27 जून - एसपी की पुण्यतिथि पर ख़ास
कांशीराम ने पत्रकारो पर हाथ लहराया था और एसपी सिंह सडक पर पत्रकारो के समूह को संबोधित करते हुये यह कहने से नहीं चूके कि राजनेता कमरो में बैठ कर जोड -तोड करते है और जनतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखकर सत्ता पाना चाहते है और ऐसे में पत्रकार दिनभर जुझते हुये अपना काम करता है तो यह भी उन्हे बर्दाशत नहीं होता। राष्ट्रपति भवन ज्ञापन सौपने जाते पत्रकारो के सामने एसपी सिंह पांच मिनट से ज्यादा नहीं बोले। लेकिन जो कहा उसका सार यही था कि सत्ता की मदहोशी में नेता संविधान और लोकतंत्र को भी ताक पर रखने से नहीं चूकते और पत्रकार इस सडी-गली राजनीति को जब बताता है तो यही राजनीति लोकतंत्र की दुहाई देकर मीडिया पर अंकुश लगाना चाहती है। यह घटना 14 साल पुरानी है। लेकिन इन 14 सालो में मीडिया और राजनीति संबंध के तौर पर मान्यता पा गयी और अब पत्रकार पर राजनीति से ज्यादा मीडिया सवाल दागने को तैयार है। 18 जून को "नंदीग्राम डायरी " लिखने वाले पत्रकार पुष्पराज का फोन आया कि उन्हे नंदीग्राम में पुलिस ने यह कह कर रोक लिया कि आपको यहा आने की जरुरत क्या है। और आपकी जान को यहा खतरा हो सकता है। पुष्पराज ने पुलिसवाले से जब यह सवाल किया कि सुरक्षा देने का काम तो आपकाहै, इसपर जबाब मिला सिर्फ नंदीग्राम की सीमा तक आगे कौन क्या करता है यह हमारी सीमा में नहीं आता। 17 जून को आंनदस्वरुप वर्मा ने बताया कि नेपाल के माओवादियो पर बनायी उनकी डाक्यूमेन्ट्री को सेंसर बोर्ड ने यह कह कर रोक दिया है कि इससे भारत के माओवादियो की विचारधारा को हवा मिलेगी। आंनदस्वरुप वर्मा का सवाल था कि नेपाल में माओवादी जनतांत्रिक तरीके से सत्ता में आये और उनके नेता प्रधानमंत्री भी बने और भारत के राजनयिक संबंध भी बरकरार रहे, तो खतरा काहे का। जवाब मिला फिलहाल देश में माओवादी गतिविधियो में डाक्यूमेंट्री आग में घी का काम कर सकती है।
16 जून को कोलकत्ता में एक साइटिस्ट और एक प्रोफेसर को माओवादी विचारधारा का समर्थन करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। दोनो ने सवाल किया किसी धारा को पढना-जानना उसको समर्थन करना कैसे हो सकता है। जबाव मिला जब सरकार इस धारा को खतरा मानती है तो पढने जानने का मतलब ही सुरक्षा के लिये खतरा पैदा करना होगा। इस तरह की तमाम खबरें सूचना से आगे बढी नहीं। चूकि यह तीनो जानकारी मानवाधिकार और माओवाद, लोकतंत्र और राज्यतंत्र के बीच झूल रहे है तो क्या यह कहा जा सकता है कि पहली बार सत्ता ने खुद को परिभाषित किया है। जिसमें जो सत्ताधारियो के साथ खडा है वह सही और जो सवाल खडा कर रहा है वह अपराधी। ऐसे में मीडिया की भूमिका होनी क्या चाहिये। जाहिर है दस साल पहले ऐसा सवाल उठाना सवाल नहीं होता, लेकिन वर्तमान का सच यही है कि अगर सत्ता किसी खबर को सामने आने देना नहीं चाहती तो बहुसख्य मिडिया सबसे पहले मान लेता है कि उस खबर दिखाना सही नहीं है। असल में सत्ता सिर्फ अपनी परिभाषा ही नहीं मिडिया की भी नयी परिभाषा भी गढने को तैयार है। क्योकि खबरो को सूचना में बदलने की फिराक में सत्ता हमेशा रहती है, और उसकी पहली कडी सूचना को भी बदर्शत नहीं कर पाना है। 14 साल पहले सत्ता की जोड-तोड में लगे कांशीराम से कौन नेता पिछले दरवाजे से कैसे मिल रहा है इस सूचना को कांशीराम बर्दाश्त नहीं कर पाये और हाथ पत्रकार पर लहरा दिया। लेकिन बीते चौदह साल की राजनीतिक सत्ता और मिडिया को अगर देखे तो सत्ता की परिभाषा भी नयी नजर आ सकती है। इस दौर में सत्ता का स्वाद हर राजनीतिक दल के नेताओ ने चखा। यूनाइटेड फ्रेट की सरकार से गठबंधन के दौर को विस्तार एनडीए ने दिया और यूपीए ने भी इसपर स्वीकृति देकर इस सच पर ठप्पा लगा दिया कि सत्ता का मतलब सिर्फ इशारा है। यानी सत्ता बदलने पर नीतियो में परिवर्तन या विचारधारा में बदलाव के संकेत 2010 में मायने नहीं रखते। मायने रखता है तो लोकतंत्र के चारो स्तम्भ किसके इशारे को मानेगे। और सत्ता जिसकी होगी इशारा उसी का चलेगा। मुश्किल यह नहीं है कि 14 साल पहले सत्ता इशारा नहीं करती थी या फिर मीडिया इशारो के खिलाफ इशारा कर जनता को संजीवनी और लोकतंत्र को आक्सीजन देने से नहीं घबराता था।
मुश्किल यह है कि सत्ता की नयी परिभाषा के घेरे में चौथा स्तम्भ भी खुद को सत्ता मानने लगा है और उसका अपना इशारा भी सत्ता सरीखा ही हो चला है। इसलिये मीडिया संस्थान खबरो को छोड खबरो पर सेमिनार कराने को तैयार है। जिसमें लकीर के इस और उस पार के दोनो प्रतिदन्दियो को खडा कर छौथा खम्भा होने का धर्म अपना रहे है। दांतेवाडा से लेकर नंदीग्राम तक के बीच सामाजिक-आर्थिक विकास का सच न्यूज चैनल पर कौन देखेगा, इस सवाल को उठानेवाले मिडिया संस्थान अगर दांतेवाडा पर "नक्सलवाद, राजनीति और मिडिया " विषय पर एक सेमिनार करा लें जिसमें छत्तिसगढ के सीएम से लेकर सीएम की नीतियो का विरोध कराने वाले सोशल एक्टीविस्ट और पत्रकारो का जमावडा एक मंच पर हो जाये, तो मिडिया संसथान की यह एक नयी सफलता होती है। जिस दौर में मिडिया से सरोकार की खबरे गायब होने लगी। आम लोगो की जरुरतो से जुडे मुद्दे हाशिये पर गये। ग्रामिण-आदिवासी का सवाल गैरकानूनी सरीखा लगने लगा अगर ध्यान दें तो इसी दौर में मिडिया सस्थानो ने सेमिनार और अलग अलग आयोजनो में इन्ही मुद्दो को उठाया। असल में मिडिया में खबरो का डाल्यूट होने से ज्यादा खतरनाक समाज के