नागपुर का आंनद होटल। सुबह का नाश्ता करने सीताबर्डी के इसी होटल में किसी ने आजाद को बुलाया था। यहीं पर आजाद के साथ हेम पांडे भी था। और जिस तीसरे शख्स ने इस होटल को सुबह बातचीत और नाश्ते के लिये चुना, वह जानता था कि इस गली से निकलने के सिर्फ दो ही रास्ते हैं। करीब दो सौ मीटर की इस सड़क के बीचोंबीच ही यह होटल है और होटल में कौन जा रहा है कौन निकल रहा है, इस पर गली के दोनों सिरे से ही नज़र रखी जा सकती है। यानी होटल में घुसते-निकलते व्यक्ति को अंदाज ही नहीं हो सकता कि उस पर कोई नज़र रखे हुये है। सुबह के वक्त इस होटल के अलावा अगर कोई दुकान खुली रहती है तो वह मैगजीन कॉर्नर है।
अब सवाल है कि वह तीसरा व्यक्ति कौन है, जिसने आजाद को बुलाया। आजाद के साथ नाश्ता किया। और उसके बाद वह गायब हो गया। और सीताबर्डी से डेढ़ किलोमीटर दूर स्टेशन रोड पर स्थित बस स्टैंड से बस पकड़कर आजाद को गढ़चिरोली रवाना होना था। वहीं इस सीताबर्डी सड़क का मुहाना सीधे उस वर्धा रोड से मिलता है, जो सड़क सीधे नागपुर के बाहर से ही वर्धा होते हुये चन्द्रपुर, गढ़चिरोली होते हुये आंध्र प्रदेश की सीमा में घुस जाती है । और जिस गाड़ी में आजाद को ले जाया गया, वह गाड़ी कार थी। यानी सरकारी पुलिस जीप नहीं थी। सबकुछ योजना के तहत हुआ।
लेकिन तीसरा व्यक्ति कौन था और उस पर अगर आजाद को भरोसा था तो फिर वह व्यक्ति उसके बाद से गायब क्यों है। यह आजाद की मौत के बाद नागपुर में तैनात नक्सल विरोधी पुलिस[ एंटी नक्सल आपरेशन ] की अपनी रिपोर्ट है। अपनी पहल पर नागपुर के एंटी नक्सल ऑपरेशन की यह रिपोर्ट कई मायने में महत्वपूर्ण है। रिपोर्ट तैयार करने का मतलब है कि समूचे रेड कारिडोर में सिर्फ नागपुर ही वह जगह है, जहां एडीजी रैंक के आईपीएस की तैनाती एंटी नक्सल ऑपरेशन के तहत है और वही जांच करा रहे है कि नागपुर से आजाद को बिना उनकी जानकारी के कैसे उठा लिया गया। यानी एंटी नक्सल आपरेशन भी मान रहा है कि आजाद को नागपुर से आंध्रप्रदेश के अदिलाबाद में ले जाया गया। रिपोर्ट के अंश यह भी संकेत दे रहे हैं कि हाल के दौर में आंध्र प्रदेश की एसआईबी महाराष्ट्र पुलिस या एंटी नक्सल ऑपरेशन के अधिकारियों को जानकारी दिये बगैर दो दर्जन से ज्यादा ज्यादा लोगों को उठा चुकी है।
इससे पहले महाराष्ट्र के इस एंटी नक्सल आपरेशन ने कभी आंध्र प्रदेश पुलिस की ऐसी कारर्वाइयों के लेकर कोई पहल की नहीं। लेकिन आजाद के एनकाउंटर के बाद जब राजनीतिक तौर पर इसे फर्जी बताते हुये इसकी जांच की मांग की जा रही है तो एंटी नक्सल ऑपरेशन के सामने यह भी सवाल खड़ा हुआ है कि इसमें उसकी भूमिका को लेकर भी सवाल खड़े हो सकते हैं। इसलिये एक अपनी रिपोर्ट तैयार की गयी है। महाराष्ट्र में इस एंटी नक्सल आपरेशन का महत्व क्या है, इसे इस रुप में भी समझा जा सकता है कि यहां एडीजी रैंक के आईपीएस की तैनाती नब्बे के दशक से है। नब्बे के दशक में जब आंध्र में सक्रिय नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप ने आंध्र की सीमा से सटे महाराष्ट्र के विदर्भ में पैर पसारे तो उस दौर में महाराष्ट्र सरकार को लगा कि नक्सल अभियान को फैलने से रोकने के लिये एक आईपीएस की तैनाती अलग से होनी चाहिये। और 1990 में पहले भंडारा इसका केन्द्र बना। क्योंकि तब नक्सलियों ने सिर्फ चन्द्रपुर, गढ़चिरोली और भंडारा में पैर पसारे थे। लेकिन 1992 में नक्सल विरोधी अभियान के कमिश्नर का हेडक्वाटर नागपुर बनाया गया। लेकिन पिछले नौ महीने छोड़ दें तो 18 साल में ऐसा कभी मौका नहीं आया कि नागपुर में तैनात नक्सल विरोधी अभियान के पुलिसकर्मियों की जानकारी के बगैर कोई माओवादी आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ या झारखंड पुलिस के घेरे में आया हो। या फिर दूसरे राज्य की पुलिस ने बिना महाराष्ट्र की पुलिस के सहयोग के महाराष्ट्र में अपने काम को अंजाम दिया हो।
रिपोर्ट बताती है कि नागपुर से आजाद को पकड़ने से लेकर उसके एनकाउंटर की खबर आने के बाद तक महाराष्ट्र की नक्सल विंग को कोई जानकारी नहीं थी कि आंध्र प्रदेश एसआईबी कैसे महाराष्ट्र में बिना जानकारी के घुसी। कैसे नागपुर में आकर उसने अपने ऑपरेशन को अंजाम दिया। कैसे महाराष्ट्र के चार जिलों को पार कर आंध्र के अदिलाबाद तक आजाद को बिना जानकारी ले जाया गया। रिपोर्ट में यह भी दर्ज है कि आंध्र एसआईबी के अधिकारी 27 जून को ही नागपुर आ गये थे। यह दिन रविवार का था। यानी उन्हें आजाद के नागपुर पहुंचने की जानकारी पहले से थी। और इसके लिये पहले से व्यूह रचना की गयी। जितनी गाड़ियों ने महाराराष्ट्र की सीमा पार की और नागपुर से आंध्र की सीमा पर कदम रखने से पहले दो जगहों पर टोल टैक्स दिया, उसमें आंध्र की किसी पुलिस जीप के नंबर का कोई जिक्र नहीं है। अन्य गाड़ियों को लेकर जांच रिपोर्ट ने सिर्फ तीन वाहनों पर संदेह जाहिर किया है, जिसमें टाटा इंडिका कार, बुलेरो और टाटा सूमो हैं। लेकिन इन गाडियो के नंबरों की वैधता पर जांच रिपोर्ट में संदेह किया गया है। जो रिपोर्ट महाराष्ट्र के गढचिरोली से आयी है, उसमें इन तीनो गाड़ियों के फर्जी नंबर होने के संकेत भी दिये गये हैं। यानी संकेत यह भी है कि जिन तीन गाड़ियों के नंबर प्लेट संदेहपूर्ण पाये गये, उन्हीं को जांच के दायरे में लाया गया है।
लेकिन अब एंटी नक्सल ऑपरेशन के सामने नया सवाल यह है कि दस्तावेजों में जब इससे पहले कभी भी आंध्र प्रदेश की पुलिस महाराष्ट्र में घुसने से पहले अपने आपरेशन की जानकारी देती रही है तो इस बार उसने क्यों नही दी। हालांकि सीमावर्ती जिले गढ़चिरोली या चन्द्रपुर में नक्सल विरोधी कार्रवाई को अंजाम देने के लिय लिये आंध्र पुलिस ने स्थानीय स्तर पर जानकारी देकर ही काम किया है। मगर चार जिलों के पार नागपुर आकर अपनी कार्रवाई को अंजाम देने के बावजूद नागपुर के नक्सल आपरेशन के हेडक्वाटर को अगर इसकी जानकारी नहीं दी गयी तो क्या यह समझ-बूझ कर किसी निर्देश के तहत किया गया या फिर इसकी जानकारी ऊपरी अधिकारियों को थी और नागपुर में ही एंटी नक्सल आपरेशन को इसकी जानकारी नहीं दी गयी।
महत्वपूर्ण यह भी है कि पिछले एक- डेढ़ साल में जब से नक्सल गतिविधियों ने सीधे सरकार को चुनौती दोनी शुरु की है, इसी दौर में नागपुर के एंटी नक्सल अभियान का कद छोटा किया गया है। अब एडीजी की जगह आईजी रैंक के आईपीएस की अगुवाई में डेढ़ साल से एंटी नक्सल ऑपरेशन काम कर रहा है। लेकिन आजाद के एनकाउंटर में अपनी चूक की जांच कर रहे महाराष्ट्र की एंटी नक्सल ऑपरेशन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इस टीम को अदिलाबाद के जंगलों में अपनी जांच को अंजाम देने जाने नहीं दिया गया। जबकि आंध्रप्रदेश की मानवाधिकार टीम नागपुर-अदिलाबाद का दौरा कर अपनी रिपोर्ट तैयार कर चुकी है। इस पर एंटी नक्सल ऑपरेशन की जांच रिपोर्ट में टिप्पणी भी है कि एक राज्य से दूसरे राज्य में सरकारी तौर पर इजाजत ले कर जाने को मंजूरी नहीं मिलती लेकिन बिना इजाजत कोई भी कही जा कर किसी भी कार्रवाई को अंजाम दे सकता है। लेकिन इस रिपोर्ट का सबसे संवेदनशील पहलू यह है कि इसमें आजाद के नकाउंटर को आंध्रप्रदेश की जगह महाराष्ट्र सीमा में ही अंजाम देने की बात कही गयी है। क्योंकि अदिलाबाद सीमा चेकपोस्ट पर तैनात फारेस्ट विभाग के एक कर्मचारी ने महाराष्ट्र एंटी नक्सल ऑपरेशन को इसकी जानकारी दी है कि आंध्र के एसआईबी टीम की आवाजाही उसने उसी दौर में जरुर देखी, जिस दौर में आजाद के एनकाउंटर की खबर आयी।
लेकिन उसने गाड़ियों की आवाजाही में कभी किसी नये चेहरे को नहीं देखा। क्योंकि आजाद का चेहरा तो भी आंध्रवासी का है, मगर उत्तराखंड के पत्रकार हेमचंद पांडे का चेहरा किसी भी आंध्रवासी से बिलकुल अलग था और एकदम नया चेहरा आंध्र पुलिस के साथ देखा नही गया । गौरतलब है कि आंध्र-महाराष्ट्र पर पुलिस जांच दल या किसी सरकारी अधिकारी की गाड़ियों की चैकिंग नहीं की जाती है। इसलिये रिपोर्ट इस बात के भी संकेत देती है कि सरकारी अधिकारियों की गाड़ी के अंदर अगर कोई मरा हुआ व्यक्ति भी हो तो उसके बारे में भी बाहर खड़े व्यक्ति को पता नहीं चल सकता है।
जाहिर है यह रिपोर्ट अपने बचाव के लिये पहले से ही महाराष्ट्र के एंटी नक्सल आपरेशन ने अपने डिपार्टमेंट के लिये किया है। लेकिन इस दौर में आंध्रप्रदेश के मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं ने अदिलाबाद के पहाड़ी जंगलों के इर्द-गिर्द गांवों को टटोल कर जो रिपोर्ट तैयार की है, उसमें एनकाउंटर के कोई तथ्य यहां नहीं मिले हैं। यह कहा जा सकता है कि अगर अदिलाबाद में एनकाउंटर के चिन्ह नहीं मिले तो यह फर्जी रहा होगा लेकिन आंध्र पुलिस की मानें तो जो मानवाधिकार कार्यकर्त्ता अदिलाबाद के जंगलों में पहुंचे वह माओवादियो के हिमायती ही है। लेकिन समझना यह भी होगा कि अगर महाराष्ट्र की एंटी नक्सल ऑपरेशन को अपनी डिपार्टमेंट इन्क्वारी के लिये अदिलाबाद के जंगलों में जाने की इजाजत नहीं मिलती लेकिन उसकी रिपोर्ट नागपुर से आजाद के तार जुड़े होने की पुष्टि करती है तो फिर एनकाउंटर सही है या नहीं यह कोई बहुत अबूझ सवाल नहीं है।
