरपीएफ के ट्रक गांव जंगल में घूमने लगे और हर सरकारी इमारत में वर्दीधारी नजर आने लगे। प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र और प्राथमिक स्कूल के अलावे पंचायत भवन ही बतौर इन जंगल गांव में नजर है। जो मिट्टी का नहीं बास और खपरैल का बना है। कहीं कहीं ईंट की दीवार भी है। और छेरनी संघर्ष शुरु होते ही इनजगहो पर सबकुछ बंद हो गया और वर्दीधारियों का खाना-पकाना, रात गुजारना और हर आने जाने वाले आदिवासियों से बोझा उठवा कर कुछ अन्न देकर संपर्क बनाने का सिलसिला शुरु हुआ। और इसके शुरु होते ही आदिवासी गांव छोड़ खिसकने लगे। लेकिन गाव रक्षा दल की महिलायें नहीं डिगी। हर आठ गांव पर एक रक्षा दल कमांडर। जिसके अधीन करीब सौ से ज्यादा आदिवासी। और इन सौ में भी साठ से ज्यादा महिलायें, जो कहीं नहीं गयीं।
बीते साल भर में सबसे ज्यादा हिंसा या कहे छेरनी संग्राम इस इलाके में हुआ है। इसका असर यही हुआ कि पुरुष आदिवासियों का क्षेत्र तो बदलता रहा लेकिन महिलायें नही डिगी । नयी समझ जो इस पूरे इलाके में हुई है, वह गांवों को विकसित करने की है। यानी आदिवासियो की जरुरत के मुताबिक मुश्किल दौर में भी गांव रक्षा दल काम करता रहे। ऐसे में गांव की संख्या 8 से बढ़ाकर 15 से 20 की गयी है जो महिलाओं की निगरानी में ही गांव के हर परिवार की जरुरतों को जोड़ कर सामूहिक जरुरत में तब्दील करने की दिशा में उठाया गया कदम है। यानी घर-घर की जरुरतों को मिलाकर अगर बीस गांव के अन्न को एक साथ जोड़ा जाये तो गांव रक्षा दल उसी के मुताबिक तय करे कि कितने लोग जंगल से भोजन जुगाडेंगे और कितने लोग शहरी बाजार जा कर जंगल के कंद-मूल का सौदा करेंगे और बाकि के कितने लोग रक्षा दल के जरीये पहरेदारी को अंजाम देंगे।
छेरनी संग्राम छिडने के बाद सामूहिकता की जीवन जीने के इन तौर तरीको के बीच गांवों के आपसी संपर्क भी बढ़े हैं । साथ ही संग्राम की थ्योरी को सीधे जिन्दगी से जोड़ने की नायाब पहल भी इन इलाकों में शुरु हुई है।
मसलन 10 मार्च को बारुदी सुरंग में जर्जर हुई एक पुलिस जीप के पहिये को रक्षा दल ने एक ट्रक वाले को बेचा भी और उसकी एवज में दस किलो अनाज लाकर बताया भी कि जीप का एक पहिया चालीस आदमी का पेट भर सकता है। और इसी तरह संकट के दौर में हिसाब लगाकर जब एक ट्रक वाले को रक्षा दल ने रोका तो स्टेपनी का पहिया छीन लिया और लौटाया इसी शर्त पर की अगली खेप में वह बीस किलो चावल लेकर आये। जंगल गांवों से गुजरते अधिकतर ट्रको में अक्सर एक-दो बोरे चावल के जरुर रखे रहते हैं जो आवाजाही के लिये बतौर लेवी देने पर उन्हें रियायत हो जाती है । आदिवासियों के लिये सबसे सुकून तभी होता हैं, जब उन्हे चावल मिल जाये और जंगल से जमा किया गया महुआ वह खुद पीयें। यह दिन उनके जश्न का होता है। लेकिन महिलाये इस दौर में कितनी अनुशासित हैं। इसका अंदाज इसी से लग सकता है बीस गांव जब एकजुट होते हैं, तो उनकी कमांडर भी महिला होती है और हर ग्रुप की नेता भी महिला। और यह स्थिति दंत्तेवाडा के बाद की हो ऐसा भी नहीं है। लेकिन दंत्तेवाडा की घटना के बाद छेरनी संग्राम के तौर तरीके बदल जरुर गये हैं। कमोवेश हर गांव के रक्षा दल के सामने सबसे बडी चुनौती यही है कि वह अन्न के विकल्प को भी समझे। जैसे जंगल में कुछ पेड़ से निकलने वाले रस कितने फायदेमंद हैं। किन कंद-मूल से शरीर कमजोर नहीं होगा यानी कैलोरी बराबर मिलेगी और जंगल गांव से शहर को जोड़ने वाले वैकल्पिक रास्तों को बनाना भी रक्षा दलों के जिम्मे आ गया है। छेरनी संग्राम का लाभ माओवादियों को आदिवासियो के जरीये भी हो रहा है क्योंकि जो आदिवासी शहर यानी जिला मुख्यालयो में भी जा कर रह रहे है, उनके गांव लौटने पर गांववाले शहर की स्थिति भी समझ पा रहे हैं, जहां दो जून की रोटी का जुगाड करना शहरी लोगो के लिये भी मुश्किल है।
खासकर जिन कामों को शहर में आदिवासी करते हैं, उस काम से जुड़े लोगों के जरीये जब जिन्दगी की मुश्किलों की जानकारी उन्हें मिल रही है तो अपने जंगल गांव को लेकर भी वह कहीं ज्यादा उग्र भी हो रहे हैं। यानी विकास की जिस धारा को शहर से गांव पहुंचाने की बात बीडोओ से लेकर पंचायत के नेता तक करते हैं, उसके एवज में आदिवासी अब अपनी झोपड़ी को बचाने में ही असली सुकून मान रहे हैं। और वर्दीधारी की पहल आदिवासियों को उन्हीं परिस्थितियों के नजदीक ले कर जा रही है जिसे दिल्ली के हुक्ममरान माओवाद या आतंकवाद कहने से नहीं कतराते। मुश्किल यही है कि दिल्ली से इन जंगल गांव की दूरी है तो हजार से भी कम मील की लेकिन विकास के आइने में यह दूरी सदियों की हो गयी है। क्योंकि दिल्ली में बैठकर कोई सोच भी नही सकता कि आदिवासियों के दर्द का यह गीत...लाठी खालि,गुली खालि / तेबू नाहि सोराज पालि / घरे नाथे अन किरे / कैसे बांची प्राण...उनके बच्चो के लिये लोरी है।