रुखडे सवालो को पांच सितारा आयोजना में धुयें में उडा कर ब्राडिंग करना है। और ब्रांडिग का सीधा मतलब मुनाफा है जिसमें प्रायोजक बन कर मुनाफा वहीं देते है जो मुद्दो की वजह होते है। छतितसगढ में राजनीतिक सत्ता से हमजोली कर खनन के जरीये करोडो कमाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी अगर आदिवासियो के संकट विषय पर होने वाले सेमिनार की प्रायोजक हो तब कौन सवाल खडा करेगा। मिडिया की अपनी भूमिका जब सत्तानुकुल है तो ऐसे सेमिनारस्थल ही मंच का काम करेंगे और उसमें राजनीति पर फिल्मकार प्रकाश झा भी अपनी बात रखेगे। लेखिका अरुणधति राय भी विचार व्यक्त करेगी। शोभा डे भी कुछ कहेगी। मेधा पाटकर भी होगी। किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का कोई चैयरमैन भी विकास के सवाल पर अपनी बात रखेगा और कोई सांसद या मंत्री की मौजूदगी के साथ कोई संपादक सरीका पत्रकार भी होगा। यह काकटेल आयोजन के लिहाज से बिकाउ भी होगा और मिडिया के लिहाज से टीआरपी देने वाला भी। यानी कमाउ सोच का यह तरीका ही असल में मिडिया की नयी परिभाषा के तौर पर उभरा है। लेकिन यह कहना बेमानी होगी कि यह वर्तमान का सच है, न्यूज चैनलो की हकीकत है और पहले ऐसा नहीं था। आजतक शुरु होने के बाद आजतक का असर और मुनाफा ग्राफ जिस तेजी से बढा उसने कन्टेन्ट और नब्ज पकडने का सवाल उठाया। कन्टेन्ट का मतलब सीधे मुद्दे को पकडना था और नब्ज का मतलब राजनीतिक सत्ता के कान मरोडना था। काशीराम का हाथ यूं ही हवा में नहीं लहराया था। कैमरा अगर तस्वीर पकड रहा था तो उसे आजतक मथकर जनता के कटघरे में में ही ले जाकर छोडता था। असल में राजनीति यही बर्दाश्त नहीं कर पाती। और यही सलीका एसपी सिंह के पास था।
इसलिये एसपी के साथ के जो पत्रकार 1995-96 में थे जब 2010 में तमाम निर्णायक पद पर बैठकर यह सवाल करते है कि अगर एसपी होते तो वह भी आज बाजार के दबाव में लोकप्रिय रौ में बह चुके होते। तो समझना यह भी होगा कि एसपी सिंह उस दौर में सहयोगी रिपोर्टरो से जो स्टोरी कवर करवाते उसे कवर आज भी किया जाता है, लेकिन उसका असर एसपी सिंह की सामाजिक-राजनीतिक समझ से होता हुआ आजतक कार्यक्रम में दिखायी देता था। और यह समझ ही उस दौर में ब्रांड थी और एसपी सिंह खुद आजतक के ब्रांड थे। यानी बाजार की नब्ज अगर पत्रकार ने नहीं पकडे तो फिर मिडिया की नब्ज बाजार पकड लेगा, इसे एसपी बेहद बारिकी से समझते थे। इसीलिये बाजार के तरीको को पूंछ से नहीं सूंड से एसपी ने पकडा और पत्रकारिता के पैनापन को ब्रांड बनाकर दिखाया। अब के दौर की मुश्किल यही है कि बाजार को ही मिडिया अपनी नब्ज पकडने का न्यौता देकर अपनी लीक को ही छोडने पर उतारु है। ब्रांड बनने की होड यहा भी है मगर उसके सलीके पत्रकारिता से नहीं मुनाफे से मुनाफा बनाते हुये बाजार पर टिका दिये गये है। यह नया सलीका खबरो के लिये इंटरनेट और गुगल पर आ टिका है जबकि एसपी सिंह साप्ताहिक पत्रका रविवार से लेकर आजतक के दौर में एक सामानांतर पत्रकारिता का स्पेस भी ना सिर्फ बनाते रहे बल्कि मान्यता भी देते रहे। बिहार के "जनशक्ती" में छपी चार लाइन की खबर, भोजपुर में एक दलित बच्चे को कुंअे में जमींदार ने लटकाया। बस एसपी की नजर गयी और पटना के स्ट्रीगर रिपोर्टर नवेन्दु को लिफाफे में अखबार की कटिंग भेजकर दो लाइन की चिट्ठी लिखी। इस खबर को पकडो। और दो अंक के बाद रविवार की वह कवर स्टोरी बनी। देश में राजनीतिक हंगामा हुआ। लोगो ने जाना कि विकास की धारा का सच गांव से कैसे कोसो दूर है और जमींदारी तले लोकतंत्र अब भी कैसे पानी भरता है। दूसरा तरीका आईपीएफ की पत्रिका "जनमत" को बचाने के लिये वैक्लपिक आर्थिक स्रोत पर दिल्ली के शकरपुर में 1996 में नजर आये। जमीन पर बिछी दरी पर एक्टीविस्टो के साथ जनमत को चलाने के तरीको पर ना सिर्फ अपना मत रखते हुये बल्कि चंदे की जिम्मेदारी लेते हुये पाठको का कैनवास बढाने के तरीको को भी बताते हुये। तब जनमत के संपादक रामजी राय ने एसपी से कहा आप आजतक से करोडो का लाभ दिलाते हो, क्या जनमत सरीखी पत्रिका महज बीस हजार के जुगाड में दम तोड देगी। एसपी का जबाव था यहा मैगजीन के लिये पूंजी चाहिये और वहा पूंजी के लिये टीवी है। इसलिये अंतर तो होगा लेकिन हमारी जिम्मेदारी दोनो जगहो से निगरानी की है और इस पत्रकारिता के तरीके अलग अलग नहीं है। यह हमें समझना भी है और बिगडो को समझाना भी है। इसलिये रामजी भाई आजतक की जरुरत भी है और जनमत की भी। नहीं तो पूंजी हम सब को खा जायेगी। एसपी सिंह की मौत के ठीक तेरह साल बाद पत्रकारो को यह सोचना है कि यह सवाल कितना मौजू है कि पत्रकारिता निगरानी कर रही है या पूंजी सबको खा गयी है। और अब पत्रकारो पर लहराते हाथो के खिलाफ संघर्ष तो दूर मिडिया उसे खबर भी क्यो नहीं मानता।
Sunday, June 27, 2010
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एसपी की पत्रकारिता का दंश |
Wednesday, June 23, 2010
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उम्मीद की विरासत में "रावण" और “शिंबोर्स्का” |
विरासत में हमें उम्मीद भी मिली है.....पहली बार इसे पढ़ें तो लगता है कुछ अपनी कहानी है। कुछ देर बाद फिर इन पंक्तियो में झांके तो लगता है कि इस आग्रह ने मनुष्य को शिथिल बना दिया है। और कुछ पढ़ कर अगर आंखों के सामने तैरते समाज के अक्स में इन पंक्तियो को फिर से पढ़ें तो समझ जायेगें कि इस देश में बदलाव क्यों नहीं हो पा रहा है?