जाहिर है ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि अगर चेमकुरी राजकुमार उर्फ आजाद के एनकाउंटर को लेकर माओवादियों से लेकर सोशल एक्टीविस्ट स्वामी अग्निवेश और मेघा पाटकर से लेकर केन्द्रीय मंत्री ममता बनर्जी अगर जांच की मांग कर रही हैं, तो इसके पीछे सिर्फ सरकार से बातचीत को रोकने की मंशा के लिये एनकाउंटर की थ्योरी भर नहीं है। बल्कि महाराष्ट्र के एंटी नक्सल ऑपरेशन की जांच में भी इसके खुले संकेत है कि माओवादी अब अपना आधार पूरी तरह बंगाल-झारखंड के सीमावर्ती इलाके में शीफ्ट कर रहे हैं। और इसकी शुरुआत 2004 में एमसीसी के साथ पीडबल्युजी के गठन से शुरु हुई थी। इसीलिये सरकार से बातचीत के दिशा-निर्देश भी सीपीआई माओवादी के महासचिव के बदले पोलित व्यूरो सदस्य किशनजी के जरीये आ रहे हैं। जबकि इससे पहले 2002 और 2004 में जब आंध्र सरकार से पीपुल्स वार ने बातचीत की थी तो उसके दिशा-निर्देश बकायदा पार्टी महासचिव के जरिए जारी किये गये थे। लेकिन नक्सल संगठनों में यह बदलाव आंध्र पुलिस के लिये एक बड़ा झटका है क्योकि बीते बीस बरस की कहानी नक्सलियों को लेकर आंध्र में यही रही है कि राज्य के बजट के बराबर केन्द्र और राज्य से उन्हें नक्सलवाद को खत्म करने के लिये आर्थिक मदद मुहैया करायी जाती रही है। और नागपुर में जिस तीसरे व्यक्ति का जिक्र रिपोर्ट में किया गया है, वह भी आंध्र प्रदेश का ही था इसके संकेत एलआईबी दे रही है।
Friday, August 27, 2010
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आजाद के एनकाउंटर पर सवाल |
Thursday, August 26, 2010
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10 करोड़ के मुआवजे पर 6 लाख करोड़ का धंधा (पार्ट-2) |
सपनों के इस शहर के प्रचार के लिए ब्रांड एम्बेसेडर भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह घोनी हैं। तो गाहे बगाहे एफएम पर जो प्रचार की आवाज सुनायी देती है वह बीजेपी सांसद शत्रुध्न सिन्हा सरीखी है। अब आवाज डुप्लीकेट की भी हो सकती है मगर डायलॉग वही "खामोश" वाला है। खैर 6 लाख करोड़ की प्लानिंग को पास करने के लिये सरकार को राजनीतिक रकम भी चाहिये। तो अब उसकी सौदेबाजी पांच से दस हजार करोड़ के बीच की है । सौदेबाजी कितने में होगी यह तो कोई कभी नहीं बता पायेगा क्योकि यह रकम भी किसी दस्तावेज में लिखी आपको नहीं मिलेगी। लेकिन इस पर सहमति का ठप्पा भी अब एक महिने के भीतर लगेगा ही। क्योकि उत्तरप्रेदश में 2012 के विधान सभा चुनाव से पहले अगर सपनों के इस शहर की कोई योजना अटकी और कही राज्य में सत्ता परिवर्तन हो गया तो फिर करोड़ों का प्रसाद नयी सरकार को भी चढ़ाना पड़ जायेगा। इसलिये जिस तेजी से 500 एकड़ हरित जमीन को कंक्रीट बनाने के लिये ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण लगा है और लखनऊ से दिशा-निर्देश दिये जा रहे हैं, उसमंे सहमति की लकीर इतनी मोटी है कि कोई भी रकम मायने नहीं रख रही।
मगर एक नजर जरा पर्यावरण को लेकर इस सपनों के शहर से लेकर दादरी के रिलायंस पावर प्रोजेक्ट तक पर डालनी जरुरी है। लेकिन पहले यह भी समझ लेना होगा कि जिन लोगो ने यहा घर बुक किये हैं, उसमें से नब्बे फीसदी ऐसे हो जिनके पास कहीं ना कहीं पहले से अपना घर हैं। तो फिर सपनो के इस शहर की जरुरत किसे है। और विकास की इस लकीर का मतलब है क्या। यह सवाल जरुरी इसलिये है क्योकि हिंडन नदी के जिस मुहाने पर यह पूरा प्रोजेक्ट बन रहा है, अगर वहां से दादरी तक की जमीन को देखे तो करीब बीस किलोमीटर तक की जमीन पूरी तरह खेती वाली है। तीन-चार फसली इस जमीन पर सिंचाई को कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। यहा एक प्वाइंट बिजली भी नहीं है, जो किसानों को एक बल्ब की रोशनी दे सके। खेत में पानी जमीन से मोटर पंप के जरीये ही खींचा जाता है। बिजली न रहने की वजह से डीजल पर ही समूची सिंचाई व्यवस्था टिकी है। खाद और बीज भी यहां के खिसानों को सरकार से कम राशनिंग कीमत पर नहीं मिल पाता है। यानी मायावती का 21 सूत्रीय कार्यक्रम का जो बोर्ड समूचे लखनऊ शहर में पटा पडा है, उसमें किसानों को दी जानी वाली कोई भी सुविधा यहां के किसानों के पास नहीं है या कहें उन्हें मिलती नहीं है। जबकि राज्य भर में मायावती की मुनादी है कि किसानों को सिंचाई के लिये जो इन्फ्रास्ट्रक्चर चाहिये, उसपर बाबुओं को तुंरत कार्रवाई करनी चाहिये।
जिन किसानों की जमीन सपनों के शहर के प्रोजेक्ट में चली गयी या जिन्होंने दे दी है, उनके मुताबिक उनके सामने और कोई विकल्प था भी नहीं। क्योंकि खेती को लेकर उनके साथ जानबूझकर नकरात्मक रुख और कोई नहीं सरकारी बाबू ही अपनाता। इसलिये खेती का जितना खराब इन्फ्रास्ट्रक्चर इस इलाके में मौजूद है, उतना समभवत विदर्भ में है। जहां किसानों की रिकॉर्ड खुदकुशी जारी है। लेकिन यहां किसानों को इस बात के लिये प्रेरित किया गया कि उनकी खेती यह हो नहीं सकती है। अगर उन्हें खेती करनी ही है तो जमीन के बदले जो मुआवजा मिले उससे किसी दूसरे जिले में खेती की जमीन खरीद कर खेती करें।
सरकार अगर इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाना चाहे और पुलिस प्रशासन अगर काम करने लगे तो क्या कुछ नहीं हो सकता, यह अब सपनों के शहर में जाने के लिये बने रास्ते पर चलते हुये आपको एहसास हो सकता है। फरवरी 2010 तक जिन इलाको में जाने के लिये हिंडन नदी पैदल पार करनी पड़ती और जहां बैलगाड़ी का चलना भी मुश्किल होता क्योंकि मिट्टी और पत्थरों के छोटे छोटे पहाड कुकुरमुत्ते की तरह रास्ते में खड़े थे। और सूरज ढलते ही जिन जगहों पर जुगनू घुमड़ते थे। शाम पांच बजे के बाद अकेले जाना मौत को दावत देना होता था। अब वहा चार लेन की सड़क पर शानदार बीएमडब्लू-टोयटा-मर्सिडिज सरपट भागते आप कभी भी देख सकते हैं। अंधेरा होने से पहले सड़क किनारे रोशनी जगमगाने लगती है। पुलिस की पेट्रोलिग जीप हमेशा सुरक्षा के लिये खड़ी रहती है।
सवाल है यह सब कुछ किसानों के लिये क्यो संभव नहीं है। आखिर क्यों सरकार या राज्य की प्राथमिकता अन्न का उत्पादन नहीं है। आखिर क्यों सत्ता यह नहीं चाहती की देश स्वावलंबी हो। आखिर किसान, मजदूर, आदिवासी या ग्रामीणों को इस देश में नागरिको के अधिकार भी नहीं मिलते। आखिर क्यों अपने ही नागरिको से छलकपट कर सत्ता एक हाथ राजनीतिक सौदा भी करती है और देश को बाजार में तब्दील कर खुद मुनाफे में हिस्सेदारी कर लोकतंत्र की दुहाई भी देती है। यह कैसे संभव है कि खादान्न की कमी को लेकर गरीबी की रेखा से नीचे वालों की संख्या को लेकर लगातार राज्य और केन्द्र टकराव हो। क्योकि अगर उत्तर प्रदेश में ही बीपीएल परिवार उसकी संख्या से ज्यादा होगे तो उसे अन्न ज्यादा देना होगा और राज्य लगातार कहे कि जो संख्या केन्द्र बता रहा है वो बीपीएल की असल संख्या का आधा भी नहीं है। बावजूद इसके सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही बीते दस साल में कुल खेती की जमीन का साढ़े छह फीसदी इसी तरह कंक्रीट के जंगल में तब्दील करने की इजाजत सरकार ने बिल्डरों को दे दी। और जहां जहां जमीन कंक्रीट में बदली वहां की जमीन के नीचे पानी पानी औसतन 200 फीट नीचे चला गया।
वैसे देश की हालत उत्तर प्रदेश से कही ज्यादा वीभत्स है। क्योकि खेती योग्य जमीन का आठ फीसदी इस दौर में कंक्रीट के हवाले कर दिया जा चुका है। फिर सोनिया गांधी की अगुवाई में एनएसी जब खाद्यान्न सुरक्षा कानून के जरीये गरीबी की रेखा से नीचे जिलो का ब्यौरा दिया गया तो केन्द्र सरकार ने उस पर सवाल खड़ा किये । यानी जब समूचा देश और समूची राजनीति और सारी सत्ता इस तथ्य से वाकिफ हो कि अन्न इस देश का पेट भरने के लिये पूरा नहीं है और अन्न का होना देश की पहली जरुरत है तो फिर विकास की लकीर उस घेरे को मजबूत करने की दिशा में क्यों बह रही है। जहां घरवालो के लिये घर बने। जिससे वह अपनी पूंजी को आर्थिक सुधार की धारा में बढ़ा सके। पैसेवालो के लिये घर के आहाते में ही पांच सितारा होटल,अस्पताल,मल्टीप्लेक्स,शापिंग सेंटर बने। और यह सब किसानों से धोखाघडी कर खेती की जमीन को स्वाहा कर बने। क्या विकास का यह खेल सिर्फ इसलिये नहीं खेला जा रहा है जिससे दस करोड़ की एवज में छह लाख करोड का धंधा कर एक तबके को इस भरोसे में लिया जा सके कि देश में लोकतांत्रिक विकास का ढांचा यही है। और इसका लाभ उठाने में जब सामूहिकता का बोध है तो यह अपराध नही लोकतंत्र है। ऐसे में अगर अपराध के लोकतंत्र के घटित होने से पहले और बाद का सीन आप नंगी आंखो से देखना चाहते हैं तो एक बार अभी जा कर इस पूरे इलाके की हरियाली के बीच खड़े होकर जमकर सांस लीजिये। आपको एहसास होगा की आपके भीतर शुद्द हवा जा रही है। और इसके बाद 2014 में आकर फिर देखियेगा। जहां सांस लेने का मतलब कंक्रीट के कणों को सांसों में ले जाना होगा। क्योकि 500 एकड़ पर जब ईंट-गारे का जंगल तैयार होगा तो अगली खेप में बाकि 500 एकड़ पर काम शुरु होगा। जिसका लाइसेंस यूपी की अगली सरकार देगी। और तब हो सकता है किसानों को 10 की जगह 15 करोड़ मिल जाये या फिर इस दौर में खेती और गांव कंक्रीट तले पूरी तरह खुद ही खत्म हो जाये और मुआवजा वह भी ना मिले। लेकिन यह तय है कि अगले फेस का धंधा 6 लाख करोड़ का नहीं 10 लाख करोड से ज्यादा का होगा। सवाल है विकास की यह धारा किसे मंजूर है और अविरल बह रही इस धारा में देश के 80 करोड़ लोगों टिकते कहां हैं?
Monday, August 23, 2010
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10 करोड़ के मुआवजे पर 6 लाख करोड़ का धंधा |
किसानों की जमीन पर सपनों के शहर का सपना
कर्नाटक के रेड्डी बंधुओ पर आरोप है कि उन्होंने अवैध खनन के जरीये करीब 60 हजार करोड़ का चूना सरकार को लगाया। छत्तीसगढ की रमंन सरकार पर आरोप है कि उन्होंने विकास के नाम पर अवैध खनन की इजाजत आधा दर्जन कंपनियों को दी, जिसमें करीब 5 लाख करोड़ के वारे न्यारे हो गये। झारखंड में मधु कोडा ने मुख्यमंत्री रहते हुये इसी तरह करीब 90 हजार करोड़ के वारे न्यारे किये और उड़ीसा में तो सिर्फ पास्को में ही 50 हजार करोड़ के वारे न्यारे हुये। कमोवेश हर राज्य में विकास की लकीर खींच कर जिस तरह चंद हाथों को मुनाफा कमाने का लाइसेंस देते हुये सरकार भी करोड़ों का वारे-न्यारे करते हुये अपनी राजनीति को साधती है, उससे अब यह साफ होता जा रहा है कि सत्ता का मतलब उस अर्थव्यवस्था को पोसना है, जिसमें एक तबका ही राज्य है। उस तबके की जरुरत, उसकी सुविधा और अर्थव्यवस्था का ढांचा कुछ इस तरह मिला हुआ हो कि देश को इन हाथों में बेचने पर भी खूशबू विकास की ही आये। यानी इस घेरे में किसान, आदिवासी, ग्रामीण, मजदूर जैसे तत्व मायने ना रखें।
इतना ही नहीं इन तत्वों को कीड़े-मकौडे की तरह मसल कर इन्हीं की जमीन पर विकास का ढांचा कुछ उस तरह खड़ा किया जाये, जिससे लगे कि देश प्रगति की राह पर है। प्रगति की यह राह बनायी कैसे जाती है, उसका एक चेहरा दिल्ली से सटे नोएडा और ग्रेटर नोएडा के बीच बहती हिंडन नदी के किनारे करीब पांच सौ एकड़ जमीन के आसरे समझने की कोशिश कीजिये। हालांकि यहा हरित जमीन तकरीबन एक हजार एकड़ है, जिसमें खेती भी होती है और कई गांवों के लोगों का पेट भी इसी खेती के आसरे भरा जाता है। करीब दो हजार पेड़ भी यहां मौजूद है और हिंडन नदी का पानी भी सिंचाई में मदद करता है। यानी दिल्ली से महज बीस किलोमीटर की दूरी पर खड़े होकर कोई भी यह महसूस कर सकता है कि कंक्रीट के जंगल से इतर खुली हवा और खेत-खलिहान का मतलब भारत जैसे देश में क्यों महत्वपूर्ण है और अभी तक यही वातावरण देश में कई पीढियों का पेट कैसे भरते आया है । और सोना उगलने वाली इसी जमीन के आसरे आजादी के लिये संघर्ष का बिगुल भी देश में बजा और दुनिया के सबसे संपन्न और उन्नति वाले देश के होने का सपना भी सपना के बाद देश ने देखा।
खैर सपने को छोड़िये और अब वापस इस एक हजार एकड़ वाली हरी-भरी जमीन पर लौटिये। महज तीन साल बाद यानी अगले आम चुनाव के वक्त यानी 2014 में अगर इस जमीन को देखने आप पहुंचेंगे तो आपको सिवाय कंक्रीट के यहां कुछ नहीं मिलेगा। उन हजारों हजार किसानों को भूल जाईये, जिनका पेट यह जमीन भरती होगी। इसके उलट 25 हजार लोगों के लिये यहा 50 लाख करोड़ का एक ऐसा एशगाह बन चुका होगा, जिसमें विकास की चकाचौंघ का हर सपना मौजूद होगा। और अगर कुछ नही होगा तो वह जमीन, जो आज भी अन्न देती है। लेकिन इस सपने के शहर में पैकेट बंद चावल, गेहू और दाल की आधुनिक दुकान भी होगी, जिसमें अमेरिका और जापान का अन्न बिकेगा। और इसे खरीद पाने की हैसियत वाले इंडिया की छवि यहां दिखायी देगी। किसान-मजदूर-आदिवासी-गांव जैसे शब्द कितने छोटे लगते है कंक्रीट के इस मुनाफे के खेल में और कैसे एक तबका इसमें शरीक हो जाता है और विकास की उस लकीर पर सहमति का ठप्पा लग जाता है, यह समझना कहीं ज्यादा जरुरी है। जिस 500 एकड़ हरित जमीन को उत्तरप्रदेश सरकार ने विकास के लिये हड़पा, उसके एवज में सरकार को सिर्फ दस करोड़ देने पड़े। यानी औसतन दो लाख रुपए प्रति एकड़। यह अलग सवाल है कि अभी इतना भी नहीं दिया गया है । लेकिन यह जमीन यूं ही सरकार को नजर नहीं आयी कि इस पर सपनों का एकशहर बना दिया जाये बल्कि रियल इस्टेट का धंधा करने वालो की पैनी निगाह इस जमीन पर गयी और उन्होंने इस जमीन की कीमत 500 करोड़ लगायी। यानी एक करोड़ रुपये एकड़। यानी सरकार को जमीन के एवज में मिले 490 करोड़। और जमीनों के मालिको को मिले दस करोड़ रुपये। पांच सौ करोड़ रुपये कोई रियल स्टेट वाला कैसे कैश दे सकता है और खासकर मामला जब ब्लैक का हो तो। यानी 490 करोड़ कहां से आये और कौन दे रहा है और कौन ले रहा है जब यह किसी दस्तावेज में लिखा हुआ नहीं है तो जमीन का खेल यहां रुकेगा भी नहीं। फिर सपनो के शहर को बसाने का मॉडल तैयार कर करीब बीस हजार घर बनाने की प्लानिंग हुई। जनवरी 2010 में बिल्डरों के हाथ जमीन आयी और अगले ही महीने यानी फरवरी से ही करोड़ों के वारे न्यारे का खेल शुरु हुआ।
सपनो का शहर कितनी कम कीमत में दिल्ली से सटा हुआ होगा। इसके प्रचार प्रसार में दस करोड़ रुपये तीस दिन के भीतर फूंक दिये गये। यानी होर्डिंग से लेकर पर्चे और क्षेत्रीय अखबारो से लेकर राष्ट्रीय समाचार पत्रो में विज्ञापन । और मार्च से ही घरो की बुकिंग शुरु हो गयी। मंदी में रियल स्टेट को लगे झटके की वजह से पहला बड़ा खेल शुरु करने के लिये घरों की जो रकम तय की गयी उसमें 9 लाख रुपये लेकर 50 लाख रुपये तक के घरो की बुकिंग शुरु हुई। मार्च से जून तक के दौरान ही पहले दस हजार घरों की बुकिंग ने ही बिल्डरों को इसके संकेत दे दिये कि अब खेल बड़ा किया जा सकता है तो जुलाई में अगले पन्द्रह हजार घरो की बुकिंग में उन्हीं घरो की कीमत से पचास से सौ फिसदी तक का इजाफा हो गया। यानी मार्च में जो घर 9 लाख रुपए का था, वह जुलाई में साढे तेरह लाख और जो घर 50 लाख का था वह जुलाई में एक करोड़ का हो गया।
इसी तरीके से 12 लाख वाल घर 18 लाख तो 18 लाख वाला 26 लाख रुपये का हो गया । यह सिलसिला 23 लाख, 28 लाख, 33 लाख और 40 लाख रुपये वाले घर के साथ भी हुआ जो मार्च में था और जुलाई या उसके बाद घर बुकिंग कराने वालो को क्रमश 32 लाख, 41 लाख , 52 लाख और 72 लाख में पड़ा । यानी छह महीने में ग्रोथ का यह अदभूत रुप कैसे इजाद हुआ यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि इस सपनों के शहर के मॉडल को अभी तक उत्तर प्रदेश सरकार का लाइसेंस नहीं मिला है। यानी योजना अभी पास हुई नहीं है और तीस हजार घरों को लेकर एक लाख करोड़ रुपये की बुकिंग सिर्फ घरो की कर ली गयी। इसके सामानातंर मल्टीप्लेक्स , स्टेडियम, पांच सितारा होटल , पांच सितारा अस्पताल, स्कूल, पेट्रोल पंप से लेकर अत्याधुनिक शॉपिंग माल को बुक करने का खेल भी शुरु हुआ। जिसकी बुकिंग के जरीये करीब पांच लाख करोड़ का खेल झटके में हो गया। बात यही खत्म नहीं होती। दूसरे फेस की जमीन में से बिल्डर ने दो प्लॉट भी बेचे। यानी सपनों के शहर के भीतर भी रियल स्टेट ने अपने सहयोगियो को पैदा किया। 50 एकड़ का यह प्लाट भी 300 करोड़ में बिका। जो किसानो से एक करोड़ में लिया गया था। अब सवाल है जो कुल जमीन किसानों से 10 करोड़ में ली गयी उस पर छह लाख करोड़ तुरत फुरत में जुटा लिये गये। और जिन लोगो ने इन घरो की बुकिंग की या कहें बहुत होशियारी से बिल्डरो ने सत्ता के ताने-बाने को समझते हुये जिस तबके को इसमें घेरा, वह खेल भी निराला है।
नौ लाख के इक्नामी प्लैट से लेकर एक करोड़ के विला को बुक कराने वाले में देश का राजनेता,क्रीम बुद्दीजिवी , पत्रकार,नौकरशाह से लेकर कानून और न्याय की गोटी तय करने वाला भी शरीक हैं। खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के लोगो की ही फेरहिस्त देखे तो 16 सांसद , 65 विधायक, 125 आईएस, 95 आईपीएस, 600 सरकारी नौकरशाह, 345 पुलिसकर्मी, 1200 कारपोरेट में नौकरी करने वाले न्यायपालिका से जुडे 19 लोग और दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार के 64 पत्रकार भी हैं। तीन राष्ट्रीय न्यूज चैनलो को तो बुकिंग के लिये कारपोरेट छूट का ऐलान किया गया। राजनेताओ के लिये तो शुरु में संसद विहार नाम से दरअसल एक इमारत खड़ा करने का विचार था । लेकिन यह सोच चल नहीं पायी और राजनेताओ ने ही इस पर अंगुली उठा दी। जारी..........