उम्मीद के आसरे फिल्म रावण देखने गया। उम्मीद के आसरे नोबेल विजेता पोलिश कवियित्री विस्वावा शिंबोर्स्का की रचनाओं को पढ़ा। फिल्म रावण का जिक्र इतना कर ही किया जा सकता है कि मणिरत्नम अभिषेक बच्चन को कलाकार नहीं बना सकते...यह उन्हें मान लेना चाहिये। कैमरा...कोरियोग्राफी और एडिटिंग फिल्म नहीं होती। फिल्म कहानी और कलाकार के मिश्रण से भी बनती है जो दो से तीन घंटे बाद पोयटिक जस्टिस करके उम्मीद छोड़ जाती है। लेकिन फिल्म देखने से पैदा हुई निराशा को तोड़ने के लिये शिंबोर्स्का की कविता ने सच को डिगाया.....
उम्र चाहे जितनी लंबी हो/ विवरण संक्षिप्त होना चाहिये / जरुरी यह है कि कुछ चुने हुये तथ्य / तरतीबवार लिख दिये जायें/ दृश्यों की जगह पते ले लें/ धुंधली यादों की जगह / स्पष्ट तारीख दें / प्यार चाहे कितनी बार किया हो / जिक्र सिर्फ शादी का करें / और उन्हीं बच्चों का जो जन्म ले सके । पढ़ते ही लंदन में रावण के प्रीमियर का दृश्य घूम उठा। अमिताभ बच्चन से सवाल पूछा गया कि अभिषेक तो बिजनेस के घंधे में जाना चाहते थे लेकिन फिल्मो में कैसे आ गये ....क्या आपने उसे मनाया। बच्चन का जवाब था- एक दिन अचानक अभिषेक आया और बोला कि वह फिल्मों में काम करेगा। बस फिर फिल्मों का सिलसिला चल पड़ा। तो आप खुश हुये। बिलकुल । जब आपकी लाइन में बेटा भी आ जाये तो खुशी तो होगी ही। कितनी जायज खुशी है यह ....सोचा अगर हरिवंश राय बच्चन सोचते कि मुन्ना भी कवि बन जाये और अमिताभ कहीं कविता लिख रहे होते.....नहीं अमिताभ ऐसा करते नहीं क्योंकि उन्होंने पिता हरिवंश राय बच्चन की गरीबी को अपनी नंगी आंखों से देखा है।
रात के दो बजे-तीन बजे बच्चन जी जब कविता पाठ कर घर लौटते तो अमिताभ कई बार घर का दरवाजा खोलते और पिता से यह सवाल भी कर बैठते ...जरुरत क्या है इतनी रात.......तब हरिवंश राय बच्चन का यही जबाव होता- बेटा पैसे आसानी से नहीं मिलते। लेकिन इलाहबाद से चला तो मुंबई का सफर बदला भी। जब रात बे रात अमिताभ बच्चन शूटिंग कर घर लौटते तो बच्चन जी दरवाज खोलते और सवाल करते ....इतनी रात.....जरुरत क्या है इतने पैसों की। हो सकता है कभी अमिताभ ने भी जवाब दिया हो कि पैसे आसानी से नहीं मिलते। लेकिन मुंबई से मुंबई के इस सफर में अभिषेक विराम है इससे इंकार नहीं किया जा सकता । रावण फिल्म में पैसा अनिल धीरुभाई अंबानी का लगा है। नायिका घर की बहू एश्वर्या है। निर्देशक मणिरत्नम यूं ही नहीं हैं। तमिल फिल्म भी साथ बनाने का समझौता भी पैसा लगाने वाले के साथ पहले ही किया गया। यानी मणिरत्नम को अंदाज पहले से था ....फिल्म तमिल में ही चलेगी। और अदाकारी विक्रम की ही होगी। इसलिये रावण और रावणा देखते वक्त आपका एहसास जाग सकता है कि लगा जो संगीत...जो दृश्य ....तो भाव-भंगिमा फिल्म को गूथती है, वह उस रावण की है ही नहीं, जिसे रामचरितमानस में तुलसीदास जीते हैं।
चित्रकूट से सीता हरण का किस्सा एश्वर्या के अपहरण में कहीं फिट बैठता नहीं। रामचरितमानस पढ़ते वक्त आपको एक एहसास यह भी हो सकता है कि जहां जहां सीता के पांव पडते हैं, वहां की खूबसूरती निखर उठती है। लेकिन फिल्म में खूबसूरत दृश्यों में किसी मॉडल की तरह एश्वर्या चस्पा हो जाती हैं । और अभिषेक आदिवासी या रावण की तरह चस्पा इसलिये नहीं हो पाते क्योंकि दोनों के परिवेश का कैनवास इतना बड़ा है कि कैमरे उसे समेट नही सकते। रावण जिस न्याय की लड़ाई लडता है, वह आदिवासियों के संघर्ष का पसंगा भी नहीं है। और अमिषेक की पहचान चाहे पूरी फिल्म में झिक-झिक, झिक-झिक,झिक-झिक, झिक-झिकझिक-झिक, झिक-झिकझिक-झिक, झिक-झिकझिक-झिक, झिक-झिक.....दस सिर कहने से आगे न बढ़ पायी हो लेकिन इस देश में संघर्ष, करने वाले आदिवासी एक सत्ता-सरकार को चेताने की अवस्था में आ रहे है, और कैमरा इसे कैसे पकडेगा।
जाहिर है मणिरत्नम को यही पर राम-रावण का भेद खड़ा करना था। सो फिल्म में फैसला तत्काल लिया गया। और राम बनी सत्ता-सरकार तत्काल रावण हो गयी और रावण का चरित्र राम सरीखा लगने लगा। लेकिन रावण देखने के बाद शिंबोर्स्का की कविताओ को पढ़ते वक्त बेहद साफ लगा कि अभी हम सच को सच बताने की स्थिति में नही आये हैं..... क्या किसी बाज ने अपना गुनाह माना है?/ शिकार पर छपटने से पहले कभी झिझका है कोई चीता? / डंक मारते हुये बिच्छू शर्मिंदा नहीं था/ और अगर सांप के हाथ होते/ वह भी बेदाग ही बताते/ भेडिए को किसी ने पछताते हुये नहीं देखा / शेर हो या जुएं--- / खून पूरी आस्था से पीते है/ और क्यों ना हो / जबकि वे जानते हैं / कि रास्ता उन्हीं का सही है / नरभक्षी व्हेल का दिल यों / चाहे एक टन का हो / और सभी मायनो में बिलकुल हल्का होता है / सूर्यमाला के तीसरे ग्रह पर / पशुता की पहली निशानी है / निर्द्वन्द आत्मा और अडिग विश्वास। .....हो सकता है यही भरोसा अभिषेक को खुद पर और अमिताभ को अभिषेक पर हो । लेकिन सवाल मणिरत्नम का है.....इसीलिये कवियित्रि शिंबोर्स्का को पढ़ें तो अहसास होगा समाज में रावण को भी अच्छा काम करते वक्त रावण नहीं राम ही कहा जायेगा और राम का बुरा काम भी राम के मत्थे नहीं मढा जायेगा...बल्कि वह रावण के ही हिस्से में चला जायेगा।.......क्या वाकई विरासत में मिली उम्मीद सही है?