Wednesday, August 18, 2010
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संघ के भीतर का अंधेरा |
बीजेपी और संघ के वरिष्ठ चाहे समझौता एक्सप्रेस, मालेगांव, हैदराबाद और अजमेर ब्लास्ट पर खामोशी ओढ़े रहें लेकिन स्वयंसेवकों में पहली बार इस सवाल पर खदबदाहट खुलकर उभरी है कि अगर अजय राहीकर,लेफ्ट.कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित, राकेश घावडे से लेकर साध्वी प्रज्ञा और स्वामी दयानंद पांडे को कानूनन आतंकवादी करार देने की दिशा में सरकार कदम बढ़ा रही है तो फिर उनकी भूमिका क्या होनी चाहिये। यह सवाल स्वयंसेवकों में किस तेजी से उभर रहा है, इसका खुला अंदाजा पिछले दिनों तिरुअंनतपुरम में तब मिला, जब सरसंघचालक मोहन भागवत केरल में संघ ने नये मुख्यालय शक्ति निवास का उद्घघाटन करने पहुंचे। न चाहते हुये भागवत पर दबाव बना कि उन्हें आतंक और हिन्दुत्व को लेकर संघ की परिभाषा सामने रखनी ही चाहिये। मोहन भागवत ने भी इस मुद्दे की संवेदनशीलता समझा और कहा, "संघ नहीं मानता है कि ताकत भय,घृणा और हिंसा से आती है। संघ किसी भी तरह की हिंसा और घृणा के विरुद्घ है। संघ का उद्देश्य प्रेम, शांति और संगटन के जरीये हिन्दू समाज की सनातन शक्ति को जागृत करना है।"
लेकिन केरल जैसी जगह पर वामपंथियो से हिंसक तरीके से दो-दो हाथ करने वाले स्वयंसेवकों के जब सवाल उठे कि अगर संघ नहीं है तो फिर उस पर साधे जा रहे निशाने का जवाब देने के लिये कोई पहल क्यों नहीं हो पा रही है। हालांकि भागवत ने मीडिया पर ठीकरा फोड़ते हुये कहा कि यह संघ को बदनाम करने के लिये दुष्प्रचार किया जा रहा है। लेकिन स्वयंसेवकों के इस रुख ने पहली बार संघ के भीतर भी यह सवाल खड़ा किया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपनी भूमिका क्या और किस रुप में होनी चाहिये। असल में स्वयंसेवकों के भीतर की इसी कश्मकश को लेकर संघ के वरिष्ठों में भी अब बैचैनी आ गयी है। लेकिन इस बैचेनी में स्वयंसेवक न सिर्फ खुद को मथने लगे हैं बल्कि देश भर में चल रहे संघ के डेढ लाख से ज्यादा सेवा प्रकल्पों में भी एक सवाल तेजी से उभर रहा है कि आखिर उनका रास्ता जा किधर रहा है।
इससे पहले स्वयंसेवकों के सवालो का जबाब राजनीतिक सत्ता अक्सर देती थी। जिससे सरसंघचालक के सामने भी स्वयंसेवकों की दिशा तय करने में कोई परेशानी नहीं होती थी। लेकिन पहली बार संघ के मुखिया के सामने भी यही सवाल है कि देश की राजनीतिक सत्ता का ही जब इक्नामिक ट्रासंफोरमेशन हो रहा है तो उसमें हिन्दू समाज में सनातन शक्ति जागृत करने का कौन सा तरीका कारगर हो सकता है जिससे स्वयंसेवकों के सामने एक लक्ष्य तो नजर आये। आर्थिक बदलाव ने हिन्दु समाज को भी प्रभावित किया है और स्वयंसेवकों की नयी पीढ़ी इसी प्रभावित समाज के कंघों पर सवार होकर आगे बढ़ी है। फिर आर्थिक बदलाव ने संघ के उस आर्थिक स्वावलंबन को भी तोड़ा है जो पहले को-ओपरेटिव आंदोलन से लेकर फुटकर बाजार की थ्योरी तले स्वयंसेवको को आश्रय देते थे। यानी संघ का रास्ता समाज के शुद्दीकरण के उस चौराहे पर जा खड़ा हुआ है, जहां उसका अपना नजरिया चौराहे पर की बे-लगाम आवाजाही को लाल-हरी-पीली बत्ती के आसरे नियंत्रण में लाने का भ्रम बनाये रखना चाहती है। और यह भ्रम है अगर इसको लेकर स्वयंसेवकों में सवाल खड़े हो जाये तो रास्ता किधर जायेगा, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है।
संघ के सामने सबसे बड़ी मुश्किल अपने राजनीतिक संगठन बीजेपी को लेकर भी है और बीजेपी से राजनीतिक तौर पर टकराते विश्व हिन्दु परिषद. स्वदेशी जागरण मंच , किसान संघ से लेकर आदिवासी कल्याण संघ के रास्तों को लेकर भी है। लेकिन आरएसएस के सामने सबसे मुश्किल घड़ी आज इस मायने में है कि आरएसएस के निर्माण से लेकर यानी 1925 से लेकर 1998 तक कमोवेश हर एक-डेढ दशक में संघ ने कोई ना कोई ऐसा कदम जरुर उठाया, जिससे स्वयंसेवकों की ऊर्जा को एक दृश्टि मिली या कहें एक रास्ता मिला। जिसमें स्वयंसेवक हमेशा इस गर्व में रहा कि वह आरएसएस से जुड़ा है।
डां. हेडगेवार कांग्रेस से निकले और उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती संगठन के विस्तार और कांग्रेस से बड़ी मान्यता पाने की तड़प थी। स्वयंसेवकों ने इस चुनौती को स्वीकारा और भाउराव देवरस लखनऊ पहुंचे तो एकनाथ रानाडे महाकौशल और राजाभाउ पातुरकर लाहौर गये तो वसन्तराव ओक दिल्ली आये। इसी तरह दादाराव परमार्थ को दक्षिण और बाला साहब देवरस को कलकत्ता भेजा गया। इसी तरह नरहरि पारिख और बापूराव दिवाकर को बिहार भेजा गया। और सभी स्वयसेवक इस चुनौती पर खरे भी उतरे। और 1934 में जब वर्धा में संघ का शिविर लगा तो महात्मा गांधी भी संयोग से वहीं थे और हेडगेवार के आग्रह पर उन्होंने संघ शिविर देखकर छुआछुत और भेदभाव छोड़कर सभी को एकसाथ खड़े देखकर खुशी जाहिर की। स्वयंसेवकों को मान्यता मिली और हेडगेवार ने पहली बाधा पार की। फिर चौदह साल बाद 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद स्वयंसेवकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी मान्यता वापस पाने की थी। 1 फरवरी 1948 को सरसंघचालक गुरु गोलवरकर की गिरफ्तारी और 4 फरवरी को संघ पर पाबंदी ने स्वयंसेवकों के सामने आस्तित्व का संकट पैदा किया। यानी फिर स्वयंसेवकों को चुनौती मिली और असर यही हुआ कि 21 जनवरी 1949 तक करीब 60 हजार स्वयसेवकों ने गिरफ्तारी दी। उसके बाद सरकार ने संघ से प्रतिबंध उठाया। और स्वयसेवको को लगा उनका रास्ता सही है। लेकिन नेहरु से टकराव और सरकार से मान्यता पाने की दिशा में चीन के साथ युद्द में संघर्ष काम आया। 13 साल बाद 1962 में चीनी आक्रमण के वक्त स्वंयसेवकों ने जिस तरह जनता का मनोबल ऊंचा उठाते हुये सेना के लिये जन-समर्थन जुटाया और सीमा पर जाकर घायल सैनिकों का उपचार किया, उसका असर यही हुआ कि पहली बार 26 जनवरी 1963 में गणतंत्र दिवस की परेड में हिस्सा लेने के लिये संघ को भी आंमत्रित किया गया।
स्वयंसेवकों का उत्साह कुलाचे मारने लगा और उन्हें लगा उनका रास्ता सही है। सरसंघचालक गुरुगोलवरकर को भी मान्यता मिली। वही फिर 12 साल बाद 1975 में संघ के सामने कांग्रेस के खिलाफ जेपी के विकल्प का साथ देने और आपातकाल से जूझने का सवाल उठा। तो सरसंघचालक देवरस ने राजनीतिक तौर पर स्वयंसेवकों को पहली बार तैयार किया और स्वयंसेवकों को भी लगा उनका रास्ता सही है क्योकि उस वक्त 1977 में देश ने भी स्वयंसेवकों को सही ठहराया और सत्ता पलटी। ठीक तेरह साल बाद अयोध्या आंदोलन में भी स्वयंसेवकों को हिन्दुत्व राजनीति का जो पाठ पढ़ाया गया और बीजेपी से लेकर संघ के मुखिया तक ने जिस रास्ते को पकड़ा, उसे स्वयंसेवकों ने 6 दिसबंर को 1992 को ना सिर्फ सही माना बल्कि 1998 में जब पहली बार स्वयसेवक सत्ता में आये तो संघ ने खुल्लमखुल्ला इसका ऐलान किया कि उसका रास्ता सही है।
लेकिन 1998 से लेकर 2004 तक के दौर में समाज और सत्ता के बीच की दूरियों को और किसी ने नहीं स्वयंसेवकों ने ही बढ़ाया। सामाजिक शुद्दीकरण और हिन्दू समाज की सतनामी शक्ति को जागृत करने की सोच ढीली पड़ी और संघ के स्वयंसेवक, सत्ता के स्वयसेवकों के पिछलग्गू बन तमाशा देखने लगे। संयोग से सत्ता के स्वयसेवकों के छह साल के तमाशे ने सत्ता जाने के बाद आरएसएस को ही तमाशे में बदल दिया। और 2004 से 2010 तक के दौर में स्वयंसेवकों के सामने पहली बार चुनौती यहीं आयी कि उनका रास्ता है किस तरफ यहीं उन्हे पता नहीं है। यानी संघ के इतिहास में पहली बार अयोध्या आंदोलन के बाद सबसे लंबा वक्त गुजरा है, जिसमें स्वयंसेवकों के सामने ना तो कोई राजनीतिक लक्ष्य है, न ही कोई सामाजिक चुनौती और न ही संघ को गांठने का कोई मंत्र, जिसके आसरे तत्काल की सामाजिक व्यवस्था में उनका हस्तक्षेप हो। इसलिये संघ के सामने पहली बार संकट दोहरा है। क्योंकि एक तरफ राजनीतिक संगठन बीजेपी उस राजनीतिक व्यवस्था को आत्मसात करने पर तुला है, जिसमें पूंजी,बाजार और मुनाफा सामाजिक व्यवस्था को व्याख्यित कर रहे हैं तो दूसरी तरफ समाज के अलग अलग खाकों में संघर्ष करने के लिये बने संघ के ही संगठन नयी व्यवस्था के सामने नतमस्तक है। संघ के राजनीतिक स्वयंसेवक यह कहने से नहीं चूक रहे कि सत्ता की नयी व्यवस्था अगर लोकतंत्र की परिभाषा को सत्तानुकूल बनाकर संसदीय राजनीति की बिसात बिछाये हुये है तो बीजेपी इससे इतर राजनीति कैसे कर सकती है।
इसलिये दिल्ली की चौकड़ी से आगे नागपुर के गडकरी जाते हुये नहीं दिखते। क्योकि उनके पास भी वैकल्पिक राजनीति का ना तो कोई आधार है ना ही कोई सोच। वहीं संघ सत्तानुकूल व्यवस्था में फिट बैठ नहीं सकती और सनातन शक्ति की पारंपरिक समझ से आगे निकल नहीं सकती , तो फिर सरसंघचालक क्या करें। इस्लामिक आतंक के खिलाफ सावरकर के उग्र हिन्दुत्व को अपनाये। स्वदेशी के फेल होने पर खाद से लेकर बीज पर बैठे बहुराष्ट्रीय कंपनियो के खिलाफ मोर्चा ले। किसान संघ के कुंद पड़ने पर किसान को एकजुट कर अपनी खेती अपना पेट भरने के लिये गांव दर गांव जोड़े। आदिवासी बहुल इलाकों में खनिज संसाधनों की लूट-खसोट के खिलाफ आदिवासियों को एकजुट कर उन्हें संघर्ष के लिये तैयार करें। पशुधन से लेकर सांस्कृतिक विरासत को जीने का आधार बनाने के लिये समाज में अलख जगाये। यह सारे सवाल अब उन लाखों स्वयंसेवकों के जरीये ही निकल रहे हैं, जो संघ के पारंपरिक समझ को देश के नये लोकतंत्र के आगे भौथरा मान रहे हैं। यह स्वयंसेवक बीजेपी के राष्ट्रीय स्वयंसेवकों को भी मान्यता देने को तैयार नहीं है जो सत्ता और समाज के सवाल पर स्वयंसेवक की चादर ओढ़ते-हटाते हैं। स्वयंसेवकों की इस बदलती सोच में फिलहाल सिर्फ समझौता एक्सप्रेस से लेकर हैदराबाद और मालेगांव या अजमेर ब्लास्ट ही सामने आया है जिसमें आतंक का चेहरा संघ के मुखौटे में देखने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन पहल आदिवासी और किसानो को लेकर भी हुई है। इसलिये कुछ इंतजार कीजिये जब नक्सलवाद पर सरकार स्वयंसेवकों के साथ खड़े होने का आरोप भी लगा दे। और किसानों को भडकाने का हिंसक आरोप भी स्वयंसेवकों पर लगे। क्योंकि बीते 12 सालो में स्वयंसेवकों की उर्जा को ना तो द्दश्टि मिली है ना ही कोई रास्ता जबकि बीजेपी के राजनीतिक स्वयंसेवकों ने सत्ता की जोड़-तोड़ में ही अपनी उर्जा खपा दी है और और आएसएस के भीतर भी पहला मौका है जब एक सरसंघचालक रिटायर होने के बाद किसी स्वयसेवक से भी कम उर्जावान है और उनकी जगह आये सरसंघचालक पुरातनी सनातन शक्ति का उद्घघोष करने में ही सारी उर्जा खपा रहे हैं। इसलिये हर मुद्दे पर दूरिया सिर्फ बीजेपी के स्वयंसेवकों और संघ के स्वयंसेवकों में ही नहीं बढ़ी है। बल्कि संघ के स्वयंसेवकों की हर पहल पर बीजेपी के ही राजनीतिक स्वयंसेवक ठहाके लगाने से नहीं चूक रहे। मगर इंतजार कीजिये संघ के स्वयंसेवकों का, जो पहली बार अपनी ही संघ की धारा के विरोध में तैरने को तैयार हैं।
Monday, August 16, 2010
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एक अदद तिरंगे की खोज |
बंधु मुझे भी कोई कहीं झंडा दिखायी दिया नहीं। अरे यार , बारिश के डर से कहीं फहराया नहीं गया होगा। या फिर बारिश को देख कर उतार लिया गया होगा। अचानक नाज़िम कुछ ऐसे बोले, जिसे सुन कर एकाएक लगा कि हो सकता है....यह सोच भी हो। फिर लगा देश की अभी ऐसी हालत हुई नहीं है। मेरे मुंह से तुरंत निकला-बंधु...चलते है इंडिया गेट। 15 अगस्त। आखिर जिस विजय चौक पर 1947 में 16 अगस्त की पहली सुबह झंडा फहराया गया था....आज के दिन वहां क्या हाल...जायजा लिया जाये। नाज़िम ने तुंरत गाड़ी निकाली और बंगाली मार्केट से कोपरनिकस सड़क से होते हुये गाड़ी जब इंडिया गेट की तरफ बढ़ी...तो कतार में कई राज्यों के भवनों की तरफ बरबर ही नजर उठती चली गयी। बंधु...तिरंगा तो कहीं नजर आता नहीं। प्रसून जी...अहाते में फहराया होगा..जो सड़क से नजर आ नहीं रहा। अरे नाजिम साहब दाहिने भी देखें। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दफ्तर है । तिरंगा तो यहां भी नजर नहीं आ रहा। अरे बंधु शाम के पांच बज रहे रहे हैं। तिरंगा उतार लिया होगा। अरे क्या पंडित जी...यह देखिये आर्मी गेस्ट हाउस । यहां तो तिंरगा लहरा रहा है। गुरु मुझे लगता है .... इस बार आजादी पर संडे हावी हो गया। तो आर्मी गेस्ट हाउस पर क्यों। .......क्योकि आर्मी के लिये तो संडे होता नहीं...हर दिन एक जैसा।
नाजिम के एक साथ इतने सवाल दागे तो लडकी ने झट से झोले में से एक पर्चा निकाल कर बढ़ा दिया। पर्चा पढ़ा तो उसमें सरकार से सिर्फ एक ही मांग थी कि जब यूनिक आईडी कार्ड समूचे देशवासियों के लिये बनाया जा रहा है और यह पहचान पत्र सभी के लिये होगा तो फिर उसका नाम य़ूनिक आईडेंटिट कार्ड की जगह इंडियन कार्ड कहा जाना चाहिये। राजस्थान के हनुमानगढ के वीर सिंह भारतीय के नाम से छपे इस पर्चे में मोबाइल नंबर 9829960909 लिखा था । लेकिन पूछने पर पता चला कि इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक यह दोनों लडके इसी तरह साष्टांग करते हुये जायेंगे। लेकिन यह पर्चा सौपेगे किसे...यह इन दोनो को पता नहीं था । अगर संभव हुआ तो राष्ट्रपति भवन में दे देंगे। हमने सामने नजर आ रहे राष्ट्पति भवन को निहारा...जिसके दांये बांये साउथ और नार्ड ब्लाक पर भी तिरंगा लहराते हुये नजर आ रहा था। बंधु...यहां तो संडे वाला भाव नहीं है...मैंने यह कह कर दीपक को छेड़ा....तो दीपक बोला यह जगह तस्वीर खिंचने वालो के लिये है....तो तिरंगा.....ना ना राष्ट्रपति भवन जाने का रास्ता है और आज की शाम में यहां कर आजादी को महसूस करने वालो की तादाद कम जरुर हुई होगी लेकिन खत्म नहीं हुई है इसीलिये तो गाड़ियों का रेला देखिये किस तेजी से जा रहा है। लेकिन अचानक गाड़ी के सामने सीटी बजाकर गाड़ी को रोकते पुलिस कर्मियों को देख नाजिम भड़का....अरे भाई आजादी के दिन तो बंदिश ना लगाये। ना ना आगे नहीं जा सकते ....क्यों....पीएम आने वाले हैं....हटिये सामने से .....गाड़ी घुमाइये ......वापस लौटिये.....अरे गुरु राष्ट्पति भवन में हाई-टी होगा, उसी में यह गाड़ियो का रेला जा रहा होगा....दीपक बोला । पास या स्टीकर लाइये....तो ही जा पायेंगे.....यह है वीवीआईपी हाई-टी। लौटो यार बंगाली मार्केट की चाय भी इस चक्कर में बर्बाद हुई। तो या वह दोनों लड़के जो साष्टांग करते हुये आ रहे है उनका क्या होगा । बस विजय चौक तक। उसके आगे उनका पर्चा पतंग में बदल जाये तो भी उड़ कर नहीं जा सकता। तो वह पर्चा सोपेंगे किसे। किसी को नहीं। चौक पर खडे सिपाही को थमायेंगे। वापस लौट जायेंगे। नाजिम ने गाड़ी वापस मोडी ।
जैसे ही गाड़ी इंडिया गेट के पास पहुंची....मैंने कहा बंधु...कुछ यहां की आबो-हवा भी महसूस कीजिए ....गाड़ी से उतरा जाये...गाड़ी किनारे लगाये नाजिम साहब। बायीं तरफ खड़ी दो गाड़ियों के बीच जगह देखकर जैसे ही नाजिम ने गाड़ी लगायी अचनक कहीं से एक ट्रफिक पुलिस वाला आ टपका। यहां गाड़ी खड़ी मत करे। कुछ मजे और कुछ आक्रोश में नाजिम ने उसी पुलिस वाले से कहा...यार आज तो आजादी से रहने दो । आज तो ना रोका । अब आजादी पर भी रोक लगा दोगे । अरे नहीं आप वहा दूर दायी तरफ गाड़ी लगा लें । उसने दूर खड़ी बसों की तरफ इशारा करके कहा । अरे वहां कहां जायेंगे । कुछ देर खड़े रहने दीजिये । नहीं काम सिस्टम से होना चाहिये। सिस्टम बनाता कौन है। जनता बनाती है। जनता कहां है इस देश में। उसे तो आपके एक इशारे पर डरना पड़ता है। आप डराते बहुत है । आज आजादी के दिन तो ना डराइये। ना ना हम डरा नही रहे है। तो फिर छोडिये प्रदीप जी.....अचानक दीपक भी गाड़ी से निकल कर बोले । प्रदीप कुमार, एच ओ । छाती पर यही नाम टंगा हुआ था और अपना नाम सुन कर पुलिस वाले को झटके में कुछ अपना सा लगा और फिर नरम होकर बोला... नहीं देखिये हमें तो अपनी ड्यूटी करनी है। लेकिन जनता की कोई पूछ है नहीं कभी वर्दी उतारने के बाद आप सोचियेगा...मेरे यह कहते ही प्रदीप बोला ....ना ना हम भी समझते है । यह कहते हुये प्रदीप ने कास्टेबल वाली सफेद हेलमेट उतारी और बोलते हुये फूट पड़ा.....समझते तो हम भी है। लाल बहादुर शास्त्री को देखा तो नहीं है लेकिन उनके बारे में सुना जरुर है.....एक वह और अब अटल बिहारी वाजपेयी । बाकि तो कोई मतलब ही नहीं है....पीएम का मतलब है ...जो देश की स्थिति है उसे और उपर ले जाना .....और नीचे ना ले जाना ।