Monday, June 14, 2010
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महाभारत की "राजनीति" में नये भारत की खोज |
आतंक पैदा कर पूछने का अधिकार मीडिया को भी नहीं है। यह फिल्मी डायलॉग है। बिहार के चुनावी जंग में हाथ आजमा चुके प्रकाश झा की इस नयी "राजनीति" ने सियायत और मीडिया को लेकर कई सवाल खड़े किये हैं। सियासत अगर चरम पर पहुंच जाये तो हर रिश्ता सौदेबाजी में बदल जाता है और मीडिया के सरोकार अगर खत्म हो जाये तो वह आतंक का पर्याय बन जाता है। यह दौर चरम का है या उसके चरम का एहसास है। बहुत बारीकी से सामाजिक व्यवस्था के इस ताने-बाने को राजनीति ने पकड़ने की कोशिश की है। भूख-रोजगार या आम आदमी की त्रासदी भी राजनीति के लिये मायने नहीं रखती लेकिन सियायत की आंधी में आम आदमी का पेट भी राजनीति को ही ताकने लगे, यह एहसास महाभारत को देखते या पढ़ते वक्त चाहे ना जागे, लेकिन महाभारत के चरित्रों को आधुनिक दौर में सिल्वर स्क्रीन पर राजनीति में जरुर महसूस किया जा सकता है।
आदर्श राजनीति का जो भभका नसीरुद्दीन शाह के जरीये पांच मिनट में चमक दिखाकर ओझल हो जाता है, वह झटके में नक्सलवाद से उठ रहे मुद्दों की आंच में दिखायी भी देते है, साथ ही शहर और जंगल का फर्क भी समझा देते हैं। संसदीय राजनीति एक दौर के बाद सत्ता चाहती है या फिर संन्यास । अच्छा है जो संन्यास की समझ अतिवाम ने नहीं पाली है, क्योंकि "राजनीति" में नसीरुद्दीन के सवाल जिस तरह हाशिये पर चले जाते हैं, कमोवेश वही आलम मेधा पाटकर से लेकर अरुंघति राय या फिर देश भर में चल रहे आंदोलनों का है। सियासत के लिये जमीनी मुद्दे मायने नहीं रखते और सत्ता को सौदे से ज्यादा कुछ दरकार होती नहीं। राजनीति इस मर्म को न सिर्फ समझती है बल्कि जीती है। तत्काल के दौर में देश के मंत्री ही अगर कारपोरेट सेक्टर और लॉबियों को मुनाफा पहुंचाने में लगे हैं तो उसका चरम क्या हो सकता है, राजनीति ने इसे ही पकड़ने की कोशिश की है।
शुगर और चावल लॉबी को जनता की कीमत पर मुनाफा पहुंचवाना या फिर बिचौलियों के जरिये सरकार को ही चूना लगाकर कारपोरेट सेक्टर को लाभ पहुंचाना अगर तत्काल की सियासत है तो फिर भविष्य में कारपोरेट लॉबी से रिश्तों की गांठ परिवार से होते हुये देश की सत्ता को हथियाने या चलाने में भी होगी। महाभारत के चरित्र हर काल खंड में फिट हो सकते हैं लेकिन चरित्रों का चरित्र भी आधुनिक राजनीति के चरम के साथ बदलता चला जायेगा, यह हो तो रहा है,लेकिन यह कितना खतरनाक हो सकता है, इसे ही राजनीति महसूस कराती है। महाभारत के दुर्योधन और कर्ण के चरित्र आधुनिक दौर में युधिष्ठिर और अर्जुन से बेहतर और धर्म-परायण लगने लगते हैं। सियासत की हिंसा को धर्म का जामा चाहे महाभारत में कृष्ण ने पहनाया लेकिन आधुनिक राजनीति का चरम हिंसा के जरीये राजनीतिक जीत को ही असल सियासत मानती है। जिसमें कर्म का मतलब ही पहले गोली दागना है।
लेकिन सत्ता बगैर वोट बैक के चलती नहीं और महाभारत समाजिक ढांचे को धर्म-अधर्म में बांटे बगैर हक का सवाल खड़ा करता नहीं है। तो फिर राजनीति का चरम होगा क्या। दलित-आदिवासी-किसान समाज के भीतर से कोई सौदेबाजी के लिये निकल तो सकता है और राजनीति की चूलें भी हिला सकता है, लेकिन आखिर में यह तबके रहेंगे वोट बैंक ही। और अगुवाई करने वाला दलित-आदिवासी-किसान कुछ भी हो उसका ट्रांसफारमेशन उसी सियासत के अनुकूल होगा, जिसके खिलाफ उसके संघर्ष की शुरुआत होती है। यह संसद के हालात देखकर भी समझा जा सकता है, जहां दर्जन भर आदिवासी नेता हैं। साठ से ज्यादा दलित और अस्सी के करीब किसानी से निकले नेता हैं। लेकिन संसद विकास का नाम लेकर माओवाद के खिलाफ सबसे बडी लड़ाई आदिवासी इलाकों को लेकर लड़ रही है। जबकि हकीकत यही है कि देश के करीब 65 फीसदी आदिवासी भूमिहीन हैं। और देश के साठ फीसदी जंगल में करीब 80 फीसदी आदिवासी रहते हैं, जो देश के 187 जिलों में फैला पड़ा है।
लेकिन माओवाद महज 30 जिलों में है, मगर बाकी डेढ़ सौ जिलों में दो जून की रोटी भी बीते साठ सालों की संसदीय राजनीति नहीं पहुंचा सकी है। वहीं देश के सत्तावन फीसदी दलित भूमिहीन हैं। 65 फीसदी के पास रोजगार नाम की कोई चीज नहीं है। 85 फिसदी दलित दिहाड़ी मजदूरी पर जीता है । और किसानो की हालत इस देश में क्या हो चुकी है यह किसी से छुपा नहीं है। बीते पांच साल में एक लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं।
महाभारत में इस भूमिका को कर्ण जीता है तो राजनीति में दलित समाज से निकला अजय देवगन । महाभारत में कर्ण को आश्रय दुर्योधन देता है तो राजनीति में परिवारवाद में सत्ता को हक मानने वाला मनोज वाजपेयी। महाभारत में सत्ता के लिये द्रौपदी को भी दांव पर लगाने वाला युदिष्ठिर धर्म का राग जपता है तो राजनीति में अपराध और बलात्कार करने के बावजूद अर्जुन रामफल सत्ता का हकदार खुद को ही बताता है। महाभारत में अर्जुन का पराक्रम पांडवो को सत्ता दिलाता है तो राजनीति में अमेरिकी शिक्षा और तकनालाजी का ज्ञान रणबीर कपूर को पराक्रमी बनाता है, जिसके जरीये सत्ता के संघर्ष के हर नियम-कायदे बदल जाते हैं। वहीं महाभारत में कृष्ण धर्म के लिये गैर-अपनों का भेद खत्म करते हैं तो राजनीति में नाना पाटकर निहत्थों की हत्या का पाठ सत्ता के लिये पढ़ाते हैं। लेकिन महाभारत के अंत में युद्दभूमि पर गिरे योद्दाओं के जमघट के अलावे कुछ बचता है तो वह हत्याओं से सराबोर धर्म और उसकी छांव में करहाते पांडव। लेकिन राजनीति के अंत में सिवाय सत्ता के कुछ नहीं बचता। और सत्ता की प्रतीक द्रौपदी यानी कैटरिना कैफ और उसके पेट में सत्ताधारियो का अंश। और पराक्रमी अर्जुन यानी रणबीर कपूर राजनीति के चरम को बखूबी समझता है इसलिये सत्ता से बडी सत्ता अमेरिका ही उसकी रगो में दौड़ती है। तो फिर आधुनिक दौर के चैक एंड बैलेंस करने वाले संस्थान कहां गुम हो गये या फिर राजनीति का चरम क्या सत्ता में ही सबको समाहित कर लेगा।