तो मनमोहन सिंह का क्या किया जाये......अब जो भी कहिये और आगे जो भी बने....चाहे राहुल गांधी ही पीएम हो जाये....लेकिन पीएम देश को आगे बढाये....नाम फैलाये तभी तो मतलब है। तो आपको भी दुख होता है..देश की जो हालत है....नाजिम के इस सवाल पर उसकी आंखों ने जवाब दे दिया...जिसमें आंसू आ गये थे......चलिये नाजिम साहब....पुलिस कास्टेबल की आंखों में अटके आसूंओ को देखते ही हमें भी कुछ समझ ना आया सिवाय गाड़ी में बैठते ही प्रधानमंत्री के लालकिले पर सुबह भाषण का वह अंत एक साथ हम तीनों को याद आ गया । जिसमें अपनी ही बंधी मुठ्ठी को हवा में ना लहरा पाने के बावजूद लहराकर प्रधानमंत्री सामने तिरंगे की शक्ल में जमा बच्चो से कह रहे थे जय हिंद...जय हिंद...जय हिंद...।
Thursday, August 12, 2010
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सरकार को चुनौती देता लालगढ का रास्ता |
सरकार को भूमि अधिग्रहण के तौर तरीके बदलने होगें । विकास की लकीर के जो मापदंड सरकार अपना रही है वह चंद हाथों में मुनाफा देने का चेहरा है, यह अब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। यह शब्द मेघा पाटकर के हैं। और इसके बाद स्वामी अग्निवेश का ऐलान कि जंगलमहल में ग्रामीण आदिवासियों की जमीन पर कब्जा बंद नहीं होगा। उन्हें स्वाभिमान से जीने के अधिकार नहीं मिलेगा तब तक माओवादियों की बंदूक नीचे नहीं आ सकती। अब समाज को बांटने और असमानता फैलाने वाली सरकार की नीति बर्दाश्त नहीं की जा सकती। और फिर ममता बनर्जी का माओवादियों के प्रवक्ता आजाद के इनकाउंटर को फर्जी करार देते हुये हत्या की जांच कराने की मांग उठा देना।
ममता बनर्जी की लालगढ रैली की इस राजनीतिक धार पर उस संसदीय राजनीति को एतराज हो सकता जो सहमति के आधार पर गठबंधन की राजनीति कर सत्ता की मलाई खाते हैं। इसीलिये बीजेपी का यह सवाल जायज लग सकता है कि माओवादियो के मुद्दे पर प्रधानमंत्री की कबीना मंत्री ही जब उनसे इत्तेफाक नहीं रखतीं तो फिर कैबिनेट में सहमति की संसदीय मर्यादा का मतलब क्या है। लेकिन इस सवाल का जवाब मांगने से पहले समझना यह भी होगा कि ममता बनर्जी ना तो प्रधानमंत्री की इच्छा से कैबिनेट मंत्री बनीं और ना ही मनमोहन सिंह ने अपनी पंसद से उन्हें रेल मंत्रालय सौंपा। ममता जिस राजनीतिक जमीन पर चलते हुये संसद तक पहुंची उसमें अगर कांग्रेस के सामने सत्ता के लिये ममता मजबूरी थी तो ममता के लिये अपनी उस राजनीतिक धार को और पैना बनाने की मजबूरी है जिसके आसरे वह संसद में पहुची और अपनी शर्तो पर मंत्री बनी हैं।
सिंगूर से नंदीग्राम वाया लालगढ की जिस राजनीति को ममता ने आधार बनाया उसमें एसईजेड से लेकर भूमि अधिग्रहण और आदिवासियों से लेकर माओवादियों पर ममता का रुख ना सिर्फ एक सरीखा है बल्कि केन्द्र सरकार की नीतियों का विरोध भी ममता करती रही हैं। बाकायदा कैबिनेट की बैठक में भूमि-अधिग्रहण का सवाल हो या एसईजेड का या फिर विकास के इन्फ्रस्ट्क्चर में किसान और आदिवासियों को हाशिये पर ढकेलने की नीति, ममता ने बतौर केन्द्रीय कैबिनेट मंत्री विरोध ही किया । यह कहा जा सकता है कि बंद कमरे में विरोध समझ के अंतर्विरोध को उभारते है जिस पर सहमति बनने की संभावना लगातार बनी रहती है। लेकिन ममता बनर्जी का राजनीतिक आधार ही जब यह विरोध हो तब सहमति की सोच मायने नहीं रखती । ऐसा नहीं है कि माओवादी आजाद के सवाल पर जो कांग्रेस आज खामोश है और जो बीजेपी या वामपंथी हाय तौबा मचा रहे हैं उन्हे सवा साल पहले लोकसभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी का राजनीतिक मैनिफेस्टो याद ना हो।
ममता बनर्जी ने उस वक्त भी लालगढ के संघर्ष को यह कहते हुये मान्यता दी थी कि यह राज्य के आतंक और उसकी क्रूरतम कार्रवाईयो के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक है। इतना ही नहीं लालगढ़ में आदिवासियों के हथियार उठाने को उनके मानसम्मान और न्याय से जोड़ा। कमोवेश सिंगूर और नंदीग्राम में तो ममता बनर्जी ने खुद के संघर्ष को प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ और खेतिहर किसान-मजदूरो के हक से जोड़ा। अगर याद कीजिये तो लोकसभा चुनाव से पहले या कहे ममता के सरकार में शामिल होने से पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सिंगूर-नंदीग्राम को लेकर विकास की बात कह रहे थे और ममता बनर्जी खुल्लमखुल्ला सरकार की नीति को कारपोरेट घरानो और पूंजीवादी साम्राज्यवादियो के सामने घुटने टेकने वाला बता रही थीं। ममता बनर्जी उस वक्त खेत खलिहानो में किसान , मजदूर और आदिवासियो के संघर्ष को राजनीतिक धार दे रही थी और संयोग से उस वक्त इन्ही इलाको में सक्रिय माओवादी अपने संघर्ष को बंगाल के पारंपरिक विद्रोही संघर्ष का एक नया अध्याय खुद को मान रहे थे।
ऐसा नहीं है कि केन्द्र सरकार या कांग्रेस इस हकीकत से अनभिज्ञ रही कि संघर्ष का क्षेत्र अगर ममता और माओवादियों का एक है और संसदीय राजनीति को लेकर दोनो में कोई टकराव नहीं है तो दोनो को एक-दूसरे की मदद भी मिलेगी और लाभ भी मिलेगा। मदद और लाभ की इस बारीक लकीर को वामंपथी सत्ता तब भी समझ रही थी और आज भी समझ रही है। क्योंकि सीपीएम एकवक्त खुद नक्सलबाडी का सवाल अपनी संसदीय राजनीति से जोड चुकी है। और बंगाल में कांग्रेस का सफाया नक्सलियो के संघर्ष पर संसदीय राजनीति का लेप चढा कर ही सीपीएम सत्ता में आयी यह भी हकीकत है।
लेकिन अब जब सीपीएम का कांग्रेसिकरण हुआ है बंगाल के सामने अपने सवाल ज्यों के त्यों खडे है तो फिर कांग्रेस से निकली ममता बनर्जी की संसदीय राजनीति का ट्रांसफारमेशन 1967 के दौर के सीपीएम के तर्ज पर क्यो नही हो सकता है और नक्सलबाडी का नया चैप्टर लालगढ क्यों नहीं बन सकता है, यह सवाल अब हिलोरें मार रहा है और ममता बनर्जी इसी में चूकना नहीं चाहती । क्योंकि इस राजनीतिक धार ने ही पंचायत चुनाव से लेकर विधानसभा उपचुनाव और निकाय चुनाव तक में ममता का कद बढाया है। और अब ममता इसी राजनीतिक धार में अपना अक्स देख भी रही है और इस अक्स का परचम ही बंगाल विधानसभा चुनाव में लहराना चाहती हैं। इसलिये सवाल माओवादी आजाद के इनकाउंटर को हत्या करार देकर प्रधानमंत्री या केन्द्रीय गृहमंत्री को कटघरे में खडा करना भर नहीं है। सवाल है कि अगर संसदीय राजनीति उस राजनीतिक धार के आगे बंगाल में ही घुटने टेक रही है जहा लोहा तो ममता का है, मगर उसमें धार माओवादियो की है, तो फिर देश के सामने नया सवाल विकास की उस थ्योरी पर उठेगा जिसको लेकर अभी तक संसदीय सत्तायें इस मदहोशी में रही हैं कि सत्ता की पारंपरिक लकीर ही लोकतंत्र की असल परिभाषा है।
इसलिये कथित विकास भी लोकतंत्र का ही चेहरा है। और सत्ता के लिये इसी लोकतंत्र के दायरे में ही संसदीय खेल खेलना होगा। मगर बीजेपी या वामपंथी लालगढ रैली में ममता बनर्जी के भाषण के उस अंश पर खामोश है जहा वह यह भी कहती है कि मुझे केन्द्र में मंत्री पद की कोई जरुरत नही है, मेरी पहली जरुरत जंगलमहल के विकास की है। आपको सम्मान के साथ जीने का हक दिलाने की है। यानी जिस लालगढ रैली को केन्द्र सरकार की नीतिया बदर्श्त नही है अगर उसी लालगढ का रास्ता ममता बनर्जी को राइट्स बिल्डिंग तक पहुंचाता है तो अब सवाल यह है कि क्या संसदीय राजनीति को यह बर्दाशत होगा । या सत्ता के लिये यहा ममता से समझौता करना संसदीय राजनीति की जरुरत होगी । और लोकतंत्र की नयी परिभाषा यही से गढी जायेगी ।
Monday, August 2, 2010
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मीडिया नहीं लोकतंत्र की परिभाषा बदल चुकी है |
मेरे सामने पत्रकारों की जमात जब सवाल कर रही थी, तो लगा जैसे सवाल पत्रकार नहीं कॉरपोरेट के दलाल पूछ रहे हैं? और यह सुनते ही हॉल में तालियां बज उठीं। यह वाक्या 31 जुलाई को हंस के सालाना जलसे में स्वामी अग्निवेश के भाषण के दौरान का है। इसी तरह 11 जुलाई को उदयन शर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर जो जमावड़ा हुआ और उसमें पेड न्यूड से निकली चर्चा जिस तरह हाशिये पर जा पहुंची और सत्ता के आगे पत्रकार से लेकर चुनाव आयोग भी जैसे नतमस्तक दिखा, उसने कई सवाल एक साथ खड़े किये।
चुनाव आयुक्त कुरैशी बोले कि चुनाव आयोग की सिर्फ तीन महीने चलती है और उस दौरान भी सत्ता के आगे उसके हाथ बंधे होते हैं। तो कांग्रेस के नेता दिग्विजय यह कहने से नहीं चूके की चुनाव में भागेदारी जनता की होती है, आप उसमें खर्च होने वाले धन को लेकर क्यों परेशान होते हैं। चुनाव आयोग रोक का एक रास्ता बनायेगा तो नेता कोई दूसरा रास्ता निकाल लेगा।जाहिर है, इन बहसों ने पहली बार एक नया सवाल यही उठाया कि क्या अब लोकतंत्र ही खतरे में है। जहा हर सत्ता संस्थान अपने आप में अधूरा है। और इसके जवाब के लपेटे में कई संपादको ने जिस तरह पंतग उड़ाई उससे एक हकीकत तो साफ तौर पर उभरी कि अगर लोकतंत्र का पैमाना इस देश में बदला जा रहा है और राजनीतिक अर्थशास्त्र की थ्योरी नये रुप में परिभाषित हो रही है तो उसमें सूचना-तंत्र की भूमिका सबसे बड़ी है और मीडिया को पत्रकारिता से इतर सूचना-तंत्र में तब्दील किया जा रहा है। यानी पत्रकारिता की शून्यता इसी मीडिया में सबसे ज्यादा घनी है। और उसे भरेगा कौन यह सवाल लगातार कुलांचे मार रहा है।
असल में मीडिया को लोकतंत्र के चौथे खम्भे के तौर पर देखने से ही बात शुरु करना होगी। चौथे खम्भे का मतलब है बाकि तीन खम्भे अपनी अपनी जगह काम कर रहे हैं। और काम करने से मतलब संविधान के दायरे में काम कर रहे है, यानी सामाजिक सरोकार के तहत देश में संसदीय राजनीति की जो भूमिका है, उसे जीया जा रहा है। लोगो को लग रहा है कि उनकी नुमाइन्दगी संसद कर रही है। और संसद संविधान के तहत चल रही है इसके लिये न्यायपालिका अपनी भूमिका में मुस्तैद है। इसी तरह विधायिका भी देश को चलाने और नीतियों को लागू कराने को लेकर कहीं ना कहीं जिम्मेदारी निभा रही है। और निगरानी के तौर पर मीडिया जनता और सरकार के बीच अपनी भूमिका निभा रहा है। अगर सत्ता अपनी सुविधा के लिये आम आदमी से जुडे मुद्दों को हाशिये पर ढकेल रही है तो मीडिया हाशिये पर मुद्दों को केन्द्र में लाकर सत्ता पर दबाव बनाये की उस तरफ ध्यान देना जरुरी है। नहीं तो जनभावना सत्ता के खिलाफ जा सकती है और संसदीय चुनाव का लोकतंत्र सत्ता परिवर्तन की दिशा में भी जा सकता है।
लेकिन संसदीय चुनावी तंत्र ही लोकतांत्रिक मूल्यों को समाप्त करने की दिशा में हो और हर खम्भा इसी दिशा को मजबूत करने में लगा हो तो मीडिया की भूमिका निगरानी की कैसी रहेगी। यह एक लकीर कैसे समूचे लोकतांत्रिक पहलुओं पर अंगुली उठाती है, इसे समझने के लिये महज खबरें खरीदने या बेचने की स्थितियों से जाना जा सकता है। सभी ने माना की 2009 के चुनाव में समाचार पत्र और न्यूज चैनलों ने जमकर पैकेज सिस्टम चलाया। यानी चुनाव मैदान में उतरे उम्मीदवारों से धन लेकर खबरो को छापा। सरकार की नजरों तले, प्रेस काउसिंल और एडिटर्स गिल्ड से लेकर चुनाव आयोग की सहमति के साथ इस बात पर सहमति बनी कि खबरों को धंधा बनाना सही नहीं है। जाहिर है इसका मतलब साफ है कि यह गैरकानूनी है । लेकिन कानून कभी एकतरफा नहीं होता । जैसे ही किसी मीडिया हाउस का नाम इस बिला पर लिया गया कि यह खबरों को धंधा बना रहा है तो सवाल यह उठा कि खबरों को खरीदने वाला अपराधी है या नहीं। यानी लोकतंत्र का चौथा खम्भा अगर बिक रहा है तो उसे खरीद कौन रहा है । और चौथे खम्भे को खरीदे बगैर क्या सत्ता तक नहीं पहुंचा जा सकता है। या फिर सत्ता तक पहुंचने के रास्ते में मीडिया की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण हो चुकी है कि बगैर उसके नेता की विश्वसनीयता बनती ही नहीं। और मीडिया अपनी विश्वविशनियता की कीमत खुद को बेच कर खत्म कर रहा है।
जाहिर है यहां सवाल कई उठ सकते हैं। लेकिन पहला सवाल है कि अगर चुनाव आयोग के बनाये दायरे को संसदीय चुनाव तंत्र ही तोड़ रहा है तो उसकी जिम्मदारी किसकी होगी। कहा जा सकता है यह काम चुनाव आयोग का है, जिसे संविधान के तहत चुनाव के दौर समूचे अधिकार मिले हुये हैं। लेकिन अब सवाल है कि अगर लोकसभा के कुल 543 में से 445 सीटों के घेरे में आने वाले इलाको की मीडिया ने नेताओ की खबर छापने के लिये पैकेज डील की , तो जाहिर है किसी भी नेता ने यह पूंजी चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित पूंजी में नहीं दिखायी होगी। तो क्या उन सभी चुने हुये संसद सदस्यो की सदस्यता रद्द नहीं हो जानी चाहिये? लेकिन यह काम करेगा कौन? चुनाव आयोग के पास अधिकार तो है लेकिन समूची संसदीय राजनीति पर सवालिया निशान लगाने की हैसियत उसकी भी नहीं है और खासकर जब चुनाव आयोग के पद भी राजनीति से प्रभावित होने लगे हो तो सवाल कहीं ज्यादा गहराता है। यहां समझना यह भी चाहिये कि संसदीय तंत्र की जरुरत चुनाव आयोग है। अकेले चुनाव आयोग की महत्ता न के बराबर है। वहीं सुप्रीम कोर्ट भी संसद के सामने नतमस्तक है। क्योकि देश के लोकतंत्र की खूशबू यही कहकर महकायी जाती है कि संसद को तो जनता गढ़ती है। और उससे बडी संस्था दूसरी कोई कैसे हो सकती है।
यानी आखिरी लकीर संसद को ही खींचनी है और संसद के भीतर की लकीर बाहर के लोकतांत्रिक मूल्यो को खत्म करके ही बन रही है,तो फिर पहल शुरु कहां से हो। जाहिर है यहां मीडिया की निगरानी काम आ सकती है। लेकिन निगरानी का मतलब यहां संसदीय सत्ता से सीधे टकराने का होगा। टकराने से ही मीडिया को कोई घबराहट होनी नहीं चाहिये क्योकि मीडिया की मौजूदगी ने आजादी के दौर से लेकर इमरजेन्सी और शाईनिंग इंडिया तक के दौर से दो दो हाथ किये हैं। तो अब क्यों नहीं । अब भी का सवाल अब इसलिये गौण होता जा रहा है, क्योकि लोकतंत्र का पहला रास्ता ही खुद को बेचने के लिये तैयार खड़ा है। तो फिर यह लड़ाई कहां जायेगी। जाहिर है मिडिया के भीतर पत्रकारिता की शून्यता के बीच इन सवालों की गूंज कहीं ज्यादा है कि देश का मतलब अब नागरिक नहीं उपभोक्ता होना है। हक का मतलब मनुष्य नहीं है पूंजी के ढेर पर बैठा कोई भी हो सकता है। कह सकते हैं पांच सितारा होटल से लेकर पुलिस थाने तक में किसी आम आदमी से ज्यादा कहीं उस बुलडांग की चल सकती है, जिसके पीछे ताकत हो। और ताकत की मतलब अब पूंजी की सत्ता है। यहां से अब दूसरा सवाल जब नेता बनने से लेकर सत्ता तक चुनावी तंत्र का रास्ता पूंजी पर ही टिका है तो फिर आम आदमी या समाज से सरोकार की जरुरत है क्यो । यानी सौ करोड लोगो के हक के सवाल या जीने की न्यूनतम जरुरतो से जुड़कर संसदीय सत्ता गाठने की जरुरत है क्यों। जब एक तबके के लाभ मात्र से उसके जुठन के जरीये बाकियों की विकास धारा को संसद में ही परिभाषित किया जा सकता हो। यानी संसद के लिये देश का मतलब जब देश के 10 से 20 करोड़ लोगों से ज्यादा का न हो और बकायदा नीतियों के आसरे इन्हीं बीस करोड़ के लिये रेड कारपेट बिछाकर उसके नीचे दबी घास से बेफिक्र होकर कारपेट फटने पर कारपेट बदलकर उसी फटी करपेट के भरोसे देश का पेट और विकास की धारा को घेरे में लाया जा रहा हो तो फिर लोकतंत्र की नयी परिभाषा क्या होगी। क्योंकि यहां मीडिया भी रेड कारपेट तले दबी घास से ज्यादा कारपेट के फटने और उसे बदलने पर नजर टिकाये हुये है और उसकी निगरानी इसलिये भी घास को नहीं देख पायेगी क्योंकि लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाली संसद के चारों तरफ गरी घास नहीं रेड-कारपेट है और जीने की समूची परिभाषा ही रेड-कारपेट के जरीये बुनी जा रही है। यहां से तीसरा सवाल नुमाइन्गी का शुरु होता है।