यहां सवाल चौथे खम्भे का है, जिसे राजनीति आतंक मानती है और संस्थान सवाल खड़े करते हैं कि मीडिया किसी से भी सवाल पूछ सकती है तो मीडिया से कौन सवाल पूछेगा। और मीडिया खुद से सवाल पूछवाने से बचने के लिये उसी राजनीति की ओट लेने से नहीं चुकता जो खुद मुनाफे और सौदे का पर्याय बनने लगा है। राजनीति संस्थानो के भ्रष्ट होने से ज्यादा भ्रष्टाचार को ही संस्थान में बदल कर लोकतंत्र पर भी सवालिया निशान लगाती है। तो क्या राजनीति के चरम में वह संविधान भी नही बचेगा जो संसदीय राजनीति में लोकतंत्र की चाशनी लपेटकर पुरातनपंतियो को धर्म का उपदेश और आधुनिक दौर में कानूनी-गैरकानूनी का पाठ पढाकर मानवाधिकार से लेकर हक के सवाल को हाशिये पर ढकेल देता है। या फिर राजनीति का चरम महाभारत के अंत और प्रकाश झा की राजनीतिक सीमाओ से बाहर निकल कर कुन्ती पुत्र कर्ण के पिता या राजनीति के नसीरुद्दीन की क्रांति के सपने को दोबारा जगाने के लिये संन्यास छोड़ लौटेगा और विकल्प लुटियन्स के शहर से नहीं खेत-खलिहान और जंगल से शुरु होगा। जो सत्ता-कारपोरेट-मीडिया के कॉकस को भी तोडेगा और उस लॉबिंग के मिथ को भी चकनाचूर कर देगा जो मानता और मनवाता है कि मुनाफा बनाना-कमाना ही विकास की अर्थव्यवस्था का धर्म है।
विकल्प का यह राग उस राजनीति के मर्म को भी बदल देगा जो दलित को दलित और आदिवासी को आदिवासी बनाये रखकर पहले असुरिक्षत करते हैं फिर आतंक तले सुरक्षित कर लोकतंत्र का ऐलान करते हैं। यह भूख की उस आग को भी शांत करेगा जो राजनीति में अगर एक निवाले के लिये कभी लाल तो कभी नीला और किसी भी रंग का झंडा उठाकर राजनीति को लोकतंत्र का पर्याय बनाने से नहीं चूकती। तो उस राजनीतिक भ्रम को भी खत्म करेगी जो राजनीति को साफ-स्वच्छ बनाने के लिये पढ़े-लिखे युवाओं को साथ खड़ाकर खुद को पाक-साफ करारने का खेल भी खेल रही है। क्या राजनीति के चरम के बाद विकल्प का राग करोड़ों अकेले लोगों को साथ जोड़ेगा और देश के कमोवेश हर प्रांत में चल रहे आंदोलनों को एक सूत्र में पिरोकर इस एहसास को जगायेगा कि मुद्दा चाहे भूमि पर कब्जे का हो या खनन का या फिर पर्यावरण से लेकर रोजगार का। खेती में उजड़ते किसानों का सवाल हो या जमीन पर क्रंकीट का जंगल खड़ा कर पानी के संकट का। विकास की अंधी दौड़ में सबकुछ समेटने का मिजाज हो या फिर सबकुछ ध्वस्त कर तकनीक पर टिका जीवन। अगर देश में इन मुद्दों पर टिके आंदोलनों से जुडे लोगों की संख्या को जोड़ें और उन्हें ही देश मान कर सियासत की शुरुआत करें तो एक नया लोकतंत्र जन्म ले सकता है। और ऐसे में नयी "राजनीति " महाभारत पर नहीं नये भारत के आधार पर बनेगी जिसमें अजुर्न बने रणबीर कपूर की बिसात और आतंक पैदा करते मीडिया पर डायलॉग नहीं होगा बल्कि विकल्प बनाता नसीरुद्दीन डायलॉग बोलेगा, लोकतंत्र के नाम पर मुनाफा-सौदेबाजी की सियासत से बनी सत्ता को आतंक पैदा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
Friday, June 11, 2010
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गांधी के शब्दों से गांधी को उजाड़ने की खता |
“यू मस्ट बी द चेंज यू वांट टू बी "। महात्मा गांधी ने यह शब्द कब कहे पता नहीं लेकिन वर्धा में बापू कुटी जाने के रास्ते में बड़े बड़े अक्षरों में लिखे इन शब्दो ने बरबस शरीर में एक सिहरन जरुर दौड़ा दी कि कहीं बापू के लोग अब खड़े तो नहीं हो रहे। लेकिन कहीं कोई आंदोलन या किसी नयी पहल की खूशबू की जगह पहली बार सुपर थर्मल पावर स्टेशन का बोर्ड जरुर दिखा। फिर यूजीसीएल यानी उत्तम गलवा मेटेलिक्स लिमेटेड के इस 1400 करोड़ रुपये के 50 मेगावाट के थर्मल पावर प्रोजेक्ट के बारे में पूरी जानकारी के साथ बापू के वही शब्द हिन्दी में, "जो परिवर्तन आप चाहते है, उसे आप को ही करना होगा " बेहद छोटे अक्षरों में लिखे देखा। परिवर्तन के इस नयी बयार की अगुआ यूजीएमएल है या फिर महाराष्ट्र सरकार-समझ में नहीं आया। क्योंकि महात्मा गांधी 73 साल पहले 1936 में वर्धा गये थे और 1943 तक कमोवेश वर्धा में ही रहे। लेकिन विकास की अंधड में चाहे बापू विचार सरकार की नीतियों में उड़ गया लेकिन वर्धा की बापू कुटी अब भी 73 साल पहले के जीवन को जीता है। वहां गांधीवादियों की कुटिया बंबू और मिट्टी की दीवार से खड़ी है तो छत खपरैल की है, जिसे बनाने की कीमत आज भी सौ-दो सौ रुपये से ज्यादा की नहीं है। और मिट्टी-बंबू-खपरैल की दो दर्जन से ज्यादा कुटिया यहां इसीलिये आज भी मौजूद हैं क्योंकि कुटिया के दस किलोमीटर के रेडियस में ऐसी किसी विकास की धारा को लाने की मनाही है, जो यहा के पर्यावरण को बिगाड़ सकते हैं।