पंचायत से लेकर संसद तक नुमाइन्दगी के लोकतांत्रिक तौर तरीके कितने बदल चुके है और नुमाइन्दगी का मतलब किस तरह सिर्फ खरीद-फरोख्त पर आ टिका है, उसमें लोकतंत्र के चौथे खम्भे की भूमिका क्या हो सकती है, यह भी समझना जरुरी है । जो जिस क्षेत्र का है उसे वहीं के लोगों की नुमाइन्दगी करनी चाहिये। यह कोई ब्रह्म-वाक्य नहीं है। मगर लोकतंत्र की यही समझ है और इसी आधार पर समूचे लोकतंत्र का ताना-बाना बुना गया। लेकिन इस लोकतंत्र को पूंजी ने कैसे, कब , किस तरह हर लिया यह लोकसभा के 75 तो राज्यसभा के 135 सदस्यों के जरीये समझा जा सकता है। पहले जाति और अब पूंजी के खेल ने लोकतंत्र को किस तरह निचोड़ा है, इसका अंदाजा असम से राज्यसभा में पहुंचे मनमोहन सिंह के जरीये भी समझा जा सकता है और बीते दिनो कर्नाटक से राज्यसभा में पहुंचे विजय माल्या या फिर राजस्थान से पहुंचे राम जेठमलानी समेत 11 सांसदो की कुंडली देखकर बी समझा जा सकता है। ऐसे कैसे हो सकता है कि मनमोहन सिंह के घर का जो पता असम का है, उस घर के पड़ोसी को भी जानकारी नहीं कि उनका पड़ोसी सांसद है और फिलहाल देश का प्रधानमंत्री। असल में नुमान्दगी अगर बिकी है तो उसके पीछे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाता एक लंबा दौर भी रहा है जिसमें संविधान की परिभाषा तक बदल दी गयी। और इसे बदलने वाला और कोई नहीं वही सत्ता रही जो खुद संविधान का राग जपकर बनी। गांव, किसान , आदिवासी , खेती , कश्मीर, मणिपुर, भोपाल गैस कांड, चौरासी के दंगे , 122 करोड का टी-3 टर्मिनल बनाम बिना फाटक के 345 रेल लाइन, करोड़पतियो में सवा सौ फीसदी की बढोत्तरी बनाम गरीबो में पैतीस फीसदी की बढोत्तरी। एक ही संविधान के दायरे में कैसे इतनी परिभाषा एक सरीखी हो सकती हैं। जहां लाखों आदिवासियों के जीने का हक चंद हाथों में बेच दिया जाये और संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में सिर्फ इसकी गूंज ही सुनायी दे और समेटने वाला सबकुछ समेट कर चलता बने। तो फिर मीडिया किसे जगाये। असल में इस पूरे दौर में हर मुद्दे को लेकर एक सवाल कहीं तेजी से सहमति बनाता हुआ बड़ा हुआ है कि जो सत्ता सोच रही है, और जिस पर संविधानिक संस्थानो की मुहर लगी है, अगर उस पर कोई सवाल कोई भी खड़ा करे तो वह लोकतंत्र के खिलाफ माना जा सकता है। मीडिया तो लोकतंत्र का पहरुआ है। ऐसे में जिस लोकतंत्र की बात सत्ता करती है अगर उससे इतर मीडिया कोई भी सवाल खडा करती है या फिर सत्ता के निर्णयों पर सवाल खडा करती है तो फिर मीडिया खुद को लोकतंत्र से कैसे जोड सकता है। यह संकट लोकतंत्र के हर खम्भे के सामने है।
चूंकि चारों खम्भो की सामूहिकता के बाद ही लोकतंत्र का नारा लगाया जा सकता है तो इसका एक मतलब साफ है कि किसी को भी इन परिस्थियों में टिके रहना है तो सत्ता के साथ खड़ा होना होगा और मीडिया इससे इतर अपनी भूमिका कैसे देख समझ सकता है ।
यानी लोकतंत्र की इस परिभाषा में पहले संसदीय राजनीतिक सत्ता पर लोकतंत्र के बाकि खम्भों को कुछ इस तरह आश्रित बनाया गया कि वह खुद को सत्ता भी माने और बगैर संसदीय सत्ता के ना नुकुर भी ना कर सके। इसलिये पूंजी या कॉरपोरेट सेक्टर की अपनी सत्ता है और अदालत या जांच एंजेसी की अपनी सत्ता। इसी तरह मीडिया की अपनी सत्ता है। और हर सास्थानिक सत्ता की खासियत यही है कि बाहर से वह लोकतंत्र को थामे नजर आ सकता है लेकिन अंदर से हर संस्था सत्ता बेबस है। कहा यह भी जा सकता है कि इस दौर में लोकतंत्र की परिभाषा ठीक वैसे ही बदली जैसे ग्लोबलाइजेशन आफ प्रोवर्टी में मिशेल चोसडुवस्की कहते है कि आर्थिक सर्वसत्तावाद गोलियों से नहीं आकालों से हत्या करता है। और यह नीतिगत फैसलो में इस तरह खो जाते हैं कि इन्हें कानूनन अपराधी भी नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि अपराध की इस परिभाषा मे तो इसका उल्लेख तक नहीं है। अगर मीडिया की नजरों से इस हकीकत को समझना है तो न्यूज प्रिंट की किमत से लेकर न्यूज चैनलो की कनेक्टेविटी के खर्चे और इसे पाने या दिखाने के लिये सत्ता की ठसक से भी समझा जा सकता है। जिस तरह खेती में बहुराष्ट्रीय कंपनियां घुसी और खाद से लेकर बीज तक को अपने शिकंजे में कस कर किसानों की खुदकुशी का रेडकारपेट यह कह कर बिछाया कि अब खेती का कल्याण होगा क्योंकि उसे विकसित करने खुले बाजार की पूंजी पहुंची है।
ठीक इसी तर्ज पर न्यूज प्रिंट पर से सरकारी दबदबा हटाकर हर अखबार छापने वाले के लिये एक ऐसा खांचा बनाया गया, जिसमें अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिये वह बाजार के प्रोडक्ट पर जा टिके। यानी विज्ञापन उसकी न्यूनतम जरुरत बने। और खुद की सत्ता बनाये रखते हुये विज्ञापन के लिये हर सत्ता के सामने उसे नतमस्तक होना पड़े। जिसमें सबसे ज्यादा आश्रय सरकारी हो। यही स्थिति न्यूज चैनलों की है। सफेद पूंजी से कोई चैनल तो निकाला जा सकता है लेकिन वह घर घर में दिखायी कैसे दें इसके लिये कोई नियम कायदे नहीं है। कैबल सिस्टम पर समूचे विज्ञापन की की थ्योरी सिमटी हुई है। कैबल यानी टीआरपी और टीआरपी यानी कमाई की शुरुआत। लेकिन कैबल के जरिये कनेक्टीविटी का मतलब होता क्या है। इसे समझने के लिये फिर उन ब्रांड कंपनियो से होते हुये भारत के भीतर बनते इंडिया में घुसना पडेगा। जहां सबसे बेहतर और महंगे या कहे बेस्ट शहर या राज्य का मतलब है मुंबई, अहमदाबाद, हैदराबाद, बेगलुरु, दिल्ली, महाराष्ट्र,गुजरात, अमृतसर, लुधियाना, चंडीगढ़। यानी टीआरपी इन्हीं जगहों से आ सकती है तो फिर भारत को कवर करने की जरुरत है क्या। लेकिन मसला यही खत्म नहीं होता। संसदीय सत्ता यहां सीधे कैबल सिस्टम पर काबिज है। यानी हर राज्य , हर शहर कही भी कोई भी कैबल अगर चल रहा है तो उसके पीछे कोई ना कोई राजनेता है। और किसी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को अगर देश भर में कैबल के जरीये दिखना है तो उसका सालाना खर्चा 30 से 40 करोड़ का है। लेकिन यह पूंजी सफेद नहीं काली है। इसे कोई मीडिया वाला कहां से लायेगा। यह सवाल किसी नये न्यूज चैनल वाले के सामने खड़ा हो सकता है लेकिन जो पुराने न्यूज चैनल चल रहे है उनके पास यह पूंजी किस गणित से आती है और कैसे यही बाजार उन्हें टिकाये रकता है, यह समझना कोई दूर की गोटी नहीं है क्योकि लोकतंत्र का यह समाजवादी चेहरा ही असल सत्ता है ।
ऐसे में लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाकर उसका समाजवादीकरण ही अगर चारों खम्भे कर लें तो सवाल खड़ा होगा कि इस नये लोकतंत्र की निगरानी कौन करेगा। मीडिया फिट होता नहीं। आंदोलन या संघर्ष देशद्रोही करार दिये जा सकते हैं। आम आदमी का आक्रोश गैर कानूनी ठहराया जा सकता है। तो फिर संसदीय राजनीति का कौन सा तंत्र है, जिसमें लोकतंत्र के होने की बात कही जाये। असल मुश्किल यही है कि अलग अलग खांचो में मीडिया और राजनीति या पूंजी की नयी बनती सत्ता को देखा-परखा जा रहा है। जिसमें बार बार मीडिया को लेकर सवाल खड़े होते हैं कि वह बिक रही है । खत्म हो रही है । या सरोकार खत्म हो चले हैं । अगर सभी को एकसाथ मिलाकर विश्लेषण होगा तो बात यही सामने आयेगी कि खतरे में तो लोकतंत्र है, और लोकतंत्र का चौथा खम्भा तो उसी लोकतंत्र से बंधा है जिसका आस्तित्व खत्म हो चला है।