तो फिर बारबडी गांव तक सुपर थर्मल पावर स्टेशन कैसे पहुंच गया। जबकि महाराष्ट्र में सरकार उसी कांग्रेस की है जो गांधी का नाम लिये बगैर चलती नहीं। असल में यह सवाल राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते भी उठा था। तब वर्धा के भू-गांव में स्टील प्लांट लाया जा रहा था। लॉयड स्टील के नाम से लाये जा रहे इस प्रोजेक्ट को लेकर तब पहली बार गांधीवादियों ने परिवर्तन का असली मतलब समझाते हुये खुद को बदला और स्टील प्लांट के खिलाफ हंगामा खडा कर दिया। और आखिर में राजीव गांधी को हस्तक्षेप करना पड़ा। जिसके बाद समूचा मामला महाराष्ट्र प्रदूषण नियत्रंण बोर्ड को जांच के लिये दे दिया गया। इसी के बाद 23 परवरी 1994 को देश के पर्यावरण मंत्रालय ने बापू कुटी को हैरिटेज साइट का लाइसेंस दे दिया। इसके बाद से बापू की कुटिया के घोषित सुरक्षित क्षेत्र को लेकर कभी विकास के अंधड ने रुख किया नहीं।
लेकिन बीते पांच साल में जो अंधड विदर्भ में आया, उसने जिस तरह सबकुछ उजाड़ दिया है, उसमें एक साथ कई सवालों ने जन्म ले लिया है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यही है कि गांधी की बात अब गांधी की धारा को मिटा कर की जायेगी। क्योंकि किसानों की राहत के लिये प्रधानमंत्री राहत पैकेज का जो 3750 करोड़ सिर्फ विदर्भ के लिये पहुंचा, उसकी जानकारी अगर विदर्भ के 36 फीसदी किसानों को आज भी नही है और 52 फीसदी किसानों को एक पैसे की भी राहत नहीं मिली तो वर्धा के 55 फीसदी किसान गांदीवादी सोच लिये इस बात से अनभिज्ञ है कि कोई राहत प्रधानमंत्री ने दी है और विदर्भ के ग्यारह जिलो में सबसे ज्यादा वर्धा जिले के ही 81 फीसदी किसान हैं, जिनके पास कोई जमीन है और बतौर मजदूर जीने के लिये साहुकार पर निर्भर हैं।
विदर्भ के तेरह लाख अड़तालिस हजार किसान गरीब हैं, जिसमें चार लाख चौतिस हजार किसान अति गरीब की श्रेणी में आते हैं। वहीं इनमें सबसे ज्यादा गरीब किसान भी वर्धा के हैं और सबसे ज्यादा गरीब तादाद अगर किसानों की कही एक गांव में रहती है तो वह वर्धा ही है। गांधी को बदल कर अपनी सोच को परिवर्तन की सोच देने वाला सिर्फ यूजीएमएल नहीं है। बल्कि जमीन पर मालिकाना हक भी वर्धा में विदर्भ के दूसरे जिलों की तुलना में सिमटा हुआ है। यानी चंद लोगो के पास ही जमीन है। किसानी के नाम पर मजदूरो की तादाद वर्धा में इसलिये ज्यादा है क्योकि एक वक्त यहां छोटी छोटी जमीन तो भूमिहीनों को मिल गयी, लेकिन विकास की अंधड में जब सवाल पेट पालने का आया तो सिवाय कट्टा और आधे एकड़ की जमीन के मालिक होने का सुकून ही बचा। झटके में साहूकार भूपति होते हया और छोटी छोटी जुड़कर बड़ी होती गयीं। जिसके मालिको ने जब तक चाहा किसान से मजदूर बनाया और फिर निर्माण मजदूर।
असल में बारबडी गांव की वह जमीन जिसपर थर्मल पावर प्रोजेक्ट लगाने की योजना है वह भी उन्हीं साहूकारों की है, जो छोटे छोटे किसानो से ली गयी । जिसे किसी भी प्रोजेक्ट के लिये लेने में कोई परेशानी ना किसी कंपनी को आती ना ही राज्य सरकार के जहन में कोई आंशाका जनमती कि सिंगूर या नंदीग्राम सरीखा कोई आंदोलन यहा खड़ा हो सकता है। और ना ही लोग उस तरह एकजुट हो पाते जैसा वर्धा से सटे नागपुर में वर्धा रोड पर ही बन रहे अंतराष्ट्रीय कार्गो हब को लेकर विरोध हो रहा है । गांधी के परिवर्तन शब्द का इस्तेमाल कर विकास की अंधड कैसे सबकुछ मैनेज कर रही है, यह सरकार की उन नीतियों में भी झलकता है जिसमें सबकुछ खत्म कर दाने दाने के लिये सरकार पर निर्भर करने की नयी सोच पनप रही है। किसानों की बढ़ती खुदकुशी से घबरायी राज्य सरकार ने पांच साल पहले जब राशन में ज्यादा अन्न भेजना शुरु किया तो पहली बार लगा कि भूख को लेकर सरकार जागी है। लेकिन इसी साल विदर्भ के पौने सात लाख राशन कार्ड को बोगस करार देकर महाराष्ट्र सरकार ने जब रद्द कर दिया तो यह सवाल उठा राशन का अन्न भूखों तक पहुंचता नहीं है। लेकिन वर्धा में इसका नया नजारा ही देखने को मिला। जिन किसान-मजदूर या कहे बीपीएल परिवारों के पास राशन कार्ड है उन्हें राशन दुकान से ही कम कीमत में चावल मिल जाता है। और राशन कार्ड के बगैर उसी अन्न की कीमत दुगनी हो जाती है। यानी राशन का अन्न गरीबों को मिले इसके सार्वजनिक वितरण में अगर दुकानदार घपला कर कमा रहा है तो भी राशनकार्डधारी खुश हैं कि बाजार से कम कीमत में उसे राशनकार्ड दिखाकर अन्न तो मिल जाता है।
लेकिन राशनकार्ड न होने पर अन्न की कीमत इतनी बढ़ जाती है कि उसे पाने का रास्ता साहूकार के कर्ज लेने से होकर गुजरता है। ऐसे में वर्धा का किसान-मजदूर न तो पूरी तरह खड़ा हो पाता है और ना ही झुक कर टूटता है। लेकिन बापू कुटिया में सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के साथ ही वैश्नव कहीये... की वह धुन आज भी बजती है, जो 30 अप्रैल 1936 में महात्मा गांधी के पहुंचने के बाद से शुरु हुई थी और 1943 में बापू जब कुटिया छोड़ रहे थे तो उन्होने उस दौर में जिस भूमंडलीकरण का जिक्र किया, उसमें साम्राज्य स्थापित करते यूरोप के देशों का जिक्र था जो भारत जैसे देशो का दोहन कर उसके संसाधनो का उपयोग अपने देश के लिये कर रहे थे। लेकिन 67 साल बाद किसने सोचा होगा कि देश के भीतर ही बाजार का भूमंडलीकरण शुरु होगा और वर्धा की जमीन भी खामोश रहेगी।
Tuesday, June 1, 2010
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मनमोहन के फंदे में मीडिया |
मीडिया के पेड न्यूज की कहानी सत्ता के लिये लॉबिंग और कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे के लिये बिचौलिये की भूमिका तक पहुंचेगी, यह किसने सोचा होगा। खासकर उस दौर में जब पूंजी ही एक नयी सत्ता बनकर लोकतांत्रिक सत्ता को चुनौती दे रही हो। वैसे मीडिया का राजनीति से प्रेम आज का किस्सा नहीं है। पत्रकारों की एक बड़ी फौज आज भी यही मानती है कि पत्रकारिता एक लकीर के बाद कुंद पड जाती है इसलिये राजनीति ही उन पत्रकारों के लिये एकमात्र रास्ता है, जो सरकार की नीतियों को प्रभावित करने में बतौर पत्रकार काम करते रहे हैं। इसलिये पत्रकार के राजनेता बनने को सकारात्मक भी माना गया। लेकिन तब सोच यही रही कि अच्छे नेता और अच्छे पत्रकार का काम कमोवेश एक सरीखा ही होता है । इसलिये कभी पत्रकारिता ने राजनीति को प्रभावित किया तो कभी नेहरु से लेकर वाजपेयी तक प्रधानमंत्री रहते हुये यह कहने से नही चूके कि पत्रकार तो वह भी रह चुके हैं। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में यह सवाल दूर की गोटी बन चुका है कि प्रधानमंत्री बनने के लिये पत्रकार या नेता होने की भी जरुरत है। इसलिये पत्रकार के सत्ता के गलियारे में लॉबिंग करना या फिर सत्ता का पत्रकारों को अपने हुकुम का गुलाम बनाने के नये अंदाज में मनमोहन सिंह के दौर की राजनीतिक परिस्थितियों को समझना होगा, जिसने आजादी के बाद की पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था का काम तमाम कर दिया है। मनमोहन सिंह संसदीय राजनीति से उपजे नेता नहीं है। आम चुनाव में भागीदारी कर आम जनता के बीच से निकले हुये नेता भी मनमोहन सिंह नहीं है। तो फिर मनमोहन सिंह के सरोकार आम आदमी के साथ कैसे हो सकते हैं,, यह सवाल तुरंत उभरेगा।
लेकिन यहीं से एक दूसरा सवाल भी उठेगा की 2009 के चुनाव में तो मनमोहन सिंह की राजनीति के खिलाफ संसदीय राजनीति के जरीये अपना कद बनाने वाले लालकृष्ण आडवाणी मैदान में थे। तो फिर जनता ने उन्हें खारिज क्यों कर दिया। जबकि आम जनता से सरोकार की बात आडवाणी ताल ठोंककर करते रहे और मनमोहन के सरोकार आम आदमी से नहीं है, यह भी ताल ठोंक कर ही बताते रहे। लेकिन यूपीए की जीत और मनमोहन सिंह के दोबारा प्रधानमंत्री बनने से पहली बार उस राजनीति पर सवालिया निशान लगा जो जनता के बीच राजनीति कर अपना वोट बैंक बनाने पर भरोसा करती है। मसलन वामपंथियो का भी आम चुनाव में फेल होना। जबकि देश का सच यही है कि मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों से समाज में असमानता बढ़ी। आर्थिक सुधार से देश बाजार में तब्दील हुआ। नागरिकों से ज्यादा उपभोक्ता होना महत्वपूर्ण हो गया। बीते पांच साल में लखपति और करोड़पतियों की तादाद में अगर दशमलव सात फीसदी बढ़ोतरी हो गयी तो गरीबी की रेखा से नीचे की तादाद में सात फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई। यानी आर्थिक नीतियो का लाभ अगर देश के एक करोड़ लोगों को परोक्ष-अपरोक्ष हुआ या उन्हें लगा कि आर्थिक सुधार से वह उपभोक्ता हो गया तो सीधा नुकसान 10 करोड़ से ज्यादा लोगो को हुआ। यानी संसदीय लोकतांत्रिक राजनीति के लिये एक उम्दा माहौल तैयार हुआ। जिसमें जनता चाहती तो सत्ता पलट सकती थी। बावजूद इसके मनमोहन सिंह की जीत का मतलब साफ था कि जो नेता चुनावी राजनीति को सरोकार की राजनीति मानते है , उनका सरोकार आम जनता से कट चुका है। आम आदमी जिस अवस्था में रहता है, नेताओं का जीवन उससे कोसों दूर है। सीधे कहा जाये तो एक देश के एक छोटे से तबके की सुविधा के लिये मनमोहन सिंह ने जो आर्थिक नीतियां परोसीं, उसका लाभ उठाने में ही समूची राजनीति भिड़ गयी। जिसने धीरे धीरे नेताओ का जीवन और राजनीति करने के तौर तरीको में तो पांच सितारा माहौल जड़ दिया लेकिन आम आदमी के जीवन का हर सितारा ही नही उजड़ा बल्कि संसदीय राजनीति के जरीये देश बदला जा सकता है, यह परंपरा भी चुनाव मैदान में खारि्ज हो गयी।
लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की पहचान चुनाव है तो हर नीति के सफल-असफल की कहानी भी इसी चुनाव परिणाम पर टिकी है। तो मनमोहन सफल हैं, यह साबित हुआ । यह साबित नहीं हुआ कि संसदीय राजनीति के पारंपरिक तौर तरीके ही मनमोहन की आर्थिक नीति तले असफल हो गये। राजनीति के इस घालमेल में मंडल की राजनीति बीस साल में चक्र पूरा करती नजर आयी और बीजेपी सरीखी पार्टी भी जाति आधारित जनगणना पर तैयार हो गयी और कांग्रेस भी जातीय राजनीति का ढोल बजाने लगी। असल में मीडिया की सफलता - असफलता भी इसी दायरे में आ गयी। मीडिया में भी कुछ ऐसा ही अंतर आया और पत्रकारिता के पारंपरिक मूल्य आधुनिक मीडिया के सामने खारिज हो गये। मनमोहन सिंह की आर्थिक व्यवस्था ने पारंपरिक राजनीति-सामाजिक लक्ष्य को ही व्यवस्था में बदल दिया। यानी आजादी के बाद पचास बरस तक जो संसदीय राजनीति देश को हर क्षेत्र में स्वावलंबी बनाकर आर्थिक तौर पर मजबूती प्रदान करने में भिड़ी थी, उसे मनमोहन सिंह ने व्यवस्था को तोड़-मरोड़ कर आर्थिक लाभ का एक ऐसा घेरा बनाया, जिसमें स्वावलंबन शब्द गायब हो गया। और आर्थिक मजबूती ही नया मंत्र बन गया।
पास में पूंजी रहे तो हर सुविधा भोगी जा सकती है । इसके लिये खेती का इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने की सोच हाशिये पर चली गयी। उत्पादन से जुड़े धंधों को चौपट करने की दिशा में बकायदा नीतिगत फैसले लिये गये। इससे इतर सट्टेबाजी की महत्ता देश के सामने उभारी गयी यानी पूजी से पूंजी बनाने का खेल ही विकास की हकीकत है। क्योंकि पूंजी रहे तो राजनीतिक और सामाजिक मान्यता पायी जा सकती है। पूंजी रहे तो संसद से लेकर कॉरपोरेट घरानों के अंतर को भी मिटाया जा सकता है। और पूंजी रहे तो हर संस्थान को देखने-दिखाने का एक ही नजरिया समूचे समाज के सामने परोसा जा सकता है। पूंजी रहे तो कल्याणकारी राज्य की सोच बेमानी साबित की जी सकती है। और पूंजी के आसरे संसदीय सत्ता को भी बेबस पेश किया जा सकता है। मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था में इसका ताना-बाना किस हुनर से किया गया यह सत्ता में अगर कॉरपोरेट घरानों के दखल से समझा जा सकता है तो कॉरपोरेट घरानों की सत्ता के आगे संसदीय सत्ता के नतमस्तक होने से भी जाना जा सकता है। वह दौर पुरातन काल का प्रतीक है, जब पैसे वालो को संसद में पहुंचने से रोकने के लिये खुद राजनीति ही सामने आ खड़ी होती थी। अब तो हर कॉरपोरेट घराने के सर्वेसर्वा को राज्यसभा में लाने के लिये राजनीति ही चिरौरी करती है।
जब मनमोहन की अर्थनीति के घेरे में कल्याणकारी राज्य की समझ ही गुम हो चुकी है और संसदीय राजनीति अपना आस्तितव ही पूंजी के मुनाफे तले टटोल रही है तो मीडिया की क्या बिसात। इस व्यवस्था में मीडिया को परिभाषित करने के लिय पत्रकारिता के बोल नहीं बल्कि पूंजी और मुनाफे के बोल ही मान्यता पा सकते हैं। यानी मनमोहन सिंह की व्यवस्था में पैसा कमाना ही पहला और आखिरी सच बन चुका है। ऐसे में लोकतंत्र का कोई खम्भा यह दावा नहीं करता कि बगैर उसके देश नहीं चल सकता और कोई खम्भा यह भी नहीं सोच पाता कि उसकी मौजूदगी तो चेक एंड बैलेंस के तहत है। इसीलिये राजनीति से सरोकार के पारंपरिक मूल्य भी बदले हैं। जो मीडिया पहले राजनीतिक सत्ता को अपनी लेखनी से प्रभावित करता था अब वह वित्तीय संस्थानों और कॉरपोरेट घरानों को प्रभावित करने लगा है। पहले राजनीति ही पत्रकार की मंजिल हो जाया करती थी। अब कॉरपोरेट घरानों से उसका सरोकार बढ़ा तो मंजिल भी कॉरपोरेट घराने हो चले हैं।
इसका असर पत्रकारीय क्षेत्र में कारपोरेट घरानों के लिये काम कर रहे पत्रकारो की फौज से भी समझा जा सकता है। दो सौ से ज्यादा पत्रकार दिल्ली के राजनीतिक गलियारो में या नौकरशाहो के दप्तरो में अपने अपने आकाओं के धंधे के मुनाफे के लिये दस्तावेज जुगाड़ने से लेकर राजनीतिक लॉबिंग करते नजर आते हैं। इन पत्रकारो ने पारंपरिक पत्रकारिता छोड़ कर कॉरपोरेट सेक्टर के मीडिया ब्रांच में नौकरी करना ज्यादा बेहतर समझा। इसलिये अब बाबूओ के दप्तरो से कोई पत्रकार किसी दस्तावेज को नहीं पाता। क्योंकि कभी खबरों के लिये या कहे देश हित के लिये जो बाबू मुफ्त में पत्रकारों को दस्तावेज दे देता था, अब उस दस्तावेज की कीमत लगने लगी है। और कॉरपोरेट सेक्टर हित-अहित देखकर दस्तावेजों को मीडिया में रिलीज करता है और उन दस्तावेजो को कोई ना कोई पत्रकार जो कॉरपोरेट के लिये काम कर रहा है , अनमोल कीमत देकर खरीद लेता है। यानी नेहरु से लेकर वाजपेयी तक को अगर फक्र होता कि वह पत्रकार भी रह चुके थे और संपादक मंडली के कई बड़े पत्रकारों ने अगर राजनीति में सीधी भागेदारी करके यह जताया कि वह जनता की सेवा राजनीति में आकर करना चाहते थे तो मनमोहन सिंह के दौर में हालात बिलकुल बदल चुके हैं। अब पत्रकार का रास्ता कॉरपोरेट घरानो की दिशा में जाता है। और किसी कंपनी का मालिक या कॉरपोरेट घराने में नीतियों को बनाने में लगा कोई व्यक्ति कह सकता है कि वह भी पत्रकार है। और जो यह बात कह रहे हैं या कहेंगे उनकी मान्यता सत्ता से लेकर मीडिया के क्षेत्र में भी ज्यादा होगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिये लॉबिग या कॉकस बनाने पर मीडिया या पत्रकार को घेरकर यह सवाल तो उठाया जा सकता है कि पत्रकारिता पटरी से उतर चुकी है लेकिन संसदीय राजनीति का लोकतंत्र ही पटरी से उतर चुका है, इस पर बहस नहीं की जा सकती । इसीलिये प्रेस कान्फ्रेन्स में प्रधानमंत्री से कोई पत्रकार बीते छह साल में एक लाख से ज्यादा किसानो की खुदकुशी पर कुछ नहीं पूछता । बीपीएल का आंकडा 47 करोड़ पहुंच जाने पर कोई सवाल नहीं करता। रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या 12 करोड़ पहुंचने के कारणों पर सवाल नहीं करता तो समझना यह भी होगा कि मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री कहकर मीडिया कहकहा तो लगा सकती है लेकिन इस सच को अपने अक्स में देखना नहीं चाहती कि कमजोर कहने की ताकत भी वही सत्ता दे रही है, जो दिनोंदिन मजबूत होती जा रही है। और उसका राजनीतिक विकल्प अब भी पारंपरिक संसदीय राजनीति में देखा जा रहा है जो खुद मनमोहन की अर्थनीति से लाभ कमाने में जुटी है और आम जनता से कट चुकी है ।